सामाजिक व्यवहार परिवर्तन में रीति-रिवाज एक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं

भारत एक उत्सव प्रिय देश है जहां हम लगभग सालभर ही तमाम तरह के त्यौहार मनाते हैं और रीति-रिवाजों का आनंद लेते हैं। लेकिन क्या ये रीति-रिवाज़ स्वास्थ्य व्यवहार में स्थायी परिवर्तन की कुंजी हो सकते हैं?

चलिए, पूजा की बात करते हैं। पूजा ग्रामीण बिहार में रहती हैं और उनकी उमर 24 वर्ष है। पूजा गर्भवती हैं और अपने समुदाय की कई अन्य महिलाओं की तरह वे भी खून की कमी से पीड़ित हैं। खून की कमी उनके और उनके बच्चे के स्वास्थ्य के लिए घातक हो सकती है। इससे बचने के लिए उन्हें अपने खाने में आयरन की मात्रा बढ़ाने की जरूरत है। अच्छी बात यह है कि इसके लिए आयरन और फॉलिक एसिड (आईएफ़ए) की खुराक का मिश्रण उपलब्ध है। यदि गर्भावस्था के प्रारंभिक चरण में इसका सेवन किया जाए तो यह बच्चे में मातृ रक्ताल्पता (मैटरनल एनिमिया) और न्यूरल ट्यूब दोष को कम करता है। पूजा को अपनी गर्भावस्था के दौरान हर दिन एक गोली लेने की जरूरत है। इन गोलियों की क़ीमत कम है और ये सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों द्वारा मुफ्त में मुहैया करवाई जाती हैं।

लेकिन पूजा जैसी गर्भवती महिलाएं सप्लीमेंट समय पर या लगातार पर्याप्त मात्रा में नहीं ले रही हैं। क्यों?

हमारे पास इस प्रश्न के कई सम्भावित उत्तर हैं: इलाज की ज़रूरत से जुड़ी धारणाएं, दुष्प्रभाव को लेकर चिंता, व्यवस्था में भरोसा, गोलियों की उपलब्धता की सुविधा और दवाइयों तथा स्वास्थ्य को लेकर मानसिकता। लेकिन क्या इस पहेली का कोई महत्वपूर्ण हिस्सा छूट रहा है?

क्या होगा अगर हम आपको बताएं कि ग्रामीण बिहार में महिलाएं पहले से ही गर्भावस्था की महत्वपूर्ण अवधि के दौरान स्वास्थ्य जोखिमों को कम करने का प्रयास कर रही हैं? और, यह भी कि वे पहले से ही इसके समाधान खोज कर उन पर काम कर रही हैं? हम यह भी बता रहे हैं कि अब तक मौजूद बायोमेडिकल समाधान इस अंतर को कम नहीं कर रहे हैं लेकिन दूसरी सबसे अच्छी बात यह है कि महिलाओं को लगता है कि ये उनके लिए काम कर रहा है?

इस पहेली का छूट गया हिस्सा है रीति-रिवाज़। रीति-रिवाज़ सांस्कृतिक रूप से समूहों की परंपराएं हैं, जिनमें कुछ तय क्रियाओं का एक क्रम शामिल होता है जिनका एक मतलब होता है। ज्यादातर लोग रीति-रिवाज़ों को पिछड़ी, अंधविश्वासी प्रथाओं की तरह देखते हैं और सामाजिक व्यवहार परिवर्तन के लिए उनकी प्रासंगिकता पर विचार नहीं करते हैं। सामाजिक व्यवहार के कुछ पहलुओं को समझने के लिए रीति-रिवाज़ महत्वपूर्ण हैं। वे अतीत और वर्तमान के सभी मानव समाजों की एक खूबी हैं। रिवाज़ प्राचीन लिखित अभिलेखों का हिस्सा हैं और अपने नए स्वरूपों के साथ आधुनिक दुनिया में मौजूद हैं, जैसे विस्तृत जापानी व्यवसाय कार्ड विनिमय रिवाज़। रीति-रिवाज़ लोगों को दूसरों से जुड़ने में मदद करते हैं, सामाजिक रूप से उन्हें सुरक्षित बनाते हैं, और जोखिमों के प्रबंधन में लोगों की सहायता करते हैं।

एक थाली में अगरबत्ती जल रही है-रीति रिवाज़
जो परिवर्तन पूरे समुदाय द्वारा गहराई से स्वीकार नहीं किया गया हो वह स्थाई नहीं होता है | चित्र साभार: पिक्साबे

गर्भावस्था एक महिला के जीवन का सबसे तनावपूर्ण और जोखिम भरा समय होता है। हमारे शोध में हमने पाया कि वास्तव में यह समय रीति-रिवाज़ों से भरा हुआ होता है। केवल बिहार में ही हमने प्रसव काल के दौरान स्वास्थ्य, पोषण और बच्चे के पालन-पोषण को नियंत्रित करने वाले सैकड़ों रीति-रिवाजों को दर्ज किया। छठी (छठे दिन की रस्म) का अनुष्ठान बिहार में व्यापक रूप से किया जाता है और कई अन्य संस्कृतियों में भी ऐसी ही प्रथा देखने को मिलती है। यह नवजात को समुदाय से परिचित करवाता है और उसकी सुरक्षा करता है। इसका संबंध प्रसवकाल के अंत से भी है, जिसे आधुनिक चिकित्सा में भी बायोमेडिकल कारणों से महत्व दिया जाता है।

छठी जैसे ज़्यादातर पारम्परिक स्वास्थ्य अनुष्ठान बायोमेडिकल सलाहों के मुताबिक उचित हैं। दरअसल, पारम्परिक स्वास्थ्य अनुष्ठान और बायोमेडिकल सुझावों के मेल से अक्सर सकारात्मक परिणाम मिलते हैं। स्तनपान शुरू करवाने से पहले नवजात शिशु के कानों में अज़ान (प्रार्थना के लिए मुसलमानों द्वारा दी जाने वाली आवाज़) देने के रिवाज़ को देखते हैं। अस्पतालों में प्रसव करवाने से पहले घरों में प्रसव करवाना आम बात थी और उस समय अज़ान पढ़ने के लिए मौलानाओं (सम्मानीय धार्मिक बुज़ुर्ग) को बुलाया जाता था। हालांकि हाल के दिनों में धार्मिक नेताओं को अस्पताल में बुलाना कठिन हो गया है। नतीजतन तुरंत स्तनपान में देरी हो जाती है। हमने तत्काल स्तनपान की बायोमेडिकल सलाह को लागू करने के लिए इस पारंपरिक स्वास्थ्य अनुष्ठान में लाई गई एक चतुराई भरे संशोधन को दर्ज़ किया। परिवार के लोग अब मौलानाओं को मोबाइल फ़ोन के ज़रिए उपलब्ध करवाते हैं ताकि वे नवजात के कानों में अज़ान पढ़ सकें।

ध्यान से देखने पर पता चलता है कि बायोमेडिकल सलाहें भी रीतिरिवाज बन गई हैं।

ध्यान से देखने पर पता चलता है कि बायोमेडिकल सलाहें भी रीति-रिवाज़ बन गई हैं। आपको दवा का तय शेड्यूल दिया जाता है। यह दवा कोई डॉक्टर या आपके भरोसे का कोई आदमी देता है – जरूरी नहीं कि आपको दवा या शेड्यूल के बायोमेडिकल कारणों की जानकारी हो ही। आप डॉक्टर के कहे अनुसार दवा निगल लेते हैं। ऐसा करने से आपको लगता है कि तनावग्रस्त परिस्थिति आपके नियंत्रण में हैं। सेहत में सुधार आने के साथ ही आपको डॉक्टर की पर्ची पर भरोसा होने लगता है और आप दूसरी बार भी उसका पालन करने लग जाते हैं। 

इसलिए, सवाल समुदाय को एक रीति-रिवाज़ को छोड़कर दूसरा (बायोमेडिकल) अपनाने के लिए तैयार करने का नहीं है। बल्कि यह मौजूदा रीति-रिवाजों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने और उनके साथ उपयुक्त जैव चिकित्सा पद्धतियों को एकीकृत करने के बारे में है ताकि लोग उनका पालन करने को अधिक महत्व दें। इस लिहाज से बिहार में हमारा काम अभी शुरुआती बिंदु पर है। हमारे द्वारा अध्ययन किए गए समुदाय की तरह ही हर समुदाय के अपने अलग रीति-रिवाज़ होते हैं जिन्हें हमें समझने का प्रयास करना चाहिए। बायोमेडिकल विशेषज्ञों को स्थानीय सांस्कृतिक विशेषज्ञों के सम्पर्क – दाई, धार्मिक एवं सामुदायिक नेताओं से मिलकर राय बनाने की ज़रूरत होगी। ऐसा संभव है कि ये स्थानीय विशेषज्ञ बायोमेडिकल पृष्ठभूमि के नहीं हों। ये स्थानीय विशेषज्ञ समुदाय में मौजूदा रीति-रिवाजों की व्याख्या में मदद कर सकते हैं और साथ ही यह भी बता सकते हैं कि बायोमेडिकल समुदाय द्वारा बताए गए रीति-रिवाजों को शामिल करने के लिए इनमें किस तरह के बदलाव किए जा सकते हैं।

रीतिरिवाज़ों का अस्तित्व समुदाय के प्रभावशाली लोगों के एक जटिल नेटवर्क के कारण होता है।

रीति-रिवाज, समुदाय के प्रभावशाली लोगों के आपसी जुड़ाव के कारण बने रहते हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में इस जुड़ाव का एक प्रमुख बिंदु सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (जैसे आशा कार्यकर्ता, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और अन्य सहयोगी नर्स दाइयां) हैं। हमारे शोध के दौरान हमने पाया कि सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता अपने कामकाज के क्षेत्र में बायोमेडिकल समुदाय और पारंपरिक स्वास्थ्य समुदाय के बीच एक प्रभावी पुल की तरह काम करती हैं। सांस्कृतिक सूत्रधार के तौर पर उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को समझना, यह सिखा सकता है कि बायोमेडिकल और परंपरागत स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को साथ कैसे लाया जा सकता है। इसके साथ ही यह रक्त की कमी जैसी न पता चलने वाली लेकिन गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं को पहचानने और उनका हल करने में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की भूमिका और प्रभाव को बढ़ा सकता है। 

स्थाई व्यवहार परिवर्तन लाना एक चुनौतीपूर्ण काम है। हम मानते हैं कि जब तक किसी समुदाय के लोग परिवर्तन को दिल से न स्वीकार कर लें तब तक कोई भी परिवर्तन स्थाई नहीं हो सकता है। समुदायों के निकट सहयोग से, साथ में विकसित होने वाले रीति-रिवाज़ हमें बदलाव हासिल करने का एक तरीका प्रदान कर सकते हैं।

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समाजसेवी संगठन खुदरा फंडरेज़िंग की शुरूआत कैसे कर सकते हैं?

