May 28, 2024

क्या केवल प्रमाण पत्र देकर जंगलों को बचाया जा सकता है?

भारत में वन एवं लकड़ी प्रमाणपत्र योजना बहुत ही महंगी है और इससे वनोपज का उचित उत्पादन या बेहतर वन प्रबंधन भी सुनिश्चित नहीं होता है।
9 मिनट लंबा लेख

भारत सरकार ने दिसंबर 2023 में, भारतीय वन और लकड़ी प्रमाणन योजना शुरू की है। यह योजना वन और निजी भूमि दोनों से प्राप्त, इमारती लकड़ी और अन्य वन उत्पादों (एनटीएफपी) पर थर्ड-पार्टी सर्टिफ़िकेशन प्रदान करती है। यह वे उत्पाद हैं जिनका उत्पादन पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए किया जाता है। योजना का उद्देश्य, स्थायी वन प्रबंधन (सस्टेनेबल फ़ॉरेस्ट मैनेजमेंट) और कृषि वानिकी (खेतों पर पेड़) को बढ़ावा देना और सर्टिफ़िकेशन के माध्यम से वन उत्पादों के बाजार मूल्य को बढ़ाना है।

अब भारत में कई निजी और सरकारी एजेंसियां, सर्टिफिकेट प्रदान कर रही हैं, जैसे कि साल 2003 में शुरू हुई छत्तीसगढ़ सर्टिफ़िकेशन सोसायटी। नई योजना का उद्देश्य राष्ट्रीय प्रत्यायन बोर्ड के साथ सर्टिफिकेट देने वाली इकाइयों के पंजीकरण को अनिवार्य करना है। साथ ही, राष्ट्रीय कार्य योजना कोड, 2023 के तहत सरकार द्वारा निर्धारित मानदंडों और संकेतकों के आधार पर सर्टिफिकेट प्रदान करके, प्रमाणन एजेंसियों और प्रक्रियाओं को विनियमित करना है। 

इससे एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या सर्टिफ़िकेशन से भारत के सात करोड़ हेक्टेयर से अधिक वनों के स्थायी प्रबंधन की व्यवस्था हो सकती है। और, राज्य वन विभागों, वन-निर्भर समुदायों और अपने खेतों पर पेड़ उगाने वाले किसानों को लाभ हो सकता है।

भारत में स्थायी वन प्रबंधन की यह अवधारणा अंग्रेजों के समय से चली आ रही है। भारतीय वन अधिनियम, 1865 के बाद सरकार ने जहाज निर्माण और रेलवे स्लीपर बिछाने के लिए लकड़ी के उत्पादन को अधिकतम करने के लिए वन भूमि को अपने नियंत्रण में ले लिया था। साल 1864 और 1883 के बीच भारत के पहले वन महानिरीक्षक डिट्रिच ब्रैंडिस ने सबसे पहले स्थायी वन प्रबंधन की अवधारणा का प्रस्ताव रखा था।

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जंगल में कटे हुए पेड़_वन प्रमाणन
स्थायी वन प्रबंधन के पहलुओं, जैसे जैव विविधता और वन-निर्भर समुदायों की आजीविका, को औपनिवेशिक काल में बड़े पैमाने पर नजरअंदाज कर दिया गया था। | चित्र साभार: पिक्सहियर

इसके पीछे विचार यह था कि जंगल से लकड़ी की उचित मात्रा में कटाई की जाए। इसके लिए, प्रत्येक वन प्रभाग को अलग-अलग लकड़ी की वृक्ष प्रजातियों के कार्य मंडलों में विभाजित किया जाना था। प्रत्येक कार्य मंडल को खंडों में विभाजित किया गया। पेड़ों की कटाई के काम को पूरे जंगल में वितरित करके, जंगल का पुनर्जनन सुनिश्चित किया गया और लकड़ी का भंडार बनाए रखा गया। इसका उद्देश्य औपनिवेशिक सरकार को लकड़ी की लगातार आपूर्ति करना था। 

