August 17, 2023

एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने का सबसे ज्यादा नुकसान किसे होगा?

समाजसेवी संस्थाओं के एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने का असर बढ़ी हुई बेरोज़गारी, हताश समुदाय और कमजोर लोकतंत्र के रूप में दिख सकता है।
8 मिनट लंबा लेख

साल 2023 के शुरूआती छह महीनों में 70 भारतीय स्टार्टअप कंपनियों से जब 17,000 कर्मचारियों (जिसमें 2500 लोग एडटेक कंपनी बायजू’ज से थे) को निकाला गया तो मीडिया में इसे अच्छी-ख़ासी कवरेज मिली। इस बहाने कंपनियों, कर्मचारियों, स्टार्टअप इकोसिस्टम और यहां तक कि अर्थव्यवस्था पर भी चर्चाएं हुईं। इसके उलट, जब इसी दौरान1 100 से अधिक समाजसेवी संगठनों ने एफसीआरए के नए नियमों के चलते विदेशों से मिलने वाली आर्थिक मदद गंवा दी है तो इस पर कोई बात करता नहीं दिखाई दे रहा है। इसकी गंभीरता इस बात से समझी जा सकती है कि महिलाओं और लड़कियों के लिए काम करने वाली समाजसेवी संस्था केयर (सीएआरई) से जुड़े लगभग 4000 लोगों ने अपनी नौकरियां गंवा दी हैं जो बायजू’ज के आंकड़ों की तुलना में कहीं ज्यादा है।

अर्थव्यवस्था पर इसके असर की बात करें तो समाजसेवी संगठन देश की जीडीपी में दो प्रतिशत का योगदान देते हैं। ज़मीनी स्तर पर इन संगठनों के फैलाव, इसमें काम करने वाले कर्मचारियों (जिसका एक बड़ा हिस्सा गांवों और छोटे क़स्बों से आने वाले लोग हैं) की आजीविका और पिछड़े तबकों और इलाक़ों से आने वाले वे लाखों लोग जिनके लिए ये काम करते हैं, क्या इन सबकी बात नहीं होनी चाहिए?

एफसीआरए क्या है?

संक्षेप में, विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफ़सीआरए) की बात करें तो यह हमारे देश में स्वयंसेवी संस्थाओं को मिलने वाले विदेशी अनुदानों को नियंत्रित करने वाला कानून है। यह कानून तय करता है कि स्वयंसेवी संस्थाएं कहां से धन प्राप्त कर सकती है, इसका इस्तेमाल कौन कर सकता है और किस तरह के उद्देश्यों के लिए इस धन का उपयोग किया जा सकता है। पिछले साल यह अधिनियम तब एक बार फिर चर्चा में आ गया जब सरकार ने लगभग 6,000 स्वयंसेवी संस्थाओं के एफसीआरए लाइसेंस रद्द कर दिए। यानी, अब ये संस्थाएं विदेशों से आर्थिक मदद नहीं ले सकती हैं। इन संस्थाओं में मदर टेरेसा’ज मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी, ऑक्सफ़ैम इंडिया, सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च, दिल्ली विश्वविद्यालय, आईआईटी दिल्ली और जामिया मिलिया विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएं शामिल थीं।

यही सिलसिला अब आगे बढ़ रहा है जब तमाम संस्थाओं के लाइसेंस या तो रद्द कर दिए गए या उन्हें नवीनीकृत नहीं किया गया है। दुख की बात यह है कि लोगों की नौकरियां जाने के साथ अब ज़मीन पर इसका असर दिखाई देने लगा है।

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अदृश्य सेक्टर

केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा साल 2012 में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक नागरिक संगठन देश में 27 लाख कर्मचारियों और 34 लाख फुलटाइम वॉलंटीयर्स के लिए रोज़गार पैदा करते हैं। सीएसओ कोअलिशिन@75 और गाइडस्टार इंडिया द्वारा 515 समाजसेवी संगठनों पर किए गए एक सर्वे में 47 फीसदी संगठनों ने यह बात कही है कि जिन इलाक़ों में काम करते हैं, उनमें वे सबसे अधिक नियमित नौकरियों का स्रोत हैं। इससे आगे बढ़कर, वे सरकार और लोगों के बीच पुल का काम करते हैं।

