September 3, 2024

आईडीआर इंटरव्यूज | मधु मंसूरी हंसमुख

पद्मश्री सम्मान से नवाजे जा चुके लोकगीत कलाकार मधु मंसूरी हंसमुख ने आईडीआर के साथ अपनी बातचीत में बताया कि कैसे छोटी सी उम्र से ही इन्होंने लोकगीत को अपना हथियार बनाकर झारखंड आंदोलन को एक नई दिशा और चेतना प्रदान की।
7 मिनट लंबा लेख

बिहार में आदिवासियों के झारखंड आंदोलन से अपनी पहचान बनाने वाले मधु मंसूरी हंसमुख का नाम जितना दिलचस्प है, उनके जीवन का सफर भी उतना ही रोचक रहा है। बचपन से ही इन्हें लोकगीतों का शौक रहा है। आगे चलकर इन्होंने झारखंड बनने के आंदोलन में अपने गीतों के ही ज़रिये लोगों के बीच अपनी अलग पहचान बनाई।

पद्मश्री सम्मान से नवाजे जा चुके लोकगीत कलाकार मधु मंसूरी हंसमुख ने आईडीआर के साथ अपनी बातचीत में बताया कि कैसे छोटी सी उम्र से ही इन्होंने लोकगीत के ज़रिये न केवल आंदोलन में अपनी एक अलग पहचान बनाई बल्कि इस हुनर को अपना हथियार बनाकर झारखंड आंदोलन को एक नई दिशा और चेतना भी प्रदान की। इस इंटरव्यू में हंसमुख, झारखंड आंदोलन से जुड़े अपने खट्टे-मीठे अनुभवों को साझा करते हुए इस बात पर भी जोर देते हैं कि कैसे झारखंड में अपार खनिज संसाधनों के बावजूद आज भी यहां के युवा रोज़गार के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

आपका नाम काफी दिलचस्प है, इसके पीछे की क्या कहानी है?

मेरे पिता जी का नाम अब्दुल रहमान और मां का नाम मनी परवीन था। मैं 15—16 महीने का ही था जब मां का देहांत हो गया। उनके गुजर जाने के बाद मुझे दूध नहीं मिल पा रहा था और मैं हर दिन कमजोर होता जा रहा था। एक दिन तबियत इतनी ज्यादा खराब हो गई कि सबको लगा कि अब मेरे पास ज्यादा समय नहीं है। मुझे घर के आंगन में रख दिया गया और धीरे—धीरे वहां गांव वालों की भीड़ भी जमा हो गई। उसी समय वहां से गांव में रहने वाला ग्वाला, शिव शंकर गुजर रहा था। मेरे घर के बाहर भीड़ देखकर वह भी वहां आ गया। लोगों ने उसे बताया कि इस बच्चे को मां का दूध नहीं मिल पाया है इसलिए ये मरने वाला है।

शिव शंकर ने वहां खड़े लोगों से कहा, “तुम लोग मेरी बात सुनकर मुझे पेड़ से बांधकर मारोगे पर कोई बात नहीं! पर मेरी बात मानो, और मुझे इस बच्चे को महुआ की थोड़ी सी शराब पिलाने दो क्योंकि इससे यह ठीक हो जाएगा।” इस पर सब मान गए। उसने मुझे थोड़ी सी शराब पिलाई। उस वक्त तो मैं होश में नहीं आया लेकिन करीब 4 घंटे बाद मुझे होश आ गया। ये एक चमत्कार ही था और वो शराब मेरे लिए अमृत बन गई। इसके बाद मुझे अक्सर शराब के घूंट पिलाए जाते थे। करीब 8 साल की उम्र तक मैं अमृत समझकर शराब पीता रहा। उसका नशा इतना ज्यादा हो जाता था कि कई बार मैं खुद चलकर घर नहीं आ पाता था। वह समय अच्छा था। गांव में राजनीति नहीं थी, इसलिए कोई भी आदिवासी या फिर दूसरे समुदाय के लोग मुझे घर लेकर आ जाते थे। घर लाकर वो मेरे पिता जी से कहते, “अरे ये बच्चा तो मधुआ हो गया है।” यानि नशे में मदहोश। बस इसी मधुआ से मेरा नाम मधु हो गया। हालांकि ये नाम इस्लामिक नहीं है पर फिर भी मेरा नाम मधु ही हो गया।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