भारत में फंडरेजिंग से जुड़ी बातचीत केवल दो समूहों पर ही केंद्रित होती है – हाई-नेट-वर्थ इंडिविजुअल्स (एचएनआई) और सीएसआर एक्ट के तहत दान करने वाली कम्पनियां। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, ख़ासकर कोविड-19 महामारी के बाद से इसमें एक तीसरी कड़ी जुड़ी है जो मुख्य रूप से व्यक्तिगत रूप से दान करने वालों पर केंद्रित है। दरअसल, चैरिटीज ऐड फ़ाउंडेशन की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार महामारी के दौरान भारत में व्यक्तिगत स्तर पर दान करने वाले लोगों की संख्या में औसतन 43 फ़ीसद की वृद्धि आई है। इससे भारत की समाजसेवी संस्थाओं को खुदरा फंडरेजिंग (रिटेल फंडरेजिंग) या क्राउडफ़ंडिंग के नाम से जाने जानी वाली फ़ंडिंग के इस्तेमाल का अवसर मिला है।

खुदरा फंडरेजिंग क्या है और समाजसेवी संस्थाओं के लिए यह क्यों महत्वपूर्ण है?

आसान शब्दों में कहें तो, खुदरा फंडरेजिंग लोगों की एक बड़ी संख्या से, व्यक्तिगत रूप से छोटी धनराशि जुटाने की प्रक्रिया है। यदि हम इस शब्दजाल से निकल कर देखें तो पाएंगे कि पैसे इकट्ठा करने का यह तरीका दशकों से दुर्गा पूजा या गणपति जैसे समारोहों के लिए चंदा जुटाने से बहुत अलग नहीं है। सफल क्राउडफंडिंग का एक उदाहरण स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी है जिसके बारे में कम ही लोग जानते हैं। स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी का स्तंभ 1,60,000 से अधिक लोगों द्वारा दी गई छोटी धनराशि से तैयार हुआ है। किसी एक उद्देश्य (जैसे कि कोई त्यौहार) या किसी खास संपत्ति (जैसे स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी का स्तंभ) के लिए धन इकट्ठा करने का यह तरीका खुदरा फंडरेजिंग को सबसे अच्छी तरह से दिखाता है।

कभी-कभार की जाने वाली क्राउडफंडिंग से अलग, रिटेल फंडरेजिंग का मतलब नियमित अंतराल पर अमूमन मासिक या वार्षिक रूप से धन जुटाना भी हो सकता है। उदाहरण के लिए, नेटफ्लिक्स सब्सक्राइबर जब तक चाहें तब तक हर महीने एक निश्चित राशि का भुगतान करते हैं।

धन जुटाने का यह तरीका समाजसेवी संस्थाओं को कई तरह से फायदा पहुंचा सकता है। किसी ख़ास उद्देश्य के लिए सैकड़ों या हजारों लोगों द्वारा दिए जाने वाले दान से संगठन के काम को वैधता और विश्वसनीयता मिलती है। चूंकि लोग संगठन की साख देखकर निवेश करते हैं इसलिए रिटेल फंडरेज़िंग किसी संगठन की छवि और दानदाता के बीच के भरोसे को भी दिखाता है। खुदरा फंडरेज़िंग से जुटाई गई धनराशि किसी एक खास प्रोजेक्ट से नहीं जुड़ी होती है। इसलिए यह संगठनों को नई तरह के काम करने, नए प्रयोग करने और ज्यादा जोखिम भरे प्रोजेक्ट शुरू करने में भी मददगार हो सकती है। सबसे जरूरी बात है कि खुदरा फंडरेज़िंग ऐसे सहयोगियों का समुदाय बनाने में मदद कर सकती है जो किसी खास उद्देश्य के लिए एक साथ आ रहे हों। सोशल सेक्टर में हम जो भी काम करते हैं, उनमें से ज्यादातर बदलाव और ताकत के स्थानांतरण या वितरण के आसपास होता है। इसलिए जब किसी संगठन के पास सहयोग करने वालों का एक बड़ा आधार होता हो तो यह न केवल उस समुदाय को प्रभावित करता है जिनके साथ काम कर रहा होता है। बल्कि, इसका सहयोग करने वाले लोगों को भी उत्साहित या आकर्षित करता है।

इसके बावजूद, कई समाजसेवी संस्थाएं खुदरा फंडरेजिंग को अपनाने से हिचकती हैं क्योंकि अनुदान हासिल करने जैसे परंपरागत तरीक़ों की तुलना में इसके किफ़ायती होने की बात तुरंत पता नहीं चलती है। एक संगठन सैकड़ों प्रस्ताव तैयार करने के बाद भी अपनी आर्थिक ज़रूरतें पूरा कर पाने में अक्षम हो सकता है, भले ही इसके एकाध प्रस्ताव, अनुदान में भी बदल चुके हों। इसकी तुलना में, व्यक्तिगत रूप से लोगों से संपर्क करने और उनसे फंड की मांग करने का काम अधिक समय और प्रयास लगाने वाला हो सकता है – और अक्सर होता भी है। इसके अलावा, एचएनआई एवं सीएसआर फ़ंडिंग आमतौर पर सालाना चक्र के मुताबिक व्यवस्थित होते हैं इसलिए संगठन लंबे समय तक चलने वाली योजनाओं पर सोच-विचार करने के आदी नहीं होते हैं। किसी अनुदान के लिए प्रक्रिया को पूरी करने का समय​ लगभग न के बराबर होता है जबकि नियमित अंतराल पर मिलने वाली खुदरा फंडरेज़िंग के प्रभाव हासिल करने में अधिक समय लगता है। इन अंतरों के बावजूद संगठनों को इस पर विचार करना चाहिए क्योंकि इससे आय का अनुमान लगाया जा सकता है, एक बड़ा आधार होता है जिससे उनके काम की वैधता और विश्वसनीयता बढ़ती है और संगठन की दीर्घकालिक क्षमता निर्माण का अवसर भी पैदा होता है।

एक औरत और एक आदमी के हाथों में पैसे-फंडरेजिंग एनजीओ
खुदरा फंडरेज़िंग से सहयोगियों का एक समुदाय बनाने में मदद मिल सकती है जो किसी खास उद्देश्य के लिए एक-दूसरे से जुड़ते हैं। | चित्र साभार: पिक्साबे

खुदरा फंडरेजिंग के बारे में किन्हें सोचना चाहिए?

बड़े एवं छोटे स्तर के कई संगठन अपने लाभ के लिए खुदरा फंडरेजिंग का इस्तेमाल करते हैं। विशेष रूप से, यह दृष्टिकोण ‘मूर्त’ कारणों जैसे कि पोषण, शिक्षा या स्वास्थ्य आदि के लिए अधिक कारगर होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इन उद्देश्यों से जुड़े दानदाता ये देख पाते हैं कि उनके धन का इस्तेमाल किन चीजों के लिए हो रहा है। इसके उलट, और शायद व्यावहारिक समझ के उलट खुदरा फंडरेजिंग अच्छी तरह से काम करती है जब कोई उद्देश्य दानदाता की सोच के साथ मेल खाता है।उदाहरण के लिए, स्वयंसेवकों द्वारा संचालित सबसे बड़े भारतीय संगठनों में से एक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) खुदरा फंडरेजिंग से धन जुटाता है।

अभी इस बात पर चर्चा किए जाने की जरूरत है कि अलग-अलग स्तरों पर पहुंच चुके संगठनों को कब खुदरा फंडरेजिंग को अपनाना चाहिए।

हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि व्यक्तिगत स्तर पर किया जाने वाला दान केवल बहुत बड़े संगठनों या किसी विशेष प्रकार के काम में लगे लोगों के लिए ही कारगर है। अभी इस बात पर चर्चा किए जाने की जरूरत है कि अलग-अलग स्तरों पर पहुंच चुके संगठनों को कब खुदरा फंडरेजिंग को अपनाना चाहिए। यह उन नए संगठनों के लिए एक उपयुक्त विकल्प है जो अभी शुरूआत कर रहे हैं क्योंकि उनमें जोखिम लेने और प्रयोग करने की क्षमता अधिक होती है। आमतौर पर, किसी खास उद्देश्य के लिए दान करने वाले लोग संस्थापक टीम के नेटवर्क में शामिल लोग जैसे कि उनके मित्र, परिवार और परिचित होते हैं। और, यह नेटवर्क क्राउडफंडिंग के लिए उपयुक्त होने के साथ-साथ, उद्देश्य के मुताबिक समुदाय बनाने के लिए भी सही लोग होते हैं। पहली बार फंडरेजर के तौर पर काम करते हुए मैंने यही नज़रिया अपनाया था। मेरा लक्ष्य हर महीने दस नए लोगों को जोड़ना था। इस आंकड़े को सौ तक ले जाने में मुझे क़रीब छह महीने का समय लगा। इस समय तक मेरे पास 100 ऐसे लोग थे जो या तो मुझे 1,000 रुपए महीना या साल के 12 लाख रुपए दे रहे थे जो उस समय मेरी लागत से अधिक था।

किसी संगठन को खुदरा फंडरेजिंग के बारे में तब भी सोचना चाहिए जब वह अन्य संस्थागत स्रोतों से फंड हासिल करने में माहिर हो चुका हो। इस चरण पर संगठन, संस्थागत दाताओं को तकनीक और मानव पूंजी की लागत समेत खुदरा फंडरेजिंग वाले संस्थानों को धन देने के लिए राज़ी कर सकते हैं। और अंत में, 20-25 साल से काम कर रहे उन्नत संगठन पहले से ही सहयोग करने वालों का आधार होने के चलते बड़े पैमाने पर खुदरा फंडरेजिंग अपनाने के लिए तैयार होते हैं।

