क्या आपका जामनगर से आई इन तस्वीरों से कोई वास्ता है… देखिए, शायद हो?

1. डायरेक्टर, जो कम्युनिटी और फंडर के बीच पिस गया है।

आमिर,सलमान और शाहरुख एक साथ_सोशल सेक्टर
फोटो साभार: पीटीआई

2. रिसर्चर, जो सिर्फ रिसर्च में विश्वास करते हैं, मार्केटिंग में नहीं।

अनंत अंबानी एवं परिवार_सोशल सेक्टर
फोटो साभार: रिलायंस ग्रुप

3. कम्युनिकेशन ऑफिसर, जो अपनी टीम से कंटेंट मांग-मांग के थक गया है (पर टीम है कि जो अपने में ही मस्त है!)

अंबानी परिवार_सोशल सेक्टर
फोटो साभार: रिलायंस ग्रुप

4. फंडरेज़र, जो अपने काम में माहिर है… अपनी तमाम तिकड़म बाजियों के साथ।

माईक पकड़े रणवीर सिंह__सोशल सेक्टर
फोटो साभार: बॉलीवूड हंगामा

5. कार्यकर्ता, जिसे लगता है सब सही चल रहा है!

शाहरुख खान का फेमस पोज_सोशल सेक्टर
फोटो साभार: रिलायंस ग्रुप

6. मैनेजर, जो अपने उन ओवर-एक्साइटेड वॉलंटीयर्स को संभालता फिरता हैं जिन्होंने सोशल सेक्टर में कदम रखा ही है।

ग्रुप मे रेहाना_सोशल सेक्टर
फोटो साभार: इंस्टाग्राम/ऑररी

छ्त्तीसगढ़ में अब महुआ बुजुर्गों की आय का साधन क्यों नहीं रह गया है?

मेरा नाम भगवती भगत है और मैं छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले के सारसमाल गांव की रहने वाली हूं। हमारे गांव में लगभग पिछले सत्रह सालों से कोयला खनन हो रहा है। लेकिन इससे पहले हमारे गांव की आजीविका का मुख्य स्रोत गांव और इसके आसपास के जंगलों और पहाड़ियों पर उगने वाले महुआ के पेड़ ही थे।

पारंपरिक रूप से हम लोग महुआ और तेंदू के पत्ते चुनकर ही अपनी आजीविका चलाने वाले लोग हैं और लगभग हर मायने में हम वनोपज पर ही निर्भर थे। गांव में कोयला की खदानों के खुलने से पहले हम लोग साल में छह महीने काम करते थे और बाक़ी का छह महीना बिना काम किए भी आराम से कट जाता था। उपज अधिक होने के कारण हम सस्ते दामों पर महुआ बेचते थे। बावजूद इसके हमारे पास खाने-पीने और अन्य कामों के लिए पर्याप्त पैसा होता था।

लेकिन कोयला की खदानों के आने और खनन का काम शुरू हो जाने के कारण हमारे गांव के लोगों की ज़मीनें चली गईं और हमसे हमारी आजीविका का मुख्य स्रोत छिन गया। अब हमारे गांव में ना तो महुआ के पेड़ ही बचे हैं और ना ही खेती के लिए पर्याप्त ज़मीन। ऐसे में मुझ जैसे भूमिहीन और बड़ी उम्र वाले लोगों के लिए अपना जीवनयापन करना मुश्किल हो गया है।

भगवती भगत सारसमाल गांव में रहती हैं और अपने गांव और आसपास के क्षेत्रों में कोयला खनन से प्रकृति और जनजीवन को होने वाले नुक़सान के खिलाफ़ आवाज़ उठाती हैं।

आईडीआर पर इस ज़मीनी कहानी को आप हमारी टीम की साथी कुमारी रोहिणी से सुन रहे थे।

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बाहरी सलाहकारों की मदद से अपने संगठन के प्रभाव को कैसे बढ़ाएं?

एक समाजसेवी संस्था की अपने कार्यक्रमों को प्रभावी ढंग से चलाने की क्षमता उसकी रणनीति से जटिल रूप से जुड़ी हुई होती है। ऐसा तब है जब उच्च प्रभाव वाला हस्तक्षेप समाधान का एक हिस्सा भर है, वहीं समाजसेवी संस्था की दीर्घकालिक मजबूती बढ़ाने के लिए संगठनात्मक विकास महत्वपूर्ण होता है। संगठन की समग्र संरचना को मजबूत करने पर दिया जाने वाला यह निरंतर जोर न केवल इसके विकास के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि इसके प्रभाव को बढ़ाने में भी मदद करता है।

यह केस स्टडी बताती है कि कैसे अंतरंग फाउंडेशन एक बाहरी सलाहकार की मदद से अपनी संगठनात्मक रणनीति विकसित करने में सक्षम था। यह अध्ययन, प्रक्रिया के दौरान उनके द्वारा अनुभव की गई चुनौतियों और सफलताओं तथा इस रणनीतिक अभ्यास के दीर्घकालिक प्रभाव को रेखांकित करता है।

अंतरंग अपने करियरअवेयर और करियररेडी कार्यक्रमों के माध्यम से 14 से 25 वर्ष की आयु के युवाओं के साथ काम करता है। संगठन का मुख्य उद्देश्य छात्रों को यथासंभव लंबे समय तक औपचारिक शिक्षा में बने रहने के लिए प्रोत्साहित करना है। इसके साथ ही यह वंचित पृष्ठभूमि के युवाओं को शिक्षा और रोजगार के बीच के अंतर को पाटने में भी मदद करता है ताकि उन्हें एक अच्छे कैरियर की राह पर आगे बढ़ाया जा सके।

रणनीतिक योजना अंतरंग के केंद्र में थी

अपनी स्थापना के बाद ही अंतरंग ने नवंबर/दिसंबर में वार्षिक समीक्षा और रणनीतिक योजना करना शुरू कर दिया। इस अभ्यास के तहत, संगठन का वरिष्ठ नेतृत्व सामूहिक रूप से पिछले साल की उपलब्धियों की समीक्षा करता है और इस बात का पता लगाता है कि कौन सी रणनीतियां कारगर रहीं और किस क्षेत्र में बेहतर किए जाने की गुंजाइश है। यह अभ्यास एक ऐसी दुनिया को साकार करने में मदद करने के संगठन के मार्गदर्शक सिद्धांत द्वारा संचालित है जहां प्रत्येक युवा वयस्क उत्पादक, सकारात्मक और जुनून से अपनी पसंद के करियर में लगा हुआ है। अभ्यास से बने विचारों और प्रतिबिंबों को बाकी टीम और बोर्ड के सामने प्रस्तुत किया जाता है। बाद में आंतरिक टीम के साथ विचार-विमर्श से, संगठन अगले वर्ष के लिए तय किए गए अपने लक्ष्य पर पहुंचता है।

साल 2019 में, लंबे समय तक अपने समर्थक रहे (कोइटा फाउंडेशन के रिज़वान कोइटा) के साथ हुई बातचीत ने अंतरंग के नेतृत्व टीम को प्रोत्साहित किया कि वे एक स्थायी और टिकाऊ रणनीति को स्थापित करने के लिए बाहरी मदद के बारे में सोचें। वे चाहते थे कि उनके प्रभाव को बढ़ाने के लिए कोई उन्हें सही दिशा और मार्ग प्रदान करे। ऐसा करने में उनकी मदद के लिए, उन्होंने अपने बोर्ड में एक सलाहकार को शामिल करने का फैसला किया।

संगठन ने तीन व्यापक मानदंड निर्धारित किए और वे चाहते थे कि उनका सलाहकार उन मानदंडों को पूरा करे। पहला, वे चाहते थे कि वे संगठन के दर्शन, प्रक्रियाओं और शक्तियों को ध्यान में रखें और सही सवाल करें जो अगले कदम तय करने में अंतरंग का मार्गदर्शन करें। हालांकि संगठन को अपने व्यापक उद्देश्यों और इन उद्देश्यों की पूर्ति को प्रभावित करने वाले कारकों के बारे में पता था, लेकिन उन्हें अपनी छिपी हुई दक्षताओं को सामने लाने के लिए बाहरी मदद की ज़रूरत थी। इसलिए, एक उचित सलाहकार वही हो सकता था जिसके पास रणनीतिक और विश्लेषणात्मक योग्यता हो और जो एक बड़ी तस्वीर को देखने के लिए मायोपिक लेंस का उपयोग कर आगे बढ़ने में उनकी मदद कर सके।

दूसरे, अंतरंग की टीम बड़े और व्यापक इकोसिस्टम में अपने स्थान के बारे में जानना चाहती थी। उनके लिए यह समझना महत्वपूर्ण था कि वे किन कमियों को दूर कर रहे हैं और अधिक प्रभाव डालने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए। इससे वे युवाओं को करियर में सफलतापूर्वक परिवर्तन लाने के योग्य बनाने के अपने वादे को पूरा को कर पाने में सक्षम हो सकेंगे।

तीसरा और अंतिम, अंतरंग चाहता था कि उनका बाहरी सलाहकार उनके लिए एक ऐसे संसाधन के रूप में काम करे जिसमें इकोसिस्टम में उभरते रुझानों की पहचान कर सके। यह तीसरा पहलू विशेष रूप से इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि इससे संगठन को इकोसिस्टम में उभरते रुझानों के आधार पर दीर्घकालिक दृष्टिकोण के साथ काम करने में मदद मिलने वाली थी।

जितना उन्होंने सोचा था उससे कहीं अधिक आसान था धन और सलाहकार दोनों को प्राप्त करना

शुरुआत में, संगठन के पास इतना धन नहीं था कि वह अपने बोर्ड में किसी सलाहकार को शामिल कर सके। अंतरंग की संस्थापक, प्रिया अग्रवाल कहती हैं कि वे संगठनात्मक विकास के लिए फंडरेजिंग के काम में बहुत अच्छे नहीं रहे हैं। ‘मुझे लगता है कि एक स्तर पर, हम इस तरह की फ़ंडिंग मांगने में कतराते हैं। जब आप किसी कार्यक्रम के लिए फ़ंडिंग या समर्थन मांगते हैं तो यह उसकी तुलना में अधिक न्यायसंगत लगता है।’ संगठन ने बोर्ड में एक रणनीतिक सलाहकार को शामिल करने से होने वाले फ़ायदों को समझने और इसमें आने वाले खर्च के बारे में जानने के लिए अपने साथी समाजसेवी संस्थाओं से बात की। उसके बाद, उन्होंने कुछ ऐसे दाताओं से संपर्क किया जो बहुत लंबे समय से संगठन के विकास में निवेश कर रहे थे।

प्रिया ने यह भी कहा कि एक बार जब वे अपनी इस योजना के साथ दाताओं के पास गये तब उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि उनके दाता इस प्रस्ताव को लेकर उनकी कल्पना से परे उत्साहित थे। ‘हम लोगों ने किसी एक दाता से पूरी योजना के लिए फंड देने को नहीं कहा। हमने कई दाताओं से संपर्क किया और कहा कि ‘यदि आप सहायता के लिए अमुक राशि देंगे तो मैं इस आधार पर किसी अन्य दाता के पास जाकर उनसे इतनी ही राशि का सहयोग देने के लिए कहूंगी।’ और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि किसी ने भी इसके लिए ना नहीं कहा।’

उन सलाहकारों की पहचान करने के लिए जिनसे वे संपर्क कर सकते हैं, संगठन ने पहले इसी तरह के अभ्यास को आयोजित करने वाले अपने दाताओं और अन्य संगठनों से कुछ नामों का सुझाव देने के लिए कहा। इन सुझावों और सिफ़ारिशों के आधार पर उन्होंने दसरा, डैलबर्ग, ब्रिजेस्पैन और सत्त्व से संपर्क किया और उन्हें अपने संभावित बाहरी सलाहकार के रूप में शामिल करने के बारे में सोचने लगे।

कुछ संगठन बहुत जल्दी ही दौड़ से बाहर हो गए क्योंकि वे बेहद महंगे थे। अंत में अंतरंग के पास केवल दो विकल्प बचे थे, और उन्होंने दसरा को चुना क्योंकि वे संगठन की तीनों आवश्यकताओं को पूरा कर रहा था: उनके पास संगठन के लिए आवश्यक रणनीतिक अंतर्दृष्टि थी, वे अंतरंग के भीतर संचालित पारिस्थितिकी तंत्र से परिचित थे, और दाता आवश्यकताओं पर उनकी पकड़ मज़बूत थी।

रंग-बिरंगे लीगो बॉक्स_संगठनात्मक विकास
अंतरंग चाहता था कि कोई उन्हें दिशा की समझ और उनके प्रभाव को बढ़ाने के लिए एक मार्ग प्रदान करे। | चित्र साभार: रॉपिक्सेल

