समझ का फेर?

बातें करते हुए कार्यकर्ता_ज़मीनी कार्यकर्ता
चित्र साभार: एवीएस

आईडीआर इंटरव्यूज | शंकर सिंह (भाग-दो) 

सामाजिक सेक्टर की जानकारी रखने, ख़ासकर ज़मीनी नब्ज की पकड़ रखने वाले लोगों के लिए शंकर सिंह कोई अनसुना नाम नहीं है।राजस्थान के राजसमंद ज़िले से आने शंकर सिंह जमीनी सामाजिक कार्यकर्ता, नाटककार, कहानीकार, मुखर वाचक की भूमिकाओं में दिखते हैं। सामाजिक सेक्टर में लगभग चार दशकों से अधिक का अनुभव रखने वाले शंकर जी ने देश के दिग्गज सामाजिक कार्यकर्ताओं अरुणा रॉय और निखिल डे के साथ मिलकर मजदूर किसान शक्ति संगठन की स्थापना की थी। यह संगठन देश में सूचना का अधिकार क़ानून लाने और लागू करवाने के अपने प्रयासों के लिए जाना जाता है।

हाशिये पर बैठे मजदूरों, किसानों की आय, रोजगार और उनके अधिकारों को लेकर लड़ने एवं उन्हें सशक्त करने का शंकर सिंह का अपना एक तरीका रहा है। उन्होंने कई सफल आंदोलनों, अभियानों की अगुआई की है। मनरेगा, सोशल ऑडिट जैसे संस्थागत माध्यमों को सशक्त करने में भी वे अहम भूमिकाओं में रहे हैं। कई बार उनके तरीक़े बहुत मनोरंजक, संगीतमय और कटाक्ष भरे भी होते हैं।

हाल ही में, आईडीआर ने शंकर सिंह से लंबी बातचीत की। इसमें उन्होंने अपने कामकाजी अनुभव, लोगों और समुदायों से जुड़ाव की बातें और अपने जीवन के अनगिनत किस्से-कहानियां साझा किए। इस बातचीत की दूसरी कड़ी में, वे बता रहे हैं कि कठपुतली और अभिनय की अपनी कुशलताओं से वे कैसे लोगों को मुद्दों से जोड़ने में कामयाब होते हैं। शंकर सिंह, जमीन की समझ रखने वाले ग्रामीण कार्यकर्ताओं और, तकनीकी की समझ और उस तक पहुंच रखने वाले शहरी कार्यकर्ताओं को तालमेल बनाने के सुझाव भी दे रहे हैं। इसके अलावा, वे इस बात का भी जिक्र करते हैं कि सामाजिक कार्यकर्ता जीवन में आगे बढ़ते रहने और नवाचार की प्रेरणा कैसे हासिल करते रह सकते हैं।

अपने संगठन के फंडरेजिंग अभियान को सफल कैसे बनाएं?

सामाजिक क्षेत्र से जुड़े लगभग सभी लोग इस बात को मानते हैं कि किसी भी संगठन के विकास के लिए फंडरेजिंग बहुत महत्वपूर्ण होता है। समाजसेवी संगठनों के लिए लंबी अवधि वाले परिवर्तन लाना धन की कमी के साथ संभव नहीं है। इसलिए किसी भी संगठन का वित्तीय स्वास्थ्य फंडरेजिंग पर ही निर्भर होता है।

इस लेख में हम आपको बता रहे हैं कि कैसे अध्ययन फाउंडेशन और रीप बेनिफिट नामक दो संगठन, क्षमता-निर्माण अनुदान का उपयोग करके अपने लोगों के माध्यम से ही धन जुटाने में सक्षम हो सके, और कैसे 12 महीनों के भीतर इसका बहुस्तरीय प्रभाव पड़ा।

अध्ययन फाउंडेशन, भारत में शिक्षा की बेहतरी के लिए काम करने वाला एक क्षमता-निर्माण संगठन है। वे स्कूलों में शिक्षण और सीखने के नेतृत्व और शासन पर ध्यान केंद्रित करके अपने इस लक्ष्य को पूरा करते हैं। रीप बेनिफिट जमीनी स्तर की लामबंदी और तकनीकों का उपयोग करके ज़मीनी स्तर के नेतृत्वकर्ताओं की पहचान करता हैं, और उन्हें बनाए रखने के संसाधन देता है, ताकि वे नागरिक और जलवायु परिवर्तन से निपटने पर काम कर सकें।

दोनों ही संगठन अपने-अपने क्षेत्रों में उच्च प्रभाव वाले कार्य करने वाले विभिन्न हितधारकों (बच्चे और युवा, नागरिक, और सरकारों) के साथ काम करते हैं। उन्हें इस स्तर पर लाने में पर्याप्त मात्रा में धन जुटाने के काम ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन इस यात्रा में उन्हें कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा और साथ ही उन्होंने बहुत कुछ सीखा भी है।

छोटी शुरुआत

अध्ययन का शुरुआती दौर चुनौतीपूर्ण था

अध्ययन ने साल 2017 में फ़ंडिंग के दो छोटे माध्यम से आधिकारिक शुरुआत की – दोस्त एवं परिवार के ज़रिये, और बोर्ड के निदेशकों से मिलने वाले ऋण के माध्यम से। इस पैसे का उपयोग नये कार्यक्रमों को चलाने के लिए किया गया जिनके माध्यम से वे अपना काम सरकारों, साझेदार समाजसेवी संस्थाओं और फंडर्स सहित विभिन्न हितधारकों को दिखा सके। इसका लक्ष्य उनकी अवधारणा का प्रमाण प्रस्तुत करना था।

साल 2018 में, उनकी पहुंच फ़ंडिंग के दो महत्वपूर्ण स्रोतों तक हो गई – एक संस्थागत दानकर्ता जिसकी वजह से वह अपना कार्यक्रम गोवा ले जा सके और एक अर्ध-सरकारी निकाय जिसने दिल्ली में काम करने के लिए सहायता दी। अधिकांश स्टार्ट-अप की तरह ही संस्थापकों के मौजूदा नेटवर्क को आधार बनाकर काम करने के कारण इनकी प्रक्रिया भी व्यवस्थित, तय इरादों वाली या केंद्रित नहीं थी। जितना काम हुआ वह संस्थापकों के मौजदा नेटवर्क के कारण था।

2020 में कोविड-19 महामारी के बाद अध्ययन के मुख्य दानकर्ताओं ने उन्हें दान देना बंद कर दिया। अगले दो साल तक वे पूरी तरह से अपने केवल एक दानकर्ता पर निर्भर रहे। हालांकि, अनुदान की तय सीमा समाप्त होने के एक महीने पहले, दानकर्ता ने अध्ययन की टीम को सूचित किया कि वे अब अपना अनुदान जारी नहीं रख सकते हैं क्योंकि उन्हें अपना फंड कोविड-19 राहतकोष के लिए इस्तेमाल करना है।

यह अध्ययन के लिए एक बड़े झटके जैसा था, क्योंकि संगठन में 17 सदस्य थे और उनके पास किसी भी तरह की फंडिंग पाइपलाइन नहीं थी। खुदरा फंडरेजिंग के प्रयासों से उन्होंने कुछ पैसे (लगभग 7-10 लाख रुपये) जमा किए थे। लेकिन यह राशि इतनी भी नहीं थी कि संगठन के लोगों को उनका वेतन दिया जा सके। नतीजतन, जून में प्रोजेक्ट समाप्त होने के बाद उन्हें कुछ लोगों को काम से निकालना पड़ा। सबसे बड़ी चुनौती विभिन्न संगठनों से किया गया गोवा राज्य सरकार से की गई प्रतिबद्धताओं को पूरा करना था, जहां वे पहले से ही काम कर रहे थे। सौभाग्य से, दो वर्षों में सरकार के भीतर पर्याप्त क्षमता का निर्माण हो गया था और इसलिए वे ड्राइविंग स्कूल सुधार नाम से चल रहे कार्यक्रम के कई पहलुओं को स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ाने में सक्षम थे।

2020 एक महत्वपूर्ण साल था। कोविड-19 की शुरुआत हो चुकी थी और कम्पनियां और फ़ंडर सभी अपना पैसा पीएम केयर या कोविड-19 राहतकोष में दे रहे थे। अध्ययन के काम और लक्ष्य को देखते हुए उनके लिए राहत कार्यों में लगना सही नहीं था – वे प्रणालीगत और रणनीतिक तरीके से स्कूल की गुणवत्ता को मजबूत करने वाले अपने कार्यक्रमों पर ही अपना ध्यान केंद्रित करना चाहते थे। विभिन्न दानकर्ताओं से बातचीत करने के बाद उन्हें अपने काम के लिए सहायता देने वाला केवल एक डोनर मिला। अध्ययन के दस्तावेज को देखने और उनके भूतपूर्व दानकर्ताओं से बातचीत करने के बाद इस दानकर्ता ने उन्हें अनुदान दिया जो संगठन की जीवन रेखा बना। इस अनुदान के तहत उन्हें एक छोटी सी धनराशि मिली ताकि वे फंडरेजिंग क्षमता के निर्माण के साथ ही अपना गोवा कार्यक्रम भी जारी रख सकें। उनका आदेश सरल था – इस पैसे का उपयोग किसी ऐसे व्यक्ति को काम पर रखने के लिए करना जो आपके काम को बढ़ाने के लिए आवश्यक धन जुटाएगा।

रीप बेनिफिट की शुरुआत सहज थी

रीप बेनिफिट (आरबी) का पंजीकरण साल 2013 में हुआ था, और शुरुआती कुछ सालों तक उनके पास विभिन्न स्रोतों से पैसे आते रहे – उन्हें उनका पहला बड़ा अनुदान उनकी स्थापना के चार सालों बाद मिला था। शुरुआत में इस संगठन को शुल्क फीस से मिले (या तो ऐसे युवा जिनके साथ इन्होंने काम किया था या निम्न-आय स्कूलों में स्कूल प्रबंधन समितियों से)। या फिर फाउंडेशन से अनुबंध, फेलोशिप (अशोका) से आय, और एमआईटी जीएसडब्ल्यू, अशोका और स्टैनफ़ोर्ड जैसी प्रतियोगिताओं से फंड मिलते थे।

आरबी विभिन्न बड़े घरेलू फाउंडेशन से भी फंड इकट्ठा करने का प्रयास कर रहा था लेकिन इस काम में उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी।

2016 में, आरबी को अपने दूसरे चरण में एचएनआई (अच्छी निवल संपत्ति वाले शख़्स) और फैमिली फाउंडेशन से अनुदान मिलना शुरू हुए। ये वे लोग थे जिन्होंने आरबी का काम और उस काम का प्रभाव देखा था, उनकी टीम के साथ संबंध विकसित किए थे और उन्हें अपना समर्थन दिखाने में इच्छुक थे। इसी दौरान, आरबी विभिन्न बड़े घरेलू फाउंडेशन से भी फंड इकट्ठा करने का प्रयास कर रहा था लेकिन इस काम में उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी। अरबी का काम मूल रूप से नागरिक जुड़ाव, युवा, शिक्षा, नागरिक प्रशासन और ऐसे कई अन्य क्षेत्रों के चौराहे पर है और ज़्यादातर फाउंडेशन को ऐसे संस्थानों की तलाश नहीं थी। और इस तरह उन्होंने पाया कि फ़ंडिंग के साथ उनका संबंध प्यार-नफ़रत वाले समीकरण पर आधारित है – वे जानते थे कि उन्हें धन उगाही के लिए समय और संसाधन दोनों का ही निवेश करना होगा, लेकिन वे यह भी जानते थे कि ऐसा करने से ज़मीनी स्तर से उनका ख़ुद का जुड़ाव कम हो जाएगा।

धन उगाहने वाले व्यक्ति की तलाश

विकास क्षेत्र में जुटाई गई धनराशि और बजट को बढ़ोतरी के पैमाने के रूप में देखा जाता है। कई फंडर यह भी समझते है की ज़्यादा धनराशि का मतलब ज़्यादा प्रभाव होता है। प्रभाव नापने का यह तरीक़ा धीमा भी है और लगभग सभी मामलों में ग़लत भी – और वो भी जमीनी स्तर पर किए जा रहे काम की कीमत पर। बावजूद इसके, अधिकांश फ़ंडर इसी तरीक़े पर ध्यान देते हैं।

आरबी के कुलदीप दंतेवाड़िया (सह-संस्थापक और सीईओ) का कहना है कि संस्थापक टीम के सदस्यों के लिए ज़रूरी है कि वे जमीन पर किए जाने वाले वास्तविक काम में हिस्सा लें। वे कहते हैं, ‘एक ज़मीनी स्तर वाले संगठन को चलाना एक रेस्टोरेंट चलाने जैसा है। एक अच्छे शेफ़ के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह अपने सहकर्मियों को अपने संस्थान की संस्कृति और गरिमा को आगे बढ़ाने के बारे में बताए। किसी भी संगठन में टीम के शुरुआती सदसयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके पास इतना समय है कि वे काम के इन पहलुओं को हस्तनांतरित करने में अपना योगदान दे सकें।’

कुलदीप मानते हैं कि निजी स्तर पर बिक्री के मामले में वे कॉर्पोरेट और विश्व स्तर पर काम कर रहे विभिन्न फाउंडेशन को प्रभावित करने में असफल रहे। और यह भी कि शायद इस काम को अधिक प्रभावी ढंग से करने वाले किसी व्यक्ति का संस्थान से जुड़ना अधिक मूल्यवान हो सकता है।

अध्ययन को अपने डोनर से मिलने वाले आदेश के आधार पर आईएलएसएस के धन उगाहने वाले कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला। कुलदीप की तरह ही अनुश्री अल्वा (सीईओ और संस्थापक टीम की सदस्य) का अनुभव भी यही कहता है कि उन्हें भी बड़े फाउंडेशन और सीएसआर जैसे स्थापित और पारंपरिक फ़ंडर से धन प्राप्त करना नहीं आता था। ‘हमें नहीं पता था कि पैसे कैसे जुटाए जाएं। और हमारे पास इतना समय भी नहीं था कि हम धीरे-धीरे सीखें क्योंकि हमें तुरंत ही कार्यान्वयन की ज़रूरत थी। हमारे बोर्ड के एक सदस्य ने हमें सुझाव दिया कि हमें दूसरों द्वारा किए जा रहे कामों के बारे में जानने, और अपने संगठन के लिए फंडरेजिंग का तरीक़ा सीखना चाहिए और इसके लिए आईएलएसएस पाठ्यक्रम से जुड़ना सबसे बेहतर तरीक़ा होगा। इतना ही नहीं, हमारे इस पाठ्यक्रम से जुड़ने का खर्च भी उस बोर्ड के सदस्य ने ही उठाया।’

दीवार पर सीढ़ियाँ_फंडरेजिंग
विकास क्षेत्र में जुटाई गई धनराशि और बजट को बढ़ोतरी के पैमाने के रूप में देखा जाता है। | चित्र साभार: कैनवा

