राजस्थान के कृषि मज़दूर एक से दूसरे गांव प्रवास क्यों करते हैं?

कोरोना महामारी के दौरान पूरा देश प्रवासी मजदूरों की हज़ारों किलोमीटर लंबी पैदल यात्राओं का गवाह बना था। लेकिन प्रवास सिर्फ गांवों से शहरों की तरफ ही नहीं, बल्कि गांवों से गांवों में भी होता है। एक गांव से दूसरे गांव जाने वाले ज़्यादातर मजदूर खेती के काम से पलायन करते है। इनकी समस्याएं कहीं ज़्यादा अदृश्य और व्यापक हैं।

राजस्थान के उदयपुर जिले के कोटड़ा ब्लॉक में एक से दूसरे गांव में प्रवास करने वाले अधिकतर मजदूर आदिवासी समुदाय से आते हैं। इन आदिवासियों को अपने आसपास के गांवों में खेती का काम करना ठीक लगता है क्योंकि इससे वे अपने परिवार के साथ रह पाते है। भले ही, इसके लिए उन्हें अपने राज्य की सीमा पार करनी पड़ जाए।

एक से दूसरे गांव होने वाला प्रवास क्या है?

कोटड़ा ब्लॉक, दक्षिण राजस्थान का आखिरी छोर है। यहां अधिकतर भील आदिवासी समुदाय बसता है। इन आदिवासियों की आजीविका ऐतिहासिक रूप से जंगलों से जुड़ी रही है। मसलन तेंदू (बीड़ी बनाने में उपयोगी) पत्ता बीनकर बेचना, बांस, विभिन्न औषधियां तथा अन्य लघु-वनोपज इनकी आय के स्त्रोत रहे हैं। लेकिन 30-40 साल पहले बने कुछ कानूनों ने आदिवासियों को उनके जंगल से दूर कर दिया। ख़ासतौर पर 1972 का वन्य जीव संरक्षण अभयारण्य कानून लागू होने और 1983 में कोटड़ा में ‘फुलवारी की नाल अभयारण्य’ घोषित किए जाने के बाद इनका जीवन बहुत प्रभावित हुआ। कानूनों के प्रभावी होते ही, सरकारी महकमों ने इन्हें वनोपज लेने से रोक दिया।

चूंकि कोटड़ा राजस्थान और गुजरात की सीमा पर है और यहां से महज 10 किलोमीटर दूर से गुजरात के खेत शुरू हो जाते हैं। ज़्यादा दूरी ना होने के कारण भाषा और संस्कृति में कोई खास फर्क नहीं है। इसलिए कोटड़ा के आदिवासियों ने शहरों में प्रवास करने की बजाय गुजरात के गांवों में प्रवास करना बेहतर समझा क्योंकि शहरों में जाकर रहना उनके लिए अपेक्षाकृत कठिन था।

राजस्थान से जुड़ने वाले उत्तरी गुजरात के दो जिलों साबरकांठा और बनासकांठा -जो गुजरात में सब्जियों का सबसे बड़ा उत्पादक है- कृषि की नई तकनीक अपनाने वाले जिले हैं। यहां कई बड़े किसान बस्ते है जिनमें से एक पटेल समुदाय परंपरागत रूप से कृषि प्रधान समुदाय है। इनके पास कई एकड़ ज़मीन है और उन्हें स्थानीय मज़दूरों की ज़रूरत पड़ती है। इन ज़िलों को साबरमती नदी पर बने धरोई बांध से पानी मिलता है और इसलिए इस इलाक़े में, साल में तीन-चार फसलें ली जा सकती हैं।

इसके अलावा, गुजरात में तेजी से औद्योगिक विकास होने की वजह से वहां के स्थानीय मजदूर जैसे ठाकुरडा समुदाय, अनु-सूचित जाति (एससी) और भूमि-हीन अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) जो खेती के काम करते थे, अब उनका रुझान थोड़ा कम हुआ है। उन्होंने गांव में काम करने की बजाय शहरों में बसना शुरू कर दिया है। इनके प्रवास के कारण गुजरात के किसानों को मज़दूरों की ज़रूरत लगी – जो राजस्थान के आदिवासी मजदूरों ने पूरी करी।

आलू छाँटते हुए किसान_प्रवासी किसान
कोटड़ा के आदिवासियों ने शहरों में प्रवास करने की बजाय गुजरात के गांवों में प्रवास करना बेहतर समझा क्योंकि शहरों में जाकर रहना उनके लिए अपेक्षाकृत कठिन था। | चित्र साभार: सरफ़राज़ शेख

क्यों आदिवासियों का प्रवास एक मजबूरी है?

1. जमीन का आकार: कोटड़ा एक पहाड़ी इलाका है। यहां बहुत कम कृषि भूमि है। कुल उपलब्ध जमीन का बस 19 प्रतिशत इलाका ही सिंचाई लायक है। असंचित इलाका अधिक होने से आजीविका के साधन बेहद सीमित हो जाते हैं। इसके अलावा, यहां मूलभूत सुविधाओं का अभाव भी देखने को मिलता है।

2. अवसरों का न होना: इलाक़े में जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन थी, उनके भी परिवार बड़े होते जा रहे हैं और खेती की जमीन कम होती जा रही है। इतने लोगों का पालन-पोषण सिर्फ जमीन के भरोसे संभव नहीं है। ऐसे में लोगों को जमीन बेचनी पड़ती है। खेती-किसानी के अलावा लोगों के पास ऐसा कोई कौशल भी नहीं है जिससे शहर जाकर कमाई की जा सके और ना ही आसपास ऐसे अवसर और सुविधाएं हैं।

3. एक साथ पैसों की जरूरत: शादी-ब्याह, गंभीर बीमारी, कुआं खुदवाने जैसी चीज़ों के लिए एक मुश्त रक़म की जरूरत पड़ती है। ऐसी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए भी प्रवास करना पड़ता है।

प्रवासी मज़दूर कैसे काम करते हैं?

खेती-किसानी के काम में लगातार मजदूर की आवश्यकता होती है। अगर किसान मजदूर को दैनिक मजदूरी पर रखेगा तो वह अपेक्षाकृत बहुत महंगा पड़ता है क्योंकि मजदूर को हर माह पैसे देने पड़ेंगे। और, यदि फसल खराब हुई तो अलग नुकसान होगा। इसलिए इस इलाके में दैनिक मजदूरी की जगह हिस्से की खेती अपनाई गई। हिस्से की खेती मतलब शेयरक्रॉपर—जिसे स्थानीय भाषा में ‘भागिया’ बोलते हैं। इसमें किसान को खेती से जो उत्पादन होता है उसका एक हिस्सा मजदूर को मिलता है। मसलन, किसान को एक फसल में 120 क्विंटल गेंहू प्राप्त हुए तो शेयर क्रॉपर (भागिया) को छठे हिस्से के हिसाब से 20 क्विंटल गेंहू पूरी फसल के दौरान की गई मजदूरी के तौर पर मिलेगा। अगर किसान कोई एडवांस पैसा देता है तो वह भी इसी में से काटा जाएगा। अगर इस फसल चक्र में मजदूरी के लिए अतिरिक्त मजदूर लगाए गए तो उनका भुगतान भी इसी छठे हिस्से यानी 20 क्विंटल से होगा।

आमतौर पर, सीज़न की शुरुआत में किसान और मजदूर के बीच एक मौखिक अनुबंध होता है। किसान 15-20000 रुपए मजदूर को एडवांस देता है। अनुबंध पक्का होने पर मजदूर खेती के काम में परिवार समेत लग जाएगा और पूरे खरीफ़ और कभी-कभी रबी सीज़न तक वहां रहेगा। यह छह महीने से साल भर का प्रवास हो सकता है।

खेतों में काम करते हुए किसान-प्रवासी किसान
ज़मीन के छह हिस्से कुछ इस तरह से विभाजित हैं: ज़मीन, पानी, बीज, खाद, नई तकनीक, और मजदूर। | चित्र साभार: सरफ़राज़ शेख

भागिया खेती में मजदूर की वास्तविकता क्या है?

ज़मीन के छह हिस्से कुछ इस तरह से विभाजित हैं: ज़मीन, पानी, बीज, खाद, नई तकनीक, और मजदूर। किसानों का कहना है कि नई तकनीक के कारण मज़दूरों को कम मेहनत करनी पड़ती है तो एक हिस्सा उसका भी रहेगा। लेकिन मजदूर के छठे हिस्से का कोई गणित नहीं है। मजदूर आसानी से मिल रहे हैं तो उसका खामियाजा मजदूर ही भुगतते हैं।

1. न्यूनतम मजदूरी: गुजरात में कृषि न्यूनतम मजदूरी 268 रुपए है। जब मजदूर शेयर क्रॉपिंग में जाते हैं तो यह मजदूरी घट कर ₹100 के करीब हो जाती है। न्यूनतम मजदूरी के मुक़ाबले यह हिसाब मजदूर के लिए बड़ा घाटा साबित होता है।

2. स्पष्ट कानून की कमी: हिस्से की खेती का कोई कानून नहीं है। मजदूर और मालिक के बीच यदि कोई विवाद हो जाए तो न्याय हो पाना बहुत मुश्किल है। श्रम अधिनियम में दैनिक मजदूरी के भुगतान का प्रावधान है। लेकिन कृषि कार्यों में दैनिक मेहनताना जैसी कोई व्यवस्था ही नहीं है। इसलिए विवादित मामलों में कई बार स्वयं को मजदूर साबित करना तक मुश्किल हो जाता है। ऐसी स्थिति में बिना भुगतान के ही मजदूर को खाली हाथ घर वापस आना पड़ता है। एक मजदूर जब बाहर मजदूरी करने जाता है तो वह राजनैतिक और सामाजिक रूप से कुछ करने में सक्षम नहीं होता। 

3. एडवांस का गणित: किसान मज़दूरों को एक साथ एडवांस देने की बजाय किस्तों में पैसा देते हैं। सबसे पहले, जब मजदूर खेत देखने जाता है तो वहीं सब तय हो जाता कि वह कितने मजदूर लाएगा और किसान उसे कितना एडवांस देगा। उदाहरण के लिए, अगर 30000 रुपए की बात हुई तो शुरुआत में किसान 15 हजार देगा और दूसरी किस्त राखी के त्योहार (अगस्त) पर देगा। जुलाई और अगस्त खेती के लिए भी बहुत ज़रूरी होते हैं। जून में बुवाई का काम शुरू होता है और अगस्त तक फसल के साथ खरपतवार हटाना, कीट नाशक स्प्रे जैसे मुख्य काम होते हैं। किसान एडवांस में जितना पैसा देता है, उतनी मजदूरी किसान उनसे करवा लेता है। अगर किसान की मजदूर के साथ नहीं बनती तो वह दूसरी किस्त दिए बगैर उसे रवाना कर देता है। इसमें मजदूर का पूरा साल खराब होता है क्योंकि मजदूर को अब कहीं कोई और नई जगह भागिया में रखने वाला नहीं होगा, सबने इस समय तक अपने-अपने हिस्सेदार रख लिए होंगे। ऐसे में मजदूर पूरे साल के लिए बेरोजगार हो जाता है। ऐसी परिस्थितियों में कई बार वह कर्ज में आ जाता है।

4. अतिरिक्त मजदूरी: खेती के काम में बहुत बार ऐसा होता है कि तय मजदूर के अतिरिक्त भी और मज़दूरों को काम में लगाना पड़ता है। अतिरिक्त मजदूरों की मजदूरी भागिया के हिस्से से दी जाती है। आमतौर पर भागिया भी इसे सही मानते हैं।

किसानों को क्या नफानुकसान हैं?