इस बात से कोई फर्क़ नहीं पड़ता है कि शुरुआत के लिए वे कौन सा समय चुनते हैं। मुख्य बात जो गैर-लाभकारी संस्थाओं को याद रखनी चाहिए वह यह है: खुदरा फंडरेजिंग का संबंध एक समुदाय निर्माण से है न कि केवल धन जुटाने के बारे में। यह समर्थकों के उस समूह से संबंधित है जो संगठन के एचएनआई, संस्थागत दानदाताओं और सीएसआर फ़ंडरों के एक छोटे समूह के उभरने की संभावनाओं से जुड़ा है।

कैसे शुरू करें, और अगर आप पूरी तरह से शामिल नहीं होना चाहते हैं तो क्या करें

कुछ व्यावहारिक कदम ऐसे हैं जिन्हें खुदरा फंडरेजिंग का फ़ैसला लेने वाले संगठनों को उठाना चाहिए।

1. एक आंतरिक समुदाय बनाएं

संगठनों के लिए पहला—और शायद सबसे कठिन—कदम एक आंतरिक समुदाय का निर्माण करना है। अक्सर, खुदरा फंडरेजिंग एक संस्थापक की जिम्मेदारी बन जाती है क्योंकि आम तौर पर संस्थागत फंडरेजिंग उनका ही काम होता है। लेकिन जब खुदरा फंडरेजिंग की बात आती है तो एक व्यक्ति पर पूरे संगठन का भार डालने से असफलता की संभावना बढ़ जाती है। इसकी बजाय, संस्थापकों को पहले पूरी टीम को साथ लाने की जरूरत होती है – इसका मतलब है कि टीम के सदस्यों को ये समझाया जाए कि स्थिरता के लिए खुदरा फंडरेजिंग क्यों जरूरी है। साथ ही, उन्हें व्यापक आधार होने के महत्व को समझाते हुए संगठन के लक्ष्य से इसके संबंध के बारे में भी बताया जाना चाहिए। यदि टीम इसको लेकर आश्वस्त नहीं है या स्वयं को उस मुद्दे से जुड़ा महसूस नहीं कर रही है तो उसे दूसरों को इसके लिए तैयार करने में कठिनाई होगी। इसके साथ-साथ, संगठन के बाहर भी ऐसे लोगों को खोजने की जरूरत होती है जो आपके उद्देश्य में विश्वास करते हैं और जो सार्वजनिक रूप से इसके समर्थक या शुभचिंतक के रूप में काम करेंगे।

2. एक केंद्रीय डेटाबेस बनाएं

अगला बड़ा कदम संगठन के सभी संपर्कों को एक केंद्रीय डेटाबेस में फीड करना है। यह एक समुदाय के निर्माण का प्रारंभिक बिंदु है। ये संपर्क अन्य स्रोतों के अलावा टीम के सदस्यों की फोनबुक, सोशल मीडिया संपर्क और ईमेल संपर्क के माध्यम से आ सकते हैं। इस डेटाबेस को बढ़ाते रहने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि हर नए सम्पर्क को तुरंत इसमें जोड़ दिया जाए। यह डेटाबेस ग्राहक संबंध प्रबंधन (सीआरएम) टूल से भी जुड़ा होना चाहिए। सीआरएम उपकरण महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे दाता व्यवहार को ट्रैक करने और विश्लेषणात्मक डेटा उत्पन्न करने का एक बेहतरीन तरीका हैं जैसे कि फंडरेजिंग वाले ई-मेल कौन प्राप्त कर रहा है, ई-मेल कौन खोल रहा है, और कब वे इसे छोड़ रहे हैं। इस सब के लिए न्यूनतम वित्तीय निवेश की आवश्यकता होती है, लेकिन फंडरेजिंग की रणनीति बनाते समय इससे बहुत फायदा होता है।

3. एक संचार रणनीति बनाएं

संचार रणनीति तैयार करना एक अन्य कदम है जो प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण है। इसका संबंध मुख्यरूप से दानदाताओं से संपर्क की शैली तय करने से होता है – क्या न्यूजलेटर मज़ेदार और सूचनात्मक या लोगों को आकर्षित करने वाली कहानियों से भरे होने चाहिए? इस तक पहुंचने का एक अच्छा तरीका एक ऐसे टोन का उपयोग करना है जो सबसे प्रामाणिक तरीके से संगठन के ब्रांड का प्रतिनिधित्व करता है। रणनीति के हिस्से के रूप में, संचार की आवृत्ति को परिभाषित करना भी महत्वपूर्ण है। लगातार बने रहना और नियमित रूप से संपर्क में रहना डोनर एंगेजमेंट में मदद करता है। इसका मतलब यह है कि जब फंडरेजिंग की कोई अपील की जाती है तो दानदाता अपने आपको उद्देश्य से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और उन्हें हैरानी नहीं होती है।

वार्षिक क्राउडफंडिंग अभियान करना या छोटे ऑनबोर्डिंग लक्ष्य निर्धारित करना खुदरा फंडरेजिंग के हल्केफुल्के तरीके हैं।

इसके साथ यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि एक सक्रिय ऑनलाइन उपस्थिति और पेमेंट गेटवे के साथ अपडेट वेबसाइट जहां पर लोगों के लिए दान देना आसान हो, भी मददगार होती है। खुदरा फंडरेजिंग में समय और प्रयास बहुत अधिक लगता है इसलिए इसके लिए समर्पित एक व्यक्ति को रखा जाना बहुत जरूरी है, बेहतर होगा यह बाहर की बजाय कोई भीतर का व्यक्ति हो।

यदि कोई संगठन उस चरण में है जहां उसके लिए खुदरा फंडरेजिंग में समय, पैसा और अन्य स्त्रोत का निवेश व्यावहारिक नहीं है तो इस स्थिति में ऐसे कई हल्के-फ़ुल्के तरीक़े हैं जिनका इस्तेमाल वे कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक महीने में 10 नए दाताओं को ऑनबोर्ड करने का एक छोटा लक्ष्य निर्धारित करना या एक वर्ष में एक क्राउडफंडिंग अभियान आयोजित करना। यहां एकमात्र चेतावनी यह है कि इस तरह के अभियान को हर साल चलाना महत्वपूर्ण है – यदि यह एक बार होने वाला आयोजन है, तो दानदाताओं के एक स्थिर समुदाय को बनाए रखना कठिन होगा।

खुदरा फंडरेजिंग की संभावित चुनौतियां और नुकसान

अपने कई सालों के अनुभव में मैंने देखा है कि रिटेल फंडरेजिंग को लेकर समाजसेवी संगठन क्या ग़लतियां करते हैं।

1. खुदरा फंडरेजिंग से जुटाए धन का उपयोग कार्यक्रमों के संचालन के लिए करें

मैं सावधान करना चाहूंगा कि संगठनों को अपने कार्यक्रमों को चलाने के लिए खुदरा फंडरेजिंग से जुटाए गए धन का उपयोग नहीं करना चाहिए। कार्यक्रम चलाने के लिए सीएसआर या एचएनआई से धन प्राप्त करना आसान है और इसलिए रिटेल फंड का उपयोग संगठन निर्माण, प्रतिभाओं को मौक़ा देने, या उन अन्य गतिविधियों के लिए बेहतर तरीके से किया जा सकता है, जिनके लिए धन जुटाना मुश्किल होता है।

2. संचार को ईमानदार और सुसंगत रखें

कई संगठन ठीक तरह से अपने समर्थकों के सम्पर्क में नहीं रह पाते हैं। अनियमित संवाद फ़ायदे से अधिक नुकसान करवा सकता है और दानदाताओं से केवल राशि की मांग करने के लिए संपर्क करने से उनका भरोसा हासिल करना मुश्किल हो जाता है। संगठनात्मक प्रतिष्ठा को जस का तस बनाए रखने के लिए जरूरी है कि फंडरेजिंग अभियान केवल वही वादे करें जो निभाए जा सकते हों – चाहे वह उपहार हो, कर छूट हो, या किसी प्रकार की स्वीकृति हो।

3. अपने लक्ष्य के लिए उपयुक्त अभियान

जब संचार की बात आती है, तो ऐसी भाषा का उपयोग करने से बचें जो अकादमिक हो, बहुत तकनीकी हो, या शब्दजाल से भरी हो जिसे एक आम व्यक्ति समझ न सके। यह भी याद रखना महत्वपूर्ण है कि लोग आमतौर पर किसी खास उद्देश्य या विचारधारा में अपने विश्वास के चलते सहयोग देते हैं न कि संगठन के कारण। इसलिए संगठनों को अपनी कहानी इस तरह से कहने की जरूरत होती है कि जिससे लोगों का भरोसा जम सके। समाजसेवी संस्था की बजाय दान देने वाले व्यक्ति को अपनी कहानी का नायक बनाएं।

4. लचीले बनें और चीजों में जल्दबाजी करें

और अंत में, एक ही बार में खुदरा फंडरेजिंग में बहुत अधिक निवेश न करें। खुदरा फंडरेजिंग एक ऐसी चीज़ है जिसे नियमित रूप से और लगातार वृद्धि लाकर किया जाना चाहिए। इसमें सीखने एवं असफल होने की प्रक्रिया शामिल होती है। चूंकि समाजसेवी संस्थाओं के लिए विदेशी फ़ंडिंग हासिल करना कठिन होता जा रहा है, इसलिए जरूरी है कि वे फंडरेजिंग की अन्य परंपरागत रणनीतियों के साथ खुदरा फंडरेजिंग के बारे में सोचें। यह न केवल किसी उद्देश्य को वैधता प्रदान करता है और समुदाय बनाने में मददगार होता है बल्कि लंबे समय तक संगठन को जोखिमों से भी बचाता है।

यह लेख एक इंस्टाग्राम लाइव पर आधारित है जिसे ऋषभ ललानी ने आईडीआर के साथ किया था।

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भारत और अफ़्रीका में कैसे समाजसेवी संगठन समुदाय संचालित परिवर्तन को बढ़ावा दे रहे हैं

मुंबई में रहने वाले हुसैन खान एक मुस्लिम धार्मिक विद्वान और समाजसेवी हैं। क़रीब एक दशक पहले तक वे महिला मंडल फेडरेशन (एमएमएफ) के मुखर आलोचक थे। एमएमएफ एक ग़ैर-सरकारी संगठन है जो महिलाओं के लिए काम करता है और बीते बीस सालों से इसे वैश्विक प्रतिष्ठा प्राप्त समाजसेवी संस्था ‘कोरो’ का समर्थन हासिल है। एक समय हुसैन ने अनौपचारिक बस्तियों में रहने वाली महिलाओं की मदद करने के एमएमएफ के प्रयासों पर सवाल उठाया था। वे आशंकित थे कि कोई संस्था इन पिछड़ी महिलाओं को अपने समुदाय के नेतृत्व के लिए किस तरह प्रशिक्षित कर सकती है। दिलचस्प यह था कि एमएमएफ खान को एक विरोधी की तरह नहीं देख रहा था, इसका विश्वास था कि वे एक दिन अच्छे सहयोगी बन सकते हैं और समय बीतने के साथ ऐसा हुआ भी।

आज हुसैन खान के सहयोग की बदौलत ही मदरसे (स्कूल) में एमएमएफ की बैठकें आयोजित की जाती हैं। यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि परंपरागत रूप से महिलाओं को मदरसे से अलग रखा जाता है। खान ने ‘क़ुरान और संविधान’ शीर्षक से एक पाठ्यक्रम भी विकसित किया है जो समुदाय के सदस्यों को उनके संवैधानिक अधिकारों के बारे में बताता है। साथ ही, उन्हें उनके ज़रूरतमंद पड़ोसियों की मदद करने की उनकी नैतिक जिम्मेदारियों की याद भी दिलाता है।

खान का हृदय परिवर्तन कैसे हुआ?

