June 5, 2024

आदिवासी महिलाओं के साथ काम करने वाली संस्थाएं, इन पांच आंकड़ों पर ध्यान दें 

प्रदान द्वारा जारी आदिवासी आजीविका रिपोर्ट के महिलाओं से जुड़े कुछ आंकड़े जो शिक्षा, स्वास्थ्य, निर्णय क्षमता जैसे विषयों पर उनकी स्थिति का पता देते हैं।
5 मिनट लंबा लेख

समाजसेवी संस्था प्रदान द्वारा जनवरी में जारी की गई, आदिवासी आजीविका की स्थिति रिपोर्ट, 2022 मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदायों की बात करती है। रिपोर्ट के लिए, इन राज्यों के 22 ज़िलों के 55 ब्लॉकों में 6019 परिवारों का सर्वेक्षण किया गया था। इनमें 4745 आदिवासी, 393 विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समुदाय (पर्टिकुलरली वल्नरेबल ट्राइबल ग्रुप – पीवीटीजी) और 881 गैर-आदिवासी समुदायों से आने वाले परिवार थे। रिपोर्ट मुख्य रूप से बताती है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में आदिवासी परिवारों की वार्षिक आय 73,900 और 53,610 रुपए मात्र है।

हालांकि इस प्रमुख आंकड़े के अलावा रिपोर्ट आदिवासी आजीविका को चलाने वाले सामाजिक और सांस्कृतिक नियमों, संसाधनों, परिवार की विशेषताओं और आजीविका प्रथाओं पर भी बात करती है। लेकिन इस आलेख में हम उन पांच महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जो आदिवासी समाज में महिलाओं की सामाजिक स्थिति को स्पष्टता से दिखाते हैं।

रिपोर्ट में कुछ उत्तरदाताओं और आदिवासी मामलों के विशेषज्ञों के हवाले से कहा गया है कि यह धारणा कि आदिवासी समाज में महिलाओं की स्थिति अन्य समाज के अपने समकक्षों की तुलना में बेहतर होती है, सही नहीं हैं। वे कहते हैं कि जीवनसाथी चुनने, पुनर्विवाह करने और घर से बाहर जाकर काम करने जैसी बातों को देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि आदिवासी महिलाओं को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता मिलती है। लेकिन रिपोर्ट बताती है कि इसके कारण महिलाओं पर काम का अतिरिक्त दबाव भी है। आदिवासी महिलाएं ज़्यादातर घरेलू काम करने के साथ-साथ, जंगलों में जाती हैं और, ईंधन और वनोपज इकट्ठा करती हैं। इसके अलावा वे खेती, मज़दूरी, सब्ज़ियां बेचने जैसे काम भी करती हैं।

दूसरी ओर, आदिवासी महिलाओं के सशक्तिकरण पर चल रही तमाम योजनाओं और समाजसेवी संस्थाओं के जागरुकता प्रयासों और कार्यक्रमों की कमी नहीं हैं। लेकिन इन सबके बीच शिक्षा, स्वास्थ्य, फ़ैसले लेने की क्षमता, मोबाइल जैसे माध्यमों तक पहुंच वग़ैरह को लेकर आदिवासी महिलाओं की स्थिति क्या है, यह उन आंकड़ों से समझते हैं जिन पर सरकारों और समाजसेवी संस्थाओं को गौर करना ज़रूरी है। 

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आदिवासी आजीविका रिपोर्ट_देहात में महिलायें
समुदाय की लगभग आधी महिलाएं पढ़ने, लिखने और बुनियादी गणित के सवाल हल करने जैसे काम नहीं कर सकती हैं। | चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

शिक्षा की स्थिति

मध्य प्रदेश में 58.3 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 49 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिनमें परिवार के मुखिया ने कोई स्कूली शिक्षा हासिल नहीं की है। वे परिवार जिनकी मुखिया महिलाएं हैं, उनके लिए यह आंकड़ा मध्य प्रदेश में 75.3 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 72 प्रतिशत है। यह समुदाय में महिलाओं की कमजोर शैक्षणिक स्थिति की ओर इशारा करता है। परिवार मुखिया की बात करते हुए इस आंकड़े पर भी गौर किया जा सकता है कि मध्य प्रदेश में, अनुसूचित जनजाति से आने वाले 25 वर्ष से अधिक आयु के 50 प्रतिशत वयस्क असाक्षर हैं। छत्तीसगढ़ में यह 41 प्रतिशत है। लेकिन रिपोर्ट यह भी बताती है कि समुदाय की लगभग आधी (मध्य प्रदेश में 52 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 54 प्रतिशत) महिलाएं पढ़ने, लिखने और बुनियादी गणित के सवाल हल करने जैसे काम नहीं कर सकती हैं। इन आंकड़ों से समझा जा सकता है कि आदिवासी महिलाओं में अपने अधिकारों को लेकर जागरुकता, अगली पीढ़ी की शिक्षा को लेकर उत्साह और पोषण-स्वास्थ्य वग़ैरह जैसी ज़रूरतों की अनदेखी होना स्वाभाविक ही लगता है।