संगठन के भीतर ही तालमेल बिठाना कठिन था

अंतरंग को इस बात का एहसास हुआ कि ड्रॉइंग बोर्ड में वापस जाना कुछ ऐसा था जिसको लेकर वे सहज थे, और जिसने सोच की शुरुआती अवधि को रोमांचक और सरल बना दिया। हालांकि, मूल्य संरेखण सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में सबसे पहले बाधाएं सामने आईं। प्रिया का कहना है कि वे सहयोगात्मक निर्णय लेने को जो महत्व देते हैं, वह “लगभग [हमें] अनिर्णायक होने या अपने पैर खींचने के रूप में सामने आ सकता है”। इसमें शामिल सभी लोगों को एक निश्चित तरीके से सोचने के लिए पर्याप्त जगह देना, भले ही इसका मतलब अपने कदम पीछे हटाना हो, एक ऐसी चीज है जिसके लिए संगठन हमेशा प्रतिबद्ध रहा है।

हालांकि, दसरा ने उन्हें बताया था कि रणनीतिक योजना अभ्यास में अधिकतम दो से तीन लोगों का समूह शामिल होना चाहिए। और इसी आधार पर अंतरंग एक संचालन समिति लेकर आए जिसमें तीन आंतरिक सदस्य और तीन बोर्ड सदस्य शामिल थे। दृष्टिकोणों की बहुलता के परिणामस्वरूप अक्सर उन्हें प्रश्नों पर दोबारा गौर करना पड़ता है या गोल-गोल घूमना पड़ता है। बोर्ड में सभी को शामिल करने और एक दूसरे के साथ तालमेल बैठाने पर ज़ोर देने वाली बात से (दसरा और अन्तरंग दोनों के टीम के सदस्यों के लिए) तनाव की स्थिति पैदा हो गई थी, क्योंकि इससे इस पूरी प्रक्रिया में सामान्य से अधिक समय लग रहा था।

प्रिया इस बात पर भी ज़ोर देते हुए बताती हैं कि तालमेल के लिए आवश्यक कुछ प्रक्रियाओं को आंतरिक रूप से नियंत्रित किया जाना चाहिए था क्योंकि इससे काम को आगे बढ़ाने में मदद मिलती है। ‘उदाहरण के लिए, इस प्रक्रिया में हमारे सबसे महत्वपूर्ण हितधारकों का पता लगाने और किए गए और ना किए गये काम की पहचान करने के लिए हमारे सभी डेटा का अध्ययन करना शामिल था। दसरा को यहां तक पहुंचने में बहुत समय लग गया, लेकिन हम इसके बारे में पहले से जानते थे। मुझे लगता है कि यदि दसरा के लिए हम ऐसी ही कुछ प्रक्रियाओं को तेज कर देते तो यह काम थोड़ा जल्दी हो सकता था।’

प्रक्रिया के दौरान टीम की भावनाओं का प्रबंधन बहुत महत्वपूर्ण होता है

अंतरंग में प्रोग्राम ऑपरेशंस और स्केल के वरिष्ठ निदेशक, वेनिल अली का कहना है कि एक बाहरी सलाहकार को लाने से टीम को उन भावनाओं को दूर करने में मदद मिली जो उन कार्यक्रमों को आगे नहीं बढ़ाने के निर्णय के कारण पैदा हुई थीं जिनमें टीम के कुछ सदस्यों ने काफी निवेश किया था। उदाहरण के लिए, संगठन ने समुदायों के साथ काम ना करने का फ़ैसला किया था। हालांकि, यह टीम के उन सदस्यों के लिए एक भावनात्मक फ़ैसला था जिन्होंने सालों तक समुदायों के साथ काम किया था क्योंकि उन्हें लग रहा था कि उनका प्रयास और निवेश व्यर्थ हो गया। प्रक्रिया के दौरान दसरा का एक तटस्थ सूत्रधार के रूप में काम करना और यह सुनिश्चित करना कि टीम एक आम सहमति पर पहुंचे, इन भावनाओं को पनपने से रोकने के लिए महत्वपूर्ण था।

यह तथ्य कि निर्णय और कार्यान्वयन में संगठन के कई लोग शामिल थे, भी फायदेमंद था। हालांकि, अंतरंग द्वारा बनाई गई संचालन समिति छोटी थी, उन्होंने अपने पूर्व छात्रों और टीम के अन्य सदस्यों को भी शामिल करने के लिए एक ठोस प्रयास किया। प्रत्येक संचालन समिति की बैठक से पहले उनके इनपुट एकत्र करके, संगठन ने यह सुनिश्चित किया कि समिति के निर्णयों से प्रभावित होने वाले सभी लोगों की राय को ध्यान में रखा जाए।

रणनीति से क्रियान्वयन तक

संचालन समिति द्वारा लिए गए रणनीतिक निर्णय प्रबंधकों के एक छोटे समूह को दिए गए। इस समूह ने बाद में औपचारिक रूप से इस बात का फ़ैसला लेने का प्रयास किया कि इन निर्णयों को कैसे लागू किया जाए। बाहरी सर्वेक्षणों से मिली सीख और बाकी टीम की प्रतिक्रियाओं के आधार पर, इस समूह ने ध्यान केंद्रित करने वाले क्षेत्रों की रूपरेखा तैयार की।

इसके अलावा संगठन ने ‘कार्यकारी समूह’ बनाए जिसका काम संचालन समिति द्वारा तैयार की गई संरचना को पूर्व छात्रों, कर्मचारियों और अन्य संबंधित हितधारकों के सामने पेश करना था। संगठन के लगभग 50 फ़ीसद लोग कम से कम एक कार्यकारी समूह का हिस्सा थे और प्रक्रिया में उनका शामिल होना प्रक्रिया के लिए स्वामित्व, स्पष्टता और उत्साह के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। इन हितधारकों से मिलने वाली प्रक्रियाओं को उसके बाद ऊपर बताये गये प्रबंधकों के छोटे-छोटे समूहों तक पहुंचाया जाता था। यह एक, बार-बार दोहराए जाने वाली प्रक्रिया थी जिसमें चार से पांच महीने का समय लगा। इस पूरी प्रक्रिया में अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए दसरा उपस्थित थी।

दसरा के एक निदेशक और तीन सदस्यों वाली टीम को अंतरंग के साथ काम करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। अपने काम की प्रगति से जुड़े अपडेट देने के लिए हमें दसरा के साथ हर पंद्रह दिनों में एक मीटिंग करनी होती थी। इस मीटिंग के अलावा प्रारंभिक परिचालन पूरा होने के बाद वेनिल सप्ताह में दो बार दसरा के प्रबंधकों से संपर्क करती थीं।

शिल्पकारी के लिए लकड़ी से बने औज़ार_संगठनात्मक विकास
एक समाजसेवी संस्था के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे अपने बाहरी पक्ष से किस भूमिका को निभाने की उम्मीद कर रहे हैं। | चित्र साभार: रॉपिक्सेल

इसका परिणाम क्या हुआ?

1. दृष्टि एवं लक्ष्य के प्रति स्पष्टता

रणनीतिक योजना अभ्यास का सबसे महत्वपूर्ण लाभ यह था कि इससे अंतरंग को यह समझने में मदद मिली कि वे अपने प्रभाव को कैसे बढ़ाना चाहते हैं। प्रिया कहती हैं कि ‘मुझे लगता है कि अब इस बात को लेकर हमारी समझ स्पष्ट है कि हम हज़ारों लोगों वाला एक विशाल संगठन नहीं बनना चाहते हैं। हम अपने प्रभाव को ग़ैर-रेखीय और सरल तरीक़े से बढ़ाने में सक्षम होना चाहते हैं। यह दृष्टिकोण अब उनके द्वारा नियोजित चार-वर्षीय हस्तक्षेप के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करता है।

2. संदेश में निरंतरता

अंतरंग को अब अपने पूर्व छात्रों, गैर-प्रमुख टीम और फंडर सहित विभिन्न प्रकार के हितधारकों से संपर्क करने और उन्हें अपने साथ शामिल करने की अपनी टीम की क्षमता पर अधिक विश्वास है। प्रिया इस बात को रेखांकित करती हैं कि हाल ही में उनके सबसे बड़े दानदाताओं में से एक की यात्रा ने इसकी पुष्टि की है। ‘आप चाहें टीम में किसी से भी बात करें, प्रत्येक सदस्य एक ही तरह की भाषा बोलता है और प्रत्येक सदस्य की समझ अपने द्वारा किए जाने वाले काम और उसके पीछे के कारण को लेकर स्पष्ट होती है।’ मुझे लगता है कि यह कथन इस तथ्य का प्रमाण है कि लोगों को पूरी प्रक्रिया से गुजरने में मदद मिलती है।’

3. व्यापकता के बारे में सोचने की क्षमता

व्यापकता को लेकर संगठन की सोच में भी एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है। वेनिल कहती हैं कि ‘मुझे लगता है कि अब संगठन के हर स्तर पर लोगों के लिए, चाहे वह इंटर्न हो, सहायक हो या सहयोगी हो, व्यापकता के नजरिए से समाधान के बारे में सोचना बहुत आसान हो गया है।’ प्रिया अपनी बात जोड़ते हुए कहती हैं कि ‘अब टीम के सदस्य अपने आप से यह पूछने में सक्षम हैं कि: क्या बड़े पैमाने पर यह कारगर होगा? अगर नहीं, तो अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए हमें किस तरह के बदलाव की ज़रूरत है?’ अब व्यापकता से हमें किसी तरह का नुक़सान नहीं होता है और अब हम व्यापकता से जुड़े डिज़ाइन बहुत ही आसानी से सोच पाते हैं।’ बाहरी साझेदार ने अपनी शक्तियों और क्षमताओं को उजागर करके टीम में जो आत्मविश्वास पैदा किया, उसने भी बड़े पैमाने पर उनके दृष्टिकोण को फिर से उन्मुख करने में एक प्रमुख भूमिका निभाई।

अन्य समाजसेवी संस्थाओं के लिए सलाह

1. जानें कि आप यह अभ्यास क्यों कर रहे हैं

समाजसेवी संस्थाओं के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे आंतरिक रूप से इस प्रयास को शुरू कर सकते हैं या नहीं। उन्हें इस बारे में भी सोचना चाहिए कि क्या वे बतौर संस्था के इस स्तर पर हैं जहां किसी बाहरी सलाहकार को शामिल करना उनके लिए उचित होगा। प्रिया कहती हैं कि ‘हमारा मानना था कि हमारे एक कार्यक्रम में तेज़ी से विस्तृत होने की संभावना स्पष्ट थी, और अन्य कार्यक्रमों से होने वाले प्रभाव को लेकर हम बहुत हद तक निश्चिंत थे। इसलिए अगले कदम के बारे में सोचने के लिए यह सही समय था।’ इस प्रकार एक रणनीतिक पुनर्विचार ऐसा होना चाहिए जो आवश्यक हो।

2. अपनी भूमिकाओं को समझें

एक समाजसेवी संस्था के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे अपने बाहरी पक्ष से किस भूमिका को निभाने की उम्मीद कर रहे हैं और ऐसे कौन से पहलू हैं जिन पर संगठन अपने आंतरिक टीम के साथ काम करेगा। उदाहरण के लिए, मूल्य संरेखण और रणनीतियों के क्रियान्वयन जैसे महत्वपूर्ण काम आंतरिक टीम द्वारा किए जाने पर ही अच्छे परिणाम देते हैं। इसके अलावा, सलाहकार संगठनों को यह स्पष्ट रूप से पहचानने में मदद कर सकते हैं कि उन्हें कौन सा काम जारी रखना है और कौन सा काम बंद करना है। समाजसेवी संस्थाओं के लिए, क्या नहीं करना चाहिए इस पर विचार-विमर्श और संरेखण पैमाने के निर्माण का अभिन्न अंग है।

3. आंकड़ों का उचित उपयोग

सलाहकार को उस आंकड़े और जानकारी के बारे में बताना आवश्यक है जो आपके पास पहले से है। आंकड़ों पर इस तरह से काम करना कि वह कमियों को स्पष्ट करे, बाद की रणनीति को सटीक और प्रभावी बनाने में मददगार साबित होता है।

4. विभिन्न हितधारकों को शामिल करना

प्रक्रिया की शुरुआत से ही सभी स्तरों पर कई हितधारकों को शामिल करने से अंतरंग को बहुत अधिक लाभ हुआ। प्रिया का कहना है कि किसी निश्चित हितधारक को शामिल करने के उचित समय की स्पष्टता से प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने और किसी अवांछित परिणाम को रोकना आसान हो गया। इसी वक्तव्य पर अपनी सहमति जताते हुए वेनिल ने इस बात को रेखांकित किया कि अपनी समितियों और कार्यकारी समूहों में विभिन्न हितधारकों को शामिल करने से उन्हें प्रक्रियाओं और उनके परिणामों में अधिक निवेश करने का मौका मिला।
कई तरह के लोगों को शामिल करने से टीम को ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे लोगों से क्या कारगर है और क्या नहीं जैसे विषयों पर विस्तृत और व्यावहारिक प्रतिक्रिया लेने में भी मदद मिली।