आधे से अधिक संस्थाएं स्थानीय स्तर पर, ग्रामीण इलाक़ों और नीति आयोग द्वारा घोषित आकांक्षी जिलों में काम करते हैं। इनका कार्यक्षेत्र आमतौर पर शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण, आजीविका, जल और स्वच्छता, पर्यावरण परिवर्तन, कृषि, महिला और बाल अधिकार, विकलांगता, नागरिक सहभागिता से जुड़ा होता है और ये विषय नागरिकों के जीवन पर सीधा असर डालते हैं।

ये संस्थाएं स्थानीय स्तर पर आजीविका के साधन पैदा करने, कुशलताएं हासिल करने, सामाजिक रूप से तरक्की करने और स्थानीय व्यापार को आगे बढ़ाने जैसे काम करती हैं। सर्वे में शामिल 50 फीसदी संस्थाएं सरकारी संस्थाओं (स्कूल, पंचायत, जनपद, आंगनबाड़ी, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र वगैरह) और स्वयं सहायता समूहों के साथ मिलकर काम करती हैं। समाजसेवी संस्थाओं को सशक्त बनाना असल में स्थानीय स्तर पर विकास को रफ्तार देने वाला साबित हो सकता है।

अपना एफसीआरए लाइसेंस गंवाने वाले एक संगठन के प्रमुख के मुताबिक, समाजसेवी संगठनों की नौकरियां प्राइवेट या सरकारी नौकरियों की तरह नहीं होती हैं और यह सिर्फ नौकरी नहीं है। वे कहते हैं कि ‘इस सेक्टर में नौकरियां खत्म होने का मतलब, पिछड़े और ज़रूरतमंद लोगों के जीवन से बेहतरी के मौक़ों का खत्म हो जाना भी है।’

समुदायों पर असर

संस्थाओं के एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने से कई तरह का कामकाज बंद पड़ गया है। बाल सुरक्षा, टीकाकरण, नवजात बच्चों में मौतों के रोकने, स्कूलों और आंगनबाड़ियों में स्वास्थ्य और पोषण सुविधाएं पहुंचाने, छोटे बच्चों को सिखाने के लिए टीचर ट्रेनिंग सामग्री तैयार करने, अभिभावकों को बच्चों को स्कूल भेजने के लिए मनाने, युवाओं को कौशल और आजीविका के मौक़े दिलवाने, सरकारी योजनाओं को लोगों तक पहुंचाने जैसे तमाम प्रयास जो समाजसेवी संगठन करते थे, अब रुक गए हैं। एक अंदाज़े के मुताबिक संगठनवार रूप से देखें तो 4000 से लेकर आठ लाख लोग तक, अब समाजसेवी संगठनों द्वारा दी जाने वाली सुविधाएं नहीं पा सकेंगे।2

सेवाएं बंद होना तो इसका एक पहलू भर है क्योंकि इसके साथ, दूसरी तरफ वह भरोसा भी खत्म हो जाएगा जो सालों से काम करने के चलते बन पाया था। अब समुदाय इस बात को लेकर आशंकित होंगे कि समाजसेवी संगठन उन्हें सशक्त बना सकते हैं या नहीं। एफसीआरए लाइसेंस गंवाने वाली एक अन्य संस्था के सीईओ कहते हैं कि ‘ऐसा नहीं है कि बस एक ही संस्था का काम रुक गया है, लोगों को लगेगा हमने उन्हें धोखा दिया है। अगली बार जब हम उनके पास जाएंगे और कहेंगे कि हम इतने समय में यह काम कर लेंगे तो वे शायद ही हम पर भरोसा कर सकें। इस नुकसान की भरपाई करना मुश्किल होगा।’

