February 26, 2025

दांव पर ज़िंदगी: अरबों के टेक्सटाइल उद्योग का कड़वा सच

सूरत का भव्य टेक्सटाइल उद्योग भले ही समृद्धि की मिसाल हो, लेकिन इसकी बुनियाद प्रवासी श्रमिकों की बदहाल जीवन परिस्थितियों पर टिकी है।
8 मिनट लंबा लेख

नरेंद्र* के 15 वर्षीय बेटे का काम पर दूसरा दिन था। हम उसके घर लौटने का इंतज़ार कर रहे थे, जब नरेंद्र एक छोटे से अंधेरे कमरे में दाखिल हुए। “आज रात खाने में बस टमाटर है…2500 रुपए किराया और ऊपर से बिजली का बिल। अब मेरा गरीब बेटा ही मेरा सहारा है। मैं बेकार हो गया हूं। मैंने अपनी पत्नी से कह दिया है कि उसका पति मर चुका है। इस महीने यूनियन के कुछ दोस्तों की मदद से मैंने 3000 रुपए घर भेजे। लेकिन अब मैं हर महीने पैसे कहां से लाऊंगा? मैंने उसे कह दिया है कि मुझे मरा हुआ मान ले। अब सब उसके बेटे के भरोसे है।”

चश्मा लगाए नरेंद्र लड़खड़ाते हुए अपने 3×4 मीटर के कमरे की ओर बढ़ते हैं, जहां पैर फैलाने तक की भी जगह नहीं है। एक कोने में स्टोव चूल्हा और दो कड़ाही हैं, तो दूसरे कोने में प्लास्टिक की एक छोटी थैली में कुछ चावल और छह टमाटर बचे हुए हैं। हम उनके पीछे-पीछे कमरे की टांट से लटक रहे कपड़ों के नीचे सिर झुकाकर अंदर दाखिल होते हैं।

जुलाई 2024 में करघा (सिंचाई) मशीन से एक शटल उड़कर नरेंद्र की बायीं आंख में जा लगी थी। शटल लकड़ी का एक पैना, बेलननुमा उपकरण होता है, जिसके मध्यम से बुनाई प्रक्रिया के दौरान धागे को आगे-पीछे ले जाया जाता है। यह पारंपरिक करघा मशीनों का एक अहम भाग होता है। इन मशीनों पर काम करने वाले श्रमिक बताते हैं कि शटल का अक्सर मशीन से निकल जाना बहुत आम है। यह कभी हवा के तेज़ झोंके की तरह उनके पास से उड़ जाता है, तो कभी उनकी बांह से टकरा जाता है। बहुत से मामलों में यह 120–130 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से किसी श्रमिक की आंख में भी जा लगता है। नरेंद्र के साथ भी ऐसा ही हुआ था।

ओडिशा के गंजाम में बसे नरेंद्र के पांच सदस्यों के परिवार की पूरी गुजर-बसर उनकी कपड़ा उद्योग की 20,000–25,000 रुपए की मासिक कमाई पर निर्भर थी। वह खुद दो दशक पहले हाफ टिकट (नाबालिगों के लिए) लेकर 1500 किलोमीटर की यात्रा कर पहली बार गुजरात आए थे। तब उनके जिले के अधिकतर पुरुष रोजगार की तलाश में यहीं आते थे।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

प्रवासी श्रमिकों को भले यहां ‘बेहतर मजदूरी’ मिलती हो, लेकिन उन्हें इसकी पूरी कीमत भी चुकानी पड़ती है। वे लगातार 12 घंटे खड़े-खड़े काम करते हैं और उन्हें कभी भी अपने पैसे कटाए बिना सवेतन छुट्टी नहीं मिलती। 110–120 डेसिबल के शोरगुल वाले इस माहौल में जहां दशकों पहले एक मजदूर तीन मशीनें संभालता था, वहीं आज उसे 15–20 मशीनें एक साथ संभालनी पड़ती हैं। 20 साल से इस काम से जुड़े नरेंद्र को अब सुनने में कठिनाई होती है। हमें भी उनसे थोड़ी ऊंची आवाज़ में ही बात करनी पड़ी। इस पर वह हंसते हुए कहते हैं, “कोई भी करघा मजदूर साफ नहीं सुनता!”

