बिहार के पटना जिले के खुसरूपुर की किशोर लड़कियों को अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए कई तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है। आंगन में अपने काम से मैंने यह महसूस किया कि इसके कई कारण हैं जिसमें इन लड़कियों की सुरक्षा एक महत्वपूर्ण कारण है।
साल 2021 से, आंगन जिला पुलिस के साथ ‘सुरक्षा पैनल’ बनाने के लिए काम कर रहा है। ये ऐसे समूह हैं जो समुदाय की महिलाओं और लड़कियों से बने होते हैं और स्थानीय थाने से जुड़े होते हैं। मैं खुसरूपुर सुरक्षा पैनल की सदस्य हूं, और हम सार्वजनिक स्थानों को लड़कियों के लिए सुरक्षित बनाने सहित बाल सुरक्षा के मुद्दों पर काम करने के लिए अपने स्थानीय पुलिस स्टेशन के साथ सक्रियता और सहयोगपूर्ण भावना के साथ काम करते हैं।
लड़कियों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए उनकी बातों को सुनना महत्वपूर्ण है। जब हमारी सुरक्षा पैनल ने खुसरूपर में मिडिल स्कूल में पढ़ाई करने वाली कुछ लड़कियों से बात की तो हमने पाया कि उनमें से कुछ लड़कियों को स्कूल में लड़कों से बात करने के कारण निलंबित कर दिया गया था। प्रधानाध्यापक के अनुसार, लड़कियों को दंडित करके ही स्कूल में मर्यादा और अनुशासन को बरकरार रखा जा सकता था। हालांकि, ऐसी परिस्थितियों में लड़कों के निलंबन के एक भी उदाहरण नहीं पाये गये। हमने प्रधानाध्यापक से इस भेदभावपूर्ण नीति की समीक्षा करने का निवेदन किया।
अतीत में, निलंबन के बाद घर पर उन लड़कियों के साथ और भी कठोर कार्रवाई की जा चुकी है। अभिभावकों ने उन लड़कियों के वापस स्कूल लौटने पर प्रतिबंध लगा दिया गया और उनकी पढ़ाई बंद करवा दी गई। कुछ लड़कियों की तो शादी भी कर दी गई थी।
लड़कियों की शिक्षा के रास्ते में अन्य बाधाएं भी हैं। उदाहरण के लिए, स्कूल जाने और स्कूल से लौटने के रास्ते में उनका पीछा किया जाता है उन्हें परेशान किया जा सकता है, जिससे उनकी उपस्थिति और ग्रेड प्रभावित होते हैं। ऐसे मामलों में भी, अपनी बेटियों के कम अंकों को देखकर अभिभावक उन्हें स्कूल से निकाल लेते हैं।
अपनी पढ़ाई के रुक जाने की संभावना को देखते हुए लड़कियों को अपने शिक्षकों या माता-पिता से अपनी समस्याओं के बारे में बातचीत करने में झिझक होती है। उनका कहना है कि, ‘स्कूल जाने से रोके जाने के डर से हम पीछा करने या उत्पीड़न के बारे में अपने माता-पिता से बात नहीं कर सकते हैं।’ वे इस ग़लत तथ्य से और भी हतोत्साहित हो जाते हैं कि एक-दूसरे से बात करने के लिए केवल उन्हें ही डांटा जाता है, लड़कों को नहीं।
उनकी चिंताओं और असुरक्षाओं से अवगत, सुरक्षा पैनल को पता था कि खुलेपन और विश्वास की भावना को बढ़ावा देने के लिए लड़कियों और उनकी माताओं के बीच बातचीत को सुविधाजनक बनाना महत्वपूर्ण है। और इसलिए हमने एक कार्यक्रम शुरू किया जिसने मांओं को अपनी बेटियों की समस्याओं और आकांक्षाओं के बारे में जानने के लिए उनकी बातें सुनने के लिए प्रोत्साहित किया गया। युवा लड़कियां, अपने पिता की तुलना में अपनी मां के साथ अपनी समस्याओं पर चर्चा करने में अपेक्षाकृत अधिक सहज महसूस करेंगी। अपनी बेटियों के जैसा अनुभव रखने वाली मांओं में उनके प्रति अधिक सहानुभूति पाई गई। घर के भीतर बातचीत शुरू करने के अलावा, स्थानीय पुलिस के साथ मिलकर उन रास्तों पर गश्त लगाने का काम शुरू किया गया, जहां से लड़कियां आमतौर पर स्कूल जाती हैं। इन सभी प्रयासों के माध्यम से उन्हें सार्वजनिक स्थानों पर उत्पीड़न से भी बचाया जाता है। ये सरल हस्तक्षेप सफल साबित हुए हैं क्योंकि वे न केवल मुट्ठी भर लड़कियों के लिए बल्कि एक समुदाय के रूप में उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं।