गलतियां करना

आरबी को यह सलाह मिली कि उसे कॉर्पोरेट अनुभवों और कनेक्शन वाले वरिष्ठ फंडरेज़र को नियुक्त करना चाहिए। नियुक्त किए गए सलाहकार इस संस्था के लिए उपयुक्त थे – उन्हें संस्था के लक्ष्य में भरोसा था। आरबी के सर्वेसर्वा कुलदीप को काम को केंद्र में रखकर एक प्रस्ताव तैयार करने में अधिक समय नहीं लगा। लेकिन इस तरीक़े को सफलता नहीं मिली। कुलदीप कहते हैं कि, ‘मुझे यह महसूस हुआ कि बहुत अधिक अनुभव वाले लोग एक ख़ास तरीक़े से काम करते और सोचते हैं और उनके लिए काम करने वाले लोगों की एक बहुत बड़ी टीम होती है। एक समाजसेवी संगठन के नाते हमारे पास यह विशेष सुविधा नहीं होती है। आपको एक ही समय में सोचना, अपनी सोच को क्रियान्वित करना और फिर उस पर पुनर्विचार करना होता है। हम केवल सोचने के लिए अलग से समय और संसाधन खर्च करने में सक्षम नहीं थे।’

फंडरेजिंग के लिए की जाने वाली नियुक्तियों पर विचार करते समय अध्ययन को इसकी जानकारी नहीं थी कि उन्हें इसकी शुरुआत कहां से करनी चाहिए। क्योंकि जिन विशिष्ट चैनलों से वे मदद लेते थे वे शिक्षा से जुड़े दूसरे समाजसेवी संस्थाओं के होते थे। अनुश्री कहती हैं कि, ‘हमने सोचा कि हमें किसी ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत है जिसे इस काम का कम से कम 8 से 10 सालों का अनुभव हो। साथ ही वह विकास सेक्टर से जुड़ा हो और पहले किसी बड़े संगठन या संस्थान के लिए धन उगाही में सफलता हासिल कर चुका हो। इसके अलावा उसके पास अपना नेटवर्क हो और जोखिमों से निपटना जानता हो। एक ऐसा व्यक्ति जिसके पास धन उगाही के लिए नई व्यवस्थाओं और प्रक्रियाओं के निर्माण की जानकारी भी हो।’

अध्ययन ने लोगों की भर्ती करने वाले एक फर्म से मदद मांगी, जिसने उन्हें उम्मीदवारों की एक विस्तृत सूची दी। और इसी सूची से उन्होंने एक ऐसे व्यक्ति को खोज निकाला जो उनके सभी मानदंडों पर खरा उतर रहा था। उन्होंने उस व्यक्ति को अपनी टीम में शामिल कर लिया।

उन्होंने अध्ययन के साथ तीन महीनों तक काम किया। इस दौरान उन्होंने फंडरेजिंग पाइपलाइन के लिए, नये संपर्क ढूंढ़ने के लिए, पृष्ठभूमि से जुड़े शोध करने के लिए, और मीटिंग की बातचीत का रिकॉर्ड रखने की व्यवस्था तैयार की। साथ ही विभिन्न श्रेणियों के दाताओं के लिए विभिन्न प्रकार के प्रस्ताव लिखने के लिए बुनियादी व्यवस्थाएं और प्रणालियों को विकसित भी किया। उन्होंने भविष्य में होने वाली क्षति के लिए सभी प्रकार के टेम्पलेट तैयार किए और संस्थागत दाताओं की एक बहुत लंबी सूची बनाई।

यदि आप किसी वरिष्ठ व्यक्ति को संस्था में शामिल करते हैं, तो वे नुक़सान की जवाबदेही नहीं उठाएंगे या नये संपर्क सूत्र विकसित नहीं करेंगे।

अनुश्री के अनुसार, उनकी फ़ंडरेजर ने शोध का काम किया, उसके लिखने की क्षमता और योग्यता अच्छी थी और वह एक अत्यंत गहन सोच वाली इंसान थीं। केवल एक ही बाधा थी कि उन्हें ऐसे बड़े, स्थापित संगठनों में काम करने की आदत थी जहां संगठन के संस्थापक के एक फ़ोन से उन्हें 10 करोड़ रुपये तक के अनुदान मिल जाते हैं और जिनके पास ऐसे दाताओं की संख्या बहुतायत में होती है। लेकिन अध्ययन एक ऐसा छोटा संगठन था जो महामारी के दौरान भी स्वयं को बचाए रखने का प्रयास कर रहा था। ऐसे में उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत थी जो धन उगाही के पारंपरिक रास्तों को समझने वाले व्यक्ति की तुलना में इसके ग़ैर-पारंपरिक तरीक़ों के बारे में सोचने में सक्षम हो।

साथ ही, अनुश्री ने भी कुलदीप की तरह ही यह माना कि – यदि आप किसी वरिष्ठ व्यक्ति को संस्था में शामिल करते हैं, तो वे नुक़सान की जवाबदेही नहीं उठाएंगे या नये संपर्क सूत्र विकसित नहीं करेंगे, और यदि वे ऐसा करते हैं, तो वे इससे खुश नहीं होंगे। (जहां, अनुश्री के फंडरेज़र ने ये सभी काम किए, वहीं दूसरी तरफ़ उनकी फंडरेज़र ईमानदारी से कहती थी कि उनके स्तर के ज़्यादातर लोग ऐसा नहीं करेंगे।) दोनों ही नेताओं ने यह महसूस किया कि उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत थी जो धन उगाही के लिए आवश्यक बहुत सारे काम जैसे कि पृष्ठभूमि शोध, पाइपलाइन निर्माण, प्रस्ताव लेखन, फॉलो-अप, और दाताओं के साथ विश्वासपूर्ण और ईमानदार संबंध विकसित करने की इच्छा रखता हो।

आरबी में सदस्यों ने इसे ‘द सॉक्स एंड शूज’ का नाम दिया है (चलने से पहले जूते और मोज़े पहन के तैयार होना)। यह खेती करने से पहले खेत की जुताई करने जैसा है। इसके बिना आप अपनी ज़मीन पर अपनी मर्ज़ी की फसल नहीं उगा सकते हैं। ‘मुझे इसका एहसास हुआ कि अगर मैं किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढ़ सकूं जो मेरे लिए तैयारी के इन कामों को कर सके, तब मेरे पास दाताओं के सामने प्रस्ताव लेकर जाने और संगठन के लक्ष्य और कार्यक्रमों पर ध्यान देने के लिए पर्याप्त समय होगा।’

सही रास्ते का चुनाव

वरिष्ठ फंडरेज़र को नियुक्त करने का प्रयास असफल होने के बाद अध्ययन के सलाहकार बोर्ड के सदस्यों ने संगठन के साथ एक बैठक की। इसमें उन्होंने संगठन को यह सलाह दी कि वे वरिष्ठ सलाहकार के ऊपर होने वाले खर्च को दो हिस्सों में बांटें और उससे अपेक्षाकृत कम अनुभवी या ग़ैर-अनुभवी दो लोगों को नियुक्त करें। उन्होंने अनुश्री को ऐसे लोगों को ढूंढ़ने के लिए कहा जो पारंपरिक तरीक़ों से धन उगाही करने वाले ना हों बल्कि उनके पास शोध और लेखन की क्षमता हो और किसी ख़ास तरह से काम करने के आदि ना हों।

अनुश्री कहती हैं कि, ‘हमने अपने चैनल को खुदरा और दो भागों में बांटा – संचार तथा एचनआई और संस्थागत। हमने धन उगाही के लक्ष्य को उस व्यक्ति कि प्रमुख जिम्मेदारियों से भी हटा दिया। हमने उनसे केवल इतना कहा कि वे प्रक्रिया का पालन करते हुए वे सभी काम करें जो डोनर को तैयार करने के लिए चाहिए था। उसके बाद का काम यानी कि डोनर को दान के लिए तैयार कर लेना और उनसे वास्तव में दान प्राप्त कर लेना उनकी ज़िम्मेदारी है।’

पहेली के हिस्से_फंडरेजिंग
अध्ययन के नये फंडरेज़र ने उनके पूर्वर्ती फंडरेज़र द्वारा विकसित व्यवस्थाओं और प्रणालियों के अनुसार काम करना शुरू किया। | चित्र साभार: कैनवा

साल 2021 में, जहां तियाशा और जयती अध्ययन के बोर्ड में शामिल हुईं, वहीं सुकृति ने आरबी के साथ काम करना शुरू किया। उनके पास विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं और निगमों में एक से छह साल तक काम करने का अनुभव था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, उनके पास आवश्यक मुख्य कौशल थे जो अपने-अपने संगठनों में धन उगाहने के लिए आधार बने। उनके काम करने का तरीक़ा इस प्रकार था:

1. प्रक्रिया का पालन करना

अध्ययन में शामिल होने के बाद तियाशा ने उनके पूर्वर्ती फंडरेज़र द्वारा विकसित व्यवस्थाओं और प्रणालियों के अनुसार काम करना शुरू किया। ऐसा करने से उन्हें आगे बढ़ने के लिए एक अनुशासित और व्यवस्थित दृष्टिकोण मिला। उन्होंने उनकी सूची में शामिल प्रत्येक व्यक्ति के साथ संपर्क किया, उस पर संगठन में भी चर्चा की और क्या काम कर रहा है और क्या नहीं इस बात पर नज़र बनाए रखी। उन्होंने उन दाताओं से भी बातचीत जारी रखी जो उनके संगठन को दान देने में सक्षम नहीं थे – वे उनसे उनकी वर्तमान रणनीति पर प्रतिक्रिया मांगते थे और उसी आधार पर आगे का कदम उठाते थे। (दरअसल, शुरुआत में मना करने वाले कई डोनर बाद में उनसे जुड़ गये और दान भी दिया)।  

इस स्तर के प्रयास और धन उगाही पर ध्यान केंद्रित करने के कारण, उनके पास अपने कार्यक्रमों को चलाने के लिए पर्याप्त समय नहीं था, लेकिन वे लगे रहे, और कई महीनों के बाद उनकी बातचीत परिवर्तित होने लगी। अध्ययन ने रिन्युल पर भी ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया – अपने मौजूदा दाताओं के साथ संबंध निर्माण करना और उनसे नज़दीकी बढ़ाना। यह सब करते हुए वे इस बात को भी सुनिश्चित कर रहे थे कि उनकी सूची में नए लोग शामिल हों और उनसे लगातार बातचीत का सिलसिला चलता रहे।

2. दाताओं की उम्मीदों का ध्यान रखना

अधिकांश फ़ंडर चाहते हैं कि संगठन का सीईओ या संस्थापक अनुदान के लिए उनके पास प्रस्ताव लेकर आएं। लेकिन एक समाजसेवी संगठन के विकास के साथ यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि डोनर के साथ अपने संबंध को विकेंद्रीकृत किया जाए। अध्ययन के मामले में, तियाशा और जयती ने स्वयं को इतना सक्षम बनाया ताकि वे सीधे दाताओं से बातचीत कर सकें। इसकी शुरुआत उन्होंने विभिन्न डोनर के साथ होने वाली मीटिंग में भाग लेकर और प्रेज़ेंटेशन बनाकर की और धीरे-धीरे बातचीत का नेतृत्व करने लगीं। यह तरीक़ा इतना सफल हुआ कि वर्तमान में डोनर सीधे तियाशा और जयती से ही संपर्क में हैं।

आरबी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। सुकृति ने फ़ंडरेजिंग के लिए आवश्यक काम करने के स्तर से ऊपर जाकर कुछ दाताओं के साथ सीधे तौर पर काम करना शुरू कर दिया। फंडरेजिंग पर प्रतिदिन काम करने से एक व्यक्ति को किसी संगठन को बेहतर तरीक़े से समझने में मदद मिलती है; विभिन्न डोनर के व्यक्तित्व, उनकी पसंद और बाधाओं को समझना आसान होता है। इससे उन्हें प्रस्ताव में लिखे जाने वाले विषयों को समझने में मदद मिलती है और समय के साथ वह इस पूरे काम को अकेले ही करने लग जाते है।

अपने संगठन के साथ जुड़ने के लगभग छह से बारह महीनों के भीतर ही तियाशा, जयती और सुकृति किसी भी डोनर के साथ बातचीत शुरू करने से लेकर उसे अंत तक पहुंचाने के स्तर पर पहुंच चुकी थीं।

3. फंडरेजिंग की संस्कृति का निर्माण

कुलदीप और अनुश्री दोनों जल्द ही समझ गये कि उन्हें अपने संगठनों में फंडरेजिंग के काम का दायरा बढ़ाकर औरों तक लेकर जाना होगा और इसे संगठन के डीएनए का हिस्सा बनाना होगा। इसके लिए हालाँकि दोनों ही लोगों ने दो अलग-अलग लेकिन बिलकुल नये रास्ते अपनाए।

मंगलवार को होने वाले आरबी की टीम मीटिंग में फ़ंडिंग अब एक महत्वपूर्ण विषय होता है ताकि सभी स्तरों पर काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इसकी जानकारी रहे। इसके अलावा, कार्यक्रम टीम ने भी फंडरेजिंग से जुड़ी बातचीत में शामिल होना शुरू कर दिया। कुलदीप और सुकृति उनकी प्रतिक्रियाओं को प्रस्तावों में शामिल करते हैं और डोनर कार्यों में शामिल करते हैं। आरबी ने फिर से कार्यक्रम नेतृत्वकर्ताओं को राजस्व जिम्मेदारी सौंपनी शुरू कर दी है, जिसका अंतिम लक्ष्य सभी इकाइयों के नेताओं को अपनी टीम के लिए धन जुटाना है।

कुलदीप मानते हैं कि इस स्तर की तरफ़ बढ़ने से आरबी की रचनात्मकता बढ़ी है। वे कहते हैं, ‘पहले हम अपने फ़ंडर से केवल पैसों के लिए संपर्क करते थे। लेकिन अब हम उनसे मिल सकने वाले समर्थन के प्रति रचनात्मक रवैया रखते हैं। जैसे कि, हमने अपने दाताओं से इस बात के लिए संपर्क किया कि क्या वे हमारे मध्य स्तर वाले प्रबंधन के लिए आवश्यक पाठ्यक्रमों के लिए दान देना चाहते हैं, या फिर तकनीक से जुड़ा कोई फाउंडेशन हमारे लिए आवश्यक टूल के निर्माण में हमारी मदद कर सकता है।

लेकिन ऐसा तभी संभव है जब बुनियादी बातों का ध्यान रखा जाए – जब आप जानते हों कि रास्ता सरल है। और आपके पास इस पर सोचने के लिए पर्याप्त संख्या में कुशल और सक्षम लोग हैं।’

फंडरेजिंग का काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को संगठन और इसकी बड़ी तस्वीर के बारे में जानने की जरूरत है।

अध्ययन ने फंडरेजिंग को एक रोचक काम में बदलने का फ़ैसला किया। उन्होंने एक वार्षिक अभियान का ढांचा तैयार किया जिसमें पूरे संगठन को साल में एक बार फंडरेजिंग के लिए संस्कृति निर्माण में अपना समय निवेश करना था। सभी को यह बात मालूम है कि उन्हें हर साल अध्ययन के लिए धन उगाही का काम करना है, इसलिए संगठन का प्रत्येक व्यक्ति धन उगाही करता है। अध्ययन इस काम को पिछले दो वर्षों से कर रहा है और अब इसे औपचारिक रूप देने के लिए प्रयासरत है।

