मेरा नाम गीता है और मैं उत्तराखंड के देहरादून जिले में सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता के तौर पर काम करती हूं। मैं यहीं पली-बड़ी हूं और वर्तमान में अपने पति के साथ रहती हूं। मैं 2022 से मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था बुरांस के साथ काम कर रही हूं। यह संस्था उत्तराखंड के दो जिलों—उत्तरकाशी के नौगांव ब्लॉक के ग्रामीण इलाकों और देहरादून के सुदूर शहरी इलाकों में काम करती है। हम खास तौर पर उन समुदायों और परिवारों को मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराते हैं, जो सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से कमजोर या वंचित समुदाय से संबंध रखते हैं।
यह मेरी पहली नौकरी है। हालांकि बुरांस के साथ काम शुरू करने के दौरान मेरी पढ़ाई अधूरी थी। तब मैं दसवीं कक्षा तक ही पढ़ी थी। लेकिन संस्था में स्थायी पद के लिए हमारी पढ़ाई पूरी होना आवश्यक है। इसलिए मैंने नौकरी करते हुए ही पत्राचार की मदद से कक्षा 12वीं की परीक्षा दी और अब बैचलर डिग्री पूरी कर रही हूं।
2020 से मैं खुद अवसाद (डिप्रेशन) से जूझ रही हूं। मेरे लिए इसे स्वीकार करना कठिन था, क्योंकि मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर अभी भी ढंग से बात नहीं होती। मुझे मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी परिस्थितियों की कोई जानकारी भी नहीं थी। कोई भी यह नहीं समझ सका कि मेरे साथ क्या हो रहा था। मेरे पड़ोसियों को लगा कि मुझ पर भूत-प्रेत आ गया है और वे मुझे पुजारी के पास ले गए।
उस समय एक संस्था हमारे इलाके में आती थी। उन्होने मुझे बुरांस के बारे में बताया।फिर वहां की एक सामुदायिक कार्यकर्ता मुझसे जुड़ी और उन्होने मुझे डिप्रेशन के लक्षणों के बारे में बताया। शुरुआत में मैंने उनकी बात नहीं समझी और मज़ाक में टाल दी। लेकिन अपनी स्थिति को अपनाने और इलाज के सफर ने आज मुझे खुद एक सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता में बदल दिया है।

बुरांस में काम करने का तरीका अनूठा है। यहां कार्यक्रम और सामुदायिक प्रयास उन लोगों के अनुभवों से प्रेरित होते हैं, जो खुद मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों का सामना कर चुके हैं, या उनके परिवार का हिस्सा हैं। इसी दृष्टिकोण ने मुझे भी अपनी यात्रा को नए नजरिए से देखने में मदद की। मैंने अवसाद को समझा, उसे स्वीकार किया और फिर उससे निकलने और आगे बढ़ने की राह खोजी।
सुबह 8:00 बजे: समय से उठना मेरे लिए काफी मुश्किल रहा है। लेकिन इस नौकरी ने मेरे जीवन में अनुशासन और स्थिरता लाने में काफी मदद की। पहले मेरी दिनचर्या बेतरतीब थी—कभी रात भर जागना, कभी दिन में सोना। लेकिन अब हर सुबह 8:30 बजे ऑफिस पहुंचने की जिम्मेदारी ने मुझे समय के प्रति सचेत बना दिया है। खुद से किए गए छोटे-छोटे वादे— जैसे “8:26 तक ऑफिस पहुंचना है!”—मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन चुके हैं। अब देरी होती है, तो मैं परेशान हो जाती हूं।
इस सफर में मेरे पति भी मेरा खूब साथ देते हैं। ऑफिस के लिए देर ना हो जाए, इसलिए वे अक्सर सुबह की जिम्मेदारियां, जैसे चाय और नाश्ता बनाना, खुद ही संभाल लेते हैं। उनका यह सहयोग मेरी दिनचर्या को आसान बनाता है।
सुबह 8.30 बजे: ऑफिस पहुंचते ही मैं सबसे पहले हफ्ते भर की कार्यसूची पर नजर डालती हूं, जिसमें दस्तावेजी काम से लेकर फील्ड विजिट तक की योजनाएं शामिल होती हैं। हमारी साप्ताहिक योजना में विस्तार से बताया जाता है कि कार्यकर्ताओं को किन क्षेत्रों में जाना है, किन लोगों से मुलाकात करनी है, और किन मामलों में फॉलो-अप करना है। साथ ही, हम उन नए इलाकों के लिए भी रणनीति बनाते हैं, जहां हमें अपना काम शुरू करना है।
आजकल साइबर अपराध के बढ़ते मामलों के बीच प्रवासी मजदूरों का विश्वास जीतना और भी मुश्किल हो जाता है।
मेरा ज़्यादातर काम फ़ील्ड में ही है। मैं जिस इलाके में काम करती हूं, वह एक औद्योगिक क्षेत्र है, जहां अधिकतर लोग प्रवासी मजदूर हैं और अनौपचारिक बस्तियों में रहते हैं। वे नए लोगों से बात करने में भी झिझकते हैं। मानसिक स्वास्थ्य के बारे में बात करना तो और भी ज़्यादा मुश्किल हैं। आजकल साइबर अपराध के बढ़ते मामलों के बीच उनका विश्वास जीतना और भी मुश्किल हो जाता है।
लोगों से बातचीत करना आसान नहीं होता—वे ‘टेंशन’ (तनाव) शब्द से परिचित हैं और इसे समझते भी हैं, लेकिन जैसे ही मानसिक बीमारी का ज़िक्र आता है, तो उनकी पहली प्रतिक्रिया होती है, “क्या आप मुझे पागल कह रहे हैं?”