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पूनम माई 2021 से बिहार के खुसरूपुर में आंगन के साथ काम कर रही हैं।
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मध्य प्रदेश के भावरा गांव के जंगलों से निकलने वाली ओरसंग नदी गुजरात के छोटाउदेपुर जिले से गुज़रती है। यह नदी इस इलाक़े के लोगों को जीवन देने वाली है। छोटाउदेपुर जिला आदिवासियों और उनकी संस्कृति के साथ डोलोमाइट, ग्रेनाइट और रेत जैसी खनिज संपदाओं से भरपूर होने के कारण जाना जाता है। ओरसंग नदी, जिले में रेत खनन का मुख्य केंद्र है। पिछले दो दशकों से यहां रेत खनन बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है। इसके चलते छोटाउदेपुर के आसपास लगभग 55 किलोमीटर का नदी का तट 10 से 15 फुट तक गहरा हो गया है।
इस नदी की रेत की मांग निर्माण (कन्स्ट्रकशन) उद्योग में ज़्यादा है। इसके चलते उसको बेचकर होने वाले फायदे को देख कर धीरे-धीरे यहां रेत माफिया बन गए जिन्होंने गैरकानूनी रेत खनन शुरू कर दिया। नदी के किनारों पर हर रात को अब 10-12 ट्रक रेत खनन करते हुए दिख जाते हैं।
अंधाधुंध खनन का खामियाजा यहां के स्थानीय लोग भुगत रहे हैं। पहले नदी के आसपास के कई किलोमीटर तक बोरवेल के जल का स्तर नीचे नहीं जाता था और नदी के तट पर छोटे गड्ढे खोदते ही पानी ऊपर आ जाता था। लेकिन अब यहां पर पानी का स्तर बहुत नीचे चला गया है जिसके चलते पानी की दिक्कतें भी बढ़ गई हैं। इतना ही नहीं, जहां ओरसंग की पूरक नदियां जैसे ऐनी नदी, भरज नदी, हेरान नदी, मेरिया नदी पहले गर्मी के मौसम तक नहीं सूखती थी, वे अब सर्दी आने से पहले ही सूख जाती हैं जो पानी की कमी का कारण है। इसके चलते लोगों को अब उधार पर पानी खरीदना पड़ता है।
छोटाउदेपुर के नदी तट के गावों में जंगली जानवरों के हमले भी बढ़ गए हैं क्योंकि इलाक़े में दिन-रात हो रहे रेत खनन के चलते जानवरों को नदी का पानी नहीं मिल पा रहा है। इसके चलते वे पानी की खोज में गांवों की ओर निकल पड़ते हैं।
भारी रेत खनन के कारण ही 2023 में बारिश के मौसम में सिहोद पुल की नींव बाहर आ गई थी। ऐसा इसीलिए हुआ क्योंकि बारिश में नदी के ज़ोर को रोकने का काम रेत करती थी—जो अब नहीं हो पाता है। नदी में अब रेत की जगह नीचे की मिट्टी दिखने लगी है। ओरसांग नदी की कई ऐसी जगहें हैं जहां ज्यादा रेत खनन होने के कारण मिट्टी और पत्थर बाहर आ गए हैं।
अत्यधिक रेत खनन के चलते नदी का कटाव तेजी से हो रहा है और इसके चलते ओरसांग नदी पर बने पुलों की नींव अब सुरक्षित नहीं रह गई है। छोटा उदयपुर जिला के बहादरपुर का संखेडा पुल, बोडेली तहसील के नजदीक बना ढोकलिया मोडासर पुल, ओरसांग एक्वेडकट जेतपुर पावी से रतनपुर पुल, ऐसे कई पुल हैं जिनकी नींव पूरी तरह से खतरे में है। इस तरह से सभी पुलों की नींव पर मंडरा रहे इस खतरे की असल वजह बड़े पैमाने पर हो रहा रेत खनन ही है। नदियों में हो रहे रेत खनन की वजह से नदियों के किनारे हुए निर्माण अब असुरक्षित होते जा रहे हैं।
आसपास की कुछ ग्राम पंचायतों ने अपने इलाके में बहने वाली नदी में रेत खनन को रोकने की मुहिम शुरू की है—इस उम्मीद में कि उनकी नदी, उसका पानी और रेत लंबे समय तक बरकरार रह सकें। पानी और रेत का संरक्षण करने के लिए उन्होंने नदी पर छोटे-छोटे चेक डैम भी बनाए हैं।
दूसरे पैराग्राफ में एक तथ्यात्मक गलती को ठीक करने के लिए इस लेख को 18 दिसंबर, 2023 को अपडेट किया गया था।
सेजल राठवा एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और गुजरात के छोटाउदेपुर जिले में रहती हैं।
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मेरा नाम मनोज कुमार है और मैं हरियाणा के झज्जर जिले के बेरी गांव का रहने वाला हूं। मैंने जो जीवन जिया उसके बड़े हिस्से में मुझ पर पुरुषवादी सोच पूरी तरह से हावी रही। मैं हमारे आस-पास की सामाजिक सोच में मैं पूरी तरह ढला हुआ था।
