मेरा नाम संतोष कुंवर है और मैं एक वन रक्षक के रूप में राजस्थान के उदयपुर जिले में कार्यरत हूं। हर वन रक्षक को किसी एक वनखण्ड की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। वर्तमान में मेरी पोस्टिंग उदय निवास नाके पर है और मेरा वनखण्ड करगेट है। इससे पहले मैं मेवाड़ बायोडायवर्सिटी पार्क चिरवा, उदयपुर में पोस्टेड थी, जहां मैंने 2016 से 2024 तक काम किया।
महज 14 साल की उम्र में मेरी शादी हो गयी थी। उस समय मैं छठी कक्षा में पढ़ती थी। शादी होने के साथ, मेरी पढ़ाई छुड़वा दी गयी। मेरे पति छोटे-मोटे काम करते थे। शादी के बाद मैं एक ही तरह की दिनचर्या में कैद हो गयी। फिर मेरी बेटियां हुई। कुछ समय बाद मेरे पति का देहांत हो गया। मैंने अपनी ससुराल में कुल 12 साल बिताए। वहां का नियम था: कोई पढ़ाई-लिखाई नहीं, घर के अंदर रहना और बाहर न निकलना।
इससे मेरी सोच-समझ और आत्मविश्वास खत्म होता गया। मेरे परिवार का मानना था कि मेरा ससुराल ही मेरी नियति है। तब मेरे बच्चे बहुत छोटे थे। उनके पालन-पोषण के लिए मैंने लोगों के घरों में काम करना शुरू किया। कुछ समय बाद, साल 2005 में मैं सेवा मंदिर नाम की संस्था से जुड़ी। शुरुआत में, यहां मैं साफ-सफाई और रसोई संभालने का काम करती थी। इस दौरान मैंने प्रीति शक्तावत और कविता मैडम जैसी महिलाओं के साथ काम किया। उन्होंने न सिर्फ मेरी परिस्थिति को समझा, बल्कि मुझे आगे की राह भी दिखायी। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे अपनी पढ़ाई पूरी करनी चाहिए। लेकिन मेरे अंदर बिल्कुल भी आत्मविश्वास नहीं था कि मैं अब पढ़ पाऊंगी। मैंने उनसे कहा, “मुझे नहीं पता लोग कैसे पढ़ते हैं। मैं सब कुछ भूल चुकी हूं।”
फिर उनके मार्गदर्शन में, मैंने धीरे-धीरे पढ़ना शुरू किया। शुरुआत में मैं फेल भी हुई। लेकिन फिर मैं लगातार प्रयास करती रही। मैंने गणित से शुरुआत की और फिर अंग्रेजी जैसे दूसरे विषयों को भी पढ़ा। मुझे आज भी याद है कि मैं बच्चों को पालने, काम करने और पढ़ने के बीच अपना समय कैसे मैनेज किया करती थी।
सबसे पहले मैंने स्कूली शिक्षा पूरी की। फिर मैंने सरकारी नौकरियों के फॉर्म भरने शुरू किए और इसी कड़ी में वन रक्षक की परीक्षा और इंटरव्यू भी दिया। जब मुझे पता चला कि मेरा चयन हो गया है तो वह मेरे लिए बहुत खुशी का पल था। साल 2016 से मेरी यात्रा की एक नई शुरुआत हुई।
सुबह 7 बजे: मैं सुबह जल्दी उठती हूं, घर के काम निपटाती हूं और नाश्ता तैयार करती हूं। सालों तक जिम्मेदारियां निभाने के बाद, अब सुबह का वक्त मैं सिर्फ अपने लिए रखती हूं। आमतौर पर, मैं नौ बजे तक घर से निकल जाती हूं और सबसे पहले अपने क्षेत्र में गश्त लगाती हूं। इसके बाद स्थानीय ग्रामीणों से बातचीत करती हूं। मुझे लगता है उनसे नियमित बात करना मेरी नौकरी का एक अहम हिस्सा है। जब तक मैं इस इलाके में रहने वालों से बात नहीं करूंगी, तब तक उनको समझ नहीं पाऊंगी। अक्सर स्थानीय लोगों से ही पता चलता है कि जंगल में कहीं अतिक्रमण तो नहीं हो रहा है या आग तो नहीं लगी हुई है। फिर मैं मौके पर पहुंचकर उस खबर की जांच करती हूं। मैं कई बार लोगों को यह कहते सुनती हूं कि आप महिला हैं इसलिए आपके लिए यह काम करना मुश्किल होगा। लेकिन मैं हमेशा उन्हें समझाती