छत्तीसगढ़ में हाथियों को जंगली जानवर क्यों नहीं माना जा रहा है?

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छत्तीसगढ़ में हाथियों से बचने के लिए लिखी गई चेतावनी_जंगली जानवर
जब समुदाय के लोगों ने कोयला खनन का विरोध करना शुरू कर दिया तब उनसे यह कहा गया कि इस इलाक़े में जंगली जानवर नहीं हैं। | चित्र साभार: आईडीआर

साल 2019 में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले में एक जन सुनवाई आयोजित की गई। इस सुनवाई में स्थानीय पर्यावरण पर महाराष्ट्र स्टेट पावर जेनरेशन कंपनी लिमिटेड की कोयला खदानों के प्रभावों पर चर्चा की गई। इस प्रस्तावित खदान के अन्तर्गत कुल 14 गांव हैं और इस भूमि पर खनन प्रक्रिया करने का सीधा मतलब था – इलाक़े के घने जंगलों की कटाई। इन क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों ने अपने स्वास्थ्य और क्षेत्र में रहने वाले जंगली जानवरों पर इसके प्रभाव के साथ, वन भूमि के नुकसान पर चिंता जताते हुए इसका विरोध किया था। लोगों का कहना है कि इस क्षेत्र में ऐसे भी मानव-वन्यजीव संघर्ष के कई मामले सामने आते रहते हैं। हालांकि, लोगों ने यह भी कहा कि अधिकारियों के कहे अनुसार इस क्षेत्र में कोई भी जंगली जानवर नहीं रहता है।

इस गांव का बच्चा-बच्चा यह जानता था कि वे ग़लत कह रहे हैं। इस मामले में हमने ऐसे ही एक प्रभावित गांव पेल्मा के एक किसान बंसीधर से बातचीत की। बंसीधर का कहना है कि  ‘हर साल हाथी हमारी फसल ख़राब कर देते हैं। पिछले ही साल हाथियों ने चावल की मेरी 150 बोरियों को बर्बाद कर दिया था और मुझे भारी नुक़सान झेलना पड़ा था’।

मैं कई दशक से एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में इन गांवों में काम कर रहा हूं। मैंने खनन से जुड़ी ऐसी कई पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्टें देखी हैं जिनमें रोचक तरीक़ों से हाथी के मुद्दों से बचने या उन्हें भ्रमित करने का प्रयास किया गया है। इन रिपोर्ट में कभी यह कहा जाता है कि जानवर आते तो हैं, लेकिन ऐसा बहुत कम होता है और वे आसपास के जंगलों में नहीं रहते हैं। इससे खनन कंपनियों को खुली छूट मिल जाती है।

वास्तविकता यह है कि हाथी इन इलाक़ों में अक्सर आते-जाते रहते हैं और यहां तक कि वन विभाग के अधिकारियों ने भी उनकी उपस्थिति की पुष्टि की है। पेल्मा के लगभग हर दूसरे घर की दीवार पर रंग-बिरंगे रंगों से चेतावनी लिखी हुई है। इस चेतावनी में कहा गया है कि ‘हाथियों से घिरे इन इलाक़ों में अपने घरों से बाहर ना सोयें, ख़ासकर तब जब आपके घरों में चावल, महुआ या अन्य वनोपज रखा हुआ है।’

एक बार यहां से गुजरते हुए मैं एक घर के बाहर रुक गया और ऐसी ही एक चेतावनी वाली तस्वीर खींच ली। बाद में, मैं उस तस्वीर को लेकर ज़िला वन अधिकारी के पास गया। मैंने उनकी रिपोर्ट पर सवाल उठाया जिसमें उन्होंने कहा था कि इन जंगलों में कोई जंगली जानवर नहीं रहता है। मैंने उन्हें बताया कि यह उनके अपने विभाग द्वारा लगाये गये चेतावनी के इन चित्रों को खंडित करता है। मैंने उनसे पूछा, ‘सर, आप कृपया मुझे यह बता दीजिए कि हाथी हैं या नहीं? या आपको लगता है कि गांव वालों को जब जानवरों को देखने की इच्छा होती है तो वे दूसरे जंगलों से उन्हें बुला लेते हैं?’

मेरी यह बात सुनकर अधिकारी को बहुत अधिक ग़ुस्सा आ गया लेकिन हमारी इस बातचीत का कोई नतीजा निकल नहीं पाया। साल 2022 में, इलाक़े में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की विशेषज्ञ सलाहकार समिति ने खनन शुरू करने के लिए पर्यावरण मंजूरी (ईसी) दे दी। इसके बाद समुदाय के लोगों को इस मामले पर गौर करने के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण में अपील दायर करनी पड़ी। आख़िरकार, फरवरी 2024 में, स्थानीय लोगों द्वारा उठाए गए स्वास्थ्य और पर्यावरण संबंधी वैध चिंताओं की अनदेखी जैसे कानूनी उल्लंघनों को देखते हुए ईसी को रद्द कर दिया गया।

राजेश कुमार त्रिपाठी जन चेतना रायगढ़ नामक एक संगठन चलाते हैं। यह संगठन छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में काम करता है।

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