मैं बिहार के पटना जिले का रहने वाला हूं। मेरे पास डेवलपमेंट सेक्टर में काम करने का लगभग 12 सालों का अनुभव है। इस दौरान ज्यादातर समय मैंने शिक्षा के क्षेत्र में काम किया है। साल 2018 में मैंने केयर संस्था के साथ काम करना शुरू किया था। करीब दो साल सब कुछ ठीक चला लेकिन फिर कोरोना महामारी के दौरान मेरी नौकरी चली गई। उसके बाद मैं स्वास्थ्य सेक्टर में चला गया लेकिन मई 2022 में पता चला कि केयर का वह प्रोग्राम भी बंद हो रहा है। इसके बाद, मैं डेवलपमेंट सेक्टर में ही अस्थाई तौर पर कुछ-कुछ काम करता रहा। 2023 के अप्रैल में मुझे दोबारा नौकरी मिली जिसमें एक साल का कॉन्ट्रैक्ट था। यहां पर मुझे केयर इंडिया के एजुकेशन इंडियन पार्टनरशिप अर्ली लर्निंग प्रोग्राम के लिए काम करना था। लेकिन फिर जून 2023 में अचानक एक मीटिंग हुई जिसमें हमें बताया गया कि बजट की कमी के चलते मुझे और मेरे कई साथियों को टर्मिनेट किया जा रहा है।
इस बजट की चुनौती का कारण संस्था का एफसीआरए लाइसेंस रद्द होना था। उस समय हमें एफसीआरए के बारे में किसी भी तरह की कोई जानकारी नहीं थी। हमें केवल इतना यह मालूम था कि प्रधानमंत्री कार्यालय में कुछ पैसे अटके हुए हैं और यह राशि सैकड़ों करोड़ रुपए है जिसे सरकार रिलीज़ नहीं कर रही है। फिर हमें समाजसेवी संस्थाओं के अकाउंट सीज होने की बात पता चली। हमें कुछ भी साफ-साफ नहीं पता था। हम बस इतना समझ पा रहे थे कि संस्था की स्थिति ख़राब है और उसके पास पैसे नहीं है।
मैं अपने घर पर अकेला कमाने वाला हूं और पिछले तीन महीने से मेरे पास कोई काम नहीं है। हमें इतने ही पैसे मिलते थे जिससे कि हमारे परिवार का खर्च चल जाता था, लेकिन बचत नहीं हो पाती थी। इधर आख़िरी दो महीने का वेतन भी मुझे नहीं मिल सका है। ऐसे हालात में मुझे अपने प्रॉविडेंट फंड (पीएफ) से पैसे निकालने पड़े हैं।
अब जब मैं 35 साल की उम्र में एक बार फिर नौकरी ढूंढने निकला हूं तो मुझे कई बातें समझ आ रही हैं। सबसे पहली तो यह कि डेवलपमेंट सेक्टर में नौकरियां मिल ही नहीं रही हैं। कई संस्थाओं से लोगों को थोक में निकाला गया है। मैं ऑनलाइन माध्यमों के साथ-साथ अपने पर्सनल नेटवर्क में भी नौकरी ढूंढने का प्रयास कर रहा हूं। लेकिन ज्यादातर जगह से मुझे यही जवाब मिलता है कि कोई जगह खाली नहीं है। जहां है भी, वहां पर टेस्ट-असाइनमेंट पूरा करना होता है जिसके लिए मेरे पास कम्प्यूटर नहीं है। मैंने यह भी समझा कि ऊपर-ऊपर से हम भले ही कितने भी आधुनिक क्यों ना हो गये हों, ज़मीन पर आज भी हमारे पास संसाधनों की कमी बनी हुई है।
केयर की तरफ से हमें अभी तक कोई मदद नहीं मिल सकी है। बस एक आश्वासन है कि शायद वे दोबारा बुलाएं। जब हम ज़मीन पर लोगों से जुड़कर काम करते थे तो लोग हम पर भरोसा करते थे। हम सरकारी योजनाओं और सुविधाओं को शिक्षकों, अभिभावकों और बच्चों से जोड़ते थे। हमें इस बात की संतुष्टि थी कि हम समाज को बेहतर बना रहे हैं। हमने नौकरी के साथ यह सब भी खो दिया है। और, अब हालात ये हैं कि मैं एसी-फ्रिज ठीक करने वाले मैकेनिक के पास काम सीखने जाने लगा हूं। ताकि हाथ में कोई कौशल आ सके जिससे मैं दो पैसे कमा सकूं। मेरे परिवार में पत्नी, तीन बच्चे और माता-पिता हैं, उन सब की ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर है।
एफसीआरए के चलते जब हज़ारों लोग बेरोज़गार हो रहे हैं तो मैं यह सोच रहा हूं कि आख़िर हम जैसे लोग कहां हैं, हमारी जगह क्या है?
मुकेश कुमार पटना और आसपास के क्षेत्रों में समुदायों को संगठित करने और शिक्षकों को प्रशिक्षित करने से जुड़े काम करते हैं।
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