प्रत्येक वन प्रभाग के लिए एक वन कार्य योजना तैयार की जानी थी, जिसमें उपलब्ध लकड़ी की अनुमानित मात्रा का वर्णन किया गया था। इसमें यह भी बताया गया था कि 10 से 15 साल की अवधि में इसकी कटाई कैसे की जाएगी। पहला राष्ट्रीय वन कार्य योजना कोड, जो कार्य योजना तैयार करने के लिए एक दिशानिर्देश के रूप में काम करता था, 1881 में प्रकाशित किया गया था। 

लेकिन, लकड़ी के उत्पादन को अधिकतम करने के एकमात्र उद्देश्य को पूरा करने के क्रम में, स्थायी वन प्रबंधन के अन्य पहलुओं, जैसे जैव विविधता और वन-निर्भर समुदायों की आजीविका, को औपनिवेशिक काल में बड़े पैमाने पर नजरअंदाज कर दिया गया था। सागौन जैसी मूल्यवान लकड़ी देने वाले वृक्षों को वन्यजीव- समृद्ध क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर रोपा गया था, और आज भी भारत के कई बाघ अभयारण्यों में ये बहुतायत में दिखाई पड़ते हैं। हिमालय में देवदार के पेड़ों से इमारती लकड़ी सतलज घाटी जैसे कुछ स्थानों पर इनके ख़त्म होने तक निकाली जाती थी।

आज़ादी के बाद, साल 1996 में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप तक जंगल में देवदार के पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हुई। गोदावर्मन बनाम भारत संघ के नाम से प्रसिद्ध यह मामला भारतीय वानिकी में एक मील का पत्थर था। याचिका निजी भूमि पर पेड़ों की कटाई के कारण दायर की गई थी और सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि जंगल, स्वामित्व की परवाह किए बिना, उसकी कार्य योजना के तहत माना जाना चाहिए। इसका मतलब यह था कि निजी भूमि पर पेड़ों की कटाई कार्य योजना के अनुसार होगी और इसके लिए वन विभाग से अनुमति लेनी होगी।

इस फैसले का निजी भूमि और 1,500 मीटर से ऊपर स्थित जंगलों और उत्तर-पूर्व भारत में वनों की कटाई को कम करने की योजना पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा, जहां इसने पेड़ों की कटाई पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया। इसका नकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि इसने कई राज्य वन विकास निगमों को बेकार बना दिया और किसानों को अपने खेतों में पेड़ उगाने को लेकर प्रोत्साहित नहीं किया।

राज्य वन विकास निगमों की स्थापना साल 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग की सिफारिशों के आधार पर की गई थी। निगमों का उद्देश्य वन वृक्षारोपण और लकड़ी और अन्य वन उत्पादों की समुचित तरीके से उत्पादन करना था, जिससे कि देश की अर्थव्यवस्था में सहयोग दिया जा सके।

साल 1996 के फैसले के बाद, हिमाचल प्रदेश वन विकास निगम जैसे कई राज्य वन विकास निगमों की गतिविधियां राल इकट्ठा करने (पाइनस रॉक्सबर्गी से) और जंगल से बचे हुए पेड़ निकालने तक सीमित हो गईं। किसानों को उनके खेतों में पेड़ उगाने में मदद करने के लिए, 1999 में मध्य प्रदेश द्वारा शुरू की गई लोक वानिकी योजना सफल नहीं हुई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कुछ हेक्टेयर से कम भूमि वाले छोटे और सीमांत किसानों को भी पेड़ काटने के लिए सरकार की अनुमति प्राप्त करने के लिए नौकरशाही प्रक्रियाओं का पालन करना पड़ता था। वास्तव में, इसने उनके पेड़ लगाने के उत्साह पर गहरा असर डाला।

वन प्रमाणन की आवश्यकता क्यों है?