1. सस्ता एवं सामाजिक रूप से कमजोर मजदूर: एक से दूसरे गांव में प्रवास के चलते किसानों को साल भर के लिए एक सस्ता मजदूर मिल जाता है। मजदूर के दूसरे राज्य होने के कारण उस पर किसान के राज्य के नीतिगत कानून भी लागू नहीं होते हैं। राज्य सरकार भी प्रवासी मजदूरों की प्रति ज्यादा जवाबदेह नहीं है तो उनके मामले भी खुलकर सामने नहीं आते हैं। किसान भी राजनीतिक और सामाजिक रूप से सक्षम और सशक्त, स्थानीय मज़दूरों को रखने से परहेज़ करते हैं।

2. मनचाही फसल-मनचाहा हिस्सा: आदिवासी मजदूर शहरों में जाने की बजाय गांव में आना ज्यादा पसंद करता है। यह काम उसके लिए परिचित होता है और किसान यह बात समझ गए हैं। इसलिए मजदूर का हिस्सा किसान तय करते हैं। बनासकांठा में आलू की बहुत फसल होती है तो उसमें किसान 10वां हिस्सा तक देते हैं क्योंकि इसमें मुनाफ़ा ज़्यादा है।

3. मजदूरी खर्च: मजदूरी का सारा खर्चा मजदूर के हिस्से में जाता है। खेती का काम में लगभग 50 प्रतिशत लागत और 50 प्रतिशत मजदूरी में खर्च होता है। बीज, पानी, दवाई और बिजली का खर्च एक तरफ और मजदूरी एक तरफ। हिस्से की खेती में मजदूर के हिस्से से इन सभी कामों का और साथ ही, अतिरिक्त मजदूर का भी खर्चा निकल जाता है जिससे किसान का मुनाफा बढ़ जाता।

किसानों के लिए अभी तक एक ही नुकसान सामने आया है कि कई बार ऐसे भागिये किसान के हाथ लग जाते हैं जो एडवांस लेकर चले जाते हैं और काम पर नहीं आते हैं। ऐसा अभी तक 2-3 प्रतिशत केस में देखने को मिला है। किसान का पैसा और मजदूर दोनों चले जाते हैं तो उसे नया आदमी ढूंढना पड़ता है। एक अंदाज़े के मुताबिक़, गुजरात के इन दो ज़िलों में ही लगभग 90 हजार से ज्यादा किसान हैं और सबके पास अपने भागिये हैं। कृषि मजदूर का जब नाम आता है तो आज भी दिहाड़ी मजदूरों की धारणा मन में आती है। लेकिन उससे हटकर यह 30-40 हजार मज़दूर राजस्थान और गुजरात में हिस्से की खेती का काम करते हैं। इन मज़दूरों की जनसंख्या अभी तक किसी को दिखाई नहीं दी है।

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आदिवासी समुदाय मिलकर अपनी संस्कृति को बचा सकते हैं

यह एक व्यापक सच्चाई है और हम आदिवासियों का भी मानना है कि ज्ञान किसी की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं होता है, इसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाना बहुत ज़रूरी है। इसीलिए हजारों वर्षों से विभिन्न आदिवासी समुदायों द्वारा सहेजे गए ज्ञान को संरक्षित करना मेरे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। मेरे पिता, दिवंगत पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा – एक प्रमुख विद्वान, लेखक, अनुवादक, संगीतकार और आदिवासी सांस्कृतिक कार्यकर्ता थे। उन्होंने मुझसे पहले इस संस्कृति को संरक्षित किया और मुझे यकीन है कि उनसे पहले भी तमाम लोग इसे इसी तरह संजोने का काम करते रहे होंगे। किसी संस्कृति को लुप्त होने के लिए केवल एक पीढ़ी की उपेक्षा चाहिए होती है और मैं वह पीढ़ी या उसका हिस्सा नहीं बनना चाहता हूं।

पिछले एक दशक से कई आदिवासी समुदायों जैसे मुंडा, हो, भूमिज, संथाल वग़ैरह के सदस्य यहां आते हैं। ये सब टाटा स्टील फाउंडेशन के एक आदिवासी सम्मेलन संवाद में शामिल होने के लिए इकट्ठा होते हैं। इसके ज़रिये यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जाता है कि हमारी परंपराएं आगे भी ऐसे ही फलती-फूलती रहें। इसके लिए इस वार्षिक आयोजन में हमारे कई वाद्ययंत्रों का प्रदर्शन और उनकी मदद से प्रस्तुतियां भी की जाती हैं। इनमें नगाडा, ढुलकिस, डुमांग और डैंक सहित लगभग 500 विभिन्न वाद्ययंत्र शामिल हैं जो हमारी संस्कृतियों से बहुत गहराई से जुड़े हैं। यह प्रस्तुतियां पूरी तरह से एक सामुदायिक पहल होती हैं। हम ख़ुद संगीत का प्रवाह और धुन तय करते हैं। इसके लिए हमारे पास कोई पेशेवर कोरियोग्राफर नहीं होता जो हमें मार्गदर्शन दे सके।

रिहर्सल के दौरान, जब विभिन्न आदिवासी समुदायों से आने वाले लोग एक साथ इकठ्ठा होते हैं तो हमें एक-दूसरे से बातचीत करने और सीखने का अनोखा अवसर भी मिलता है। आमतौर पर, हमारे पास एक-दूसरे से जुड़ने और अपनी सफलताओं-असफलताओं पर चर्चा करने के लिए पर्याप्त मौक़े और मंच नहीं होते हैं। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि आदिवासियों के रूप-रंग और पहनावे में अंतर के बावजूद दुनियाभर में उनके संघर्ष एक जैसे ही हैं। तेजी से बदलती दुनिया में, हम में से अनगिनत लोग अपने भूमि अधिकारों, अपनी परंपराओं और अपनी भाषा को संरक्षित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसलिए, इस तरह के नेटवर्क विचारों और ज्ञान के आदान-प्रदान के लिहाज़ से महत्वपूर्ण हो जाते हैं। यह हमारी सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

गुंजल इकिर मुंडा एक शिक्षाविद् हैं जो भारत के विश्वविद्यालयों में आदिवासी संस्कृति से संबंधित विषयों को पढ़ा रहे हैं। वह आदिवासी कला, संस्कृति, संगीत और नृत्य के संरक्षण के लिए समर्पित रांची स्थित संगठन रंबुल के सह-संस्थापक भी हैं।

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‘इम्पैक्ट पर ज़ोर नहीं, कैसे दिखाएं डेटा ग़ालिब’

मिर्ज़ा असतुल्लाह खां ग़ालिब यानी चचा ग़ालिब, अपनी शायरी के साथ-साथ अपने ज़माने में, अपनी तरह से इतिहास को दर्ज करने के लिए भी जाने जाते हैं। लेकिन अब वो नहीं हैं और इतिहास भी दूसरी तरह से लिखा जा रहा है, और दोनों बातों पर हमारा कोई ज़ोर नहीं है। हां, चचा ग़ालिब की नज़र से दुनिया को देखने के अलावा, हम इतना ज़रूर कर सकते हैं कि डेवलपमेंट सेक्टर के कुछ शब्दों के मायने आपको समझा दें।

वैसे तो, हम यह काम सरल कोश में करते हैं लेकिन इस बार हमने चचा ग़ालिब से मदद ली है।

जलवायु परिवर्तन

बढ़ रहा है साल दर साल टेम्परेचर ग़ालिब

कहीं सूखा पड़ा तो कहीं बाढ़ आयी है

फ़िलैन्थ्रॉपी

गुडविल ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया

वरना अपनी सात पुश्तों के इंतज़ाम थे

सस्टेनिबिलिटी

इंटरवेंशन को चाहिए इक उम्र असर होने तक

क्या ही टिकता है इरादा, रीसाइकल-रियूज़ होने तक

मॉनिटरिंग एंड इवैल्यूएशन

हमको मालूम है मॉनिटरिंग में ही हक़ीक़त लेकिन

दिल को बहलाने को इवैल्यूएशन कर लेना अच्छा है

फंडिंग

न था कुछ तो एफसीआरए था, कुछ ना होता तो रिटेल फंडिंग थी

डुबोया मुझको लाइसेंस खोने ने, ना होता एनजीओ तो फॉर प्रॉफ़िट होता

इम्पैक्ट

इम्पैक्ट पर ज़ोर नहीं, कैसे दिखाएं डेटा ग़ालिब

ज़मीं पे मिले, लेकिन काग़ज़ पे दिखाई न पड़े

राजस्थान की ग्रामीण लड़की यूट्यूब का क्या करेगी?

