December 22, 2023

राजस्थान के कृषि मज़दूर एक से दूसरे गांव प्रवास क्यों करते हैं?

राजस्थान के आदिवासी समुदायों से आने वाले अकुशल श्रमिक गुजरात के गांवों में जाकर कृषि मज़दूरी करते हैं लेकिन इस पलायन की वजहें और समस्याएं आज भी अदृश्य लगती हैं।
9 मिनट लंबा लेख

कोरोना महामारी के दौरान पूरा देश प्रवासी मजदूरों की हज़ारों किलोमीटर लंबी पैदल यात्राओं का गवाह बना था। लेकिन प्रवास सिर्फ गांवों से शहरों की तरफ ही नहीं, बल्कि गांवों से गांवों में भी होता है। एक गांव से दूसरे गांव जाने वाले ज़्यादातर मजदूर खेती के काम से पलायन करते है। इनकी समस्याएं कहीं ज़्यादा अदृश्य और व्यापक हैं।

राजस्थान के उदयपुर जिले के कोटड़ा ब्लॉक में एक से दूसरे गांव में प्रवास करने वाले अधिकतर मजदूर आदिवासी समुदाय से आते हैं। इन आदिवासियों को अपने आसपास के गांवों में खेती का काम करना ठीक लगता है क्योंकि इससे वे अपने परिवार के साथ रह पाते है। भले ही, इसके लिए उन्हें अपने राज्य की सीमा पार करनी पड़ जाए।

एक से दूसरे गांव होने वाला प्रवास क्या है?

कोटड़ा ब्लॉक, दक्षिण राजस्थान का आखिरी छोर है। यहां अधिकतर भील आदिवासी समुदाय बसता है। इन आदिवासियों की आजीविका ऐतिहासिक रूप से जंगलों से जुड़ी रही है। मसलन तेंदू (बीड़ी बनाने में उपयोगी) पत्ता बीनकर बेचना, बांस, विभिन्न औषधियां तथा अन्य लघु-वनोपज इनकी आय के स्त्रोत रहे हैं। लेकिन 30-40 साल पहले बने कुछ कानूनों ने आदिवासियों को उनके जंगल से दूर कर दिया। ख़ासतौर पर 1972 का वन्य जीव संरक्षण अभयारण्य कानून लागू होने और 1983 में कोटड़ा में ‘फुलवारी की नाल अभयारण्य’ घोषित किए जाने के बाद इनका जीवन बहुत प्रभावित हुआ। कानूनों के प्रभावी होते ही, सरकारी महकमों ने इन्हें वनोपज लेने से रोक दिया।

चूंकि कोटड़ा राजस्थान और गुजरात की सीमा पर है और यहां से महज 10 किलोमीटर दूर से गुजरात के खेत शुरू हो जाते हैं। ज़्यादा दूरी ना होने के कारण भाषा और संस्कृति में कोई खास फर्क नहीं है। इसलिए कोटड़ा के आदिवासियों ने शहरों में प्रवास करने की बजाय गुजरात के गांवों में प्रवास करना बेहतर समझा क्योंकि शहरों में जाकर रहना उनके लिए अपेक्षाकृत कठिन था।

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राजस्थान से जुड़ने वाले उत्तरी गुजरात के दो जिलों साबरकांठा और बनासकांठा -जो गुजरात में सब्जियों का सबसे बड़ा उत्पादक है- कृषि की नई तकनीक अपनाने वाले जिले हैं। यहां कई बड़े किसान बस्ते है जिनमें से एक पटेल समुदाय परंपरागत रूप से कृषि प्रधान समुदाय है। इनके पास कई एकड़ ज़मीन है और उन्हें स्थानीय मज़दूरों की ज़रूरत पड़ती है। इन ज़िलों को साबरमती नदी पर बने धरोई बांध से पानी मिलता है और इसलिए इस इलाक़े में, साल में तीन-चार फसलें ली जा सकती हैं।