अदृश्य कार्यबल

समुदाय जहां अपने हाल पर छोड़ दिए जाएंगे, वहीं वे फ्रंटलाइन कार्यकर्ता जो इन संगठनों के कर्मचारी हैं और उनके परिवार इससे बुरी तरह प्रभावित होंगे।। नौकरी खोने वाले फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं में से ज्यादातर स्नातक और इनमें से कुछ इससे अधिक शिक्षा प्राप्त भी हैं। समुदायों का हिस्सा बनकर उनके लिए काम करने वाले ये लोग गांवों और क़स्बों में रहते हैं। दूसरी तरह से कहें तो ये वे लोग हैं जो रोज़गार के लिए शहरों में न जाकर गांव-क़स्बों में रहना चुनते हैं और यहीं अपना जीवन बनाते हैं। इनकी आजीविका और ताकत स्थानीय तंत्र का हिस्सा है और उससे प्रभावित होती है।

एक समाजसेवी संगठन के सीईओ, जिनका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है, कहते हैं कि ‘ऐसे लोग समुदायों और समाजसेवी संस्थाओं के बीच की पहली कड़ी होते हैं। समुदाय में गहरी पहुंच और समझ रखने, उसमें शामिल होने के चलते ये संस्थाओं के लिए क़ीमती होते हैं। इसका मतलब यह भी हुआ कि उन्हें समाजसेवी संस्थाओं की जरूरत होती है और हमें समुदायों से जुड़ने के लिए उनकी।’

‘एफसीआरए को लेकर हर कोई ख़तरा महसूस कर रहा है। हर संस्था यह सोच रही है कि अगला नंबर उनका हो सकता है।’

वे इस बात की तरफ भी ध्यान दिलाते हैं कि ज्यादातर ग्रामीण सामुदायिक कार्यकर्ता जिन इलाक़ों में रहते हैं, वहां रोजगार के बहुत सीमित मौके होते हैं। ‘अगर उद्योग-धंधे और रोजगार के बाकी तरह के मौके इन तक पहुंच गए होते तो इनके पास विकल्प होते. सालों के अपने अनुभव के दौरान हमने जो देखा है वो यह है कि विकास सेक्टर से जुड़ना अक्सर लोगों की आख़िरी पसंद होती है। ज्यादातर लोग बेहतर वेतन, स्थायित्व और सुविधाओं के चलते सरकारी नौकरी या फिर किसी निजी कंपनी से खुद को जोड़ना पसंद करते हैं।’ एफसीआरए के रद्द होने और अचानक नौकरियां खत्म होने से समाजसेवी संगठनों में काम करने को लेकर होने वाली अनिश्चितता की भावना और मज़बूत  हो गई है।

रोजगार के विकल्प नहीं हैं

सीमा मुस्कान पटना में रहने वाली एक 35 वर्षीय शोधकर्ता हैं जो एक समाजसेवी संगठन के लिए काम करती थीं। उनके पास स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण के क्षेत्र में काम करने का 15 वर्षों से अधिक अनुभव है। जब मार्च, 2023 में उनके संगठन का एफसीआरए लाइसेंस रद्द हुआ तो उनकी नौकरी जाने के साथ उनकी पहचान और आर्थिक आज़ादी भी खत्म हो गई। सीमा अपने अनुभव बताते हुए कहती हैं कि उनके लिए नई नौकरी ढूंढना आसान नहीं है। ‘एफसीआरए को लेकर हर कोई ख़तरा महसूस कर रहा है।

हर संस्था यह सोच रही है कि अगला नंबर उनका हो सकता है। यह डर इतना अधिक है कि कहीं पर हायरिंग नहीं हो रही है।’ सीमा जोड़ती हैं कि प्रदान जैसे बड़े संगठनों में छत्तीसगढ़ या झारखंड में जाकर काम करने के विकल्प हैं लेकिन वे पटना में इसलिए रहना चाहती हैं क्योंकि उनके परिजन – पति, बच्चे और सास-ससुर – यहां पर हैं। वे कहती हैं कि ‘मेरे दो बच्चे हैं, जिनकी उम्र पांच साल और आठ साल है। मैं किसी दूसरे शहर में काम करने के लिए उन्हें नहीं छोड़ सकती हूं।’