फैक्ट्री में काम करता मजदूर_प्रवासी श्रमिक
पिछले दो वर्षों में यूनियन के माध्यम से सिर्फ सूरत में 800 से अधिक मामले दर्ज हुए हैं। | चित्र साभार: आजीविका ब्यूरो

समय के साथ उद्योग में कपड़े के हर मीटर पर मिलने वाली मजदूरी में भी गिरावट आयी है। वर्तमान में यह संख्या 1.8 से 3 रुपए प्रति मीटर के बीच है। 12 घंटे की शिफ्ट में एक मशीन से 20–45 मीटर कपड़ा तैयार होता है। चूंकि मजदूरी कुल उत्पादन पर निर्भर होती है, इसलिए अधिकांश श्रमिक बेहतर कमाई की आस में अपनी सुरक्षा और स्वास्थ्य की परवाह किए बगैर ज़्यादा से ज़्यादा काम करना चाहते हैं। दिलचस्प बात यह है कि मजदूरी कपड़े की गुणवत्ता पर भी निर्भर करती है, जो श्रमिक के नियंत्रण में नहीं होती।

कुछ महीने पहले की बात है। उस दिन नरेंद्र हमेशा की तरह अपनी सुबह की शिफ्ट में व्यस्त थे। तभी एक मशीन से निकली शटल सीधे उनकी आंख से जा टकराई और वह गंभीर रूप से चोटिल हो गए। फैक्ट्री मालिक ने तुरंत उन्हें अस्पताल पहुंचाया। इसके बाद उन्हें ‘बेहतर इलाज’ के लिए एक महंगे निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया, क्योंकि सरकारी अस्पताल में मामला दर्ज कर पुलिस को सूचित करना पड़ता।

इलाज के बावजूद अब उनकी एक आंख की पूरी रोशनी लगभग जा चुकी है और दूसरी आंख भी आंशिक रूप से प्रभावित है।

दशकों तक एक ही यूनिट में काम करने के बावजूद, नरेंद्र और उनके जैसे अधिकांश श्रमिकों के पास अपनी नौकरी का कोई आधिकारिक प्रमाण नहीं है। इस मामले में भी यूनियन के हस्तक्षेप के बाद ही पंचनामा करवाया गया, जिसमें मालिक ने पुलिस को बताया कि हादसे की सीसीटीवी फुटेज ‘रहस्यमय तरीके’ से गायब हो गयी है। साथ ही कहा गया कि दुर्घटना श्रमिक की लापरवाही के चलते हुई थी। लेबर कोर्ट में मुकदमा भी दायर किया गया, जिसे सुनवाई से पहले ही 14 सितंबर को लोक अदालत में 2 लाख रुपए में निपटा दिया गया।

ऐसे अधिकांश मामलों में नरेंद्र जैसे कई श्रमिक किसी भी राशि पर समझौता कर लेते हैं, क्योंकि उचित मुआवजा मिलना उनके लिए अभी भी बस एक सपना भर है। इस सपने के पीछे भागने के लिए न तो उनके पास कानूनी प्रक्रिया की पर्याप्त जानकारी है और न ही संसाधन। नरेंद्र अब घर लौटने की तैयारी कर रहे हैं। उनका बेटा, जिसने पिता के हादसे के बाद नौवीं में पढ़ाई छोड़ दी थी, काम में जुट चुका है और बॉबिन बनाना सीख रहा है। उसका कहना है, “जब हम पिछली बार मिले थे दीदी, तब मुझे कुछ नहीं आता था। अब मैं एक कुशल कारीगर हूं। पिताजी की चिंता कम हो गयी है। बस मैं नहीं जानता कि अब मैं घर कब जा पाऊंगा। लेकिन कम से कम मेरे छोटे भाई-बहन अपनी पढ़ाई पूरी कर पाएंगे।”