मैं उनके इस दृष्टिकोण को समझती हूं, क्योंकि मैं भी ऐसी ही थी। डिप्रेशन के बारे में मेरी समझ एक विज्ञापन से बनी थी, जिसमें दिखाया गया था कि इसमे लोग अपने दरवाजे बंद रखते हैं और बार-बार एक ही आदत दोहराते हैं । मैं ऐसा कुछ नहीं कर रही थी। इसलिए मैंने सोचा कि मुझे तो डिप्रेशन हो ही नहीं सकता।
मेरी भी यही राय थी कि मानसिक स्वास्थ्य समस्या का मतलब है कि मैं पागल हूं और मुझे किसी अस्पताल में बंद कर दिया जाएगा। लेकिन मैं गलत थी। जब मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता ने मुझे अस्पताल जाने की सलाह दी, तो मेरे मन में डर बैठ गया। मुझे लगा कि वे मेरी मर्जी के खिलाफ मुझे भर्ती कर लेंगे, पागल करार दे देंगे या मुझ पर इलेक्ट्रोशॉक थेरेपी आज़माएंगे। इस डर से मैंने डॉक्टर से सिर्फ इतना ही कहा कि मुझे नींद नहीं आती और सिर दर्द होता है। उन्होंने दवाइयां दी, लेकिन मैंने उन्हें हफ्तों तक नहीं लिया। मुझे डर था कि कहीं ये दवाइयां सच में मुझे पागल न बना दें।
जब स्वास्थ्य कार्यकर्ता फॉलो-अप के लिए आते, तो मैं झूठ बोल देती कि मैंने दवाइयां ली हैं, लेकिन वे असर नहीं कर रही। एक बार वो मुझे बिना बताए मिलने आ गयी, तो उन्होंने मेरी ज्यों की त्यों रखी हुई दवाइयों को देख लिया। उन्होंने बिना किसी दबाव के सुझाव दिया कि मैं आधी खुराक से शुरुआत कर सकती हूं। आखिरकार, मैंने दवाइयां लेना शुरू किया। दो-तीन महीने तक दवा लेने के बावजूद, इस दौरान मेरे मन में लगातार नकारात्मक विचार आते रहे। मैं सोचती थी कि कहीं मैं सच में पागल तो नहीं हो रही?