आहार विविधता और खाद्य सुरक्षा

आहार विविधता से भोजन की पोषण गुणवत्ता जांची जाती है। रिपोर्ट में इसे समझने के लिए संयुक्त राष्ट्र के मानक, खाद्य उपभोग स्कोर (एफसीएस) का इस्तेमाल किया गया है। इसमें 0-21 को खराब, 21.5-35 को सीमांत (बॉर्डरलाइन) और 35 से अधिक को स्वीकार्य आंकड़ा माना जाता है। रिपोर्ट में परिवारों और महिलाओं की आहार विविधता का आकलन अलग-अलग किया गया है। यह देखना दिलचस्प है कि अन्य समाजों से उलट आदिवासी समाज में इन दोनों आंकड़ों में बहुत अधिक अंतर नहीं है। पहले मध्य प्रदेश की बात करें तो स्वीकार्य आहार विविधता वाली आदिवासी महिलाओं का प्रतिशत 58.1, सीमांत के लिए 37.7 प्रतिशत और ख़राब के लिए यह प्रतिशत 4.2 है जबकि परिवारों के लिए यही आंकड़े क्रम से 58.7 प्रतिशत, 37.1 प्रतिशत और 4.2 प्रतिशत है। इसका मतलब है कि लगभग आधे से अधिक परिवार और महिलाएं ठीक-ठाक गुणवत्ता का भोजन करते हैं।

छत्तीसगढ़ में आहार विविधता के आंकड़े मध्य प्रदेश जितने बेहतर नहीं दिखते हैं लेकिन परिवारों और महिलाओं के लिए आंकड़ों में अंतर यहां पर भी न के बराबर मिलता है। राज्य में स्वीकार्य आहार विविधता वाली महिलाओं का प्रतिशत 36.1, सीमांत के लिए 61.9 प्रतिशत और ख़राब के लिए 2.0 प्रतिशत है। वहीं, परिवारों के लिए यही आंकड़े क्रम से 36.7 प्रतिशत, 61.5 प्रतिशत और 2.2 प्रतिशत हैं।

देखने में सकारात्मक लगने वाले, आहार विविधता के आंकड़ों को अगर खाद्य सुरक्षा के आंकड़ों के साथ देखा जाए तो यह उतनी बढ़िया तस्वीर पेश नहीं करते हैं। खाद्य सुरक्षा से मतलब, लोगों के पास हर समय पर्याप्त, सुरक्षित और पौष्टिक भोजन उपलब्धता होना है। रिपोर्ट बताती है कि मध्यप्रदेश में 25.9 प्रतिशत आदिवासी ही भोजन की उपलब्धता को लेकर सुरक्षित महसूस करते हैं यानी एक चौथाई आदिवासियों के पास ही हर समय भोजन है। परिवार की महिला सदस्यों के मामले में यह आंकड़ा 30.1 प्रतिशत है। छत्तीसगढ़ के लिए यह आंकड़े लगभग दोगुने दिखाई देते हैं जहां 49.7 प्रतिशत परिवार खाद्य सुरक्षित हैं और महिलाओं के लिए यह आंकड़ा 49.3 प्रतिशत है।

आजीविका के स्रोत

आदिवासी समुदाय की आजीविका के प्रमुख स्रोतों में कृषि, पशुपालन, वनोपज संग्रहण और बिक्री, मज़दूरी, वेतन या पेंशन और कुछ गैर-कृषि गतिविधियां प्रमुख हैं। जैसा कि आलेख की शुरूआत में भी ज़िक्र किया गया है कि आदिवासी महिलाएं घरेलू कामों से लेकर कृषि, पशुपाल, वनोपज संग्रहण जैसे तमाम काम करती हैं और इसी के कारण उनके ऊपर काम का अतिरिक्त दबाव भी देखने को मिलता है। हालांकि आजीविका कमाने में महिलाओं की भागीदारी बताने वाला कोई आंकड़ा रिपोर्ट में सीधे तौर पर नहीं दिया गया है लेकिन विभिन्न स्रोतों से परिवारों को होने वाली आय के आंकड़ों पर गौर करें तो महिलाओं की भागीदारी का अंदाज़ा मिलता है।

मध्य प्रदेश के लिए विभिन्न स्रोतों से परिवार को होने वाली सालाना कुल आय जहां 73,900 रुपए हैं, वहीं महिला प्रधान परिवारों के लिए यह औसत आंकड़ा 79,108 है। छत्तीसगढ़ की बात करें तो परिवार की सालाना औसत आय 53,610 रुपए और महिला प्रधान परिवारों के लिए 52,109 रुपए है। हालांकि महिलाओं से जुड़ा यह आंकड़ा, परिवार की आय वाले कुल नमूने में शामिल है। फिर भी इनका मध्य प्रदेश में आठ प्रतिशत अधिक और छत्तीसगढ़ में लगभग बराबर होना, आजीविका कमाने में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका की तरफ़ इशारा करता है।