सीमा यह भी कहती हैं कि ‘जब आपके पास नौकरी होती है तो आपकी एक पहचान होती है। आप समाज में अपनी जगह महसूस करते हैं, आपको आज़ादी होती है, आपके पास अपना पैसा होता है और आप अपने बच्चों की शिक्षा का खर्च बांट सकते हैं।’ सीमा अपने घर के कर्ज़ का ज़िक्र करते हुए कहती हैं कि ‘पहले मैं खर्च बांट सकती थी। अब मेरी कमाई न होने का मतलब है कि परिवार की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो सकती है और बच्चों की पढ़ाई पर इसका बुरा असर पड़ सकता है।’

सीमा को यह भी लगता है कि उनके पुरुष सहकर्मियों पर इसका कहीं अधिक बुरा प्रभाव पड़ा है, वे कहती हैं कि ‘भले ही मेरे पास नौकरी नहीं है लेकिन मेरे पति के बिज़नेस से कुछ पैसे तो आ रहे हैं। मेरे कई साथियों के लिए यह और भी बुरा रहा है क्योंकि अपने परिवार को चलाने वाले वही थे।’ गाइडस्टार इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, सर्वे में 64 फीसदी संगठनों का कहना था कि उनके कर्मचारी अपने परिवार का पालन-पोषण करने वाले थे।

साड़ी में एक महिला किसी को हाथ दिखाकर पुकारते हुए_एफसीआरए
एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने और लोगों की नौकरियां जाने का नतीजा यह भी होगा कि लोग सेक्टर से बाहर काम तलाशने निकलेंगे। | चित्र साभार: पब्लिक सर्विसेज इंटरनेशनल / सीसी बीवाय

दिनेश कुमार का लगभग पूरा करियर सोशल सेक्टर में काम करते हुए बीता है। 18 साल के अनुभव के दौरान वे शिक्षा, बाल सुरक्षा, पोषण और पंचायती राज संस्थानों से जुड़े काम करते रहे हैं। इससे पहले वे जिस संस्था में काम करते थे, उनका काम कमजोर तबके की मदद करना था। वे लोगों को 40-50 सरकारी योजनाओं तक पहुंच मुहैया करवाते थे।

दिनेश कहते हैं कि जो काम वे करते थे, वह कुछ ही सामाजिक संगठन करते हैं। ऐसे में उनके ज्ञान और कौशल के उपयोग के लिए कुछ सीमित ही मौके हैं। वे कहते हैं कि ‘18 साल के अपने करियर के दौरान मैं कई खास कुशलताओं जैसे समुदायों के साथ काम करना, डेटा इकट्ठा करना, रिसर्च सर्वे मैनेज करना और प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना वगैरह के साथ काम करता रहा हूं। लेकिन अगर समाजसेवी संगठन हायरिंग ही बंद कर देंगे तो हम कैसे सर्वाइव कर पाएंगे।’

नौकरियां कम और काम ज्यादा

अनगिनत फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के लिए नई नौकरी हासिल करना आसान काम नहीं है। दिनेश कहते हैं कि ‘अपना रेज्युमे कई जगहों पर भेजने के बाद भी मुझे नौकरी मिलने की संभावना कम है। पहले से ही देश में रोजगार की कमी है।’ ज्यादातर बार उन्हें सिर्फ इसलिए शॉर्टलिस्ट नहीं किया जाता है क्योंकि उनके पास एक खास तरह की कुशलताएं ही है। अन्य संगठन जिन्हें इन कुशलताओं की जरूरत है वे या तो हायरिंग नहीं कर रहे हैं या फिर उनके पास पहले से ही ढेर सारे आवेदन हैं। इसके अलावा, आवेदन करने की प्रक्रिया भी कठिन है।