जब मैं विकास सैक्टर से जुड़ा, तब मेरे इस व्यवहार में कुछ बदलाव आए। सबसे पहले मैंने जे-पाल नाम की समाजसेवी संस्था के साथ सर्वे करने का काम किया जो कि लैंगिक भेदभाव पर था। उसके बाद मैं ब्रेकथ्रू संस्था से जुड़ा जहां मेरी पितृसत्तामक सोच व लैंगिक भेदभाव पर बहुत चर्चा और ट्रेनिंग हुई। ये काम करना भी उस समय मेरे लिए महज़ एक नौकरी थी। मैं लिंग आधारित रूढ़िवादी भूमिकाओं में विश्वास करता था लेकिन जैसे-जैसे मैं ये काम करता जा रहा था, मुझे समझ आने लगा कि मैं कहां गलत हूं। अब मैं अपनी ग़लतियों को सुधारने की पूरी कोशिश कर रहा हूं। शुरूआत में तो मेरे साथियों, पड़ोसियों और तमाम लोगों ने मुझ में आए इस बदलाव को लेकर मेरा मज़ाक बनाया। लेकिन अब धीरे-धीरे मेरे जैसी सोच के लोग भी मुझसे जुड़े लगे हैं। कुछ दोस्त मुझे ब्रेकथ्रू कहकर बुलाते हैं, शायद इसलिए क्योंकि मैं पुरानी रवायतों को तोड़ता हूं।
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उदयपुर जिले के कोटड़ा ब्लॉक में स्थित गांव महाद लगभग 500 साल पुराना है। सन 1983 में इसे फुलवारी की नाल वन्य अभयारण्य में शामिल कर लिया गया था। तब से यह गांव अपनी मूलभूत सुविधाओं जैसे आजीविका, प्राथमिक विद्यालय, सड़क, पानी और बिजली के लिए जूझ रहा है।
साल 1983 में अभयारण्य घोषित किए जाने के फैसले की गंभीरता और असर का अंदाज़ा गांव वालों को तब हुआ, जब 2002 में वन विभाग ने उन्हें तेंदू पत्ता तोड़ने से मना कर दिया। कुछ लोग तेंदू पत्तों को व्यापारियों को बेच कर अपनी आजीविका चलाते थे। आखिरकार, साल 2006 में वन अधिकार अधिनियम (एफ़आरए) आने के बाद इलाके के लोगों में एक उम्मीद जगी कि अब उन्हें अपनी ज़मीन का पट्टा मिल सकेगा। लेकिन 2008 में कानून लागू होने के बाद से अब तक, यहां के 330 दावेदारों में बस 89 लोगों को ही ज़मीन का पट्टा मिला है। उनके लिए भी यह प्रक्रिया सहज नहीं रही है।
वन विभाग लोगों को यह अधिकार गूगल सैटेलाइट इमेज के आधार पर दे रहा है – मतलब दावे में लिखे ज़मीन के कोआर्डिनेट वन विभाग वाले गूगल अर्थ पर डालते हैं। उससे आई तस्वीरों का मुआइना करते हैं कि 2005 से पहले ज़मीन पर कोई बसा हुआ लग रहा है या नहीं, और उसके मुताबिक दावे को स्वीकार या अस्वीकार करते हैं। लेकिन कानून कहता है कि किसी भी तकनीक, जैसे सैटेलाइट इमेजरी, का उपयोग दावेदार द्वारा प्रस्तुत प्रमाण या सबूत के साथ केवल सहयोग के लिए किया जाना चाहिए। इसे इन अन्य सबूतों की जगह प्रमाण के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
एफ़आरए का कानून 13 दिसम्बर, 2005 से पहले वन्य ज़मीन पर रहने वालों को अधिकतम लगभग 16 बीघा ( चार हेक्टेयर) ज़मीन पर हक देने की बात करता है जिससे उनकी आजीविका चल सके। आजीविका से मतलब यहां पर खेती-बाड़ी हो सके, या आदिवासी घास उगा सकें ताकि वे पशु-पालन कर सकें। लेकिन जब विभाग सैटेलाइट इमेज के आधार पर भूमि के इन टुकड़ों की रूपरेखा तैयार करता है और उन्हें हरियाली, जानवर और जुती हुई भूमि नहीं दिखते हैं। ऐसे में वे दावे को खारिज कर देते हैं। ऐसा होने से जहां गांव वालों ने 5-7 बीघा ज़मीन का पट्टा मांगा है, वहां उन्हें केवल डेढ़-दो बीघा ज़मीन ही मिल पाती है। गांववाले कहते हैं, ‘मान लीजिए मैंने दो बीघा जमीन पर खेती की और दो बीघा पशुओं के चारे के लिए छोड़ दी तो गूगल के अनुसार तो वह जमीन मेरी नहीं है क्योंकि वह जोती हुई नहीं दिख रही।’ वे आगे पूछते हैं कि ऐसे अधिकार पत्र से हमें क्या फ़ायदा? इस ज़मीन के सहारे हम अपना घर और आजीविका कैसे चलायें?