अनुश्री का कहना है कि इससे उनपे और कविता (संस्थापक) पर दबाव कम होता है। ‘संगठन सुचारू रूप से चल सके इसके लिए धन उगाही के बारे में सोचते हुए हम बहुत अधिक दबाव में आ जाते थे। और हमें महसूस हुआ कि ऐसे नहीं चल सकता है। सभी को स्वामित्व और ज़िम्मेदारियों का एहसास होना चाहिए, और हम सभी को एक साथ मिलकर इस समस्या का हल निकालना होगा।’ इस वार्षिक टीम अभियान ने फंडरेजिंग के काम को विकेंद्रीकृत कर दिया, जिसका मतलब था कि स्वामित्व की भावना वितरित हो गई और नेतृत्व पर दबाव कम हो गया। इसका यह भी मतलब था कि फंडरेजिंग का काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को संगठन और इसकी बड़ी तस्वीर के बारे में जानने की जरूरत है। क्योंकि इससे वे यह देख और समझ पाने में सक्षम हो पाते हैं कि वे एक संगठन के निर्माण का हिस्सा कैसे हैं और इसमें महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं।

इस अभियान के साथ-साथ, तियाशा डोनर संबंधों को प्रबंधित करने के लिए अध्ययन में प्रत्येक टीम की क्षमता का निर्माण कर रही थी। वह उन्हें मासिक रिपोर्ट और प्रेजेंटेशन तैयार करने में मदद कर रही थी और साथ ही उन्हें यह सिखा रही थी कि दाताओं के सामने कैसे प्रभावी और आकर्षक बातचीत की जानी चाहिए। और, अंत में, अपने लिए फंडरेजिंग करने के अलावा, अध्ययन ने स्कूल की गुणवत्ता में निवेश करने के लिए हितधारकों के समूह के विस्तार पर भी काम शुरू कर दिया। उन्होंने निजी विद्यालयों को अरुणाचल प्रदेश के विद्यालयों को सीधे फंड देने में मदद की, जिससे देखभाल और समर्थन का एक पारिस्थितिकी तंत्र तैयार हुआ।

4. समर्थन समूह का निर्माण

आरबी ने सहकर्मी संगठनों का अपना स्वयं का पारिस्थितिकी तंत्र भी बनाना शुरू कर दिया, जिसके साथ वे धन उगाहने को लेकर दाताओं की विभिन्न श्रेणियां, क्या काम करता है, क्या नहीं जैसे विषयों पर टिप्पणियों और प्रतिक्रियाओं का आदान-प्रदान कर सकते थे। उन साथियों के साथ विचारों को साझा करना जो समान मुद्दों से जूझ रहे हैं और रचनात्मक समाधानों के बारे में सोच सकते हैं, समाजसेवी संस्थाओं को भी रचनात्मक रूप से सोचना शुरू करने में मदद करता है।

प्रभाव

दोनों संगठनों के बजट में तेजी से वृद्धि हुई है। अपने प्रमुख दाताओं को खोने से पहले अध्ययन का बजट 1.3 करोड़ रुपये था। वे साल 2021 में 55 लाख रुपये पर आ गए। वर्तमान में उनका बजट 3 करोड़ रुपये है और वे इसे दोगुना कर 6 करोड़ रुपये करने की उम्मीद कर रहे हैं। साल 2022-23 में आरबी लगातार और बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के अपने बजट में 2.5 गुना वृद्धि कर 7.6 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है।

पर्याप्त धन होने के कारण अध्ययन फ़ंडर को ना कहने की स्थिति में आ गया। इससे उन्हें दाताओं के साथ बराबरी पर खड़े होने की भी सुविधा मिली। वे अपने फ़ंडर से मोलभाव करने, नियमों में ढिलाई लाने और उनके परिणामों से जुड़ी सीमाओं और उम्मीदों को लेकर बातचीत करने की स्थिति में आ गये। अनुश्री कहती हैं कि, ‘जब हमारे पास पूरे साल भर के लिए पर्याप्त धन हो गया था तब हम सुरक्षित महसूस करने लगे और क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए को लेकर फ़ैसले कर पाने की स्थिति में आ गए। पहले हम ना कहने की स्थिति में नहीं थे क्योंकि हमारे पास बने रहने का संकट था। ना कहने से हमारी ताक़त में इजाफ़ा हुआ। इससे पूरा खेल ही बदल गया।’

कुलदीप का मानना है कि पर्याप्त फ़ंडिंग के कारण आरबी को दो क्षेत्र में लाभ हुआ – फंडरेजिंग और प्रतिभा। ‘इससे हम यह सोच पाने की स्थिति में आ गए कि 8–12 करोड़ वाले बजट के साथ हमें कैसे काम करना है और हमने समुदायों और तकनीक के माध्यम से अपना काम बढ़ाया। हम नहीं चाहते कि साल-दर-साल हमारा बजट बढ़ता रहे और फिर लगातार धन जुटाते रहें।
क्योंकि क्या इसका कोई सांख्यिकी प्रमाण है कि एक बार एक निश्चित धनराशि जुटा लेने के बाद हम प्रभाव पैदा करने की स्थिति में आ ही जाएंगे? जहां तक प्रतिभा की बात है, हमें नहीं लगता है कि हम एक ही तरह की प्रतिभा के लिए अन्य संगठनों से किसी तरह की प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं या करना चाहते हैं। आरबी में अलग तरह की प्रतिभा है और हम उसमें निवेश करना चाहते हैं।

अन्य समाजसेवी संगठनों के लिए सलाह

1. कंपनियों और बड़ी समाजसेवी संस्थाओं से जुड़े लोगों के मोह में ना पड़ें

कॉपोरेट क्षेत्र का अनुभव लिये और अच्छे संपर्क वाले लोगों से बहुत अधिक प्रभावित नहीं होना चाहिए। फंडरेजिंग के लिए सोचने और करने वाली मानसिकता की ज़रूरत होती है। इसमें या तो करने या ना करने वाली स्थिति की संभावना नहीं होती है। इसलिए, समाजसेवी संस्थाओं को किसी ऐसे व्यक्ति में निवेश करना चाहिए जो नेतृत्व के लिए आवश्यक तैयारी के साथ-साथ पिचिंग भी करेगा।

कुलदीप कहते हैं कि, ‘समझ लीजिए कि फंडरेजिंग समाजसेवी संस्थाओं की दुनिया में खेला जाने वाला एक खेल है; आप ऐसा नहीं कह सकते हैं कि आप बिना किसी तैयारी के खेलेंगे। हालांकि, मैं तो यह कहता हूं कि भले ही दुनिया द्वारा तय की गई परिभाषा के अनुसार आपका फंडरेज़र ‘करिश्माई’ नहीं है लेकिन अगर वह पूर्व तैयारी के काम में अच्छा है तो उसमें निवेश किया जाना चाहिए।’

2. अपने लिए ज़रूरी कौशल की पहचान करें

सेल्स की भाषा में, एक सीईओ और संस्थापक शिकार, खेती या बाग़वानी में अच्छा हो सकता है लेकिन तीनों ही कामों में अच्छा कभी नहीं हो सकता। एक नेता के रूप में अपने कौशल और स्वाभाविक क्षमता को पहचानें। और उसके बाद ऐसे कुशल लोगों को नियुक्त करें जो आपकी क्षमता को बढ़ा सकें। श्रम के उस विभाजन से बेहतर कामकाजी संबंध और भूमिकाओं में स्पष्टता भी आती है। उदाहरण के लिए अगर, सीईओ किसी नये फ़ंडर के सामने पिचिंग के काम में बेहतर है तो ऐसे में उन्हें किसी ऐसे की ज़रूरत होगी जो उनके रिश्ते को मज़बूत बनाए और उसे आगे ले जाने में उनकी मदद कर सके। ऐसा करने के लिए, एक नेता के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह अपनी खूबियों और ख़ामियों दोनों को समझे।

3. संगठन में स्वामित्व के भाव का निर्माण

माहौल के अनुसार प्रतिक्रियात्मक बने रहना बहुत महत्वपूर्ण है (अपनी बदलती हुई परिस्थिति, नये उभरते फ़ंडर आदि)। यह भी महत्वपूर्ण है कि फंडरेजिंग के काम को फ़ंड्रेजिंग टीम या सीईओ के दायरे से निकालकर पूरे संगठन के लोगों को इस प्रक्रिया से जोड़ा जाए। आप अपने संगठन के वित्त को जितना अधिक विकेंद्रीकृत करेंगे, पैसों के मामले में आपकी टीम में स्वामित्व का भाव उसी अनुपात में बढ़ेगा।

4. अपने दाताओं के चयन में सावधानी बरतें

‘हमें अपनी पिच केवल 30 सेकंड में सुनाएं; हमारे पास बात करने के लिए केवल दो मिनट ही है’ – ऐसी बातें करने वाले दाताओं में मूल्यों को कम करने की प्रवृति होती है। दाताओं के लिए ज़रूरी है कि वे समय निवेश करें, सवाल करें, काम को समझें और लोगों से जुड़ने की इच्छा रखते हों। अनुश्री के लिए यह लगातार महत्वपूर्ण होता जा रहा है। ‘हम किसी भी ऐसे डोनर के साथ नहीं जुड़ना चाहते हैं जिसमें धैर्य ना हो और जो किसी बड़े अवसर की तलाश में हो। इस तरह के फ़ंडर के साथ तालमेल बिठाना मुश्किल होता है।’ किसी भी प्रकार की फंडरेजिंग में निवेश करना और किसी संगठन के डीएनए में धन जुटाने की संस्कृति का निर्माण करने से उन्हें इस बात को समझने में मदद मिलती है कि कैसे वित्त पोषित किया जाए और वे किस प्रकार के अवसर चाहते हैं।

5. अपने फंडरेजिंग टीम को जमीनी हकीकत का एहसास दिलाएं

इस बात को सुनिश्चित करें कि उन्हें फील्ड में काम कर रहे विभिन्न टीम के साथ नियमित रूप से जुड़ने और ख़ुद भी फील्ड में काम करने का अवसर मिले। इससे उन्हें संगठन को बेहतर ढंग से समझने, लक्ष्य के साथ जुड़ने और अंततः एक बेहतर प्रस्ताव और पिच बनाने में मदद मिलेगी।

फ़ंडर के लिए सलाह

1. लचीले बनें

कुलदीप का मानना ​​है कि जब धन जुटाने की क्षमता के निर्माण की बात आती है तो फंडर्स के लिए लचीला होना और संगठनों को काम करने का मौक़ा देना महत्वपूर्ण होता है। जब कोई फ़ंडर अपने अनुदान प्राप्तकर्ता संगठन में फ़ंडरेजिंग के लिए किसी व्यक्ति में निवेश करना चाहता है तो ऐसे में उसे लंबी अवधि तक टिकने वाली दृष्टिकोण को अपनाना चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि सीखने के क्रम में लोगों से ग़लतियां होने की पूरी संभवना होती है।

यदि कोई फ़ंडर किसी जमीनी स्तर के संगठन के लिए विक्रेता में निवेश करते हैं तो इसका प्रभाव दोगुना हो जाता है।

अनुश्री और कुलदीप, दोनों का कहना है कि फंडरेजिंग के लिए एक सफल इंजन बनाने के उद्देश्य से उन्होंने जिस डोनर के साथ काम किया वे बड़े लचीले थे, जिसकी वजह से उन्हें बहुत अधिक मदद मिली। कुलदीप कहते हैं कि, ‘उनके भी अपने मेट्रिक्स थे, लेकिन जल्द ही हमने यह बात समझ ली कि मेट्रिक्स का उद्देश्य एक स्तर तक हमें जवाबदेह बनाए रखता था। जब शुरुआती विचार विफल हो गए तो इसने हमें नई चीज़ें आज़माने से नहीं रोका। और यही सफलता की कुंजी थी।

इसके अलावा, यदि कोई फ़ंडर किसी जमीनी स्तर के संगठन के लिए विक्रेता में निवेश करते हैं तो इसका प्रभाव दोगुना हो जाता है, क्योंकि इससे संस्थापक टीम के पास काम करने और सोचने के लिए पर्याप्त समय होता है। इससे उन्हें अपने मुख्य काम पर ध्यान देने का समय मिलता है, जो किसी भी संगठन के लिए आगे बढ़ने और अपने प्रभाव को बनाने के लिए आवश्यक है। कुलदीप कहते हैं कि, ‘सुकृति के शामिल होने के बाद मुझे सोचने के लिए पर्याप्त समय मिलने लगा था, नतीजतन हम नेतृत्व के लिए एक सशक्त और विविध टीम को विकसित करने में सक्षम थे। इस टीम के लगभग 50 फ़ीसद सदस्य ग़ैर-हिन्दी भाषी थे। इससे मुझे उस टीम के साथ काम करने का मौक़ा मिला जो वास्तव में काम करता है।’

2. निर्देशात्मक बनें

दाताओं को इस बात का एहसास होना चाहिए कि किसी भी समाजसेवी संगठन में कई सारी चीजें होती हैं और इस बात का अनुमान लगा पाना बहुत मुश्किल होता है कि अगले पांच सालों में परिस्थिति कैसी होगी। अगर आप अपने कार्यक्रम को टिकाऊ बनाना चाहते हैं तो आपको इसे समुदायों के साथ मिलकर बनाना होगा। आप अपनी रणनीति और योजनाओं को एकांत में रहकर नहीं बना सकते हैं, इसलिए दाताओं को इसके बारे में ज़रूर सोचना चाहिए।

अनुश्री का कहना है कि ऐसे भी डोनर हैं जो विशिष्ट चीजों की मांग करते हैं जिन्हें पूरा करने के लिए आपको एक ऐसा व्यक्ति बनना पड़ेगा जो भविष्यवाणी कर सके। वे कहती हैं कि, ‘उनमें से कुछ के पास निवेश और परिणाम को देखने का एक्रेखीय तरीक़ा होता है। इससे आपको अपनी प्रतिक्रिया देने या जिन लोगों की आप सेवा करते हैं उनके नेतृत्व का अनुसरण करने का अवसर नहीं मिलता है। किसी योजना को अति-अनुदेशात्मक बनाने से संगठन की उन चीजों का पता लगाने की क्षमता खत्म हो जाती है जो अधिक रचनात्मक और टिकाऊ होती हैं।’

