मध्य प्रदेश में आदिवासियों को उनके वन अधिकार क्यों नहीं मिल पा रहे हैं?

मध्य प्रदेश, देश की सबसे अधिक अनुसूचित जनजाति आबादी वाला राज्य है। आमतौर पर आदिवासी समुदायों की आजीविका का प्रमुख साधन खेती-किसानी और जंगलों से मिलने वाले उत्पाद (वनोपज) होते हैं। लेकिन बीते कुछ समय से जनजातियों लिए जंगल के जरिए अपनी आजीविका को चला पाना उतना आसान नहीं रह गया है। राज्य में आदिवासी और अन्य परंपरागत वन निवासी, पीढ़ियों से वन भूमि पर खेती करते आ रहे हैं और कई साल पहले उन्हें इसका अधिकार देने वाला क़ानून – वन अधिकार अधिनियम – भी बन गया है। फिर भी ये लोग बीते कई सालों से अपने वन अधिकारों के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।

वन अधिकार अधिनियम, 2006 (एफआरए) के तहत आदिवासी और वन-निवासी समुदाय, वनों पर व्यक्तिगत अधिकार, सामुदायिक अधिकार और अन्य वन अधिकारों का दावा कर सकते हैं। इसके लिए उनका 13 दिसंबर, 2005 या उससे पहले से इस वन भूमि पर काबिज होना एकमात्र शर्त है। इसके तहत, एक आदिवासी परिवार अधिकतम 10 एकड़ जमीन के लिए दावा कर सकता है। इन दावों की जांच पहले ग्रामसभा, फिर उप-विभागीय स्तर और जिला स्तर पर की जाती है। यदि दावे को निरस्त किया जाता है तो इसका कारण दर्ज कर दावेदारों को सूचित किया जाता है ताकि वे इसके खिलाफ अपील कर सकें।

एफआरए में समस्या शुरू कहां से होती है?

साल 2008 में वन्यजीवों के संरक्षण के लिए काम करने वाले तीन संगठनों ‘वाइल्डलाइफ ट्रस्टी’, ‘नेचर कंजर्वेशन सोसाइटी’ और ‘टाइगर रिसर्च एंड कंजर्वेशन ट्रस्ट’ ने एफआरए की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाते हुए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी। इस पर सुनवाई करते हुए अदालत ने सभी राज्यों को निर्देश जारी किए कि वे उन सभी लोगों को वन भूमि से बेदखल कर दें जिनके दावे खारिज किए जा चुके हैं। इस आदेश के चलते देशभर के 20 राज्यों में 1,191,273 आदिवासी बेघर होने की कगार पर आ गए। लेकिन जनजातीय मामलों के मंत्रालय (एमओटीए) की याचिका के चलते कोर्ट ने दो सप्ताह बाद ही बेदख़ली के आदेश पर रोक लगा दी और सभी राज्यों को एफआरए के दावों की जांच दोबारा करने के निर्देश दिए।

इसी क्रम में, मध्य प्रदेश सरकार ने दिसंबर 2019 में एफआरए के तहत निरस्त किए गए दावों की समीक्षा करने और उनके निराकरण की प्रक्रिया को सरल बनने के लिए मप्र वनमित्र पोर्टल और मोबाइल एप लॉन्च किया था। यह पोर्टल आदिवासी समुदायों की सुविधा के लिए बनाया गया था लेकिन अब इससे उन्हें फ़ायदे की बजाय नुकसान ज्यादा हो रहा है। इस पोर्टल के जरिए मिलने वाले दावों में से 51 प्रतिशत दावों को ख़ारिज कर दिया गया है।

वन अधिकारों को हासिल करने का संघर्ष कई सालों से चल रहा है क्योंकि ज्यादातर आवेदन बार-बार ख़ारिज हो जाते हैं। | चित्र साभार: पिक्सहाइव

दावा ख़ारिज होने के नुकसान क्या हैं?

मंडला जिले के मोहगांव ब्लॉक के 12 गांवों में आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासी अपने वन अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। दिसंबर, 2022 में यहां के 300 से अधिक आदिवासियों ने एक अभियान चलाकर कलेक्टर को व्यक्तिगत ज्ञापन दिया है। इसमें शामिल रहे सियाराम झारिया कहते हैं कि ‘मैं जब पैदा भी नहीं हुआ था, तब से करीब आठ एकड़ की इस जमीन पर मेरा परिवार किसानी कर रहा है और यह जमीन ही मेरी एक मात्र आजीविका है।’ उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए सहदेव भवेदी कहते हैं कि ‘हमारी सरकार से मांग है कि वो हमारी जमीन का पट्टा बनाए, पट्टा नहीं होने पर किसी भी तरह की योजना का लाभ नहीं मिल पाता है। दूसरी तरफ वन विभाग की टीम भी मनमानी कार्रवाई करती है। इससे हमें काफी नुकसान होता हैं, हमें न पीएम-सीएम सम्मान निधि मिलती है और न ही खाद-बीज आदि पर सब्सिडी मिल पाती है। इतना ही नहीं हमें बिजली कनेक्शन भी नहीं मिल सका है।’

संघर्ष इतना लंबा क्यों चला?

वन अधिकारों को हासिल करने का संघर्ष कई सालों से चल रहा है क्योंकि ज्यादातर आवेदन बार-बार ख़ारिज हो जाते हैं। आवेदनों के ख़ारिज होने की समस्या कुछ इस तरह है कि बुरहानपुर जिले के सुनोद गांव में रहने वाली भिलाला जनजाति की 75 वर्षीय तुलसिया बाई वनभूमि के अधिकार के तीन बार व्यक्तिगत दावे कर चुकी हैं। वे बताती हैं कि उन्होंने पहली बार 2010 में और दूसरी बार 2013 में ऑफलाइन आवेदन, और फिर 2020 में वनमित्र पोर्टल से ऑनलाइन आवेदन किया था। ये सब रद्द किर दिए गए। 90 बरस के तुकाराम का भी यही क़िस्सा है जो अपनी आठ एकड़ जमीन के लिए बीते दस सालों से सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट रहे हैं। वे कहते हैं कि ‘साल 2013 में मेरे आवेदन को उप-मंडल स्तरीय समिति (एसडीएलसी) द्वारा निरस्त किया गया। वनमित्र पोर्टल से उम्मीद थी पर कुछ नहीं हो सका। मेरा बीस लोगों का परिवार अगर जमीन से बेदख़ल हो गया तो उनके पास कमाने का कोई साधन नहीं रह जाएगा।’ भिलाला के अलावा, बुरहानपुर में रहने वाली अन्य जनजातियों भील, बरेला, गोंड और कोरकू की भी यही स्थिति है।

वन अधिकार कानून एक आदिवासी परिवार को 10 एकड़ तक जमीन का दावा करने का अधिकार देता है।

बुरहानपुर जिले की नेपानगर तहसील की सिवले, ग्राम पंचायत की वन अधिकार समिति (वनाधिकार दावों की भौतिक सत्यापन करने वाली समिति का पहला स्तर) के सचिव अंतराम अवासे बताते हैं कि ‘पंचायत सचिव (ग्रामसभा द्वारा निर्वाचित वन अधिकार समिति के सदस्य) को तालुकदार और वन विभाग के बीट गाइड के साथ दावे की भौतिक जांच के लिए क्षेत्र का दौरा और उसका सत्यापन करना होता है, लेकिन ज्यादातर बार वे ऐसा नहीं करते हैं। ग्रामसभा को इसकी जानकारी भी नहीं देते हैं। इतना ही नहीं, वे अपनी आधिकारिक यूजर आईडी से पोर्टल पर लॉगिन कर नकली प्रस्ताव और पुराने फोटो अपलोड कर दावे खारिज कर देते हैं।’

दूसरे पक्ष पर गौर करें तो सिवले पंचायत के सचिव सुनील पटेल इन तमाम बातों से इनकार करते हुए कहते हैं कि ‘अधिकतर दावे निरस्त होने के पीछे जमीन का खेल होता है। वन अधिकार कानून एक आदिवासी परिवार को 10 एकड़ तक जमीन का दावा करने का अधिकार देता है। लेकिन आदिवासी परिवार जंगल काटकर 20 से 25 एकड़ या उसे ज्यादा की जमीन पर काबिज हो जाते हैं। फिर जब वे दावा करते हैं तो उन्हें नियम की जानकारी मिलती है। नियमों के मुताबिक उस परिवार को 10 एकड़ जमीन का अधिकार मिलने के बाद भी वे उसे छोड़ना नहीं चाहते और परिवार के दूसरे सदस्य के नाम से दावा करते हैं जो ख़ारिज कर दिया जाता है।’

आदिवासी कल्याण विभाग, बुरहानपुर के सहायक आयुक्त लखन अग्रवाल बताते हैं कि ‘2019 में सुप्रीम कोर्ट ने 5,944 खारिज (ऑफलाइन) किए गए दावों की दोबारा जांच के आदेश दिए थे। अब नए दावों के चलते पोर्टल पर इनकी संख्या बढ़कर 10,173 हो गई है। इसके बाद जिले में जून 2020 को पोर्टल बंद कर दिया गया।’

टाइटल डीड का लंबा इंतजार

लेकिन लड़ाई केवल आवेदन स्वीकार हो जाने पर खत्म नहीं हो जाती है। वन अधिकार अधिनियम के दावों की जांच के लिए ग्रामसभा, उप-विभागीय स्तर और जिला स्तर पर की जाती है। यदि दावे को निरस्त किया जाता है तो इसका कारण दर्ज कर दावेदारों को सूचित भी किया जाता है, ताकि वे इसके खिलाफ अपील कर सकें। लेकिन बीते कुछ समय से देखा जा रहा है कि प्रदेश में अक्सर दावेदारों को यह मौक़ा नहीं दिया जा रहा है यानी उन्हें दावा निरस्त होने की सूचना तक नहीं दी जा रही है। यहां तक कि जिन लोगों का नाम एफआरए के अनुसार व्यक्तिगत वन अधिकार (आईएफआर) दावा स्वीकार भी कर लिया गया है, उन्हें एक और समस्या का सामना करना पड़ रहा हैं –  उन्हें टाइटल डीड की कॉपी नहीं मिल रही है।

टाइटल डीड हासिल करना भी लोगों के लिए एक अलग संघर्ष है। टाइटल डीड एक ऐसा दस्तावेज है जो आदिवासियों या किसी भी भूमि मालिक को उसकी जमीन पर पूरा अधिकार देता है। ये अधिकार उन्हें भूमि के मनचाहे उपयोग और विभिन्न सरकारी योजनाओं के योग्य बनाते हैं। विदिशा जिले में, गंजबासौदा तहसील के लमन्या गांव में रहने वाले रतन सिंह बताते हैं कि साल 2009 में किसी सरकार कार्यक्रम में उन्हें और 28 अन्य आदिवासियों को मुख्यमंत्री से एक पत्र मिला था। वे कहते हैं कि ‘हम कृषि संबंधित सभी योजनाओं का लाभ पाने के हकदार हैं क्योंकि हमें कुछ साल पहले वन भूमि अधिकार के नाम पर एक सरकारी पत्र दिया गया था। लेकिन आज तक खेती से संबंधित किसी भी योजना का लाभ हमें नहीं मिल सका है।’

दरअसल, रतन सिंह को मुख्यमंत्री से मिलने वाला पत्र टाइटल डीड नहीं बल्कि एक शुभकामना पत्र जिसमें लिखा है कि वे जंगल के हक़दार है। यह समस्या अकेले रतन सिंह की नहीं हैं बल्कि ऐसे तमाम लोगों की है जिन्हें वन अधिकार के लिए पात्र घोषित किया गया है लेकिन टाइटल डीड की कॉपी नहीं सौंपी गई है। इस वजह से वे अधिकार हासिल करने के बाद भी कई बार न तो भूमि का उपयोग कर पाते हैं और न ही सरकारी योजनाओं के लाभ ले पाते हैं क्योंकि उन्हें पता ही नहीं होता कि कहां पर और कौन सी जमीन उन्हें आवंटित की गई है। बिना कानूनी हक के उनके लिए खेती करना मुश्किल होता जा रहा है। रतन सिंह कहते है, ‘हमें कुएं-पंप और खाद के लिए सब्सिडी नहीं मिल सकती हैं, हम प्रधानमंत्री आवास योजना के लिए आवेदन भी नहीं कर सकते हैं। इतना ही नहीं हमें तो पीएम-सीएम किसान सम्मान निधि योजना का लाभ भी नहीं मिल रहा हैं।’

रतन सिंह के पड़ोस में रहने वाली तुलसाबाई औतार और अन्य आदिवासी भी यह दोहराते दिखते हैं कि उन्हें वन अधिकार पत्र तो मिले हैं, लेकिन वे उनके किसी काम के नहीं हैं। तुलसाबाई के मुताबिक ‘इस पत्र में कहीं पर भी यह नहीं लिखा कि हमें कितनी जमीन का अधिकार दिया गया है, इसकी वजह से किसी भी योजना का लाभ नहीं मिल रहा हैं।’ वहीं, बड़वानी जिले की ग्राम पंचायत सिदड़ी ग्राम खड़क्यामूह फूलवंती बाई कहती हैं कि ‘मेरा 6 एकड़ जमीन का दावा साल 2020 में मंजूरी हो चुका हैं लेकिन मुझे अभी दावा पत्र नहीं मिला है। वे अफसोस जताते हुए कहती हैं कि ‘जब तक हमारे पास कागज नहीं होंगे, हम प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत कुआं नहीं खोद सकते या घर के लिए आवेदन नहीं कर सकते। इसकी वजह से सब कुछ अटका हुआ है।’

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एफसीआरए क्या है और समाजसेवी संस्थाओं के लिए यह महत्वपूर्ण क्यों है?

विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम या एफसीआरए भारतीय संविधान का वह अधिनियम है जो किसी व्यक्ति या संगठन या कंपनी को विदेशों से मिलने वाले सहयोग या आर्थिक सहायता को विनयमित (नियंत्रित) करता है।1 यह किसी ऐसे सहयोग को स्वीकार करने और उसका उपयोग करने से रोकता है जो राष्ट्रहित में नुक़सानदेह साबित हो सकते हैं। यह अधिनियम इससे संबंधित सभी गतिविधियों की निगरानी करता है। सरल शब्दों में, एफसीआरए भारत में विदेशी योगदान या सहायता के प्रवाह को नियंत्रित करता है। इस क़ानून को गृह मंत्रालय द्वारा लागू किया जाता है। 

एफसीआरए भारत में विदेशी योगदान या सहायता के प्रवाह को नियंत्रित करता है।

अधिनियम का उद्देश्य विदेशी संगठनों (ताक़तों) को भारत के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक विमर्श पर हावी होने देने और उन्हें प्रभावित करने से रोकना है। ऐसे कुछ प्रभावों के उदाहरण हैं: भारत में धर्मांतरण कार्यक्रम चलाने वाले धार्मिक समूह, या बड़े बांधों या परमाणु संयंत्रों के खिलाफ विरोध करने वाले भारतीय कार्यकर्ताओं को धन देने वाले संगठन। एफसीआरए कुछ खास लोगों और संस्थाओं को कोई भी विदेशी सहायता स्वीकार करने से रोकता है। इनमें मुख्यरूप से राजनीतिक दल, सरकारी कर्मचारी, प्रिंट या विज़ुअल मीडिया आउटलेट इत्यादि शामिल हैं। जिन कंपनियों को विदेशी धन प्राप्त करने की अनुमति है, वे पंजीकरण प्राप्त करने के बाद ही ऐसा कर सकती हैं।यहां यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भारतीय व्यवसायों के लिए वस्तुओं या सेवाओं के भुगतान के रूप में देश में आने वाले विदेशी धन को एफसीआरए के दायरे से बाहर रखा गया है।

एफसीआरए का इतिहास क्या है?