जून, 2023 में नौकरी खोने वाले मुकेश, केयर संस्था के साथ जिला अकादमिक फ़ेलो थे। उन्होंने 12 साल पहले शिक्षा पर काम करने वाले एक संगठन के साथ बहुत निचले स्तर से काम करना शुरू किया था और अब जिला स्तर के कार्यकर्ता बन गए। मुकेश सेक्टर में अपने नेटवर्क में लोगों से बात करने के साथ-साथ डेवनेट, लिंक्डइन और यहां तक कि गूगल पर भी अपने जिले में मौजूद भर्तियों की जानकारी खोज रहे हैं। उनकी समस्या कम्प्यूटर और लैपटॉप न होने से और बढ़ जाती है।

वे कहते हैं कि ‘तकनीक भले ही आधुनिक और आसानी से पहुंच में आने वाली हो गई है लेकिन मेरे पास कम्प्यूटर ख़रीदने के पैसे ही नहीं है। इसका मतलब है कि संस्थाओं की भर्ती प्रक्रिया के दौरान जब मुझे टेस्ट असाइनमेंट दिया जाता है तो या तो मुझे उनके जवाब अपने मोबाइल फ़ोन पर टाइप करने होते हैं (जो करना बहुत मुश्किल है) या फिर उन्हें हाथ से लिखना होता है और फिर स्कैन कर मैं उन्हें मेल कर पाता हूं।’

दिनेश कहते हैं कि वे सोशल सेक्टर में काम करते रहना चाहते हैं लेकिन उन्हें आशंका है कि यह आगे संभव नहीं हो सकेगा। ‘सरकारी या निजी सेक्टर से अलग, हमारी पगार में बचत करने की गुंजाइश नहीं होती है। मुझे सोशल सेक्टर में काम करने में मजा आता है। समुदायों से रिश्ते बनाना और लोगों को जो मिलना चाहिए वह हासिल करने में उनकी मदद करना मुझे अच्छा लगता है। मैं यहां काम करते रहना चाहता हूं और अपनी तरफ से समाजिक सहयोग देते रहना चाहता हूं लेकिन अब मेरे पास कुछ नहीं है।’

मुकेश भी समुदाय में लोगों के भरोसे और रिश्तों की बात दोहराते हैं ‘हम परिवारों के साथ मिलकर काम करते थे ताकि उन्हें पता चलता रहे कि स्कूल में क्या चल रहा है, उनके बच्चों को सही शिक्षा मिल रही है या नहीं। हम एजुकेशन सिस्टम की कमियों को समझते हैं और इसके लिए सरकारी स्टाफ को जरूरत पड़ने पर प्रशिक्षण मुहैया करवाते हैं। हम पैरेंट-टीचर को आपस में बात करने, पैरेंट्स को यह समझने कि उन्हें बच्चों से कैसा व्यवहार करना चाहिए और भी इस तरह की तमाम काम करते थे। लोग हम पर भरोसा करते थे कि हम यह उनके फ़ायदे के लिए कर रहे हैं।’

अब वे कहां जाएं?

ज्यादातर समाजसेवी संगठन (उन बड़े कॉर्पोरेट संगठनों को छोड़कर जो खुद ही कार्यक्रमों को लागू करते हैं, बड़ी टीमों के साथ काम करते हैं और अच्छी फंडिंग हासिल कर चुके हैं) कार्यकर्ताओं की मदद नहीं कर सकते हैं। इसके कारणों पर जाएं तो पहली वजह यह है कि उनके खुद के पास संसाधनों की कमी है और उन्हें और लोगों की जरूरत नहीं है। दूसरी वजह ये है कि उन्हें भी अपने एफसीआरए लाइसेंस खोने का डर है और इस बात की चिंता भी कि इसका उनके अपने कर्मचारियों और समुदायों पर क्या असर पड़ेगा।

दिनेश कहते हैं कि लोग उन्हें व्यवसाय शुरू करने की सलाह दे रहे हैं। ‘लेकिन व्यवसायों को आगे बढ़ने में 5-10 साल लग जाते हैं। मैं पहले से ही 40 साल का हूं। जब तक मैं व्यवसाय करते हुए कहीं पहुंच सकूंगा, तब तक मैं 50 वर्ष का हो जाऊंगा। और, इस बीच मैं अपने बच्चों के बड़े होने और बढ़ते खर्चों को कैसे पूरा करूंगा?’