मोबाइल फ़ोन तक पहुंच

मध्य प्रदेश के 66 प्रतिशत आदिवासी गांवों और छत्तीसगढ़ के 72 प्रतिशत आदिवासी गांवों तक कम से कम एक मोबाइल नेटवर्क की उपलब्धता है। जहां तक मोबाइल के स्वामित्व का सवाल है, मध्य प्रदेश में 6.9 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 11.2 प्रतिशत महिलाओं के पास अपना मोबाइल फ़ोन है जबकि पुरुषों के लिए ये आंकड़े इन राज्यों के लिए क्रम से 18 और 20 प्रतिशत है। वहीं, स्मार्टफ़ोन की बात करें तो मध्य प्रदेश में चार प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 7.2 प्रतिशत आदिवासी महिलाओं के पास उनके निजी स्मार्टफ़ोन हैं। इन आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि आदिवासी समाज के एक बहुत छोटे तबके तक ही अभी मोबाइल और इंटरनेट जैसी सुविधाओं की पहुंच बन सकी है। मोबाइल नेटवर्क की उपलब्धता और कमाई के आंकड़ों को एक साथ देखें तो अंदाज़ा लगता है कि सीमित पहुंच का बड़ा कारण लोगों की जेब में पैसे ना होना है।

फ़ैसला लेने की क्षमता

रिपोर्ट आदिवासी समाज में महिलाओं के पास अधिक स्वायत्तता होने की धारणा पर भी बात करती है और बताती है कि पारिवारिक निर्णयों से जुड़े आंकड़े कोई और ही कहानी कहते हैं। यह सर्वे करते हुए बच्चों की शिक्षा, आजीविका, दैनिक ख़रीदारी, संपत्ति, ऋण समेत मायके जाने या परिवार का आकार तय करने जैसे तमाम छोटे-बड़े फ़ैसलों को लेकर सवाल पूछे गए थे। इनके जवाबों पर आधारित आंकड़े बताते हैं कि आदिवासी महिलाओं की स्थिति भी अन्य समाजों से बहुत अलग नहीं हैं। हालांकि आंकड़े यह कहते हैं कि आदिवासी परिवारों में आधे से अधिक फ़ैसले संयुक्त रूप से लिए जाते हैं लेकिन साथ ही यह भी बता देते हैं कि परिवार की महिला सदस्यों की राय को पुरुषों जितना महत्व नहीं मिलता है।

मध्य प्रदेश में, ऊपर ज़िक्र किए गए तमाम विषयों से जुड़े फ़ैसलों में 47 से 52 प्रतिशत फ़ैसले आदिवासी परिवार संयुक्त रूप से लेता है। पुरुष जहां 17 प्रतिशत फ़ैसले ख़ुद कर सकते हैं वहीं महिलाओं के लिए यह आंकड़ा आठ प्रतिशत है। इसी तरह, परिवार में वयस्क बेटा लगभग 4 प्रतिशत फ़ैसले ले सकता है तो बेटियां केवल 0.1 प्रतिशत फैसले ले सकती हैं। वहीं, छत्तीसगढ़ में परिवार संयुक्त रूप से लगभग 72 प्रतिशत फ़ैसले लेते हैं। यहां महिलाओं की स्थिति कहीं बेहतर नज़र आती है, पुरुष जहां लगभग दो प्रतिशत मामलों में फ़ैसले लेते हैं, वहीं महिलाएं लगभग सात प्रतिशत तक फ़ैसले ख़ुद करती हैं। बेटे-बेटियों के बीच का अंतर यहां पर भी बना रहता है और बेटे लगभग पांच प्रतिशत फ़ैसले ख़ुद तय करते हैं तो बेटियों का औसत 0.3 प्रतिशत है।

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लेखक के बारे में
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अंजलि मिश्रा

अंजलि मिश्रा, आईडीआर में हिंदी संपादक हैं। इससे पहले वे आठ सालों तक सत्याग्रह के साथ असिस्टेंट एडिटर की भूमिका में काम कर चुकी हैं। उन्होंने टेलीविजन उद्योग में नॉन-फिक्शन लेखक के तौर पर अपना करियर शुरू किया था। बतौर पत्रकार अंजलि का काम समाज, संस्कृति, स्वास्थ्य और लैंगिक मुद्दों पर केंद्रित रहा है। उन्होंने गणित में स्नातकोत्तर किया है।

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इंद्रेश शर्मा

इंद्रेश शर्मा आईडीआर में मल्टीमीडिया संपादक हैं और वीडियो सामग्री के प्रबंधन, लेखन निर्माण व प्रकाशन से जुड़े काम देखते हैं। इससे पहले इंद्रेश, प्रथम और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च संस्थाओं से जुड़े रहे हैं। इनके पास डेवलपमेंट सेक्टर में काम करने का लगभग 12 सालों से अधिक का अनुभव है जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता, पोषण और ग्रामीण विकास क्षेत्र मुख्य रूप से शामिल रहे हैं।

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