बहुत अधिक महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी, समाजसेवी संगठनों में फंडरेजिंग के लिए आवश्यक टूल और क्षमता निर्माण पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है। ज़्यादातर डोनर, किसी संगठन की गैर-प्रोग्रामेटिक लागतों का भुगतान करने में रुचि नहीं दिखाते हैं जिसमें फंडरेजिंग, संचार, प्रभाव माप और ऐसे ही कारक शामिल होते हैं। हालांकि, इनमें से किसी भी काम में अपेक्षाकृत छोटे निवेश का समाजसेवी संस्थाओं और उनके द्वारा सेवा किए जाने वाले समुदायों दोनों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। क्षमता-निर्माण अनुदान ने अध्ययन और आरबी को धन उगाहने में निवेश करने की अनुमति दी। और ऐसा करने से न केवल संगठनों का बजट बढ़ा, बल्कि उन्हें एक मजबूत टीम बनाने, अपने काम का विस्तार करने और जिन समुदायों की वे सेवा करते हैं, उनके साथ सही काम करने में भी मदद मिली। अपनी यात्राओं के माध्यम से, ये दोनों संगठन अविश्वसनीय रूप से उच्च रिटर्न का प्रदर्शन करते हैं जो समाजसेवी संस्थाओं की मुख्य लागतों में निवेश करने, चीजों के गलत होने की चिंता न करने और सीखने और फिर से प्रयास करने पर ध्यान केंद्रित करने से आता है।

अनुश्री एवं कुलदीप के बारे में

अनुश्री अल्वा अध्ययन की सीईओ और संस्थापक टीम की सदस्य हैं। वे एक शिक्षक हैं और पिछले 10 वर्षों में भारत, पूर्वी एशिया और अमेरिका में शैक्षिक कार्यक्रमों का नेतृत्व का अनुभव रखती हैं। अध्ययन से पहले अनुश्री ने टीच फॉर इंडिया, इंटरनेशनल रेस्क्यू कमिटी, ग्लोबल नोमैड्स ग्रुप, और सैंक्चुअरी फॉर फ़ैमिलिज के लिए काम कर चुकी हैं। उन्होंने कोलंबिया यूनिवर्सिटी के टीचर्स कॉलेज से शिक्षा में एमए किया है। अनुश्री मिलर सेंटर की पूर्व छात्रा है, जो त्वरक कार्यक्रम का एक महिला नेतृत्व वाला समूह है; और टीचर्स कॉलेज के भारत चैप्टर की आयोजन समिति में हैं।

कुलदीप दांतेवाडिया रीप बेनिफिट के सह-संस्थापक और सीईओ है। उन्होंने बिज़नेस मैनेजमेंट में बीए किया है। इसके अलावा कुलदीप ने पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन और रणनीतिक गैर-लाभकारी प्रबंधन से जुड़े कई शॉर्ट-टर्म कोर्स भी किए हैं। कुलदीप अशोका फेलो, अनरिजनेबल फेलो रहे हैं, और आर्किटेक्ट ऑफ़ द फ्यूचर, और यूनिलीवर यंग एंटरप्रेन्योर अवार्ड से सम्मानित भी हो चुके हैं।

यह लेख मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ है और यह इसका संक्षिप्त संस्करण है।

गोवा में उगुएमवासियों को विकास की क्या क़ीमत चुकानी पड़ रही है?

सड़क निर्माण_राष्ट्रीय राजमार्ग
गोवा सरकार ने एक गांव के नजदीक हाइवे की चौड़ाई को बढ़ाया है, और सड़क के इस पुनर्निर्माण से इसकी ऊंचाई 3 मीटर बढ़ गई है। | चित्र साभार: मैत्रेयी घोरपड़े

उत्तर गोवा के उगुएम गांव में रहने वाली भाग्यश्री महाले एक गृहिणी और तीन बच्चों की मां हैं। एक दिन दोपहर में वे अपने किसी पारिवारिक आयोजन में शामिल होने की तैयारी कर रही थीं। उन्हें अपने गांव से 10 किलोमीटर दूर गोवा और महाराष्ट्र की सीमा पर स्थित बांदा कस्बे तक जाना था।

पिछले कई वर्षों में भाग्यश्री कई बार इस जगह जा चुकी हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से उनका आवागमन बहुत ख़तरनाक हो गया है। उगुएम राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच 66) के किनारे ही स्थित है। हाल ही में गोवा सरकार ने गांव के नज़दीक वाली सड़क के चौड़ीकरण का काम शुरू कर दिया। सड़क के इस पुनर्निर्माण के कारण इसकी ऊंचाई तीन मीटर और बढ़ गई। इसका सीधा मतलब यह है कि अब गांव की सामने वाली सड़क और गांव के बीच कुल दस फुट ऊंची दीवार खड़ी हो गई है।

जहां पहले लोग बहुत ही आसानी से सड़क किनारे खड़े होकर किराए की टैक्सी या बस ले लेते थे, वहीं अब उन्हें एक मीटर चौड़ी सर्विस सड़क में जाकर हाइवे की रेलिंग के सामने झुककर खड़े होना पड़ता है। जगह की कमी के कारण यह सड़क दुर्घटना-संभावित हो गई है। भाग्यश्री कहती हैं कि ‘मुझे आने-जाने वाली गाड़ियों से डर लगता है, लेकिन मेरे पास कोई और विकल्प भी नहीं है।’

सड़क के इस निर्माण के कारण उगुएम के उन लोगों के सामने एक दूसरी चुनौती भी खड़ी हो गई है, जिनकी खेती वाली ज़मीन सड़क के उस पार है। एक समय था जब किसान बहुत ही आसानी से सड़क के इस पार से उस पार चले जाते थे; लेकिन अब ऐसा कर पाना संभव नहीं है। गांव के ही एक स्थानीय किसान उदय महाले बताते हैं कि ‘हम अब खेती कैसे करेंगे?’

उगुएम के भूतपूर्व सरपंच विनायक महाले का कहना है कि ‘इससे हमारे गांव के लिए बहुत बड़ी समस्या पैदा हो गई है। मुख्यमंत्री ने वादा किया था कि वे इस एलिवेटेड सड़क (ऊंची सड़क) को ‘जीरो लेवल’ यानी कि बराबरी पर लाएंगे। अब हमारी मांग यह है कि सरकार कम से कम हमारे लोगों, मवेशियों और मशीनों के लिए एक सबवे बनवा दे।’

हालांकि अक्टूबर 2023 में स्थानीय लोगों ने इसके खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया था लेकिन इसका कुछ ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ। भाग्यश्री कहती हैं कि ‘हम में से कुछ स्थानीय लोगों ने इसके खिलाफ़ लड़ने की कोशिश की थी लेकिन कुछ नहीं हुआ। मैंने तो अब सारी उम्मीद ही छोड़ दी है।’

मैत्रेय पृथ्वीराज घोरपड़े एक स्वतंत्र पर्यावरण कानूनविद हैं और लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच के साथ रिपोर्टर के रूप में काम करती हैं।

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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और राजस्थान के जोधपुर ज़िले में श्मशान भूमि के लिए कालबेलिया समुदाय के लोगों के संघर्ष के बारे में जानें।

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छत्तीसगढ़ में हाथियों को जंगली जानवर क्यों नहीं माना जा रहा है?

छत्तीसगढ़ में हाथियों से बचने के लिए लिखी गई चेतावनी_जंगली जानवर
जब समुदाय के लोगों ने कोयला खनन का विरोध करना शुरू कर दिया तब उनसे यह कहा गया कि इस इलाक़े में जंगली जानवर नहीं हैं। | चित्र साभार: आईडीआर

साल 2019 में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले में एक जन सुनवाई आयोजित की गई। इस सुनवाई में स्थानीय पर्यावरण पर महाराष्ट्र स्टेट पावर जेनरेशन कंपनी लिमिटेड की कोयला खदानों के प्रभावों पर चर्चा की गई। इस प्रस्तावित खदान के अन्तर्गत कुल 14 गांव हैं और इस भूमि पर खनन प्रक्रिया करने का सीधा मतलब था – इलाक़े के घने जंगलों की कटाई। इन क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों ने अपने स्वास्थ्य और क्षेत्र में रहने वाले जंगली जानवरों पर इसके प्रभाव के साथ, वन भूमि के नुकसान पर चिंता जताते हुए इसका विरोध किया था। लोगों का कहना है कि इस क्षेत्र में ऐसे भी मानव-वन्यजीव संघर्ष के कई मामले सामने आते रहते हैं। हालांकि, लोगों ने यह भी कहा कि अधिकारियों के कहे अनुसार इस क्षेत्र में कोई भी जंगली जानवर नहीं रहता है।

इस गांव का बच्चा-बच्चा यह जानता था कि वे ग़लत कह रहे हैं। इस मामले में हमने ऐसे ही एक प्रभावित गांव पेल्मा के एक किसान बंसीधर से बातचीत की। बंसीधर का कहना है कि  ‘हर साल हाथी हमारी फसल ख़राब कर देते हैं। पिछले ही साल हाथियों ने चावल की मेरी 150 बोरियों को बर्बाद कर दिया था और मुझे भारी नुक़सान झेलना पड़ा था’।

मैं कई दशक से एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में इन गांवों में काम कर रहा हूं। मैंने खनन से जुड़ी ऐसी कई पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्टें देखी हैं जिनमें रोचक तरीक़ों से हाथी के मुद्दों से बचने या उन्हें भ्रमित करने का प्रयास किया गया है। इन रिपोर्ट में कभी यह कहा जाता है कि जानवर आते तो हैं, लेकिन ऐसा बहुत कम होता है और वे आसपास के जंगलों में नहीं रहते हैं। इससे खनन कंपनियों को खुली छूट मिल जाती है।

वास्तविकता यह है कि हाथी इन इलाक़ों में अक्सर आते-जाते रहते हैं और यहां तक कि वन विभाग के अधिकारियों ने भी उनकी उपस्थिति की पुष्टि की है। पेल्मा के लगभग हर दूसरे घर की दीवार पर रंग-बिरंगे रंगों से चेतावनी लिखी हुई है। इस चेतावनी में कहा गया है कि ‘हाथियों से घिरे इन इलाक़ों में अपने घरों से बाहर ना सोयें, ख़ासकर तब जब आपके घरों में चावल, महुआ या अन्य वनोपज रखा हुआ है।’

एक बार यहां से गुजरते हुए मैं एक घर के बाहर रुक गया और ऐसी ही एक चेतावनी वाली तस्वीर खींच ली। बाद में, मैं उस तस्वीर को लेकर ज़िला वन अधिकारी के पास गया। मैंने उनकी रिपोर्ट पर सवाल उठाया जिसमें उन्होंने कहा था कि इन जंगलों में कोई जंगली जानवर नहीं रहता है। मैंने उन्हें बताया कि यह उनके अपने विभाग द्वारा लगाये गये चेतावनी के इन चित्रों को खंडित करता है। मैंने उनसे पूछा, ‘सर, आप कृपया मुझे यह बता दीजिए कि हाथी हैं या नहीं? या आपको लगता है कि गांव वालों को जब जानवरों को देखने की इच्छा होती है तो वे दूसरे जंगलों से उन्हें बुला लेते हैं?’

मेरी यह बात सुनकर अधिकारी को बहुत अधिक ग़ुस्सा आ गया लेकिन हमारी इस बातचीत का कोई नतीजा निकल नहीं पाया। साल 2022 में, इलाक़े में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की विशेषज्ञ सलाहकार समिति ने खनन शुरू करने के लिए पर्यावरण मंजूरी (ईसी) दे दी। इसके बाद समुदाय के लोगों को इस मामले पर गौर करने के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण में अपील दायर करनी पड़ी। आख़िरकार, फरवरी 2024 में, स्थानीय लोगों द्वारा उठाए गए स्वास्थ्य और पर्यावरण संबंधी वैध चिंताओं की अनदेखी जैसे कानूनी उल्लंघनों को देखते हुए ईसी को रद्द कर दिया गया।

राजेश कुमार त्रिपाठी जन चेतना रायगढ़ नामक एक संगठन चलाते हैं। यह संगठन छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में काम करता है।

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अधिक जानें: जानें कि कैसे हाथियों के हमलों ने असम में धान की खेती करने वाले समुदायों को धान बदले सरसों की खेती करने पर मजबूर कर दिया।

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कथनी और करनी

शिक्षा विभाग पे व्यंग_शिक्षा
चित्र साभार: सौम्य शर्मा

आईडीआर इंटरव्यूज | शंकर सिंह (भाग-एक) 

सामाजिक सेक्टर की जानकारी रखने, ख़ासकर ज़मीनी नब्ज की पकड़ रखने वाले लोगों के लिए शंकर सिंह कोई अनसुना नाम नहीं है। राजस्थान के राजसमंद ज़िले से आने वाले शंकर सिंह एक जमीनी सामाजिक कार्यकर्ता, नाटककार, कहानीकार, मुखर वाचक की भूमिकाओं में दिखते हैं। सामाजिक सेक्टर में लगभग चार दशकों से अधिक का अनुभव रखने वाले शंकर जी ने देश के दिग्गज सामाजिक कार्यकर्ताओं अरुणा रॉय और निखिल डे के साथ मिलकर मजदूर किसान शक्ति संगठन की स्थापना की थी। यह संगठन देश में सूचना का अधिकार क़ानून लाने और लागू करवाने के अपने प्रयासों के लिए जाना जाता है।

हाशिये पर बैठे मजदूरों, किसानों की आय, रोजगार और उनके अधिकारों को लेकर लड़ने एवं उन्हें सशक्त करने का शंकर सिंह का अपना एक तरीका रहा है। उन्होंने कई सफल आंदोलनों, अभियानों की अगुआई की है। मनरेगा, सोशल ऑडिट जैसे संस्थागत माध्यमों को सशक्त करने में भी वे अहम भूमिकाओं में रहे हैं। कई बार उनके तरीक़े बहुत मनोरंजक, संगीतमय और कटाक्ष भरे भी होते हैं।

हाल ही में, आईडीआर ने शंकर सिंह से लंबी बातचीत की। इसमें उन्होंने अपने कामकाजी अनुभव, लोगों और समुदायों से जुड़ाव की बातें और अपने जीवन के अनगिनत किस्से-कहानियां साझा किए। बातचीत की इस पहली कड़ी में वे बता रहे हैं कि कैसे एक आंदोलन की दिशा तय की जाती है और कैसे उसे सफल बनाने का प्रयास किया जाता है। साथ ही, वे इस पर भी बात करते हैं कि जमीनी स्तर पर मुद्दे कैसे चुने जा सकते हैं और सरकार एवं लोगों के साथ काम करने के लिए बेहतर संवाद स्थापित करने के क्या तरीके अपनाए जा सकते हैं।

कोयला-निर्भर समुदायों को नौकरी से ज़्यादा ज़मीन की चिंता क्यों है?