5. आंतरिक क्षमता महत्वपूर्ण है

वेनिल कहती हैं कि टीम के कम से कम दो सदस्यों को इतना सक्षम होना चाहिए कि वे अपना लगभग 50 फीसद समय इस प्रक्रिया में लगाएं। ऐसा इसलिए है क्योंकि बाहर से किसी भी तरह की सुविधा प्रदान करने वाले किसी व्यक्ति या संगठन की क्षमता उस संदर्भ और गहन अंतर्दृष्टि की भरपाई नहीं कर सकती है जो आंतरिक टीम से मिलती है। चूंकि बाहरी सूत्रधार को मदद के लिए आंतरिक टीम में वापस आते रहना होगा, इसलिए टीम के लिए रणनीतिक ओवरहाल को प्रभावी ढंग से संचालित करने के लिए आंतरिक क्षमता का होना अभिन्न है।

दाताओं के लिए सलाह

1. ईमानदारी और खुलेपन के लिए जगह बनाएं

संगठन की सफलता के लिए दाता की प्रतिबद्धता साधारण वित्तीय लेनदेन से परे होनी चाहिए। अनुदान प्राप्तकर्ताओं के साथ संचार की खुली लाइन बनाए रखने से अपेक्षाकृत अधिक ईमानदारी और स्पष्टता को बढ़ावा मिलता है। अपने विकास में आने वाली बाधाओं के बारे में अपने दाताओं को स्पष्ट रूप से बताकर, अंतरंग ने उनके सामने आने वाले संगठनात्मक मुद्दों से सहयोगात्मक रूप से निपटने के लिए अपने दाताओं की क्षमताओं और शक्तियों का लाभ उठाया।

2. समाजसेवी संस्थाओं को अपना पैमाना दृष्टिकोण तय करने दें

इस उदाहरण में, अंतरंग ने ग़ैर-रेखीय दृष्टिकोण का उपयोग करके स्केल का चुनाव किया। ऐसा इसलिए संभव था क्योंकि उनके दाताओं ने विस्तार के लिए उनकी तैयारी और क्षमता को समझने के लिए और स्केल के उपलब्ध मॉडल को जानने में उनकी मदद की। साथ ही इन कारकों के आधार पर उनके लिए सबसे उचित मॉडल का चुनाव करने के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध करवाने में भी सहायता प्रदान की।

3. संगठनात्मक विकास में निवेश करें

यह देखते हुए कि किसी संगठन के लिए दिशा की स्पष्ट समझ और महत्वाकांक्षी दृष्टि होना महत्वपूर्ण है, टीम ने संगठनात्मक क्षमता में निवेश के महत्व पर जोर दिया। उदाहरण के लिए, अंतरंग की रणनीति ने उन्हें एक केंद्रित क्रियान्वयन योजना (निर्माण के लिए आवश्यक क्षमता सहित) दी, साझेदारी और मौजूदा निवेशों का लाभ उठाने वाली एक ग़ैर-रेखीय स्केलिंग योजना दी, काम करने की क्षमता को लेकर एक स्पष्ट समझ प्रदान की और साथ ही यह भी बताया कि अपने दाताओं से उन्हें किन तरह के सहयोगों की आवश्यकता थी।

किसी संगठन के कार्य और योजना के इन पहलुओं को समग्र समर्थन के माध्यम से बढ़ावा दिया जा सकता है जो केवल संगठन के कार्यक्रमों को लक्षित नहीं करता है। वेनिल कहती हैं कि, ‘या तो आप केवल कार्यक्रमों के लिए पैसे देते रह सकते हैं, या फिर क्षमता निर्माण में हमारी मदद कर सकते हैं ताकि हम अधिक कुशलता से अपने परिणाम दे सकें।’

प्रिया अग्रवाल अंतरंग फाउंडेशन की संस्थापक-निदेशक हैं।इससे पहले उन्होंने एक एडवरटाइज़िंग पेशेवर के रूप में काम किया है।अशोका फेलो रह चुकी प्रिया का विकास सेक्टर में विभिन्न संगठनों का नेतृत्व का दो दशक से अधिक का अनुभव है।

वेनिल अली ने साल 2004 में अपनी बीए की पढ़ाई करते हुए एक वॉलंटियर के रूप में विकास सेक्टर में अपना काम शुरू किया था। उन्होंने 2008 में लीप (एलईएपी) नामक एक आफ्टर-स्कूल सेंटर शुरू किया, जो मुंबई के माटुंगा लेबर कैंप में लगभग 60 छात्रों को सेवा प्रदान करता था। 2009 में, वेनिल टीच फॉर इंडिया फ़ेलोशिप के पहले समूह में शामिल हुईं। अपनी फ़ेलोशिप के बाद, वह एक स्टाफ सदस्य के रूप में टीच फ़ॉर इंडिया में शामिल हो गईं और मुंबई की सिटी डायरेक्टर बनने से पहले विभिन्न प्रोग्रामेटिक भूमिकाएं निभाईं। उन्होंने एक एडटेक स्टार्ट-अप में सभी ट्यूटर ऑपरेशन भी तैयार किए। वर्तमान में, वेनिल अंतरंग फाउंडेशन में कार्यक्रम और स्केल की वरिष्ठ निदेशक हैं। वे ए न्यू काइंड ऑफ सेलेब्रिटी नामक पॉडकास्ट का संचालन भी करती हैं, जो विभिन्न चेंजमेकर्स के काम पर प्रकाश डालता है।

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क्यों भारत को किशोर लड़कियों के स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश करना चाहिए?

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में किशोरों की संख्या 25.3 करोड़ है और इनमें 47% लड़कियां हैं। किशोरावस्था वाली तमाम लड़कियां एनीमिया की शिकार होने के अत्यधिक जोखिम के अलावा, यौन स्वास्थ्य को लेकर बेहद कम जागरूकता, कुपोषण और मानसिक स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से भी जूझ रही हैं। उनके स्कूली पढ़ाई बीच में छोड़ने की संभावना तो ज्यादा रहती ही है, साथ ही घरेलू और देखभाल संबंधी अवैतनिक गतिविधियों में शामिल होने से उनके पास खुद अपने लिए बहुत ही कम समय बचता है।

आखिर भारत में किशोरियों के स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश करना इतना महत्वपूर्ण क्यों है। राज्यों की विशिष्ट जरूरतों को ध्यान में रखते हुए वित्तपोषण में अंतर को पाटने के साथ ही आधारभूत कौशल और डिजिटल साक्षरता पर ध्यान केंद्रित करके बजट में भारतीय किशोरों के समग्र विकास की एक मजबूत नींव रखी जा सकती है। इससे उन्हें उत्पादक और डिजिटली-सक्षम भविष्य के लिए तैयार किया जा सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा के मुताबिक 10 से 19 के बीच की उम्र को किशोरावस्था माना जाता है जो मानसिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक विकास के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण उम्र होती है।

भारत में किशोर विकास से जुड़ी नीतियां तैयार करते वक्त उन्हें जनसांख्यिकी के सामाजिक-आर्थिक कल्याण के लिहाज से मूल्यों, सिद्धांतों और उद्देश्यों की व्यापक कसौटी पर परखा जाता है। इन नीतियों को तैयार करने में शिक्षा, महिला एवं बाल विकास, युवा एवं खेल मामले, और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण जैसे विभिन्न मंत्रालय अहम भूमिका निभाते हैं।

किशोर समूह से जुड़ी प्रमुख नीतियों में राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम या आरकेएसकेराष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017, राष्ट्रीय युवा नीति, 2033 एवं 2014 और राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति, 2014 आदि शामिल हैं। इनमें जहां अपने कुछ खास लक्ष्य हैं, तो कुछ परस्पर जुड़े लक्ष्य भी निहित हैं। इसके अलावा, राष्ट्रीय जनसंख्या नीति, 2000 और हालिया राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 भी हैं जो पूरी तरह किशोरों पर केंद्रित तो नहीं हैं लेकिन इसके कुछ पहलू इस आयु वर्ग के लिए मायने रखते हैं।

स्वास्थ्य और किशोरियां

2019-2021 में किए गए पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के मुताबिक, देश में 10-19 उम्र की हर पांच किशोरियों में से तीन एनीमिया की शिकार हैं जबकि लड़कों के मामले में यह आंकड़ा 28% है। ये आंकड़ा लड़कियों के मामले में एक खास स्वास्थ्य चुनौती को दिखाता नजर आता है, जो आगे चलकर गंभीर स्वास्थ्य समस्या की वजह बन सकती है और उनकी सोचने समझने का शक्ति और शारीरिक विकास में रुकावट डाल सकती है।

इंडियास्पेंड की अक्टूबर 2016 की एक रिपोर्ट बताती है कि डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, आयरन की कमी से होने वाले एनीमिया के कारण ‘सिर्फ व्यक्ति विशेष की ही नहीं बल्कि पूरी आबादी की कार्य क्षमता घटती है और इसका गंभीर आर्थिक प्रभाव देश के विकास को भी बाधित कर देता है।’ जर्नल ऑफ न्यूट्रिशन में प्रकाशित 2002 के एक अध्ययन की मानें तो एनीमिया के कारण भारी शारीरिक श्रम करने वाले श्रमिकों की उत्पादकता 17% घटी है, वहीं मध्यम सक्रियता वाले श्रमिकों के उत्पादन में 5% की गिरावट आई है।

किशोर लड़कियों का समूह-किशोरी स्वास्थ्य
किशोरावस्था मानसिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक विकास के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण उम्र होती है। | चित्र साभार: पेक्सेल्स

यौन और प्रजनन स्वास्थ्य से संबंधित मुद्दे भी चर्चा के महत्वपूर्ण बिंदु बने हुए हैं, जिनमें कम उम्र में गर्भधारण और प्रजनन स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता का अभाव चिंता का बड़ा कारण हैं। हालांकि 15-19 की उम्र में प्रति 1,000 महिलाओं पर आयु-विशिष्ट प्रजनन दर एनएफएचएस-4 (2015-16) के दौरान 51 से घटकर एनएफएचएस-5 में 43 हो गई। यूएनएफपीए की रिपोर्ट के मुताबिक, फिर भी वैश्विक स्तर पर पर हर सात अनपेक्षित गर्भधारण में से एक भारत में होता है। वहीं, एनएफएचएस-5 से यह भी पता चलता है कि 15 से 19 की उम्र की 6.8% किशोरियां बच्चों को जन्म दे रही हैं।

इस उम्र में पोषण की कमी के चलते बौनेपन और कम वजन की समस्याएं भी नजर आती हैं। एनएफएचएस-4 के मुताबिक, स्कूल जाने वाली 41.9% से अधिक लड़कियों का वजन औसत से कम है। ये समस्या बिहार, झारखंड और गुजरात जैसे कुछ राज्यों में अधिक स्पष्ट दिखाई देती है, जो क्षेत्रीय स्तर पर पोषण संबंधी असमानता का संकेत है।

नए मिशन पोषण 2.0 के तहत किशोरियों की पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने पर जोर दिया गया है। पिछली योजना में स्कूल छोड़ने वाली 11-14 वर्ष की किशोरियों को शामिल किया गया था। वहीं पोषण 2.0 में आकांक्षी जिलों की 14-18 वर्ष की सभी लड़कियां को शामिल किया गया है।

एनएफएचएस सर्वे मासिक धर्म स्वास्थ्य की स्थिति भी दर्शाता है, जिसमें मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले स्वच्छता उत्पादों के इस्तेमाल में अच्छी-खासी बढ़ोतरी नजर आती है। अब 15-19 वर्ष आयु वर्ग की 78% लड़कियां इन उत्पादों का इस्तेमाल कर रही हैं, जबकि 2015-16 में यह आंकड़ा 58% ही था। हालांकि, सभी लड़कियों तक मासिक धर्म स्वास्थ्य उत्पाद की उपलब्धता और उन्हें शिक्षा मिल सके, यह सुनिश्चित करने के लिए निरंतर प्रयास किए जाने की जरूरत बताई गई है।

मानसिक सेहत से जुड़ी समस्याएं बढ़ना भी किशोर स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है।

मानसिक सेहत से जुड़ी समस्याएं बढ़ना भी किशोर स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी स्थितियों में से आधी की शुरुआत 14 वर्ष की उम्र में होती है, और 15 से 19 साल के बच्चों की मौत का एक प्रमुख कारण उनका खुद को नुकसान पहुंचाना ही है। भारत के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 में पाया गया कि 13-17 वर्ष की आयु के किशोरों में मानसिक विकार के शिकार होने का जोखिम करीब 7.3% था और लड़कों की तुलना में लड़कियों के तनाव के शिकार होने की घटनाएं ज्यादा पाई गईं। भारत में किशोर कल्याण पर यूनिसेफ की 2019 की रिपोर्ट मानसिक स्वास्थ्य (किशोरों में अवसाद और चिंता के मामले) की बढ़ती समस्या को रेखांकित करती है और इस दिशा में लक्षित प्रयासों की जरूरत बताती है।