एफसीआरए को पहली बार, संसदीय चुनावों में विदेशी फंड के संभावित उपयोग पर हुए विवाद के बाद साल 1976 में लागू किया गया था। मूल अधिनियम में समाजसेवी संगठनों को स्वतंत्र रूप से विदेशी दान प्राप्त करने की अनुमति दी गई थी, लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी वार्षिक आय और व्यय की राशि का ब्यौर देना अनिवार्य कर दिया गया था।

साल 1984 में, समाजसेवी संस्थाओं को प्राप्त धन के प्रवाह को बेहतर तरीके से विनियमित करने के लिए इस कानून में संशोधन किया गया। इस संशोधन के बाद, संगठनों और संस्थाओं के लिए किसी भी प्रकार की विदेशी सहायता प्राप्त करने से पहले पंजीकरण कराना अनिवार्य कर दिया गया। इसके साथ ही, इस बदलाव के बाद से वे विदेशी सहायता के रूप में प्राप्त धन को किसी अन्य ग़ैर-पंजीकृत संस्था या संगठन को भी नहीं दे सकते हैं। इस संशोधन के पीछे, सरकार का यह मानना था कि कुछ समाजिक संगठनों का उपयोग विदेशी संस्थाओं द्वारा भारतीय राजनीतिक दलों को धन मुहैया कराने के लिए किया जा रहा था।

लगभग 20 साल बाद, सरकार ने मूल बिल में छूट गई कुछ कमियों को दूर करने के लिए एफसीआरए को फिर से तैयार करने की प्रक्रिया शुरू की। विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 2010 – जो अब भी प्रभावी है – मई 2011 में अपनाया गया था। नए अधिनियम में कई नए प्रावधान और नियम शामिल किए गए हैं। उदाहरण के लिए, 1976 का अधिनियम मीडिया संस्थानों की बात करते समय केवल समाचार पत्रों को ही शामिल करता है। लेकिन 2010 अधिनियम में मीडिया के नये और आधुनिक रूपों जैसे कि टेलीविज़न और इंटरनेट का भी उल्लेख किया गया है। इस अधिनियम के तहत कोई भी संगठन को अपनी कुल प्रशासनिक लागत का 50 फ़ीसद से अधिक विदेशी सहायता हासिल या उपयोग नहीं कर सकता है।

एफसीआरए भारतीय समाजसेवी संस्थाओं को कैसे प्रभावित करता है?

1984 के संशोधन के बाद एफसीआरए को अब समाजसेवी संस्थाओं पर नज़र रखने वाला वाला कानून माना जाता है। हालांकि संभव है कि संशोधन या साल 2010 के नए अधिनियम के पीछे का मुख्य उद्देश्य यह न हो, लेकिन एफसीआरए विभाग अपने कुल समय का एक बड़ा हिस्सा समाजसेवी संगठनों से निपटने में ही खर्च करता है।

एफसीआरए के मुताबिक निश्चित सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षिक, धार्मिक या सामाजिक गतिविधियों में संलग्न कोई भी संगठन विदेशी योगदान तभी स्वीकार कर सकता है, जब वह केंद्र सरकार से पंजीकरण प्रमाणपत्र प्राप्त कर ले। प्रत्येक समाजसेवी संस्था को एक एफसीआरए पंजीकरण संख्या दी जाती है। 2015-16 में, भारत में 23,802 एफसीआरए-पंजीकृत समाजसेवी संस्थाएं थीं। भारत में समाजसेवी संस्थाओं द्वारा किया जाने वाले लगभग सभी काम ऊपर बताई गई पांच श्रेणियों में से एक में आते हैं। लेकिन स्वास्थ्य, खेलकूद या विज्ञान जैसे कुछ विषयों को इस सूची में शामिल नहीं किया गया है।

इस बात को लेकर भी किसी तरह की स्पष्टता नहीं है कि एफसीआरए इन और अन्य गैर-सूचीबद्ध क्षेत्रों में काम करने वाली समाजसेवी संस्थाओं पर लागू होता है या नहीं। समाजसेवी संस्थाओं पर एफसीआरए का एक दूसरा प्रभाव यह भी है कि अब सभी समाजसेवी संस्थाओं के लिए वार्षिक रिटर्न दाखिल करना अनिवार्य कर दिया गया है। विदेशी दान प्राप्त करने की अनुमति प्राप्त किसी संगठन के लिए विदेशों से प्राप्त योगदानों के लिए अलग से खाता बनाना आवश्यक है। उन्हें एक चार्टर्ड अकाउंटेंट द्वारा प्रमाणित वार्षिक रिटर्न जमा करना होगा, जिसमें विदेशी योगदान की प्राप्ति और उद्देश्य-वार उपयोग का विवरण देना होगा। वार्षिक रिटर्न दाखिल न करने वाली संस्था या संगठन पर जुर्माना लग सकता है या पंजीकरण रद्द हो सकता है।

रैक में रखी कुछ पुरानी फाइल_एफसीआरए विदेशी फंडिंग
अब सभी समाजसेवी संस्थाओं के लिए वार्षिक रिटर्न दाखिल करना अनिवार्य कर दिया गया है। | चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

एफसीआरए प्रमाणपत्र प्राप्त करने की आवश्यक योग्यता क्या है?

एफसीआरए प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए आवश्यक मानदंड इस प्रकार हैं:

एफसीआरए प्रमाणपत्र प्राप्त करने की वास्तविक प्रक्रिया क्या है?

अकाउंटेबल हैंडबुक एफसीआरए 2010 के लेखक और ऑडिट फ़र्म, ‘संजय आदित्य एंड एसोसिट्स’ के प्रमुख संजय अग्रवाल कहते हैं कि: ‘एफसीआरए पंजीकरण प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए किसी संगठन या संस्था को fcraonline.nic.in पर उपलब्ध FC-3 फॉर्म भरकर ऑनलाइन आवेदन करना होगा। इसमें संलग्न की जाने वाली आवश्यक दस्तावेजों की सूची दी गई है और साथ ही, एक तय शुल्क भी है जिसका भुगतान ऑनलाइन ही करना होगा। इस वेबसाइट पर फॉर्म भरने के तरीक़े के बारे में एक ट्यूटोरियल भी उपलब्ध है।

इसके तुरंत बाद, एफसीआरए विभाग की स्थानीय खुफिया इकाई (एलआईयू) समाजसेवी संस्था से संपर्क करती है और एक क्षेत्रीय जांच और साक्षात्कार को आयोजित करती है। इसमें आमतौर पर 1-4 सप्ताह का समय लगता है, लेकिन कुछ मौक़ों पर 2-3 महीने भी लग सकते हैं। इसके बाद एलआईयू अपनी रिपोर्ट स्टेट ऑफिस को सौंपता है जो आगे फिर इसे विभाग को भेज देता है। इसके बाद पूरी प्रक्रिया थोड़ी धीमी हो जाती है और इसमें 8-12 महीने तक लग सकते हैं। यदि समाजसेवी संगठन के निदेशक नॉन-रेसिडेंट (अप्रवासी) हैं तो उस स्थिति में उस देश में स्थित भारतीय दूतावास के माध्यम से जांच शुरू की जाती है, जिससे प्रक्रिया में देरी हो सकती है। यदि निदेशक विदेशी (या भारतीय मूल के नहीं) हैं तो उस स्थिति में पंजीकरण को तुरंत अस्वीकार कर दिया जाएगा।

एफसीआरए विभाग ने इस प्रक्रिया को सभी के लिए स्पष्ट बनाने के लिए बहुत अधिक मेहनत की है, लेकिन समाजसेवी संस्थाएं अक्सर भ्रमित रहती हैं। उदाहरण के लिए, समाजसेवी संस्थाओं को तीन साल के ऑडिटेड खाते संलग्न करने की आवश्यकता होती है, जिसमें कम से कम 10 लाख रुपये कार्यक्रमों पर खर्च किए गये हों। समाजसेवी संस्थाएं अक्सर प्रशासनिक और वैतनिक खर्चों को कार्यक्रम में किए जाने वाले खर्च के रूप में देखती हैं लेकिन एफसीआरए ऐसा नहीं मानता है। कुछ समाजसेवी संस्थाएं, जिला मजिस्ट्रेट से अनुशंसा प्रमाणपत्र प्राप्त करने का प्रयास भी करती हैं, जबकि इसकी आवश्यकता नहीं होती। अक्सर समाजसेवी संस्थाएं विभाग द्वारा उठाए गये प्रश्नों का उत्तर देने में विफल हो जाती हैं।

एफसीआरए विभाग सभी दिशानिर्देशों को सार्वजनिक करने के पक्ष में नहीं रहता है ताकि शर्तों को नज़रअन्दाज़ ना किया जा सके। उदाहरण के लिए, पहले, समाजसेवी संस्थाएं न्यूनतम गतिविधि के दिशानिर्देशों को पूरा करने के वैकल्पिक समाधान के रूप में नकद दान को दिखा देती थी। लेकिन विभाग अब नक़द दान को नज़रअन्दाज़ कर देता है। कभी-कभी समाजसेवी संस्थाएं यह भी दावा करती हैं कि उनका गठन पंजीकरण के तीन वर्ष पहले हुआ था, लेकिन विभाग अब पंजीकरण तिथि को प्रारंभिक बिंदु मानता है। बोर्ड में रिश्तेदारों का होना, या ऐसे बोर्ड सदस्यों का होना, जो अन्य एफसीआरए-पंजीकृत संगठनों के बोर्ड में भी हों, को उचित नहीं माना जाता है, लेकिन ऐसा संभव है कि समाजसेवी संस्थाओं को इसकी जानकारी न हो।

कुल मिलाकर, यदि समाजसेवी संस्था ने वास्तव में ज़मीन पर काम किया है; इसका कोई राजनीतिक (जिसमें ऊर्जा, पर्यावरण और मानव अधिकार जैसे संवेदनशील क्षेत्र भी शामिल हैं) झुकाव नहीं है; न ही इसके बोर्ड का कोई भी सदस्य पत्रकार, राजनेता या विदेशी नागरिक है; यह किसी विदेशी संस्था की शाखा या उससे नियंत्रित संगठन नहीं है; तब ऐसी स्थिति में इस संस्था को एफसीआरए पंजीकरण मिलने में एक वर्ष का समय लगने की संभावना होती है।’

‘पूर्व अनुमति’ और ‘पूर्व अनुमोदन’ क्या है?

पूर्व अनुमति

यह समाजसेवी संस्थाओं के लिए एकमुश्त विदेशी दान प्राप्त करने का प्रावधान है। ऐसे संगठन जो तीन वर्ष से कम पुराने हैं, जिनके पास एफसीआरए पंजीकरण नहीं है, या उनका पंजीकरण रद्द या निलंबित कर दिया गया है, वे पूर्व अनुमति प्रमाणपत्र के लिए आवेदन कर सकते हैं। उन्हें अपना उद्देश्य, दानदाताओं के नाम और वे जिस दान की उम्मीद कर रहे हैं उसकी राशि के बारे में जानकारी देनी होगी। संस्थाओं के लिए दाता की ओर से समान विवरणों वाला एक प्रतिबद्धता पत्र भी जमा करना अनिवार्य होता है। यदि बीच में उद्देश्य या दाता में किसी तरह का परिवर्तन होता है तो ऐसी स्थिति में अनुमति रद्द हो जाती है और उसे फिर से प्रमाणित करना पड़ता है।

एफसीआरए प्रमाणपत्र की तुलना में पूर्व अनुमति प्राप्त करना अक्सर अधिक कठिन हो सकता है, क्योंकि इस मामले में दाता संगठन की भी जांच की जाती है। भारतीय समाजसेवी संस्था और विदेशी दाता (उदाहरण के लिए, एक सामान्य बोर्ड सदस्य या कर्मचारी) के बीच पाया गया कोई भी संबंध एक खतरे का संकेत है।

पूर्व अनुमति पर निर्णय देने में सरकार को आमतौर पर आठ से पंद्रह महीने का समय लगता है। इससे यह सुनिश्चित करने में अतिरिक्त कठिनाई होती है कि आवेदन करने से लेकर उसके स्वीकार होने तक की पूरी प्रक्रिया के दौरान दाता आर्थिक मदद देने के लिए राज़ी रहे।

पूर्व अनुमति के लिए आवेदन करने वाली समाजसेवी संस्थाओं की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है जो 2003 में 604 समाजसेवी संस्थाओं से घटकर 2017 में नौ हो गई है।

पूर्व अनुमोदन

यह एक सूची है जिस पर केंद्र सरकार एक विदेशी दाता को रख सकती है। इस सूची में शामिल लोगों को किसी भारतीय समाजसेवी संस्था को दिये जाने वाले प्रत्येक दान के लिए सरकार की मंजूरी लेनी होगी। पूर्व अनुमोदन सूची में लगभग 20 दानदाता हैं। शोध में पाया गया है कि सूची में शामिल दानदाताओं द्वारा कम संख्या में समाजसेवी संस्थाओं को फंड दिया जाता है। इसके अलावा, इन दानदाताओं द्वारा किए गए दान की मात्रा 2012-13 में 327 करोड़ रुपये से गिरकर 2016-17 में 49 करोड़ रुपये रह गई है।

भारत में समाजसेवा के लिए विदेशों से कितना धन आता है?

2015-16 में, भारतीय समाजसेवी संस्थाओं को 17,620 करोड़ रुपये का विदेशी दान मिला था। यह आंकड़ा पिछले साल के मुकाबले 16 फीसद ज्यादा था। यह आंकड़ा भारतीय राज्यों के बीच विदेशी दान के असमान वितरण को दर्शाता है। 2016-17 में प्राप्त सभी विदेशी फंडों का 59 फ़ीसद दिल्ली, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र में वितरित किया गया था2, जो कुल एफसीआरए-पंजीकृत समाजसेवी संस्थाओं का 38 फ़ीसद और देश की आबादी का केवल 16 फ़ीसद है। इसके अलावा, पिछले आठ वर्षों में औसतन भारत में एफसीआरए पंजीकृत समाजसेवी संस्थाओं में से 45 फ़ीसद संस्थाओं को एफसीआरए फ़ंडिंग नहीं मिली है। 2016-17 में, शीर्ष 20 प्राप्तकर्ता सभी समाजसेवी संस्थाओं के केवल 0.1 फ़ीसद थे, लेकिन उन्हें लगभग 15 फ़ीसद विदेशी दान प्राप्त हुआ।

जैसा कि ऊपर बताया गया है, समाजसेवी संस्थाएं पांच सूचीबद्ध उद्देश्यों में से एक के तहत विदेशी दान प्राप्त करने के लिए अपना पंजीकरण करवाती हैं। 2015 से 2017 तक के आंकड़ों से पता चलता है कि सबसे अधिक 59 फीसदी दान ‘सामाजिक’ श्रेणी के तहत लिया गया था।

एफसीआरए से जुड़े विवाद की जड़ें क्या हैं?

