गुजरात राज्य का आदिवासी जिला, छोटाउदेपुर कुदरती सौंदर्य और खनिज संपदा से भरपूर है। इसका समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास भी रहा है जिसमें लोक पूजा और धार्मिक चित्रों से बनी दीवार शामिल हैं। इस आदिवासी जिले में राठवा समुदाय आबादी का एक बड़ा हिस्सा है। कई अन्य आदिवासी समुदायों की तरह, राठवा भी पारंपरिक रूप से प्रकृति की पूजा करने वाले लोग हैं। वे आसपास के डूंगर (पहाड़ियां) और उनकी गुफाओं की पूजा करते हैं। ये गुफाएं पिथोरा चित्रों से सजी हुई हैं। इन्हें राठवाओं मुख्य देव बाबा पिठोरा के सम्मान में बनाया गया था। समुदाय के सदस्य नियमित रूप से इन जगहों पर जाते हैं।
कुछ दशक पहले इस इलाके में बड़ी मात्रा में डोलोमाइट और ग्रेनाईट जैसे खनिज पाये गए थे। तब से पहाड़ों और ज़मीन पर बड़े पैमाने पर शुरू हुए खनन और विस्फोटों ने लोगों के जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित किया है। यह न केवल लोगों के सामान्य कामकाज को भी बाधित करता है बल्कि इससे सदियों पुरानी सांस्कृतिक प्रथाओं भी खतरे में आती दिखने लगी हैं। इसके अलावा, यह सिलिकोसिस जैसी कई खनन-संबंधी बीमारियों का कारण तो बन ही रहा है।
विस्फोटों ने राठवाओं के कई पूजा स्थलों को नष्ट कर दिया है और विस्फोटों से उड़ने वाली चट्टानों ने आसपास के इलाकों में लोगों का आना-जाना सीमित कर दिया है। उदाहरण के लिए जेतपुर पावी तालुका के रायपुर गांव में, बच्चों को अपने स्कूल तक पहुंचने के लिए इन पहाड़ियों से गुजरना पड़ता है। किसी भी समय विस्फटने होने, चट्टानों-पत्थरों के बच्चों की ओर उड़ने और उन्हें घायल करने के डर से उनके माता-पिता ने उन्हें स्कूल भेजना बंद कर दिया है। जिन स्थानीय लोगों के खेत पहाड़ियों के करीब हैं, वे भी विस्फोट का काम नियमित होने के बाद से खेती नहीं कर पा रहे हैं। ग्रामीणों के विरोध और ग्राम सभा में आवेदनों देने के बाद खनन का काम फिलहाल रोक दिया गया है।
हालांकि, रायपुर की जीत सामान्य बात नहीं है। छोटाउदेपुर के गांवों में रहने वाले अधिकांश लोगों के लिए खनन ही आजीविका का एकमात्र स्रोत है। वनार की एक खदान में काम करने वाले मजदूर खिमजी भाई बताते हैं कि ‘पहले जब 12 आना मजदूरी मिलती थी, तब से लेके अब तक हम इन्हीं खदानों में काम कर रहे है। हमारे बच्चे भी खदानों में ही काम करते है।’ खदान में काम करने वाले अन्य निवासी गोविंद भाई मेहनताना कम मिलने की ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि ‘खनन में सिर्फ एक ट्रक भरने के हम पांच या छह लोग लगते हैं। दिन भर में हम पांच से छह ट्रक भर देते हैं। हमें एक ट्रक के 300 या 350 रुपए ही मिलते हैं।’ वे बताते हैं कि यह पैसा उनकी सभी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
इसके अलावा वनार और अन्य गांवों में डोलोमाइट खनन के चलते कई बड़ी-बड़ी खाइयां बन गई हैं। बारिश के मौसम में इनमें पानी भर जाता है। डोलोमाइट में फॉस्फोरस होता है जो पानी के साथ मिल कर उसे हरा कर देता है। ये खाइयां अब पर्यटन स्थल बन गए हैं जहां लोग तस्वीरें खिंचवाने के लिए इकट्ठा होते हैं। लेकिन बीते कुछ सालों में ये कई दुर्घटनाओं के लिए भी जिम्मेदार रही हैं – कई राहगीर इनमें गिरकर घायल हुए हैं, कुछ लोगों को तो जान भी गंवानी पड़ी है।
सेजल रठवा एक पत्रकार हैं और गुजरात के छोटाउदेपुर में रहती हैं।
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