आरकेएसके और पोषण 2.0 जैसे कार्यक्रमों का असरदार होना और सबको इसका फायदा मिले, यह पूरी तरह इस पर बात पर निर्भर करता है कि इसके लिए वित्तीय संसाधन कितने मजबूत हैं। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम किशोरों के स्वास्थ्य के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है, लेकिन धन के कम इस्तेमाल की वजह से इसके अमल में कई तरह की बाधाएं उत्पन्न हो रही हैं।

शिक्षा एवं किशोरियां

किशोरावस्था उम्र का वह दौर है जब बच्चे प्रारंभिक से माध्यमिक शिक्षा और शिक्षा से कैरियर की राह पर चलने की तैयारी करते हैं। लेकिन शिक्षा के सीमित अवसर लड़कियों की भविष्य की संभावनाओं पर अच्छा खासा असर डालते हैं। भारत सहित आठ देशों में किए गए 2020 के एक शोध अध्ययन के मुताबिक, सार्वभौमिक माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के लिए प्रति लड़की प्रति दिन 1.53 डॉलर का निवेश, विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को वर्ष 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को औसतन 10% तक बढ़ाने में मदद कर सकता है।

मौजूदा समय में भारत में महिला श्रम बल भागीदारी दर (फ़ीमेल लेबर पार्टिसिपेशन रेट – एफएलपीआर) 37% है। यह दर जी-20 देशों में सबसे कम में से एक है। जहां एक तरफ लड़कियों का उच्च शिक्षा न मिल पाना महिला श्रम बल भागीदारी दर के बढ़ने का एक कारण है, वहीं दूसरी ओर पर्याप्त ज्ञान, कौशल और शिक्षा की कमी भी महिलाओं को कुशल कार्यबल का हिस्सा बनने से रोक रही है।

14-18 साल की उम्र में ही लड़कियां माध्यमिक शिक्षा और शिक्षा से अपने कैरियर की ओर रुख करती हैं। कह सकते हैं कि ये उम्र उनके आगे के जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि माध्यमिक स्तर पर लड़कियों की नामांकन दर में पर्याप्त सुधार हुआ है। यह दर 2012-13 में 43.9 फीसद थी, जो 2021-22 में बढ़कर 48 फीसद पर पहुंच गई। लेकिन बड़ी संख्या में किशोर लड़कियां अभी भी स्कूल से बाहर हैं। शिक्षा के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली के मुताबिक, 2021-22 में जहां देश में शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर 1.35% है, वहीं माध्यमिक स्तर पर यह बढ़कर 12.25% हो गई, जबकि किशोर लड़कों के लिए यह आंकड़ा 12.96% है। कोविड-19 महामारी ने भारत की किशोरियों की सीखने की क्षमता पर गहरा असर डाला है। एएसईआर 2023 ‘बियॉन्ड बेसिक्स’ सर्वे बताता है कि 14-18 वर्ष की उम्र की 24% लड़कियां दूसरी कक्षा की किताबें भी ठीक ढंग से नहीं पढ़ पाती हैं।

महामारी के दौरान स्कूलों को वर्चुअल मोड में बदल दिया गया था। इसने उन छात्रों की शिक्षा को सबसे अधिक प्रभावित किया जिनके पास डिजिटल उपकरणों तक पहुंच नहीं थी या सीमित थी। असर (एएसईआर) सर्वे में किशोर युवाओं के बीच लैंगिक असमानता का भी पता चलता है। जो लोग स्मार्टफोन का इस्तेमाल कर सकते हैं, उनमें से 43% छात्रों के पास अपने खुद के फोन थे, जबकि छात्राओं के लिए ये आंकड़ा 19% था।

पर्याप्त ज्ञान, कौशल और शिक्षा की कमी भी महिलाओं को कुशल कार्यबल का हिस्सा बनने से रोक रही है।

बच्चों को बेहतर शिक्षा मिल सके, इसके लिए सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की मौजूदगी बेहद मायने रखती है। लेकिन यहां भी आंकड़े बताते हैं कि स्थिति उतनी अच्छी नहीं है। स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग की संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार, 2022-23 में शिक्षकों के कुल स्वीकृत पदों में से माध्यमिक स्तर पर 15% और उच्च माध्यमिक स्तर पर 19% पद खाली हैं।

क्योंकि माध्यमिक स्तर पर शिक्षा मुफ्त नहीं है, इसलिए माता-पिता अपनी बेटियों की तुलना में अपने बेटों को पढ़ाने के ज्यादा इच्छुक रहते हैं। उन्हें बेटियों की बजाए बेटों पर खर्च करना ज्यादा उचित लगता है। ऐसे में कम शुल्क लेने वाले सरकारी स्कूल अप्रत्यक्ष रूप से माध्यमिक स्तर पर लड़कियों को अधिक बढ़ावा देने वाले साबित होते हैं। जाहिर सी बात है, किशोरियों के लिए माध्यमिक शिक्षा के लिए सरकार की तरफ से दी जाने वाली आर्थिक मदद बेहद महत्वपूर्ण है।

इंडियास्पेंड ने अक्टूबर 2018 में ‘नन्ही कली’ की ओर से जारी ‘टीन एज गर्ल्स’ रिपोर्ट के आधार पर बताया था ‘स्कूल में बिताया गया एक अतिरिक्त साल एक लड़की द्वारा अर्जित आय में कम से कम 10% -20% से वृद्धि करता है। माध्यमिक शिक्षा पर रिटर्न 15%-25% तक है।’ ‘नन्ही कली’ किशोर लड़कियों के साथ काम करने वाली एक संस्था नन्दी फाउंडेशन का एक प्रोजेक्ट था।

ग्रामीण इलाकों में सर्वे में शामिल सिर्फ 18.6% लड़कियों ने कहा कि उनके समुदाय के लड़के उतना ही घरेलू काम करते हैं जितना कि वे करती हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में ऐसा कहने वाली लड़कियों का आंकड़ा 23.8% रहा। घरेलू और देखभाल संबंधी अवैतनिक गतिविधियों में शामिल होने से उनके पास खुद अपने लिए बहुत ही कम समय बचता है।

माध्यमिक शिक्षा पर केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा कुल सार्वजनिक व्यय पिछले पांच सालों से सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 1% पर स्थिर है और केंद्र सरकार का हिस्सा समय के साथ घट रहा है। सीबीजीए-क्राई अध्ययन का अनुमान है कि 15-19 वर्ष की उम्र की सभी योग्य लड़कियों को सार्वभौमिक गुणवत्ता वाली माध्यमिक शिक्षा मिल पाए इसके लिए सकल घरेलू उत्पाद का 0.2% – 0.3% अतिरिक्त चाहिए होगा।

2022 में स्कूल छोड़ने वाली 11-14 वर्ष की किशोरियों को फिर से नामांकित करने के लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग के साथ मिलकर कन्या शिक्षा प्रवेश उत्सव नाम से ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के तहत एक विशेष अभियान शुरू किया था। सरकार ने जुलाई 2023 में लोकसभा को बताया कि 2022-23 में, ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के तहत केंद्र सरकार ने 90 करोड़ रुपये जारी किए थे। 2020-21 और 2021-22 में यह आंकड़े क्रमशः 53 करोड़ रुपये और 57 करोड़ रुपये थे। पोर्टल के अनुसार, 2022 तक 22 राज्यों में 144,000 किशोर लड़कियों की पहचान की गई और उनमें से 100,000 को फिर से नामांकित किया गया है। हालांकि, स्कूल न जाने वाली लड़कियों की संख्या रिपोर्ट की गई संख्या से अधिक होगी क्योंकि प्रोजेक्ट अप्रूवल बोर्ड ऑफ समग्र शिक्षा अभियान की बैठक के मिनट्स से पता चलता है कि कई राज्यों ने अभी तक प्रबंध पोर्टल पर डेटा अपलोड करना शुरू नहीं किया है।

यह आलेख मूलरूप से इंडिया स्पेंड पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।

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महाराष्ट्र की विवाहित महिलाओं को पहचान के संकट से क्यों जूझना पड़ता है

विवाह प्रमाणपत्र के साथ समूह में बैठी कुछ महिलाएं_पहचान दस्तावेज
जब विवाहित महिलाएं एक नया नाम और नया पता अपना लेती हैं तब उनके लिए पहचान दस्तावेज़ों को अपडेट करना आवश्यक हो जाता है। | चित्र साभार: सुवर्णा सुनील गोखले

महाराष्ट्र के ग्रामीण और शहरी इलाकों में, सांस्कृतिक परंपराओं के कारण, कई महिलाएं शादी के बाद अपना पहला और अंतिम, दोनों नाम बदल लेती हैं। उदाहरण के लिए, अगर किस महिला का नाम लक्ष्मी जगताप है तो वह अपना नाम कल्पना धूमल रख सकती है। और जैसा कि नियम है, वे अपने पैतृक घरों से निकलकर अपने पति के परिवार के साथ रहने चली जाती हैं जो अक्सर ही किसी दूसरे गांव में होता है। इसलिए जब महिलाएं बिलकुल ही नये नाम और नये पते को अपना लेती हैं तब उनके लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि वे अपने पहचान से जुड़े सभी काग़ज़ों जैसे कि अपने आधार और पैन कार्ड आदि को अपडेट करवाएं। ऐसा नहीं करने पर वे ना तो बैंक में खाता खुलवा सकती हैं और ना ही राशन कार्ड और एलपीजी कनेक्शन के लिए आवेदन ही दे सकती हैं।

ऐसे मामलों में विवाह प्रमाणपत्र बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इसमें उस महिला का नया नाम दर्ज होता है। वे इसका उपयोग अन्य दस्तावेजों में अपनी पहचान से जुड़ी जानकारियों को बदलवाने में कर सकती हैं। हालांकि, जब ज्ञान प्रबोधिनी की ग्रामीण विकास टीम ने पुणे जिले के ब्लॉक मुख्यालय वेल्हे के आसपास के 10 गांवों में एक सर्वेक्षण किया तो इस सर्वेक्षण में उन्होंने पाया कि मुश्किल से 44.7 फ़ीसद महिलाओं को ही पता था कि उनकी शादी सरकारी रिकॉर्ड में पंजीकृत है। वेल्हे और राज्य के एक प्रमुख शहर, पुणे के बीच प्रवास एक आम बात है। इसके बावजूद जागरूकता में यह कमी चौंकाने वाली है। कई महिलाओं के पास तो उनकी लग्न पत्रिका (आमंत्रण पत्र) भी नहीं था, जिसके आधार पर उन्हें प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करने में मदद मिल सकती थी।

इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि इनमें से अधिकतर महिलाओं के पास बैंक खाता नहीं था। लेकिन महाराष्ट्र में विवाह दस्तावेज़ न होने की स्थिति में महिलाओं को केवल इसी एक समस्या से नहीं जूझना पड़ता है। अगर विवाह के प्रमाण के बिना कोई महिला तलाक ले लेती है या छोड़ दी जाती है तो उसके पास अपने अधिकारों का दावा करने या किसी सरकारी योजना तक पहुंचने के लिए किसी तरह का पहचान पत्र नहीं होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आधिकारिक रिकॉर्ड में उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। ऐसी स्थिति में वह जिस एकमात्र संपत्ति पर दावा कर सकती है, वह स्त्रीधन (उसके दोस्तों और परिवार से प्राप्त शादी के उपहार) हैं। लेकिन जिन 144 महिलाओं का हमने सर्वेक्षण किया उनमें से केवल 12 फ़ीसद के पास उन उपहारों की वास्तविक खरीद की रसीदें उपलब्ध थीं।

बागेश्री पोंक्षे और ओजस देवलेकर ने इस लेख में अपना योगदान दिया।

डॉ अजीत कानिटकर पुणे स्थित एक शोधकर्ता और नीति विश्लेषक हैं। सुवर्णा गोखले ज्ञान प्रबोधिनी के स्त्री शक्ति ग्रामीण विभाग की प्रमुख हैं।

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अधिक जानें: जानें कि कैसे जन आधार कार्ड राजस्थान में तलाकशुदा महिलाओं के लिए स्कूल लौटना मुश्किल बना देता है।

अधिक करें: लेखकों के काम को जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] और [email protected] पर संपर्क करें।

जब कहने वाले हों हजार, तब चाहिए मन की शक्ति अपार

1. समाज के वो चार लोग जो आपको चांद पर चढ़ाते हैं
मम्मी पापा से बात करते हुए बच्चा _ज़मीनी कार्यकर्ता

2. उसी जोश-जोश में जब आप अपना प्लान सुनाते हैं

मम्मी पापा का रिएक्शन_ज़मीनी कार्यकर्ता

3. और, फिर आता है उनका फाइनल स्वीप और आप धड़ाम!