मैं राजस्थान के अजमेर जिले में पड़ने वाले चाचियावास गांव से हूं। मेरी बड़ी बहन की शादी हो चुकी है और मेरा भाई दूसरे शहर में काम करता है। और इसलिए, पिछले कई सालों से घर के कामों के साथ-साथ मानसिक रूप से बीमार हमारी मां के देखभाल की ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर ही थी। हमारे गांव के नियम के अनुसार बीए तक की पढ़ाई करने वाली लड़कियों की भी शादी जल्दी कर दी जाती है। मुझसे भी यही उम्मीद की जा रही थी, लेकिन मैं ऐसा नहीं चाहती थी – मैं जानती थी कि मैं शादी करके खुश नहीं रह पाऊंगी। मैं अपना जीवन बनाना चाहती थी।

मैं हमेशा ही रचनात्मक थी और क्लास में बैठ-बैठे कपड़ों के डिज़ाइन बनाया करती थी। मुझे इस बारे में पता नहीं था कि डिज़ाइन भी एक पेशा हो सकता है, लेकिन जब मेरे शिक्षक ने मुझसे इसके बारे में बताया तब मुझे पता चला कि मुझे यह करके देखना चाहिए। मैंने यूट्यूब से फैशन डिज़ाइन की पढ़ाई शुरू की और यहां तक कि राष्ट्रीय फैशन प्रौद्योगिकी संस्थान (निफ्ट) की प्रवेश परीक्षा में भी सफल हुई। लेकिन एक लाख रुपये का प्रवेश शुल्क मेरी आर्थिक सीमा से बाहर की चीज थी और मैं अपना नामांकन नहीं करवा सकी। मैंने बीए कोर्स में भी अपना नाम लिखवाया लेकिन बाद में उसे छोड़ने का फैसला करना पड़ा क्योंकि मेरी प्राथमिकता पैसा कमाना था।

तभी मैं आईपीई ग्लोबल के प्रोजेक्ट मंज़िल से जुड़ गई, जो कौशल-आधारित प्रशिक्षण और नौकरी प्लेसमेंट की सुविधा प्रदान करता है। प्रोजेक्ट टीम के साथ अपने करियर से जुड़ी इच्छाओं पर चर्चा करने के बाद, मैं जयपुर शहर चली गई और वहां एडब्ल्यूएस सर्टिफ़िकेशन पूरा किया जो एक क्लाउड कंप्यूटिंग कोर्स है।

शुरुआत में यह कोर्स मेरे लिए चुनौतीपूर्ण था क्योंकि मेरे पास कंप्यूटर चलाने का अनुभव नहीं था। मैं इसे चालू करना भी नहीं जानती थी। लेकिन धीरे-धीरे, मैंने सीखा और बेहतर होती गई, और कोर्स के अंत में मुझे जयपुर में ही नौकरी मिल गई।

मेरे लिए अपने माता-पिता को यह बात समझाना मुश्किल था कि मैं आर्थिक रूप से स्वतंत्र क्यों होना चाहती थी। जब मैंने घर छोड़ने का फ़ैसला लिया तब मेरे पिता बहुत दुखी हो गये थे। मेरे ना रहने पर मेरे हिस्से का सारा काम उन्हें ही करना पड़ता था – घर के कामों की ज़िम्मेदारी से लेकर मेरी माँ की देखभाल तक। उन्होंने कुछ महीनों तक मुझसे बात भी नहीं की। लेकिन, समय के साथ मेरे परिवार ने मेरे फ़ैसले को स्वीकार कर लिया। हालांकि मेरे पड़ोसी अब भी इस बात के लिए उन्हें ताने देने से नहीं चूकते हैं। मैं घर के खर्चों में मदद के लिए अपने पिता को पैसे भी भेजती हूं।

घर छोड़ने का फैसला मेरे लिए भी आसान नहीं था; शुरुआत में, मैं बहुत डरी हुई थी। लेकिन मुझे यह मालूम था कि मैं अपने इस सुरक्षित खांचे से बाहर निकलना चाहती थी। जयपुर जाने के बाद मैंने एक कमरा किराए पर लिया और अब मैं अपना सारा काम – अपने लिए खाना पकाने से लेकर अपना सारा खर्च उठाने तक – खुद ही सम्भालती हूं। मेरा आत्मविश्वास बढ़ा है। कुछ-कुछ समय पर मैं अपने घर भी जाती हूं। एक तरह से, मैं और मेरे पिता, हम दोनों इस नई परिस्थिति के अनुसार ढल चुके हैं।

अब मैं एक स्थायी नौकरी में हूं और मुझ पर – अपनी और मेरे माता-पिता दोनों की – आर्थिक जिम्मेदारियां भी हैं। ऐसे में फैशन डिज़ाइन के क्षेत्र में वापस लौटने या उसकी पढ़ाई का खर्च उठाने की मेरी उम्मीद धुंधली पड़ती जा रही है। हालांकि, मैं हार ना मानने का पक्का इरादा किया है। इसलिए, मैं ऐसे प्रयास करती रहती हूं जिससे कि अलग से कुछ पैसे कमा सकूं। कभी-कभी मैं ओवरटाइम भी करती हूं। हाल ही में, मैंने अपनी कमाई का एक छोटा सा हिस्सा एसआईपी में भी निवेश करना शुरू किया है। इसके अलावा मैं यूट्यूब से शेयर बाज़ार में ट्रेडिंग के तरीक़े भी सीख रही हूं। तकनीक के साथ मेरे काम के कारण अब मैं इंटरनेट की पेचीदगियों को समझने लगी हूं, जिसमें अधिकतम हिट वाले और समझने में आसान कंटेंट बनाने वाले सही कंटेंट क्रिएटर को चुनना शामिल है। मैं ट्रेडिंग की जटिल अवधारणाओं को ठीक से समझने के लिए ऑडियोबुक भी सुनती हूं। मैं एक अच्छे ऑनलाइन सर्टिफिकेट कोर्स की भी तलाश में हूं और मैंने अपनी डिग्री पूरी करने के लिए बीए कोर्स में नामांकन भी करवाया है। जयपुर आने के बाद से मैंने अपने भीतर एक बदलाव महसूस किया है और मैं सोचती हूं कि काश मुझे अपना खोया हुआ समय वापस मिल जाता।

दीपा शारदा राजस्थान के जयपुर में काम करती हैं।

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फ़ोटो निबंध: अहमदाबाद की बॉयलर फ़ैक्ट्री के श्रमिकों की स्थिति की एक झलक

नारोल, अहमदाबाद नगर निगम के दक्षिण जोन के बड़े औद्योगिक समूहों में से एक है। यहां लगभग 2,000 उद्यम हैं जो कपड़ों की ढुलाई, रंगाई, ब्लीचिंग, स्प्रेइंग, डेनिम फिनिशिंग और छपाई (प्रिंटिंग) जैसी विशिष्ट प्रक्रियाओं का काम करते हैं। ये सभी उद्यम अनौपचारिक हैं और ठेके के आधार पर संचालित होते हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि प्रमुख नियोक्ताओं और श्रमिकों के बीच ठेकेदारों की एक लंबी कड़ी होती है।

कारखाने में काम करने वाले किसी श्रमिक का संपर्क केवल उसके ठेकेदार से होता है, जिसे उससे ऊपर का ठेकेदार श्रमिकों के पास अपना एजेंट बनाकर भेजता है। कुल मिलाकर, ये सभी उद्यम अनरजिस्टर्ड शॉप फ़्लोर्स की तरह काम करते हैं, जिसमें हर शॉप-फ़्लोर पर 20–30 कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती है जो एक टीम बनाकर तीन या चार मशीनों पर काम करते हैं। ये कर्मचारी कंपनी के प्रबंधन या प्रमुख नियोक्ता की बजाय सीधे अपने ऊपर काम करने वाले ठेकेदार के प्रति जवाबदेह होते हैं। इन व्यापारिक व्यवस्थाओं और व्यापार को जोड़ने वाला एक सामान्य सूत्र ‘बॉयलर’ है, जो एक भट्टी जैसा कंटेनर होता है जिससे भाप निकलती है। यह कपड़ा तैयार करने की प्रक्रिया के हर चरण के लिए जरुरी होता है।

रख-रखाव (मेंटेनेंस) के अलावा बॉयलर को हमेशा चलाये रखने की ज़रूरत होती है, जिसका मतलब है कि इसे चलाने वाले श्रमिकों को ओवरटाइम करना पड़ता है। चूंकि इन बॉयलर से लगातार भारी मात्रा में गर्मी और धुंआ निकलता है, इसलिए यह कर्मचारियों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। इसके अलावा, विस्फोट और जलने जैसे अन्य जोखिम भी हैं।

यह फोटो निबंध नारोल के बॉयलर उद्योग में कार्यरत लोगों के जीवन की एक झलक देता है। साथ ही, यह भी दिखाता है कि कैसे श्रमिकों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और उनके काम की अनौपचारिक प्रकृति उनके जीवन की चुनौतियों को बढ़ाती है।

एक कारखाने में कपड़ों को भाप देने वाला एक ऑपरेटिंग बॉयलर_अहमदाबाद बॉयलर फैक्ट्री
कपड़ों को भाप देने, इस्तरी करने और सुखाने के लिए कारखाने के फर्श पर एक ऑपरेटिंग बॉयलर की जरूरत होती है।

प्रवासी श्रमिक, अनौपचारिक श्रम और कम वेतन

बॉयलर का काम आमतौर पर अनुसूचित और अधिसूचित जनजातियों से आने वाले प्रवासी श्रमिक ही करते हैं जिन्हें छोटे ठेकेदारों द्वारा थोड़े समय के लिए नियुक्त किया जाता है। ऐसे ज़्यादातर श्रमिक गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान के सीमांत जिलों से आते हैं। इनमें से अधिकतर श्रमिक भूमिहीन होते हैं जो थोड़ी ही सही लेकिन नियमित आमदनी के लिए अहमदाबाद जैसे शहरों में आ जाते हैं। इसलिए कि ऐसे मौक़े उनके अपने इलाक़ों में उपलब्ध नहीं होते हैं। आमतौर पर ये श्रमिक अपने परिवारों के साथ आते हैं जो उनके साथ इन्हीं फ़ैक्ट्रियों में काम भी करते हैं। खेती के मौसम में जब वे वापस अपने गांव जाते हैं, तब उन्हें दूसरे लोगों के खेतों में खेतिहर मज़दूर के रूप में काम पर रखा जाता है। इस बात की कोई गारंटी नहीं होती कि गांव से वापस लौटने पर फैक्ट्री में उनकी नौकरी बची ही रहेगी, क्योंकि मौखिक ठेके पर मिलने वाले उनके रोज़गार की अवधि छह से बारह महीने तक ही होती है।

ठेकेदार इन श्रमिकों को काम पर रखते समय खर्ची (भत्ता) देते हैं और बाकी का पैसा उन्हें महीने के पहले सप्ताह में मिलता है। इन श्रमिकों को गुजरात के कानून के हिसाब तय न्यूनतम वेतन से कम मिलता है जो 11,752 रुपये प्रति माह है। यह राशि कपड़ा निर्माण के उच्च स्तर की प्रक्रियाओं जैसे रंगाई, छपाई और धुलाई में शामिल श्रमिकों की कमाई से बहुत कम है, जो आसानी से प्रति माह 14,000-16,000 रुपये तक कमाते हैं। इसके अलावा, बॉयलर श्रमिकों को अनिवार्य आठ घंटे से अधिक काम करने के लिए मजबूर किया जाता है और उन्हें इस ओवरटाइम के लिए अलग से कोई पैसा भी नहीं मिलता है। ये श्रमिक, कर्मचारी राज्य बीमा और भविष्य निधि जैसे उपायों से मिलने वाला सामाजिक सुरक्षा कवरेज से भी वंचित होते हैं।

लकड़ी पर चलने वाली मशीन पर काम करता एक श्रमिक_अहमदाबाद बॉयलर फैक्ट्री
अपेक्षाकृत कुशल तकनीक उपलब्ध होने के बावजूद अधिकांश बॉयलर आज भी कोयला या लकड़ी पर काम करने वाली पुरानी मशीनरी पर काम करते हैं।