हूं कि मुझे अपने हिसाब से काम करने दीजिए। अगर मदद की जरूरत होगी तो मैं जरूर कहूंगी। कभी-कभी लोग इसे सही तरीके से लेते है और कभी-कभी इसके चलते टकराव भी हो जाते हैं। हाल ही में, एक रात जंगल में तीन बजे के आसपास कुछ चंदन-चोर घुस आए थे। जब मुझे इसकी खबर मिली तो मुझे अकेले ही मौके पर पहुंचकर स्थिति का जायजा लेना पड़ा। ऐसी घटनाओं के बाद डिपार्टमेंट मे आपका कद तो बढ़ जाता है, लेकिन एक महिला होने के नाते आपका संघर्ष भी गहरा हो जाता है।

हर मौसम की अपनी कुछ चुनौतियां है, इसलिए मेरा दिन भी उसी मुताबिक बदलता रहता है। उदाहरण के लिए, हमें गर्मियों में जंगलों की आग को रोकने और बुझाने का काम करना होता है; वहीं बरसात में हम स्थानीय स्तर पर गांव की महिलाओं को वृक्षारोपण के लिए जागरूक करने का काम भी करते हैं। इसी तरह, जाड़े में लोगों को गीली लकड़ी काटने से रोकने से लेकर अतिक्रमण की घटनाओं पर नजर रखने तक के काम हमारी दिनचर्या को परिभाषित करते हैं।
दोपहर 12 बजे: मैं इस समय तक गश्त से लौट आती हूं और पूरा ब्योरा फोरेस्टर मैडम के साथ साझा करती हूं। जैसे मुझे किस काम में दिक्कत आ रही है या किस जगह और स्टाफ रखने की जरूरत है। ऐसी ही बहुत सी घटनाएं होती हैं जो गश्त के दौरान कभी भी आपके सामने आ सकती हैं। उदाहरण के लिए, कहीं किसी जंगली जानवर ने किसी को नुकसान पहुंचाया तो उसकी रिपोर्ट बनाना; किसी ग्रामीण की बकरी को चीते ने मार दिया तो उनको मुआवजा दिलाने की प्रक्रिया शुरू करना; जानवर अगर ग्रामीण इलाके में घुस जाए तो उसके लिए बाड़ा लगाना और फिर उसे जंगल में सुरक्षित छोड़ना। इस तरह, मेरे कोई तय काम नहीं है क्योंकि यह दायरा रोज बढ़ता-घटता रहता है। इसमें रोज नई चुनौतियां सामने आती है। कई बार अतिक्रमण करने वाले, तस्कर या भू-माफिया के लोग जंगल में आ जाते हैं। ऐसे में मैं कई बार फर्स्ट-रिस्पॉन्डेंट के तौर पर स्टाफ को सूचना देती हूं। ऐसी कुछ घटनाओं में कभी कभार धक्का-मुक्की भी हो जाती है।
एक रात जंगल में तीन बजे के आसपास कुछ चंदन-चोर घुस आए थे। जब मुझे इसकी खबर मिली तो मुझे अकेले ही मौके पर पहुंचकर स्थिति का जायजा लेना पड़ा।
जब गर्मियों के मौसम में जंगलों में आग लगने के दिन होते हैं तो हम सुबह-शाम, खाना-पीना सब भूल जाते है। इस दौरान हमारा पूरा ध्यान बस जंगल को बचाने पर होता है। जंगल की आग ऐसी घटना है, जिसमें हम जल्दी-जल्दी बहुत ज्यादा कुछ कर नहीं सकते हैं। कई बार आग लगने के बाद अगर कुछ पशु-पक्षी घायल मिलते हैं तो मैं उनके इलाज में मदद करने की भी कोशिश करती हूं।
इन सब कामों और जिम्मेदारियों को निभाने के दौरान मैंने यह सीखा है कि ऐसी आपदाओं में स्थानीय समुदाय सरकारी विभागों के साथ एक बहुत महत्वपूर्ण भागीदारी निभा सकते हैं। एक वे ही तो हैं, जो हमसे भी ज्यादा इन जंगलों से जुड़े हुए हैं। इसलिए मैं हमेशा उनके साथ जुड़ने का प्रयास करती रहती हूं। उदाहरण के लिए, मैं बायोडाइवर्सिटी पार्क के पास रहने वाले समुदायों की महिलाओं से उनके घर जाकर मिलती थी। मैं समय मिलने पर उनकी बच्चियों को थोड़ा बहुत पढ़ाती भी थी। शुरुआत में मैंने उन्हें कंकर-पत्थरों से गिनती सिखाई और फिर क-ख-ग। ऐसे में धीरे-धीरे हमारे बीच एक भरोसा कायम हुआ और हम एक-दूसरे के साथ सहज हो गए।