आप धड़ाम_ज़मीनी कार्यकर्ता

पंचायत के ऑनलाइन डाटाबेस को कैसे एक्सेस करें?

विकास सेक्टर में अलग-अलग संस्थाएं विभिन्न मुद्दों पर काम करती हैं। हर जगह ज़मीनी स्तर पर काम करने वालों भी हमेशा यही कोशिश रहती है कि कैसे उपयोगी जानकारी को न केवल खुद हासिल किया जाए बल्कि आम लोगों तक भी सरलता से पहुंचाया जाए।

अगर आप पंचायतों में श्रमिकों से जुड़े मुद्दों पर काम करते हैं तो आपको भी मनरेगा जैसी योजनाओं से जुड़ी जानकारी रखने की ज़रूरत पड़ती होगी।

ऐसे में यदि आप अपनी पंचायत में मनरेगा योजना के तहत जॉब कार्ड्स की स्थिति, विकास कार्य गतिविधियों और उन पर होने वाले खर्च के बारे में जानना चाहते हैं तो इन सब कामों के लिए आपको सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने की जरूरत नहीं है। ये सारी जानकारियां आप घर बैठे ऑनलाइन माध्यमों से आसानी से चेक कर सकते हैं।

मनरेगा से जुड़े डाटाबेस को कैसे एक्सेस करें?

अगर आप मनरेगा से जुड़े आंकड़ों जिसमें सक्रिय कामगारों की संख्या, सम्पत्ति (असेट्स) का निर्माण, प्रति व्यक्ति दिनों की संख्या, डीबीटी ट्रांसफर की स्थिति, कुल लाभान्वित घरों की संख्या तथा व्यक्तिगत श्रेणी के कार्यों की जानकारी चाहते हैं तो इसके लिए आप मनरेगा की आधिकारिक वेबसायट पर जाना होगा। वेबसायट पर जाकर नीचे दिए गए सेक्शन में इन विषयों से संबंधित जानकारी आप विस्तार से देख सकते हैं। इसमें प्रत्येक राज्य का डाटा उपलब्ध होता है।

मनरेगा से जुड़े डेटाबेस_ऑनलाइन डाटाबेस
सारी जानकारियां आप घर बैठे ऑनलाइन माध्यमों से आसानी से चेक कर सकते हैं। | चित्र साभार: मनरेगा वेबसायट

पंचायत में जॉब कार्ड, कार्यों एवं फंड की स्थिति कैसे जानें?

अगर आप अपने राज्य में जॉब कार्ड, कार्यों की प्लानिंग से संबंधित, काम की डिमांड, उसके आवंटन से जुड़ी जानकारी, मस्टररोल, कार्य प्रगति की स्थिति, फंड या संबंधित जानकारी देखना चाहते हैं तो इसके लिए आपको मनरेगा वेबसाईट के होम पेज पर ‘रिपोर्ट’ ऑप्शन पर क्लिक करना होगा।

पंचायत में जॉब कार्ड, कार्यों एवं फंड की स्थिति_ऑनलाइन डाटाबेस
लिंक खुलने के बाद आपको ‘कैप्चा’ भरने के बाद वित्तीय वर्ष और राज्य को सिलेक्ट करना होगा।| चित्र साभार: मनरेगा वेबसायट

पंजीकृत एक्टिव जॉब कार्ड ऑनलाइन कैसे देखें?

उदाहरण के लिए अगर आप छत्तीसगढ़ राज्य से हैं और आप जानना चाहते हैं कि आपके राज्य में कुल कितने जॉब कार्ड श्रेणीवार (एससी,एसटी, महिला) पंजीकृत हैं तथा कुल कितने ऐक्टिव हैं तो आप यह जानकारी यहां ऑनलाइन चेक कर सकते हैं। इसी तरह आप बाकी राज्यों का भी डाटा ऑनलाइन देखा सकता है। इतना ही नहीं, अगर आप राज्य के किसी भी ज़िले के अंतर्गत पंचायत में नाम सहित जॉब कार्ड की लिस्ट देखना चाहते हैं तो वो भी आपको इसी के अंतर्गत ऑनलाइन मिल जाएगी।

कैसे देखें कि कितने परिवारों ने काम के लिए डिमांड किया?

मनरेगा के तहत कितने परिवारों ने काम के लिए डिमांड किया है, यह जानकारी आप राज्यवार आसानी से ऑनलाइन यहां चेक कर सकते हैं।

काम के बदले भुगतान:

यदि आप देखना चाहते हैं कि राज्यवार अथवा आपके राज्य में मनरेगा कामगारों को राशि का औसतन कितना भुगतान किया गया है तो आप यह जानकारी यहां देख सकते हैं।

बेरोजगारी भत्ता:

जब पंचायत में किसी परिवार द्वारा मनरेगा के तहत काम के लिए डिमांड किया जाता है तो पंचायत द्वारा उस परिवार के निवास स्थान के पांच किलोमीटर के दायरे में उन्हें काम उपलब्ध करवाना होता है। अगर बावजूद इसके, पंचायत उन्हें काम उपलब्ध नहीं कराती है तो ऐसी स्थिति में उन्हें बेरोज़गारी भत्ता देने का भी प्रावधान है। आप इस लिंक के माध्यम से ऑनलाइन यह देख सकते हैं कि आपके राज्य में कितने लोगों को इसका लाभ मिल पाया है।

शिकायत निवारण तंत्र:

मनरेगा में कई बार ऐसी शिकायतें होती हैं जिनके लिए लोग पंचायत के पास जाने को लेकर असमंजस में रहते हैं।

  1. काम की डिमांड के बावजूद काम न मिलना
  2. काम करने के बाद उसका पैसा न मिलना 
  3. अगर पंचायत में काम हुआ है लेकिन उसकी गुणवत्ता अच्छी न हो 

ऐसी कई शिकायतें होती हैं जहां अगर पंचायत आपकी बात न सुने ऑनलाइन माध्यमों का इस्तेमाल किया जा सकता है।

शिकायत निवारण तंत्र_ऑनलाइन डाटाबेस
ऐसी कई शिकायतें होती हैं जिनके लिए ऑनलाइन माध्यमों का इस्तेमाल किया जा सकता है।| चित्र साभार: मनरेगा वेबसायट

बहुत सारी जानकारी ऑनलाइन माध्यमों में उपलब्ध हैं और समय-समय पर इन्हें अपडेट भी किया जाता है। इन्हें हासिल करते रहने के लिए ज़रूरी है कि आप घर बैठे इन माध्यमों का नियमित इस्तेमाल करें ताकि बेवजह सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने से बच सकें। इससे न केवल आप सरकार के डेटा को ऑनलाइन ऐक्सेस कर पा रहे हैं बल्कि इसके आधार पर आप सरकार से भी जवाब मांग सकते हैं।

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आज के लाभार्थी, कल के दानदाता कैसे बन सकते हैं?

जब हम किसी संभावित समाजसेवी दानकर्ता (नॉन-प्रॉफिट डोनर्स) के बारे में सोचते हैं तो हमारे मन में अनुदान-देने वाले फाउंडेशन, कॉरपोरेशन, और बहुत अधिक संपत्ति वाले लोगों (एचएनआई) की छवि उभर कर आती है। लेकिन क्या किसी समाजसेवी संस्था के कार्यक्रमों से लाभान्वित होने वाले लोग लंबे समय तक चलने वाली फंडिंग प्रक्रिया के लिए प्रेरक शक्ति बन सकते हैं? यदि हां, तो उन्हें अपने हिस्से का योगदान देने के लिए कैसे प्रेरित किया जा सकता है? ऐसे ही प्रश्नों के बारे में गहराई से जानने के लिए यह केस स्टडी, फाउंडेशन फॉर एक्सीलेंस (एफएफई) और उसकी एल्मनाई एंगेजमेंट के बड़े प्रयासों पर नजर डालती है।

एफएफई वित्तीय बाधाओं का सामना करने वाले मेधावी छात्रों को कॉलेज की डिग्री के लिए छात्रवृत्ति प्रदान करता है। इसके लिए आमतौर पर ऐसे छात्रों को चुना जाता है जिनमें इंजीनियरिंग, मेडिकल, फ़ार्मेसी या कानूनी पढ़ाई (भारत में सबसे महंगे उच्च शिक्षा कार्यक्रमों में से कुछ) में आगे बढ़ने की प्रबल संभावना होती है। छात्रवृति के अलावा इन छात्रों को रोज़गार के लिए आवश्यक कौशल प्रशिक्षण और उन क्षेत्रों के विशेषज्ञों द्वारा नियमित रूप से दिशा-निर्देशन भी दिया जाता है। एक बार जब उनकी डिग्री पूरी हो जाती है तब वे एफएफई के पूर्व छात्र (एल्मनाई) बन जाते हैं।

साल 2010–11 में एफएफई को अपने पूर्व छात्रों से कुल 21 लाख रुपये का दान मिला था। तब से, पूर्व छात्रों द्वारा मिलने वाले दान की हिस्सेदारी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जो 2021-22 में 1538 पूर्व छात्रों से 4.2 करोड़ रुपये (पूर्व छात्रों द्वारा संचालित मिले दान और सीएसआर फंड सहित) तक पहुंच गई।

लेकिन किस बात ने एफएफई को पूर्व छात्र सहभागिता वाले इस दृष्टिकोण को अपनाने के लिए प्रेरित किया? और उन्होंने इसे कैसे कारगर बनाया है?

पूर्व छात्रों को शामिल करने का निर्णय लेने से पहले एफएफई संगठनात्मक रूप से कहां था?

साल 1994 में एफएफई की स्थापना के बाद से, छात्रवृति के लिए चुने गये छात्र इस बात की प्रतिज्ञा लेते हैं कि सक्षम होने के बाद से वे कम से कम दो अन्य छात्रों की शिक्षा का खर्च उठाएंगे। हालांकि, संगठन के शुरुआती दिनों में इसके कार्यकारी निदेशक और बोर्ड अमेरिका में थे। भारत की टीम में बड़े पैमाने पर वॉलंटियर शामिल थे, और उनका ध्यान उन छात्रों की पहचान करने पर था जो छात्रवृति पाने के योग्य थे। नतीजतन, पढ़ाई पूरी कर निकल चुके लोग उनकी प्राथमिकता में शामिल नहीं थे। इसके अलावा, संगठन के पूर्व छात्रों के डाटाबेस की स्थिति भी अच्छी नहीं थी। उनसे पास अपने पूर्व छात्रों से संपर्क का एक मात्र ज़रिया वे चिट्ठियां थीं जो उनमें से कुछ ने संगठन को लिखे थे।

साल 2003 में एफएफई इंडिया ट्रस्ट की स्थापना के बाद, इसने भारत में ऐसी व्यवस्था बनाई ताकि पूर्व छात्र दान कर सकें। शुरुआत में उन्हें एफएफई के वॉलंटियर बेस के माध्यम से ट्रस्ट के बारे में जागरूक किया गया था। छात्रवृत्ति को प्रचारित करने और इसके लिए योग्यता प्राप्त करने वाले छात्रों की पहचान करने के लिए समुदाय के साथ मिलकर काम करने के कारण, इन वॉलंटियरों ने पूर्व छात्रों के साथ एक संबंध विकसित कर लिया, जिसका लाभ उन्होंने दान को प्रोत्साहित करने के लिए उठाया।

एफएफई की प्रबंध ट्रस्टी सुधा किदाओ ने कहा कि उन्होंने 2011 में धीरे-धीरे पूर्व छात्रों का डेटाबेस बनाना शुरू किया। ‘उसके पहले, हम इस विश्वास के साथ काम कर रहे थे कि हमें दान के लिए अपने पूर्व छात्रों से संपर्क नहीं करना चाहिए क्योंकि वे जब इसके योग्य होंगे तो स्वयं ही इसकी पहल करेंगे। लेकिन एक बार अपने पूर्व छात्रों से बातचीत शुरू करने के बाद मुझे ऐसा लगा कि इनसे संपर्क करने और दान देने के लिए प्रोत्साहित करना ग़लत नहीं है। अख़िरकार, उनकी अलग-अलग तरह की प्राथमिकताएं हो सकती हैं और संभव है कि एफएफई उनके दायरे में भी ना हो।’

पीले रंग की पृष्ठभूमि पर गियर_फंडरेजिंग
जब अपने निवेश पर रिटर्न पाने की बात आती है तो दानकर्ताओं को लंबी-अवधि वाला दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। | चित्र साभार: कैनवा प्रो