विश्व स्तर पर, साल 1993 में जर्मनी के बॉन में एक समाजसेवी संगठन के रूप में फारेस्ट स्टीवर्डशिप काउंसिल (एफएससी) की स्थापना की गई थी जो एक अग्रणी वन प्रमाणन एजेंसी है। एफएससी का लक्ष्य, दुनियाभर में जंगलों के ऐसे प्रबंधन को बढ़ावा देना है जो पर्यावरण की दृष्टि से उपयुक्त, सामाजिक रूप से लाभकारी और आर्थिक रूप से व्यवहारिक हों। अपनी वेबसाइट पर इस काउंसिल का दावा है कि यह प्रमाणन 89 देशों में लगभग 16 करोड़ हेक्टेयर वन भूमि को कवर करता है।

वर्षों से, वन प्रमाणन का ज़िक्र चिली और पेरू जैसे कुछ देशों में अवैध कटाई को कम करने के लिए किया जाता रहा है, लेकिन मेक्सिको और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो जैसे देशों में वनों की कटाई को कम करने वाले एकमात्र कारक के रूप में इसे पहचान नहीं मिली है। वानिकी शोधकर्ता अभी भी प्रमाणन के प्रभावों पर बहस करते हैं क्योंकि सामुदायिक अधिकारों की मान्यता, वन संरक्षण पर नीतियां, इत्यादि जैसे कई अन्य कारक स्थायी वन प्रबंधन को प्रभावित करते हैं।

जब लकड़ी के अलावा अन्य वनोपज की बात आती है तो सर्टिफ़िकेशन का महत्व और भी कम लगने लगता है।

इसके अलावा, सर्टिफ़िकेशन एक महंगी प्रक्रिया है। वियतनाम में बबूल के बागानों के सर्टिफ़िकेशन के मामले में बहुत ही कम लाभ देखने को मिला और वह भी तब जब वृक्षारोपण तीन हज़ार हेक्टेयर से अधिक भूमि पर किया गया था। यह इस बात का स्पष्ट संकेत देता है कि कम जोत वाले किसानों को इससे किसी भी प्रकार का लाभ नहीं मिला।

भारत के मामले में, इंटरनेशनल ट्रॉपिकल टिम्बर ऑर्गनाइजेशन द्वारा कराए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि 2020 में भारत में राउंडवुड की मांग – जो मुख्य रूप से फर्नीचर बनाने, कागज और लुगदी, पैनल और प्लाईवुड और निर्माण के लिए उपयोग की जाती है – लगभग 57 मिलियन क्यूबिक मीटर थी। इसमें से 47 मिलियन घन मीटर मांग को घरेलू स्तर पर पूरा किया गया। इसमें 45 मिलियन क्यूबिक मीटर जंगलों के बाहर के पेड़ों से था और केवल 2 मिलियन क्यूबिक मीटर सरकारी स्वामित्व वाले जंगलों से आया था।

इस संदर्भ में, सर्टिफ़िकेशन एक निरर्थक प्रक्रिया लगती है क्योंकि चिनार, सागौन और नीलगिरी के ब्लॉक वृक्षारोपण मौजूद होने के कारण बड़ी मात्रा में लकड़ी का उत्पादन जंगलों के बाहर के पेड़ों से किया जाएगा। घरेलू इस्तेमाल के लिए लकड़ी ख़रीदने वाले शायद ही प्रमाणित लकड़ी का ध्यान रखते हैं। निर्यात के मामले में देखें तो साल 2020 में सागौन और शीशम की बहुत कम मात्रा- 0.01 मिलियन क्यूबिक मीटर – ही निर्यात की गई। घरेलू या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमाणित लकड़ी की मांग में किसी भी तरह का बदलाव उन अपेक्षाकृत अमीर किसानों के पक्ष में झुक सकता है जो प्रमाणन का खर्च उठा सकते हैं। यह छोटे किसानों को अपने खेतों में पेड़ उगाने से भी हतोत्साहित कर सकता है।

अन्य वनोपज के मामले में सर्टिफ़िकेशन का महत्व और भी कम प्रतीत होता है। मध्य भारत में महुआ के फूल, साल के बीज और तेंदू के पत्तों जैसी उपज और हिमालय की घाटियों में डोडेंड्रोन फूल और पाइन के कोन एकत्र करके उन्हें स्थानीय स्तर पर बेचा जाता है। इनमें से किसी के भी कच्चे रूप में निर्यात किए जाने का कोई प्रमाण नहीं है।

भारत ने साल 2014 में राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति से अपनी कृषि वानिकी को बढ़ावा देने का लक्ष्य रखा था लेकिन लगभग एक दशक बाद इसमें शायद ही कोई सुधार दिखता है।