गांव के लोग बताते हैं कि ‘ये लड़ाई 15 वर्षों से जारी है, हमारी पीढ़ियां तो इसी जमीन में पनपीं, अब हमारे बच्चे यहां रह पाएंगे या नहीं ये ही चिंता खाए जाती है’।
इस परिस्थिति को बदलने के लिए गांव वालों ने 2023 में धरना प्रदर्शन किया था। इसके बाद वन विभाग ने माना की मानवीय भूल के कारण गलती हो सकती है और उसमें सुधार करने की कोशिश की जाएगी।
सरफराज़ शेख़, राजस्थान और उत्तर गुजरात में सक्रिय संस्था कोटड़ा आदिवासी संस्थान से जुड़े हैं। धरमचन्द खैर आदिवासी विकास मंच में मुख्य संचालक संयोजक हैं।
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ओडिशा के कोरापुट जिले में कई सालों तक मानसून और जाड़े ही दो मुख्य मौसम हुआ करते थे। लेकिन इस साल, पूरे एक महीने तक गर्मी का मौसम रहा। इस इलाके में जहां जून महीने से भारी बारिश होती है, वहां इस साल मानसून अगस्त में ही आ सका।
बारिश में आई इस देरी ने लोगों की सहज जीवनशैली को अस्त व्यस्त कर दिया है। इलाक़े के गांवों में लोगों द्वारा देसरी (गांव का पुरोहित) से मिलकर अपने त्योहारों के लिए शुभ समय और तिथि तय करने की परंपरा रही है। चूंकि पूरे साल होने वाली गतिविधियों की योजना खेती के विभिन्न मौसमों के आधार पर बनाई जाती है, इसलिए बारिश के आगे-पीछे होने से त्योहारों के इस कैलेंडर में भी तारीख़ें ऊपर नीचे होने लगी हैं। डोलियाम्बा गांव की रुक्मिणी देउलपाड़िया कहती हैं, ‘पहले हम खेतों की जुताई बैसाख यानी कि मार्च-अप्रैल महीने में करते थे। जून तक बुवाई पूरी हो जाती थी और मानसून के तुरंत पहले हम अच्छी फसल की प्रार्थना करते हुए उआंस नाम का एक पारंपरिक त्योहार मनाते थे। हर साल इस अनुष्ठान के लिए, हम चावल और हल्दी के उपयोग के अलावा, लकड़ी, केंदुकट और पत्तुआ जैसे फल और चारकोली के पत्ते इकट्ठा करते हैं। पहला प्रसाद गांव के देवता को चढ़ाया जाता है, उसके बाद किसान अपने खेतों पर जाकर प्रसाद चढ़ाते हैं। हम अपना यह त्योहार जून के महीने में मनाते थे। लेकिन इस साल अनुष्ठान के लिए चीजों को इकट्ठा करने का काम हमने अगस्त के महीने में शुरू किया।’
मौसम के मिजाज में आने वाला यह अप्रत्याशित बदलाव इस क्षेत्र के निवासियों के लिए कोई नई या हालिया घटना नहीं है। वे पिछले 10–12 वर्षों से बारिश में आई इस अनियमितता का अनुभव कर रहे हैं, जिसका उनकी उपज पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा है। जंगल से एकत्र किये गये खाद्य पदार्थ, जिसमें हरी पत्तियां, मशरूम, बांस के अंकुर, विभिन्न फल और जड़ें शामिल हैं, अनियमित वर्षा, उच्च तापमान के साथ ही लंबे समय तक पड़ने वाली गर्मी के कारण भी प्रभावित होता है। पोटपंडी की सुनीता मुदुली कहती हैं, ‘हमारे आहार में मुख्य खाद्य पदार्थ जैसे बाजरा और धान के साथ-साथ टमाटर, फूलगोभी और बीन्स जैसी सब्जियों पर भी असर पड़ा है। कई ऐसी सब्जियां हैं जिन्हें ख़रीदने के लिए हमें बाज़ार पर निर्भर रहना पड़ता है। हालांकि, बाज़ार में बिकने वाली सब्जियां महंगी होने के साथ-साथ हर किसी की पहुंच में नहीं होती हैं।’
इसके कारण महिलाओं की परेशानियां और अधिक बढ़ गई हैं। अक्सर उन्हें न्यूनतम संसाधनों में रोज का खाना पकाना पड़ता है। इन खाद्य पदार्थों की कमी से पूरे घर के स्वास्थ्य पर असर पड़ा है और उनके पोषण में कमी आई है। इसके अलावा, लंबे समय तक पड़ने वाली गर्मी के कारण आसपास के झरने और जल-स्रोत सूख रहे हैं। महिलाओं को अब पानी और जलावन के लिए लकड़ियां लाने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है।
जैसा कि सोसाइटी फॉर प्रमोटिंग रूरल एजुकेशन एंड डेवलपमेंट (स्प्रेड) के संस्थापक बिद्युत मोहंती के समर्थन से लिली गडबा, रैला गडबा, रुक्मणी देउलपाडिया और सुनीता मुदुली ने आईडीआर को बताया।
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मैं गुजरात के छोटाउदेपुर जिले के पनीबर गांव में रहने वाली एक पत्रकार हूं। यहां से मैं आदिम संवाद नाम का एक यूट्यूब चैनल चलाती हूं जो विभिन्न आदिवासी समुदायों से जुड़े मुद्दों पर बात करता है। राठवा जनजाति से होने के कारण, मैंने अपने जीवन के अलग-अलग चरणों में भेदभाव का अनुभव किया है। इसमें शिक्षकों, सहपाठियों और साथियों का जातिवादी रवैया और टिप्पणियां भी शामिल हैं।
हालांकि राठवा समुदाय को गुजरात में एक अनुसूचित जनजाति माना जाता है, लेकिन इसकी विविधताएं सवाल खड़े करती हैं। हमारे समुदाय के लोग राठवा-कोली या कोली-राठवा जैसे हाइफ़नेटेड उपनाम लिखने के आदी थे, जिसमें या तो उस राज्य, क्षेत्र या गांव का नाम शामिल होता था जिसमें वे रहते थे, या उनके पेशे का नाम जो उन्होंने अपना रखा था। यह समुदाय का अपनी व्यक्तिगत पहचान पर जोर देने का तरीका था। लेकिन जब सरकार ने रेवेन्यू रिकॉर्ड और अन्य कागजात तैयार किए तो उनमें जुड़े हुए उपनामों का ही इस्तेमाल हुआ। इस कारण इन उपनामों को राठवा समुदाय से अलग माना जाता है। मेरा सवाल है कि इतने वर्षों के बाद भी हमारी आदिवासी पहचान इन कागजों के आधार पर क्यों तय की जाती है?