एमएमएफ समेत कोरो ने तीन साल तक खान के साथ शहरी अनौपचारिक बस्तियों में रहने वाली महिलाओं की चुनौतियों को लेकर संवाद किया। कई बैठकों में हुई इस बातचीत में घरेलू हिंसा और शिक्षा तक कम पहुंच जैसे चुनौतीपूर्ण मुद्दे शामिल थे। कोरो इन बैठकों में शामिल होने के लिए अच्छी स्थिति में था क्योंकि इनका नेतृत्व आमतौर पर दलित1 और मुस्लिम समुदाय के लोग करते हैं। ये खुद उन समुदायों का हिस्सा होते हैं जिनके लिए काम करते हैं। बाद में, खान को कोरो की समता फैलोशिप में चुना गया जो एक साल का प्रशिक्षण कार्यक्रम था। यहां उन्होंने न केवल भारतीय संविधान के मूल्यों को समझा बल्कि सामुदायिक नेतृत्व और अभियानों को बनाने-चलाने का कौशल भी हासिल किया।

यह कोई संयोग नहीं है कि खान अब उसी ज़मीनी समूह के साथ काम करते हैं जिसका पहले उन्होंने विरोध किया था। यह कोरो के उस मूल नज़रिए से हासिल हुई उपलब्धि है जिसके मुताबिक समुदाय संचालित परिवर्तन (कम्यूनिटी ड्रिवेन चेंज) लाने के लिए, लोग जहां हों वहीं उनसे मिलना चाहिए और उनका भरोसा जीतना चाहिए। यह विचार कहता है कि दलित, मुसलमान और हमेशा से हाशिए पर रह गए ऐसे समुदायों के सदस्यों में उनकी ‘आंतरिक शक्ति’ को जगाना ही कोरो का उद्देश्य है। इससे वे खुद अपने अधिकारों की बात कर सकते हैं और जीवन में समान मौके और तरक्की हासिल कर सकते हैं।

इस तरह के ज़मीनी और समुदाय-संचालित परिवर्तन कैसे होते हैं, यह समझने के लिए ब्रिजस्पैन ग्रुप की टीम ने ग्लोबल साउथ में कोरो और तीन अन्य गैर-सरकारी संगठनों पर शोध और उनका इंटरव्यू करने में कई महीने बिताए। ये तीन एनजीओ – मुंबई स्थित ‘यूथ फॉर यूनिटी एंड वॉलंटरी एक्शन’ (युवा – YUVA), केन्या की ‘शाइनिंग होप’ (SHOFCO) और दक्षिण अफ्रीका के गक्बेर्हा (पहले पोर्ट एलिजाबेथ) टाउनशिप में काम कर रही संस्था ‘उबुंटू पाथवेज’ (Ubuntu Pathways) थे।

हमारे शोध ने पुष्टि की कि समुदाय द्वारा संचालित परिवर्तन लाना चुनौतीपूर्ण है। लिंग, जाति, वर्ग और धर्म से संबंधित, कई स्तरों पर चलने वाली पॉवर डायनेमिक्स अक्सर इस तरह के बदलावों की बड़ी बाधा बनती है। लेकिन हमने यह भी जाना कि इसके बावजूद चार गैर-सरकारी संगठनों ने इन चुनौतियों का सफलता से मुकाबला किया है। ये सामुदायिक समूहों को उनके खुद के समाधान निकालने के लिए तैयार करने में एक सहयोगी भूमिका निभाते हैं। इन संगठनों की सफलता इस बात में है कि वे लंबे समय से ऐसा कर पा रहे हैं।

साड़ी पहने तीन महिलाएं मुस्कुरा रही हैं और एक दूसरे से बात कर रही हैं-NGO
समुदायसंचालित संगठन मानते हैं कि सभी लोगों को सम्मान के साथ और बिना किसी भेदभाव के जीने का अधिकार है। | चित्र साभार: फ़्लिकर

अनगिनत गैर-सरकारी संगठनों पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय हमने अपना ध्यान कुछ चुनिंदा संगठनों पर लगाया। इसी कारण जब समुदाय के सदस्य, अपने लिए बदलावों का नेतृत्व करने की दिशा में कदम उठा रहे थे। तब हम उनके साथ किए जा रहे काम को क़रीब से देख पा रहे थे। हमें प्रमुखता से जो बात समझ में आई वह यह थी कि समुदाय संचालित संगठन एक ही तरह से सोचते हैं। विशेष रूप से, हमने पांच पारस्परिक रूप से मजबूत मानसिकताओं की पहचान की है जो इन संगठनों को, समुदाय के सदस्यों की प्राथमिकताओं और उनके अनुभवों के आसपास अपनी दिशा तय करने में मदद करती हैं ।

स्थानीय-संपत्ति मानसिकता (लोकल-असेट्स माइंडसेट): समुदायसंचालित संगठन जानते हैं किगरीबसमुदायों के पास संपत्तियों का खजाना है। चारों संगठन यह स्वीकार करते हैं कि समुदाय के सदस्यों के पास किसी भी बाहरी समूह की तुलना में, अपनी चुनौतियों से बेहतर तरीके से निपटने के साधन होते हैं। इन साधनों में स्थानीय ज्ञान, कौशल, अनुभव, प्रेरणा और संबंधों के रूप में सामाजिक और मानवीय पूंजी की उपलब्धता शामिल है।

गरिमा मानसिकता (डिग्निटी माइंडसेट): समुदायसंचालित संगठन मानते हैं कि सभी लोगों को सम्मान के साथ और बिना किसी भेदभाव के जीने का अधिकार है, ताकि वे अपनी क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल कर सकें। इस कारण वे ‘हाशिए पर’ या ‘कमजोर’ माने जाने वाले लोगों को दरकिनार कर दिए जाने की सोच का विरोध कर सकते हैं।

दीर्घकालिक मानसिकता (लॉन्गटर्म माइंडसेट): समुदायसंचालित संगठन जटिल, विकट चुनौतियों का सामना करने के लिए धैर्य और दृढ़ता दिखाते हैं। वे जानते हैं कि बचपन में गुणवत्तापूर्ण प्रारंभिक शिक्षा तक पहुंच की कमी और समुदाय से निकाले जाने (एविक्शन) के खतरे जैसे मुद्दे व्यवस्था से जुड़े हैं और इनमें तत्काल सुधार नहीं लाया जा सकता है।

परिवर्तनीय मानसिकता (फ्लेक्सिबिलिटी माइंडसेट): समुदायसंचालित संगठनों का मानना है कि जब समुदाय के सदस्य उनको एक बेहतर राह दिखाएं तो उन्हें पहले से निर्धारित तरीकों को बदलने की ज़रूरत होती है। जब कोविड-19 महामारी जैसा कोई संकट सामने आता है तो वे समुदाय के नेतृत्व और सहयोग के साथ नई सेवा या रणनीति के लिए तत्पर होते हैं।

‘स्केलिंग-इन’ मानसिकता: समुदाय संचालित संगठन आमतौर पर लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए व्यापक प्रयासों की बजाय गहराई तक जाने के बारे में सोचते हैं। वे ज्यादा से ज्यादा लोगो तक पहुंचने के लिए भौगोलिक फैलाव से ज्यादा जरूरी, कुछ विशिष्ट समुदायों में व्यक्ति विशेष की समग्र प्रगति को मानते हैं।

इसके अलावा हमने ख़ासतौर पर रणनीति संबंधी उस बदलाव को भी समझा जिसके मुताबिक फ़ोकस सोच-विचार करने से हटकर काम करने पर जाने लगा था। सभी गैर-सरकारी संगठन, समुदाय संचालित परिवर्तन का सहयोग करने के लिए पांच परस्पर संबंधित मार्गों के संयोजन का अनुसरण करते हैं। सामाजिक प्रभावों को आगे बढ़ाने के लिए कार्यक्रम संबंधी (प्रोग्रामेटिक) नजरिए वाले गैर-सरकारी संगठन भी बदलावों को सुनिश्चित करने के लिए इन मार्गों का अनुसरण करते हैं। लेकिन, हमने जिन समुदाय-संचालित संगठनों का अध्ययन किया, वे इन मार्गों का अनुसरण करने के लिए मानसिकता का ही इस्तेमाल करते हैं।

समुदायों को उनके अधिकारों और पात्रताओं के प्रति जागरूक करना। विभिन्न नजरियों को इस्तेमाल करते हुए गैर-सरकारी संगठन शहरी अनौपचारिक बस्तियों में रहने वाले लोगों को, उनके अधिकारों और उनके लिए उपलब्ध सेवाओं को बेहतर ढंग से समझने में सहायता प्रदान करते हैं। इससे वे अपनी मांग रखने के लिए बेहतर ढंग से तैयार होंगे और बदलाव की बात खुद कर सकेंगे।

एक साझा एजेंडे के लिए समुदायों को जुटाना/साथ लाना। गैर-सरकारी संगठनों के पास स्थानीय लोगों के साथ अच्छे से घुलमिल जाने की मानसिकता होती है। इसी से वे समुदायों को संगठित करते हैं और लोगों के सामूहिक प्रयासों को एक साझा लक्ष्य की ओर और उसे हासिल करने के लिए जरूरी मुद्दों की ओर ले जाते हैं।