पिछले कुछ दशकों से वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभाव देखने को मिल रहे हैं। इनका मुख्य कारण ईंधनों से होने वाला कार्बन उत्सर्जन है। दुबई में 5 दिसंबर को हुए कॉप-28 जलवायु सम्मेलन (कांफ्रेंस ऑफ़ दी पार्टीज़) में जारी किए गए ग्लोबल कार्बन बजट रिपोर्ट के अनुसार साल 2022 में कार्बन उत्सर्जन अपने रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया था।

इसी क्रम में दुनिया भर के देश, वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों को विकसित करने और इसके मुख्य पारंपरिक स्रोत कोयला के इस्तेमाल को धीरे-धीरे कम करते हुए इसे बंद करने की बात कर रहे हैं।

जस्ट ट्रांज़िशन

दुनिया भर में ऊर्जा के स्रोतों में बदलाव लाने की इस प्रक्रिया को न्यायसंगत परिवर्तन यानी कि ‘जस्ट ट्रांज़िशन’ का नाम दिया गया है। इसके पीछे का मूल भाव यह है कि वातावरण और पर्यावरण में प्रदूषण को बढ़ाने वाले ऊर्जा के स्रोतों (मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन) का इस्तेमाल बंद करके, इसकी जगह ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों को अपनाने की ऐसी प्रक्रिया होनी चाहिए जो सभी के लिए उचित और न्यायसंगत हो। आसान शब्दों में कहें तो परिवर्तन की इस प्रक्रिया के केंद्र में आर्थिक, नस्लीय और लैंगिक न्याय होना चाहिए तथा सबसे अधिक प्रभावित होने वाले समुदायों का हित ध्यान में रखा जाना चाहिए। जस्ट ट्रांज़िशन का एक उद्देश्य ऊर्जा के अन्य स्रोतों जैसे खनिज, तेल और गैस आदि को लेकर बनाई गई नीतियों में व्याप्त ग़लतियों को ना दोहराते हुए लोगों की सहमति के बिना उनकी आजीविका के स्रोत जैसे ज़मीन, जंगल आदि ना लेने के साथ ही उन्हें न्यायपूर्ण मुआवज़ा देना भी है।

लेकिन भारत के दो राज्यों, छत्तीसगढ़ और झारखंड के दस कोयला-निर्भर गांवों के लोगों की हालत देखकर यह कहा जा सकता है कि दुनिया में होने वाले सभी परिवर्तन, न्यायसंगत नहीं हो सकते हैं। साथ ही इससे यह एहसास भी मजबूत होता है कि आर्थिक विविधीकरण, वैकल्पिक रोज़गारों, नौकरियों, प्रशिक्षण और लोगों को नये तरीक़े से दोबारा कुशल बनाने के विचार की आंच धीमी पड़ जाती है।

वैकल्पिक स्रोतों के निर्माण की आवश्यकता

दुनिया के बाक़ी देशों में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल बंद होने और ‘जस्ट ट्रांज़िशन’ की प्रक्रिया से जुड़ी बातचीत के केंद्र में इससे प्रभावित लोगों के लिए आजीविका के वैकल्पिक स्रोतों के निर्माण की बात कही गई है। लेकिन क्या भारत के लिए भी यही स्थिति संभव हो सकती है? भारत में कोयला बिजली उत्पादन का मुख्य स्रोत है। साल 2022-23 में भारत ने अपने 73 फ़ीसद बिजली का उत्पादन कोयला से किया है। ऐसे में भारत की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा कोयला खनन की पूरी प्रक्रिया से औपचारिक और अनौपचारिक दोनों तरह से जुड़ा हुआ है। कहने का मतलब यह है कि कोयला खदानों वाले क्षेत्रों जैसे कि झारखंड एवं छत्तीसगढ़ राज्य के हज़ारीबाग़, रामगढ़ और कोरबा ज़िलों के स्थानीय लोगों की आजीविका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपो में कोयला पर आधारित है। खदानों के शुरू होने से पहले इन ज़िलों के लोगों का मुख्य पेशा खेती था। लेकिन कोयला खनन के लिए किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण में इनमें से अधिकतर की ज़मीनें चली गईं और वे भूमिहीन हो गये। हालांकि, इस भूमि अधिग्रहण के बदले लोगों को मुआवज़ा और नौकरियां मिलीं हैं लेकिन यहां रहने वाले लोगों का कहना है कि उन्हें अपनी ज़मीन के बदले मिलने वाली नौकरियों पर भरोसा नहीं है। दरअसल इनमें से ज़्यादातर नौकरियां अनौपचारिक हैं और बहुत हद तक कोयला अर्थव्यवस्था पर निर्भर हैं। इसके अलावा उनके सामने खाद्य सुरक्षा का भी संकट खड़ा होने लगा है। ऐसी कई चिंताएं हैं जो इन लोगों को अपनी ज़मीनों पर मालिकाना हक़ के मुद्दे पर सोचने के लिए लगातार मजबूर कर रही हैं।

पढ़ाई पूरी करके डिग्री हासिल कर चुके युवा भी नौकरी न होने कि वजह से यहां आर्थिक रूप से अपने माता-पिता पर ही निर्भर हैं।

भारत में कोयला-खदान बंद होने की स्थिति में ग्रामीण इलाक़ों के लोगों का जीवन किस प्रकार प्रभावित होगा इसका एक जीता-जागता उदाहरण झारखंड के रामगढ़ ज़िले का संथाल गांव महुआटांड है। 1980 के दशक में जब एक पीएसयू कंपनी ने यहां अपनी खदान लगाई थी तब उसमें इस गांव के लोगों ने ना केवल अपनी ज़मीन गंवाई बल्कि अपनी पैतृक संपत्ति के समाप्त होने के कारण उनके सामने खाद्य सुरक्षा और सुरक्षित भविष्य का संकट भी पैदा हो गया। ज़मीनों के अधिग्रहण के बाद यहां के लोग लगभग पूरी तरह से कोयला आधारित नौकरियों पर निर्भर हो गये थे। गांव के लोगों का कहना है कि ऐसे भी बहुत कम लोगों को ही नौकरियां मिली थीं और साल 2019 में यहां के खदान बंद होने के बाद जल्दी ही वे नौकरियां भी चली जाएंगी और लोग पूरी तरह से बेरोज़गार हो जाएंगे।

इसी गांव के निवासी बबलू हेम्ब्रम कहते हैं कि ‘मैंने कोयला खनन कंपनी में नौकरी के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी और अंत में साल 2016 में औपचारिक नौकरी हासिल की। और अब खदान में काम बंद होने के बाद से हर दिन केवल हाज़िरी बनाने के लिए जाता हूं।’ अपने परिवार के भविष्य के लिए चिंता जताते हुए दो बच्चों के पिता बबलू हेम्ब्रम आगे कहते हैं कि, ‘हम में से ज़्यादातर लोगों को इस बात का अफ़सोस है कि हमारे बुजुर्गों ने साल 1964 में नौकरी या मुआवज़े के एवज़ में अपनी ज़मीनें कोयला खदानों को दे दी थी। 1984 में कोयला खनन शुरू होने के बाद से मुआवज़े में मिले पैसे ख़त्म हो गये और नौकरी भी परिवार में केवल एक व्यक्ति को ही मिली थी। एक निश्चित उम्र के बाद यह नौकरी भी चली जाएगी। भविष्य में हम और हमारे बच्चे भीख मांगने की स्थिति में आ जाएंगे।’ इसी में अपनी बात जोड़ते हुए गांव की सरपंच किरण देवी ने कहा कि, ‘हमारे गांव की लगभग 75 फ़ीसद आबादी बेरोज़गार है। पढ़ाई पूरी करके डिग्री हासिल कर चुके युवा भी आर्थिक रूप से अपने माता-पिता पर ही निर्भर हैं।’ बीजू उरांव कहते हैं कि, ‘अगर कोई नया उद्योग विकसित भी हो जाता है तो क्या उसमें हम सब के लिए पर्याप्त नौकरी होगी?’ अब तक दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में ही विकसित ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों के विकास से इन क्षेत्रों के लोगों को किसी भी तरह की मदद मिलती नहीं दिखाई पड़ रही है।

उरांव समुदाय के शिवपाल भगत छत्तीसगढ़ में रायगढ़ ज़िले के सारसमाल गांव के सरपंच हैं। इस विषय पर पूछे जाने पर शिवपाल भगत ने बताया कि उनका परिवार पिछले चार पीढ़ियों से इस क्षेत्र में रह रहा है, लेकिन इससे पहले उनमें इस तरह की आर्थिक असुरक्षा का भाव कभी नहीं आया था। वे कहते हैं कि, ‘2007 में हमने अपनी ज़मीनें कोयला खदानों को दे दी। उसके बाद से अब तक हम लोग लगभग भटक रहे हैं। हमने सोचा था कि खदानों के आने से हमारे क्षेत्र में विकास आएगा और हमें स्थायी रोज़गार मिलेगा। लेकिन बदले में हम में से कुछ लोगों को ठेकेदारों के यहां मज़दूरी का काम मिला।’ उनके भाई कुलदीप भगत ने बताया कि ‘अपनी ज़मीनें कंपनियों के हाथों बेचते समय हमारे माता-पिता के पास आवश्यक सूचना और जानकारियां नहीं थीं।’

कोयला खदान में काम करते हुए कुछ लोग_कोयला
ज़मीन को उन समुदायों और किसानों को वापस लौटा दिया जाना चाहिए जो इसके असली मालिक हैं। | चित्र साभार: इंटरनैशनल एकाउंटेबिलिटी प्रोजेक्ट / सीसी बीवाई

कोयले से जुड़े लोगों के जीवन की दुविधाएं

भारत में कोयला खनन की प्रक्रिया में लगातार तेज़ी देखने को मिली है। साल 2015 से 2022 के बीच भारत में कोयला की 22 नई खदानें खुलने के साथ ही 93 नई कोयला परियोजनाओं को मंज़ूरी दी गई। लेकिन इसके बावजूद भी कोयला क्षेत्र में रोज़गार में वृद्धि ना के बराबर हुई है। इसके अलावा, कोयला खनन की प्रक्रियाओं का मशीनीकरण, निजी ठेकेदारों की बढ़ती भागीदारी और खनन विकास ऑपरेटरों (एमडीओ) का बढ़ता वर्चस्व लोगों और कोयले के बीच के रिश्ते को बहुत अधिक प्रभावित कर रहा है। एक अनुमान के अनुसार, इस क्षेत्र में औपचारिक श्रमिकों की संख्या की तुलना में अनौपचारिक श्रमिकों की संख्या लगभग ढाई गुना अधिक है।

कुछ स्थानीय लोगों का कहना है कि खदानों के ठेकेदार और एमडीओ आमतौर पर दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों को काम पर रखना पसंद करते हैं। खदानों में काम करने वाले प्रवासी कर्मचारियों के रहने की व्यवस्था भी कंपनी के परिसर में ही की जाती है और वे कई महीनों तक बिना छुट्टी लिए लगातार काम करते हैं। इस मुद्दे पर बोलते हुए क्षेत्र के एक स्थानीय व्यक्ति ने कहा, ‘कंपनी के लोगों का मानना है कि हम लोग बहुत अधिक छुट्टियां लेते हैं, जिसके कारण उनका काम प्रभावित होता है।’

नौकरी को लेकर असुरक्षा

कोयला क्षेत्र में काम करने वाले ज़्यादातर स्थानीय लोगों के जीवन में कोयला की भूमिका विवादास्पद है। झारखंड के हजारीबाग ज़िले के चुरचू गांव के दो लोगों को इस बात की ख़ुशी है कि वे लोग अपनी पूर्वजों की ज़मीन के बदले मुआवज़े में नौकरी पाने में सफल रहे। हालांकि, नाम ना बताने की शर्त रखते हुए इन दोनों ने यह भी आरोप लगाया कि उन्हें हर दो महीने में अलग-अलग कंपनियों से वेतन पर्ची मिलती है। ऐसी स्थिति में उन्हें कई तरह की चिंताएं सताती हैं जैसे कि वे किन लोगों के लिए काम कर रहे हैं, और ऐसी कौन सी शर्तें हैं जिनके आधार पर उनकी नौकरी जा सकती है या फिर रोज़गार चले जाने की स्थिति में वे किसी तरह के मुआवजे के हक़दार होंगे भी या नहीं। सारसमाल में अब एक ठेकेदार के लिए गार्ड की नौकरी करने वाले एक आदमी का आरोप है कि उसे खनन कंपनी में सफाई के काम से हटा दिया गया क्योंकि मेडिकल जांच के बाद उसकी एक आंख कमजोर पाई गई। इसी क्रम में, रायगढ़ के टपरंगा में, स्थानीय कर्मचारियों के यूनियन नेता ने हमें बताया कि जल्द ही उनसे उनकी नौकरियां चली जाएंगी, और इसके बाद उन्होंने हमें अपनी वह बस्ती दिखाई जहां के घरों में खदानों में होने वाले ब्लास्ट के कारण या तो दरारें आ गई हैं या फिर वे पूरी तरह से ढह चुके हैं।

भगवान दास* भुजांगकछार के रहने वाले हैं। यह गांव, छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले में कोयला की एक खदान के बिलकुल नज़दीक बसा हुआ है। बातचीत के दौरान भगवान दास बताते हैं कि पहले उनकी खेती वाली ज़मीन खदान में चली गई थी और अब खनन का काम उनके घर के बिलकुल क़रीब पहुंच चुका है। दिन-रात उन्हें इसी बात की चिंता सताती रहती है कि देर-सेवर उनका घर भी कोयला-खदान की बलि चढ़ जाएगा। उनके साथ रहने वाला उनका बेटा श्याम दास* उसी खदान वाली कंपनी में एक ठेकेदार के लिए काम करता है और कंपनी, जल्दी ही उनकी घर वाली ज़मीन पर भी कब्ज़ा करने वाली है। उसके कई साथी इसी असमंजस में जी रहे हैं। उनमें से ही एक रनसाही सोनपकट, का कहना है कि वे अपना भविष्य दांव पर लगा रहे हैं। वे कहते हैं कि, ‘हालांकि मेरे पास पहले उतनी ज़मीन नहीं बची है लेकिन फिर भी मैं अपनी बची हुई ज़मीन पर खेती का काम जारी रखना चाहता हूं। संभव है कि मेरे बच्चों को नौकरी मिल जाएगी। लेकिन अगर नहीं मिली तो उस स्थिति में उनके पास अपनी खेती के लिए ज़मीन तो होगी ना!’