अब यह साबित करने के लिए कि हम वास्तव में आदिवासी हैं, और अपना अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए आदिवासियों को अपने आप को साबित करना पड़ता है। कुछ समय पहले एक कमेटी बनाई गई – ट्राइबल एडवाइजरी कमेटी जिसमें हम आदिवासी है या नही, इसके लिए हमें एफिनिटी टेस्ट देना पड़ता है। इसके लिए हमें कई सवालों का सामना करना पड़ता है। जैसे कि हमारी बोली क्या है, हमारे मुख्य देव कौन हैं, उनका क्या महत्व है? या फिर उनके फ़ोटो भी पेश करने पड़ते हैं।
ये सब होने के बावजूद, हमें अपने दादा-परदादा के स्कूल रजिस्टर या ऐसे ही अन्य रिकॉर्ड पेश करने होते हैं। उसमें भी अगर राठवा मिला तो ही वह सही माना जायेगा अन्यथा उस व्यक्ति को जनजाति प्रमाणपत्र नहीं मिलेगा। अगर किसी के पूर्वज स्कूल नहीं गए तो क्या उन्हें गैर-आदिवासी घोषित कर दिया जाएगा?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ राठवा ही इस समस्या का सामना कर रहे हैं। इसी क्षेत्र में नायक और धानका जनजातियां भी रेवेन्यू रिकॉर्ड में अपने नाम के कारण जाति पहचान के लिए संघर्ष कर रही हैं। राठवा, मध्य प्रदेश में भिलाला जनजाति की एक उपजाति है, जहां ताड़ावाला, बामनिया और जमोरिया जैसी सौ से अधिक भिलाला उपजातियां मौजूद हैं। वे भी अपने राजस्व रिकॉर्ड में हाइफ़नेटेड उपनामों का उपयोग करते हैं, लेकिन उन्हें उनकी राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त है। फिर गुजरात सरकार जातिगत पहचान की इस जटिलता पर विचार क्यों नहीं करती है?
2022 में, राज्य सरकार ने एक नया परिपत्र निकाला जिसमें राठवा अनुसूचित जनजाति के तहत अपना उपनाम कोली-राठवा और राठवा-कोली लिखने वालों को मान्यता देने की बात कही गई थी। ऐसा इसीलिए किया गया ताकि उनके रास्ते में आने वाली बाधाएं को दूर हों और शिक्षा के संबंध में राठवा समुदाय को अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले लाभ प्राप्त हों। लेकिन रेवेन्यू रिकॉर्ड में राठवा उपनाम अभी भी निर्णायक मानदंड है। साथ ही, कोली-राठवा या राठवा-कोली वाले किसी भी व्यक्ति को राजस्व रिकॉर्ड और संस्कृति, परंपराओं, धार्मिक मान्यताओं जैसे अन्य साक्ष्यों का आवेदक द्वारा दायर हलफनामे के अलावा, मूर्तियां, त्यौहार, पहनावा, बोली और विवाह इत्यादि के सत्यापन करने के बाद ही होगा।
ये लड़ाई कब ख़त्म होगी? अगर सर्कुलर बदलता है या कोई हमारी पहचान पर सवाल उठाते हुए मुकदमा दायर करता है तो क्या हमें फिर से संघर्ष करना होगा? यह हमारी जनजाति का डर और चिंता है।
सेजल राठवा एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और गुजरात के छोटाउदेपुर जिले में रहती हैं।
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पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार जिले की नदियां इलाक़े के एक तबके के लिए उनकी आजीविका का मुख्य स्त्रोत बन गई हैं। यहां बहुत से लोग मज़दूरी के साथ-साथ पत्थर बीनने और रेत इकट्ठा करने का काम करते हैं।
इकट्ठा किए गए रेत और पत्थरों को ट्रैक्टरों में भरकर क्रशर तक ले जाया जाता है। यहां पत्थरों को और तोड़कर उन्हें निर्माण कार्य में इस्तेमाल के लायक़ बनाया जाता है। इसके बाद, क्रशर मालिक और कारोबार से जुड़े अन्य लोग इसे आगे बेच देते हैं। आगे इनका इस्तेमाल कंस्ट्रक्शन के काम या बाहर सप्लाई करने के लिए होता है।
इस काम को करने वाले कुछ मजदूर चाय बागान में भी काम करते हैं। लेकिन बाग़ानों में नियमित रूप से रोज़गार नहीं मिलता है या अक्सर बाग़ान ही बंद हो जाते हैं। ऐसे में लोगों के पास रेत-पत्थर का यह काम करने या फिर पलायन कर जाने के ही विकल्प बचते हैं।