हर हादसे का हालांकि एक जैसा अंजाम नहीं होता। उत्तर प्रदेश के अल्ताफ* की कहानी कुछ ऐसी ही थी। काम के दौरान जब मशीन में उनकी उंगली कट गयी, तो मालिक ने उन्हें 1,000 रुपए देकर पास के क्लिनिक में इलाज करवा दिया। उनकी कटी हुई उंगली तीन दिन तक मशीन के नीचे ही पड़ी रही। बाद में उन्होंने खुद ही जाकर उसे वहां से हटाया। “क्या करें, प्रोडक्शन रुकना नहीं चाहिए!” हादसे के बाद अल्ताफ ने कानूनी पचड़े में पड़ने की बजाय अपने गांव लौटना बेहतर समझा। “मुझे पुलिस के मामले में नहीं पड़ना। ये लोग सब बड़े लोग हैं।”

कौन, क्या और कैसे?—आंकड़ों का खेल

सूरत भारत के कुल वस्त्र उत्पादन में 12 प्रतिशत और कुल मानव-निर्मित फाइबर उत्पादन में 28 प्रतिशत योगदान देता है। वर्तमान में शहर के बाहरी इलाकों तक भी हजारों बड़े और छोटे, कानूनी और ग़ैर-कानूनी कारखाने जड़ें जमा चुके हैं। 2018 में सूरत के पावरलूम उद्योग का सालाना कारोबार 50,000 करोड़ रुपए के हैरतअंगेज़ आंकड़े तक पहुंच गया था! इस उद्योग में दिन-रात खून-पसीना बहाने वाले अधिकतर प्रवासी मजदूर ओडिशा के होते हैं, ख़ासकर गंजाम जिले से।

कोई भी यूनिट अपने श्रमिकों को पहचान पत्र नहीं देती और दुर्घटनाओं को रिपोर्ट नहीं करती।

गौरतलब है कि गंजाम के सुराडा और जगन्नाथ प्रसाद इलाकों के लगभग एक-तिहाई प्रवासी श्रमिक सूरत में काम करते हैं। अनुमान है कि कम से कम सात लाख ओडिया श्रमिक यहां के पावरलूम उद्योग में मजदूरी कर रहे हैं। वहीं बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से आने वाले मजदूरों की कोई आधिकारिक गणना नहीं है, जबकि वे भी श्रमिकों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं।

वैसे तो सूरत में कई यूनियन हैं, लेकिन प्रवासी श्रमिक सुरक्षा मंच (PSSM) शायद एकमात्र ऐसी यूनियन है, जिसमें केवल प्रवासी करघा मजदूर शामिल हैं। इसे 2020 में औपचारिक रूप से पंजीकृत किया गया। इसका गठन आजीविका ब्यूरो ने किया था। आजीविका ब्यूरो एक श्रम अधिकार संस्था है, जो पश्चिमी भारत में प्रवासी श्रमिकों के तमाम मुद्दों पर लंबे समय से काम करती रही है।

पिछले दो वर्षों में यूनियन के माध्यम से सिर्फ सूरत में 800 से अधिक मामले दर्ज हुए हैं। साथ ही श्रमिकों की छंटनी, वेतन भुगतान, ग्रेच्युटी, दुर्घटनाओं और काम पर मृत्यु जैसे तमाम मुद्दों पर लेबर कोर्ट में 60 मुकदमे दायर किए गए हैं। काम का आधिकारिक प्रमाण न होने और और जल्दी फैसला सुनाने के चलते आमतौर पर अदालत के बाहर ही मामले को निपटा लिया जाता है।

यूनियन के एक वरिष्ठ सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर हमें बताया, “मैंने वेद रोड, सायन और नवागाम में 25 साल काम किया है। मैं आपको गारंटी दे सकता हूं कि कोई भी यूनिट अपने श्रमिकों को पहचान पत्र नहीं देती, हमारे ओवरटाइम का हिसाब नहीं रखती और दुर्घटनाओं को रिपोर्ट नहीं करती। ये सब इस उद्योग के अनकहे ‘नियम’ बन चुके हैं। जब मेरे पिछले मालिक को पता चला कि हम इस यूनियन का हिस्सा हैं, तो उन्होंने सारे दूसरे मालिकों को ग्रुप में हमारी फोटो भेज दी, ताकि हमें कहीं और काम न मिले। इसलिए अब मैं सतर्क रहता हूं।”