इसके अलावा, गुजरात में तेजी से औद्योगिक विकास होने की वजह से वहां के स्थानीय मजदूर जैसे ठाकुरडा समुदाय, अनु-सूचित जाति (एससी) और भूमि-हीन अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) जो खेती के काम करते थे, अब उनका रुझान थोड़ा कम हुआ है। उन्होंने गांव में काम करने की बजाय शहरों में बसना शुरू कर दिया है। इनके प्रवास के कारण गुजरात के किसानों को मज़दूरों की ज़रूरत लगी – जो राजस्थान के आदिवासी मजदूरों ने पूरी करी।

आलू छाँटते हुए किसान_प्रवासी किसान
कोटड़ा के आदिवासियों ने शहरों में प्रवास करने की बजाय गुजरात के गांवों में प्रवास करना बेहतर समझा क्योंकि शहरों में जाकर रहना उनके लिए अपेक्षाकृत कठिन था। | चित्र साभार: सरफ़राज़ शेख

क्यों आदिवासियों का प्रवास एक मजबूरी है?

1. जमीन का आकार: कोटड़ा एक पहाड़ी इलाका है। यहां बहुत कम कृषि भूमि है। कुल उपलब्ध जमीन का बस 19 प्रतिशत इलाका ही सिंचाई लायक है। असंचित इलाका अधिक होने से आजीविका के साधन बेहद सीमित हो जाते हैं। इसके अलावा, यहां मूलभूत सुविधाओं का अभाव भी देखने को मिलता है।

2. अवसरों का न होना: इलाक़े में जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन थी, उनके भी परिवार बड़े होते जा रहे हैं और खेती की जमीन कम होती जा रही है। इतने लोगों का पालन-पोषण सिर्फ जमीन के भरोसे संभव नहीं है। ऐसे में लोगों को जमीन बेचनी पड़ती है। खेती-किसानी के अलावा लोगों के पास ऐसा कोई कौशल भी नहीं है जिससे शहर जाकर कमाई की जा सके और ना ही आसपास ऐसे अवसर और सुविधाएं हैं।

3. एक साथ पैसों की जरूरत: शादी-ब्याह, गंभीर बीमारी, कुआं खुदवाने जैसी चीज़ों के लिए एक मुश्त रक़म की जरूरत पड़ती है। ऐसी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए भी प्रवास करना पड़ता है।

प्रवासी मज़दूर कैसे काम करते हैं?

खेती-किसानी के काम में लगातार मजदूर की आवश्यकता होती है। अगर किसान मजदूर को दैनिक मजदूरी पर रखेगा तो वह अपेक्षाकृत बहुत महंगा पड़ता है क्योंकि मजदूर को हर माह पैसे देने पड़ेंगे। और, यदि फसल खराब हुई तो अलग नुकसान होगा। इसलिए इस इलाके में दैनिक मजदूरी की जगह हिस्से की खेती अपनाई गई। हिस्से की खेती मतलब शेयरक्रॉपर—जिसे स्थानीय भाषा में ‘भागिया’ बोलते हैं। इसमें किसान को खेती से जो उत्पादन होता है उसका एक हिस्सा मजदूर को मिलता है। मसलन, किसान को एक फसल में 120 क्विंटल गेंहू प्राप्त हुए तो शेयर क्रॉपर (भागिया) को छठे हिस्से के हिसाब से 20 क्विंटल गेंहू पूरी फसल के दौरान की गई मजदूरी के तौर पर मिलेगा। अगर किसान कोई एडवांस पैसा देता है तो वह भी इसी में से काटा जाएगा। अगर इस फसल चक्र में मजदूरी के लिए अतिरिक्त मजदूर लगाए गए तो उनका भुगतान भी इसी छठे हिस्से यानी 20 क्विंटल से होगा।