कार्यस्थल और घर दोनों जगहों पर खतरा

आमतौर पर बॉयलर में काम करने वाले लोग, कार्यस्थल पर सामाजिक आर्थिक रूप से सबसे निचले पायदान पर आने वाले लोग होते हैं – वे सबसे अधिक वंचित जाति समूहों से आते हैं और उनके पास शिक्षा और आजीविका के बहुत अधिक अवसर नहीं होते हैं। बॉयलर में काम करने का उनका मूल कारण अपनी आमदनी को बढ़ाना होता है – वे अस्थायी नौकरी करते हुए अस्थायी बस्तियों में रहकर किराये में लगने वाले पैसे की बचत करते हैं।

बिना किसी संघ से जुड़े हुए कर्मचारी अक्सर कारख़ानों में सुरक्षा प्रोटोकॉल से जुड़ी कमियों की शिकायत नहीं करते हैं क्योंकि उन्हें अपने काम से निकाले जाने का डर होता है। दो टन क्षमता वाले एक बॉयलर को चलाने के लिए चार परिवारों को काम पार रखा जाता है जो दो शिफ्ट में काम करते हैं। पुरुष ईंधन को हाथों से जलाते हैं जो आमतौर पर लकड़ी या कोयला ही होता है; वे 400–450- डिग्री तापमान वाली भट्ठी के नजदीक खड़े होते हैं और उन्हें लगातार कई-कई घंटों तक गर्मी, धुंआ और धूल का सामना करते हुए काम करना पड़ता है। लकड़ियों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटने, उन्हें भट्ठी तक लेकर जाने और राख को निकालने और प्रबंधित करने जैसे छोटे-छोटे काम महिलाएं करती हैं। इन सभी प्रकार के कामों को करते समय उन्हें धूल कण, चारकोल और राख के बीच रहना पड़ता है जिसका उनके स्वास्थ्य पर बहुत ही हानिकारक प्रभाव पड़ता है। पति-पत्नी दोनों के काम पर होने के कारण उनके बच्चे बिना किसी निगरानी के उन फैक्ट्रियों के आसपास घूमते रहते हैं। अगर बॉयलर का नियमित प्रबंधन और देखरेख ना किया जाए तो उनके फटने और उनमें आग लगने का जोखिम बहुत अधिक होता है।

बॉयलर में काम करने वाली 27 साल की चंदा* ने बताया कि ‘चूंकि पुरुषों को मजदूरी  के रूप में मिलने वाला पैसा घर चलाने के लिए पर्याप्त नहीं होता है इसलिए महिलाएं काम में उनका हाथ बंटाती हैं। महिला श्रमिकों को किसी तरह की निजता नहीं मिलती है – हमें कार्यस्थलों पर परेशान किया जाता है – हम लोगों का वेतन भी पुरुष श्रमिकों के वेतन से आधा होता है। इसके अलावा हमें खाना पकाने, जरूरत का सामान खरीदने, कपड़े और बर्तन धोने के साथ ही बच्चों को संभालने का काम भी करना पड़ता है।

लकड़ी इकट्ठा करती एक महिला बॉयलर श्रमिक_अहमदाबाद बॉयलर फैक्ट्री
लकड़ी से चलने वाले बॉयलर को चलाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ी इकट्ठा करती एक महिला बॉयलर कर्मचारी।

बड़े और सुरक्षित फैक्ट्रियों में, बॉयलर सीएनजी जैसे कम उत्सर्जन वाले ईंधन पर चलाये जाते हैं और एक ऑपरेटर की जरूरत केवल ईंधन आपूर्ति का ध्यान रखने और भट्ठियों का तापमान सेट करने के लिए होती है। लेकिन उन्नत तकनीक वाले ऐसे बॉयलर नारोल जैसी जगहों में कम ही हैं जहां मशीनों के संचालन, मरम्मत और रखरखाव का काम भी बाहर के ठेकेदारों को दिया जाता है। इन ठेकेदारों को बेहतर तकनीक वाली मशीनों के निर्माताओं की ना तो जानकारी होती है और ना ही उनके साथ किसी तरह का संपर्क। ऐसे किसी निर्माता के बारे में जानकारी होने पर भी वे उनसे संपर्क करने में झिझकते हैं क्योंकि ऐसी तकनीकें श्रम बल की जगह ले सकती हैं और उन्हें काम का नुकसान हो सकता है।

महिलाओं का स्वास्थ्य घर के पुरुषों की तुलना में और भी अधिक जोखिम में होता है।

श्रमिक एक अस्थायी ऑन-साईट ढांचे में रहते हैं जिसे प्रोजेक्ट बंद होने या उसकी जगह बदल जाने की स्थिति में आसानी से ध्वस्त किया जा सकता है। इन ढांचों को एस्बेस्टस, पीतल, या कभी-कभी स्टील की मदद से बनाया जाता है; ये ढांचे गंदे होते हैं, रौशनी की कमी होने और हवादार ना होने की वजह से ये बहुत गर्म और शुष्क होते हैं। इन फैक्ट्रियों में श्रमिकों को लगातार खतरनाक स्थितियों में काम करना पड़ता है और उनके घरों पर भी साफ-सुथरे वातावरण का अभाव होता है। नतीजतन उन्हें कई तरह की गंभीर और लाइलाज बीमारियां हो जाती हैं। घरेलू कामों का बोझ पूरी तरह से महिलाओं पर ही होता है और चूंकि वे लंबे समय तक वैतनिक और अवैतनिक दोनों तरह के काम करती हैं, घर में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं का स्वास्थ्य अधिक जोखिम में होता है।

पेशे से मेडिसिन विशेषज्ञ और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के स्वास्थ्य पर काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था, बेसिक हेल्थकेयर सर्विसेज के साथ एक शिक्षक के रूप काम करने वाले डॉक्टर आरके प्रसाद कहते हैं कि ‘बॉयलर में काम करने वाला एक आदमी मुश्किल से एक दिन 800 कैलोरी का सेवन करता है, लेकिन काम करते समय लगभग 2,000 कैलोरी जलाता है। इससे समय के साथ उनके जीवन की गुणवत्ता कम हो जाती है। बॉयलर में काम करने वाली सभी महिलाएं [और श्रमिकों के बच्चे] गंभीर रूप से कुपोषित हैं। इसकी पूरी संभावना है कि कुछ श्रमिकों को न्यूमोकोनियोसिस या ‘ब्लैक लंग डिजीज’ हो गया है, जो लंबे समय तक सांस के माध्यम से कोयले की धूल के लगातार फेफड़ों के अंदर जाने के कारण होता है।

एक बस्ती_ अहमदाबाद बॉयलर फैक्ट्री
नारोल में बॉयलर श्रमिकों की एक ऑन-साइट बस्ती।

सौदेबाजी की शक्ति बढ़ाने के लिए संघ के नेतृत्व की वकालत

बॉयलर ऑपरेशन नियम, 2021 की धारा 4 में कहा गया है कि बॉयलर ऑपरेशन इंजीनियर को या तो सीधे बॉयलर ऑपरेशन का प्रभारी होना होगा या एक अटेंडेट नियुक्त करना होगा। इसके अलावा, इस नियम की धारा 7 के अनुसार इस व्यक्ति को बॉयलर के 100 मीटर के दायरे में उपस्थित रहने का भी निर्देश है। अहमदाबाद में कारखानों में कार्यरत प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों और पात्रताओं पर ध्यान केंद्रित करने वाली एक पंजीकृत ट्रेड यूनियन कारखाना श्रमिक सुरक्षा संघ (केएसएसएस) ने 25 उद्यमों के साथ एक सर्वेक्षण किया गया था। इस सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि ऑपरेटिंग बॉयलर वाले उद्यम इन नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं। इसमें यह भी बताया गया कि अधिकांश फैक्ट्रियों में वेतन, सामाजिक सुरक्षा, ओवरटाइम और निर्धारित काम के घंटों से जुड़े नियमों का उल्लंघन होता है। श्रमिकों को मास्क, दस्ताने या जूते आदि जैसे सुरक्षा के साधन मुहैया नहीं करवाए जाते हैं। इसके अलावा, ना तो ऐसे किसी अधिकारी की नियुक्ति की जाती है और ना ही ऐसी कोई समिति बनाई जाती है जो काम वाली जगह पर किसी भी प्रकार की आपात स्थिति को रोक सके या उससे निपट सके। साथ ही, महिलाओं के लिए अलग शौचालय और बच्चों के लिए डे-केयर की सुविधा भी नहीं है। केएसएसएस अब श्रमिकों के अधिकारों और पात्रताओं से जुड़े प्रशिक्षण और कानूनी साक्षरता प्रदान करता है, मालिकों और ठेकेदारों के बीच औद्योगिक विवाद की मध्यस्थता कर उनका समर्थन करता है, और राज्य और स्थानीय सरकारों के अंदर आने वाले विभिन्न विभागों के साथ मिलकर इन्हें मदद पहुंचाता है।

केएसएसएस के सदस्य, कारखाना श्रमिकों का एक मिश्रित समूह हैं, जिनमें बॉयलर, रंगाई, छपाई, धुलाई, सिलाई और पैकेजिंग के साथ-साथ छोटे ठेकेदार भी शामिल हैं। ऐसे छोटे ठेकेदार जो यूनियन के सदस्य हैं, वे कारखाना श्रमिकों के संघर्ष को समझते हैं और उनके साथ सहानुभूति रखते हैं, और वे अहमदाबाद के अनौपचारिक प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों और पात्रताओं को सामने लाने के यूनियन के लक्ष्यों के साथ जुड़ते हैं।

श्रमिकों ने अब विभिन्न मुद्दों को औद्योगिक सुरक्षा और स्वास्थ्य निदेशालय (डीआईएसएच), कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ईएसआईसी) के क्षेत्रीय निदेशक और गुजरात के बॉयलर निदेशालय के कार्यालय में उठाया है। वर्तमान में, डीआईएसएच ने वेतन उल्लंघन के लिए 11 उद्यमों को नोटिस जारी किया है। ईएसआईसी भी उन उद्यमों का निरीक्षण करने और दंडित करने पर सहमत हो गया है जो श्रमिकों को कर्मचारी राज्य बीमा कवर प्रदान नहीं करते हैं।

एक साथ बैठे कुछ श्रमिकों का समूह_अहमदाबाद बॉयलर फैक्ट्री
केएसएसएस के सदस्य कारखानों में अनौपचारिक प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों पर कानूनी साक्षरता सत्र में भाग ले रहे हैं।

बॉयलर साइट पर काम करने वाले 37 वर्षीय छोटे ठेकेदार और केएसएसएस सदस्य मदनलाल* कहते हैं ‘जिस उद्यम में मैं काम करता हूं, उसे मिलाकर कई उद्यमों ने यूनियन द्वारा मांग पत्र सौंपे जाने के बाद बॉयलर का निरीक्षण किया। बाद में, श्रम विभाग ने एक उद्यम में सभी बॉयलर ऑपरेटरों की एक बैठक भी बुलाई थी और सुरक्षा प्रोटोकॉल पर एक सत्र आयोजित किया था। यह संघ की हिमायतों का ही परिणाम था।’

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिये गये हैं।

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अधिक जानें

एनजीओ में काम करने वालों का… दरद ना जाने कोय

विकास सेक्टर में काम करने वाले कभी अपने काम के बारे में एक शब्द या एक लाइन में नहीं बता पाते हैं। लंबा और विस्तार से समझाने के बाद भी आसपास ऐसी ही लोग ज़्यादा दिखते हैं जिनको यह पता नहीं चलता कि वे करते क्या हैं। ऐसी ही कुछ दुविधाओं का ज़िक्र नीचे हैं, उम्मीद है कि इन उदाहरणों में से बहुत कम आपके हिस्से आए हों। (लेकिन ऐसा होगा नहीं, ये आपको भी पता है, है न!)