पावरलूम में श्रमिक सुरक्षा

एक पावरलूम यूनिट के जोखिमों को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि इसमें किस प्रकार के काम शामिल होते हैं। एक पावरलूम फैक्ट्री में कई तरह के श्रमिक काम करते हैं। मसलन कुछ श्रमिक कच्चे धागे को मजबूत और टिकाऊ बनाने के लिए उसे बुनते हैं। कुछ श्रमिक वार्पिंग मशीन का उपयोग कर हर धागे को 80–120 किलोग्राम वजनी बीम पर लपेटते हैं, जिसे बाद में वे खुद ही उठाकर करघा मशीन पर लगाते हैं। वहीं कुछ श्रमिक इन मशीनों को चलाकर कपड़ा तैयार करते हैं।

इसके बाद एक सुपरवाइजर उत्पादन को मापता है और उसे यूनिट के किसी अन्य हिस्से में रखे अपने रजिस्टर में दर्ज करता है। आमतौर पर ये मशीनें पुरानी होती हैं और लगातार 24 घंटे चलती रहती हैं। इसलिए इन्हें रोजमर्रा के रखरखाव की जरूरत पड़ती है। यह काम एक विशेष श्रमिक, जिसे ‘मास्टर’ कहा जाता है, द्वारा किया जाता है। यूनिट में ज़रूरत के हिसाब से हेल्पर, इलेक्ट्रीशियन और अन्य सहायक कर्मचारी भी होते हैं। घायल होना, मशीन में फंसना या कुचले जाना, बीम उठाकर सीढ़ियां चढ़ते वक्त फिसलकर गिरना, उड़ती शटल से चोट खाना, करंट लगना या आग से झुलसना- श्रमिकों की जान को हर कदम पर खतरा लगातार बना रहता है।

पावरलूम के श्रमिक_प्रवासी श्रमिक
श्रमिकों का कहना है कि पुरानी करघा मशीनें अपनेआप में बेहद खतरनाक हैं। | चित्र साभार: आजीविका ब्यूरो

लिंबायत इलाके के एक श्रमिक बताते हैं, “पिछले दो महीनों में कम से कम दस बार शटल मशीन से उड़कर बाहर आ चुकी है। एक बार तो यह मेरी बांह को छूकर निकली।” मई से अगस्त 2024 के बीच केवल चार महीनों के अंतराल में करघा मशीन चलाते समय करंट लगने से आठ मजदूरों की मौत हो गयी। खराब वायरिंग, अपर्याप्त इंसुलेशन, और सुरक्षा उपकरणों (एमसीबी/ईएलसीबी) की अनुपस्थिति के चलते आए दिन ऐसी दुर्घटनाएं होती रहती हैं। इन हादसों की संख्या देखें, तो यह चौंकाने वाली बात है कि इस गंभीर समस्या पर अभी तक कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है। यह सारे जोखिम कम करने के लिए कई सुरक्षा उपाय अपनाए जा सकते हैं।

वहीं श्रमिकों का कहना है कि पुरानी करघा मशीनें अपनेआप में बेहद खतरनाक हैं। प्रवासी श्रमिक सुरक्षा मंच (पीएसएसएम) की कार्यकारी समिति के सदस्य कहते हैं, “मौत के बढ़ते मामले, खासकर बरसात के मौसम में, देखते हुए हमने इस साल मई में सूरत जिला कलेक्टर को एक मांग पत्र सौंपा। इसके बावजूद दो और मजदूरों की करंट लगने से मौत हो गयी। सिर्फ अगस्त में ही ऐसी पांच दुर्घटनाओं की रिपोर्ट है। लेकिन औद्योगिक सुरक्षा एवं स्वास्थ्य निदेशालय (डीआईएसएच) के कार्यालय ने हमें सूचित किया कि चूंकि ये यूनिट फैक्ट्री के रूप में पंजीकृत नहीं हैं, इसलिए यह उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। तो फिर सवाल यह उठता है कि इसका जिम्मेदार कौन है और हम कहां जाएं? यह एक गंभीर मसला है।”