स्थानीय लोग, इसे लेकर एक अलग ही पक्ष सामने लाते हैं। उनका कहना है कि नदियों से इस तरह से पत्थर निकाले जाने से नदियों की अवरोधक क्षमता कम होती जा रही है और गहराई बढ़ती जा रही है। इसके चलते, भूमि का कटाव भी बढ़ रहा है। साथ ही, जिले के भूटान की सीमा से लगे होने के कारण वहां से नदियों में प्रदूषित पानी आ रहा है, जिससे प्रदूषण का खतरा भी बढ़ रहा है।
राहुल सिंह एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं। वे पूर्वी राज्यों में चल रही गतिविधियों, खासकर पर्यावरण व ग्रामीण विषयों पर लिखते हैं।
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राजस्थान के अलवर जिले का पशुपालक गुज्जर समुदाय अपने मवेशियों को चराने के लिए और शहद, जड़ी-बूटियां, फल और जंगल से मिलने वाले अन्य छोटे-मोटे वन उत्पादों के लिए ओरणों (पवित्र वन) का उपयोग करता है।
गुज्जरवास गांव में देवबानी (स्थानीय देवता देवनारायण के नाम पर) नाम का एक ऐसा ही ओरण है जिसमें पीलू, जंगली तुलसी, नीम और गिलोय जैसे देशी पेड़ और जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं। इन पौधों और जड़ी-बूटियों का उपयोग पारंपरिक चिकित्सा में ल्यूकोरिया और मलेरिया जैसी बीमारियों के इलाज के लिए शरीर की प्रतिरक्षा को बढ़ाने के लिए किया जाता है।
किसान अपनी भैंसों को सुबह-सुबह ओरण में लेकर जाते हैं और सूर्यास्त तक वहीं रहते हैं। दिन भर उनकी भैसें वहां चरती हैं। खेती और पशुपालन का काम करने वाले जसराम गुज्जर ने हमें वह जगह दिखाई जहां उनकी पत्नी हर दिन उनके लिए दोपहर का खाना लेकर आती हैं। वह अपनी पत्नी को उस जगह का स्थानीय नाम बताते हैं ताकि उन्हें ढूंढ़ने में आसानी हो, और वह हमेशा ही सही जगह पर पहुंच जाती हैं। ओरण के भीतर ही जगहों के कई प्रकार के विभाजन हैं जिनके बारे में केवल स्थानीय लोगों को ही याद है। यह बात अलग है कि किसी बाहर के व्यक्ति को पूरा ओरण एक जैसा ही दिखाई पड़ता है।
अलवर स्थित समाजसेवी संस्था क्रपाविस के संस्थापक अमन सिंह का कहना है कि समुदाय के लोग देवबानी को अपने देवता देवनारायण की पूजा का ही विस्तृत रूप मानते हैं, और यही कारण है कि वे इस ओरण को अपनी आजीविका के स्रोत से कहीं अधिक महत्व देते हैं। ‘स्थानीय लोग बताते हैं कि ओरण के निर्माण के समय विस्तृत अनुष्ठान हुआ था, गांव का प्रत्येक चरवाहा मिट्टी के बर्तन में गर्म दूध लाता था और उस बर्तन को अपने सिर पर रखकर उस भूमि की परिक्रमा करता था; बर्तनों से टपकने वाले दूध से ही देवबानी की सीमाओं को चिन्हित किया गया था।’
इस मानसिक मानचित्र से अतीत में समुदाय के लोगों को काफ़ी मदद मिली। एक बुजुर्ग पशुपालक चैतराम गुज्जर ने कई ऐसे उदाहरण दिये जिनमें उनकी स्मृति के कारण उन्हें वन विभाग और समुदाय के व्यक्तियों के अतिक्रमण का विरोध करने में मदद मिली। उन्होंने बताया कि, ‘कुछ साल पहले, वन विभाग के लोग ओरण में नर्सरी बनाना चाहते थे। उन्होंने हमारे समुदाय की जमीन पर नर्सरी बेड्स बनाने शुरू किए लेकिन गांव के लोगों ने एकजुट होकर उन्हें उखाड़ फेंका। हम जानते हैं कि कौन सा हिस्सा ओरण का है और कौन सा नहीं।’ आगे उन्होंने कहा कि, ‘हमारे समुदाय के लोगों ने भी इस ज़मीन पर खेती करने और घर बनाने की कोशिश की। लेकिन हर बार हम एकजुट होकर ओरण को नुक़सान से बचाने में कामयाब हुए हैं।’
अमन आगे कहते हैं कि, ‘समुदाय के सदस्यों ने अपनी ज़मीन को पहचाना और इस मामले को लेकर सरपंच और पटवारी के पास गये। उन्होंने रेवेन्यू के काग़ज़ात देखे और पाया कि समुदाय की सामूहिक स्मृति क़ानूनी दस्तावेज में दर्ज चिन्हों से मेल खाते हैं।’