1. जो फंडर को आसान लगता है, वो हमको बहुत ज़ोर से लगता है… आह!

सोच

जादुई ट्रिक्स दिखाता अक्षय_समाज और सोशल वर्कर

सच

रोलर को रोकता अक्षय_समाज और सोशल वर्कर

2. सरकार को हम जो दिखाना चाहते हैं, वह उसके अलावा सबकुछ देखती है…क्यों? क्यों? क्यों?

सोच

प्रोटेस्ट करते अक्षय एवं साथी_समाज और सोशल वर्कर

सच

सड़क पर बैठे कुछ लोग एवं अक्षय_समाज और सोशल वर्कर

3. दोस्त ने बस ये पूछा था कि मैं करता क्या हूं… और मैं –

सोच

कुछ लोगो के साथ अक्षय_समाज और सोशल वर्कर

सच

लोगो के साथ बातचीत करता अक्षय_समाज और सोशल वर्कर

4. आपके आसपास, मुहल्ले-पड़ोसियों और समाज वालों की नज़र में 

सोच

हाथ जोड़ता अक्षय_समाज और सोशल वर्कर

सच

मेनेजर से विनती करता अक्षय_समाज और सोशल वर्कर

5. जब मैनेजर काम बताए तब –

सोच

सड़क पर मायूस बैठा अक्षय_समाज और सोशल वर्कर

सच

कुछ पूछने की मुद्रा मे अक्षय_समाज और सोशल वर्कर

6. ‘आख़िर तुम करते क्या हो?’ का सही जवाब –

सोच

ऑटो से उतरता अक्षय_समाज और सोशल वर्कर

सच

हँसता हुआ अक्षय_समाज और सोशल वर्कर

कैसे मौसम की अनियमितता किसानों से उनकी खेती-बाड़ी छीन रही है

लखनऊ। सुबह के लगभग 8 बज रहे होंगे। शैलेंद्र अपने ट्रैक्‍टर पर हल्‍के हाथ से कपड़ा मारते हैं और सीट पर बैठकर चाबी लगा देते हैं। बगल वाली सीट पर अपने सहयोगी को बैठाते हैं और गाड़ी लेकर न‍िकल जाते हैं। कभी इस समय वे अपने खेतों में होते थे।प‍िछले साल धान लगाया। शुरू में बार‍िश नहीं हुई। डीजल मशीन से सिंचाई करनी पड़ी। फसल पकी तो इतनी बार‍िश हुई क‍ि आधी फसल पानी में डूब गई, जो बाद में सड़ गई। उससे पहले मेंथा में नुकसान हुआ था। इसके बाद पहली बार आधे खेत में मक्‍का लगाया। नुकसान तो नहीं हुआ। लेकिन फायदा भी नहीं हुआ। ऐसा कई साल से चल रहा। इसलिए मैंने अपने खेत का एक ह‍िस्‍सा एक प्राइवेट कंपनी को दे द‍िया। अब खेत कम है तो काम भी कम है। ट्रैक्‍टर से अब दूसरे खेत जोतता हूं और पैसे म‍िलने पर दूसरे काम भी करता हूं।’

खेत मे काम करते कुछ किसान_अनियमित मौसम और खेती
प‍िछले साल मार्च में हुई बार‍िश से पांच एकड़ में लगी आलू की फसल लगभग 20% तक खराब हो गई। चित्र साभार: म‍िथ‍िलेश धर दुबे

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 60 किलोमीटर दूर ज‍िला बाराबंकी के तहसील फतेहपुर के टांडपुर में रहने वाल शैलेंद्र शुक्‍ला (46) खुश तो नहीं हैं। लेक‍िन उन्‍हें मजबूरी में खेत का एक बड़ा ह‍िस्‍सा प्राइवेट कंपनी को देना पड़ा।

‘प‍िछले दो साल में खेती से बस नुकसान ही हुआ है। प‍िछले साल मार्च में हुई बार‍िश से पांच एकड़ में लगी आलू की फसल लगभग 20% तक खराब हो गई। दो से तीन रुपए प्रत‍ि क‍िलो का भाव म‍िला। मार्च की बार‍िश की वजह से मेंथा की बुवाई प‍िछड़ गई। इसल‍िए पहली बार मक्‍का लगाया। शुरू में मक्‍के के पौधों में कीड़े लग गये। सही रेट की समस्‍या तो क‍िसानों को पहले भी थी। लेक‍िन अब मौसम हमारा सबसे बड़ा दुश्‍मन बन गया है।’ शैलेंद्र इन सबके लिए बदलते मौसम को कसूरवार ठहराते हैं।

भारत मौसम विज्ञान व‍िभाग के अनुसार फरवरी 2023 में अधिकतम तापमान 29.66 डिग्री सेल्सियस (ºC), मिनिमम 16.37ºC और औसत तापमान 23.01ºC था जबकि 1981-2010 की अवधि के अनुसार ये तापमान क्रमश: 27.80 ºC, 15.49 ºC और 21.65 ºC था। व‍िभाग ने अपनी र‍िपोर्ट में बताया था क‍ि पूरे भारत में फरवरी 2023 के दौरान औसत अधिकतम तापमान 1901 के बाद से सबसे अधिक 29.66 ºC रहा और इसने 29.48 ºC के पहले के उच्चतम रिकॉर्ड को तोड़ दिया जो फरवरी 2016 में था।

इंड‍ियास्‍पेंड हिंदी, शैलेंद्र को प‍िछले एक साल से फॉलो कर रहा है। दरअसल हम देखना चाहते थे क‍ि क‍िसान बदलते मौसम से क‍ितना प्रभावित हो रहे हैं। इस कड़ी में हमने कुछ ऐसे क‍िसानों से भी बात की ज‍िनसे हम खेती-क‍िसानी के मुद्दों पर पहले भी बात कर चुके हैं। कई क‍िसानों ने हमें बताया क‍ि बदलते मौसम की वजह से उन्‍हें नुकसान तो उठाना ही पड़ रहा, फसली चक्र भी बदलना पड़ा है ज‍िसकी वजह से हमारा नुकसान और बढ़ रहा।

12 हजार प्रति बीघा पर निजी कंपनी को दिया 30 बीघा खेत

‘प‍िछले कुछ वर्षों से खेती से कमाई बहुत अनिश्‍चित हो गई। न‍िजी कंपनी हमें प्रत‍ि बीघा के ह‍िसाब से 12 हजार रुपए सालाना देगी। हमने अपना 18 बीघा खेत कंपनी को दे द‍िया जो यहां पराली से बायो ईंधन बनाने का प्रोजेक्ट लगा रही है।’

शैलेंद्र इस बात से खुश हैं क‍ि उनके पास हर हाल में एक निश्चित आय होगी। ‘मेरे पास अभी जो लगभग 20 बीघा खेत है, उसमें गेहूं लगाने की तैयारी कर रहा हूं। इस साल भी फसल प‍िछड़ चुकी है। जो बुवाई नवंबर के पहले सप्‍ताह में हो जानी चाह‍िए थी, वह द‍िसंबर के पहले सप्‍ताह तक नहीं हो पाई है क्‍योंक‍ि अक्‍टूबर में बार‍िश की वजह से धान की कटाई प‍िछड़ गई। अब गेहूं फसल तो प्रभावित होगी ही, प‍िछली बार की तरह इस बार भी उत्‍पादन प्रभावित होगा।

‘मौसम में इतना उतार चढ़ाव हो रहा क‍ि क‍िसान परेशान हैं। जब पानी चाह‍िए तो बार‍िश होती नहीं। जब फसल कटने वाली होती है तो बार‍िश हो जाती है। इतना र‍िस्‍क शायद ही क‍िसी और काम में हो।’ शैलेंद्र अपनी बात खत्म करते हुए कहते हैं।

ट्रैक्टर_अनियमित मौसम और खेती
शैलेंद्र शुक्‍ला का वह खेत ज‍िसमें पहले खेती होती थी, अब एक प्राइवेट कंपनी ने अपना शुरू क‍िया है।

वे यह भी कहते हैं क‍ि वर्ष 2022 में भी अक्‍टूबर महीने में हुई बार‍िश के कारण धान की फसल तो बर्बाद हुई ही, गेहूं की बुवाई में भी देरी हुई। फ‍िर फरवरी 2023 में ज्‍यादा तापमान की वजह से पैदावार प्रभावित हुई।

इंड‍ियास्‍पेंड ने अपनी एक र‍िपोर्ट में बताया था क‍ि कैसे फरवरी महीने का उच्‍च तापमान गेहूं सह‍ित रबी की दूसरी फसलों की पैदावार प्रभावित हो सकती है।

अपने खेत को देखता एक किसान_अनियमित मौसम और खेती
क‍िसान शैलेंद्र शुक्‍ला।

किसानों पर दोहरी मार

लखनऊ से लगभग 250 क‍िलोमीटर दूर भदोही में रहने वाले क‍िसान पप्‍पू सिंह (55) प‍िछले साल की तरह इस साल भी परेशान हैं। प‍िछले सीजन में पैदावार लगभग 30% कम थी। वे कहते हैं पिछले साल तरह इस साल भी हो रहा।

‘प‍िछली बार गेहूं की बुवाई इसलिए प‍िछड़ गई थी क्‍योंक‍ि देर से हुई बार‍िश की वजह से धान कटाई में देरी हुई। इस साल भी ऐसा ही हुआ है। अक्‍टूबर में बार‍िश हो गई। प‍िछले साल तो 25 नवंबर को बुवाई कर दी थी। इस साल बुवाई दो द‍िसंबर तक हो पाई है। अब ऐसे में अगर प‍िछले साल की तरह फरवरी में तापमान फ‍िर बढ़ा तो पैदावार और कम हो सकती है क्‍योंक‍ि उस समय बाल‍ियों में दाना लगना शुरू होता है।’