मुकेश के लिए स्थिति इतनी गंभीर है कि उन्होंने पिछले कुछ हफ्तों से मैकेनिक के रूप में काम करना शुरू कर दिया है। सीमा और दिनेश की तरह उसके पास भी शिक्षा, प्रशिक्षण, संबंध बनाने और संचार से जुड़े कौशल हैं, जिनमें से अधिकांश अब उन्हें ग़ैर जरूरी लगने लगे हैं। वे कहते हैं कि ‘मेरे दोस्त मुझ पर हंसते हैं। लेकिन मेरे पास क्या विकल्प हैं? मैं 35 साल का हूं, पत्नी है, तीन बच्चे और बूढ़े माता-पिता हैं। मुझे मात्र 21,500 रुपए की पगार मिलती थी। इसके बाद पिछले कुछ महीनों से मैं बेकार बैठा हूं वह भी तब जब मैं परिवार में अकेला कमाने वाला हूं। मेरे पास बिल्कुल पैसा नहीं बचा है। हमारा भविष्य अब अंधेरे में है।’

हमें चुप करवाकर वे आम लोगों की आवाज़ को दबाना चाहते हैं।

ग्रामीण समुदायों के साथ काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था के एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर कहते हैं कि एक साथ बहुत सारी संस्थाओं के एफसीआरए लाइसेंस रद्द होने और लोगों की नौकरियां जाने का नतीजा यह भी होगा कि लोग सेक्टर से बाहर काम तलाशने निकलेंगे।वे कहते हैं कि ‘मुझे डर है कि कंपनियां इन फ्रंटलाइन कार्यर्ताओं की आर्थिक तंगी का फायदा उठा सकती हैं और उन्हें सोने या कर्ज के लिए रिकवरी एजेंट बनने जैसी नौकरियों का ऑफ़र दे सकती हैं। समुदायों के साथ जो करीबी संबंध उन्होंने बनाया है, फायनेंशियल कंपनियां उनका दुरुपयोग पैसों की वसूली के लिए कर सकती है। यानी, फ्रंटलाइन कार्यकर्ता अब तक जो करते रहे हैं, उसका ठीक उल्टा करने पर मजबूर हो सकते हैं।’

देश पीछे जाएगा

दिनेश बताते हैं कि एक संगठन जिसके लिए वे काम करते थे, वह आम आदमी के लिए आवाज़ उठाता था। ‘हम सुनिश्चित करते थे कि लोग अपने अधिकारों और योग्यता के मुताबिक चीजें हासिल कर पाएं फिर चाहे वह स्कॉलरशिप हो या विधवा पेंशन या फिर बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र। अब उनके लिए कौन बोलेगा, अब उनकी आवाज़ को सत्ता तक कौन लेकर जाएगा। हमें चुप करवाकर वे आम लोगों की आवाज़ को दबाना चाहते हैं।’

मुकेश भी लोगों के भरोसे का ज़िक्र करते हैं और कहते हैं ‘वे जानते थे कि हम उनके लिए काम कर रहे हैं, वे हम पर भरोसा कर सकते हैं कि हम सरकार तक उनके अधिकारों की बात पहुंचाएंगे, जब शिक्षा और स्वास्थ्य की बात आएगी तो उनके बच्चों के हितों का ध्यान रखेंगे और उनके और सरकार के बीच पुल का काम करेंगे।’ समाजसेवी संगठन के एक लीडर के मुताबिक, अगर समुदाय से जोड़ने वाले इन लोगों को खो देंगे तो आपको पिछड़े लोग भी दिखाई देना बंद हो जाएंगे। वे कहते हैं कि ‘यह समाजसेवी संगठन और ज़मीन पर काम करने वाले उनके कार्यकर्ता है जो हमारे देश में जन-भागीदारी वाले लोकतंत्र के विचार को जिंदा रखे हुए है।