करीब सात-आठ महीने बाद, मुझे बुरांस से जुड़ने का मौका मिला। यहीं आकर मुझे पहली बार अवसाद और उसके लक्षणों को सही मायने में समझने का अवसर मिला। तब जाकर मैंने जाना कि यह कोई पागलपन नहीं, बल्कि एक सामान्य बीमारी है,जिसका इलाज संभव है। बस इसे स्वीकार करने की जरूरत होती है।
इस अनुभव से मुझे एहसास हुआ कि मानसिक परिस्थितियों के बारे में जागरूकता और सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के साथ भरोसेमंद रिश्ता बीमारी को स्वीकार करने के लिए कितना ज़रूरी है। अन्यथा, लोग यह स्वीकार नहीं करेंगे कि वे किस दौर से गुजर रहे हैं- ठीक वैसे ही जैसे मैंने नहीं किया। इसलिए मैं पहले समुदाय के साथ विश्वास का रिश्ता बनाती हूं।
हम लोगों से यह कहने के बजाय, कि उन्हें मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी कोई समस्या है, पहले उनके अनुभवों को समझने की कोशिश करते हैं। हम उन्हें बताते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य को भी ठीक वैसे ही देखा जाना चाहिए जैसे शारीरिक स्वास्थ्य को। अगर वे बुखार होने पर दवाई लेते हैं, तो मानसिक स्वास्थ्य के लिए मदद लेने में हिचक क्यों? कुछ मामलों में मैं अपने तरीके से समझाने की कोशिश करती हूं, और जब जरूरत पड़ती है, तो सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता एक-दूसरे का सहयोग करके हल निकालते हैं।
दोपहर 1:00 बजे: सुबह काम शुरू करने के बाद दोपहर के खाने का कोई तय समय नहीं रहता। अगर समुदाय में बातचीत और मिलने का काम पूरा हो जाता है, तो ऑफिस आकर खाना खा लेती हूं। पर कई बार यह मौका नहीं मिल पाता। इस दौरान ऑफिस में कुछ कागजी काम भी निपटाने होते हैं। जैसे समुदाय में जिन लोगों से बात हुई है उनका ब्यौरा लिखना, अगर पुराने केस में अपडेट हुई है तो उसकी प्रगति रिपोर्ट बनाना, गंभीर मामलों को प्राथमिकता सूची में शामिल करना।
इलाके की सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां समुदाय के लिए और भी ज़्यादा मानसिक तनाव पैदा करती हैं। उनसे बात करने पर मुझे एहसास हुआ कि उन्हें लगता है कि वे इलाज के लायक नहीं हैं।उन्हें कोई बुनियादी सुविधाएं नहीं दी जाती हैं और उन्हें लगता है कि उनके पास कोई ज्ञान नहीं है। अक्सर मैं एक ही परिवार के कई लोगों को मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझते देखती हूं। ऐसे में एक व्यक्ति हमें दूसरे व्यक्ति से भी जोड़ता है, कि उन्हें सहायता की आवश्यकता है।
संगठन की ओर से मुझे नेपाल के काठमांडू शहर में आयोजित एक कार्यक्रम में जाने का मौका मिल चुका है। यह मेरी पहली हवाई यात्रा थी।
महिलाएं आमतौर पर मानसिक स्वास्थ्य देखभाल को अपनाने के लिए ज्यादा तैयार होती हैं। लेकिन पुरुषों से इस विषय पर बात करना बेहद मुश्किल होता है। मेरे अनुभव में, केवल दो-तीन प्रतिशत पुरुष ही यह स्वीकार करते हैं कि वे किसी मानसिक स्वास्थ्य समस्या का सामना कर रहे हैं। नशीली दवाओं के उपयोग या घरेलू हिंसा के मामलों में भी वे यह मानने से इनकार करते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य इनका एक मूल कारण हो सकता है। जागरूकता की कमी और सही जानकारी न होने की वजह से यह समस्या और जटिल हो जाती है।
अपने अनुभवों के कारण मैं लोगों की बातों में छिपे संकेत जल्दी समझने लगी हूं। जब कोई कहता है कि वो “बहुत सोच रहे हैं,” तो मुझे एहसास हो जाता है कि वे किस मानसिक दबाव से गुजर रहे होंगे।शायद वैसा ही, जैसा मैंने महसूस किया था। जब कोई सिर दर्द की शिकायत करता है, तो मैं समझ सकती हूं कि यह सिर्फ शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक परेशानी का संकेत भी हो सकता है, जिसे वे छुपा रहे हैं।
बुरांस के पास एक सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता टूलकिट है, जो हमें मानसिक स्वास्थ्य के लिए व्यक्तियों की जांच करने में मदद करती है। हमें महीने में दो-तीन बार प्रशिक्षित किया जाता है और किसी भी नई नीति के बारे में सूचित किया जाता है।इससे हमें यह भी पता चलता है कि हमें समुदायों के साथ बातचीत करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए।