वे बताते हैं क‍ि 2021 में प्रति एकड़ लगभग 26 क्विंटल गेहूं न‍िकला था। 2022 में ये घटकर 22 क्विंटल हो गया था। उन्हें आशंका है कि इस साल पैदावार और घटेगी इसलिए उन्‍होंने इस साल गेहूं 50 बीघा की जगह 30 बीघे में ही गेहूं लगाया।

खरीफ सीजन 2022-23 में 2021-22 में गेहूं का रकबा बढ़कर 304.59 से बढ़कर 314 लाख हेक्‍टयेर तक पहुंच गया और उत्‍पादन कुल उत्‍पादन में भी बढ़ोतरी देखी गई। लेक‍िन प्रत‍ि हेक्‍टेयर उत्‍पादन 3,537 क‍िलोग्राम से घटकर (2021-22 की अपेक्षा) 3,521 क‍िलोग्राम पर आ गया।

धान उत्पादन के मामले में देश के दूसरे सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के किसानों पर वर्ष 2022 में दोहरी मार पड़ी थी।

डेटा_अनियमित मौसम और खेती
फरवरी 2023 के दौरान अधिकतम तापमान में हुए बदलाव की र‍िपोर्ट। | सोर्स: भारत मौसम विज्ञान विभाग

पहले जब जरूरत थी, तब बारिश नहीं हुई। फसल पककर खड़ी हुई तो बारिश इतनी हुई कि खड़ी फसल बर्बाद हो गई। मई और जून का महीना धान की बुवाई के लिए सबसे सही समय माना जाता है। बुवाई के तीसरे सप्ताह से ही पानी की जरूरत पड़ने लगती है। भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार 1 जून से 24 अगस्त 2022 के बीच पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 294 मिलीमीटर बारिश हुई थी जो सामान्य से 41% कम थी। इसी दौरान पूर्वी उत्तर प्रदेश में 314.9 मिमी बारिश हुई थी जो सामान्य से 46% कम रही।

यह भारत के लिए अल नीनो वर्ष है ज‍िसकी वजह से मौसम संबंधी घटनाक्रम होते हैं जो मानसून में भिन्नता का कारण बनती है। कहीं असामान्य रूप से बार‍िश होगी तो कहीं कम बार‍िश या सूखा। चक्रवात बिपरजॉय और अन्य मौसमी प्रभावों के बाद भी भारत में जून 2023 के अंत तक मानसून बार‍िश की 10% कमी रही। वहीं इस मानसून सत्र में पूरे देश में 6% बार‍िश कम हुई जो 2018 के बाद सबसे कम रही। हालांक‍ि खरीफ सीजन में सबसे ज्‍यादा बोई जाने वाली फसल धान का रकबा बढ़ गया।

गेहूं की बुवाई पिछड़ी, भंडारण भी घटा

देश में गेहूं की बुवाई का रकबा 17 नवंबर, 2023 तक एक साल पहले की तुलना में 4.7 लाख हेक्टेयर यानी 5.5 फीसदी घटकर 86 लाख हेक्टेयर रह गया है। इस बीच केंद्र सरकार ने प‍िछले साल की तरह इस साल भी गेहूं न‍िर्यात पर रोक लगा दी। क्‍योंक‍ि केंद्रीय पूल में गेहूं भंडारण की स्‍थ‍ित‍ि प‍िछले वर्ष की ही तरह इस साल भी कम है। नवंबर महीने तक भंडार में 219 लाख मीट्र‍िक टन गेहूं था। वर्ष 2022 में इस समय 210, 2021 में 420, 2020 में 419 और 2019 में 374 लाख मीट्र‍िक टन गेहूं का स्‍टॉक था।

गेंहू स्टॉक का डेटा-अनियमित मौसम और खेती
केंद्रीय पूल में गेहूं नवंबर महीने तक गेहूं स्‍टॉक की र‍िपोर्ट। | सोर्स: फूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया

वर्ष 2022 में 1 से 10 अक्टूबर के बीच 129 मिमी बारिश हुई थी जो सामान्य से 683 प्रतिशत अधिक थी। इसकी वजह से पिछले रबी सीजन में भी गेहूं की बुवाई प्रभावित हुई थी।

भारत का मैप_अनियमित मौसम और खेती
उत्तर प्रदेश में 1 से 10 अ 2022 के बीच हुई बार‍िश की र‍िपोर्ट। | सोर्स: आईएमडी

प‍िछले साल की तरह अक्टूबर 2023 में भी देश के कई हिस्सों में भारी बार‍िश हुई। ये वह समय था जब धान की फसल पक गई थी और कटने को तैयार थी। 17 अक्‍टूबर 2023 को उत्तर प्रदेश के 13 ज‍िलों में भारी बार‍िश हुई ज‍िसकी वजह से गेहूं बुवाई में देरी हो रही है।

उत्तर प्रदेश के ज‍िला म‍िर्जापुर के कछवा में रहने वाले युवा क‍िसान व‍िवेक कुमार (30) का लगभग दो एकड़ में लगी धान की फसल अभी तक कट नहीं पाई है। वे बताते हैं, ‘इन खेतों में इस साल गेहूं लगाना मुश्‍क‍िल लग रहा। अक्‍टूबर में हुई बार‍िश की वजह से खेतों से नमी जा ही नहीं पाई है। धूप बहुत कम हो रही। अब द‍िसंबर की शुरुआत में ही एक बार‍ फ‍िर बार‍िश हो रही है। इस साल गेहूं खरीदकर ही खाना पड़ेगा।’

‘इस साल म‍िर्च भी लगाया था ज‍िसकी लागत बहुत ज्‍यादा आ गई। गर्मी की शुरुआत में बार‍िश नहीं हुई ज‍िसकी वजह से खेत सूख गये। ज‍िसकी वजह से पानी की खपत तीन से चार गुना बढ़ गई। डीजल महंगा होने की वजह से बुवाई की लागत बढ़ गई। खेती में हमारे ह‍िस्‍से नुकसान ही आ रहा।’

मौसम व‍िभाग ने चक्रवात मिगजॉम की वजह से देश के कई ह‍िस्‍सों में द‍िसंबर 2023 के पहले सप्‍ताह में भारी और कई जगह हल्‍की बार‍िश की चेतावनी दी है। कई राज्‍यों में 3 और 4 द‍िसंबर को भारी बार‍िश हुई।

हर‍ियाणा के करनाल स्थित भारतीय गेहूं और जौ अनुसंधान संस्थान (IIWBR) के प्रधान कृष‍ि वैज्ञानिक अनुज कुमार (Quality and Basic Science) बताते हैं क‍ि क‍िसान गेहूं की तीन क‍िस्‍मों की खेती करते हैं। अगेती यानी समय से पहले, समय पर, और पछेती। हर किस्‍म का दाना पकने में अलग-अलग समय लेता है। सामान्य तौर पर 140-145 दिनों में फसल तैयार होती। 100 दिन की फसल में बाली आने लगती है।

’25 नवबंर से पहले बोई गई फसल मार्च के महीने में तैयार हो जाती है, जबकि 25 नवंबर के बाद बोई गई फसल अप्रैल तक पक जाती है। आखिरी के एक महीने में गेहूं की बालियों में दूध भरने लगता है। इस समय सही तापमान की जरूरत पड़ती है। ज्‍यादा तापमान के कारण बालियां जल्दी पक जाती हैं ज‍िसकी वजह से दाने पतले हो जाते हैं। ऐसे में दानों की संख्‍या तो ठीक रहेगी। लेकिन वजन कम हो जायेगा।’ वे आगे बताते हैं।

भारतीय मौसम व‍िभाग ने शीतकालीन मौसम द‍िसंबर 2023 से फरवरी 2024 तक के लिए मौसम पूर्वानुमान जारी कर द‍िया है ज‍िसके बाद जानकार चिंत‍ित हैं। व‍िभाग के अनुसार इन महीनों के दौरान देश के ज्‍यादातर ह‍िस्‍सों में न्‍यूनतम और अध‍िकतम तापमान सामान्‍य से ज्‍यादा रहेगा। ठंडी लहरों की संभावना सामान्‍य से कम रह सकती है। तो क्‍या ज्‍यादा तापमान से गेहूं की फसल प्रभाव‍ित होगी?

मैप के अनुसार बारिश अनुमान_अनियमित मौसम और खेती

इस बारे में कृष‍ि वैज्ञानिक अनुज कुमार का कहना है क‍ि अभी कुछ भी भव‍िष्‍यवाणी करना जल्‍दबाजी होगा।

‘ये बात ब‍िल्‍कुल सही है क‍ि ज्‍यादा तापमान से गेहूं की फसलों को नुकसान पहुंचता है। लेकिन यहां देखने वाली बात यह भी क‍ि अगर ज्‍यादा तापमान एक सप्‍ताह से ज्‍यादा तक रहता है तो नुकसान हो सकता है। गेहूं की पैदावार पर असर पड़ सकता है। लेकिन द‍िन-रात का तापमान देखना होगा। हम कई वर्षों से बदलते मौसम को देख रहे हैं। ऐसे में हम काफी समय से ऐसी क‍िस्‍मों पर जोर दे रहे हैं क‍ि जो ऐसे प्रतिकूल मौसम से लड़ने में सक्षम है। देश के बहुत ह‍िस्‍सों में ऐसी ही क‍िस्‍म लगाई जा रही।’

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ स्‍थ‍ित कृषि विज्ञान केंद्र के मुख्य वैज्ञानिक डॉ. दीपल राय कहते हैं क‍ि ‘अगर तापमान बढ़ता है तो फसलों पर इसका प्रतिकूल असर तो पड़ेगा ही, लागत भी बढ़ेगी। गेहूं के ल‍िए 20 से 25 डिग्री सेल्सियस तापमान सही माना जाता है। लेकिन हमने प‍िछले सीजन में इससे ज्‍यादा तापमान देखा था और गेहूं की पैदावार पर इसका असर भी पड़ा।’

‘अगर इस सत्र में भी ऐसा होता है तो इस बार नुकसान ज्‍यादा होगा क्‍योंक‍ि अक्‍टूबर की बार‍िश के बाद गेहूं की बुवाई में देरी हो चुकी है। ऐसे में जब गेहूं में दाना आने का समय फरवरी का आख‍िरी या मार्च का पहला सप्‍ताह होगा और तब अगर पूर्वानुमान के ह‍िसाब से तापमान बढ़ा तो इस बार पैदावार प्रभावित हो सकती है।’ दीपल चिंता व्‍यक्‍त करते हैं।

‘इस साल और देख रहा। अगले साल खेत अध‍िया (बंटाई) पर देकर कहीं बाहर कमाने चला जाऊंगा। महंगाई के इस दौर पर द‍िन-रात मेहनत करने के बाद कुछ बचे भी ना तो पर‍िवार कैसे चलेगा।’ विवेक खेती में लगातार हो रहे नुकसान से न‍िराश हैं।