कुछ समय बाद मेरी देखभाल के लिहाज से पिता जी ने दूसरी शादी कर ली। मैं अपनी नई मां को मौसी मां कहता था। उनका पहले से ही एक बेटा यानि मेरा सौतेला भाई भी था। हम तब साथ ही रहते थे।

इसके बाद रांची के हाई स्कूल के एक शिक्षक कुलदीप सहाय जो रांची में पढ़ाते थे, उनके खेतों में मेरे पिता जी काम करने के लिए जाते थे। एक रोज मैं स्कूल से छुट्टी के बाद अपने पिता के पास पहुंचा। स्कूल से आने पर बहुत भूख लगी थी तो वहां पहुंचकर मैं पिता जी से हंसते हुए घर की चाबी मांग रहा था। तभी कुलदीप सहाय वहां आए और मेरा हाथ पकड़ते हुए मेरे पिता से बोले, “अब्दुल रहमान, आज से मैं तुम्हारे बेटे का नाम मधु मंसूरी हंसमुख रख रहा हूँ।“

फिर पिताजी ने जब मेरा एडमिशन छठवीं कक्षा में करवाया, तो उन्होंने स्कूल में मेरा यही नाम दर्ज करवा दिया, और मैं बन गया मधु मंसूरी हंसमुख।

मधु मंसूरी हंसमुख की तस्वीर_आदिवासी कलाकार
संगीत में आपकी रूचि कब और कैसे शुरू हुई?

मेरी संगीत में तो बचपन से ही रूचि थी। मैंने 8 साल की उम्र में पहली बार स्टेज पर गाना गाया था। 2 अगस्त 1956 में हमारे प्रखंड के नामी गांव रातू में वहां के महाराज प्रखंड कार्यालय के शुभारंभ कार्यक्रम में आ रहे थे। तब वहां के आयोजक इस कार्यक्रम के लिए लोकगायकों की तलाश कर रहे थे। मैं स्कूल में गीत गुनगुनाया ही करता था, ये बात मैट्रिक क्लास में पढ़ने वाला दिल अहमद जानता था। कार्यक्रम के बारे में जब उसे मालूम चला तो उसी ने आयोजकों को मेरे नाम का सुझाव दिया और बाद में वही मुझे कार्यक्रम में भी लेकर आया। उस समय मैंने स्टेज पर पहला लोकगीत गाया, जिसे सुनकर महाराज बहुत खुश हुए। उन्होंने मुझे ईनाम में 10 रुपए दिए। उस वक्त 10 रुपए की कीमत बहुत ज्यादा थी।

10 रुपए हाथ में होने के बाद भी मुझे कोई खाना खिलाने को तैयार नहीं था।

10 रुपए मिलने के बाद मैंने सोचा कि अब कुछ खाया जाए, क्योंकि कार्यक्रम में शामिल होने की जल्दी की वजह से मैं बिना खाना खाए ही आ गया था और, बहुत भूख भी लग रही थी। लेकिन 10 रुपए हाथ में होने के बाद भी मुझे कोई खाना खिलाने को तैयार नहीं था। इसके पीछे समस्या यह थी कि उस समय 1 आने की कीमत में चाय और 1 आने में पकौड़ा आ जाता था। अगर मैं एक चाय और एक पकौड़ा खाता और अपने साथी को भी खिलाता, तब भी होटल वाले के पास लौटाने के लिए 9 रुपए 12 आना नहीं थे। इसलिए हम भूखे ही आ गए।

जब हम घर पहुंचे तो मैंने पिता जी को 10 रुपए दिए। उन्होंने दिल अहमद से पूछा कि मेरे बेटे ने ऐसा कौन सा गीत गाया कि महाराजा ने उसे 10 रुपए दिए, जबकि मैं तो धूप में सारा दिन काम करता हूं, तब जाकर 1 रुपया दिन का मिलता है। वो बात मैं आज भी नहीं भूल पाया हूं।

बस ऐसे ही मेरे करियर की शुरुआत हुई। जब लोगों को महाराज वाले कार्यक्रम के बारे में पता चला तो और लोग भी मुझे अपने यहां गीत गाने ​के लिए बुलाने लगे। दिल अहमद ही मुझे हर जगह ले जाया करता था। कई बार तो कार्यक्रम इतने ज्यादा और इतनी दूर होते थे कि हम 6-7 दिन तक घर ही नहीं आ पाते थे। वैसे मैं पढ़ाई में भी अच्छा था।