दरारों वाला मिट्टी का एक घर_कोयला
बस्तियों से कोयला खदानों की दूरी कम होने के कारण खदान में होने वाले ब्लास्ट से घरों में दरारें पड़ जाती हैं। | चित्र साभार: देबोजीत दत्ता

ज़मीन नहीं तो खाना नहीं

झारखंड की लगभग 42 फ़ीसद और छत्तीसगढ़ की लगभग 29 फ़ीसद आबादी कई स्तरों पर ग़रीबी की मार झेल रही है। इन क्षेत्रों में रहने वाले ज़्यादातर लोगों का मानना है कि ज़मीन पर मालिकाने हक़ का सीधा संबंध खाद्य सुरक्षा से है। झारखंड के ढेंगा में बने एक पुनर्वास कॉलोनी में रहने वाले राम सेवक बादल कहते हैं कि, ‘जब हमारे पास अपनी ज़मीन थी तब हमें कभी भी खाने की कमी नहीं हुई। अब हमें सब कुछ ख़रीदना पड़ता है और हमारा वेतन इतना नहीं है कि हम सब कुछ ख़रीद सकें।’

सारसमाल की 60 वर्षीय बुजुर्ग महिला भगवती भगत महुआ, तेंदू और अन्य वनोपज के सहारे अपना घर चलाती थीं। वे कहती हैं कि, ‘मैं साल के छह महीने काम करती थी और बाक़ी के छह महीने बिना काम किए भी मेरा आराम से गुजर-बसर हो जाता था। छह महीने की कमाई से मैं साल भर अपने परिवार का पेट भर सकने में सक्षम थी। अब ज़मीनों के खदान में चले जाने के कारण वनोपज में भी कमी आ गई है। इसके अलावा, जंगल में जाने के लिए खदान के टीलों पर चढ़कर जाना पड़ता है जो कि बहुत ही ख़तरनाक है। पहले हम लोग बहुत ज़्यादा मोरिंगा खाते थे। अब इनके पेड़ कोयला से ढंक गये हैं और इन्हें पकाने से पहले कई बार धोना पड़ता है।’ कोयला-संबंधित विस्थापन के कारण भगवती भगत जैसी स्थानीय महिलाओं का जीवन बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ है जिनके लिए खेतिहर मज़दूरी करके या वनोपज के सहारे अपनी आजीविका चलाना ज्यादा बेहतर था।

जब हम अपनी ज़रूरतों को पूरा करने और पेट भरने के लिए साइकिल और मोटरबाइक पर कोयला ढोते हैं तो उसे चोरी का नाम दे दिया जाता है।

महुआटांड की आबादी का एक बड़ा हिस्सा जहां अपने जीवनयापन के लिए अन्य क्षेत्रों और राज्यों में पलायन कर चुका है, वहीं वहां बच गए लोगों के लिए अनौपचारिक कोयला खनन ही एकमात्र विकल्प रह गया है। महिलाओं और किशोर लड़के-लड़कियों की एक लंबी क़तार नीचे खदान के अंदर अंधेरे में जाती हुई दिखाई पड़ती है। इनमें से कुछ के हाथ में मोबाइल फ़ोन होता है जिसका इस्तेमाल वे टॉर्च के रूप में करते हैं। अमूमन पतले और छोटे कद वाले लोगों के लिए इन भूमिगत खदानों में प्रवेश कर पाना अपेक्षाकृत आसान होता है। हालांकि कंपनी ने इस अवैध खनन को रोकने के लिए खदानों के चारों ओर गहरे गड्ढे खोद दिये हैं लेकिन भूख और ज़रूरत के मारे लोगों ने इसमें से भी अपने लिए रास्ता ढूंढ़ निकाला है। इस मामले में पूछे जाने पर राम मांझी* कहते हैं कि, ‘अगर मैं कोयला इकट्ठा करके इसे नहीं बेचूंगा, तो मेरे घर में रात का चूल्हा नहीं जल पाएगा। अगर इसी कोयला को कंपनी वाले ट्रक में लादकर ले जाते हैं तो इसे विकास कहा जाता है। लेकिन जब हम अपनी ज़रूरतों को पूरा करने और पेट भरने के लिए साइकिल और मोटरबाइक पर कोयला ढोते हैं तो उसे चोरी का नाम दे दिया जाता है।’ मांझी भी खनन के कारण विस्थापित हुए ऐसे हज़ारों-लाखों लोगों में से एक हैं जिन्हें ना तो मुआवज़ा मिला और ना ही नौकरी। मांझी आगे बताते हैं कि, ‘कोयला खनन कंपनी ने हमसे हमारा घर खाली करवा दिया। अपने घर से निकलकर मैंने पास के ही एक जंगल में अपने रहने की व्यवस्था की। लेकिन अब वन विभाग के अधिकारियों ने मुझ पर वन भूमि पर अतिक्रमण का मामला दर्ज करवा दिया है।’

कोयला ढोने वाली एक साइकिल_कोयला
स्थानीय लोग इस बात को भलीभांति जानते हैं कि कोयला का काम बहुत लंबे समय तक नहीं चलेगा और शायद उनका सब कुछ छिन जाएगा। | चित्र साभार: देबोजीत दत्ता

ज़मीन नहीं तो जीवन नहीं

नई खनन परियोजनाओं द्वारा भूमि अधिग्रहण के मामले से जूझ रहे ग्रामीण समुदायों ने ‘कोयला’ गांवों के इतिहास से सीखा है। झारखंड के जुगरा और छत्तीसगढ़ के पेल्मा जैसे गांवों में स्थानीय लोग लगातार विस्थापन का विरोध कर रहे हैं। इस विषय पर झारखंड के विष्णुगढ़ के एकता परिषद के कार्यकर्ता चुन्नूलाल सोरेन का कहना है कि स्थानीय लोगों को इस बात की जानकारी है कि कोयला उद्योग का जीवन बहुत लंबा नहीं है और संभव है कि उन्हें मुफ़्त में अपनी ज़मीन खोनी पड़े।

सुधलाल साव जुगरा में गन्ना किसान हैं और वे अपने दो बेटों, बहू और पोते-पोतियों के साथ मिलकर गुड़ बनाने का काम करते हैं। वे कहते हैं कि, ‘मैं पैसों के लिए अपनी इस पैतृक संपत्ति को किसी को नहीं दे सकता हूं। इससे हम मालिक से नौकर में बदल जाएंगे। आप देख सकते हैं मेरे आसपास क्या हो रहा है। क्या वे पीढ़ी दर पीढ़ी परिवार के प्रत्येक सदस्य को नौकरी देंगे?’ उसी गांव के सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश साव मानते हैं कि गांव की उपजाऊ ज़मीन पर कोयला खनन करना मूर्खता है। वे कहते हैं कि, ‘बरकागांव (जहां वे रहते हैं) को इस क्षेत्र में चावल का कटोरा कहा जाता है। इतनी उपजाऊ ज़मीन का उपयोग कोयला खनन के लिए क्यों किया जा रहा है?’

जुगरा के एक सरकारी स्कूल के संविदा शिक्षा रामदुलार साव बताते हैं कि, ‘अगर उन्हें तीन या चार दशकों में खदान बंद करनी है तो वे अब जमीन क्यों अधिग्रहित कर रहे हैं। इतिहास ने हमें सिखाया है कि तुरंत मिलने वाले फ़ायदों के लिए हमें अपनी ज़मीनें किसी को नहीं दे देनी चाहिए।’ साल 2018 में, जुगरा के निवासियों ने ज़िला प्रशासन को शिकायत की थी कि उनसे जबरदस्ती जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है।

छत्तीसगढ़ में स्थानीय लोग 2011 से कोयला सत्याग्रह के माध्यम से औद्योगिक खनन का विरोध कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ के पेल्मा गांव के लगभग सभी निवासी इस बात से सहमत हैं कि उनके गांव में कोयला खनन शुरू हो जाने से उनका भविष्य बेहतर नहीं बल्कि स्थिति ज्यादा बदतर हो जाएगी। पेलमा की ही निवासी राजबाला* का मानना है कि अगर उसकी ज़मीन ले ली गई तो यह उसके लिए विनाशकारी होगा। वे कहती हैं कि, ‘यह एक बहुत बड़ा नुक़सान होगा। मैं चाहती हूं कि मेरे बच्चे यहीं रहकर खेती-किसानी करें।’

खनन करने वाली कंपनियों को क़ानून का पालन करना चाहिए ताकि स्थानीय समुदाय दोबारा इन ज़मीनों का इस्तेमाल कर सकें।

शिवपाल भगत बताते हैं कि भावी उद्यमों में मिलने वाली नौकरियां उनके और उनके लोगों की जीविका को सुरक्षित करने के लिए पर्याप्त नहीं होंगी, इसलिए वे अपने इलाक़े में होने वाले खनन से प्रभावित अधिकांश लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे कहते हैं कि, ‘हमारे अस्तित्व के बचे रहने के लिए खेती की ज़मीन का होना बहुत ज़रूरी है।’ भगत उन लोगों में से हैं जिन्होंने अन्य कारणों के अलावा, खनन द्वारा नष्ट की गई ऊपरी मिट्टी की भरपाई करने में विफल रहने के लिए एक खनन कंपनी से पर्यावरणीय क्षति की मांग करते हुए याचिका दायर की थी। उनकी मांग है कि खनन करने वाली कंपनियों को क़ानून का पालन करना चाहिए। खनन पूरा हो जाने के बाद कंपनियों को गड्ढों में मिट्टी को भरकर ज़मीन समतल करने के बाद उसके ऊपरी परत के संरक्षण के उपाय करने चाहिए ताकि स्थानीय समुदाय दोबारा इन ज़मीनों का इस्तेमाल कर सकें। टपरंगा के यूनियन नेता का कहना है कि बंजर ज़मीन भी हमारे लिए उपयोगी हो सकती है। हम लोग इन ज़मीनों का उपयोग आजीविका के अन्य विकल्पों जैसे कि मछली पालन, पशुपालन आदि के लिए कर सकते हैं।

हालांकि, भारत में समुदायों को उनकी ज़मीन वापस देने की प्रक्रिया को सुनिश्चित करने वाले क़ानूनों की कमी है। एकता परिषद के राष्ट्रीय संयोजक रमेश शर्मा कहते हैं कि, ‘एक बार जब सरकार खनन के लिए भूमि अधिग्रहण कर लेती है तो बाद में वह इसका इस्तेमाल अन्य परियोजनाओं के लिए कर सकती है या फिर किसी निजी कंपनी को पट्टे पर दे सकती है। यहां तक कि ऊर्जा के वैकल्पिक और नवीकरणीय स्त्रोतों जैसे कि सौर या पवन ऊर्जा के संयंत्रों के लिए भी निजी कंपनियों को अगर ज़मीन की ज़रूरत है तो उन्हें और बड़ी मात्रा में ज़मीनें मिलेंगी। हालांकि ये ज़मीनें इसके मूल निवासियों और उन किसानों को वापस लौटा दी जानी चाहिए जो इसके असली मालिक हैं। कई समुदाय मिलकर भी इन ज़मीनों पर अपना मालिकाना हक़ बनाए रख सकती हैं।’

देश के लगभग 120 जिलों के लोगों का जीवन यहां पाए जाने वाले जीवाश्म-ईंधन या इससे जुड़े उद्योगों पर सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर है। न्यायसंगत परिवर्तन की दिशा में किसी भी तरह की रणनीति बनाने से पहले यह आवश्यक है कि भारत इन सबसे अधिक प्रभावित होने वाले स्थानीय लोगों की ज़रूरतों को केंद्र में रखे और तभी आगे बढ़े। मौजूदा हालात को देखते हुए इस बात की संभावना से बिलकुल इंकार नहीं किया जा सकता है कि खनन वाले क्षेत्रों के स्थानीय लोगों की ज़रूरतें संभवतः बहुत गहराई से उनकी ज़मीनों से जुड़ी होती हैं।

*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नामों को बदल दिया गया है।

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कश्मीर की एक कुरीति जो महिलाओं को जलवायु संकट का ज़िम्मेदार बताती है

जम्मू और कश्मीर के बारामूला और बांदीपोरा जिलों में, हाल के वर्षों में बर्फबारी में भारी कमी आई है। बर्फ़बारी में हुई इस कमी से कृषि प्रभावित हो रही है – बीज समय पर अंकुरित नहीं होते हैं, और सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी नहीं है। इन सबके कारण, कृषि उत्पादन भी कम हुआ है। इसका असर इस इलाके की युवा लड़कियों पर पड़ता है, जिन्हें अपने घरों में इस्तेमाल के लिए पानी लेने के लिए दूर-दूर जाना पड़ता है। इन लड़कियों पर इस बात का दबाव होता है कि वे अपनी शिक्षा की बजाय अपनी घरेलू जिम्मेदारियों को प्राथमिकता दें। इस दबाव में आकर अक्सर ही वे स्कूल या कॉलेज नहीं जा पाती हैं क्योंकि उन्हें अपने घर के लिए पानी का इंतज़ाम करना पड़ता है।

उनकी यह चुनौती कई गुना और भी तब बढ़ जाती है जब ज़िले में होने वाले जलवायु परिवर्तन का दोष भी महिलाओं पर ही मढ़ दिया जाता है।यह मेरे और मेरे सहकर्मियों द्वारा साल 2023 में बांदीपोरा और बारामूला में किए गए सर्वेक्षण का एक महत्वपूर्ण परिणाम था। हम स्काईट्रस्ट नाम के एक समाजसेवी संगठन के साथ काम करते हैं। यह संगठन स्वास्थ्य, लिंग और जलवायु के मुद्दों पर बात करने के लिए युवाओं को सशक्त बनाता है। हम लोग अपने इलाक़े में हो रहे जलवायु परिवर्तन के परिदृश्य को समझना चाहते थे।

इस सर्वेक्षण के अंर्तगत हमने फोकस समूह चर्चा का नेतृत्व किया और विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और आयु समूहों के 93 लोगों का इंटरव्यू लिया। इस इंटरव्यू में हमने किसानों, महिलाओं और युवाओं से बातचीत की थी। इस प्रक्रिया में हमें रूढ़िवादी समुदाय के नेताओं द्वारा क़ायम की गई एक धारणा का पता चला जो बहुत ही परेशान करने वाली थी। इस धारणा के अनुसार, महिलाओं का ‘आधुनिक’ व्यवहार – उदाहरण के लिए, घर से बाज़ार, स्कूल या कॉलेज जाना – वर्षा की कमी जैसे जलवायु संबंधी संकटों के लिए जिम्मेदार थे। यह पिछड़ी मानसिकता क्षेत्र में महिलाओं और लड़कियों की स्वतंत्रता को और भी अधिक सीमित कर देती है।

इस धारणा को चुनौती देने के लिए अप्रैल 2023 में हमने क्लाइमेट फ्रेंड्स फ़ेलोशिप शुरू की, जिसके तहत जलवायु परिवर्तन, मानसिक स्वास्थ्य, लैंगिक भेदभाव और ऐसे ही मुद्दों पर दस प्रतिभागियों को प्रशिक्षित किया जाता है। इस फ़ेलोशिप में हमने युवा महिलाओं को प्राथमिकता दी थी। उन्होंने अपने गांवों में 10–15 युवा सदस्यों का एक समूह बनाया और पंचायतों और चौपालों में मासिक अड्डे (बैठक) आयोजित किए। इन अड्डों में, महिला साथी क्षेत्र के लोगों के सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों पर चर्चा का नेतृत्व करती हैं। अपने इस प्रयास से महिलाएं इस प्रकार जलवायु परिवर्तन के वास्तविक कारणों और रूढ़िवादी समूहों द्वारा प्रचारित मिथकों को खारिज करने की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं। ये अड्डे समुदाय को अप्रत्याशित मौसम परिवर्तन, अधिक तापमान, शुष्क मिट्टी और नदियों और तालाबों में पानी की कमी का सामना करने के लिए वास्तविक हस्तक्षेप के बारे में सोचने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं।

जहां जलवायु परिवर्तन के कारणों को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ी है, वहीं इन युवा समूहों की महिला सदस्यों को लगातार कई तरह के प्रतिबंधों का सामना करना पड़ रहा है।

हाल ही में, उनकी सहमति मिलने के बावजूद हमें स्काई ट्रस्ट के सोशल मीडिया पेज से एक महिला साथी का वीडियो हटाना पड़ा। हमारी इस साथी को इस वीडियो को हटाने का दबाव इसलिए महसूस हुआ क्योंकि उसके भाई को इस वीडियो के बारे में पता लग गया और उसने सोशल मीडिया पर अपनी बहन की उपस्थिति मंज़ूर नहीं थी। मुझे उम्मीद है कि जलवायु संबंधी गलत सूचनाओं से निपटने के अपने प्रयासों में, हम इन लैंगिक रूढ़िवादिता के खिलाफ भी अपनी लड़ाई जारी रख सकेंगे।

अहंगर ज़ाहिदा स्काईट्रस्ट नाम के एक समाजसेवी संगठन की सह-संस्थापक हैं। वे चेंजलूम्स-यूथ लीडर्स फॉर क्लाइमेट एक्शन का भी हिस्सा हैं, जो भारत के युवा नेताओं के लिए जलवायु से जुड़े मामलों से जुड़े क्षेत्रों में प्रवेश का एक अवसर है।

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अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि हिमाचल प्रदेश की स्पीती घाटी में महिलाएं पानी का प्रबंधन कैसे करती हैं।

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समाजसेवी संगठन अपनी संचार रणनीति को प्रभावी कैसे बना सकते हैं?