संजय अग्रवाल कहते हैं: ‘पहली बात तो यह है कि सभी राजनीतिक दल आम तौर पर गैर-लाभकारी संस्थाओं में विदेशी योगदान के खिलाफ हैं – यह सरकारी नीति में भी स्पष्ट है। उदाहरण के लिए, वामपंथी शासन के दौरान विदेशी मदद प्राप्त समाजसेवी संस्थाओं के लिए पश्चिम बंगाल और केरल में संवेदनशील मुद्दों पर काम करना मुश्किल हो गया था।’ कुछ लोग तर्क देते हैं कि वर्तमान सरकार लोक-लुभावन काम करना चाहती है और इसीलिए विदेशी वित्त पोषित संगठनों और एफसीआरए समाजसेवी संस्थाओं से जुड़े कार्यकर्ताओं पर कार्रवाई की जा रही है।

सरकार ने एफसीआरए से जुड़े चार काम किए:

निष्क्रिय एफसीआरए पंजीकरणों को थोकभाव में रद्द किया गया है जिसे कुछ लोग राजनीति से प्रेरित मानते हैं। इसे मीडिया ने भी खूब उछाला है जबकि यह लगभग 25 वर्षों से चल रहा है। समाजसेवी क्षेत्र भी इस बहस में शामिल हो गया है। सामाजिक क्षेत्र में भी यह धारणा है कि एफसीआरए फंडिंग में भारी गिरावट आई है जबकि वास्तव में, तथाकथित कार्रवाई के बावजूद, विदेशी फंड पिछले 3-4 वर्षों में बढ़े ही हैं।

कुल मिलाकर, नियामक और विनियमित के बीच इन मुद्दों को लेकर मुक्त और समझदारी भरी बातचीत न के बराबर हुई है। मीडिया ने भी या तो इस मुद्दे का राजनीतिकरण किया है या फिर उसका उद्देश्य इसे महज़ सनसनीख़ेज़ बनाना ही रहा है।’

इसका भारत में समाजसेवी संस्थाओं पर क्या प्रभाव पड़ा है?

2011 में विदेशी मदद हासिल करने वाली समाजसेवी संस्थाओं के लिए नए नियम निर्दिष्ट किए जाने के बाद, सरकार द्वारा कई एफसीआरए पंजीकरण रद्द कर दिए गए थे। इसके पीछे के प्राथमिक कारण के रूप में यह बताया गया कि संस्थाएं व्यय रिपोर्ट को समय-समय पर दाखिल करने जैसे नियमों का अनुपालन नहीं कर रही थीं।

हालांकि, समाजसेवी संस्थाएं इसे असहमति या विरोध पर प्रतिबंध लगाने के प्रयास के रूप में देखती हैं। मानव अधिकार संगठनों को इन रद्दीकरणों का खामियाजा भुगतना पड़ा, क्योंकि उनके काम को ‘राजनीतिक’ वर्ग में रखा गया और इसलिए वे विदेशी दान पाने के लिए योग्य नहीं थे।

2014 में, इंटेलिजेंस ब्यूरो की एक रिपोर्ट में कहा गया कि विदेशी फंड द्वारा संचालित समाजसेवी संस्थाएं भारत में ‘आर्थिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही हैं।’ रिपोर्ट में  ग्रीनपीस नाम की एक अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण समाजसेवी संस्था को ‘राष्ट्रीय आर्थिक सुरक्षा के लिए ख़तरा’ बताया गया है। इसमें कहा गया है कि यह संगठन परमाणु और कोयला बिजली संयंत्रों जैसी परियोजनाओं का विरोध करके भारत की आर्थिक प्रगति को प्रभावित कर रहा है। इसके कारण ग्रीनपीस के एफसीआरए पंजीकरण को पहले निलंबित और फिर रद्द कर दिया गया और उसे किसी भी प्रकार के विदेशी दान को प्राप्त करने से रोक दिया गया।

हाल ही में, अमेरिका-आधारित ईसाई धर्माथ संगठन और कभी भारत में सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय दानदाता रहे- कंपैशन इंटरनैशनल (सीआई) को सरकार की पूर्व अनुमोदान सूची में रखा गया था। अब उन्हें भारत में किसी भी प्रकार के दान के लिए अनुमति लेनी होगी। 2017 तक सीआई द्वारा किए गए दान में लगातार गिरावट देखी गई और उसके बाद सीआई ने भारत में अपने संचालन को पूरी तरह से बंद कर दिया।

अगले कुछ वर्षों में एफसीआरए को लेकर किस तरह का माहौल रहेगा?

संजय अग्रवाल कहते हैं कि ‘अगले कुछ वर्षों में व्यापक सरकारी नीतियों में बदलाव की संभावना नहीं है। उनका प्रभाव पहले ही कुछ हद तक समाजसेवी संस्थाओं पर पड़ चुका है। कम से मध्यम समयावधि में, आंशिक रूप से विनिमय दर में आने वाले बदलाव के कारण विदेशी फ़ंडिंग में वृद्धि आएगी और यह स्थिर गति से बढ़ता रहेगा। हालांकि, विदेशी फ़ंडिंग का एक हिस्सा कम मीडिया एक्टिविज्म के साथ सरल और साधारण उद्देश्यों के लिए काम करेगा ताकि अत्यधिक जांच से बचा जा सके। लंबे समय में, ऐसी संभावना है कि विदेशी अंशदान अप्रासंगिक हो जाए क्योंकि संभव है कि स्थानीय या सीएसआर फ़ंडिंग इनकी जगह ले ले।’

फुटनोट:

1. फ़ॉरेन हॉस्पिटैलिटी (विदेशी सहयोग) विदेशी योगदान का एक वैकल्पिक रूप है, जिसमें एक विदेशी संस्था किसी व्यक्ति की मेजबानी करती है। साथ ही, उनकी यात्रा, लॉज, चिकित्सा उपचार आदि के खर्च का वहन करती है। यह किसी विधायिका के सदस्यों, न्यायाधीशों या जैसे लोगों पर लागू होता है और संभव है कि समाजसेवी संगठनों के लिए प्रासंगिक न हो।
2. इसका मुख्य कारण यह है कि कई दान एजेंसियां दिल्ली, चेन्नई, बंगलुरु और मुंबई में स्थित हैं। ये अन्य राज्यों में फंड को फिर से आवंटित करती हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

लेख में दिए गए सभी आंकड़े अशोका यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सोशल इम्पैक्ट एंड फिलैंथ्रोपी (सीएसआईपी) द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ‘एस्टिमेटिंग फ़िलंथ्रोपिक कैपिटल इन इंडिया‘ से लिए गए है।

इस लेख में साहिल केजरीवाल ने भी अपना योगदान दिया है।

सागर को गागर

चित्रण में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर जमीनी समझ और सलाहकारों का ज्ञान कई बार मेल नहीं खाते हैं। एक वर्ष का काम का अनुभव वाला हॉर्वर्ड का एक स्नातक, जीवन भर के अनुभव और स्थानीय ज्ञान वाले किसानों को जैविक खेती के बारे में पढ़ाते हुए_जलवायु
चित्र साभार: शौर्य दुबे

परिवार नियोजन भी लैंगिक समानता का एक ज़रिया है

नरेश पुरुषों को नसबंदी के बारे में बताते हुए।
पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे में पिता की भूमिकाएं बहुत सीमित होती हैं। | चित्र साभार: नरेश कुमार

मेरी शादी को दस साल से ज़्यादा हो चुके हैं और अब मेरी दो बेटियां भी हैं। बावजूद इसके हम दोनों पति-पत्नी पर, परिवार और समाज की तरफ से एक बेटा पैदा करने का दबाव लगातार बना रहता था। स्वाभाविक है कि इस दबाव का ज़्यादा असर मेरी पत्नी पर पड़ता रहा है क्योंकि आज भी हमारे समाज में बेटे या बेटी के जन्म की जिम्मेदारी महिलाओं की मानी जाती है। पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे में पिता की भूमिकाएं बहुत सीमित होती हैं। यहां तक कि जन्म के बाद बच्चे के पालन-पोषण और परिवार नियोजन जैसे मामलों में भी यह नदारद ही रहती है।

लम्बे समय से, डेवलपमेंट सेक्टर से जुड़े होने के कारण, और ब्रेकथ्रू संस्था के साथ लैंगिक समानता पर काम करने की वजह से लैंगिक समीकरणों पर मेरी समझ अलग रही है। मेरे भीतर लैंगिक भेदभाव को लेकर शुरू से ही एक प्रकार की जागरूकता थी। इसलिए दूसरी बेटी के जन्म के समय ही मैं नसबंदी करवाना चाहता था।

हमारे समाज में पुरुष नसबंदी से जुड़ी मानसिकता कैसी है, इसका अंदाज़ा आपातकाल के समय पुरुषों की जबरन की जाने वाली नसबंदी के क़िस्सों और पुरुष समूहों में इसे लेकर ‘मर्दों नामर्द बनो’ जैसे फ़िकरों का इस्तेमाल कर आपस में की जाने वाली चुहल से भी मिलता है। नतीजतन समाज में, विशेष रूप से पुरुषों के बीच इसे लेकर कलंक का भाव होता है। मैं यह बात इसलिए कह सकता हूं क्योंकि मैं आज भी मेरे हमउम्र दोस्तों में नसबंदी को लेकर झिझक देखता हूं।

हालांकि सरकारें समय-समय पर पुरुष नसबंदी को बढ़ावा देने के लिए तमाम तरह के अभियानों का आयोजन करती रही हैं लेकिन परिवार नियोजन का यह तरीक़ा अब भी उतना लोकप्रिय नहीं है। इस असफलता के पीछे समाज का पितृसत्तात्मक ढांचा और नसबंदी को लेकर लोगों में व्याप्त कलंक और रूढ़िवादिता का भाव ही है।

नसबंदी से जुड़े इसी भाव के कारण मुझे नसबंदी करवाने के अपने फैसले पर शुरुआत में पत्नी का पूरा सहयोग नहीं मिला। कॉन्डोम की असफलता के कारण डेढ़ साल पहले मेरी पत्नी तीसरी बार गर्भवती हो गई थी। लेकिन अपनी दूसरी बेटी के जन्म के बाद ही हमने और बच्चे न करने का फ़ैसला ले लिया था। इसलिए भारी मन से हमने इस अनचाहे गर्भ का चिकित्सीय प्रबंधन किया। यह अनुभव हम दोनों के लिए बहुत दर्दनाक था। इस घटना के बाद एक बार फिर मैंने नसबंदी करवाने की बात अपनी पत्नी के सामने रखी और इस बार उन्हें राज़ी कर लिया।

मुझे अपने नज़दीकी डिस्पेंसरी पर नसबंदी के लिए ‘एम्स’ में आयोजित होने वाले तीन दिवसीय कैम्प की जानकारी मिली। रजिस्ट्रेशन के बाद अपने एरिया की आशा वर्कर के साथ मैं अगले दिन एम्स पहुंच गया। रास्ते में उन्होंने मुझे बताया कि उनके पांच साल के करियर में मैं उनका तीसरा केस हूं। इस जानकारी के बावजूद मुझे लग रहा था कि कैंप में मुझे लम्बी क़तार में खड़े होकर घंटों इंतज़ार करना पड़ेगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। पूरे अस्पताल में मेरे सिवाय वहां कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था। मुझे अपनी बहादुरी पर नाज़ हो रहा था और मैं ख़ुश भी था कि मुझे किसी लम्बी क़तार में नहीं लगना पड़ा। वहीं, दूसरी तरफ़ मुझे यह देख हैरानी भी हो रही थी कि देश के सबसे बड़े अस्पताल में राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किए गए इस तीन दिवसीय नसबंदी कैम्प में मेरे सिवाय एक भी पुरुष नहीं था। अस्पताल के कर्मचारी वहां किसी और वजह से आए मर्दों को नसबंदी करवाने के लिए मनाने का प्रयास कर रहे थे।

जरूरी औपचारिकताओं के बाद मेरी सर्जरी की प्रक्रिया हुई। 30 मिनट की इस प्रक्रिया में मुझे न तो दर्द का अनुभव हुआ और ना ही किसी विशेष देखभाल की ज़रूरत पड़ी। अगले कुछ घंटे बाद मैं अपने घर पर था।

हालांकि, मैंने अपनी बस एक जिम्मेदारी पूरी की (जिसका फैसला लेने में मुझे 3-4 साल लग गए),यह किसी भी नज़रिए से गर्व का विषय नहीं है। लेकिन जब हम खुद को अपने आसपास के संघर्ष, टैबू, पितृसत्ता, मर्दानगी के मानकों से हट कर कुछ नई पहल करते देखते हैं तो अपने लिए ख़ुशी होती है। मुझे अच्छा लगता है जब स्वास्थ्य विभाग के लोग मुझे अपने अनुभव साझा करने और लोगों को प्रेरित करने के लिए बुलाते हैं। मैं भी इन मीटिंग्स में इस उम्मीद से जाता हूं कि मेरे अनुभव के कारण पुरुष नसबंदी को लेकर लोगों की समझ बदले, अपने अनुभव साझा करने के साथ ही, मैं सामाजिक मान्यताओं पर भी लोगों से बातचीत करता हूं।

नरेश कुमार साल 2014 से ब्रेकथ्रू के साथ काम कर रहे हैं। वे लैंगिक न्याय, बराबरी और इससे जुड़े साझे मुद्दों पर काम करते हैं। नरेश ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से सोशल वर्क में मास्टर्स किया है। 

अधिक जानें: इस लेख के माध्यम से बच्चों की देखभाल में पिता की भूमिका के बारे में जानें।

कैसे समाजसेवी संगठन अपनी कहानी सकारात्मकता से कह सकते हैं? 