यह आलेख मूलरूप से इंडियास्पेंड हिंदी पर प्रकाशित हुआ है जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।

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आंगनबाड़ी में शिक्षिकाओं के साथ बच्चे_आंगनवाड़ी केंद्र
मोथोला में, 1990 के दशक में बना पहला आंगनबाड़ी केंद्र भूस्खलन और मिट्टी के कटाव के कारण नष्ट हो गया है। | चित्र साभार: अत्रेयी दास

डिब्रूगढ़, असम के लाहोवाल ब्लॉक में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित मोथोला गांव एक आपदा-संभावित क्षेत्र है। इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति और मौसमी परिस्थितियां बाढ़, मिट्टी के कटाव और भूस्खलन का प्रमुख कारण हैं। बाढ़ आने पर इस इलाके में पानी के ऊपर केवल पेड़ों का ऊपरी हिस्सा ही दिखाई पड़ता है और लोगों के घरों की छत तक पानी में डूबी होती है।

मोथोला की आबादी 500 से अधिक है, फिर भी यहां के सबसे नजदीकी प्री-प्राइमरी और प्राइमरी स्कूल लगभग 5-10 किमी की दूरी पर हैं। 1990 के दशक में बना यहां का पहला आंगनबाड़ी केंद्र भूस्खलन और मिट्टी के कटाव के कारण नष्ट हो गया। साल 2006 में, सरकार ने ब्रह्मपुत्र के बांध के पास एक और आंगनबाड़ी केंद्र बनाने का आदेश पारित किया। लेकिन 2019 में, मानसून के कारण जब गांव में बाढ़ आई तब बांध का आकार बढ़ाने के लिए इस केंद्र को ध्वस्त कर दिया गया। इसके बाद समुदाय के लोगों ने एक वैकल्पिक केंद्र बनाने का फैसला किया।

2021 में, डिब्रूगढ़ के मोथोला टी स्टेट में काम करने वाली निकी कर्माकर ने अपने एक-मंज़िला घर की बालकनी में एक आंगनबाड़ी केंद्र स्थापित करने का फैसला किया। निकी ने हमें बताया कि हर साल लगभग छह महीने तक, जल स्तर में वृद्धि के कारण क्षेत्र में कोई भी स्कूल काम नहीं कर पाता है। वे बताती हैं कि ‘मेरे घर के बनकर तैयार होने के बाद मुझे लगा कि इस बालकनी वाली जगह का इस्तेमाल बच्चों को पढ़ाने के लिए किया जा सकता है। जब तक कोई नया केंद्र बनकर तैयार नहीं हो जाता तब तक मुझे जगह देने में खुशी होगी।’ हर दिन सुबह नौ बजे उनकी छोटी सी बालकनी में जूट के बोरों से बनी चटाई पर बच्चे इकट्ठा हो जाते हैं। आशा कर्मचारी आरती सोनोवाल मिड-डे भोजन के साथ वहां आती हैं। वे बच्चों को पढ़ाने के लिए चार्ट और किताबों का इस्तेमाल करती हैं। इसके बाद, भोजन का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे बच्चों में मिड-डे मील वाला खाना बांटती हैं।

निकी इस बात से खुश हैं कि बच्चों को शिक्षा मिल रही है लेकिन वह यह भी जानती हैं कि यह वैकल्पिक व्यवस्था स्थायी नहीं है। ‘चाहे मैं कितना भी प्रयास क्यों ना कर लूं, मेरा घर एक आंगनबाड़ी केंद्र नहीं हो सकता है। घर में किसी दिन कोई समस्या खड़ी हो जाने या आशा कर्मचारी के अनुपस्थित होने की स्थिति में स्कूल नहीं चल सकता है।’

वे आशा करती हैं कि जल्द ही नया स्कूल गांव के भीतर ही ऊपरी इलाक़े में बन जाएगा, फिर बाढ़ या जलवायु संबंधी अन्य आपदाओं के कारण शिक्षा में किसी तरह की बाधा नहीं पहुंचेगी।

अत्रेयी दास एक महत्वाकांक्षी पत्रकार और सामाजिक प्रभाव के लिए काम करने वाली कार्यकर्ता हैं।

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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि पोषण ट्रैकर ऐप के साथ आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

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सरल-कोश: कैपेसिटी बिल्डिंग

विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़सरलकोश’ लेकर आए हैं जिसमें हम आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।

विकास सेक्टर से जुड़े साथियों ने कैपेसिटी बिल्डिंग या क्षमता निर्माण शब्द ज़रूर कहीं न कहीं सुना होगा। यहां तक कि आपकी संस्था ने इसको लेकर कई कार्यक्रम भी आयोजित करवाये होंगे। आज हम इसी शब्द पर बात करने जा रहे हैं। 

विकास सेक्टर से जुड़े कई लोग इस शब्द का मतलब ट्रेनिंग समझते हैं। लेकिन ट्रेनिंग, कैपेसिटी बिल्डिंग का एक तरीका भर है। और, कैपेसिटी बिल्डिंग ज़रूरी है ताकि आप तेज़ी से बदलते दौर के साथ न केवल बने रह पाएं, बल्कि समय के साथ तरक्की भी कर सकें।

अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।

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समाजसेवी संस्थाएं सायकोमेट्रिक टूल का प्रभावी उपयोग कैसे कर सकती हैं

शिक्षा से लेकर संगठनात्मक व्यवहार तक, विभिन्न सेक्टरों में काल्पनिक अवधारणों को समझने के लिए साइकोमेट्रिक साधनों (टूल्स) को बहुत तेजी से उपयोग में लाया जाने लगा है। ये ऐसे उपकरण या मूल्यांकन प्रणाली होते हैं जिन्हें किसी व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक खूबियों, क्षमताओं, रवैये और विशेषताओं को मापने के लिए डिज़ाइन किया गया है। इनका उपयोग मानव व्यवहार और अनुभूति के विभिन्न पहलुओं को मापने और उनके मूल्यांकन करने के लिए किया जाता है।

ये साधन शक्तिशाली होने के बावजूद, पारंपरिक अनुभव से किए जाने वाले विश्लेषण की सीमा को बढ़ाते हुए अक्सर जटिल एवं भ्रांति पैदा करने वाले परिणाम देते हैं। इनकी ताकत अमूर्त या काल्पनिक विचारों और वास्तविक मेट्रिक्स के बीच अंतर को कम करने की क्षमता में निहित होती है, जो आंकड़ों में हल खोजने वाले लोगों के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण समझ को महत्व देने वाले लोगों को भी पसंद आती है।समाजसेवी संस्थाएं अक्सर ही इन साधनों का उपयोग शिक्षा, जीवन कौशल, आजीविका और स्वास्थ्य जैसे विभिन्न सेक्टर में कार्यक्रमों के प्रभाव को मापने के लिए करते हैं। साथ ही, इसका उपयोग जरूरतों की पहचान करने, पाठ्यक्रम गतिविधियों की योजना बनाने, ग्राहक से जुड़ी जानकारियों की निगरानी (क्लाइंट प्रोग्रेस मॉनिटरिंग) करने और संगठनात्मक संस्कृति का मूल्यांकन करने जैसे कामों में भी होता है।

हमारे संगठन उद्यम लर्निंग फाउंडेशन में हम सीखने वालों की मानसिकता और दृष्टिकोण में बदलाव का पता लगाने के लिए इन साइकोमेट्रिक परीक्षणों का इस्तेमाल करते हैं। एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि: क्या ये परिणाम लगातार विश्वसनीय और सटीक बने रहते हैं?

अपनी समझ को गहरा करने, दृष्टिकोण को बेहतर बनाने और परीक्षण के परिणाम में सुधार लाने के लिए हमने अनुभवी विशेषज्ञों के साथ साझेदारी की और एक गहन अध्ययन शुरू किया। हम ने इन परीक्षणों के क्रियान्वयन के समय पैदा होने वाली सामान्य बाधाओं की एक सूची बनाई जिन्हें अनदेखा करने पर परिणाम और निर्णय की दिशा दोनों बदल सकती है।

एक दीवार पर कई लैंप_सायकोमेट्रिक टूल्स
वैधता महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सुनिश्चित करती है कि परीक्षण उन्हीं चीजों की माप करता है जिसे मापना है। | चित्र साभार: पिकपीक

अविश्वसनीय या अवैध परीक्षणों का उपयोग

विश्वसनीयता महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सुसंगत और भरोसेमंद स्कोर सुनिश्चित करती है। इसके बिना, किसी भी परीक्षण से ऐसे अनियमित परिणाम प्राप्त होंगे जिनसे किसी भी तरह का सार्थक निष्कर्ष निकालना मुश्किल हो जाएगा। साइकोमेट्रिक परीक्षणों में विश्वसनीयता की कमी चिंता का विषय है। 2010 के अध्ययन में यह पाया गया कि 16पीएफ (पर्सनैलिटी फैक्टर), जो कि एक सामान्य व्यक्तित्व साइकोमेट्रिक परीक्षण है, की वैधता विभिन्न संस्कृतियों में अलग-अलग है। हालांकि कि पश्चिमी देशों में इस परीक्षण की वैधता का स्तर अच्छा था लेकिन ग़ैर-पश्चिमी संस्कृतियों में यह कम मान्य थी।

वैधता भी सामान्य रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सुनिश्चित करती है कि परीक्षण ने उन्हीं कारकों की जांच की है जिसके लिए इसे किया गया था। जब हम बिना किसी ठोस अनुभव के अपने टूल का निर्माण करते हैं तो ऐसी स्थिति में हम कौशल, व्यवहार या ज्ञान के सही मूल्यांकन को सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं जो हमारा लक्ष्य है। इससे परिणामों की विश्वसनीयता और उपयोगिता कम हो जाती है।

उद्यम में, हमने हाल ही में मानक ग्रिट स्केल की वैधता की जांच की जिसका उपयोग हमने अपने पहले के कामों में किया था। यह स्केल किसी व्यक्ति के दीर्घकालिक लक्ष्यों के प्रति जुनून और दृढ़ता को मापता है। इस परीक्षण से, हमने पाया कि पैमाने की विश्वसनीयता और कन्वर्जेंट वैलिडिटी खराब थी।इसके अलावा, जिस सैंपल पर हमने इसका उपयोग किया था, उसके लिए इसमें पर्याप्त साइकोमेट्रिक गुण प्रदर्शित नहीं हुए। इस प्रकार हमें इसके आगे के स्तर का विश्लेषण करने की प्रेरणा मिली ताकि हम यह पता लगा सकें कि क्या कुछ चीजों या प्रश्नों को हमारे डेटा सेट के अनुसार और अधिक संरेखित करने के लिए समायोजित करने की ज़रूरत है।
इसने पहले से ही उपकरणों की विश्वसनीयता और वैधता का परीक्षण करने के महत्व को सुदृढ़ किया। एक ही व्यक्ति के साथ विभिन्न मौक़ों पर किए गये परीक्षणों के स्कोर समान होने चाहिए, और स्कोर को लक्षित ज्ञान या कौशल से संबंधित भी होना चाहिए।