लोगों के कौशल और क्षमताओं को विकसित करना। गैर-सरकारी संगठन लोगों को तकनीकी कौशल और व्यवहार से संबंधित क्षमताओं को विकसित करने में मदद करते हैं। इन क्षमताओं में आत्म-जागरूकता, मूल्यों को साधना, सोशल चेंज प्रोजेक्ट्स को डिजाइन करना, उन्हें लागू करना और सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करना शामिल है।

सम्पूर्ण समाधान को बढ़ावा देना। गैर-सरकारी संगठन परामर्श, तकनीकी सहायता और स्टेक-होल्डर नेटवर्क की उपलब्धता प्रदान कर, समुदाय के नेताओं की सामाजिक परिवर्तन पहलों का सहयोग करते हैं। कुछ मामलों में वे समुदाय के सदस्यों के साथ मिलकर समाधान तैयार करते हैं।

शोधकार्य करना और परिवर्तन की हिमायत करना। अपने गहन सामुदायिक काम से समृद्ध शोध कर, गैर-सरकारी संगठन समुदाय के सदस्यों को नीतिगत परिवर्तनों के लिए अतिरिक्त साधन प्रदान करते हैं। लेख और शोधपत्र सामूहिक, क्रॉस-सेक्टर कार्रवाई के लिए सामग्री तैयार करने में भी मदद करते हैं।

जैसा कि हम इस रिपोर्ट में बता रहे हैं, पिछले एक दशक में सामाजिक क्षेत्र में यह मान्यता बढ़ी है कि समुदाय संचालित परिवर्तन लंबे समय तक टिकने वाले प्रभावों की संभावना को बढ़ाता है। इससे समुदाय स्वामित्व की भावना महसूस करता है। अब सवाल है कि अन्य गैर-सरकारी संगठन और फंडर्स, समुदाय संचालित परिवर्तन को किस तरह अपना सकते हैं? और, उन मानसिकताओं और मार्गों तक पहुंच सकते हैं जो उनके लिए सबसे मुफ़ीद हो सकते हैं?

हम इस रिपोर्ट का अंत कुछ प्रश्नों से कर रहे हैं। इनका उद्देश्य आपके संगठन की मानसिकता का विश्लेषण करने में; समुदाय संचालित परिवर्तन करने वालों और उनके समुदाय के नेताओं के साथ जुड़ने में; और लोगों को उनके मनचाहे बदलाव हासिल करने में काम आने वाले तरीक़ों को अपनाने में, सहायता करना है।

आप की बारी

हमने जिन गैर-सरकारी संगठनों के साथ काम किया है, वे और अन्य कारकों (ऐक्टर्स) की बढ़ती संख्या, यह मानती है कि जब समुदाय के सदस्य साथ विकास करते हैं और सामने आने वाली चुनौतियों के समाधान की जिम्मेदारी खुद पर लेते हैं, तो उनके पास टिकाऊ नतीजे हासिल करते रहने का एक बेहतर मौका होता है।

हम संगठनों को समुदाय-संचालित परिवर्तन के बारे में भी जानने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य संगठनों को कम-संसाधन वाले समुदायों के साथ काम करने के अपने स्थापित नज़रिए को त्याग देना चाहिए और तुरंत समुदाय-संचालित परिवर्तन को ही अपना लेना चाहिए। लेकिन हम संगठनों को समुदाय-संचालित परिवर्तन के बारे में भी जानने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। साथ ही साथ, ये नज़रिया उनके मनचाहे सामाजिक नतीजों को किस तरह से बढ़ा सकता है और बनाए रख सकता है, यह सोचने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं।

इसलिए अगर आप एक गैर-सरकारी संगठन नेता या फंडर हैं तो आप किस तरह शुरूआत कर सकते हैं? इसके लिए, एक तीन हिस्सों वाली प्रक्रिया पर विचार करें जहां आप अपने संगठन की मानसिकता को परखते हैं; समुदाय केंद्रित साथियों और समुदाय के नेताओं के साथ जुड़ते हैं; और समुदाय-संचालित परिवर्तन की ओर ले जाने वाले तरीकों को अपनाते हैं।

आत्मचिंतन (रिफ्लेक्ट) करें: आप खुद अपनी रणनीतियों और कार्यक्रमों की समीक्षा कर सकते हैं। आप इस बारे में सोच सकते हैं कि क्या आप अपने काम में समुदाय-संचालित मानसिकता ला रहे हैं – और क्या इससे अधिक और बेहतर काम करने के मौके उपलब्ध हैं।

क्या आप समुदाय के सदस्यों के ज्ञान का पूरी तरह से उपयोग कर रहे हैं जो खुद उनकी चुनौतियों के सबसे करीब हैं? क्या आप समुदाय के फीडबैक के मुताबिक न केवल रणनीति या कार्यशैली बदलने को तैयार रहते हैं, बल्कि कुछ बेहतर डिजाइन करने के लिए समुदाय के सदस्यों के साथ काम भी करना चाहते हैं?

जुड़ाव बनाएं (कनेक्ट करें): एक बार जब आप समुदाय संचालित परिवर्तन प्रयास को लागू करने की क्षमता का आकलन कर लेते हैं, तो सहयोगियों – यानी, वे लोग जो सामुदायिक हितों को आगे रखते हों (अन्य संगठनों या फंडर्स) – से जुड़ने में समझदारी हैं। ये साथी अपने नज़रिए को कैसे विकसित कर रहे हैं, इनकी कौन सी बातें अनुकूल हैं और कौन सी नहीं, इन्होंने क्या सीखा और ये क्या लाभ उठा रहे हैं, यह समझना हमारा उद्देश्य है।

और फिर, समुदाय के सदस्यों के साथ जो संबंध बनता है वह सबसे अधिक मायने रखता है। इस जुड़ाव की शुरूआत (या इसे जारी रखने) के लिए, उनसे उनकी आकांक्षाओं के बारे में पूछें: अपने और अपने बच्चों के लिए उनके सपने क्या हैं? जब वे अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश में रहते हैं और अपने चाहे गए परिवर्तन खुद ला रहे होते हैं, तब आप उनके रास्ते में आए बिना सबसे अच्छी तरह से उनका साथ कैसे दे सकते हैं? वे कौन-सी ऐसी बाधाएं और कठिनाइयां हैं जिनका वे समाधान करना चाहते हैं?

स्थापित करें (एम्बेड करें): एक तय समय के बाद आत्म-चिंतन और जुड़ाव की यह प्रक्रिया सार्थक काम में बदलती दिखाई देनी चाहिए। जैसा कि कहा गया है, ‘काम करके खुद को नई तरह की सोच में ढालने की तुलना में, नई सोच से नई तरह के कामों को करना अधिक आसान हैं।’2 जब आप समुदाय-संचालित परिवर्तन के लिए एक या अधिक रास्तों पर जाते हैं – जैसे कि एक साझा एजेंडा के इर्द-गिर्द समुदायों को जुटाना या मूल स्तर से समाधान हासिल करने पर जोर देना – तब कुछ खास बातें हैं जिन्हें आप अपने काम में शामिल (या एम्बेड) कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, आप अपने अधिकांश कर्मचारियों का चयन समुदाय के भीतर से ही कर सकते हैं: इस रिपोर्ट में शामिल सभी चार गैर-सरकारी संगठन अपने अधिकांश कर्मचारियों और नेताओं को उन्हीं समुदायों से भर्ती करते हैं, जिनके लिए वे काम करते हैं। समुदाय के भीतर से लिए गए लोगों के पास उनके अनुभव, सामाजिक पूंजी, भरोसेमंद रिश्ते और विश्वसनीयता जैसी अमूल्य संपत्तियां होती हैं।

फंडर्स भी अपनी कार्यप्रणाली में आधुनिकता या सुधार लाने की कोशिश कर सकते हैं।

एक गैर-सरकारी संगठन संचालक के रूप में, आपको समुदाय-संचालित परिवर्तन के दृष्टिकोण को स्थापित करने के लिए, अपने फंडर्स के साथ बातचीत करने की जरुरत भी पड़ सकती है। यह संवाद इस बात के साथ शुरू हो सकता है कि आपके अपने संगठन की मानसिकता और कामकाज के तरीकों में बदलाव, आपके मिशन को कैसे आगे बढ़ाएगा। दूसरी तरफ, फंडर्स भी अपनी कार्यप्रणाली में आधुनिकता या सुधार लाने की कोशिश कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, सेक्टर के निर्धारित मापक (सेक्टर मेट्रिक्स जैसे वितरित भोजन, स्वास्थ्य परिणाम, हिंसा में कमी) पर केंद्रित एमएलई प्रणाली (मॉनिटरिंग लर्निंग इवॉल्यूशन यानी काम के आकलन और उससे सीखने की कार्यप्रणाली) में मानव केंद्रित मापक (ह्यूमन सेंट्रिक इंडीकेटर्स जैसे गरिमा और आत्मविश्वास) को शामिल करने की ज़रूरत हो सकती है। समुदाय-संचालित परिवर्तन के प्रभाव को सही मायने में जानने के लिए ऐसा करना जरुरी है। समुदाय-संचालित दृष्टिकोणों में बदलाव एक जटिल लेकिन महत्त्वपूर्ण काम है। फंडर्स द्वारा बिना शर्त दिया गया अनुदान (अनरेस्ट्रिक्टेड फंडिंग) या फ्लेक्सिबल कोर फंडिंग, जो भी एनजीओ को इस्तेमाल में अधिक स्वतंत्रता प्रदान करे, इस के लिए अधिक लाभदायक होगी।

फुटनोट:

  1. द क्विंटकी इस रिपोर्ट के मुताबिक अनुसूचित जाति, हिंदू जाति व्यवस्था के ढांचे (फ्रेमवर्क) के भीतर वह उप-समुदाय है जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से अपने कथित ‘निम्न सामाजिक स्तर’ के कारण भारत में अभाव, उत्पीड़न और चरम सामाजिक अलगाव का सामना किया है।
  2. इस उद्धरण को हैबिटेट फॉर ह्यूमैनिटी इंटरनेशनल के सह-संस्थापक मिलार्ड फुलर समेत कई लोगों ने इस्तेमाल किया हैं।

