मेरा नाम सद्दाम हुसैन है और मैं उत्तराखंड के हरिद्वार जिले के वन गुज्जर समुदाय से आता हूं। हम जंगल और उसके आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले समुदाय हैं और हमारा मुख्य पेशा भैंस पालन है। हमारे समुदाय के लोगों की आमदनी कस्बे में स्थानीय लोगों और पर्यटकों को भैंस के दूध से बने उत्पाद बेचकर हो होती थी।
हालांकि, लगभग 20 साल पहले, राजाजी राष्ट्रीय उद्यान और इसके आसपास के अन्य आरक्षित वन क्षेत्रों की स्थापना के कारण हमें विस्थापित होना पड़ा। हमें राजाजी नेशनल पार्क से लगभग 200 किलोमीटर दूर एक बस्ती (झुग्गी बस्ती) में रहने के लिए भेज दिया गया, जहां हमारी भैंसों के लिए पर्याप्त चरागाह भूमि नहीं थी। इस जबरन प्रवास के चलते समुदाय के कई सदस्यों ने अपनी भैंसें गंवा दीं। हालांकि, सरकार ने विस्थापित परिवारों को मुआवज़े के रूप में स्थानांतरित बस्ती के निकट दो एकड़ ज़मीन दी थी। लेकिन समुदाय के बुजुर्ग सदस्य, अक्सर 20 हज़ार रुपये सालाना पर ज़मीन पट्टे पर लेना पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें खेती की आदत नहीं है। हमारे रहने की यह नई जगह शहर से नज़दीक है, जिसके कारण हमारे जीवनयापन का खर्च भी बढ़ गया है।
नतीजतन, मेरे साथियों और उम्र में हमसे छोटी पीढ़ी के लोगों के लिए इस क्षेत्र में आजीविका का कोई और विकल्प नहीं रह गया है। बारहवीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद, इन लोगों को या तो बची-खुची ज़मीनों पर खेती का काम करना पड़ता है या फिर ये दूसरे प्रकार की मज़दूरी के काम में जुट जाते हैं। हालांकि, अक्सर ही इस तरह के कामों को नीची दृष्टि से देखा जाता है। लोग हम पर तरह-तरह की टिप्पणियां करते हैं, जैसे कि, ‘अगर स्कूल जाकर भी अंत में मज़दूरी ही करनी है तो फिर मेरे बच्चे को स्कूल भेजने से क्या फ़ायदा?’ जिन लोगों की आर्थिक स्थिति थोड़ी बेहतर होती है वे नौकरी और रोज़गार की तलाश में दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों का रुख़ कर लेते हैं। सामाजिक प्रतिबंधों और बाल विवाह जैसी प्रथाओं के कारण लड़कियों के सशक्तिकरण के अवसर और भी कम हैं।
बर्डवॉचिंग पर्यटन (पक्षियों को देखने आने वाले पर्यटक) जैसे स्थानीय विकल्प भी मौजूद हैं लेकिन इसके लिए आवश्यक गहन-प्रशिक्षण की अनिवार्यता, पढ़ाई पूरी करने की बाद नौकरी की तलाश कर रहे शिक्षित युवाओं को हतोत्साहित कर देती हैं। एक बर्डवॉचर को प्रशिक्षित होने में कम से कम एक से डेढ़ साल का समय लग जाता है।
अब, समाजसेवी संस्थाओं के लिए काम करना कई लोगों के लिए एक अच्छे विकल्प के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। आसपास के समाजसेवी संगठन और समूह मुख्यरूप से संस्कृति, विरासत, शिक्षा या पर्यावरण पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
हालांकि इन कामों में बहुत अधिक पैसे नहीं मिलते हैं लेकिन लोग इन्हें ‘सम्मानीय’ रोज़गार के रूप में देखते हैं जिसमें लोग सीख सकते हैं और अपने समुदाय और पर्यावरण को बचाने के लिए अपना योगदान दे सकते हैं।
बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद, मैंने और मेरे दोस्तों ने भी 2019 में अपनी स्वयं की समाजसेवी संस्था माई की शुरुआत की। हमारी टीम में एक महिला और पांच पुरुष हैं। हम अपने स्थानीय पर्यावरण को बचाने, शिक्षा को बेहतर बनाने और वन गुज्जर समुदाय के अन्य युवाओं के लिए आजीविका के अवसर प्रदान करने के नए तरीके खोजने के लिए लगातार काम कर रहे हैं।
सद्दाम हुसैन समाजसेवी संस्था माई के सह-संस्थापक हैं। वे चेंजलूम्स-यूथ लीडर्स फॉर क्लाइमेट एक्शन का भी हिस्सा हैं, जो भारत के युवा नेताओं के लिए जलवायु कार्रवाई क्षेत्र में प्रवेश करने का एक अवसर है।
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