यह मेरे लिए भी बहुत मददगार है। अपने काम ने मुझे न केवल लोगों की मदद करने का तरीका सिखाया, बल्कि अपनी भावनाओं को संतुलित रखना भी सिखाया है। पहले, जब मैं किसी गंभीर स्थिति का सामना करती थी, तो घबरा जाती थी। लेकिन धीरे-धीरे मैंने समझा कि हर समस्या का कोई न कोई समाधान निकल सकता है। अब जब मैं समुदाय में लोगों से मिलती हूं, तो उन्हें ज्यादा से ज्यादा सुनने की कोशिश करती हूं। इससे न सिर्फ उनकी बातें बेहतर समझ में आती हैं, बल्कि हमारे बीच विश्वास का रिश्ता भी मजबूत होता है। आज इस काम की बदौलत समुदाय में मेरी अपनी एक पहचान बन गयी है।
हालांकि पहले ऐसा नहीं था। नौकरी के शुरूआती दिनों में समुदाय के लोगों के अलावा स्थानीय सरकारी अधिकारियों से बातचीत करने में काफी मुश्किल होती थी। कई बार मुझे अपने कपड़ों और बोलने के तरीके को लेकर झिझक भी महसूस हुई। फिर काम करते-करते मैंने सही ढंग से बात करना और अपनी बात रखना, दोनों सीखा। इसके साथ ही मेरे व्यवहार और पहनावे में भी बदलाव आया।
सालों बाद अब मैं किसी भी परिस्थिति में, किसी भी अधिकारी अथवा समुदाय के लोगों से पूरे आत्मविश्वास के साथ बात कर पाती हूं। मेरे पास उनके सवालों के जवाब होते हैं।
इतना ही नहीं, हम अपने काम के सिलसिले में शहर से बाहर भी जाते हैं। जैसे संगठन की ओर से मुझे नेपाल के काठमांडू शहर में आयोजित एक कार्यक्रम में जाने का मौका मिल चुका है। यह मेरी पहली हवाई यात्रा थी और मैं अकेली थी। कार्यक्रम से पहले मैं घबरा रही थी, लेकिन मैंने खुद से कहा कि आखिर मैं अपनी कहानी और अनुभव साझा करने के लिए इतनी दूर आयी हूं। खुद को समझाया कि अगर मैंने यह नहीं किया, तो बहुत से लोग जो अपने जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं, वे ऐसा नहीं कर पाएंगे। उस दिन मैंने सैकड़ों लोगों के सामने पहली बार मंच पर मानसिक स्वास्थ्य विषय पर बात की।

शाम 5:00 बजे: कभी-कभी काम में देरी हो जाती है, पर ज्यादातर शाम 5 बजे मेरा काम खत्म हो जाता है। घर पास होने के चलते मैं 10 मिनट में पहुंच जाती हूं। फिर कुछ देर आराम करने के बाद घर के कामों को निपटाती हूं। इस दौरान टीवी या मोबाइल पर गाने लगा लेती हूं। इससे वक्त कब गुजरता है, पता ही नहीं चलता और मन भी शांत हो जाता है।
वैसे तो पूरी कोशिश रहती है कि मेरे काम का असर घर और निजी जीवन पर ना हो, पर फिर भी कुछ बातें जहन में रह जाती हैं तो उन्हें मैं अपने पति के साथ साझा करती हूं।
शुरूआत में जब लोगों से उनके अनुभव सुनने शुरू किए, तो वे मन पर काफी असर डालते थे। पर सालों से समुदाय में एक मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में काम करने का नतीजा है कि अब लोगों की कहानियां मुझे पहले जैसी गहराई से प्रभावित नहीं करती। मैं सीख गयी हूं कि अपने काम और भावनाओं के बीच एक संतुलन बनाए रखना जरूरी है। मैं अधिकांश यह कोशिश करती हूं कि जो कुछ भी मैं समुदाय में देखती और अनुभव करती हूं, वह मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर असर न डाले। क्योंकि किसी और की मदद करने की प्रक्रिया में हमें खुद को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए। लेकिन अगर कभी कोई घटना मुझे प्रभावित करती है, तो मेरे ऑफिस में कुछ ऐसे सहकर्मी हैं जिनसे मैं खुलकर बात कर सकती हूं।
जब मैं अकेली थी, तो यह सब बहुत मुश्किल था। पर अब पति मेरी बातों को ध्यान से सुनते और समझते हैं। मेरा परिवार भी है, जिसमें मेरे मां-बाप और भाई-बहन हैं। मुश्किल समय में उन्होने मेरा साथ नहीं दिया था, इसलिए मुझे उनकी बहुत कमी महसूस हुई। इससे मुझे परिवार के साथ की अहमियत समझ आयी।
जब कोई यह महसूस करता है कि उन्हें मानसिक विकार या बीमारी है, तो सबसे पहले वे खुद को दूसरों से अलग कर लेते हैं। ऐसे में मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी होती है कि वे मरीजों और उनके परिवारों के बीच एक मजबूत रिश्ता कायम करें। इसी से उन्हें महसूस होता है कि वे अकेले नहीं हैं औरउनके अच्छे-बुरे समय में उनका परिवार साथ है। यह विश्वास और समर्थन ही मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लोगों को ताकत देता है और उनके इलाज की प्रक्रिया को आसान बनाता है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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