वर्तमान में प्रत्येक संगठन के लिए यह आवश्यक है कि वह संचार को अपनी रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा बनाए। ख़ासतौर पर समाजसेवी संगठनों के पास, संचार रणनीति को लागू करने के लिए एक स्पष्ट और सटीक सोच-प्रक्रिया होने से उनका प्रभाव बढ़ाने में, लोगों में अपने ब्रांड की पहचान बनाए रखने में और क्रियान्वयन को प्रेरित करने की गति को तेज़ी मिल सकती है। इसके अलावा, ज़्यादातर संगठन संचार में निवेश को लेकर संघर्षरत रहते हैं। दरअसल, संचार के लिए अलग से धन और मानव संसाधन का प्रबंधन करने में सक्षम संगठन भी कई बार इस काम को ऐसे करते हैं कि वह अनौपचारिक और अंत में प्रभावहीन होता है।

यह अध्ययन एक संगठन – विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी – के मुख्य कार्य के रूप में संचार के साथ संबंध के विकास को रेखांकित करता है। इस लेख को पढ़ें और समझें कि उनकी संचार रणनीति कैसे बनी – विशेष रूप से, उन्होंने संचार में निवेश की आवश्यकता पर क्यों विश्वास किया, वे ऐसा कैसे करते रहे, और इस दौरान उन्होंने क्या सीखा।

विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी जनता के हित को ध्यान में रखकर शासन में सुधार के लिए कानूनी शोध करती है। वे कानून निर्माण और कानूनी नीति की जानकारी देने के लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और विभिन्न अन्य सार्वजनिक संस्थानों के साथ जुड़ते हैं। इसके अलावा, उनके काम के मुख्यरूप से में यह सुनिश्चित करना शामिल है कि उनका शोध जनता के लिए सुलभ हो ताकि यह चर्चा को आकार दे सके।

रणनीतिक संचार संगठन को उनके प्रभाव लक्ष्यों को प्राप्त करने में बड़ी भूमिका निभाने वाला रहा है, लेकिन इसका लाभ उठाने का तरीका सीखने की इस यात्रा में बहुत कुछ जानने को मिला।

शुरुआत: संचार की खोज

साल 2013 में जब विधि की स्थापना हुई,  तब इसकी टीम में मुख्यरूप से वकील शामिल थे। इन सभी की पृष्ठभूमि शैक्षणिक, मुक़दमेबाज़ी और क़ानूनी फ़र्म की थी। इन शुरुआती वर्षों में, संगठन को संचार की प्रासंगिकता, महत्व और दायरे को समझने के लिए संघर्ष करना पड़ा। इसके सह-संस्थापक आलोक प्रसन्ना कहते हैं कि ‘हमने संचार को कभी भी अपने काम का महत्वपूर्ण पहलू नहीं माना।’

जब संगठन का काम जोर पकड़ने लगा तब संचार रणनीति को विकसित करने की जरूरत महसूस होने लगी। आलोक आगे बताते हैं कि ‘पहले से अधिक लोग हमारे काम पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे और इसे सरकार द्वारा किए जाने वाले कामों से जोड़ कर देख रहे थे, और इसमें कुछ नकारात्मक प्रतिक्रियाएं भी मिलीं।’ इस बिंदु पर, विधि ने संचार के लिए एक प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण विकसित करना शुरू किया। आधार मामले पर विधि के काम को भी जब जनता की नकारात्मक प्रतिक्रिया मिली तो इस प्रतिक्रियाशील दृष्टिकोण को एक ठोस संचार रणनीति माना गया। आलोक ने बताया कि ‘जब भी कोई हमारे बारे में कुछ कहता तो टीम के सदस्य संचार को अपने बचाव के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले एक टूल के रूप में देखते थे।’

उन दिनों, टीम के सदस्यों ने संचार सामग्री (जैसे कि वेबसाइट, बाहरी बातचीत और अन्य सामग्री) को तैयार करने को एक ऐसे काम के रूप में देखा जिसे किसी भी तरह पूरा किए जाने की ज़रूरत है। आलोक यह भी बताते हैं कि संचार को एक कार्यान्वयन प्रक्रिया की तरह इस्तेमाल किया गया जिसका उद्देश्य हमारे काम की बारीकी से जांच करना था।

यह परिप्रेक्ष्य तब बदल गया जब विधि के योगदान से तैयार हुआ वित्तीय समाधान और जमा बीमा (एफआरडीआई) विधेयक को सार्वजनिक कर दिया गया। इस विधेयक में एक ‘बेल-इन’ क्लॉज़ का प्रस्ताव रखा गया जो दिवालिया बैंक में जमा धारकों को उनकी जमा राशि को शेयरों में परिवर्तित करके सुरक्षा प्रदान करेगा। इसे करदाताओं के धन का उपयोग किए बिना जमा धारकों की सुरक्षा करने के एक साधन के रूप में माना जाता था। हालांकि, नोटबंदी के एक-आध साल बाद लोगों को इस बात की चिंता हुई कि क्या विधेयक के इस क्लॉज़ का उपयोग उनकी जमा राशि को बैंक शेयरों में बदलने के लिए किया जाएगा। लोगों से मिलने वालों नकारात्मक प्रतिक्रिया के कारण सरकार को इस विधेयक को वापस लेने पर मजबूर होना पड़ा, नतीजतन विधि की पूरी मेहनत बर्बाद हुई। विधेयक पर मिली लोगों की नकारात्मक प्रतिक्रिया के कारण विधि के नेतृत्व मंडल को इस बात का एहसास हुआ कि उनके मुख्य मूल्यों के अलावा उनके काम के पीछे का विचार और इरादा लोगों तक नहीं पहुंच रहा था।

आलोक अपनी बात को बढ़ाते हुए कहते हैं कि ‘लोगों को एफ़आरडीआई के बारे में बताने को लेकर किसी भी तरह की तैयारी नहीं की गई थी, नतीजतन लोग घबराहट में प्रतिक्रिया कर रहे थे। और, यही वह समय था जब हमें इस बात का एहसास हुआ कि हमारे लिए लोगों यह बताना महत्वपूर्ण है कि हमारा काम सार्वजनिक हित में हैं।’

कुछ ही दिनों में, विधि को यह बात समझ में आ गई कि संचार ही वह माध्यम है जिसका उपयोग करके संगठन अपने काम और मूल्यों के बारे में जनता को बता सकता है। उन्हें इसे लेकर थोड़ा अधिक सक्रिय होना होगा क्योंकि संचार का महत्व सोशल मीडिया से कहीं अधिक था। आलोक बताते हैं कि ‘हमारे शोध के केंद्र में जनता होती है। हम व्यापक जनहित के लिए काम कर रहे हैं, चाहे हम सरकार के साथ काम कर रहे हों या किसी मुद्दे पर नई रिपोर्ट पर काम कर रहे हों, हमारा सारा काम जनता से संबंधित होता है।’

इस एहसास के बाद ही विधि एक ठोस रणनीति में अपनी ऊर्जा लगाने के लिए तैयार हो सका; हालांकि, उन्हें अब भी इसके तरीक़े के बारे में सीखने की जरूरत थी।

संचार के माध्यम_संचार प्रणाली
कुछ ही दिनों में, विधि को यह बात समझ में आ गई कि संचार ही वह माध्यम है जिसका उपयोग करके संगठन अपने काम और मूल्यों के बारे में जनता को बता सकते हैं। | चित्र साभार: रॉपिक्सेल

ग़लतियों की गुंजायश

जब संचार के प्रबंधन की बात आती है तब संगठन इस काम के लिए अक्सर किसी पीआर फर्म की सेवाओं को एक विश्वसनीय और आसान तरीक़े के रूप में देखा जाता है। विधि ने भी शुरुआती दौर में इसी रास्ते को अपनाया। लेकिन जहां पीआर फर्म मीडिया तक पहुंचने और किसी ख़ास उद्योग के लिए कारगर तरीक़े के बारे में जानते हैं, वहीं अक्सर वे अपने ग्राहकों को एक तय दायरे (कॉर्पोरेट, जीवनशैली आदि) में फिट कर देते हैं। आलोक इस बात पर जोर देते हैं कि ‘वे इनमें से किसी एक में आपको रखने का प्रयास करते हैं क्योंकि उनके काम करने का तरीक़ा ही यही है। वे ऐसी फर्म होते हैं जिनके पास आपके अलावा भी सैकड़ों ग्राहक हैं।’ विधि जैसे शोध संगठन के पास बहुत अधिक सामग्री होती है। किए जा रहे शोध के विषय को समझे बिना इसके बारे में लोगों को बताना जटिल होता है। विधि में संचार विभाग की प्रमुख ऋचा बंसल कहती हैं कि ‘शोध संगठन में संचार की प्रक्रिया सुगम होनी चाहिए क्योंकि कोई उपयोगकर्ता सीधे इससे जुड़ा नहीं होता है। इसलिए, लोगों को इस बात के महत्व को समझना होगा कि प्रभावशाली नीति वास्तविक कार्रवाई में कैसे परिवर्तित होगी। इसके अलावा, हमें इस बात को लेकर स्पष्ट करना होगा कि ये पहले से ही रुचि रखने वाले लोग हैं, लेकिन इनके पास इस विषय के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है।’

जबकि पीआर फर्म कई तरह की संचार गतिविधियों में लगी हुई थी, लेकिन विधि के काम को लेकर पूरी समझ नहीं होने के कारण वे असफल रहे। आलोक कहते हैं, ‘हम बहुत सारी अलग-अलग चीजें कर रहे थे और सब कुछ ठीक ही लग रहा था, लेकिन एक पूरी कहानी नहीं बन रही थी।’ एकजुटता की कमी थी। वे आगे बताते हैं कि ‘जिस चीज ने हमें इस समस्या से निपटने में मदद की वह संचार से जुड़ी होने वाली समस्याओं को समझने में सक्षम होना था।’ विधि को यह बात समझ में आ गई थी कि उन्हें दो चीजों की ज़रूरत थी: प्रभाव को संप्रेषित करना, और एक ऐसी टीम का होना जो बता सके कि इस प्रभाव को कैसे व्यक्त किया जाए।

सही समझ के साथ काम करना

1. सही संसाधनों का चुनाव

विभिन्न हितधारकों, संचार पेशेवरों और बोर्ड के सदस्यों के साथ हुई बातचीत के माध्यम से विधि ने यह जाना कि उन्हें अपने काम के प्रति गंभीर रूप से प्रतिबद्ध किसी व्यक्ति की जरूरत थी। आलोक विस्तार से बताते हुए कहते हैं कि ‘हम अपनी तरह का अलग काम कर रहे हैं। हम ना तो पूरी तरह से एक क़ानूनी फर्म हैं और ना ही पूरी तरह से एक समाजसेवी संस्था हैं। हम कई ‘ना’ किए जाने वाले कामों का एक जत्था हैं। और हम केवल इतना ही चाहते थे कि हमें इस बात को समझने वाला कोई मिल जाए।’

विधि के लिए, इसका सीधा मतलब यह था कि उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो संगठन के भीतर गहराई से जुड़ा हो। कोई ऐसा व्यक्ति जो शोधकर्ताओं की उनकी टीम से बात कर सके, और उन्हें यह दिखा सके कि वे अपने काम को जनता तक बेहतर ढंग से कैसे पहुंचा सकते हैं।

और, जब उन्होंने अपने बोर्ड में एक ऐसे व्यक्ति को शामिल कर लिया तो इसका प्रभाव तुरंत दिखाई पड़ने लगा। बाहर से, उन्होंने देखा कि उनकी वेबसाइट और ब्लॉग मीडियाकर्मियों और कानून के छात्रों के लिए एक उपयोगी संसाधन बन गए हैं। वहीं, आंतरिक रूप से पता चला कि एक संचार रणनीति का क्या प्रभाव हो सकता है, और यह प्रभाव पैदा करने में किस तरह से उनकी मदद कर सकती है।

ऋचा के मार्गदर्शन में, विधि ने बाहरी तौर पर अपने प्रभाव की कहानी सक्रिय रूप से बतानी शुरू की। ऋचा कहती हैं कि ‘हमने कहानी के माध्यम से अपने प्रभाव के बारे में लोगों को बताने का फ़ैसला किया – हमने वेबसाइट पर प्रभाव के लिए एक जगह बनाई और विधि का पहला प्रभाव रिपोर्ट प्रकाशित किया। इसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। लोगों ने इस शोध को सकारात्मक इरादे के साथ अंत तक पहुंचने के एक साधन के रूप में देखा, जिसमें बाहरी हितधारकों द्वारा प्रमाणित किए गए ठोस उदाहरण भी शामिल थे। इस सक्रिय नरेटिव सेटिंग ने चुनौती को उल्टा कर दिया।’

साल 2020 में विधि एक इनहाउस संचार टीम को अपने साथ लेकर आई हैं, और उसके बाद से संगठन ने लोगों तक अपनी पहुंच और उनसे जुड़ाव में वृद्धि देखी। उदाहरण के लिए:

2. अन्य टीमों के साथ संचार को एकीकृत करना

ऋचा कहती हैं कि ‘शुरुआत में, आप एक रणनीति बनाते हैं जो वास्तव में व्यापक होती है – अपनी कहानी कैसे बताएं, उस कहानी को कैसे बढ़ाएं, मीडिया तक कैसे पहुंचें, सामयिकता का लाभ कैसे उठाएं, चल रही बातचीत में कैसे शामिल हों, और कैसे इसे अधिकतम लोगों तक पहुंचाएं। लेकिन समय के साथ, जैसे-जैसे संगठन विकसित होता है, एक विस्तृत दृष्टिकोण का एहसास होता है। विधि के मामले में इस काम को हमने यह सुनिश्चित करते हुए किया था कि सभी टीम अक्सर संचार रणनीति के साथ जुड़ी रहती हैं, और प्रभाव को संप्रेषित करने के लिए वकालत और प्रसार योजनाओं के निर्माण में शामिल होती हैं।’