विभागों की बात करें तो लकड़ी निकालने पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लागू 1996 के प्रतिबंध अभी भी हैं। उन्हें नवीनतम कार्य योजना कोड के अनुसार कार्य योजनाएं तैयार करनी होती हैं और उन्हें अनुमोदित करना होता है। इसमें लकड़ी की वह मात्रा शामिल होनी चाहिए जिसे जैव विविधता और वन-निर्भर समुदायों की जरूरतों को प्रभावित किए बिना उचित रूप से निकाला जा सकता है। तभी सर्टिफ़िकेशन से वन उत्पादों का निर्यात होने पर मूल्यवर्धन होगा।

वन-निर्भर समुदायों के लिए, वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 के तहत लगभग 60.5 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर सामुदायिक अधिकारों को मान्यता दी गई है। समुदाय, अपने सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) प्रावधानों का उपयोग करके वनोपज निकाल रहे हैं और उनकी बढ़िया मार्केटिंग कर लाभ हासिल कर रहे हैं। इससे उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो रही है। वनों पर निर्भर लाखों समुदाय अभी भी अधिकारों के बिना, अपनी आजीविका के लिए वन उत्पादों पर निर्भर हैं। इसके अलावा, समुदायों को दिए गए प्रबंधन अधिकारों के तहत लकड़ी निकालने का कोई प्रावधान नहीं है। लेकिन वन विभाग मान्यता प्राप्त सामुदायिक अधिकारों के साथ जंगलों में वृक्षारोपण अभियान चलाते हैं।

भारत ने 2014 में राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति के माध्यम से अपनी कृषि वानिकी को बढ़ावा देने का लक्ष्य रखा था। इसने किसानों को पेड़-पौधे आसानी से उपलब्ध कराए और पेड़ों की कटाई और उन्हें दूसरे क्षेत्रों में भेजने पर लगे प्रतिबंध में ढील दी। लेकिन इसके लगभग एक दशक बाद भी कृषि वानिकी में शायद ही किसी तरह का सुधार देखा गया है। हाल ही में, ‘सिव्यर डिक्लाइन इन लार्ज एग्रोफ़ॉरेस्ट्री ट्रीज इन इंडिया ओवर द पास्ट डिकेड’ शीर्षक से एक अध्ययन किया गया जिसमें मैंने भी अपना योगदान दिया था। इस अध्ययन में यह बात सामने आई है कि भारत में खेतों में लगे परिपक्व पेड़ों के भारी कमी देखी गई है। इसके पीछे के कारणों में, फसल पैटर्न में बदलाव, मशीनीकृत खेती और किसानों को किसी भी प्रकार का लाभ ना होना है। अपने खेतों में पेड़ लगाने से किसानों को किसी भी प्रकार का आर्थिक लाभ नहीं होता है।

संक्षेप में कहें तो, वैश्विक अनुभव से पता चलता है कि वन सर्टिफ़िकेशन से बाजार मूल्य में मामूली वृद्धि होती है लेकिन इसकी प्रक्रिया बहुत खर्चीली है। यह सीमांत किसानों और वन निर्भर समुदायों के लिए किसी भी प्रकार से मददगार नहीं है। इसके अलावा, केवल सर्टिफ़िकेशन से ना तो स्थायी वन प्रबंधन होता है और ना ही कृषि वानिकी को बढ़ाने में मदद मिलती है।

स्थायी प्रबंधन की ओर

भारत में वनों के क्षरण का कारण वनों का उपयोग खनन, सड़क और अन्य बुनियादी ढांचे जैसे गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए करना है। इसके अलावा आग, मवेशियों के चरने और लैंटाना जैसी आक्रामक प्रजातियां भी इसे नुक़सान पहुंचाती हैं।

घास के मैदानों और अन्य खुले प्राकृतिक वनों, जो अपने आपमें महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र हैं, पर वृक्षारोपण न करने की सावधानी बरती जानी चाहिए।