लेखक इस लेख के अनुवाद में सहयोग के लिए अलीना मुसन्ना, अमृता दातला, रिधिमा खुराना, रोहन अग्रवाल और शशांक रस्तोगी को धन्यवाद देना चाहते हैं।

मनरेगा में हर साल बुज़ुर्ग कार्यबल का बढ़ना अनौपचारिक क्षेत्र की ख़राब रोज़गार नीतियों का संकेत है

‘भारत के पास दुनिया का सबसे बड़ा युवा कार्यबल है,’ यह एक ऐसी बात है जिसे देश की जनसांख्यिकी के फ़ायदे गिनवाते हुए जब-तब दोहराया जाता है। भारत के युवाओं से जुड़ी सम्भावनाओं को लेकर पैदा हुए इस उत्साह ने, इस तथ्य को दबा दिया है कि देश में मृत्यु दर में आ रही गिरावट के कारण यहां बुज़ुर्ग लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा हाल ही में भारत में युवा 2022 रिपोर्ट ने इस बदलते जनसांख्यिकीय बदलाव की बात की है। रिपोर्ट के अनुसार, 2011 से 2036 की अवधि के उत्तरार्ध में गिरावट आने से पहले युवा आबादी (15-29 वर्ष की आयु) के बढ़ने की उम्मीद है। भारत की कुल जनसंख्या में युवाओं का अनुपात 1991 में 26.6 प्रतिशत था जो 2016 में बढ़कर 27.9 प्रतिशत हो गया। ऐसा अनुमान है कि 2036 तक जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी घटकर 22.7 फ़ीसद हो जाएगी। इसके विपरीत, कुल जनसंख्या में बुजुर्गों का अनुपात जो 1991 में 6.8 प्रतिशत था, वह 2016 में बढ़कर 9.2 प्रतिशत हो गया है। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि यह आंकड़ा 2036 में 14.9 फ़ीसद तक पहुंच जाएगा। एक अन्य पूर्वानुमान के अनुसार, 2061 तक, भारत में हर चौथा व्यक्ति 60 से अधिक उम्र का होगा

जैसे-जैसे भारत की आबादी की उम्र बढ़ रही है, हमें अधिक उम्र के उन लोगों के बारे में सोचना शुरू करना होगा जो अपेक्षाकृत कमजोर और असुरक्षित हैं। इसमें असंगठित क्षेत्र के बुज़ुर्ग श्रमिक शामिल हैं जो देश की कुल कार्यबल का 90 फ़ीसद से भी अधिक काम सम्भालते हैं।

असंगठित क्षेत्र के बुज़ुर्ग श्रमिक बहुत असुरक्षित हैं

आंकड़ों में परेशान करने वाले संकेत पहले से ही दिखाई पड़ रहे हैं। 2020-21 में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना के तहत 61 वर्ष और उससे अधिक आयु के कुल 138.54 लाख लोगों को रोज़गार मिला था। यह संख्या हर साल बढ़ रही है – 2019–20 में यह 100.08 लाख थी और 2018–19 में 93.85 लाख। बुज़ुर्ग श्रमिक मनरेगा से मिलने वाली आर्थिक सुरक्षा के लिए वापस लौट रहे हैं। उनका लौटना इस बात का संकेत है कि बुढ़ापे में उनकी उचित देखभाल नहीं हो रही है। वित्तीय सुरक्षा की कमी भी इन वयोवृद्ध लोगों के लिए एक बड़ा ख़तरा है जिनके पास पैसे कमाने के लिए पर्याप्त विकल्प एवं अवसर उपलब्ध नहीं हैं। वर्तमान में, असंगठित वर्ग की श्रेणी में लगभग 25 लाख लोगों को राष्ट्रीय पेंशन योजना का लाभ मिलता है। यह संख्या भारत में असंगठित क्षेत्र के कुल आकार का मात्र 0.6 फ़ीसद है। ये आंकड़े चिंता का कारण हैं क्योंकि वृद्ध जनसंख्या में केवल वृद्धि ही होने वाली है।

असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों के पास संगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की तरह सेवानिवृति या रिटायरमेंट की कोई तय उम्र नहीं होती है। असंगठित क्षेत्रों में मिलने वाली कम मज़दूरी और आय की असुरक्षा के कारण इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग इस स्थिति में आ जाते हैं कि उन्हें दिहाड़ी मज़दूरी करनी पड़ती है। स्वनीति संस्था के लोग महाराष्ट्र में असंगठित श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा पर किए जाने वाले अपने अध्ययन के लिए पुणे शहर के एक नाका (श्रमिक बाजार) गए। अपनी इस यात्रा में हमने देखा कि नाका पर युवाओं का वर्चस्व है और बुजुर्गों को काम लेने के लिए कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। बढ़ती उम्र के साथ शारीरिक क्षमता में कमी आने लगती है और इसलिए ठेकेदारों को अधिक शारीरिक श्रम करने वाले युवाओं को काम पर लगाना फ़ायदेमंद लगता है। पुणे में उस नाका के एक वरिष्ठ नागरिक ने हमें बताया कि “हमारी देखभाल करने वाला कोई नहीं है इसलिए हमें काम की तलाश में यहां आना पड़ता है। और ठेकेदार हमें काम पर नहीं लेना चाहते हैं क्योंकि हमारी उम्र अधिक है – वो सोचते हैं कि हम भारी सामान उठाने का काम नहीं कर सकते हैं।”

असंगठित क्षेत्र में सेवानिवृति की तय उम्र सीमा नहीं है इसलिए ये लोग जब तक शरीर साथ देता है तब तक काम करते हैं। मज़दूरी बहुत कम होती है और यह उस दिन मिलने वाले काम की प्रकृति पर निर्भर करता है। यह आर्थिक सच्चाई बहुत सारे बुज़ुर्ग श्रमिकों को रोज़ काम करने की स्थिति में लाकर खड़ा कर देती है। जैसे ही कोई मज़दूर बूढ़ा होने लगता है उसकी ‘मार्केट वैल्यू’ में कमी आने लगती है। बुज़ुर्ग श्रमिक अपने जीवनयापन के लिए हर दिन काम करना चाहते हैं लेकिन उन्हें नाकों पर खड़े युवाओं (जो खुद बेरोजगारी संकट का सामना कर रहे हैं और उन्हें अनौपचारिक क्षेत्र का सहारा लेना पड़ता है) की भीड़ से मुक़ाबला करने में परेशानी होती है।

मशीन पर लटकी लाल जैकेट-बुजुर्ग कार्यकर्ता
आर्थिक संकट के कारण अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले वरिष्ठ नागरिक बीमारी और दर्द के साथ जीवन बिताने को मजबूर होते हैं। | चित्र साभार: सुजय पान

सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की नीतियों को बनाने की आवश्यकता है

1999 में स्थापित, नेशनल पॉलिसी ऑन ओल्डर पर्सन्स (एनपीओपी) देश की उम्रदराज़ आबादी पर निर्देशित पहली प्रमुख नीतियों में से एक थी। वर्तमान में, देश की वरिष्ठ आबादी पर केंद्रित एक व्यापक नीति अटल वयो अभ्युदय योजना (जिसे पहले वरिष्ठ नागरिकों के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना या NAPSrC के रूप में जाना जाता था) है। यह योजना केवल वरिष्ठ नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतों पर ही नहीं बल्कि जीवन के कई पहलुओं पर ध्यान देती है। लेकिन यह यहीं तक सीमित नहीं है। यह नीति युवा और वृद्धों के बीच अंतर-पीढ़ी संबंधों की बात भी करती है। इसका उद्देश्य पूरे देश में क्षेत्रीय संसाधन और प्रशिक्षण केंद्रों के माध्यम से सक्रिय और उत्पादक उम्र को सुनिश्चित करना है।

दो पेंशन योजनाएं भी हैं जो भारत में अनौपचारिक क्षेत्र पर केंद्रित हैं—प्रधानमंत्री श्रम योगी मानधन (पीएमएसवाईएम) और अटल पेंशन योजना (एपीवाई)। पीएमएसवायएम उन असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर ध्यान केंद्रित करता है जो 18-40 वर्ष की आयु के हैं और जिनकी मासिक आय 15,000 रुपये या उससे कम है। 60 वर्ष की आयु के बाद, उन्हें प्रति माह 3,000 रुपए की पेंशन का आश्वासन दिया जाता है। एपीवाई 18-40 वर्ष की आयु के गरीब और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर ध्यान केंद्रित करता है और प्रति माह 1,000-5,000 रुपये से लेकर सेवानिवृत्ति के बाद कई स्तरों पर पेंशन देता है। ये दोनों योजनाएं स्वैच्छिक और अंशदायी प्रकृति की हैं। हालांकि प्रति दिन काम खोजने वाले दिहाड़ी मज़दूरों के लिए अपनी गाढ़ी कमाई सरकार के पास जमा करने और कई सालों बाद उसका एक निश्चित हिस्सा ही पाने में सक्षम होने वाली बात स्वीकार कर पाना आसान नहीं होता है।

बुज़ुर्गों की ज़रूरतों पर हेल्पएज इंडिया द्वारा 2022 का एक अध्ययन ब्रिज द गैप बताता है कि भारत के बुज़ुर्गों को देखभाल और गरिमापूर्ण जीवन प्रदान करने का रास्ता बहुत लंबा है। बुज़ुर्गों के साथ किए गए सैम्पल सर्वे के अनुसार 47 फ़ीसद बुज़ुर्गों को अपने परिवारों से पैसे मांगने पड़ते हैं और 21 फ़ीसद को जीवनयापन के लिए काम का सहारा लेना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, 57 फ़ीसद बुज़ुर्ग तात्कालिक वित्तीय असुरक्षा का सामना करते हैं। लगभग 45 फ़ीसद ने पेंशन की अपर्याप्तता और 38 फ़ीसद ने वित्तीय असुरक्षा के कारणों के रूप में रोजगार के अवसरों की कमी की बात कही है। ये आंकड़े इस बात को रेखांकित करते हैं कि उन विकल्पों की कमी है जो बड़े-बूढ़ों को स्वायत्ता और अपने जीवन पर नियंत्रण दे सकते हैं।