पिछले 30 वर्षों से विकलांगता पर काम कर रहे एक संगठन के रूप में, लतिका खूबियों पर ज़ोर देने वाले नज़रिए (स्ट्रेंथ-बेस्ड अप्रोच) के साथ काम करती है: जब हम विकलांग बच्चों और उनके परिवारों से मिलते हैं तो हम इस बात पर ध्यान केंद्रित करते हैं कि उनके मामले में सकारात्मक पहलू क्या हैं। फिर उस पर काम करते हैं। हम कभी भी समस्या के साथ आगे नहीं बढ़ते हैं।

इसका मतलब यह नहीं है कि हम समस्या को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। यहां पर हम इस बात का दिखावा नहीं कर रहे हैं कि बच्चे की समस्या को सकारात्मक रवैये और खिलखिलाती मुस्कान की मदद से दूर किया जा सकता है। दुनिया लोगों को कई तरह से अक्षम महसूस करवाती है और इससे निपटने और परिवारों के आगे बढ़ने के तरीके खोजने में मदद करने के लिए हमारी टीम की ढेरी सारी रचनात्मकता और कौशल लगता है। लेकिन हम ताक़त पर ज़ोर देते हुए कोशिश करना शुरू करते हैं न कि कमियों या चुनौतियों के साथ। 

तो फिर, जब हम अपने काम को फंडर्स या आम जनता के सामने पेश करते हैं तो हम आगे बढ़ने के लिए सबसे बुरे नतीजों की संभावना (वर्स्ट केस सिनारियो) का सहारा क्यों लेते हैं? आपने कितनी बार ऐसे वाक्य पढ़े या लिखे हैं: ‘ऐसी दुनिया में बड़े होने की कल्पना कीजिए, जहां अवसरों की कमी है और आपको उनसे वंचित किया जाता है, इसलिए नहीं क्योंकि आप योग्य नहीं है बल्कि इसलिए क्यों आप एक लड़की के रूप में पैदा हुई हैं!’ हमारी नज़र हमेशा ही इस तरह के जुमलों पर पड़ती है और हम स्वयं भी ऐसी कुछ बातें लिखने के दोषी भी हैं। दरअसल, दुख, आक्रोश और नैतिक श्रेष्ठता की भावना विकास सेक्टर में होने वाले संवादों की पहचान हैं।

एक सेक्टर के रूप में, हमें समस्या बताने के साथ आगे बढ़ने के लिए तैयार किया जाता है। हमारे दानदाता हमें प्रस्तावों और पिच के लिए प्रदान किए गए प्रारूपों में, इस दृष्टिकोण को विकसित करने के लिए हमें प्रशिक्षित करते हैं; फंडरेजिंग के विशेषज्ञ भी ऐसा ही करते हैं। उनकी सलाह होती है कि: अपनी ऑडियंस को समस्या के बारे में जितना सम्भव हो उतना नाटकीय ढंग से बताएं, उसके बाद उन्हें बताएं कि क्यों आप ही इसे ठीक करने वाले हैं।

और, वे ग़लत नहीं हैं। समस्या पर बात करना बहुत प्रभावशाली होता है। मूल मुद्दे पर उनका बहुत अधिक ज़ोर देना यह सुनिश्चित करता है कि समस्या वही है जो हमें बाद में भी याद रह जाएगा। लेकिन ऐसा करना जहां कम समय के लिए कारगर हो सकता है, वहीं हमारे उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करता है। अपनी कहानियों को स्पष्ट, काले और सफेद शब्दों में तैयार करके, हम उन लोगों के साहस और क्षमताओं को नजरअंदाज कर देते हैं जिनके साथ हम काम करते हैं। ऐसा करके हम इस बात से भी इनकार कर देते हैं कि पहले से ही कितना कुछ बदल चुका है जिसमें बहुत कुछ अच्छा भी है।

विकल्प

अमेरिका स्थित सामाजिक उद्यमी और लेखक ट्रैबियन शॉर्टर्स लोगों का परिचय उनकी सीमाओं और समस्याओं के आधार पर देने से इनकार करते हैं। लोगों की अक्षमताओं की बजाय उनकी आकांक्षाओं और योगदान पर ध्यान केंद्रित करते हुए काम करने के अपने नजरिए को वे ‘असेट फ़्रेमिंग’ कहते हैं। शॉर्टर्स कहते हैं कि ‘वास्तविकता यही है, हम सभी को एक ही चीज़ चाहिए। और, दुखभरी कहानियां और कलंक के भाव हमें एक-दूसरे की उपयोगिता देखने से रोक देते हैं। सामाजिक कार्य करने वालों की जिम्मेदारी है कि इस भावना को मजबूत न होने दें।’ वे आगे कहते हैं कि ‘हमें एक ऐसे नरेटिव की जरूरत है जो कहता है कि वास्तव में हम सभी के साझा हित हैं।’

अब, इस बात पर गौर करें कि कैसे 2016 में विकलांगजन सशक्तीकरण विभाग (विकलांग व्यक्तियों के सशक्तिकरण विभाग) का आधिकारिक नाम बदलकर, दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग कर दिया गया। यहां पर विकलांग शब्द को दिव्यांग (दिव्य) से बदल दिया गया। दिव्यांग शब्द के इस्तेमाल के खिलाफ मद्रास उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर (जिसे रद्द कर दिया गया) की गई थी क्योंकि इस मुद्दे पर होने वाली चर्चाओं में विकलांगों को शामिल नहीं किया गया था, और वे नहीं चाहते कि उन्हें किसी ‘दिव्य व्यक्ति’ के रूप में देखा जाए।

लेकिन, सवार यह है कि सशक्तीकरण की शुरुआत उन्हें ‘दिव्य’ कह कर क्यों की जानी चाहिए? ऐसा करना विकलांगों को एक उंचा स्थान तो देता है लेकिन साथ ही उन्हें उन अधिकारों और विशेषाधिकारों से बाहर कर देता है जिन्हें सक्षम शरीर वाले या सामान्य बुद्धिक्षमता लोग अपना अधिकार मानते हैं। ‘साझा हितों’ से शॉर्टर्स का तात्पर्य शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और सार्वजनिक स्थानों तक बराबर पहुंच से है – वर्तमान में ये सभी विकलांगों की पहुंच से बाहर हैं।

उन्हें ‘दिव्य’ की उपाधि देने की बजाय, इस बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए कि कैसे हमारे आसपास का माहौल उन्हें हमसे अलग करता है, हमें इन बाधाओं को दूर करने पर काम करना चाहिए। नजरिए में यह बदलाव, नई समझ देता है और हम अपनी योजना, फंडिंग और उद्देश्य पर भरोसा हासिल करने के तरीके बदलते हैं।

भूरे रंग की पृष्ठभूमि पर दो काले माइक_सामाजिक संस्था संचार
एक क्षेत्र के रूप में, हमें समस्या कथन के साथ आगे बढ़ने के लिए तैयार किया गया है। | चित्र साभार: पेक्सेल्स

हम समस्याओं के साथ आगे क्यों बढ़ते हैं?

समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करने की अपनी आदत को तोड़ने पर विचार करते समय हमें यह भी समझने का प्रयास करना चाहिए कि हम में से अधिकांश लोगों को एक तबके को कमतर बताने वाली यह सोच (डेफिसिट थिंकिंग) क्यों पसंद है।

1. तथ्यों की बजाय धारणाओं को प्राथमिकता: फंड रेज करने और जागरूकता बनाने के लिए नकारात्मक चीजों पर ध्यान केंद्रित करना आसान होता है – क्योंकि हमें ऐसा करने का ही प्रशिक्षण दिया गया है। लेकिन जब हम ऐसा करते हैं, तब हम यह देखने में असफल हो जाते हैं कि वह कौन सी चीज है जो कारगर साबित हो रही है। उदाहरण के लिए, इस तथ्य को लें कि भारत में जीवन प्रत्याशा और बाल मृत्यु दर में सुधार हुआ है।

2. हमें अपने हिस्से की ही मदद मिल पाएगी: चाहे हमारा कारण कुछ भी हो, हम यह मानते हैं कि पैसों और ध्यान के लिए किसी दूसरे समाजसेवी संगठन से हमारी प्रतिस्पर्धा नहीं है। वास्तव में, ऐसी अस्पष्ट तस्वीर बनाने से हमें दानदाताओं, नीति निर्माताओं और आम लोगों के बीच खड़े होने की संभावना अधिक दिखाई पड़ती है।

3. तात्कालिकता: यह हमने विज्ञापन उद्योग से सीखा है— अपने ग्राहकों को इस बात का अहसास दिलाएं कि यदि उन्होंने अभी इसे नहीं ख़रीदा तो कल यह उपलब्ध नहीं रहेगा। संदेश जितना अधिक निराशाजनक होगा, हमारी ऑडियंस द्वारा प्रतिक्रिया देने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।

कहानी में बदलाव

क्या हम अपने समस्या-केंद्रित दृष्टिकोण को भूल सकते हैं? शॉर्टर्स के पास कमतर समझने (डेफिसिट थिंकिंग) से खूबियों पर ज़ोर देने (असेट फ्रेमिंग) की तरफ जाने के लिए एक सरल तीन-सूत्रीय योजना है:

1. यह आपके कहने के बारे में नहीं बल्कि आपके सोचने के तरीक़े से संबंधित है

क्या आप लोगों की क्षमता, उनकी आकांक्षाओं और उनके सपनों को ध्यान में रखते हुए, उन्हें अपने परिवार के किसी बच्चे की तरह देखते हैं? इस बात की कल्पना करना भी महत्वपूर्ण है कि एक बार समस्याओं के हल निकल जाने के बाद दुनिया कैसी हो जाएगी और उन समाधानों के बारे में सोचना भी ज़रूरी है जिससे ऐसा करना सम्भव हो सकेगा। जब कोई विकलांग बच्चा हमारे शुरुआती प्रोग्राम सेंटर ‘नन्हे’ में आता है, तब हम पहले दिन से ही उसे दोस्तों, स्कूल बैग, प्रसन्न माता-पिता के साथ देखते हैं। हम किसी अवास्तविक ‘उपचार’ की तलाश में नहीं है बल्कि एक ऐसे बच्चे की तलाश कर रहे हैं जो अपनी दुनिया में खुशी से रह रहा है, और फिर हम इसे वास्तविक बनाने के लिए काम करते हैं।

2. समस्याओं के साथ शुरुआत न करें

लोगों के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करने की आवश्यकता बताना जरूरी है, लेकिन हमारी शुरुआत यहां से नहीं होती है। उदाहरण के लिए, एक बस के लिए फंडरेजिंग करते समय हमने इस बात से अपनी शुरुआत की कि आवागमन की सुविधा की कमी के कारण भारत में बहुत सारे विकलांग बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। इसकी एसेंट-फ़्रेमिंग करने के बाद, हमने इसे इस प्रकार लिखा: ‘विकलांग बच्चों को स्कूल से बहुत प्यार है! दूसरे बच्चों की तरह ही, वे भी दोस्त बनाना, पढ़ना सीखना और खेलना चाहते हैं। लेकिन उनमें से कई बच्चे नियमित रूप से स्कूल नहीं जा सकते क्योंकि परिवहन एक बहुत बड़ी चुनौती है।’

3. लेकिन समस्याओं को नज़रअंदाज़ भी न करें

अगर हम लोगों के सपनों के रास्ते में आने वाली बाधाओं के बारे में ध्यानपूर्वक नहीं सोचते हैं तो हम उनके सामने आने वाली वास्तविक प्रणालीगत चुनौतियों को मौक़ा दे देते हैं। विकलांग बच्चे नियमित रूप से मुख्यधारा के स्कूल में असफल इसलिए नहीं होते क्योंकि वे बेवक़ूफ़ हैं। बल्कि वे इसलिए असफल हो जाते हैं क्योंकि इन स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक उन तरीक़ों से पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं जिनसे इन बच्चों को मदद मिलती है। यह अस्तित्व से नहीं बल्कि प्रणाली से जुड़ी समस्या है। एक बार जब हम प्रणाली में इन समस्याओं की पहचान कर लेंगे, तब हम इसे कम करने की दिशा में काम कर सकते हैं।

संकीर्ण से विस्तृत दृष्टिकोण की ओर

इसलिए बजाय यह कहने के कि ‘ऐसी दुनिया में बड़े होने की कल्पना करें जहां अवसरों की कमी है और आप उससे वंचित हैं, इसलिए नहीं क्योंकि आप काबिल नहीं है बल्कि इसलिए क्योंकि आपका जन्म एक लड़की के रूप में हुआ है!’ हम क्यों न इसे तरह कहें कि “एक कम-आय वाले देश में, 89 फ़ीसद लड़कियां प्राथमिक विद्यालय में नामांकित हैं और ऐसा माना जाता है कि लड़कियों को शिक्षित करना ‘दुनिया के अब तक के सबसे बेहतरीन विचारों में से एक है’। लेकिन प्राथमिक विद्यालय की पढ़ाई पूरी करने और हायर सेकंडरी तथा कॉलेज में नामांकन के मामले में लड़के अब भी लड़कियों से आगे हैं। और, बोर्डरूम में भी लड़कियां अल्पसंख्यक ही बनी हुई हैं। आपके सहयोग से ये लड़कियां अपनी शिक्षा पूरी कर सकती हैं और दुनिया में अपना सही स्थान हासिल कर सकती हैं।”

इस तरह की भाषा का प्रयोग कर, हम समस्या को इस तरह से परिभाषित कर रहे हैं, जो हमारी सामूहिक प्रगति को स्वीकार करने के साथ आज भी मौजूद रह गई समस्याओं के लिए व्यावहारिक समाधान भी सुझाता है।

लेकिन असेट फ़्रेमिंग का संबंध हमारे सोचने के तरीक़े को बदलने से है, न कि हमारे बोलने और लिखने के तरीक़े से, और फिर शब्दों के अपने मायने होते हैं।

लतिका में, कमतर बताने वाली भाषा को खोजते हुए हम अपने ब्रोशर, प्रस्तावों, प्रशिक्षण सामग्री और वेबसाइट का सावधानीपूर्वक अध्ययन कर रहे हैं। यह स्वीकार करना शर्मनाक है कि अपनी इन सामग्रियों में हमें इससे संबंधित कितना कुछ मिला है। एक उदाहरण हम यहां दे रहे हैं: ‘अपनी इच्छाओं और ज़रूरतों को व्यक्त करने में होने वाली कठिनाई, उत्तेजना की स्थिति में संवेदनशीलता और पूर्वानुमान की आवश्यकता से ऑटिस्टिक बच्चों को ऐसी स्थिति में अतिउत्साही महसूस करवा सकती है और परिणामस्वरूप वे मंद हो सकते हैं, जिसे नियंत्रित करना उनके लिए कठिन होता है।” इस पर लंबी और अनगिनत चर्चाओं के बाद, हमें अहसास हुआ कि हम एक महत्वपूर्ण सच से चूक रहे थे। ऑटिस्टिक बच्चों के प्रति हमारी प्रतिक्रियाएं स्वीकार्य व्यवहार पर हमारे अपने विचारों से निर्धारित होती हैं, फिर भी कई मायनों में, ऑटिस्टिक बच्चे – ‘स्वीकार्यता’ को लेकर कम चिंतित होते हैं- हमें बहुत कुछ सिखाते हैं। असेट फ़्रेमिंग की मदद से हम यह जान पाए कि हमारे पास सीखने के लिए कितना कुछ बचा है।

आज इसी कथन को मैं इस प्रकार लिखती हूं: ‘ऑटिस्टिक बच्चे अलग और रचनात्मक तरीक़ों से संवाद करते हैं, जिसमें अराजकता और संवेदी बोझ के प्रति तीव्र नकारात्मक प्रतिक्रियाएं शामिल हैं, जिनके प्रति लोगों ने खुद को असंवेदनशील बना लिया है। कई मायनों में, वे खदान में कनारी पक्षी की तरह हैं।’

आइए, एक अच्छे जासूसों की तरह, हम अपनी वेबसाइट, प्रस्तावों, प्रशिक्षण सामग्रियों और दस्तावेज़ों पर और सबसे ज्यादा अपने मन की नकारात्मकता का पता लगाएं। इस प्रक्रिया में हम जो भी सीखते हैं, उसका उपयोग अपनी स्वयं की धारणाओं और निष्कर्षों पर सवाल उठाने के लिए करें। हमें अपने कारणों को इतना गंभीर दिखाना बंद करना होगा जिससे कि लोग निराश हो जाएं और कार्रवाई करने से ही इनकार कर दें।

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बीते तीन महीनों से मणिपुर में हो रही हिंसा के प्रभाव की कहानी

मणिपुर पिछले तीन महीनों से हिंसा की आग में जल रहा है और आज तक भी स्थिति नियंत्रण में नहीं आ सकी है। इस साल मई महीने की शुरुआत से ही राज्य में हिंसा, विस्थापन, निर्दोष मौतों के साथ आजीविका और संपत्ति को हो रहे नुक़सान ने यहां पर स्थिति को असामान्य बना दिया है। इस आलेख में हम उन संसाधनों और स्त्रोतों की जानकारी दे रहे हैं जिनकी मदद से आपको यह समझने में मदद मिलेगी कि कई महीनों से लगातार चल रहा यह संघर्ष यहां के लोगों के जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रहा है और आप उनकी मदद के लिए क्या कर सकते हैं।

मणिपुर में हो रही हिंसा से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें

मणिपुर की राजधानी इंफाल के क़रीब, चुराचंदपुर शहर में मैतेई समुदाय और कुकी जनजाति के बीच 3 मई, 2023 को हिंसा भड़क उठी थी। इन झड़पों का तात्कालिक कारण गैर-आदिवासी मैतेई लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने की उनकी मांग बताई गई है। मैतेई और कुकी जनजाति के बीच के संबंधों का एक जटिल इतिहास रहा है जो कभी भी मधुर नहीं रहे हैं। जहां एक ओर मैतेई समुदाय के लोग कुकी जनजाति के लोगों को बाहरी और नशीले पदार्थों का तस्कर मानते हैं, वहीं कुकी जनजाति ख़ुद को मैतेइयों द्वारा सताया हुआ मानता है। उनका कहना है कि राज्य में राजनीतिक और प्रशासनिक पदों पर भी उनका ही वर्चस्व है।

पिछले कुछ वर्षों से, दोनों समुदायों के बीच संघर्ष के कई मामले लगातार सामने आते रहे हैं। फ़िलहाल, पूरे राज्य में फैल चुके दंगों और हिंसा के मौजूदा दौर का लोगों के स्वास्थ्य, आजीविका और शिक्षा पर गंभीर प्रभाव पड़ता दिख रहा है।

हिंसा लोगों के जीवन को कैसे प्रभावित करती है?