पीएसएसएम अभी भी कलेक्टर कार्यालय से जवाब मिलने की प्रतीक्षा कर रहा है कि इस मुद्दे पर क्या कार्रवाई या निर्देश दिए गए। सूरत में पिछले एक दशक से काम कर रही आजीविका ब्यूरो ने 2021 में करघा मालिकों के साथ मिलकर एक विशेष सुरक्षा पहल शुरू की थी। इस पहल में संस्था और मालिकों की आंशिक वित्तीय भागीदारी से किसी यूनिट में चुनिंदा सुरक्षा उपायों को अपनाया जाता है और उसे ‘मॉडल वर्कसाइट’ का नाम दिया जाता है। अब तक पूरे जिले में 36 मॉडल वर्कसाइट बनायी जा चुकी हैं, जहां सुरक्षा उपायों के लागू होने के बाद से कोई शटल दुर्घटना या करंट लगने की घटना सामने नहीं आयी है। इन सुधारों में साफ-सफाई, बुनियादी सुविधाएं, सेंसर लाइट, नई वायरिंग, इंसुलेशन और एमसीबी/ईएलसीबी उपकरणों जैसे कई उपाय शामिल हैं। ऐसी हर यूनिट को ‘मॉडल’ उदाहरण बनाकर आसपास की अन्य यूनिट को भी कम लागत में सुरक्षा उपाय अपनाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

कानून और हकीकत

यूनिट में सुरक्षा की बात की जाए, तो इसमें तेल के धब्बे साफ करने से लेकर मशीन के लीवर पर मात्र 20 रुपए में मिलने वाला प्लास्टिक कवर लगाने तक जैसे कई उपाय कारगर हो सकते हैं। यह हैरानी की बात है कि ऐसे बहुत से किफायती और आसानी से उपलब्ध उपायों की मांग करना भी श्रमिकों के लिए टेढ़ी खीर साबित होता है। अधिकांश मालिक अपनी जिम्मेदारी से आसानी से पल्ला झाड़ लेते हैं। जवाबदेही से बचने का ये सिलसिला यूनिट के पंजीकरण से ही शुरू हो जाता है।

हमारी उम्र ढल रही है और यह संघर्ष अभी पांच, दस या बीस साल भी चल सकता है।

उत्पादन में शामिल अधिकतर पावरलूम को फैक्ट्रीज़ एक्ट, 1948 के तहत पंजीकृत करने के बजाय गुजरात दुकान एवं प्रतिष्ठान अधिनियम, 2019 के अंतर्गत पंजीकृत किया जाता है। इस कारण इन करघों की निगरानी नगर निगमों या कुछ मामलों में, ग्राम पंचायतों के दायरे में आती है। कहना गलत नहीं होगा कि दोनों में से किसी के भी पास श्रम कानूनों के उल्लंघन की जांच करने की न तो क्षमता होती है और न ही रुचि। व्यवस्था-तंत्र की इसी खामी का फायदा उठाकर मालिक अक्सर एक ही यूनिट को कई ‘दुकानों’ के रूप में पंजीकृत करवा देते हैं, जिससे टैक्स और लेबर नियमों से बचा जा सके। इसका नतीजा यह होता है कि श्रमिकों के लिए बीमा जैसी बुनियादी सुविधाएं भी लगभग नगण्य हो जाती हैं।

गुजरात में संशोधित परिभाषा के अनुसार, एक “प्रतिष्ठान” (एस्टेब्लिशमेंट) वह जगह है, जहां “व्यापार, व्यापारिक गतिविधि या उत्पादन” किया जाता है। यह स्पष्ट रूप से एक फैक्ट्री की परिभाषा से उलट है। लेकिन यह पंजीकरण कानूनी रूप से वैध होता है, जिससे एक फैक्ट्री के लिए स्थापित सुरक्षा और सुविधाओं मानकों की तुलना में कमतर मानक लागू हो जाते हैं। इससे ये यूनिट राज्य के मुख्य सुरक्षा विभाग (डीआईएसएच) की निगरानी से बाहर हो जाती हैं। यह तब स्पष्ट हुआ जब सितंबर 2024 में सूचना के अधिकार के तहत औद्योगिक सुरक्षा और स्वास्थ्य निदेशालय कार्यालय से मिले उत्तर (संख्या: 0213/RTI/08/2024) में बताया गया कि वे केवल पंजीकृत फैक्ट्रियों में हुई घातक दुर्घटनाओं का रिकॉर्ड रखते हैं। इसका अर्थ यह है कि यदि किसी लूम यूनिट में हुई घटना की रिपोर्ट को डीआईएसएच भेजा जाता है, तो भी उनके पास उस मामले में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं होता।