ऐसा ही एक बार तब हुआ जब शिक्षा मंत्री हमारे स्कूल आए और उन्होंने मेरी प्रतिभा को पहचाना। कार्यक्रम के बाद मंत्री ने स्कूल के रजिस्टर में लिख दिया कि जब तक यह बच्चा स्कूल में पढ़ेगा, तब तक इसकी स्कूल फीस नहीं लगेगी। इससे मैं बहुत खुश था।

साल 1968 में मेरे सौतेले भाई की सरकारी नौकरी लग गई। तब तक मैं भी कक्षा दसवीं की परीक्षा में फर्स्ट क्लास पास हो गया था। लेकिन भाई की नौकरी लगने के बाद मेरी मौसी मां (सौतेली मां) पिता जी से अलग हो गई और अपने बेटे के साथ रहने लगी। इस घटना के बाद से मैं पढ़ नहीं पाया।

झारखंड आंदोलन से आपका जुड़ाव कैसे हुआ?

उन दिनों बिहार में रह रहे आदिवासी अपने लिए अलग झारखंड राज्य की मांग कर रहे थे। यह आंदोलन सालों से चल रहा था। उस दौर में झारखंड आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए औरतें बच्चों को पीठ पर बांधकर ले जाती थीं, आदमी तपती धूप में भी नारे लगाते थे। जब मैं इस आंदोलन का हिस्सा बना तब मेरी उम्र 12 साल थी। मैं किसी क्रांतिकारी के तौर पर आंदोलन में शामिल नहीं हुआ था, बल्कि अपने गीतों की वजह से शामिल हुआ। असल में झारखंड आंदोलन को ध्यान में रखते हुए 12 साल की उम्र में ही मैंने एक गीत लिखा, यह नागपुरी बोली का गीत था। झारखंड पार्टी के महासचिव लाल रणविजय नाथ शाहदेव मुझे अपने साथ लेकर गए। फिर मैंने वही गीत नेताजी सुभाष चंद्र बोस चौक (खूंटी) में पहली बार गाया। गाने का भावार्थ था, “सालों तक हम अंग्रेजों के गुलाम थे और अब अफसरों के गुलाम हैं।”

लोगों ने इसे खूब पसंद किया। इसके बाद से ही यह सिलसिला शुरू हो गया। मैं आंदोलन के मोर्चों में शामिल होता गया, गीत गाता रहा और मेरे गीतों से युवाओं और आदिवासियों को बहुत प्ररेणा मिलती रही। 22 अगस्त 1967 का दिन मैं कभी नहीं भूल सकता। उस दिन मैं रांची, ऐसे ही एक कार्यक्रम का हिस्सा बनने पहुंचा था और तभी वहां दंगा भड़क गया। मैंने उस दंगे को अपनी आंखों से देखा। लोगों को खून से लथपथ, जलते—मरते देखा। उस घटना ने मुझे झकझोर दिया। 2—3 दिन बाद जब मैं घर आया तो मुझे नींद नहीं आई। रात को खाना खाकर मैं लिखने बैठ गया। एक ही रात में मैंने उस दंगे से प्रभावित होकर एक कविता लिखी। यह कविता मेरे जीवन के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत रही है।

झारखंड आंदोलन का आपके निजी जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा?

मार्च 1964 में मेरी शादी हो गई और 1970 आते तक मेरी नौकरी लग गई। आंदोलनकर्ता मुझे खोजते रहते बावजूद इसके मैंने 4 साल तक नौकरी की। जब उन्हें आखिरकार मेरी नौकरी के बारे में पता चला तो बोले, “कहां तुम नौकरी के चक्कर में फंस गए, तुम्हें तो हर दम हमारे साथ रहना चाहिए।” मैं भी आंदोलन का हिस्सा बने रहना चाहता था। इसलिए अक्सर मोर्चे और सभाओं में गीत प्रस्तुति के लिए पहुंच जाता था। इस वजह से परिवार भी परेशान था और नौकरी करना भी मुश्किल हो गया।

 मैं कई दिनों तक घर से दूर और नौकरी में गैरहाजिर रहता था जिसके कारण मुझे नौकरी से निकालने तक की नौबत आ गई थी। हालांकि झारखंड आंदोलन का हिस्सा बनने के बाद से लोग मुझे पहचानने लगे थे। इसलिए मैंने तत्कालीन मुख्यमंत्री और खेलमंत्री से मुलाकात की। उनकी मदद से चेयरमेन को एक पत्र पहुंचाया गया। जिसमें बाद चेयरमेन ने मेरे पक्ष में आदेश जारी करते हुए कहा कि अगर मैं कार्यक्रमों में शामिल होने के कारण नौकरी पर नहीं आता हूं तो उस दिन का मेरा वेतन काट लिया जाए पर नौकरी से नहीं निकाला जाएगा। इसके बाद मैं महीने में 12 से 14 दिन तक ऑफिस नहीं जा पाता था पर इससे कोई दिक्कत नहीं हुई। घर से भी इतने ही दिनों तक दूर रहता रहा।