1. स्वास्थ्य

केंद्र सरकार का दावा है कि राज्य में पीड़ितों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त क्षमता और सुविधाएं उपलब्ध हैं लेकिन कई मीडिया रिपोर्टों में डॉक्टरों और दवाओं की कमी होने की बात बार-बार दोहराई गई है। मणिपुर की स्वास्थ्य प्रणाली में संसाधनों की कमी है। यह अब भी कोविड-19 के असर से निकलने के लिए संघर्षरत है; इसके अलावा समुदायों के बीच बढ़े अविश्वास से लोगों ने ‘अपने लोगों’ के अलावा किसी दूसरे से किसी भी तरह की चिकित्सीय मदद लेना बंद कर दिया है।

इसके अलावा, राज्य की अधिकांश स्वास्थ्य सेवाएं घाटी में स्थित हैं, जिसने पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले कुकी समुदाय के लोगों को इस समय खासतौर पर असुरक्षित कर दिया है। समाजसेवी संस्थाओं द्वारा पहुंचाई जा रही राहत अब बहुत सारे लोगों के लिए एकमात्र समाधान बन गई है, लेकिन इन राहत समूहों को सरकार से सहयोग नहीं मिल पा रहा है। दूसरी तरफ लोगों की मदद करने के लिए, इन राहत कार्यकर्ताओं द्वारा भीड़ की हिंसा और नाकेबंदी से निपटने के भी कई मामले सामने आये हैं। इससे महिलाएं और बच्चे गंभीर रूप से प्रभावित हुए हैं। एक सरकारी अनुमान के मुताबिक “24 जुलाई, 2023 तक, 319 गर्भवती महिलाओं को प्रसवपूर्व जरूरी देखभाल दी गई। इनमें 19 महिलाएं उच्च जोखिम श्रेणी में शामिल थीं, जबकि राज्य में मौजूदा संकट की शुरुआत के बाद से 139 गर्भवती महिलाओं ने बच्चों को जन्म दिया है।”

हालांकि जिस बात का उल्लेख नहीं किया जा रहा है, वह है – महिलाओं और नई मांओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाला हिंसा और तनाव का प्रभाव। अनगिनत महिलाओं ने अपने घरों और अपनों को खो दिया है। वहीं, एक बड़ी संख्या उन महिलाओं की भी है जिन्हें शारीरिक और यौन हिंसा का शिकार होना पड़ा है। असम टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, ‘महिलाओं को विभिन्न स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिनमें स्तनपान कराने के लिए दूध पैदा करने की क्षमता में कमी, स्वच्छता और गोपनीयता की कमी, वृद्ध महिलाओं में गर्मी लगना और अनिद्रा शामिल हैं।

मणिपुर के एक राहत शिविर में मौजूद एक वॉलंटियर अपने अनुभव से कहते हैं कि ‘स्तनपान करवाने वाली ज़्यादातर महिलाओं को स्तनपान के लिए दूध की कमी के अनुभव से गुजरना पड़ा है, संभव है कि बिना उपयुक्त भोजन और अपने घर से नज़दीकी सुरक्षित स्थान तक पहुंचने के लिए की जाने वाली तनावपूर्ण और लंबी यात्रा इसके पीछे का मूल कारण हो।’

इस हिंसा का लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर दीर्घ-कालिक प्रभाव पड़ने वाला है। द नेशनल हेराल्ड ने एक राजनेता एनके प्रेमचंद्रन के हवाले से कहा, “बच्चे इन शिविरों में बड़े हो रहे हैं। वे लगभग तीन महीने से इन शिविरों में हैं। उन्हें लंबे समय तक अपने आस-पास भोजन की कमी और गंदगी से भरा माहौल याद रह जाएगा। छात्रों की स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई छूट रही है और वे अपनी कक्षाओं में उपस्थित नहीं हो पा रहे हैं। इन शिविरों में, शौचालयों की संख्या भी बहुत कम है। चिकित्सा सहायता भी नहीं है। इन सभी शिविरों में चिकित्सीय और मनोवैज्ञानिक मदद की आवश्यकता होगी। लगभग खत्म होने की कगार पर पहुंच चुके जीवन के इस दुखद अनुभव का असर लोगों पर लंबे समय तक रहेगा।

2. आजीविका

मणिपुर में आजीविका का प्राथमिक स्रोत कृषि है। जहां घाटी में रहने वाले समुदाय स्थायी रूप से खेती करते हैं, वहीं पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले लोग स्थानांतरित खेती करते हैं जो उनकी भौगोलिक स्थिति के अनुकूल है। इन पहाड़ी इलाक़ों में घाटी की तुलना में कम उपज होती है, इसलिए यहां बसने वाले लोग घाटियों में होने वाली पर्याप्त से अधिक उपज पर आश्रित होते हैं। ऐसा होना घाटी को आर्थिक व्यापार का केंद्र बनाता है। दंगों के शुरू होने के बाद से यहां के लोगों की आजीविका पर लगातार हमले हुए हैं जिनमें खेती वाली ज़मीन पर आग लगाना और पशुधन की हत्या जैसे कृत्य शामिल हैं।

घाटी में होने वाली खेती पर हिंसा के प्रभाव का विवरण देने वाली एक रिपोर्ट में द क्विंट ने लिखा है कि ‘इस संघर्ष ने राज्य में कृषि प्रथाओं को गंभीर रूप से प्रभावित किया है, जिससे उन्हें न केवल फसल बोने से रोका जा रहा है बल्कि सिंचाई और भंडारण सुविधा प्रणाली को भी संघर्ष ने तहस-नहस कर दिया है। शांति के दिनों में, खेती का काम आमतौर पर जून के पहले सप्ताह में शुरू हो जाता है, लेकिन अगर कुछ मामलों में देरी होती है तो यह महीने के आख़िरी में शुरू हो जाता है। लेकिन इस बार, 8 जुलाई के आसपास सुरक्षाकर्मियों के आने के बाद ही खेती शुरू हो सकी… राज्य के कुछ इलाक़ों से अब भी हिंसा की घटनाएं सामने आ रही हैं, जिससे किसान खेती को लेकर चिंताग्रस्त हो गए हैं।

न्यूज़लॉन्ड्री के मुताबिक, राजधानी इम्फाल सहित घाटी में काम करने वाले पहाड़ी लोगों को अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा। राज्य सरकार के कर्मचारियों को दोहरा झटका तब लगा, जब 27 जून को प्रशासन ने घोषणा की कि यदि कर्मचारी अपने कार्यस्थल पर नहीं लौटे तो उनके वेतन में कटौती की जाएगी। बहुत से लोग अब देश के अन्य हिस्सों में उन जरूरी दस्तावेजों के बग़ैर ही आजीविका के नये स्रोतों की तलाश में लग गये हैं जिन्हें उन्हें घर पर पीछे छोड़ना पड़ गया।

3. शिक्षा

आजीविका की तरह, मणिपुर में अधिकांश छात्रों के लिए शिक्षा भी ठप हो गई है। यह वे छात्र हैं जो महामारी के कारण शिक्षा में आई कमी के बाद हाल ही में स्कूल वापस लौटे थे। स्कूलों को अब छात्रों के लौटने पर उनके मानसिक और वित्तीय संघर्षों का भी ख्याल करना होगा। हालांकि, राज्य में अंदरूनी और बाहरी हिंसा के कारण लगभग 4,700 छात्र विस्थापित हुए हैं। समाजसेवी संस्थाएं, समूह और अन्य राज्यों की सरकारें दिल्ली और मिजोरम जैसे राज्यों में छात्रों के पुनर्वास में मदद कर रही हैं। राहत और पुनर्वास प्रयासों में मदद करने वाले महिला समूह की सदस्य सुश्री किम कहती हैं, “हम दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग के संपर्क में हैं – यह बिना किसी योजना के प्रवेश की अनुमति देता है, जो मददगार रहा है।”

शिक्षा का अधिकार अधिनियम के कारण, कक्षा 1-8 तक के बच्चों के लिए प्रवेश प्रक्रिया आसान हो गई है। लेकिन कक्षा 9-12 के छात्रों को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इनमें से ज्यादातर के पास प्रवेश लेने के लिए जरूरी वे दस्तावेज़ नहीं होते हैं जिन पर स्कूल कभी-कभी ज़ोर देते हैं। हम उनके माता-पिता को अपने बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिलाने के तरीके ढूंढने में मदद करने का प्रयास कर रहे हैं।” इसके अलावा, किम जिस समूह के साथ काम करती हैं, वह बच्चों को ट्रॉमा काउंसिलिंग और हिंदी सीखने में मदद कर रहा है, जो उन्हें अपने नए वातावरण में संवाद करने में सक्षम बनाएगा।

अपनी ओर से, मणिपुर सरकार ने मुख्यमंत्री कॉलेज छात्र पुनर्वास योजना (सीएमसीएसआरएस) 2023 की घोषणा भी की है। यह मणिपुर में विश्वविद्यालयों के बीच आंतरिक रूप से विस्थापित स्नातक छात्रों के स्थानांतरण, मुफ्त प्रवेश और छूट की सुविधा प्रदान करती है। लेकिन छात्र इससे खुश नहीं हैं। हिंसा जारी रहने के कारण, पहाड़ियों में रहने वाले छात्र अब घाटी के विश्वविद्यालयों में नहीं लौट सकते हैं। ऐसा होने पर, उन्हें अपनी पढ़ाई में पिछड़ने का डर है क्योंकि विश्वविद्यालयों ने नियमित कक्षाएं फिर से शुरू कर दी हैं। उनकी मांग है कि उन्हें केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्थानांतरण की अनुमति दी जाए।

शुरुआत में एक विकल्प के रूप देखी जाने वाली ऑनलाइन कक्षाएं भी, राज्य में लगने वाले इंटरनेट प्रतिबंध के कारण छात्रों के लिए अब कोई विकल्प नहीं रह गई हैं। इसके अलावा यह भी एक सच्चाई है कि ग्रामीण इलाक़ों में इंटरनेट कनेक्टिविटी बहुत ख़राब है। 

नॉर्थईस्ट लाइव की रिपोर्ट में एक छात्र के हवाले से कहा गया है, ‘कक्षाएं फिर से शुरू हो गई हैं लेकिन हम कक्षाओं में शामिल नहीं हो सकते हैं। कुकी छात्रों के लिए ऑफ़लाइन कक्षाएं संभव नहीं हैं और इंटरनेट के बिना ऑनलाइन कक्षाएं असंभव हैं। हमारी चिंता यह है कि प्रवेश-फॉर्म भरा जाना शुरू हो चुका है और अंतिम तिथि 31 जुलाई है।’ छात्रों पर, डिजिटल ऐक्सेस पर लगने वाले प्रतिबंध का प्रभाव कई तरह से पड़ रहा है। जहां राज्य में रहने वाले छात्र कक्षाओं में उपस्थित होने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहीं बाहर रह रहे छात्रों को आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि उनके माता-पिता अब उन्हें पैसे नहीं भेज पा रहे हैं।

क्या आप मदद करने की इच्छा रखते हैं?

नीचे कुछ ऐसे संगठनों के नाम दिये गये हैं जिनका सहयोग आप मणिपुर में हिंसा से निपटने वाले लोगों को सहायता प्रदान करने के लिए कर सकते हैं। यदि आप मणिपुर में सहायता प्रदान करने पर काम कर रहे अन्य समाजसेवी संगठनों के बारे में जानते हैं, तो हमें [email protected] पर एक ई-मेल भेज सूचित करें और हम उन्हें इस सूची में शामिल कर लेंगे।

युवा आदिवासी महिला नेटवर्क: पूर्वोत्तर की आदिवासी महिलाओं का एक समूह मणिपुर में विस्थापित ग्रामीणों, विशेषकर महिलाओं और बच्चों के लिए काम कर रहा है। ये मणिपुर के शिविरों में प्रभावित समुदायों को राहत सामग्री प्रदान कर रहे हैं और दिल्ली के स्कूलों में विस्थापित छात्रों के पुनर्वास में भी मदद कर रहे हैं। इनकी पहल में अपना सहयोग देने के लिए आप यहां दान कर सकते हैं।

ग्रामीण महिला उत्थान समिति: मणिपुर स्थित एक समाजसेवी संस्था जो क्षमता निर्माण, जागरूकता बढ़ाने, प्रशिक्षण और वकालत के जरिए जमीनी स्तर के समुदायों को सशक्त बनाने का काम करती है। यह मणिपुर के विभिन्न जिलों में स्थित शिविरों में राहत सामग्री प्रदान कर रही है और गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं और बच्चों की सहायता पर ध्यान केंद्रित कर रही है। इस संस्था की मदद में अपना योगदान देने के लिए आप यहां दान दे सकते हैं।

फार्म2फ़ूड: एक समाजसेवी संस्था जो समुदायों के साथ साझेदारी बनाती है और उन्हें कृषि और खाद्य उद्यमिता में संलग्न करके टिकाऊ, कृषि-आधारित आजीविका अपनाने के लिए प्रशिक्षण और उपकरण प्रदान करती है। संगठन अपने स्वयंसेवकों और जमीनी स्तर पर काम कर रहे सहयोगियों के जरिए हिंसा प्रभावित समुदायों को भोजन और दवाएं वितरित कर रहा है। आप फार्म2फूड के प्रयासों में अपना योगदान देने के लिए यहां क्लिक कर सकते हैं।

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महिलाओं को भूमि अधिकार दिलाने का मतलब उन्हें सशक्त बनाना होना चाहिए