पूर्व छात्रों से संपर्क की चुनौतियां

इस बात को समझने के बाद उनके पास पूर्व छात्रों के रूप में एक ऐसा संसाधन स्रोत है जिसका इस्तेमाल उन्होंने अभी तक दान पाने के लिए नहीं किया, एफएफई ने उनके साथ सक्रिय रूप से संपर्क स्थापित करने और इस काम में अधिक संसाधन के निवेश का फ़ैसला किया। एफएफई के संस्थापक, डॉक्टर प्रभु गोयल का इस दृष्टिकोण में बहुत अधिक विश्वास होने के कारण उन्होंने पूर्व छात्रों से संपर्क स्थापित करने वाले टीम को नियुक्त करने के लिए फंड मुहैया करवाया। उनसे मिले अप्रतिबंधित अनुदान ने उनके पूर्व छात्र कार्यक्रम को कारगर बनाने में ज़रूरी भूमिका निभाई।

शुरुआती कुछ वर्ष चुनौतीपूर्ण थे; एफएफई के डेटाबेस में उपस्थित पूर्व छात्रों की जानकारी अधूरी, पुरानी या ग़लत थी। इसलिए, 2010–11 के दौरान, एफएफई की टीम ने उन वालंटियर और पूर्व छात्रों के परिवारों से संपर्क किया और उनके बारे में जानकारी जुटाई। उस समय, प्रतिक्रिया और दान देने वाले पूर्व छात्रों की संख्या कम थी। साथ ही, एफएफई ने पूर्व छात्रों से यह भी अनुरोध किया कि वे स्थानीय समुदायों में संगठन के कार्यक्रमों के बारे में जागरूकता पैदा करने, अन्य छात्रों की पहचान करने में मदद करने जो उनकी छात्रवृत्ति से लाभान्वित हो सकते हैं, और प्रौद्योगिकी आवश्यकताओं और फ़ंडिंग में सहायता मांगने जैसे कामों में भाग लें। इस सोच के पीछे पूर्व छात्रों के साथ संपर्क को बढ़ाना था और साथ ही यह भी ध्यान में रखना था कि संगठन का ध्यान केवल उनसे दान लेने तक ही सीमित ना रहे। इस प्रकार, एफएफई टीम ने धीरे-धीरे एक व्यापक पूर्व छात्र डेटाबेस बनाना शुरू कर दिया।

“मैंने पूर्व छात्रों के कार्यालयों के साथ बहुत बातचीत की, लेकिन मुझे पता चला कि वे वास्तव में सफल नहीं थे।

इसके अलावा, चूंकि एफएफई के कई बोर्ड सदस्य प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों से जुड़े थे, इसलिए वे यह देख पाने में सक्षम थे कि इन संस्थानों के एलुमनाई नेटवर्क कैसे काम करते हैं। नज़दीक से इस मामले को देखने के बाद उनके सामने एक चुनौती उभर कर आई। सुधा कहती हैं कि ‘मैंने पूर्व छात्रों के कार्यालयों के साथ बहुत बातचीत की, लेकिन मुझे पता चला कि वे वास्तव में सफल नहीं थे। बल्कि विभिन्न बैचों के कुछ लोग ही थे जो लगे रहे और अपने साथी बैचमेट्स को संस्थान के लिए कुछ करने के लिए प्रोत्साहित किया। लेकिन इन छात्रों में एक बात समान थी – वे उस कैंपस के थे और ज़्यादातर एक-दूसरे के सहपाठी थे। हमारे छात्रों के साथ यह बात नहीं थी। उन सभी की पढ़ाई दो सौ से अधिक, विभिन्न कॉलेज में हुई थी और उनका या तो आपस में कभी किसी तरह का संपर्क नहीं हुआ था या फिर एक दूसरे को बहुत कम जानते थे। एकमात्र समानता उनकी एफएफई छात्रवृत्ति थी।’ इस प्रकार, पूर्व छात्रों को अपने साथी बैचमेट को संस्था को कुछ वापस देने के लिए प्रोत्साहित करने वाला संस्थागत मॉडल एफएफई के लिए कारगर नहीं था।

परिणाम स्वरूप, एफएफई ने यह सोचकर अपने पूर्व छात्रों के लिए एक वेब पोर्टल विकसित करने की योजना बनाई ताकि इससे वे एक-दूसरे के साथ बातचीत कर सकें  और उनके भीतर समुदाय की भावना पैदा हो सके। एक उदार अप्रतिबंधित अनुदान के माध्यम से, एफएफई ने एक छात्र संघ वेब पोर्टल लॉन्च किया, लेकिन आशा के विपरीत इससे अनुदान या संपर्क दर में बहुत अधिक वृद्धि नहीं आई। तब तक फ़ेसबुक, लिंक्डइन और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म लोकप्रिय होने शुरू हो गये थे। और, एफएफई और पूर्व छात्रों से जुड़ी जानकारियों को हासिल करने के लिए अलग से एक दूसरे पोर्टल पर जाने का विचार लोगों के लिए आकर्षक और प्रभावशाली नहीं रह गया था। इसलिए, एफएफई ने पूर्व छात्रों से संपर्क को बढ़ाने के लिए वैकल्पिक मॉडल पर काम करना शुरू कर दिया।

सफलता की राह पर धीरेधीरे आगे बढ़ना

1. अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से सीखना

प्रभु ने बाद में सुधा को स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र कार्यालय से जोड़ा। वे अपेक्षाकृत अधिक व्यक्तिगत बातचीत को बढ़ावा देने के लिए अपने पूर्व छात्रों से नियमित संपर्क के महत्व पर जोर देते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि, स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय की टीम के साथ अपनी बातचीत के दौरान सुधा ने यह सीखा कि कुछ पूर्व छात्र शायद इसलिए भी दान नहीं देना चाहेंगे क्योंकि उन्हें लगता है कि – भले ही उनके लिए उनका दान महत्वपूर्ण है – लेकिन अधिक धनी पूर्व छात्रों द्वारा दिये जाने वाले दान के सामने उनका दान छोटा या कम लगेगा। इस सोच से एफएफई को यह समझने में मदद मिली कि पूर्व छात्रों से संपर्क करते समय उन्हें दान (इसके आर्थिक मूल्य से परे) के महत्व को रेखांकित करना चाहिए।

परिणामस्वरूप एफएफई ने वह मॉडल अपनाया जहां वे अपने पूर्व छात्रों को नियमित कॉल करते थे। हालांकि इस मॉडल में संसाधन के साथ-साथ पूरे साल नियमित रूप से संपर्क को बनाए रखने की ज़रूरत थी, यह मॉडल एफएफई द्वारा अपनाई गई सभी रणनीतियों में सबसे अधिक प्रभावशाली थी। शुरुआत में संगठन ने 1.5 लोगों की टीम के साथ इसकी शुरुआत की जिनका मुख्य काम टेलीफ़ोनिक कॉल, व्हाट्सऐप संदेशों, दान अभियानों आदि के माध्यम से पूर्व छात्रों से संपर्क स्थापित करना था। वर्तमान में इस टीम में कुल पांच लोग हैं जो पूरे समय इसी काम में लगे रहते हैं।

रणनीति बहुत ही साधारण थी लेकिन साथ ही उनके लिए अपने पूर्व छात्रों के पेशेवर यात्रा से जुड़ी नई से नई जानकारी जुटाना आवश्यक था। एफएफई उनसे संपर्क करता था, उनकी सफलता पर उन्हें बधाई देता था और उन्हें उनके द्वारा ली गई प्रतिज्ञा की याद दिलाता था। हालांकि, इस तरीक़े की अपनी चुनौतियां थीं। जहां एक तरफ़ कुछ पूर्व छात्र पूरी तरह से उनके कॉल और संदेशों को नज़रअन्दाज़ कर देते थे, वहीं कुछ की प्रतिक्रिया या तो ग़ुस्से वाली होती थी या फिर बातचीत के दौरान वे इस बात का संकेत देते थे कि वे दान के लिए तैयार नहीं हैं। हमारा सौभाग्य था कि एफएफई से मिलने वाले संदेशों और कॉल से खुश होने वाले पूर्व छात्रों की संख्या लगातार बढ़ रही थी और वे दान भी देने के इच्छुक थे।

2. मिलतेजुलते अनुदान लागू करना

सुधा ने भी बताया कि एफएफई के लिए मिलते-जुलते अनुदान (मैचिंग ग्रांट) भी एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। ‘मैंने अमित (चंद्रा) से बात की, जो हमारे इस पूर्व छात्र कार्यक्रम से बहुत अधिक प्रभावित थे, और वे जानना चाहते थे कि आप अपने अनुदान को आगे कैसे ले जा सकते हैं।’ परिणाम स्वरूप, एफएफई ने अमित और प्रभु जैसे फंडरों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करना शुरू किया कि वे पूर्व छात्रों के दान से मैच करें। पूर्व छात्रों को यह मैचिंग अनुदान विशेष रूप से आकर्षक लगा और यह जानते हुए कि उनके दान को प्रभावी ढंग से कई गुना बढ़ाया जा रहा था, वे अधिक मात्रा में दान करने को तैयार थे।

अनुदान-मिलान प्रयास की सफलता ने उन्हें कॉग्निजेंट से संपर्क करने के लिए प्रेरित किया, जिसने हर साल 50 लाख रुपये तक दान देने का वादा किया। एफएफई-कॉग्निजेंट साझेदारी की शुरुआती पुनरावृत्ति ने 250 छात्रों के एक बैच को वित्त पोषित किया (जहां छात्रवृत्ति राशि का 50 प्रतिशत एफएफई पूर्व छात्रों से और 50 प्रतिशत कॉग्निजेंट से आया था), और तब से अधिक बैचों को मैचिंग अनुदान से फंड किया गया है।

2016-17 में, एफएफई ने अपने पूर्व छात्रों के साथ यह जांचने के लिए बातचीत शुरू की थी कि क्या जिन कंपनियों में उन्होंने काम किया है, वे भी अनुदान मैचिंग से जुड़े हुए हैं। ऐसा करने वाली कंपनियों की संख्या बहुत कम थी, क्योंकि अधिक छात्रों ने स्नातक की उपाधि प्राप्त की और विभिन्न क्षेत्रों को कवर करने वाली विविध कंपनियों में रोजगार प्राप्त किया, एफएफई की हालिया जानकारी (वित्त वर्ष 2020-21 से) से पता चला कि कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने कर्मचारियों द्वारा प्रदान किए गए दान के बराबर दान करने के लिए तैयार थीं।

3. सोशल मीडिया का अधिकतम उपयोग करना

एफएफई पूर्व छात्रों तक पहुंचने, उनके योगदान की खुशी मनाने, कार्यक्रमों का प्रचार करने, पूर्व छात्रों को साथियों और विद्वानों से जोड़ने और अभियान चलाने के लिए सोशल मीडिया का लाभ उठाता है। लिंक्डइन ने विशेष रूप से संगठन को उन पूर्व छात्रों तक पहुंचने में मदद की है जिनसे उनका संपर्क टूट गया था। इससे  उनकी पेशेवर यात्राओं पर नज़र रखने में भी मदद मिली है। पूर्व छात्रों द्वारा एफएफई के कॉल या ईमेल का जवाब नहीं देने की स्थिति में अब वे अपने डेटाबेस का उपयोग ऐसे अन्य छात्रों की पहचान के लिए कर सकने में सक्षम होते हैं जो उसी समय में समान विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रहे थे। ऐसे छात्रों की पहचान के बाद वे उनसे एफएफई के पूर्व छात्रों से संगठन की ओर से संपर्क करने का अनुरोध करते हैं।

एफएफई ने अपने छात्रों के लिए प्रशिक्षण, वेबिनार और बहुत कुछ आयोजित करने के लिए कंपनियों के साथ बातचीत को सक्षम करने के लिए सोशल मीडिया का भी लाभ उठाया है। इसके अलावा वह सोशल मीडिया का लाभ अपने छात्रों तथा पूर्व छात्रों के लिए नई नौकरियों की जानकारी देने; वॉलंटियर बनकर मेंटर और फ़ेसिलिटेटर (पूर्व छात्र हैं जो एफएफई को छात्रवृत्ति आवेदकों के लिए सत्यापन प्रक्रिया को पूरा करने में मदद करते हैं) के रूप में अपनी सेवाएं देने वालों को सूचीबद्ध करने की प्रक्रिया में भी उठाता है।