आमतौर पर, सीज़न की शुरुआत में किसान और मजदूर के बीच एक मौखिक अनुबंध होता है। किसान 15-20000 रुपए मजदूर को एडवांस देता है। अनुबंध पक्का होने पर मजदूर खेती के काम में परिवार समेत लग जाएगा और पूरे खरीफ़ और कभी-कभी रबी सीज़न तक वहां रहेगा। यह छह महीने से साल भर का प्रवास हो सकता है।

खेतों में काम करते हुए किसान-प्रवासी किसान
ज़मीन के छह हिस्से कुछ इस तरह से विभाजित हैं: ज़मीन, पानी, बीज, खाद, नई तकनीक, और मजदूर। | चित्र साभार: सरफ़राज़ शेख

भागिया खेती में मजदूर की वास्तविकता क्या है?

ज़मीन के छह हिस्से कुछ इस तरह से विभाजित हैं: ज़मीन, पानी, बीज, खाद, नई तकनीक, और मजदूर। किसानों का कहना है कि नई तकनीक के कारण मज़दूरों को कम मेहनत करनी पड़ती है तो एक हिस्सा उसका भी रहेगा। लेकिन मजदूर के छठे हिस्से का कोई गणित नहीं है। मजदूर आसानी से मिल रहे हैं तो उसका खामियाजा मजदूर ही भुगतते हैं।

1. न्यूनतम मजदूरी: गुजरात में कृषि न्यूनतम मजदूरी 268 रुपए है। जब मजदूर शेयर क्रॉपिंग में जाते हैं तो यह मजदूरी घट कर ₹100 के करीब हो जाती है। न्यूनतम मजदूरी के मुक़ाबले यह हिसाब मजदूर के लिए बड़ा घाटा साबित होता है।

2. स्पष्ट कानून की कमी: हिस्से की खेती का कोई कानून नहीं है। मजदूर और मालिक के बीच यदि कोई विवाद हो जाए तो न्याय हो पाना बहुत मुश्किल है। श्रम अधिनियम में दैनिक मजदूरी के भुगतान का प्रावधान है। लेकिन कृषि कार्यों में दैनिक मेहनताना जैसी कोई व्यवस्था ही नहीं है। इसलिए विवादित मामलों में कई बार स्वयं को मजदूर साबित करना तक मुश्किल हो जाता है। ऐसी स्थिति में बिना भुगतान के ही मजदूर को खाली हाथ घर वापस आना पड़ता है। एक मजदूर जब बाहर मजदूरी करने जाता है तो वह राजनैतिक और सामाजिक रूप से कुछ करने में सक्षम नहीं होता। 

3. एडवांस का गणित: किसान मज़दूरों को एक साथ एडवांस देने की बजाय किस्तों में पैसा देते हैं। सबसे पहले, जब मजदूर खेत देखने जाता है तो वहीं सब तय हो जाता कि वह कितने मजदूर लाएगा और किसान उसे कितना एडवांस देगा। उदाहरण के लिए, अगर 30000 रुपए की बात हुई तो शुरुआत में किसान 15 हजार देगा और दूसरी किस्त राखी के त्योहार (अगस्त) पर देगा। जुलाई और अगस्त खेती के लिए भी बहुत ज़रूरी होते हैं। जून में बुवाई का काम शुरू होता है और अगस्त तक फसल के साथ खरपतवार हटाना, कीट नाशक स्प्रे जैसे मुख्य काम होते हैं। किसान एडवांस में जितना पैसा देता है, उतनी मजदूरी किसान उनसे करवा लेता है। अगर किसान की मजदूर के साथ नहीं बनती तो वह दूसरी किस्त दिए बगैर उसे रवाना कर देता है। इसमें मजदूर का पूरा साल खराब होता है क्योंकि मजदूर को अब कहीं कोई और नई जगह भागिया में रखने वाला नहीं होगा, सबने इस समय तक अपने-अपने हिस्सेदार रख लिए होंगे। ऐसे में मजदूर पूरे साल के लिए बेरोजगार हो जाता है। ऐसी परिस्थितियों में कई बार वह कर्ज में आ जाता है।

4. अतिरिक्त मजदूरी: खेती के काम में बहुत बार ऐसा होता है कि तय मजदूर के अतिरिक्त भी और मज़दूरों को काम में लगाना पड़ता है। अतिरिक्त मजदूरों की मजदूरी भागिया के हिस्से से दी जाती है। आमतौर पर भागिया भी इसे सही मानते हैं।

किसानों को क्या नफानुकसान हैं?