भूमि अधिकार एक महत्वपूर्ण मानव अधिकार मुद्दा है क्योंकि यह भोजन, आश्रय और सुरक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं तक पहुंचने लायक बनाता है। आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को प्राप्त करने के लिए यह मूलभूत है। लेकिन महिलाओं की गरिमा और सम्मान को ध्यान में रखे बिना भूमि अधिकारों से जुड़ी बातचीत अधूरी है क्योंकि ये सभी मानवाधिकर मुद्दों में शामिल हिस्से हैं। वास्तव में, सम्मान के साथ जीने का अधिकार भारतीय संविधान में निहित है, और सभी मनुष्यों के अंतर्निहित सम्मान को मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (यूएनएचआर) में मान्यता दी गई है।

गरीबी का सामना कर रहे लोगों को, कानून और नीतिगत साधनों का उपयोग कर, भूमि अधिकार दिलवाने के लिए काम करने वाली समाजसेवी संस्था लैंडेसा की शिप्रा देव का मानना है कि हर तरह के विकास के केंद्र में गरिमा को रखा जाना चाहिए। शिप्रा कहती हैं कि ‘यूएनएचआर, अपनी प्रस्तावना में, दुनिया में स्वतंत्रता, न्याय और शांति की नींव के रूप में सभी मनुष्यों की अंतर्निहित गरिमा, और समान और अविभाज्य अधिकारों को स्वीकार करता है। यह मान्यता कि गरिमा एक ऐसी चीज़ है जो मनुष्य होने के नाते सभी के पास है और किसी के भी अस्तित्व का अभिन्न अंग है, जो अधिकारों को हासिल करने के लिए जरूरी है।’ शिप्रा ज़ोर देकर कहती हैं कि मानवीय गरिमा की इस अवधारणा में समान मानव अधिकारों, या सभी व्यक्तियों की समानता की केंद्रीयता को स्थापित करने की क्षमता है। कहने का मतलब यह है कि ऐसा कोई अंतर्निहित कारण नहीं है कि कुछ लोगों को अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं को साकार करने का अवसर मिले और कुछ को नहीं।

आदिवासी, दलित और एकल महिलाओं (अर्थात तलाकशुदा, विधवा, पति से अलग हो चुकी या अधिक उम्र की अविवाहित महिलाओं) को सशक्त बनाने पर काम करने वाले समाजसेवी संगठन ‘आस्था संस्थान’ के अश्वनी पालीवाल एक ऐसा उदाहरण देते हैं जो महिलाओं के भूमि अधिकारों पर होने वाली किसी भी चर्चा में सम्मान को जोड़ने के महत्व को दिखाता है। ‘हमने एक ऐसी महिला और उसकी बेटी के साथ काम किया जिसे उसके ससुराल वालों ने छोड़ दिया था। वह मज़दूरी करके और बिना किसी सुरक्षा के किसी धार्मिक संस्थान में रहकर अपना गुज़ारा कर रही थी। उसे हर समय अपनी और अपनी बेटी की सुरक्षा का डर रहता था।’ अश्वनी बताते हैं कि कैसे अपनी स्थिति में सुधार लाने के लिए वह महिला एकल नारी शक्ति संगठन (ईएनएसएस) (सशक्त एकल महिलाओं का संघ) में शामिल हो गई। समुदाय की मदद से, अपने ससुराल वालों से लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद उसे अपने पति की भूमि का स्वामित्व मिल सका। अश्वनी कहते हैं कि ‘इस भूमि के कारण उसे आश्रय मिला और वह अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सकने में सक्षम हो सकी। इस प्रकार भूमि अधिकार, मानवीय गरिमा से जुड़े हैं – वे व्यक्ति के आत्म-सम्मान को बढ़ाने और व्यक्तित्व को बेहतर बनाने में मददगार होते हैं।’

भोजन, आश्रय और आजीविका के बिना रहना गरिमापूर्ण जीवन के विपरीत है। शिप्रा इस बात पर जोर देती हैं कि किसी व्यक्ति का ज़मीन से रिश्ता उनके रोजमर्रा के जीवन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। वे कहती हैं कि ‘वे भूमि का उपयोग कैसे करते हैं, चाहे आजीविका के लिए या अस्तित्व के लिए, यह किसी व्यक्ति के अस्तित्व और गरिमा से गहराई से जुड़ा हुआ होता है।’

गरिमा की अनदेखी से हमें क्या नुक़सान होता है?

भूमि अधिकारों की उपेक्षा महिलाओं और समाज के अन्य वंचित वर्गों को और अधिक हाशिये पर धकेल देती है। शिप्रा कहती हैं कि, ‘भूमि लोगों की पहचान का एक महत्वपूर्ण साधन है। उन स्थानों पर जहां भूमि अधिकार मिलना एक सामान्य बात है, महिलाओं को स्वतंत्र अधिकार न देना उन्हें एक व्यक्ति के रूप में अदृश्य बना देता है।’ इसी तरह, यह तथ्य कि सभी मौजूदा विरासत कानून बाइनरी भाषा में लिखे गए हैं, यह ट्रांस समुदाय के लिए उनके भूमि अधिकारों का दावा करने की गुंजाइश कम कर देता है। शिप्रा आगे जोड़ती हैं कि ‘जब हम इन लोगों को उचित सम्मान नहीं देते हैं तो उनकी पहचान खोने का खतरा पैदा होता है और इसका सीधा प्रभाव उनकी आजीविका, आवास, सुरक्षा और जीवन की गुणवत्ता पर पड़ता है।’ इसलिए, लैंडेसा के लिए भूमि अधिकारों पर काम करते समय पहला कदम महिलाओं को स्वतंत्र व्यक्ति के तौर पर मान्यता देना होता है।

महिलाओं को उनके भूमि अधिकार सुरक्षित करने में मदद करना उस स्थिति में अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है, जब महिलाएं स्वयं को भूमि अधिकार के योग्य नहीं समझती हैं। अश्वनी बताते हैं कि ‘महिलाएं [हम जिनके साथ काम करते हैं] आमतौर पर अपने अधिकारों के बारे में नहीं जानती हैं और जब तक उन्हें [इसके बारे में] बताया न जाए, तब तक भूमि के स्वामित्व के बारे में सोचती भी नहीं हैं। भूमि अधिकार को प्राप्त करने का संघर्ष बहुत कठिन है। यदि उनका संकल्प मजबूत नहीं होता है तो वे अपनी भूमि का प्रभावी ढंग से उपयोग करने और उससे जुड़ी गरिमा हासिल करने का अवसर खो देती हैं।’ यदि उनके मन में प्राप्त भूमि के टुकड़े के माध्यम से सम्मानजनक जीवन जीने का विचार नहीं है तो भूमि पर स्वामित्व हासिल करना निरर्थक हो जाता है। लेकिन शिप्रा कहती हैं कि ‘भले ही उनके शब्दकोश में सम्मान और गरिमा जैसे शब्द न हों लेकिन महिलाएं अंत में समान अधिकारों वाला और सम्मानजनक जीवन चाहती हैं।’

गेहूं के खेत में मुस्कुराती खड़ी एक महिला_महिला भूमि अधिकार
सामाजिक दबाव और प्रचलित सांस्कृतिक प्रथाएं महिलाओं को भूमि पर अपने अधिकार का दावा करने से रोकती हैं। | चित्र साभार: मीना कादरी / सीसी बीवाय

भूमि अधिकार और सम्मान के बीच संबंध

हालांकि भारत के संविधान के अनुसार सम्मानजनक जीवन मौलिक अधिकारों के अंतर्गत आता है लेकिन शिप्रा इस विरोधाभास की ओर इशारा करती हैं जो भूमि अधिकारों की बात करते समय हमारे संविधान के भीतर उभरता है। यह विरोधाभास इसलिए है क्योंकि कृषि भूमि को राज्य का विषय माना जाता है और विरासत एक समवर्ती सूची का विषय है। कभी कई विषयों को समाहित करने और कभी-कभी परस्पर विरोधी प्रावधानों वाले कानूनों की बहुलता महिलाओं को नुकसान पहुंचाती है।

अधिकांश अनुसूचित जनजातियों के परंपरागत क़ानूनों के अनुसार विधवाएं अपने पति की भूमि को अपने नाम नहीं करवा सकती हैं।

शिप्रा का कहना है कि ‘अनुसूचित जनजातियों की परंपराओं और पहचान की सुरक्षा के लिए संविधान द्वारा अनुसूची V और VI के तहत आने वाले क्षेत्रों के साथ अलग तरह का व्यवहार किया जाता है। नतीजतन, इन समुदायों में विरासत के मामले परंपरागत प्रथाओं द्वारा तय होते हैं न कि वैधानिक कानूनों द्वारा।’ वे इसके लिए झारखंड का उदाहरण देती हैं। ‘हमने पाया कि अधिकांश अनुसूचित जनजातियों के परंपरागत क़ानूनों के अनुसार विधवाएं अपने पति की भूमि को अपने नाम नहीं करवा सकती हैं। उसके पास केवल उस भूमि को बनाए रखने और उस पर आश्रित रहने का अधिकार होता है।’ ऐसी स्थिति में भूमि पर अंतिम दावा घर के पुरुष – जेठ या देवर या बेटे – का ही होता है। शिप्रा इन पुरुषों को ‘प्रतीक्षारत पुरुष’ का नाम देती हैं। अपने दावे को जल्द से जल्द साबित करने के लिए ये पुरुष हिंसा जैसे उपाय अपनाते हैं ताकि महिलाएं सम्पत्ति छोड़ने पर मजबूर हो जाएं। शिप्रा का कहना है कि ऐसा होना उस महिला की गरिमा पर सीधा हमला है।

ख़ासकर गांवों में भूमि स्वामित्व महिलाओं को न केवल व्यक्तिगत रूप से प्रभावित करता है बल्कि समुदाय से जुड़े फ़ैसलों में उनकी सहभागिता और भागीदारी पर भी असर डालता है। अश्वनी ने बताया कि ‘गांव में एक महिला की पहचान तब बनती है, जब जमीन उसके नाम पर होती है। यह उसे कई अवसरों का लाभ उठाने के लिए सशक्त बनाता है।’ एक महिला अपनी भूमि का उपयोग अपने बच्चों की शिक्षा के लिए कर सकती है। भूमि स्वामित्व दस्तावेज़ीकरण से महिला किसानों को सरकारी योजनाओं तक पहुंचने में भी मदद मिल सकती है। अश्वनी जोर देते हुए कहते हैं कि ‘जब भूमि के प्रति उनका नजरिया बदलता है तो एक महिला अन्याय के खिलाफ खड़े होने में सक्षम होती है और सम्मानजनक जीवन जीने के रास्ते पर आगे बढ़ती है।’

भूमि अधिकारों में सम्मान को शामिल करने की चुनौतियां

सामाजिक दबाव और प्रचलित सांस्कृतिक प्रथाएं महिलाओं को भूमि पर अपने अधिकार का दावा करने से रोकती हैं। अश्वनी कहते हैं कि ‘यदि सम्पत्ति उनके नाम पर है तो चाहे वह उनके माता-पिता के पक्ष में हो या उनके ससुराल पक्ष में, महिलाओं को अपना हिस्सा भाई (या परिवार के किसी अन्य पुरुष सदस्य) को देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।’ दरअसल, 2021 में, राजस्थान में एक सरकारी अधिकारी ने महिलाओं से पैतृक खेती वाली ज़मीन में मिलने वाले अपने हिस्से को अपने भाइयों को देकर ‘रक्षा बंधन को यादगार बनाने’ की अपील की थी।

भूमि अधिकारों के जरिए सम्मान प्राप्त करना एक लम्बी अवधि की प्रक्रिया है, और यह इस उद्देश्य के लिए एक चुनौती है। शिप्रा के अनुसार, सम्मान पर जोर देने के लिए प्रक्रिया में भाग लेने वाले सभी लोगों को मानव जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता होगी क्योंकि उनका काम सीधे महिलाओं के अधिकारों और गरिमा को प्रभावित करता है।

उदाहरण के लिए, हालांकि पुलिस की मदद से एक महिला का संपत्ति का अधिकार सुरक्षित किया जा सकता है, लेकिन यदि उसके बाद कोई कार्रवाई नहीं की जाती है तो भूमि तक उनकी पहुंच खतरे में पड़ जाती है। अश्वनी आगे जोड़ते हैं कि ‘यदि महिला का आधार पर्याप्त रूप से मजबूत नहीं है तो पुरुष सदस्य संपत्ति पर दोबारा कब्ज़ा कर सकते हैं। यही कारण है कि ईएनएसएस और अन्य समुदाय-आधारित संगठन भूमि से जुड़े दस्तावेज हस्तांतरित होने के बाद भी महिला को निरंतर सहायता प्रदान करते हैं ताकि उसके स्वामित्व को खतरा न हो। यदि पुलिस और परिवार के पुरुष सदस्य ऐसे मामलों में महिला के अधिकारों और सम्मान के प्रति जागरूक होते हैं तो निरंतर हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती है।

शिप्रा बताती हैं कि संगठनात्मक दृष्टिकोण से भी, परिणाम-आधारित फ़ंडिंग पर चलने वाले विकास कार्यक्रमों की निर्भरता उनकी योजना और कार्यान्वयन पर प्रभाव डालता है। यह अधिकार के साथ सम्मान भी दिलाने की कोशिशों में बाधा के तौर में सामने आता है क्योंकि यह एक अंतहीन परिणाम है और इसके लिए अक्सर दूरदर्शी सोच और प्रयासों की आवश्यकता होती है।

सम्मान का दृष्टिकोण कैसा होता है

गरिमापूर्ण दृष्टिकोण अपनाने के लिए इस प्रक्रिया में शामिल सभी लोगों की प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है। शिप्रा कहती हैं कि ‘हमें सरकार, नीति-निर्माताओं, ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले संगठनों, महिलाओं तथा पुरुषों, और समुदायों में परम्परागत तथा चयनित नेताओं के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सोच और काम करने के तरीके में सभी मनुष्यों की आंतरिक गरिमा को पहचानने और उसे प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।’

महिलाओं के बीच संपत्ति का स्वामित्व परंपरागत रूप से अस्तित्वहीन या नगण्य रहा है।

अश्वनी ने सभी स्तरों पर जागरूकता फैलाने के महत्व का उल्लेख करते हुए बताया कि कैसे संपत्ति हस्तांतरण की प्रक्रिया में शामिल आधिकारी तबका अपनी पितृसत्तात्मक मानसिकता के कारण महिलाओं की अपीलों को नजरअंदाज करता है। वे आगे जोड़ते हैं कि ‘बेटियों को पैतृक संपत्ति में विरासत का अधिकार हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 से ही दिया गया था। इस प्रावधान के लागू होने से पहले, महिलाओं को अक्सर लंबी कानूनी प्रक्रियाओं को अपनाकर, ऐसी भूमि पर अपने अधिकार के लिए लड़ना पड़ता था।’ आज, महिलाओं के भूमि अधिकारों को मुख्यधारा में लाने की मांग करने वाले संगठनों को यह चुनौतीपूर्ण लग सकता है क्योंकि महिलाओं के बीच संपत्ति का स्वामित्व परंपरागत रूप से अस्तित्वहीन या नगण्य रहा है। इसलिए, आगे की योजना बनाना और महिलाओं के जीवन की गरिमा-सम्मान और उनके भूमि अधिकारों के बीच संबंध स्थापित करना सभी के लिए जरूरी है।