आज मेरे 4 बेटे हैं, सभी पढ़े-लिखे हैं लेकिन वे सभी बेरोजगार हैं। मैं झारखंड आंदोलन का हिस्सा था इसलिए बिहार सरकार ने मेरे बेटों को नौकरी नहीं दी। झारखंड राज्य बन गया पर यहां भी उनके लिए रोजगार नहीं है।

आंदोलन का हिस्सा बनकर मैंने सैकड़ों गीत गाए, युवाओं और आदिवासियों को एक करने का प्रयास किया। अपने गीतों से उन्हें सही राह दिखाता रहा। लोगों से मुझे प्यार और सम्मान मिला पर इन सबके बीच नौकरी बर्बाद हो गई, परिवार बर्बाद हो गया और समय भी बर्बाद हुआ।

झारखंड आंदोलन से जुड़ने से आपको सरकार की तरफ से बहुत सम्मान भी मिला, उसके बारे में कुछ बतायें?

मुझे इस आंदोलन से बहुत कुछ मिला भी है। इसी की वजह से लोग मुझे पहचानने लगे। मेरे गीतों को सराहना मिली। मेरे नागपुरी बोली के लोकगीत रिकॉर्ड भी किए गए। इसी के फलस्वरूप, सरकार की ओर से मुझे पुरस्कार के तौर पर सिमडेगा में जमीन देने की घोषणा हुई। तब मैंने कलेक्टर से मिलकर कहा कि ये जमीन देकर हमको लोगों की नजरों से मत गिराओ। मैंने वो जमीन नहीं ली। इसके बाद सम्मान के तौर पर तत्कालीन शिक्षा मंत्री करमचंद्र भगत ने भी जमीन देने का ऐलान किया लेकिन मैंने मना कर दिया। अगर आज मेरे पास वो जमीन होती तो उसकी कीमत करोड़ों में होती।

मेरे गीतों को सुनकर शिबू सोरेन खुश होकर बोले, “ऐ मंसूर साहब, हमारे तीर की धार और तुम्हारे गीत का धार से अलग राज्य बनकर रहेगा।”

बाद में जब झारखंड राज्य बन गया तो, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी मुझे सम्मानित किया और मेरे जिले में ही मुझे 4 एकड़ जमीन दी। यह सम्मान मैंने स्वीकर कर लिया। इसकी एक वजह है। असल में 1975 में मैं आंदोलन से जुड़े एक कार्यक्रम में गीत प्रस्तुत करने रामगढ़ गया था। उस कार्यक्रम में धनबाद के नेता एके राय और उनके साथ शिबू सोरेन यानि हेमंत सोरेन के पिता जी भी आए थे।

मैंने वहां जो गीत गाए उन्हें सुनकर शिबू सोरेन बहुत खुश हुए और बोले, “ऐ मंसूर साहब, हमारे तीर की धार और तुम्हारे गीत का धार से अलग राज्य बनकर रहेगा।” यही उनकी और मेरी पहली मुलाकात थी। इसके बाद हम कार्यक्रमों के दौरान दिल्ली, कोलकाता और बहुत सी जगहों पर भी मिलते रहे। इस तरह से झारखंड आंदोलन में शामिल होने के बाद मुझे बहुत नाम, इज्जत, लोगों का प्यार और सराहना मिली।

मैंने 300 से ज्यादा गीत गाए और इन्हीं गीतों ने मुझे पद्मश्री सम्मान तक भी पहुंचाया।

झारखंड आंदोलन सफल हो जाने के बाद आपको लगता है कि जो सपने युवाओं और आदिवासियों ने देखे थे, या जिनका जिक्र आपके गीतों में है, वे पूरे हो रहे हैं?