वनों पर निर्भर समुदायों की आजीविका बढ़ाने और वन-आधारित अर्थव्यवस्था के लिए जल-धाराओं और नदियों के प्रवाह जैसे पारिस्थितिकी तंत्रों को सुनिश्चित करने के लिए स्थायी वन प्रबंधन महत्वपूर्ण है। सर्टिफ़िकेशन से अधिक, वनों के प्रबंधन और लकड़ी और अन्य वनोपजों को स्थायी रूप से निकालने के लिए एक अच्छी कार्य योजना की आवश्यकता है।

राष्ट्रीय कार्य योजना कोड जिसे साल 2014 और अंतिम बार 2023 में संशोधित किया गया था। यह कोड एक कार्य योजना के ज़रिए वनों को स्थायी रूप से प्रबंधित करने के लिए दिशानिर्देश प्रदान करता है जो जैव विविधता, कार्बन पृथक्करण और चराई और जलाऊ लकड़ी संग्रह सहित स्थानीय समुदायों की आजीविका जैसी आवश्यकताओं पर विचार करता है।

कांगो बेसिन में किए गये एक अध्ययन में यह बात स्पष्ट हुई है कि स्थायी वन प्रबंधन के मामले में इमारती लकड़ी की चक्रीय उपज वाली वन प्रबंधन योजना और वन-निर्भर समुदायों के साथ, लाभ को साझा करने वाली एक स्पष्ट योजना, वन सर्टिफ़िकेशन की तुलना में अधिक प्रभावी साबित हुई है।

लकड़ी की बढ़ती घरेलू मांग को पूरा करने के लिए जंगलों के बाहर वृक्षारोपण बढ़ाया जा सकता है। इससे प्राकृतिक वनों पर दबाव और उनकी कटाई में कमी आ सकती है। आगे बढ़ने का एक संभावित तरीका यह है कि वन विकास निगमों को बंजर भूमि पर वृक्षारोपण करने के लिए और किसानों को अपनी परती या बंजर भूमि पर पेड़ लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। जल-जमाव वाली और निम्नीकृत भूमि का उपयोग प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा जैसे तेज़ी से बढ़ने और फैलने वाली प्रजातियों के वृक्षारोपण के लिए भी किया जा सकता है।

अंग्रेजों के समय में लगाये गये पाइन और युकिलिप्टस जैसे पेड़ों को धीरे-धीरे हटाकर देशी साल और ओक के पेड़ों को लगाया जा सकता है जो हमारे लिए एक संसाधन हैं। 

निम्नीकृत भूमि में सीएफआर वाले समुदायों को उत्पादित लकड़ी से पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए एक स्पष्ट प्रक्रिया के साथ वृक्षारोपण करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। अंत में, एक कार्य योजना के अनुसार पेड़ों को काटने, उन्हें दूसरी जगह ले जाने और बेचने की प्रक्रियाओं को सरकारों और किसानों दोनों के लिए आसान बनाया जाना चाहिए।

घास के मैदानों और अन्य खुले प्राकृतिक वनों पर वृक्षारोपण से बचना चाहिए क्योंकि ये अपने आप में एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र है। अच्छी कार्य योजनाएं तैयार करने के लिए राज्य के वन विभागों की क्षमता को मजबूत करने की आवश्यकता है। ताकि वे वृक्षारोपण क्षेत्रों की पहचान, गुणवत्तापूर्ण वृक्षारोपण, और पारिस्थितिक सुरक्षा के लिए प्राकृतिक वनों को संरक्षित करते हुए स्थायी रूप से लकड़ी की कटाई जैसे महत्वपूर्ण पहलुओं पर काम कर सकें।

अंत में, ऊपर दिये गये सुझावों को अपनाने से भारत में स्थायी वन प्रबंधन को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी और किसानों और इससे राज्य वन विभागों की आय, वन सर्टिफ़िकेशन की तुलना में अधिक बढ़ेगी।

यह लेख मूलरूप से द इंडिया फोरम पर प्रकाशित हुआ था।

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लेखक के बारे में
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धनपाल गोविंदराजुलु

धनपाल गोविंदराजुलु मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के ग्लोबल डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट में एक पोस्ट ग्रैजुएट रिसर्चर हैं। वे वर्तमान में भारत में वन बहाली के सामाजिक और पारिस्थितिक प्रभावों की जांच के विषय पर काम कर रहे हैं।

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