शिप्रा ने बताया कि कैसे महिलाओं से यह पूछने पर कि उनके लिए जमीन का क्या मतलब है, उनके बीच की बातचीत इस बिंदु पर पहुंची कि महिलाओं की गरिमा जमीन से कैसे जुड़ी हुई है। यहां तक कि जमीन के मालिक होने का विचार भी महिलाओं को आश्चर्य में डालने वाला और सशक्त बनाने वाला हो सकता है क्योंकि ज़मीन एक बड़ी सम्पत्ति होती है। अश्वनी रेखांकित करते हैं कि महिलाओं को न केवल उनके भूमि अधिकारों के बारे में सूचित किया जाना चाहिए बल्कि यह भी बताया जाना चाहिए कि कैसे उनका सम्मान इस अधिकार से जुड़ा हुआ है। इससे वे भूमि को अपने सम्मानजनक जीवन जीने के एक माध्यम के रूप में देख पाएंगी जिसकी उन्हें आकांक्षा भी होती है और जिस तक पहुंचा भी जा सकता है।

शिप्रा के अनुसार, महिलाओं को सशक्त बनाने वाले सभी कार्यक्रमों को अपने दायरे में भूमि अधिकारों को शामिल करने के बारे में सोचना चाहिए क्योंकि भूमि व्यक्ति की पहचान और अस्तित्व से गहरे जुड़ी होती है। व्यक्तिगत एवं संस्थागत दोनों ही स्तरों पर एक समग्र दृष्टिकोण अपनाए जाने की ज़रूरत है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि गरिमा और सम्मान, इस तरह के हस्तक्षेप कार्यक्रमों का एक अभिन्न पहलू है, विशेष रूप से उन कार्य-योजनाओं का जिन्हें सबसे कमजोर वर्ग के लोगों के लिए डिज़ाइन किया जाता है। भूमि, महिलाओं की पहचान, स्वतंत्रता, अधिकार और आजीविका का मूलभूत आधार है। यदि हम भूमि अधिकारों के बारे में बात नहीं कर रहे हैं तो हम महिलाओं के लिए सम्मान और समानता के जीवन का मार्ग प्रशस्त करने वाले एक महत्वपूर्ण घटक को पीछे छोड़ रहे हैं।

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शिप्रा देव महिलाओं और भूमि के बीच संबंधों को मजबूत करने वाली संस्था लैंडेसा का नेतृत्व करती हैं।विभिन्न पृष्ठभूमि वाली महिलाओं और सभी प्रकार की भूमि के बीच के संबंध और अलगाव को समझने में शिप्रा की गहरी रुचि है।शिप्रा लड़कियों के लिए समान विरासत की हिमायती हैं और चाहती हैं कि भूमि प्रशासन और कानून लैंगिक भेदभाव को दूर करने वाले हों।

अश्वनी पालीवाल राजस्थान के उदयपुर में स्थित एक समाजसेवी संस्थान आस्था के सचिव हैं। उनके पास सामाजिक क्षेत्र का 40 से अधिक वर्षों का अनुभव है। वे मुख्य रूप से सामुदायिक विकास और मानव अधिकार से जुड़े मुद्दों पर काम करते हैं।हाल के दिनों में अश्वनी राजस्थान सहित पूरे भारत में एकल महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में हो रहे काम में अपना सहयोग दे रहे हैं।

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क्या शिक्षा से जुड़े डेटा केवल नीति निर्माताओं के ही काम आते हैं?

आंकड़े इकट्ठा करना और उसका विश्लेषण करना, कार्यक्रम मूल्यांकन और सुधार प्रक्रिया का एक अनिवार्य हिस्सा है। उदाहरण के लिए छात्रों के प्रदर्शन, उपस्थिति और सहभागिता से जुड़े आंकड़े जुटाकर और उनका विश्लेषण कर, शिक्षक अपने पढ़ाने के तरीक़ों में बेहतरी ला सकते हैं। उसी तरह प्रशासन एक समेकित आंकड़े का उपयोग – कार्यक्रम के क्रियान्वयन के बारे में जानने, प्राप्त लक्ष्यों के बारे में समझने और सुधार की आवश्यकता वाले क्षेत्रों की पहचान करने के लिए कर सकते हैं। यही आंकड़ा नीति निर्माताओं को यह तय करने में भी मदद कर सकता है कि संसाधन कहां आवंटित किए जाएं और कौन से कार्यक्रम लागू किए जाएं।

ज्ञान प्रकाश फाउंडेशन (जीपीएफ) में, हम महाराष्ट्र के चार जिलों (परभणी, नंदूरबार, सतारा और सोलापुर) के ग्रामीण सरकारी स्कूलों में योग्यता-आधारित शिक्षा के माध्यम से सीखने में बुनियादी बदलाव लाने के लिए काम कर रहे हैं। हमने साल 2011 में संस्था की स्थापना के बाद से शिक्षकों, स्कूल लीडर्स, क्लस्टर अधिकारियों, ब्लॉक और जिला स्तर के अधिकारियों, और माता-पिता और समुदाय के प्रतिनिधियों के साथ काम करते हुए एक सहयोगात्मक दृष्टिकोण अपनाया है। ये सभी बच्चों के लिए सीखने को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

यह लेख आंकड़े के लिए विकेन्द्रीकृत दृष्टिकोण अपनाने से मिली हमारी सीख पर आधारित है, हमारा मानना ​​है कि इसका उपयोग इसमें शामिल सभी हितधारकों – नीति निर्माताओं और शिक्षकों – द्वारा प्रभावी निर्णय लेने के लिए किया जा सकता है।

विभिन्न हितधारक आंकड़ों का उपयोग कैसे करते हैं?

शिक्षा के सेक्टर में, यदि किसी कार्यक्रम में बच्चे शामिल हैं तो आंकड़े हासिल करने का सबसे आम बिंदु बच्चों के सीखने से जुड़े आंकड़े होते हैं। ये आंकड़े मुख्यरूप से दो तरह के भागीदारों के लिए होते हैं: निर्णय लेने वाले (क्लस्टर के प्रमुख और प्रखंड और ज़िले के शिक्षा अधिकारी) और कक्षा में शिक्षक। निर्णायक भूमिकाओं में बैठे लोगों के सामने जो आंकड़े रखे जाते है, वे आमतौर पर बच्चे के समेकित मूल्यांकन डेटा, स्कूल के बुनियादी ढांचे की जानकारी, अगले शैक्षणिक वर्ष की योजनाओं से जुड़े होते हैं। ये आंकड़े क्लस्टर, ब्लॉक और जिले में शिक्षा की स्थिति को समझने के लिए जरूरी हैं और इसका उपयोग रणनीतियां बनाने, कार्यक्रम में बड़े बदलाव करने और सार्वजनिक रूप से उपलब्ध करवाई जाने वाली रिपोर्ट लिखने में किया जाता है। शिक्षकों के लिए तैयार किए गए आंकड़े ज्यादातर बार बच्चों का व्यक्तिगत मूल्यांकन आंकड़ा होता है जो उनकी खुद के पढ़ाने के तरीक़ों को बेहतर बनाने में मदद करता है।

आंकड़े के प्रवाह की दिशा लगभग तय हैयह शिक्षकों से नीतिनिर्माताओं तक पहुंचती है।

आंकड़ों की मांग ज्यादातर बार, उच्च पदों पर बैठे लोगों द्वारा निचले स्तर पर मौजूद लोगों से की जाती है। आमतौर पर ये प्रदर्शन से जुड़े होते हैं, फिर चाहे वह बच्चों का हो, शिक्षक को हो या अधिकारियों का। यह माना जाता है कि किसी बच्चे का मूल्यांकन परीक्षा में उसे मिले अंकों के आधार पर किया जाता है तो शिक्षक का मूल्यांकन उनकी कक्षा में ‘अच्छा’ प्रदर्शन करने वाले छात्रों की संख्या के आधार पर होता है। हालांकि यह सही नहीं है लेकिन इससे शिक्षकों में आंकड़ों को लेकर डर पैदा हुआ है। नतीजतन, शिक्षक या तो आंकड़े जुटाने की प्रक्रिया से अलग रहते हैं फिर उच्च अधिकारियों को ऐसी रिपोर्ट भेजते हैं जो कक्षा में उनके छात्रों के सटीक प्रदर्शन को नहीं दिखाती है।

आंकड़ों के प्रवाह की दिशा लगभग तय है – ये शिक्षकों से नीति-निर्माताओं तक पहुंचते हैं। उदाहरण के लिए, एक शिक्षक अपनी कक्षा से समेकित आंकड़ा एकत्र कर उस क्लस्टर प्रमुख को देता है जो क्लस्टर के सभी स्कूलों से आंकड़े एकत्र कर क्लस्टर-स्तर की रिपोर्ट तैयार करता है। यह क्लस्टर-रिपोर्ट ब्लॉक के प्रमुख के पास जमा की जाती है जो सभी क्लस्टर से प्राप्त आंकड़ों से एक समेकित आंकड़ा तैयार कर ब्लॉक-रिपोर्ट बनाता है। चूंकि आंकड़े एक ही दिशा में आगे बढ़ते हैं जिससे इसकी ज़िम्मेदारी एक से दूसरी इकाई को स्थानांतरित होती रहती है। ऐसा होना इसे शिक्षकों से दूर कर देता है और इसके लिए उन पर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है। शिक्षक के पास प्रत्येक छात्र के प्रदर्शन की जानकारी देने वाले आंकड़े होते हैं जिनका उपयोग बदलाव लाने के लिए किया जा सकता है। लेकिन, असल में यह बच्चों की शिक्षा में सुधार लाने के लिए सीधे तौर पर उनके शिक्षण के तरीक़ों में कोई मदद नहीं करता है।

आंकड़ों को अधिक उपयोगी कैसे बनाया जा सकता है?

किसी भी तरह का आंकड़ा तभी उपयोगी होता है जब इसके उपयोगकर्ता के पास इस पर आधारित कुछ फ़ैसले लेने की शक्ति होती है। आंकड़ों को एकत्र करना और व्यवस्थित करना आसान होना चाहिए और हर स्तर पर उपयोगकर्ताओं के पास उनका इस्तेमाल कर कार्रवाई करने की ताकत होनी चाहिए। हालांकि, शिक्षा के क्षेत्र में, आंकड़ों का उपयोग केवल नीति के स्तर पर ही किया जाता है। इसमें से शिक्षकों का नज़रिया गायब होता है – कक्षा के संदर्भ में, एकत्र किए गए आंकड़े से प्रत्येक छात्र ने क्या सीखा है इसकी जानकारी स्पष्ट होनी चाहिए। उसके बाद शिक्षकों को इतना सक्षम होना चाहिए कि वे अपने छात्रों की ज़रूरतों की पहचान कर सकें और प्रत्येक बच्चे के सीखने से जुड़े आंकड़ों के आधार पर सिखाने के उपयुक्त तरीके अपना सकें।

हमारे कार्यक्रम में, हम आंकड़ों को काम लायक बनाने के लिए तीन तरह की प्रमुख रणनीतियां लेकर आए हैं: शिक्षकों के लिए आंकड़े उपयोगी हो सकें, आंकड़ों को लेकर उच्च अधिकारियों के नज़रिए को बदलना, और आंकड़ों को समेकित करने के लिए तकनीक का उपयोग करना।

फोन की स्क्रीन देखता हुआ एक आदमी_नीति-निर्माता समाजसेवी संस्था
किसी भी तरह का आंकड़ा तभी उपयोगी होता है जब इसके उपयोगकर्ता के पास इस पर आधारित कुछ फ़ैसले लेने की शक्ति होती है। | चित्र साभार: मिर्सिया इंकू / सीसी बीवाय

1. आंकड़ों को शिक्षकों के लिए उपयोगी बनाएं

कोई भी आंकड़ा शिक्षकों के लिए सबसे उपयोगी तब होता है जब वे इसे समझ सकें, यानी इसका उपयोग इस बात का आकलन करने के लिए कर सकें कि बच्चों ने क्या सीखा है। साथ ही, यह तय करने के लिए कर सकें की सिखाने के तरीक़ों को सुधारने के लिए कौन से मुख्य कदम उठाने की जरूरत है।

ऐसा करने के लिए, 2016 में, हमने शिक्षकों के साथ एक सरल ऑफ़लाइन स्प्रेडशीट बनाई, जिससे उन्हें अपनी कक्षाओं से जुड़ी जानकारी को समझने में मदद मिली। प्रत्येक पंक्ति में एक छात्र का नाम और प्रत्येक कॉलम में उन कौशलों या दक्षताओं को सूचीबद्ध किया गया है जिनमें उनसे एक निश्चित अवधि के भीतर महारत हासिल करने की उम्मीद की गई थी (उदाहरण के लिए, 10 तक की संख्याओं को पहचानना, या ‘अधिक’ और ‘कम’ की अवधारणाओं को समझना)। शिक्षकों को उन दक्षताओं पर चिह्न लगाने के लिए हरी पेंसिलें दी गईं, जिनमें छात्रों ने महारत हासिल कर ली है और लाल पेंसिलें उन दक्षताओं को चिन्हित करने के लिए दी गईं, जिनमें छात्रों को अभी महारत हासिल करनी है।

अब केवल इस शीट पर एक नज़र भर डालकर शिक्षकों को इस बात की जानकारी मिल सकती थी कि छात्र ने किसी कौशल में महारत हासिल की या नहीं। यह देखना भी आसान हो गया कि पूरी कक्षा अच्छा प्रदर्शन कर रही है या नहीं। इस शीट का उपयोग कर, शिक्षक दो प्रमुख बातों की पहचान कर सकते थे: वे विशिष्ट सहायताएं जिनकी व्यक्तिगत रूप से छात्रों को आवश्यकता होती है, और वे दक्षताएं जिन पर उन्हें पूरी कक्षा के साथ काम करने की आवश्यकता होती है। इन दोनों को मिलाकर, शिक्षक व्यक्तिगत रूप से हर छात्र के लिए और पूरे समूह के लिए बेहतर योजना बनाने में सक्षम होने के साथ ही कक्षा में समय के उपयोग के तरीक़ों पर भी सोच सकते थे। जब शिक्षकों ने देखा कि ये आंकड़े उन्हें छात्रों के साथ बेहतर काम करने में मदद कर रहे हैं तो इससे आंकड़ों के प्रति उनका डर दूर हो गया। एक बार जब आंकड़ों का स्वामित्व इसके स्त्रोत के पास ही रहा और सूचना के प्रवाह की दिशा बदल गई और तब ये आंकड़े भी उपयोगी हो गए। इसी शीट का उपयोग, उच्च अधिकारियों के पास साझा किया जाने वाला कक्षा का औसत आदि जैसे अलग तरह के आंकड़ों को भी तैयार करने में किया जा सकता था।

दो वर्षों तक, जीपीएफ ने छात्र शिक्षण आंकड़े को उपयोगी बनाने के लिए ‘लाल-हरी शीट’ का उपयोग किया। यह प्रक्रिया मैन्युअल थी, जिससे इसमें त्रुटियां होने की संभावना थी और इसे प्रबंधित करना और स्केल करना कठिन था। 2018 में, जीपीएफ समाजसेवी संस्था गूरू द्वारा विकसित एक डिजिटल प्लेटफॉर्म –लर्निंग नेविगेटर– में बदल गया। इस प्लेटफ़ॉर्म ने ठीक उसी आवश्यकता को पूरा करते हुए आंकड़ों के प्रबंधन और प्रस्तुति को और अधिक कुशल बना दिया। यह शिक्षकों को हर बच्चे की जानकारी रखने और व्यक्तिगत, सामूहिक और समेकित रिपोर्ट हासिल करने में सहायता करता है। यह उन दक्षताओं की पहचान करने में मदद करता है जिन पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है।

2. आंकड़ों पर उच्च अधिकारियों के दृष्टिकोण में बदलाव लाएं

हम लाल और हरे रंग की शीट के डेटा को न केवल शिक्षकों के लिए, बल्कि उच्च अधिकारियों के लिए भी व्यावहारिक बनाना चाहते थे, जो इन आंकड़ो का उपयोग करके बेहतर निर्णय ले सकें। इससे क्लस्टर अधिकारियों को आंकड़े को नए नजरिए से देखने का मौका मिला। आंकड़े को केवल किसी शिक्षक या स्कूल के प्रदर्शन के रूप में देखने की बजाय, सभी कक्षाओं और स्कूलों के सामूहिक आंकड़ों ने क्लस्टर प्रमुख को उनकी सीखने की यात्रा में छात्रों के सामने आने वाली चुनौतियों को समझने और शिक्षकों की मुश्किलों की पहचान करने में मदद की। छात्र किन दक्षताओं से जूझ रहे थे? उन अवधारणाओं को पढ़ाते समय शिक्षकों को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था?