4. तकनीक का उपयोग एक साधन के रूप में करना

साल 2016 के आसपास, संगठन को यह महसूस हुआ कि उन्हें अपने रोज़मर्रा के संचालन के लिए किए गये तकनीक के उपयोग में बेहतरी लाने की ज़रूरत है। सुधा कहती हैं कि ‘यह बहुत स्पष्ट था कि हमारे द्वारा इस्तेमाल की जा रही प्रबंधन सूचना प्रणाली (मैनेजमेंट इनफार्मेशन सिस्टम) मज़बूत नहीं थी, और हमारे बहुत सारे आंकड़े या तो दोहराव वाले थे या फिर ग़लत। हमें यह महसूस हुआ कि अगर हम अपना विस्तार चाहते हैं तो हमें तुरंत ही तकनीक में निवेश करने की ज़रूरत है। उस समय हमारे सीओओ ने हमारी प्रणाली का मूल्यांकन किया और सेल्सफोर्स (एक सीआरएम सॉफ्टवेयर) में निवेश का सुझाव दिया। सौभाग्य से हमारा बोर्ड इसके लिए तैयार हो गया। वर्तमान में, हमारे सभी सिस्टम सेल्सफ़ोर्स में एकीकृत हो गये हैं।’

विशेष रूप से अपने विस्तार को सक्षम बनाने के संदर्भ में तकनीक में निवेश हमारे संगठन के लिए बहुत अधिक लाभदायक साबित हुआ।

एफएफई के सभी छात्रवृत्ति कार्यक्रम और परामर्श/प्रशिक्षण कार्यक्रम को सेल्सफोर्स में एकीकृत किया गया है। इसके अलावा, इसका उपयोग पढ़ाई पूरी होने की बाद पूर्व छात्रों की सूची में शामिल होने वाले छात्रों और पूर्व छात्र रिपोर्ट (एल्मनाई रिपोर्ट) पर नज़र रखने के लिए भी किया जाता है। इसलिए, तकनीक में निवेश करना संगठन के लिए बहुत अधिक लाभदायक साबित हुआ है, विशेष रूप से संगठन के विस्तार के संदर्भ में। सुधा कहती हैं ‘अगर हमें 25 हज़ार छात्रों को छात्रवृति देने के लिए कोई बहुत बड़ा अनुदान मिलता है तो मैं जानती हूं कि हम ऐसा कर पाने में सक्षम हैं। सेल्सफोर्स पर अपनी मौजूदा सुविधाओं को बढ़ाने के लिए हमें कुछ पैसों का निवेश करना पड़ सकता है, लेकिन मैं विश्वास के साथ कह सकती हूं कि सिस्टम काम करेगा और हम संतोषजनक परिणाम दे सकते हैं।’ हालांकि इस मामले में एफएफई बड़ा सौभाग्यशाली है कि उसके पास कुछ ऐसे इंजीनियर थे जो सेल्सफोर्स के संचालन में कुशल थे, उन्हें सॉफ्टवेयर की क्षमताओं का पूरी तरह से उपयोग करने के लिए अधिक इंजीनियरिंग भागीदारों और विशेषज्ञता की आवश्यकता थी। इसी चरण में कोग्निजेंट की भूमिका प्रबल हुई। कॉग्निजेंट ने सेल्सफोर्स के उपयोग को अनुकूलित करने में मदद करने के लिए अपनी वरिष्ठ टीम से एफएफई को मुफ्त समय की पेशकश की – जिसकी कीमत अन्यथा 50 लाख रुपये होती। (इससे काफी मदद मिली कि 75 से अधिक एफएफई पूर्व छात्र कॉग्निजेंट में कार्यरत थे।)

कागज़ का कूड़ा और एक कूड़ादान_फंडरेजिंग
शुरुआती कुछ साल चुनौतीपूर्ण थे, एफएफई के डेटाबेस में पूर्व छात्रों की जानकारी अक्सर अधूरी, पुरानी या गलत थी। | चित्र साभार: पेक्सेल्स

यह याद रखना कि प्रत्येक व्यक्ति एक फ़ंडर हो सकता है

ज़्यादातर अन्य समाजसेवी संस्थान की तरह एफएफई के पास फंडरेजिंग के लिए एक समर्पित टीम नहीं है। लेकिन पूर्ण रूप से समर्पित कर्मचारियों की कमी से इसे मिलने वाले दान के आकार और गुणवत्ता पर किसी तरह का प्रभाव नहीं पड़ता है।

सुधा ने इस बात का ज़िक्र किया कि संगठन ने इस सिद्धांत को ठोस करने के लिए अतिरिक्त प्रयास किये कि सभी कर्मचारी फ़ंडिंग का काम कर सकते हैं। ‘मुझसे अक्सर यह प्रश्न किया जाता है कि एफएफई की फंडरेजिंग टीम में कितने लोग हैं। हमारे पास ऐसी कोई टीम नहीं है। मैं हमेशा यह कहती हूं कि हमारी टीम इतना अच्छा काम करती है कि हमें अलग से कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है।’ संगठन इस प्रकार टीम के प्रदर्शन करने की क्षमता पर भरोसा करता है, और अपने कार्यक्रमों को चलाने में उनकी निरंतर सफलता ने एक अलग धन उगाहने वाली टीम पर भरोसा किए बिना उनके धन जुटाने के प्रयासों पर सकारात्मक प्रभाव डाला है।

भारत और अमेरिका में एफएफई के बोर्ड सदस्यों ने – अपनी प्रबंधन टीम, डोनर रिलेशन टीम और एल्मनाई टीम के साथ-साथ – धन जुटाने में मदद की है। धन जुटाने के लिए ठोस और सहयोगात्मक दृष्टिकोण के परिणाम मिले हैं। जब संगठन एफएफई को उनके प्रभाव के लिए बधाई देने या धन्यवाद देने के लिए संपर्क करते हैं, तो संगठन इसे उनके द्वारा किए जा रहे काम के बारे में दूसरों को बताने के लिए प्रोत्साहित करने के अवसर के रूप में उपयोग करता है। इससे फंडिंग या सहयोग के अतिरिक्त अवसर भी खुलते हैं।

दूसरी तरफ, जब एफएफई मदद के लिए अपने पूर्व छात्रों से संपर्क करता है तब वह उन्हें ऐसे पांच या अधिक तरीक़ों का सुझाव भी देता है जिससे वे अपना योगदान दे सकते हैं। सीधे दान करने के अलावा, वे इस बात का भी पता लगाते हैं कि क्या उनके पूर्व छात्र सीएसआर फंड/ मैचिंग अनुदानों के माध्यम से अपने नियोक्ताओं से दान करने की बात पूछ सकते हैं। इसके अलावा, वे यह भी पता लगाते हैं कि क्या ये पूर्व छात्र अपने दोस्तों या सहकर्मियों के नेटवर्क में दान की बात प्रस्तावित कर सकते हैं। एफएफई उनसे छात्रवृति कार्यक्रम के लिए छात्रों की पहचान करने, फ़ेलिसीटेटर के रूप में बैकग्राउंड सत्यापन प्रणाली में मदद करने और वर्तमान में छात्रवृति कार्यक्रम में शामिल छात्रों का दिशा निर्देशन करने के लिए भी कहता है। सुधा का कहना है कि यह दृष्टिकोण पूर्व छात्रों को उस तरीके से मदद करने का अवसर प्रदान करता है जो उनके जीवन के उस विशेष चरण में उनके लिए सबसे उपयुक्त हो। सुधा कहती हैं कि ‘आप हर चीज़ के लिए ना कैसे कह सकते हैं?’

समाजसेवी संस्थाओं के लिए सुझाव

1. अपने कार्यक्रम से लाभ पाने वालों को संभावित दाताओं के रूप में देखें

एफएफई टीम इस समझ के साथ काम करती है कि आज वे जिस प्रतिभाशाली छात्र की सहायता करते हैं, वह कल संगठन के लिए दाता बन सकता है। अपनी छात्रवृत्ति के प्राप्तकर्ताओं को चेंजमेकर्स और दाताओं के रूप में देखकर, संगठन उन्हें वह सम्मान प्रदान करता है जो अक्सर गायब होता है जब समाजसेवी संस्थाएं समुदायों को केवल एक लाभ हासिल करने वाले के रूप में देखती हैं। इस प्रकार संगठन अपने छात्रों के बीच देने की संस्कृति भी विकसित करना चाहता है। सुधा ने इस बात पर जोर दिया कि छात्रों को देने के महत्व को समझाना बहुत महत्वपूर्ण है। वे कहती हैं कि ‘मैं हमेशा उन्हें (छात्रों को) कहती हूं कि कोई ऐसा जो आपको नहीं जानता था उसने आप पर भरोसा किया और वह आप में निवेश करना चाहता है। क्या आप भी किसी के लिए ऐसा कर सकते हैं?’ यह विचार कि जो लोग सहायता प्राप्त करते हैं वे संभावित दाता हो सकते हैं, केवल विशिष्ट प्रकार के कार्यक्रमों और उन समूहों के साथ काम करने वाले समाजसेवी संस्थाओं के लिए व्यवहारिक होगा जिनके पास भविष्य में देने की क्षमता होगी। फिर भी आजीविका और शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले समाजसेवी संस्थाओं के लिए यह एक बड़ी सलाह है।

सुधा कहती हैं कि ‘बहुत सारे संगठन कहते हैं कि उन्होंने 25 हज़ार लोगों को कुशल बनाया है, लेकिन क्या वे जानते हैं कि वे लोग आज कहां हैं? वे क्या कर रहे हैं?’ पिछले पांच वर्षों में, एफएफई पूरे वर्ष छात्रों के साथ जुड़ा रहा है (कौशल प्रशिक्षण, नेतृत्व और तकनीकी प्रशिक्षण, सेमिनार/वेबिनार और सलाह के माध्यम से)। इसके परिणामस्वरूप पिछले वर्षों की तुलना में छात्रों के साथ अधिक मजबूत संबंध बने हैं। पूर्व छात्रों के साथ संबंध ने उनके लिए वित्त पोषण का एक स्थायी स्रोत खोल दिया है और वे अपने वर्तमान छात्रों को प्रदान करने में सक्षम समर्थन को बढ़ाते हैं।

इसके अलावा, कुछ पूर्व छात्रों को विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में एफएफई के बोर्ड में शामिल किया गया है। जो लोग अपने कार्यक्रमों के माध्यम से नेतृत्व की भूमिकाओं में हैं, उन्हें स्थान देकर, संगठन यह सुनिश्चित करता है कि जिस समुदाय की हम सेवा करते हैं, उसका प्रतिनिधित्व निर्णय लेने के स्तर पर हो।

2. मदद मांगने से डरे नहीं

चूंकि एफएफई पहले से ही छात्रों के बीच देने की संस्कृति को विकसित करने का काम करता है, इसलिए वे पूर्व छात्र बनने के बाद छात्रों की वापस देने की इच्छा को प्रभावी ढंग से पूरा करने में सक्षम हैं। लेकिन मदद करने की इच्छा रखने के बावजूद ज़रूरी नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति हमेशा वापस देने के प्रति सक्रिय हो ही। यह कई कारणों में से एक है कि उनसे पूछने की प्रक्रिया एफएफई के मॉडल का एक अभिन्न अंग है।

सुधा कहती हैं कि ‘शुरुआत के कुछ वर्षों में पूर्व छात्र कार्यक्रम प्रभावी ढंग से काम नहीं कर सका क्योंकि हमने उनसे कभी मदद नहीं मांगी।’ सुधा यह भी कहती हैं कि अस्वीकृति स्पष्ट रूप से एक अलग संभावना है, उन्होंने कहा, ‘मुझे लगातार अस्वीकृति का सामना करना पड़ता है (दान के संबंध में), लेकिन मैं आसानी से हार मानने वालों में से नहीं हूं। पहले, मैं अस्वीकृति को व्यक्तिगत रूप से लेती थी, लेकिन अब मैं खुद को याद दिलाती हूं कि यह मेरे लिए नहीं बल्कि संगठन के लिए है। इसलिए मुझे मदद मांगने में कोई झिझक नहीं होती है।’

ऐसे कई तरीकों की रूपरेखा तैयार करना महत्वपूर्ण है जिनसे व्यक्ति/संगठन मदद कर सकते हैं।

ऐसे कई तरीकों की रूपरेखा तैयार करना भी महत्वपूर्ण है जिनसे व्यक्ति/संगठन मदद कर सकते हैं। जैसा कि पहले भी बताया गया है, एफएफई विभिन्न प्रकार का समर्थन प्राप्त करने में सक्षम है क्योंकि वे मदद के लिए पूर्व छात्रों या संगठनों से संपर्क करते समय केवल दान नहीं मांगते हैं। जब पूर्व छात्र या संगठन परामर्श या प्रशिक्षण में सहायता करते हैं, तो यह एफएफई को लागत-गहन प्रयासों को बचाने में मदद करता है और साथ ही उस पक्ष की पेशकश करता है जो एफएफई के छात्रों के जीवन को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने के अवसर के साथ सहायता प्रदान करता है।