1. सस्ता एवं सामाजिक रूप से कमजोर मजदूर: एक से दूसरे गांव में प्रवास के चलते किसानों को साल भर के लिए एक सस्ता मजदूर मिल जाता है। मजदूर के दूसरे राज्य होने के कारण उस पर किसान के राज्य के नीतिगत कानून भी लागू नहीं होते हैं। राज्य सरकार भी प्रवासी मजदूरों की प्रति ज्यादा जवाबदेह नहीं है तो उनके मामले भी खुलकर सामने नहीं आते हैं। किसान भी राजनीतिक और सामाजिक रूप से सक्षम और सशक्त, स्थानीय मज़दूरों को रखने से परहेज़ करते हैं।

2. मनचाही फसल-मनचाहा हिस्सा: आदिवासी मजदूर शहरों में जाने की बजाय गांव में आना ज्यादा पसंद करता है। यह काम उसके लिए परिचित होता है और किसान यह बात समझ गए हैं। इसलिए मजदूर का हिस्सा किसान तय करते हैं। बनासकांठा में आलू की बहुत फसल होती है तो उसमें किसान 10वां हिस्सा तक देते हैं क्योंकि इसमें मुनाफ़ा ज़्यादा है।

3. मजदूरी खर्च: मजदूरी का सारा खर्चा मजदूर के हिस्से में जाता है। खेती का काम में लगभग 50 प्रतिशत लागत और 50 प्रतिशत मजदूरी में खर्च होता है। बीज, पानी, दवाई और बिजली का खर्च एक तरफ और मजदूरी एक तरफ। हिस्से की खेती में मजदूर के हिस्से से इन सभी कामों का और साथ ही, अतिरिक्त मजदूर का भी खर्चा निकल जाता है जिससे किसान का मुनाफा बढ़ जाता।

किसानों के लिए अभी तक एक ही नुकसान सामने आया है कि कई बार ऐसे भागिये किसान के हाथ लग जाते हैं जो एडवांस लेकर चले जाते हैं और काम पर नहीं आते हैं। ऐसा अभी तक 2-3 प्रतिशत केस में देखने को मिला है। किसान का पैसा और मजदूर दोनों चले जाते हैं तो उसे नया आदमी ढूंढना पड़ता है। एक अंदाज़े के मुताबिक़, गुजरात के इन दो ज़िलों में ही लगभग 90 हजार से ज्यादा किसान हैं और सबके पास अपने भागिये हैं। कृषि मजदूर का जब नाम आता है तो आज भी दिहाड़ी मजदूरों की धारणा मन में आती है। लेकिन उससे हटकर यह 30-40 हजार मज़दूर राजस्थान और गुजरात में हिस्से की खेती का काम करते हैं। इन मज़दूरों की जनसंख्या अभी तक किसी को दिखाई नहीं दी है।

अगर आप इस विषय के बारे में सरफ़राज़ शेख की आवाज़ में सुनना चाहते हैं तो यहाँ सुनें।

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लेखक के बारे में
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सरफराज़ शेख़

सरफराज़ शेख़, राजस्थान और उत्तर गुजरात में सक्रिय संस्था कोटड़ा आदिवासी संस्थान से जुड़े हैं। इससे पहले वे कोटड़ा, उदयपुर में आस्था संस्थान के साथ चार वर्षों तक काम कर चुके हैं। उन्हें दक्षिणी राजस्थान में आदवासी और कामगारों से जुड़े मुद्दों जैसे क़ानूनी अधिकार, आजीविका और नेतृत्व विकास से संबंधित प्रयासों में 20 वर्षों का अनुभव है।

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