इसके लिए ये कमजोर तबकों को सरकार या उनके मुद्दों को हल करने वाले मंचों और साधनों तक पहुंचाते रहे हैं। और, इसके साथ सरकारी सेवाओं को भी मज़बूती देते रहे हैं। इनके बग़ैर, कोई सक्रिय नागरिकता नहीं होगी और हम अपने उस पिछड़े अतीत की तरफ लौट जाएंगे जहां लोकतंत्र में इन समुदायों के पास कोई ताकत, कोई आवाज़ नहीं थी। इसके चलते, हम 2047 में खुद को एक विकसित देश की तरह देखने की बजाय एक ऐसे देश की तरह देखेंगे जो 25 साल पीछे चल रहा है।’

इस विषय पर आईडीआर पर अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख यहां पढ़ें

फुटनोट:

  1. 23 मार्च 2023 तक का डेटा उपलब्ध है।
  2. एक समाजसेवी संगठन का फ्रंटलाइन कार्यकर्ता औसतन कम से कम 40-50 परिवारों से जुड़ता है, जिनमें से प्रत्येक में चार लोग होते हैं। औसतन, सबसे छोटी समाजसेवी संस्थाएं किसी भी समय 15-20 सामुदायिक मोबिलाइज़र के साथ काम करती हैं, एसटीसी जैसी बड़ी समाजसेवी संस्थाएं 600-800 फ्रंटलाइन श्रमिकों के साथ काम कर सकती हैं, जबकि केयर जैसी बड़ी समाजसेवी संस्थाओं के पास लगभग 4,000 लोग उनके फ्रंटलाइन कार्यकर्ता के रूप में काम करते हैं।

अधिक जानें

  • इस लेख को पढ़ें और पिछले पांच वर्षों के दौरान सरकार द्वारा रद्द किए गये विभिन्न लाइसेंसों के बारे में विस्तार से जानें।
  • एफसीआरए संशोधनों और उनके निहितार्थों के बारे में अधिक जानने के लिए इस लेख को पढ़ें या इस इंस्टाग्राम लाइव को देखें
  • एफसीआरए लाइसेंस रद्द करने के बारे में पूछताछ पर गृह मंत्रालय की प्रतिक्रिया के बारे में जानने के लिए इस लेख को पढ़ें

लेखक के बारे में
स्मरिनीता शेट्टी-Image
स्मरिनीता शेट्टी

स्मरिनीता शेट्टी आईडीआर की सह-संस्थापक और सीईओ हैं। इसके पहले, स्मरिनीता ने दसरा, मॉनिटर इंक्लूसिव मार्केट्स (अब एफ़एसजी), जेपी मॉर्गन और इकनॉमिक टाइम्स के साथ काम किया है। उन्होनें नेटस्क्राइब्स – भारत की पहली नॉलेज प्रोसेस आउटसोर्सिंग संस्था – की स्थापना भी की है। स्मरिनीता ने मुंबई विश्वविद्यालय से कम्प्युटर इंजीनियरिंग में बीई और वित्त में एमबीए की पढ़ाई की है।

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रजिका सेठ

रजिका सेठ आईडीआर हिंदी की प्रमुख हैं, जहां वह रणनीति, संपादकीय निर्देशन और विकास का नेतृत्व सम्भालती हैं। राजिका के पास शासन, युवा विकास, शिक्षा, नागरिक-राज्य जुड़ाव और लिंग जैसे क्षेत्रों में काम करने का 15 वर्षों से अधिक का अनुभव है। उन्होंने रणनीति प्रशिक्षण और सुविधा, कार्यक्रम डिजाइन और अनुसंधान के क्षेत्रों में टीमों का प्रबंधन और नेतृत्व किया। इससे पहले, रजिका, अकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में क्षमता निर्माण कार्य का निर्माण और नेतृत्व कर चुकी हैं। रजिका ने टीच फॉर इंडिया, नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी और सीआरईए के साथ भी काम किया है। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में बीए और आईडीएस, ससेक्स यूनिवर्सिटी से डेवलपमेंट स्टडीज़ में एमए किया है।

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