जब से ओरान का निर्माण हुआ है, तब से समुदाय के लोगों ने पूरी ताक़त के साथ इसकी सुरक्षा की है। पिछले कुछ वर्षों में, ग्राम सभा ने यहां पेड़ों को नष्ट करने की कोशिश करने वाले लोगों के लिए कड़े जुर्माने का प्रावधान किया है। अब लकड़ी के एक टुकड़े को काटने वाले पर 101 रुपये और एक पेड़ को काटने पर 2,100 का जुर्माना है। इस तरह की घटनाओं की जानकारी देने वालों के लिए 501 रुपये के इनाम का भी प्रावधान है।
ओरणों की सुरक्षा में समुदाय की शक्ति पर जोर देते हुए, चैतराम कहते हैं, “पूरी बस्ती एक हो जाए तो क्या चले एक की?” (पूरे गांव की इच्छा के सामने एक व्यक्ति के लालच की क्या बिसात?)
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
जसराम गुज्जर ने इस लेख में अपना योगदान दिया है।
अमन सिंह कृषि एवं परिप्रेक्ष्य विकास संस्थान (क्रपाविस) के संस्थापक हैं। चैतराम गुज्जर राजस्थान में एक कृषि-पशुपालक हैं।
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बीकानेर जिले के ग्रांधी गांव में गनाराम रायका अपने 300 ऊंटों के बेड़े के साथ रहते हैं। राजस्थान के रायकों की कई पीढ़ियां ऊंट चराने वाली रही हैं। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में इसमें बदलाव आया है।
साल 2015 में राज्य के बाहर ऊंटों की बिक्री और निर्यात पर प्रतिबंध लगाने वाला एक कानून लागू किया गया। इस कानून के कारण स्थानीय ऊंट व्यापार में काफी गिरावट आई। राज्य में इस कानून के लागू होने के बाद से ऊंट व्यापारियों एवं चरवाहों के पास अपने मवेशियों की विशेष देखभाल का कोई कारण नहीं रह गया है। नतीजतन, कई व्यापारी और चरवाहे अपने मवेशियों को खुला छोड़ने पर मजबूर हो गये हैं, और कुछ ने तो अपने ऊंटों को यूं ही जंगल में भटकने के लिए छोड़ दिया है।
चूंकि ऊंट अब उनके लिए लाभदायक नहीं रह गये हैं, इसलिए गनाराम के गांव के कई अन्य रायका परिवारों ने आजीविका के लिए दूसरे पेशे चुन लिए हैं।
गनाराम स्वयं भी खेती करते हैं, लेकिन उनका प्राथमिक पेशा आज भी ऊंट चराना ही है, क्योंकि ऊंट उनकी संस्कृति और मान्यताओं का एक महत्वपूर्ण पहलू हैं। उनका कहना है इन पशुओं में उन्हें भगवान शिव दिखाई पड़ते हैं। अपने मवेशियों की देखभाल के अलावा गनाराम अन्य लोगों द्वारा उनकी देखरेख में छोड़े गए ऊंटों की भी देखभाल करते हैं जो अब उनका भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हैं। कभी-कभी, इस व्यवस्था में पैसों का लेनदेन भी शामिल होता है, जिसमें ऊंट मालिक गनाराम को उनकी सेवा के बदले में प्रति माह एक छोटी राशि देता है। लेकिन जब लोग उन्हें पैसे देने की स्थिति में नहीं होते हैं तब बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के वे ऊंट गनाराम की झुंड का हिस्सा हो जाते हैं।
गनाराम अपने ऊंटों के विशाल बेड़े को अपने गांव के आसपास के बचे-खुचे चारागाह में लेकर जाते हैं। ऊंट चराने वाले अपने चरागाहों को गोचर, ओरण और पैठन जैसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं। ये नामकरण अलग-अलग क्षेत्रों – घास के मैदान, जंगल और जल जलाशयों का प्रतिनिधित्व करते हैं – जो उनकी देहाती जीवन शैली का अभिन्न अंग हैं। लेकिन जमीनों के क्षेत्रफल में तेजी से कमी आ रही है या फिर इनका पुनर्उपयोग किया जा रहा है। गनाराम परंपरागत रूप से जिस चरागाह भूमि पर निर्भर थे, उसका अधिकांश हिस्सा अब अवैध चूना पत्थर खनन के लिए उपयोग में लाया जाता है, जो क्षेत्र के लोगों को आजीविका प्रदान करता है।