अपने साइकोमेट्रिक टूल विकसित करना

संगठन अपने ख़ुद के साइकोमेट्रिक जैसे टूल विकसित करने का प्रयास कर सकते हैं। इससे उन्हें मूल्यांकन फॉर्म के लंबे होने या फिर लक्षित कार्यक्रम के लिए ग़ैर-जरूरी हिस्सों को हटाने जैसी चुनौतियों का समाधान ढूंढ़ने में आसानी हो सकती है। उदाहरण के लिए, कई बार संगठन किसी एक पैमाने या स्केल को बनाने के लिए विभिन्न साइकोमेट्रिक स्केल्स और उनके संबंधित प्रश्नों को मिलाकर उपयोग में लाने का चुनाव करते हैं। ऐसा करने के पीछे उनका यह मानना होता है कि यह प्रक्रिया उनके कार्यक्रम के मुख्य पहलुओं पर केंद्रित होने के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित करेगा कि प्रश्नावली इतनी छोटी हो कि उन्हें करने में कम समय लगे। लेकिन सघन प्रक्रियाओं का पालन किए बिना ऐसे टूल को विकसित करने से विश्वसनीयता और वैधता से संबंधित समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।

इसके अलावा, परीक्षा तैयार करने में विशेषज्ञता के बिना साइकोमेट्रिक जैसे उपकरण बनाने से अनपेक्षित पूर्वाग्रह या ग़लत पैमाने उत्पन्न हो सकते हैं। साइकोमेट्रिक्स में पेशेवरों के पास निष्पक्ष और सटीक मूल्यांकन सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक ज्ञान और कौशल होता है। इस विशेषज्ञता के बिना उपकरण विकसित करने से पक्षपातपूर्ण मूल्यांकन या भेदभावपूर्ण व्यवहार की समस्या उत्पन्न हो सकती है। उदाहरण के लिए, महिलाओं या विशिष्ट नस्लीय समूहों के प्रति पूर्वाग्रह प्रदर्शित करने वाले टूल के प्रमाण उपलब्ध हैं, जिसका मुख्य कारण शुरुआती सैंपल में इन जनसांख्यिकी की अनुपस्थिति है।

साइकोमेट्रिक परीक्षणों को विकसित करने और उन्हें मान्य बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में समय, प्रयास और संसाधनों की ज़रूरत होती है।

विशेषज्ञों द्वारा पहले से विकसित एक स्थापित और मान्य परीक्षण पर निर्भर रहने से समय की बचत हो सकती है।

हालांकि, साइकोमेट्रिक परीक्षणों को विकसित करने और उन्हें मान्य बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में समय, प्रयास और संसाधनों की ज़रूरत होती है। मूल्यांकन को विकास, पायलट परीक्षण, डेटा संग्रहण, विश्लेषण और शोध सहित कई चरणों से गुजरना होता है। संभव है कि संगठन के पास इस व्यापक प्रक्रिया को शुरू करने के लिए ज़रूरी विशेषज्ञता या संसाधन उपलब्ध ना हों। ऐसे मामलों में, विशेषज्ञों द्वारा पहले से विकसित एक स्थापित और मान्य परीक्षण पर निर्भर रहने से समय की बचत हो सकती है और गुणवत्ता मूल्यांकन को भी सुनिश्चित किया जा सकता है। यदि संगठन अपने टूल का निर्माण करना चाहते हैं तो ऐसी स्थिति में उनके लिए टूल के विकास के लिए विश्वसनीयता और मान्यता परीक्षण के साथ ही बेस्ट प्रैक्टिस का अनुपालन करना उचित होगा। वैकल्पिक रूप से, प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए संगठन, ऐसे उपकरणों के मूल रचनाकारों या लेखकों से सहायता ले सकते हैं। टूल समस्या-समाधान के दौरान विशेषज्ञों के साथ सहयोग करने और व्यापक समुदाय तक पहुंचने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया जाता है।

सांस्कृतिक रूप से अनुपयुक्त परीक्षणों का उपयोग करना

कई साइकोमेट्रिक परीक्षण पश्चिमी देशों में विकसित किए गए हैं और दुनिया के अन्य हिस्सों में उपयोग के लिए सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त नहीं भी हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि ये परीक्षण उन मूल्यों और मानदंडों पर आधारित हो सकते हैं जो उस विशेष संस्कृति का हिस्सा नहीं हो सकते हैं; यह बात भारत पर भी लागू होती है।
शिक्षा और साक्षरता भी विभिन्न प्रकार के परीक्षणों के स्कोर को महत्वपूर्ण तरीक़े से प्रभावित करती है, जैसे कि कुछ स्वदेशी आबादी की वर्किंग मेमोरी और विज़ुअल प्रोसेसिंग का आकलन करना।

इसलिए, भारत के लिए साइकोमेट्रिक परीक्षणों का चयन करते समय, केवल उन्हीं को चुनना महत्वपूर्ण है जिन्हें सांस्कृतिक संदर्भ को ध्यान में रखते हुए उपयोग के लिए मान्य किया गया है। ऐसे कई परीक्षण हैं जिन्हें विशेष रूप से भारत में उपयोग के लिए विकसित किया गया है। उदाहरण के लिए, निम्हांस न्यूरोसाइकोलॉजिकल बैटरी, पी रामलिंगास्वामी द्वारा इंडियन एडेप्टेशन ऑफ वेक्स्लर एडल्ट परफॉर्मेंस इंटेलिजेंस स्केल (डब्ल्यूएपीआईएस – पीआर) का भारतीय अनुकूलन, और ऐसे ही अन्य

ऐसे परीक्षणों का उपयोग करना जो कार्यक्रम के लक्ष्यों के अनुरूप नहीं हैं

संगठन द्वारा उपयोग किए जाने वाले साइकोमेट्रिक परीक्षण उनके कार्यक्रम के लक्ष्यों के अनुरूप होना महत्वपूर्ण है। यदि परीक्षण उन विशिष्ट लक्षणों, कौशलों या ज्ञान को नहीं मापते हैं जिन्हें विकसित करने के लिए कार्यक्रम डिज़ाइन किया गया है, तो परीक्षणों से सार्थक परिणाम प्राप्त नहीं होंगे। गलत परीक्षणों का उपयोग करने से गलत निदान होने की संभावना है, जिसके गंभीर परिणाम होते हैं जैसे कलंक या सहायता के अवसर चूक जाना।

यह सुनिश्चित करते हुए कि एकत्र किया गया डेटा सटीक और निष्पक्ष दोनों है, व्यक्तियों के संज्ञानात्मक विकास से मेल खाने वाले उपकरणों का उपयोग करना अनिवार्य है।

उदाहरण के लिए, हमने आत्म-जागरूकता, धैर्य और आत्म-प्रभावकारिता सहित मानसिकता का मूल्यांकन करने के लिए साइकोमेट्रिक उपकरण अपनाए हैं। यदि 14 से 18 वर्ष की आयु वर्ग वाले शिक्षार्थियों को दिया जाने वाला उद्यमिता का हमारा पाठ्यक्रम सीधे तौर पर इन विशिष्ट लक्षणों की वृद्धि के बारे में बात नहीं करता है तो ऐसी स्थिति में यह अंतर हमारे पाठ्य सामग्री के साथ साइकोमेट्रिक मूल्यांकन के परिणामों को संरेखित करना चुनौतीपूर्ण बना देगा। नतीजतन, हमारे पाठ्यक्रम में हस्तक्षेप को परिष्कृत और बेहतर बनाने के लिए एक फीडबैक तंत्र स्थापित करने में बाधा उत्पन्न होगी। साइकोमेट्रिक परीक्षणों से सटीक आंकड़े प्राप्त करने के लिए यह ज़रूरी है कि कार्यक्रम के पाठ्यक्रम को किए जाने वाले कार्यक्रम और सीखने के लक्ष्यों के अनुरूप तैयार किया गया हो।

लोगों के संज्ञानात्मक विकास से मेल खाने वाले उपकरणों का उपयोग अनिवार्य होता है।

किसी वर्ग का साइकोमेट्रिक मूल्यांकन करने के लिए आयु उपयुक्त होना और साक्षरता स्तरों के सावधानीपूर्वक मूल्यांकन की आवश्यकता होती है। यह सुनिश्चित करते हुए कि एकत्र किया गया डेटा सटीक और निष्पक्ष दोनों है, लोगों के संज्ञानात्मक विकास से मेल खाने वाले उपकरणों का उपयोग अनिवार्य होता है। इसके अलावा, स्पष्ट संचार को बढ़ावा देने और मूल्यांकन प्रक्रिया में संभावित पूर्वाग्रह या निराशा को रोकने के लिए विविध साक्षरता स्तरों को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है। ये विचार लोगों की क्षमताओं और विशेषताओं के मूल्यांकन में नैतिक मानकों को बनाये रखते हैं।

साइकोमेट्रिक टूल का अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं में अनुवाद करना

भाषा और सांस्कृतिक बारीकियां साइकोमेट्रिक मूल्यांकन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। कुछ शब्दों या अवधारणाओं के अर्थ विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों में भिन्न हो सकते हैं। इन बारीकियों पर विचार किए बिना अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं में वस्तुओं या निर्देशों का सीधा अनुवाद गलतफहमी या गलत व्याख्या का कारण बन सकता है, जिससे मूल्यांकन परिणामों की सटीकता और वैधता प्रभावित हो सकती है।

उदाहरण के लिए, अंग्रेज़ी में पूछा गया प्रश्न ‘सेल्फ-एस्टीम’ के बारे में है तो, हिन्दी में इसके शाब्दिक अनुवाद के लिए ‘आत्म-मूल्य’ या ‘आत्म-सम्मान’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। हालांकि इन शब्दों के अर्थ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं लेकिन ये शब्द सही अर्थों में ‘सेल्फ-एस्टीम’ को संदर्भित नहीं करते हैं, जिससे भाषा की मूल बारीकियों को नुकसान पहुंचता है और संभावित रूप से नए सांस्कृतिक संदर्भ में उपकरण की वैधता प्रभावित होती है।

साइकोमेट्रिक टूल के लिए अनुवाद प्रक्रिया कठोर और व्यवस्थित होनी चाहिए ताकि टूल के अनुवादित संस्करण की वैधता और विश्वसनीयता सुनिश्चित की जा सके। इसमें लक्ष्य भाषा में विश्वसनीय मूल्यांकन पद्धति बनाने के लिए वैचारिक तुल्यता, भाषाई सत्यापन, सांस्कृतिक अनुकूलन, पुनरानुवाद (बैक ट्रांसलेशन) और सत्यापन अध्ययन की गारंटी देना शामिल है।

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