फ़ैक्टरी मजदूरों की स्थिति_प्रवासी श्रमिक
नयी श्रम संहिताओं में निरीक्षण शक्तियों को कमजोर कर दिया गया है, जिससे यह आने वाले समय में एक गंभीर समस्या का रूप ले सकती है। | चित्र साभार: आजीविका ब्यूरो

दुकानों और प्रतिष्ठानों में श्रमिकों की व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य की निगरानी का दायित्व एक गुमास्ता अधिकारी के पास होता है। शहर की सीमा से बाहर होने पर यह दायित्व ग्राम पंचायत द्वारा निभाया जाता है। ऐसे में वे लाखों श्रमिकों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकते। श्रम कानूनों के उल्लंघन से निपटने का पहला कदम काम का आधिकारिक प्रमाण स्थापित करना है। श्रमिकों के लिए औपचारिक कानूनी प्रक्रियाओं या सरकारी विभागों तक पहुंच बनाना इसलिए कठिन हो जाता है, क्योंकि वे यह साबित ही नहीं कर पाते कि वे किसी विशेष यूनिट में कार्यरत हैं।

क्या यह बहुत बड़ी मांग है कि उद्योग और प्रशासन श्रमिकों के लिए एक सुरक्षित कार्यस्थल सुनिश्चित करें? सुरक्षा मानकों की निगरानी के लिए एक समर्पित प्राधिकरण का होना आवश्यक है, जहां श्रमिक अपनी शिकायतें दर्ज करा सकें। लेकिन इसके विपरीत, नयी श्रम संहिताओं में निरीक्षण शक्तियों को कमजोर कर दिया गया है, जिससे यह आने वाले समय में एक गंभीर समस्या का रूप ले सकती है।

इस पूरी पृष्ठभूमि में प्रवासी श्रमिक सुरक्षा मंच (पीएसएसएम) जैसी यूनियन के सामने नौकरशाही, शोषण और राजनीति की एक बड़ी दीवार खड़ी नजर आती है। लेकिन मजदूरों से बेहतर उनकी स्थिति कोई नहीं समझ सकता। पीएसएसएम ने सूरत के कलेक्टर और जिले की दुकान एवं प्रतिष्ठान प्राधिकरणों को एक मांग पत्र सौंपा है, जिसमें श्रमिकों के लिए औपचारिक वेतन भुगतान और पहचान पत्र जारी करने जैसी आवश्यक मांगें उठायी गयी हैं।

पीएसएसएम के पूर्व अध्यक्ष कहते हैं, “हमारी उम्र ढल रही है और यह संघर्ष अभी पांच, दस या बीस साल भी चल सकता है। लेकिन हम करघा श्रमिकों के लिए सम्मानजनक कामकाजी परिस्थितियों की मांग करते रहेंगे। हमें उम्मीद है कि कोई तो कभी हमारी बात जरूर सुनेगा।” विकास और औद्योगीकरण पर गर्व करने वाले किसी भी राज्य में प्रवासी मजदूरों के जीवन पर भी उतना ही ध्यान दिया जाना चाहिए, जितना छोटे व्यवसायों पर दिया जाता है।

*पहचान गोपनीय रखने के लिए नाम बदल दिए गए हैं।

यह लेख मूल रूप से अंग्रेज़ी में ‘द लीफलेट’ में प्रकाशित हुआ है।

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लेखक के बारे में
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दिशा डी.

दिशा एक वकील और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। दूसरी पीढ़ी की प्रवासी के तौर पर वह असंगठित श्रमिकों के अधिकारों व न्याय तक उनकी पहुंच से जुड़े मुद्दों में गहरी रुचि रखती हैं। उन्होंने गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी से कानून और सामाजिक कार्य में स्नातक किया है और वर्तमान में गुजरात में आजीविका ब्यूरो के साथ कार्यरत हैं।

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सिवा मलिक

सिवा मलिक एक ओडिया प्रवासी हैं और गुजरात में रहते हैं। पिछले आधे दशक से वह कई भूमिकाएं निभाते हुए प्रवासी श्रमिक सुरक्षा मंच (सूरत में पावरलूम श्रमिकों की पंजीकृत ट्रेड यूनियन) को सशक्त बनाने में आजीविका ब्यूरो के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं।

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