दाताओं के लिए सुझाव

1. समझें कि प्रभाव पड़ने में समय लगता है

जब अपने निवेश पर रिटर्न पाने की बात आती है तो दानकर्ताओं को दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। यह देखते हुए कि कई संगठन लंबे समय से अपने समुदायों की स्थितियों में सुधार लाने पर काम कर रहे हैं, दानदाताओं के लिए तत्काल परिणाम की उम्मीद करना अव्यावहारिक है। सुधा कहती हैं कि ‘यदि आप संगठन और उद्देश्य में विश्वास करते हैं तो आपको उन पर भरोसा करना चाहिए कि वे अपने लिए बेहतर ही करेंगे।’

2. लोगों, प्रणालियों और तकनीक में निवेश करें

दानकर्ता आमतौर पर किसी कार्यक्रम विशेष की लागत के लिए दान देना चाहते हैं, लेकिन संगठनों को प्रतिभाओं को नियुक्त करने और प्रशिक्षित करने के लिए भी धन की आवश्यकता होती है। सुधा बताती हैं कि ‘कोई भी संगठन सही लोगों के बिना यह काम नहीं कर सकता। और यदि आप महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं तो आपको वेतन में कटौती क्यों करनी पड़ेगी?’ अपने बोर्ड पर प्रतिभाशाली लोगों को शामिल करने के अलावा, संगठनों को अपनी प्रक्रियाओं को सबसे कारगर बनाने की भी आवश्यकता होती है, जिसमें उपयुक्त तकनीक में निवेश भी शामिल हो सकता है। एफएफई द्वारा अपनाए गए पूर्व छात्र जुड़ाव मॉडल के लिए उन्हें एक व्यापक पूर्व छात्र डेटाबेस बनाने और उन्हें नियमित कॉल करने की आवश्यकता थी। संचालन को और बेहतर बनाने के लिए पूर्व छात्रों के जुड़ाव कार्यक्रम को सेल्सफोर्स में एकीकृत किया गया। पूर्व छात्र टीम का समर्थन करने के लिए अनुदान के बिना, पूर्व छात्र सहभागिता मॉडल काम नहीं कर पाता। अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए लोगों, प्रक्रियाओं, तकनीक और समय की आवश्यकता होती है।

3. अप्रतिबंधित अनुदान प्रदान करें और इसके प्रभावी उपयोग के लिए संगठन पर भरोसा रखें

किसी संगठन के विकास और लचीलेपन और मानव पूंजी के निर्माण के लिए अप्रतिबंधित अनुदान आवश्यक होता है। साथ ही, जैसा कि एफएफई के पूर्व छात्र कार्यक्रम में देखा गया है, यह लचीलेपन को प्रयोग करने की अनुमति भी देता है। सख्ती से प्रोग्रामेटिक फंडों ने एफएफई की इन प्रक्रियाओं को विकसित करने और सही रणनीति और तकनीक को अपनाने की संभावनाओं में बाधा उत्पन्न कर सकती थी। यहीं पर अप्रतिबंधित अनुदान से उन्हें काफी मदद मिली। दूरदर्शी दाताओं के पास समाजसेवी संस्थाओं को अप्रतिबंधित धन प्रदान करने की क्षमता होने के कारण सार्थक तरीकों से बड़े पैमाने पर प्रभाव डालने में मदद मिल सकती है। अन्य समाजसेवी संस्थाएं भी अप्रतिबंधित अनुदान द्वारा प्रदान किए गए लचीलेपन से लाभान्वित हो सकती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह उन्हें दीर्घकालिक रणनीति तैयार करने के लिए सुरक्षा प्रदान करेगा जो उनके संगठन को उनकी बेहतरी के लिए एक स्थायी ताकत के रूप में विकसित होने में मदद कर सकता है।

सुधा किदाओ फरवरी 2011 से फाउंडेशन फॉर एक्सीलेंस (एफएफई) इंडिया ट्रस्ट की मानद प्रबंध ट्रस्टी हैं। वे एफएफई-यूएसए की बोर्ड सदस्य भी हैं और 2005 से संगठन से जुड़ी हुई हैं जब उन्होंने कैलिफोर्निया में एफएफई के फंडिंग प्रयासों के लिए अपना समय स्वेच्छा से देना शुरू किया। सुधा ने टेक्सास विश्वविद्यालय से जीवविज्ञान (इम्यूनोलॉजी में विशेषज्ञता) में पीएचडी और मद्रास विश्वविद्यालय से प्राणीशास्त्र में बीएससी और एमएससी की पढ़ाई की है।

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ओडिशा की जुआंग महिलाएं जो अपने जंगलों की रक्षा में तैनात हैं

जंतारी गांव, ओडिशा के केंदुझार जिले की गोनासिका पंचायत में आता है। जंतारी गांव में ज़्यादातर जुआंग समुदाय के निवासी बसते हैं। यह एक विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समुदाय है। यह नाम इन्हें भारत सरकार द्वारा दिया गया है क्योंकि यह समुदाय सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से अनगिनत समस्याओं का सामना करते हैं। 

जुआंग समुदाय कई पीढ़ियों से, अपने भरण-पोषण और अस्तित्व के लिए यहां के जंगलों पर निर्भर रहा है। अपनी आय के लिए वे बारिश के मौसम में खेती और साल के बाकी समय वनोपज (नॉन-टिंबर फ़ॉरेस्ट प्रॉडक्ट्स) या मज़दूरी पर अपना गुज़ारा करते है। जंतारी के ग्रामीण गोनासिका नाम के इस इलाक़े को पवित्र क्षेत्र मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि बैतरणी नदी का उद्गम यहीं से हुआ था। इसीलिए यहां के लोगों ने क्षेत्र की सुरक्षा के लिए जंगल की रक्षा करने का फैसला लिया और यहां से केवल सूखी लकड़ियां इकट्ठी करने का फैसला किया। लेकिन पड़ोसी गांव बक्सीबारी गांव के कुछ लोग जंगल से साल के पेड़ काटकर होटल निर्माण के लिए बेचने की कोशिश करते दिखे जो कि एक गैरकानूनी गतिविधि है। 

बक्सीबारी गांव के लोग, आमतौर पर जंतारी निवासियों के सो जाने के बाद, ऑटो या ट्रक लेकर रात में पेड़ काटने के लिए आते हैं। जंगल में जल्दी अंधेरा होने के कारण, शाम सात बजे के बाध भी उन्हें टॉर्च का इस्तेमाल करना पड़ता है। 

रात के समय में जब लगातार कई दिनों तक जंगल में इस तरह की रोशनी दिखाई दी तो जंतारी के लोगों को शक हुआ कि शायद कोई यहां पर पेड़ काटने के लिए आया है। इसके ख़िलाफ़ अभियान का नेतृत्व जंतारी में रहने वाली सुलचना जुआंग ने किया। इसके लिए, उन्होंने गांव की महिलाओं को इकट्ठा किया और, एक दिन ऑटो का रास्ता रोका और पेड़ काटने वाले लोगों को पकड़ लिया। 

फिर गांव के पुरुषों को बुलाकर सबने मिलकर पेड़ काटने वाले लोगों को उन्हीं पेड़ों से बांध दिया,जिन्हें वे चुराने का प्रयास कर रहे थे। पंचायत और वन संरक्षक को बुलाकर इन्हें सज़ा देने पर चर्चा की गई। साथ ही, पेड़ काटने वालों को भारी जुर्माना भरने को कहा गया। लेकिन उन्होंने जुर्माना भुगतान करने में असमर्थता जताई। इसके बाद, वे वन संरक्षक के सामने जंतारी की ज़मीन पर कभी पेड़ न काटने की बात पर राज़ी हुए और इस तरह की गतिविधियों से दूर रहने की कसम खाई। 

सास्वतिक त्रिपाठी, फ़ाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी में जिला समन्वयक (डिस्ट्रिक्ट कॉर्डिनेटर) के रूप में काम करते हैं।

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उत्तराखंड के विस्थापित वन गुज्जर युवाओं ने समाजसेवी संस्था क्यों बनाई?

जंगल में बच्चों को रास्ता दिखाता युवा_वन गुज्जर युवा
समाजसेवी संस्थाओं में काम करना कई लोगों के लिए एक व्यवहारिक विकल्प के रूप में उभरा है। | चित्र साभार: माई

मेरा नाम सद्दाम हुसैन है और मैं उत्तराखंड के हरिद्वार जिले के वन गुज्जर समुदाय से आता हूं। हम जंगल और उसके आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले समुदाय हैं और हमारा मुख्य पेशा भैंस पालन है। हमारे समुदाय के लोगों की आमदनी कस्बे में स्थानीय लोगों और पर्यटकों को भैंस के दूध से बने उत्पाद बेचकर हो होती थी।

हालांकि, लगभग 20 साल पहले, राजाजी राष्ट्रीय उद्यान और इसके आसपास के अन्य आरक्षित वन क्षेत्रों की स्थापना के कारण हमें विस्थापित होना पड़ा। हमें राजाजी नेशनल पार्क से लगभग 200 किलोमीटर दूर एक बस्ती (झुग्गी बस्ती) में रहने के लिए भेज दिया गया, जहां हमारी भैंसों के लिए पर्याप्त चरागाह भूमि नहीं थी। इस जबरन प्रवास के चलते समुदाय के कई सदस्यों ने अपनी भैंसें गंवा दीं। हालांकि, सरकार ने विस्थापित परिवारों को मुआवज़े के रूप में स्थानांतरित बस्ती के निकट दो एकड़ ज़मीन दी थी। लेकिन समुदाय के बुजुर्ग सदस्य, अक्सर 20 हज़ार रुपये सालाना पर ज़मीन पट्टे पर लेना पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें खेती की आदत नहीं है। हमारे रहने की यह नई जगह शहर से नज़दीक है, जिसके कारण हमारे जीवनयापन का खर्च भी बढ़ गया है।

नतीजतन, मेरे साथियों और उम्र में हमसे छोटी पीढ़ी के लोगों के लिए इस क्षेत्र में आजीविका का कोई और विकल्प नहीं रह गया है। बारहवीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद, इन लोगों को या तो बची-खुची ज़मीनों पर खेती का काम करना पड़ता है या फिर ये दूसरे प्रकार की मज़दूरी के काम में जुट जाते हैं। हालांकि, अक्सर ही इस तरह के कामों को नीची दृष्टि से देखा जाता है। लोग हम पर तरह-तरह की टिप्पणियां करते हैं, जैसे कि, ‘अगर स्कूल जाकर भी अंत में मज़दूरी ही करनी है तो फिर मेरे बच्चे को स्कूल भेजने से क्या फ़ायदा?’ जिन लोगों की आर्थिक स्थिति थोड़ी बेहतर होती है वे नौकरी और रोज़गार की तलाश में दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों का रुख़ कर लेते हैं। सामाजिक प्रतिबंधों और बाल विवाह जैसी प्रथाओं के कारण लड़कियों के सशक्तिकरण के अवसर और भी कम हैं।

बर्डवॉचिंग पर्यटन (पक्षियों को देखने आने वाले पर्यटक) जैसे स्थानीय विकल्प भी मौजूद हैं लेकिन इसके लिए आवश्यक गहन-प्रशिक्षण की अनिवार्यता, पढ़ाई पूरी करने की बाद नौकरी की तलाश कर रहे शिक्षित युवाओं को हतोत्साहित कर देती हैं। एक बर्डवॉचर को प्रशिक्षित होने में कम से कम एक से डेढ़ साल का समय लग जाता है।

अब, समाजसेवी संस्थाओं के लिए काम करना कई लोगों के लिए एक अच्छे विकल्प के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। आसपास के समाजसेवी संगठन और समूह मुख्यरूप से संस्कृति, विरासत, शिक्षा या पर्यावरण पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

हालांकि इन कामों में बहुत अधिक पैसे नहीं मिलते हैं लेकिन लोग इन्हें ‘सम्मानीय’ रोज़गार के रूप में देखते हैं जिसमें लोग सीख सकते हैं और अपने समुदाय और पर्यावरण को बचाने के लिए अपना योगदान दे सकते हैं।

बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद, मैंने और मेरे दोस्तों ने भी 2019 में अपनी स्वयं की समाजसेवी संस्था माई की शुरुआत की। हमारी टीम में एक महिला और पांच पुरुष हैं। हम अपने स्थानीय पर्यावरण को बचाने, शिक्षा को बेहतर बनाने और वन गुज्जर समुदाय के अन्य युवाओं के लिए आजीविका के अवसर प्रदान करने के नए तरीके खोजने के लिए लगातार काम कर रहे हैं।

सद्दाम हुसैन समाजसेवी संस्था माई के सह-संस्थापक हैं। वे चेंजलूम्स-यूथ लीडर्स फॉर क्लाइमेट एक्शन का भी हिस्सा हैं, जो भारत के युवा नेताओं के लिए जलवायु कार्रवाई क्षेत्र में प्रवेश करने का एक अवसर है।

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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि उत्तराखंड में वन गुज्जर समुदाय ने हाईवे के निर्माण के कारण आई विनाशकारी बाढ़ का सामना कैसे किया।