मैंने हमेशा से ऐसे गीत लिखे, जिनसे युवाओं को सही दिशा मिल सके। मैंने अपने गीतों में आदिवासियों के हक की बात की। जब झारखंड राज्य बन रहा था तब हम सभी को बहुत सारी उम्मीदें थीं। मैंने इन्ही उम्मीदों को गीत के बोल में बांधा था। पर आज महसूस होता है कि राज्य को लेकर जो सपने देखे थे, वो पूरे नहीं हुए हैं।

इस राज्य के पास बहुत कुछ है। यहां 28 तरह के खनिज हैं, सबसे ज्यादा प्रकृतिक संपदा है, लेकिन उनका कोई सही उपयोग नहीं है। ये बहुत दुख की बात है। लोगों के पास रोजगार नहीं है, खाने को अनाज का दाना नहीं है। ऐसे में भूखा आदमी पाप करेगा, चोरी करेगा, डाका डालेगा। इसी उग्रवाद में राज्य के बहुत सारे युवा शामिल हो रहे हैं। बाबू लोगों की कलम गलत दिशा में चल रही है। शोषण कोई सहन नहीं करता तो यही कारण है​ कि कुछ युवा लोग उग्रवादी बन रहे हैं। खनिज और खजाना के असली मालिक गैर झारखंडी लोग बने हुए हैं। हालांकि, अभी भी सब बदलने का समय है।

रोजगार के लिए राज्य में कपड़ा मिल खोली जा सकती है। यहां बॉक्साइट का खजाना है, उसका उपयोग करके एल्युमीनियम का कारखाना खोल सकते हैं। चीनी मिल, पेपर मिल बनाए जा सकते हैं। यहां इतने संसाधन हैं कि दवा बनाने की कंपनियां खुल सकती हैं। अगर ये सब होता है तो लोगों को रोजगार मिलेगा। इससे वे ना तो पलायन करेंगे ना ही उग्रवादी बनेंगे। असल में हमारे पास नेतृत्व की सोच नहीं है। नेता सोचते हैं कि छोटे लोगों को काम मिलेगा तो ये क्यों हमारी जी हुजूरी करेंगे।

कितने ही सारे नेता हैं जो जेल जा चुके हैं, घोटालों में उनके नाम सामने आ रहे हैं। आम जनता के पास अपनी जरूरतें पूरी करने लायक संसाधन तक नहीं है। लोगों को दवाएं नहीं मिल रहीं, खेतों में सिंचाई का साधन नहीं है, नौकरियां नहीं हैं, सरकारी स्कूल तो पूरी तरह से खत्म हो गए हैं।

हमने आंदोलन के समय ये सपना तो नहीं देखा था। मैं तो नौजवानों के लिए बहुत से गीत लिख चुका हूं अब उनका सक्रिय होना जरूरी है।

इस आलेख को तैयार करने में स्मरिणीता शेट्टी ने सहयोग किया है।

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  • देश में आरटीआई आंदोलन से जुड़े और एमकेएसएस के स्थापकों में से एक, सामाजिक कार्यकर्ता शंकर सिंह के बारे में जानें
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लेखक के बारे में
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जूही मिश्रा

जूही मिश्रा आईडीआर में एडिटोरिएल एसोसिएट हैं। उन्हें पत्रकारिता का 14 साल का अनुभव है और उन्होंने पत्रिका, टाइम्स ऑफ इंडिया, रोर मीडिया, दूता टेक्नोलॉजी और ग्राम वाणी के साथ काम किया है। जूही ने विकास संवाद संस्था से फेलोशिप पूरी की है, जहाँ उन्होंने बसोर समुदाय में खाद्य प्रणालियों और कुपोषण के कारणों पर शोध किया।

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इंद्रेश शर्मा

इंद्रेश शर्मा आईडीआर में मल्टीमीडिया संपादक हैं और वीडियो सामग्री के प्रबंधन, लेखन निर्माण व प्रकाशन से जुड़े काम देखते हैं। इससे पहले इंद्रेश, प्रथम और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च संस्थाओं से जुड़े रहे हैं। इनके पास डेवलपमेंट सेक्टर में काम करने का लगभग 12 सालों से अधिक का अनुभव है जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता, पोषण और ग्रामीण विकास क्षेत्र मुख्य रूप से शामिल रहे हैं।

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डेरेक ज़ेवियर

डेरेक ज़ेवियर आईडीआर में सहायक सम्पादक हैं और लेख लिखने, सम्पादन और प्रकाशन से जुड़े काम देखते हैं। इससे पहले डेरेक ने कैक्टस कम्यूनिकेशन्स और फ़र्स्टपोस्ट में सम्पादक की हैसियत से काम किया है। उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऐम्स्टर्डैम से मीडिया स्टडीज़ में एम और मुंबई के सेंट जेवियर कॉलेज से समाजशास्त्र और मानवविज्ञान में बीए की पढ़ाई की है।

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