गनाराम ने जहां खनन को रोकने के प्रयास किए, वहीं बकरी जैसे छोटे मवेशियों को पालने वाले चरवाहे, इन चारागाह के सिकुड़ते आकार को लेकर कुछ खास चिंतित नहीं हैं।
अत्यधिक गर्मी और सर्दी में मवेशियों को चराना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। ऐसी स्थिति में गनाराम अपने ऊंटों को चारा खिलाना शुरू कर देते हैं।
यह एक महंगा विकल्प है। उनका वित्तीय बोझ तब और बढ़ जाता है जब उनके मवेशी बीमार पड़ने लगते हैं और उन्हें इलाज की ज़रूरत पड़ती है। गनाराम जैसे चरवाहों की मदद के लिए सरकार ने प्रत्येक नवजात ऊंट बछड़े के लिए 15,000 रुपये का मानदेय तय किया है। लेकिन इस राशि का दावा करना मुश्किल है क्योंकि इसके लिए पशुचिकित्सक द्वारा जारी किया गया जन्म प्रमाण पत्र आवश्यक है, और राजस्थान के दूरदराज के क्षेत्रों में पशुचिकित्सक दुर्लभ हैं।
सरकार के समर्थन के बिना, राजस्थान में ऊंटों की आबादी तेजी से घट रही है। साल 2012 में ऊंटों की संख्या तीन लाख से अधिक थी जो 2019 में घटकर दो लाख से कम हो गई है। इसलिए पशुओं के संरक्षण के गनाराम के प्रयास भले ही सराहनीय हों, लेकिन इन प्रयासों को संस्थागत समर्थन की जरूरत है।
अंसा ऑगस्टीन एसबीआई यूथ फॉर इंडिया फेलो हैं, जो आईडीआर पर #जमीनी कहानियां के लिए कंटेंट पार्टनर हैं।
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अंबुबाची मेला असम में मनाया जाने वाला एक वार्षिक उत्सव है। आमतौर पर इस मेले का आयोजन जून के दूसरे-तीसरे सप्ताह में किया जाता है। इसमें राज्य और देशभर से आने वाले श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं। इसके लिए वे गुवाहाटी स्थित कामाख्या मंदिर में इकट्ठा होते हैं। इस दौरान राज्य के शहरी इलाक़ों में जहां औद्योगिक जीवन अपनी रफ्तार से चलता रहता है। वहीं, ग्रामीण इलाकों में लगभग सभी प्रकार की कृषि गतिविधियां रुक जाती हैं।
हाल ही में, चिरांग जिले में काम के दौरान मैंने देखा कि इस दौरान लोग धान की बुआई करने से बच रहे थे। इस परंपरा का पालन विशेषरूप से हिंदू असमिया, बंगाली और संथाली किसान करते देखे गये। उनकी धार्मिक आस्थाओं के अनुसार, अंबुबाची मेले के दौरान धान की रोपनी अशुभ मानी जाती है और ऐसा करने से उस साल ख़राब फसल हो सकती है। इसलिए इस दौरान वे रोपनी की बजाय खेतों में नर्सरी बेड तैयार करना, बीजों के उपचार जैसी अन्य तरह की गतिविधियों में लगे रहते हैं, और मेला खत्म होने के बाद ही बीजारोपण करते हैं।
पहले जब मौसम का अनुमान लगाना आसान था, तब यह व्यवस्था कारगर थी। मध्य-जून से बारिश शुरू हो जाती थी और कभी-कभी तो बाढ़ भी आ जाती थी। जब तक मेला समाप्त होता था, बाढ़ भी कम हो जाती थी और अपने पीछे गीली मिट्टी छोड़ जाती थी जिससे पोखर तैयार करने में मदद मिलती थी। यह रोपणी प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण कदम होता है। लेकिन, जलवायु परिवर्तन के कारण अब स्थितियां पहले जैसी नहीं रह गई हैं। अब मानसून देरी से आता है और मेले के समय लगभग सूखे जैसी स्थिति होती है। जब तक त्योहार ख़त्म होता है, तेज बारिश शुरू हो जाती है। भारी वर्षा वाली यह अवधि फसलों के लिए हानिकारक होती है क्योंकि यह वर्षा, अंकुरों के साथ-साथ मिट्टी को भी बहा ले जाती है।
यह ग्रामीण असम में कृषि समुदायों के लिए एक नई समस्या बन गई है जो अपनी खपत एवं आय दोनों के लिए चावल पर ही निर्भर होते हैं। वे ना तो अपनी सदियों-पुरानी परंपरा को छोड़ सकते हैं और ना ही मौसम की अनिश्चितताओं के अनुकूल स्वयं को ढाल सकते हैं।
पोलाश पटांगिया ऐड एट एक्शन में नॉलेज हब और कम्युनिकेशंस के प्रबंधक के रूप में काम करते हैं।
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