शिक्षकों ने देखा कि उनकी कक्षाओं से इकट्ठा किए गए आंकड़े का उपयोग उनके छात्रों के साथ प्रभावी ढंग से काम करने की क्षमता बढ़ाने में किया जा रहा है। परिणामस्वरूप, सटीक आंकड़ों की रिपोर्टिंग को लेकर उनके मन में व्याप्त शंका में कमी आई। नतीजतन, प्रत्येक विषय के छह से सात अनुभवी शिक्षकों वाले क्लस्टर रिसोर्स ग्रुप्स को बुलाया गया। इन समूहों ने क्लस्टर में अन्य शिक्षकों की क्षमताओं के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। शिक्षणपरिषदों में लाल-हरे रंग की शीट से प्राप्त आंकड़े के उपयोग से क्लस्टर के प्रमुख को किसी विशेष माह में ध्यान केंद्रित करने के लिए सीखने से जुड़े नतीजों की पहचान करने में मदद मिली। साथ ही, इसकी मदद से उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि सभी शिक्षक अपनी कक्षाओं में उन दक्षताओं को सीखने के लिए कुशल हैं।

3. आंकड़ों को समेकित करने के लिए तकनीक का उपयोग करें

चूंकि जीपीएफ़ एक बड़े-स्तर का कार्यक्रम है इसलिए हमारी रुचि समेकित आंकड़े में थी। 2021 के अक्टूबर में समेकित आंकड़े को उन अधिकारियों को उपलब्ध करवाया गया जो महाराष्ट्र के चार जिलों में शिक्षकों का सहयोग करते हैं। लर्निंग नेविगेटर पर ‘मिशन कंट्रोल’ सुविधा के इस अपडेट के साथ, एक जिले के सभी स्कूलों का आंकड़ा वास्तविक समय में न केवल शिक्षक के लिए उपलब्ध कराया गया, बल्कि पूरे सिस्टम में स्कूल प्रबंधन समितियों, क्लस्टर प्रमुखों, ब्लॉक शिक्षा अधिकारियों और जिला अधिकारियों को भी उपलब्ध कराया गया।

एक क्लस्टर प्रमुख ने कहा कि जिस क्षेत्र के लिए वह जिम्मेदार है, उसके अंतर्गत आने वाले सभी शिक्षकों के काम की निगरानी करना उनके लिए आसान है। ‘दोनों समूहों से शिक्षकों की कुल संख्या [जिनकी मैं देखरेख करता हूं] 182 से अधिक है। लेकिन आज, जहां मैं हूं, मेरे लिए यह देखना संभव है कि कितने शिक्षकों ने किस विशिष्ट शिक्षण परिणाम पर काम किया है।’

आंकड़ा किसी कार्यक्रम के सभी स्तरों पर हितधारकों के लिए उपयोगी हो सकता है।

एक ब्लॉक शिक्षा अधिकारी ने बताया कि मिशन कंट्रोल फीचर उनके लिए कैसे फायदेमंद होगा। ‘हम परभणी जिले के नौ ब्लॉकों के छात्रों को ट्रैक करने के लिए मिशन नियंत्रण का उपयोग करेंगे। इससे हमें प्रत्येक छात्र को उनके ग्रेड के अनुसार अपेक्षित सभी सीखने के परिणाम प्राप्त करने में सक्षम बनाने के लक्ष्य की दिशा में काम करने में मदद मिलेगी।’

हमने जो रणनीतियां अपनाईं, उनसे यह सुनिश्चित करने में मदद मिली कि हर स्तर पर उपयोगकर्ता अपने हाथों में डेटा के साथ सशक्त थे और हर कक्षा में हर बच्चे के सीखने में सुधार के लिए निर्णय ले सकते थे। हम अक्सर यह समझने में गलती करते हैं कि आंकड़ों के वास्तविक और एक मात्र उपभोक्ता वे संस्थाएं हैं जो गतिविधियों को फंड देती हैं। दरअसल यह एक मिथक है। आंकड़ा किसी कार्यक्रम के सभी स्तरों पर हितधारकों के लिए उपयोगी हो सकता है। आंकड़ों की उपयोगिता और प्रमाणिकता की जांच सेल्फ़-चेक द्वारा की जा सकती है। यह एक ऐसी चीज़ है जिसे लेकर कई कार्यक्रम संघर्षरत रहते हैं।

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संतुलित भोजन के लिए दाल और सब्ज़ियों की अदला-बदली

डेडियापाड़ा – वसावा, भील, कोटवालिया और पाडवी जैसी जनजातियों का घर है। यह भारत के सबसे गरीब आदिवासी इलाकों में से एक है। इस तहसील में प्रचुर मात्रा में लेकिन अनियमित वर्षा होती है। पहाड़ी और ऊबड़-ख़ाबड़ इलाक़ा होने के कारण भूजल के दोबारा भरने की प्रक्रिया कठिन हो जाती है। कई जगहों पर, बहुत अधिक भूमि कटाव होने के कारण ऊपरी स्तर की मिट्टी की गुणवत्ता में कमी आई है।

नतीजतन, नर्मदा जिले के तीन अन्य तालुकाओं की तुलना में डेडियापाड़ा की कृषि उत्पादकता कम है। यहां के किसान एक साल में एक ही फसल का उत्पादन कर पाते हैं, जिससे न केवल उनकी आमदनी प्रभावित होती है बल्कि उनके पोषण पर भी असर पड़ता है। अनाज और सब्ज़ियां लोगों की पहुंच से बाहर हैं। डेडियापाड़ा के बेदादा गांव में जैविक खेती करने वाली उर्मिलाबेन वसावा के अनुसार कई परिवारों के पास पर्याप्त भोजन तक नहीं है।

सितम्बर 2022 में, ग्रामीण क्षेत्रों में वित्तीय समावेशन और आजीविका वृद्धि पर काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था आगा ख़ान रुरल सपोर्ट प्रोग्राम (इंडिया) [एकेआरएसपी (आई)] की मदद से बेदादा में एक स्थानीय स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) ने अनाज बैंक की शुरुआत की। यह बैंक अनाज का भंडार बनाएगा और इस तरह प्राकृतिक आपदा या कम सामूहिक उत्पादन की अवधि के दौरान गरीब और हाशिए पर रहने वाले परिवारों को भुखमरी से बचाया जा सकेगा। बेदादा अनाज बैंक प्राथमिकता के आधार पर हाशिए पर रहने वाले समुदायों को रियायती दरों पर अनाज और दालें प्रदान करता है। अग्रिम भुगतान करने में असमर्थ परिवार आधी कीमत पर अनाज खरीद सकते हैं और बाकी का भुगतान अगले दो महीनों में कर सकते हैं।

एक बार जब अनाज बैंक चालू हो गया तो एसएचजी सदस्यों के सामने एक समस्या खड़ी हो गई। बैंक में जमा किए गए अनाजों की 13 क़िस्मों में समुदाय के लोग केवल पांच क़िस्में ही लेना पसंद करते थे: जोवर (ज्वार), नगली (उंगली बाजरा), माग (हरा चना), वताना (मटर) और तुवर (कबूतर मटर)। इन अनाजों की खपत इलाक़े में सबसे अधिक होती है। लोग अन्य पौष्टिक दालों के लिए भुगतान नहीं करना चाहते थे। इस समस्या से निपटने के लिए विनिमय (बार्टर) का तरीक़ा अपनाया गया। इस प्रणाली के अंतर्गत कम-आय वाले परिवार आमतौर पर घरों में खाए जाने वाली दालों और अनाजों में से एक किलो ला कर बदले में उतनी ही मात्रा में कोई दूसरा अधिक पौष्टिक अनाज ले जा सकते हैं।

धीरे-धीरे किचेन गार्डेन भी शुरू कर दिया गया ताकि समुदाय के सदस्य अपने घरों में ही सब्ज़ियां उगा सकें। अब स्थिति ऐसी है कि कुछ औरतें लौकी, टमाटर, भिंडी, बैंगन, पत्तागोभी आदि लेकर अनाज बैंक आती हैं और उसके बदले न केवल दाल बल्कि अपने घरों में न उपजने वाली सब्ज़ियां भी लेकर जाती हैं।

क्रिस्टी सैकिया एक विकास पेशेवर हैं और आजकल मॉनिटरिंग और इवैल्यूएशन (एम&ई) विशेषज्ञ के रूप में काम करती हैं।

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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि कैसे ग्रामीण असम में समुदायों ने कोविड-19 महामारी के दौरान अपनी अन्य ज़रूरतों के लिए भोजन का आदान-प्रदान किया।

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बाढ़, भूमि कटाव और पुनर्वास का संघर्ष

साल 2022 में असम में गम्भीर बाढ़ और भूस्खलन होने से जान और माल को बहुत अधिक नुकसान हुआ और सात लाख से अधिक लोग बेघर हो गए। ब्रह्मपुत्र में स्थित एक नदी-द्वीप माजुली इस बाढ़ और कटाव में बहुत तेज़ी से उभर कर सामने आया। पिछले कुछ सालों में इसके 69 गांव नदी तट के कटाव के कारण और 96 गांव बाढ़ की चपेट में आने के कारण ख़त्म हो गए। 

माजुली के मिसिंग जैसे स्थानीय समुदाय ऐसे जलवायु-संबंधी खतरों से बहुत बुरी तरह से प्रभावित होते हैं और भारी मानसिक यातना झेलते हैं। समुदाय की सदस्य दीपा पायुन इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि कैसे किसी के घर और पर्यावरण के नुकसान से दुख, स्वायत्तता की हानि और असहायता की भावना पैदा हो सकती है। ‘हमें बहुत दुःख हुआ था। पिछले कटाव के दौरान हमें पांच बार अपनी जगहों से विस्थापित होना पड़ा था। हर बार पुनर्वास के समय हमारा एक ही सवाल होता था – क्या यह जगह भी हमारे पिछले घर की तरह नष्ट हो जाएगी या बाढ़ में डूब जाएगी?’

दीपा वे वजहें गिनाती हैं जिनके कारण मिसिंग समुदाय को इन भयावह अनुभवों से गुजरना पड़ा। ‘हमारे पास अपनी कोई ज़मीन नहीं है। हम अपने पूर्वजों को इस बात के लिए कोसते हैं कि उन्होंने रहने के लिए इन बाढ़ के मैदानों का चुनाव किया। वहीं ऊंची जाति के लोग ऊंचे इलाकों में रहते हैं।’ 

असम में बाढ़ नियंत्रण का उद्देश्य आम तौर पर शहरी आर्थिक केंद्रों की रक्षा करना है, जो ग्रामीण क्षेत्रों की कीमत पर होता है। माजुली में बांधों और तटबंधों की मदद से मिसिंग बस्तियों को छोड़कर राजस्व पैदा करने वाले गांवों की रक्षा की गई है। 

मिसिंग समुदाय के लोगों को उनकी आर्थिक स्थिति, भूगोल और जातीयता के कारण हाशिए पर रखा गया है – ये सभी कारक एक-दूसरे से जुड़े हैं और उन्हें बेहद असुरक्षित बनाते हैं। लेकिन मिसिंग समुदाय के लोगों ने बाढ़ और कटाव से निपटने के लिए अपने स्थानीय ज्ञान, प्रथाओं और संसाधनों को उपयोग में लाया है। बार-बार आने वाली इस बाढ़ के प्रति उनकी प्रतिक्रिया लम्बे समय से जांची-परखी, प्रकृति-आधारित वैकल्पिक समाधानों पर आधारित है। उदाहरण के लिए, बाढ़ प्रतिरोधी चांगघर, मिसिंग लोगों के पारंपरिक घर, पर्यावरणीय खतरों के प्रति एक अद्वितीय स्वदेशी उपाय है। दीपा कहती हैं कि ‘चांग घर वास्तव में बहुत उपयोगी होते हैं, विशेषरूप से बारिश के दौरान। हम अपने रहने के लिए बांस के खंभों के सहारे चांग पर चांग (कई मंजिलें) बनाते हैं और नीचे अपना सामान (जैसे साइकिल) रखते हैं।’ ये घर बाढ़ के पानी, कीड़ों और जंगली जानवरों को दूर रख सकते हैं। 

मिसिंग के जलवायु-संवेदनशील खेती के तरीके; उपयुक्त फसल किस्मों को उगाने में विशेषज्ञता; और कुछ लागत प्रभावी प्रथाओं का उपयोग, जैसे कि भारतीय कपास की लकड़ी, बांस, नारियल और सुपारी का रोपण, मिट्टी संरक्षण के लिए प्रकृति-आधारित समाधानों को सफलतापूर्वक बढ़ावा देता है। यह विशेष रूप से प्रासंगिक है क्योंकि तटबंध, बांध और रेत की बोरियां के टूटने और बहने की सम्भावना होती है। 

दीपा तटबंध निर्माण जैसे तकनीकी-प्रबंधकीय बाढ़-नियंत्रण उपायों द्वारा स्वदेशी ज्ञान प्रणालियों के हाशिए पर जाने की बात पर जोर देती हैं। वे कहती हैं कि ‘हमें नदियों के किनारे रहने का सालों का अनुभव है, फिर भी बाढ़ नियंत्रण से जुड़े कार्यक्रमों में इंजीनियर हमें शामिल नहीं करते हैं।’

ओलम्पिका ओजा मारीवाला हेल्थइनिशिएटिव (एमएचआई) में न्यू इनिशिएटिव में सहायक हैं। 

यह आलेख आईडीआर के लिए संपादित किया गया है। मूल संस्करण एमएचआई के रीफ़्रेम: मेंटल हेल्थ एंड क्लाइमेट जस्टिस के पांचवें संस्करण में प्रकाशित किया गया था।

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अधिक जानें: जानें कि असम के बाढ़-सम्भावित क्षेत्रों को अधिक फंड की आवश्यकता क्यों है।

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