नीति सुझाव

अनौपचारिक क्षेत्र के पूर्व श्रमिकों के लिए स्वास्थ्य देखभाल प्रावधानों पर विशेष ध्यान राष्ट्रीय योजना के लिए एक उपयोगी चीज़ हो सकती है। आर्थिक संकट के कारण अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग बीमारियों और दर्द के साथ जीवन जीने पर मजबूर हो सकते हैं। हेल्पएज इंडिया की रिपोर्ट इस तथ्य को दर्शाती है कि 67 फ़ीसद बुजुर्गों के पास कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं है और केवल 52 फ़ीसद बुज़ुर्ग ही स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े विकल्पों का उपयोग करने में सक्षम हो पाते हैं।

संकट पड़ने पर अनौपचारिक क्षेत्र में वृद्ध लोगों के काम करने का प्राथमिक कारण रिटायरमेंट के बाद जीवन जीने के लिए जरूरी धन और बचत की कमी है।

बुज़ुर्ग लोगों के लिए अधिक शारीरिक परिश्रमिक की मांग वाले काम करना उचित नहीं होता है। अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का खराब विनियमित सुरक्षा वातावरण उनके लिए एक अतिरिक्त खतरा बन गया है। राष्ट्रीय योजना यह सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित कर सकती है कि ऐसे व्यक्तियों को वृद्धाश्रम और देखभाल के सुरक्षित घेरे में लाया जा सके।

संकट आने पर अनौपचारिक क्षेत्र में वृद्ध लोगों के काम करने का प्राथमिक कारण सेवानिवृति के बाद जीवनयापन के लिए आवश्यक धन और बचत का न होना है। यह अनौपचारिक क्षेत्र में वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक न्यायसंगत और समावेशी सेवानिवृत्ति और पेंशन योजना प्रदान करने की आवश्यकता का संकेत देता है। राज्य द्वारा प्रदान की जाने वाली पेंशन योजनाओं में एक घटक शामिल किया जा सकता है जो 60 साल की उम्र में योजना से केवल एक फ्री एग्जिट देने की बजाय अलग-अलग समय पर यह सुविधा देता हो।

निजी क्षेत्र को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि यह अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा किए गए कार्यों पर निर्भर होता है। उप-अनुबंधित इकाइयों के तहत काम करने वाले श्रमिकों को उन औपचारिक निगमों के तत्वावधान में रखा जाना चाहिए जिनके लिए वे अप्रत्यक्ष रूप से काम करते हैं। उन्हें पेंशन और स्वास्थ्य सुविधाओं के विकल्प प्रदान किए जा सकते हैं। निजी क्षेत्र में बड़ी संगठित कंपनियों के लिए काम करने वाली उप-अनुबंधित अनौपचारिक क्षेत्र की इकाइयों में निर्धारित समय तक काम करने वाले श्रमिकों को पेंशन योजना के विकल्प प्रदान किए जाने चाहिए। यह काम के प्रति उनकी निष्ठा को सम्मान देने का एक तरीक़ा हो सकता है। पेंशन योजनाएं, समय के साथ कंपनी के खर्च को काफी हद तक बढ़ा देती हैं। इसलिए वृद्धाश्रम और आश्रय स्थल जैसे अन्य विकल्पों पर विचार किया जा सकता है। जिन क्षेत्रों में कंपनियां सक्रिय हैं, वहां बुज़ुर्गों की आबादी की देखभाल करने के लिए सीएसआर फ़ंडिंग भी एक महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण घटक हो सकता है। आखिरकार, बुज़ुर्ग कार्यबल के इस सवाल का हल सरकार और बाजार दोनों को निकालना होगा ताकि उनकी देखभाल का बोझ किसी एक पक्ष पर न पड़े।

असंगठित क्षेत्र में वृद्ध श्रमिकों पर ध्यान देना जरूरी है क्योंकि वे बहुत तेजी से कमजोर हो रहे हैं। भारत बूढ़ा हो रहा है, और इसे अपनी क्षमताएं इतनी बढ़ानी होंगी कि यह गरिमापूर्ण तरीक़े से इस स्थिति से निपट सके।

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क्या बिहार का बिमहास मानसिक अस्पतालों को लेकर आम नज़रिए को बदल सकता है?

सितंबर, 2022 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य के पहले और नवनिर्मित मानसिक अस्पताल, ‘बिहार मानसिक स्वास्थ्य एवं सम्बद्ध विज्ञान संस्थान (बिहार इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड अलाइड साइंसेज़ – बिमहास)’ का उद्घाटन किया। ऐसा करते हुए उन्होंने राज्य में शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य को सुलभ बनाने के लिए जरूरी हर संभव प्रयास करने का वादा भी किया।

272 बिस्तरों की उपलब्धता वाला यह अस्पताल राजधानी से लगभग 40 किलोमीटर दूर कोइलवर में, पटना और आरा के बीच स्थित है। इससे पहले यह इलाक़ा अब्दुल बाड़ी रेल-सड़क पुल के लिए जाना जाता था। 1862 में सोन नदी पर बनाया गया यह पुल आज भी उपयोग में है। इससे जुड़ा एक और दिलचस्प तथ्य यह है कि इसे 1982 में बनी और ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित फिल्म ‘गांधी’ में भी दिखाया गया है। अब उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में कोइलवर देशभर में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं के केंद्र के रूप में भी जाना जाएगा।

साल 2000 में जब बिहार और झारखंड का विभाजन हुआ तो न केवल बड़ी मात्रा में खनिज और राजस्व का बंटवारा हुआ बल्कि रांची में स्थित दो महत्वपूर्ण मानसिक स्वास्थ्य संस्थान, ‘सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ साइकेट्री (सीआईपी)’ और ‘रांची इंस्टिट्यूट ऑफ न्यूरो साइकाइट्री ऐंड अलाइड सायेंसेज (रिनपास)’ भी झारखंड के हिस्से में चले गए। सन 1918 में रांची में यूरोपियन लुनाटिक असायलम खोला गया था जो बाद में सीआईपी हो गया। इसके बाद रांची के कांके में ही सन 1925 में एक और मानसिक अस्पताल, इंडियन मेंटल हॉस्पिटल की स्थापना की गयी जो अब रिनपास कहलाता है। जमीनी स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का घोर अभाव होने के कारण बिहार समेत पूरे उत्तर भारत और नेपाल से बड़ी संख्या में लोग इन दोनों संस्थानों का रुख करते रहे हैं।

विभाजन के कुछ समय बाद झारखंड और बिहार सरकारों के बीच मरीजों के इलाज पर हुए खर्च को लेकर विवाद हो गया। इसके बाद बिहार सरकार ने निर्णय लिया कि राज्य के मरीज़ों का इलाज कोइलवर के मानसिक अस्पताल में ही हो, ताकि राज्य सरकार को अलग से झारखंड सरकार को भुगतान न करना पड़े। फिर 2005 में सरकार ने कोइलवर में स्थित टीबी सैनिटोरियम को मानसिक अस्पताल में बदलने का फ़ैसला किया और अगले ही साल एक पुराने भवन में इसके ओपीडी की शुरूआत कर दी गई। मरीज़ों को भर्ती करने की सुविधा साल 2011 में जा कर शुरू हो पाई।

लेकिन सुदूर इलाके में होने के कारण बिहार के बाक़ी ज़िलों से मरीज़ों को यहां लाना कठिन होता था। इसलिए ज्यादातर मरीज़ आसपास के जिलों या पुलिस द्वारा लाए गए होते थे। दूर होने का एक नुकसान यह भी था कि अस्पताल लंबे समय तक संसाधनों की कमी से जूझता रहा। 22 साल बाद अब राज्य को अपेक्षाकृत बेहतरीन सुविधाओं वाला मानसिक अस्पताल मिला है। इसलिए अब यह उम्मीद की जा रही है कि सरकार इसे सभी जरूरी संसाधनों के साथ मरीजों की आवाजाही के लिए यातायात की सुविधा देने पर भी सोचेगी, ताकि इसका समुचित संचालन और उपयोग सुनिश्चित हो सके।

मानसिक रोगों पर भारतीय समाज का रुख

मानसिक अस्पतालों को लेकर भारतीय समाज के रवैये की बात करें तो यह कहीं से भी सकारात्मक नहीं कहा जा सकता है। आम बोलचाल में मानसिक अस्पतालों को मेंटल असाइलम या पागलखाना कहा जाता है। देशभर में इनका उपयोग मानसिक समस्याओं से जूझ रहे लोगों या हाशिए पर रह रहे लोगों जैसे विकलांग-जनों, विधवा महिलाओं वगैरह को समाज की मुख्यधारा से अलग करने के लिए किया जाता रहा है। या फिर, इन्हें अपराधियों को सजा देने के लिए कैदखाने की तरह इस्तेमाल किया जाता था। यही वजह है कि मानसिक अस्पतालों को लेकर आज भी समाज में घोर नकारात्मकता और लांछन का भाव जुड़ा हुआ है। आज भी कोई मानसिक या व्यवहारगत समस्या होने पर, उत्तर भारत में रांची या आगरा भेजे जाने की बात कही जाती है।

सामुदायिक स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी भ्रांतियां और सामाजिक भेदभाव लोगों को इलाज लेने से रोकते हैं।