यहां से मैंने लोगों की स्थानीय समस्याओं को समझना शुरू किया। जैसे अगर जंगलों में आग लगती है तो वे क्या करते हैं? या फिर वो लकड़ियां लेने जंगल में इतनी अंदर तक क्यों जाते हैं? मैंने उनसे इन बातों को समझा और साथ ही उनके साथ एक रिश्ता भी बनाया। इस प्रक्रिया में थोड़ा समय जरूर लगता है। लेकिन आज अगर अंबेरी में आग लगती है तो वन विभाग के साथ गांव के लोग भी उसे बुझाने पहुंच जाते हैं। इसके अलावा जो लड़कियां जागरूक हुई, वो आज इस पार्क में प्रवेश टिकट बनाने का काम करती हैं। यह मुझे सुखद एहसास दिलाता है। अगर स्थानीय समुदाय और सरकार साथ मिलकर काम करेंगे तो हम बहुत सी स्थानीय चुनौतियों से प्रभावी रूप से निपट सकते हैं।
शाम 5 बजे: आमतौर पर, मैं इस समय घर लौटने की ओर होती हूं। लेकिन कभी-कभी कोई आपातकालीन स्थिति हो सकती है, जिसके चलते ड्यूटी पर बने रहना होता है। हाल ही में, उदयनिवास नाके पर फॉरेस्ट के मिनारे (बाउंड्री) पर गांव के कुछ लोग निर्माण कर रहे थे। हम उन्हें वहां समझाने के लिए पहुंचे। लेकिन वे भड़क गए कि हमारे पट्टे की जमीन है तो हम निर्माण करेंगे। ऐसी परिस्थिति में बहुत जरूरी है कि एक सरकारी कर्मी होने के नाते आप संयम बरतें। हमने उन्हें समझाया कि वे अपना निर्माण जारी रख सकते हैं लेकिन अगले दिन उसके मुआयने के लिए पटवारी को बुलाया जाएगा। इसके बाद जाकर मामला कहीं शांत हुआ।

कई बार जंगली जानवरों को रेस्क्यू करने या उनका इलाज कराने का काम भी हमारे हिस्से आता है। अगर कभी वे आस-पास की इंसानी रिहाइश में घुस आते हैं तो भी हमें मुस्तैद होना पड़ता है। उदाहरण के लिए, अगर हम कभी चीते को पिंजरे में बंद करते हैं तो काफी भीड़ इकट्ठा हो जाती है। ऐसे में भीड़ को नियंत्रित रखने के लिए बहुत संयम से काम करने की जरूरत पड़ती है। एक वनकर्मी होने के नाते मैं कई बार लोगों की जंगली जानवरों के साथ फोटो खिंचवाने या उनके बाड़े के पास जाने की आदतों को समझ नहीं पाती हूं। हम पशुओं के संरक्षण की बात तो करते हैं लेकिन अपने व्यवहार में बदलाव नहीं लाते हैं। ऐसे में सरकार और समुदाय के लोगों को शिक्षित किया जाना जरूरी है।
रात 9 बजे: इस समय तक मैं अपना घर का काम निपटा लेती हूं – जैसे खाना बनाना, खाना, रसोई समेटना वगैरह। समय मिलता है तो फोन पर अपने रिश्तेदारों, बहनों और बच्चों से बात करती हूं। मैं बहुत लंबे समय तक बुरे दौर से गुजरी हूं। इसलिए मुझे लगता है कि जो महिलायें अभी वैसी परिस्थितियों का सामना कर रही है, हमें उनका साथ देना चाहिए। अगर वे अकेली हैं तो उन्हें किसी सामाजिक संस्था से जुड़ना चाहिए। उनसे बात करने की कोशिश करें कि वे क्या कर सकती हैं या आप उनके साथ कैसे जुड़ सकती हैं। अगर महिलायें सामाजिक संस्थाओं से जुड़ती हैं तो उन्हें अपने जीवन की निजी चुनौतियों से उबरने में बहुत मदद मिलती है। चूंकि उनकी निजी समस्याएं कई बार बहुत बड़ी होती हैं, इसलिए उनके लिए विषम परिस्थितियों से निकल पाना कठिन हो जाता है। ऐसे में सामाजिक संस्थाओं से जुड़ना उन्हें नए तरीके से सोचना सिखाता है और उन्हें अपनी बात कहने का आत्मविश्वास मिलता है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
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