उन्होंने इस काम को कुछ इस प्रकार किया था। विधि में शोध करने वाली प्रत्येक टीम को यह सोचने के लिए कहा जाता है कि उस शोध के लिए उनकी दो-वर्षीय या पंच-वर्षीय योजना क्या है – वे इसे कैसे प्रसारित करने की योजना बनाते हैं? किसी प्रोजेक्ट के शुरुआती चरणों में इन सवालों को ध्यान में रखने से विभिन्न टीमों को अपनी रिपोर्ट तैयार करते समय संचार और एडवोकेसी के नज़रिए का उपयोग करने में मदद मिलती है। इसके परिणामस्वरूप, जारी की गई रिपोर्ट अपने चाहे गए प्रभाव पैदा करने के लिए अनुकूलित होती हैं, चाहे उनका काम बदलाव लाना हो या लोगों का ध्यान आकर्षित करना हो या फिर दोनों।

3. प्रभाव निर्माण के लिए संचार का उपयोग करना

यह महसूस करना कि रणनीतिक संचार का उपयोग उनके अनुसंधान और जमीन पर प्रभाव का लाभ उठाने के लिए किया जा सकता है, विधि के लिए एक गेम चेंजर था। इसकी प्रक्रिया को समझाते समय आलोक ने पंजाब में नशे की बढ़ती समस्या और उस समय क़ानून के प्रभाव का उदाहरण देते हैं। उनका कहना है कि ‘जब हम पंजाब में नशे की समस्या पर शोध किया, तब 30–40 अख़बारों ने हमारे इस शोध का परिणाम प्रकाशित किया। लेकिन एचएमआरए लक्ष्य यह नहीं था। हमारा लक्ष्य एक ऐसी बातचीत की शुरुआत करना था जिसमें इस बात की जांच की जाए कि क्या वह विशेष कानून भारत के लिए सही था। इसलिए, जब आर्यन खान ड्रग मामले में बहस शुरू हुई, तब हमने इसका फ़ायदा उठाने के बारे में सोचा- हम इस काम को करने में सक्षम थे क्योंकि हमारे पास ऋचा जैसी विशेषज्ञ थीं। ऋचा ने हमारा काम, हमारे आंकड़े लिये, इसे जनता के सामने लाया और हमारी मदद की ताकि हम इस पर बहस छेड़ सकें कि क्यों मामूली नशीली दवाओं को अपने पास रखने को अपराध की श्रेणी से बाहर किया जाना चाहिए।’

इस रणनीति का असर अभी भी दिख रहा है। आज, यदि आप गूगल पर ‘भारत में नशीली दवाओं को अपराधमुक्त करना’ जैसे विषय को खोजें तो विधि की रिपोर्ट अभी भी दिखाई देती है। इस तथ्य के बावजूद कि वे इस मुद्दे पर शोध करने वाले पहले (या आखिरी) नहीं थे, जब भी देश में लोग नशीली दवाओं के इस्तेमाल के बारे में बात करते हैं तो उनके शोध का हवाल दिया जाता है। अन्य शोध से उनकी शोध को अलग करने वाला कारक उनकी स्पष्ट संचार रणनीति थी: सही कहानी, सही समय पर, सही लोगों तक पहुंचाना। और परिणामस्वरूप, वे खुद को एक ऐसी जगह पर पाते हैं जहां कुछ समाजसेवी संस्थाएं होने का दावा कर सकती हैं – उनका शोध लोगों के सोचने के तरीके को बता रहा है; यह लोगों को उनकी वेबसाइट से आगे जाकर अन्य स्रोतों का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित कर रहा है।

प्रभाव को मापने के लिए, विधि अब प्रभाव रिपोर्ट विकसित करती है, जो सभी अलगअलग टीमों के इनपुट के साथ बनाई जाती है।

प्रभाव को मापने के लिए, विधि अब प्रभाव रिपोर्ट जारी करती है, जो सभी अलग-अलग टीमों के इनपुट के साथ बनाई जाती है। जैसा कि ऋचा कहती हैं, ‘विधि जैसे संगठन पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसके संकेतक कई आंतरिक बातचीत के बाद स्थापित किए गए थे। हम आज भी इसे बेहतर बनाने के लिए काम कर रहे हैं। और हम ऐसा करके लगातार इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि हम अपने उद्देश्य के अनुसार सही काम कर रहे हैं।’

4. लचीले बने रहना

नए विचारों को विकसित करना और खोजना तथा पुराने विचारों का मूल्यांकन करना भी किसी संगठन के विकास का एक निरंतर हिस्सा है। ऋचा आगे कहती हैं कि ‘मुझे लगता है कि एक प्रमुख पहलू जो वास्तव में मदद करता है, वह है सीखने की उत्सुकता और आप जो कर रहे हैं उस पर दोबारा गौर करना ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कोई भी अपने विचारों में फंसा न रहे। और यह वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण है। वास्तव में जो प्रभाव हम देना चाहते हैं उसे देने के लिए हम जो कुछ अलग करते [सकते] हैं उसे देखने और उसका आकलन करने की क्षमता – वह रवैया वास्तव में मदद करता है ।’

प्रारंभिक संचार _संचार प्रणाली
संचार में प्रारंभिक निवेश किसी भी संगठन के लिए बहुत मददगार हो सकता है। | चित्र साभार: कैन्वा प्रो

समाजसेवी संगठनों के लिए उनकी सलाह

1. अपने काम के लिए संचार को महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखना शुरू करें

किसी भी क्षेत्र में काम करने वाले समाजसेवी संगठन के लिए संचार को अपनी प्राथमिकता बनाना आवश्यक होता है। आलोक कहते हैं कि संचार ‘ज़रूरी नहीं है कि व्यापक पैमाने पर ही किया जाए। इसे फ़ंडर या सरकार जैसे कुछ तय हितधारकों तक भी सीमित रखा जा सकता है लेकिन यह जरूरी है कि इसे संगठन के लिए मौलिक माना जाए।’

ऐसा करने के लिए, नेतृत्व टीम को संचार को एक प्राथमिक गतिविधि के रूप में देखने की ज़रूरत है जो संगठन द्वारा किए जाने वाले काम से अलग नहीं होना चाहिए, बल्कि उस पर ही निर्मित और आधारित होना चाहिए। अगर संचार को एक अतिरिक्त टूल के रूप में देखा जाता है तो संगठन के लिए अपने लक्ष्यों को पाने की दिशा में आगे बढ़ने में कठिनाई होगी।

2. अपने दाताओं को दिखाएं कि आप रणनीतिक संचार को लेकर प्रतिबद्ध हैं

संचार में प्रारंभिक निवेश किसी संगठन के लिए बहुत मददगार हो सकता है। आलोक ज़ोर देते हुए कहते हैं कि ‘मैं संचार को आपके परिणामों का मौलिक पहलू मानता हूं। जब हम कोई प्रस्ताव भेजते हैं, तो उसमे हम शोधकर्ताओं पर होने वाले खर्च को एक वर्ग में और संचार, रणनीति और अन्य ख़र्चों को दूसरे वर्ग में दर्ज करके भेजते हैं। ज़रूरी यह है कि संचार को अतिरिक्त खर्च के रूप में नहीं देखा जाना ताकि इसे ख़ारिज करने या इसमें कटौती करने की गुंजाइश न रहे।’

इस निवेश को संगठन की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर तय किया जाना चाहिए। संचार के लिए समर्पित एक पूरी टीम का होना महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन, संगठन की ज़रूरतों को समझने वाला और सही संचार प्रणाली को स्थापित करने की जानकारी रखने वाले किसी एक उचित व्यक्ति की नियुक्ति से भी बहुत बड़ा अंतर लाया जा सकता है।

3. संचार यात्रा में अपने टीम के सदस्यों को भी शामिल करें

टीम के अन्य सदस्यों के साथ सहयोगात्मक दृष्टिकोण संचार प्रयासों को सफल बनाने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। ऋचा, संचार कार्य में अन्य टीमों को शामिल करने की आवश्यकता पर प्रकाश डालती हैं। इसके अलावा वह उन्हें प्रक्रिया समझाती हैं, उन्हें संचार टीम के साथ अपने काम की बारीकियों के बारे में बात करने के लिए कहती हैं, और उनके साथ एक कामकाजी संबंध स्थापित करती हैं। वे कहती हैं कि ‘यदि कोई संगठन कई क्षेत्रों में काम करता है, तो छोटी तस्वीर को समझने के लिए विभिन्न टीमों के साथ लगातार बातचीत करना महत्वपूर्ण है। यह रिपोर्ट बनाने या प्रस्तुत करने से अलग है। इसका संबंध इससे है कि वह रिपोर्ट किसी टीम के काम के बड़े कथन के साथ कैसे फिट बैठती है, और फिर उस टीम का काम संगठन के बड़े कथन में कैसे फिट बैठता है।’ इन बारीकियों तक पहुंच होने से संचार पेशेवर को अपनी परियोजनाओं को बेहतर ढंग से निष्पादित करने में मदद मिलती है।

दाताओं को उनकी सलाह

1. समाजसेवी संस्थाओं की संचार क्षमता के निर्माण में निवेश करें

क्षमता निर्माण में निवेश होना चाहिए। यह महत्वपूर्ण है कि दाता, समाजसेवी संस्थाओं के लिए उन प्रशिक्षकों से सीखने के अवसर पैदा करें जिनके पास भारत में संचार का अनुभव है। ऋचा कहती हैं कि ‘ऐसे लोगों को चुनें जो इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं, और संदर्भ से जुड़े हुए हैं।’ एक विदेशी फर्म को भारतीय प्रणाली के अंदर और बाहर की जानकारी नहीं होगी, जो किसी भी सार्थक प्रशिक्षण को संचालित करने के लिए महत्वपूर्ण है। ऋचा कहती हैं कि उन्होंने देखा है कि ‘फंड देने वाले कभी-कभी अच्छे इरादों के साथ बड़े विदेशी नामों को लाने के लिए इच्छुक हो सकते हैं, लेकिन वे वास्तव में भारत के संदर्भ को नहीं समझते हैं। सही लोगों के साथ सही कार्यक्रम बनाना बहुत महत्वपूर्ण है। ऋचा आगे कहती हैं कि ‘क्षमता निर्माण को एक ऐसी चीज़ के रूप में सोचा जाना चाहिए जिसके लिए कुछ निरंतर प्रशिक्षण और सहायता की आवश्यकता होती है। और, यह लंबे समय में होता है, यहां तक ​​​​कि एक वर्ष में भी ऑनलाइन और ऑफलाइन बातचीत के माध्यम से होता है।’

2. फ़ंडिंग को लेकर नये नज़रिए अपनाएं

आलोक सुझाव देते हैं कि फ़ंडर को इस बारे में नवोन्मेषी होना चाहिए कि वे किन क्षेत्रों में फंड का निवेश करना चाहते हैं। वे आगे कहते हैं कि उम्मीद करने की बजाय, वे किसी ऐसे व्यक्ति को शामिल कर सकते हैं जो गैर-लाभकारी संस्थाओं के भीतर किसी समाचार संगठन या पीआर एजेंसी में काम करता है। इन लोगों का वेतन भी फ़ंडर को ही देना चाहिए और इस बात को सुनिश्चित करना चाहिए कि वे कम से कम एक साल तक टिकें और सीखें और अपनी विशेषज्ञता का लाभ समाजसेवी संस्थाओं को पहुंचाएं।’ इसके अतिरिक्त, फ़ंडर, सामाजिक प्रभाव क्षेत्र के लिए संचार पाठ्यक्रमों के विकास में भी निवेश के बारे में सोच सकते हैं। इस तरह के विभिन्न पाठ्यक्रम विधि (शोध पर काम करने वाले) जैसे संगठनों की मदद करने के साथ ही ज़मीनी स्तर के कार्यक्रम बनाने वाली संस्थाओं के लिए भी मददगार साबित हो सकते हैं।

3. समाजसेवी संगठनों के लिए संचार को सुलभ बनाएं

इस काम को कई तरीकों से किया जा सकता है। फ़ंडर, अनुदान प्राप्तकर्ता भागीदारों को संचार में निवेश करने और ऐसा करने की लागत का समर्थन करने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। या, वे एक साझा सेवा मॉडल बनाने के बारे में सोच सकते हैं जहां वे अपने भागीदार संगठनों के समूह की क्षमता बनाने के लिए एक एजेंसी को नियुक्त करते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि फंडर्स अपने साथियों के साथ संचार में निवेश करने की आवश्यकता के बारे में बात करके और इसके लिए अपने समर्थन के बारे में पारदर्शी होकर, मानसिकता में बदलाव लाने की शुरूआत कर सकते हैं।

ऋचा और आलोक के बारे में

ऋचा बंसल पिछले सत्रह से अधिक वर्षों से विकास संचार और पत्रकारिता के क्षेत्र में काम कर रही हैं। वे विधि सेंटर फॉर लीगल स्टडीज़ की प्रमुख हैं, और पांच सालों तक सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च में संचार निदेशक के पद पर काम कर चुकी हैं। इससे पहले, उन्होंने विभिन्न लिंग-आधारित संगठनों में संचार विभाग में अपनी भूमिकाएं निभाई हैं, जिसमें पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया, और कैमफेड, यूके, इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वीमेन जैसी संस्थाएं शामिल हैं। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक पत्रकार के रूप में की और अहमदाबाद, हैदराबाद, पुणे, और कोलकाता के विभिन्न अख़बारों के लिए काम कर चुकी हैं। ऋचा ने यूके की यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैम्ब्रिज से डेवलपएमईटी स्टडीज़ में एमफिल किया है। उन्होंने जनसंचार में एमए और अंग्रेजी साहित्य में बीए किया है।

आलोक प्रसन्ना कुमार विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के सह-संस्थापक और प्रमुख हैं। वे न्यायिक सुधार, संवैधानिक क़ानून, शहरी विकास और क़ानून और तकनीक जैसे क्षेत्रों में शोध करते हैं। आलोक ने 2008 में नालसार यूनिवर्सिटी से बीएएलएलबी (ऑनर्स) और 2009 में यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड से बीसीएल किया है। वे इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के लिए एक मासिक कॉलम लिखते हैं। इसके अलावा, द हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस, स्क्रॉल, क्विंट और कारवां जैसे मीडिया आउटलेट्स के अलावा इंडियन जर्नल ऑफ कॉन्स्टिट्यूशनल लॉ और नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया रिव्यू में भी उनके लेख प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने मोहन परासरन के चैंबर से सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाई कोर्ट में प्रैक्टिस की है। आलोक आईवीएम पॉडकास्ट पर गणतंत्र पॉडकास्ट के को-होस्ट हैं।

* विधि में संचार टीम की नियुक्ति के बाद विधि की पहुंच से जुड़े आंकड़ों को शामिल करने के लिए 12 दिसंबर 2022 को इस लेख को अपडेट किया गया था।

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