सामुदायिक स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी भ्रांतियां और सामाजिक भेदभाव लोगों को इलाज लेने से भी रोकते हैं। शारीरिक बीमारियां होने पर किए जाने वाले व्यवहार से उलट मानसिक रोगी के साथ किया जाने वाला व्यवहार क्रूर होता है। इन मरीज़ों को लोग पागल की संज्ञा दे देते हैं और फिर उनके साथ दुर्व्यवहार और उनके मानवाधिकारों का हनन शुरू हो जाता है। मानसिक अस्पताल में भर्ती होने के बाद, अक्सर व्यक्ति समाज से अलग-थलग पड़ जाता है। अस्पताल से छुट्टी के बाद लांछन और भेदभाव की वजह से उसे दोबारा समाज की मुख्यधारा में शामिल होने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। ऐसे मामले आते रहते हैं जिनमें असामाजिक तत्व, मानसिक समस्या को हथियार बना कर लोगों को मानसिक अस्पतालों मे बंद करवा देते हैं। अन्य मामलों में मानसिक रोगी बेघर होकर वर्षों तक मानसिक अस्पताल में बंद रहते है और उनके परिवार वालों या बाहरी दुनिया को इसकी खबर तक नहीं होती है। सरकार को देशभर के मानसिक अस्पतालों में बंद ऐसे लोगों की जानकारी को सुलभ बनाने की व्यवस्था करनी चाहिए। ताकि लोगों को उनके भूले-भटके परिजनों की जानकारी मिल सके। अनगिनत ऐसे मामले देखे जा सकते हैं जिनमें लोगों को अंदाजा भी नहीं होता है कि उनके परिजन देश के सुदूर कोने में किसी मानसिक अस्पताल में बंद हो सकते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) का मानना है कि सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के लिए अलग से अस्पताल बनाने से बचना चाहिए। अध्ययन बताते हैं कि इस तरह के अस्पतालों को चलाना ज़्यादा खर्चीला होता है। लंबे समय तक यहां भर्ती होने के कारण लोग अलग-थलग हो जाते हैं और उनका सामाजिक संपर्क बाधित हो जाता है। मानसिक समस्याओं से जूझ रहे लोगों के सामाजिक पुनर्वास के लिए, आपसी सहयोग और सामाजिक संपर्क एक जरूरी शर्त है। इस तरह के जेल सरीखे अस्पतालों में मानव अधिकारों का हनन किया जाना भी सहज और आम होता है। यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को हर संभव सामान्य स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे जिला अस्पताल, स्वास्थ्य केंद्र आदि से जोड़कर रखने पर बल देता है। इससे जरूरत पड़ने पर लोग बेझिझक मानसिक स्वास्थ्य सेवा ले सकते हैं।

आम लोगों द्वारा मानसिक स्वास्थ्य पर किए जाने वाले खर्च के आंकड़े भी इन सेवाओं को सहज बनाने की जरूरत पर बात करते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की 75वें दौर की गणना पर आधारित, एक अध्ययन में रंजन एवं अन्य (2022, पूर्वमुद्रित) ने पाया कि ओपीडी में मानसिक समस्याओं के इलाज़ के लिए 66 प्रतिशत लोग निजी क्षेत्र पर निर्भर हैं। निजी क्षेत्र पर अधिक निर्भरता की वजह सरकारी चिकित्सकों पर विश्वास की कमी, खराब गुणवत्ता तथा सेवाओ का अभाव आदि है। यहां ओपीडी का औसत ‘आउट ऑफ पॉकेट’ खर्च 2,358 रुपये है। आउट ऑफ पॉकेट खर्च का मतलब ऐसे खर्च से है जो सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के सहज उपलब्ध नहीं होने के कारण जनता को अपनी जेब से करना पड़ता है। अगर हर जिले में मानसिक रोगों के लिए, कम से कम ओपीडी और दवाएं ही उपलब्ध करा दी जाएं तो इस खर्च को बहुत हद तक कम किया जा सकता है। ऐसा होने से लोग महंगे प्राइवेट अस्पतालों का खर्च उठाने के लिए, कर्ज लेने और ग़रीबी के दलदल में फंसने से बच जाएंगे।

बहुआयामी प्रयास जरूरी हैं

ऊपर ज़िक्र की गई न्यूनतम सेवाएं उपलब्ध करवाने के लिए राज्य को एक मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा और प्रशिक्षण केंद्र की जरूरत होगी। अब तक बिहार में ऐसा कोई संस्थान नहीं है। इसलिए आबादी की जरूरतों को देखते हुए भविष्य में बिमहास में बिस्तरों की संख्या बढ़ाकर, इसे एक मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सा एवं अध्ययन केंद्र के रूप में विकसित करने की योजना भी है।

बस में बैठी एक बूढ़ी औरत-मानसिक अस्पताल
मानसिक रोगों से जूझ रहे लोगों के लिए जरूरी दवाओं की उपलब्धता एक बड़ी समस्या है। | चित्र साभार: काॅटनब्रो स्टूडियो / पे‍क्सेल्स

मानसिक स्वास्थ्य के ज़्यादातर मरीज़ों को अस्पताल में रुकने की जरूरत नहीं होती है और उन्हें ओपीडी के स्तर पर देख कर दवाई दे दी जाती है। लेकिन जिन मरीज़ों को ज़्यादा देखरेख की जरूरत होती है, उन्हें इस तरह के अस्पताल खुलने से बहुत आसानी होगी। अक्सर मानसिक रोगी इलाज और सामाजिक सहयोग के अभाव में बेघर होकर भटकने पर मजबूर हो जाते हैं। ऐसे लोगों तक मानसिक स्वास्थ्य सेवा पहुंचाने के लिए जरूरी है कि अस्पताल के साथ-साथ समुदायों में भी काम शुरू किया जाए।

साथ ही, मानसिक रोगों से जूझ रहे लोगों के लिए जरूरी दवाओं की उपलब्धता एक बड़ी समस्या है। आयुष्मान भारत के अंतर्गत बन रहे नए हेल्थ एंड वेलनेस केंद्र (एचडबल्यूसी), समुदायों को मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने में महत्वपूर्ण कड़ी बन सकते हैं। अगर हर अस्पताल मानसिक रोगियों की जानकारी, अपने निकटतम हेल्थ एंड वेलनेस केंद्र से साझा करे और वहां मौजूद एक प्रशिक्षित सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारी उसका फॉलो-अप ले और दवाई देने का काम करे तो यह स्थिति बदली जा सकती है। इससे यात्रा पर होने वाले खर्च और कार्य दिवस की बर्बादी से बचा जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारी को भी मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा जरूरी प्रशिक्षण मिला हो। इसके लिए मानसिक स्वास्थ्य प्रणाली में मौजूद लोग जैसे मानसिक अस्पताल या जिलों के कार्यक्रम पदाधिकारी एक-दूसरे से समन्वय स्थापित कर काम कर सकते हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था की कार्यप्रणाली में इस तरह के समन्वय की परिकल्पना पहले से मौजूद है, लेकिन ऐसे बहुआयामी कार्य के लिए जरूरी नेतृत्व और प्रोत्साहन मौजूद नहीं है।

मानसिक स्वास्थ्य पर जागरुकता लाने और इससे जुड़ी स्थितियों को बदलने में मददगार कुछ अलग लेकिन महत्वपूर्ण बातों का ज़िक्र नीचे किया जा रहा है। इन बातों के बारे में, कम से कम इस क्षेत्र से जुड़े लोगों को तो जानना ही चाहिए। वहीं, आम लोग इन्हें जान-समझकर सामाजिक तौर पर अधिक संवेदनशील भूमिकाएं निभा सकते हैं:

1. मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017

मानसिक रोगियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 में व्यापक प्रावधान किए गए हैं। इसके तहत किसी व्यक्ति को उसकी मर्जी के बगैर भर्ती करने पर रोक लगाई गई है।

अधिनियम के तहत अनैच्छिक भर्ती की शिकायत भी की जा सकती है। यह अधिनियम रोगी को क्रूर और अपमानजनक व्यवहार से सुरक्षा देता है। अधिनियम जाति, वर्ग या लिंग आदि के कारण किसी तरह का भेदभाव न करने की और रोगी या उसके परिजनों की सहमति से ही इलाज के तरीके चुने जाने की बात कहता है। इस अधिनियम के तहत रोगी अपने इलाज के बारे में पूरी जानकारी हासिल कर सकता है। साथ ही वह इन जानकारियों को गोपनीय रखने की मांग भी कर सकता है। इसके तहत, कुछ विशेष परिस्थितियों में ही व्यक्ति की इच्छा के विपरीत इलाज या भर्ती करवाया जा सकता है।

देर से ही सही, बिहार सरकार ने मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम को राज्य में लागू करने के लिए बड़ा कदम उठाया है। पटना उच्च न्यायालय के आदेश के बाद, पहली बार राज्य में मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण का गठन किया गया है। मानसिक स्वास्थ्य प्राधिकरण की पहली बैठक में निर्णय लिया गया है कि मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 के अंतर्गत राज्य के सभी मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों तथा संस्थानों का पंजीकरण शुरू कराया जाए और जिला स्तर पर मेंटल हेल्थ रिव्यू बोर्ड (एमएचआरबी) का गठन हो। एमएचआरबी को यह सुनिश्चित करना है कि मानसिक रोग से जूझ रहे लोगों के अधिकारों का उल्लंघन ना हो और उनकी भर्ती, उपचार और देखभाल मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 की प्रक्रियाओं के अंतर्गत ही हो।

2. मनोसामाजिक विकलांगता

मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लोगों के समुचित पुनर्वास के लिए सिर्फ इलाज और दवाइयां भर काफी नहीं हैं। शारीरिक रोगों से इतर मानसिक रोग काफी जटिल होते है। स्वस्थ लोगों की तुलना में मानसिक रोगों से जूझ रहे लोगों को शिक्षा, रोजगार आदि पाने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। बीमारी की वजह से अक्सर इन्हें शिक्षा भी बीच में ही छोड़नी पड़ती है। जो लोग बढ़िया रोजगार पाने लायक़ शिक्षा और कौशल प्राप्त भी कर लेते है, उन्हें भी नौकरी हासिल करने में भेदभाव का सामना करना पड़ जाता है। ऐसा न हो, इसके लिए जरूरी है कि मानसिक रोग जैसी अदृश्य विकलांगता को भी शारीरिक विकलांगता की तरह ही सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जाए।

मानसिक समस्या से जूझ रहे लोगों को सरकार की विभिन्न रोजगार योजनाओं जैसे जीविका, मनरेगा आदि में प्राथमिकता देकर मुख्यधारा से जोड़ना चाहिए।

दिव्यांग-जन अधिकार अधिनियम, 2016 के अनुसार ऐसे लोग जिनका रोज़मर्रा का जीवन किसी मानसिक रोग की वजह से प्रभावित रहा हो, मनोसामाजिक विकलांगता की श्रेणी में आते हैं। ऐसे लोगों (न्यूनतम 40 फीसदी विकलांगता वालों) को शिक्षा और रोजगार में आरक्षण का लाभ दिए जाने का प्रावधान है। साथ ही इन्हें सरकारी योजनाओं में भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए। मानसिक बीमारियों से जूझ रहे लोगों को काम नहीं मिल पाता है। इससे उनका मनोबल और खुद की देखभाल करने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। मानसिक समस्या से जूझ रहे लोगों को सरकार की विभिन्न रोजगार योजनाओं जैसे जीविका, मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) आदि में प्राथमिकता देकर मुख्यधारा से जोड़ना चाहिए। समाज कल्याण विभाग और समाजसेवी संस्थाएं मिलकर निजी क्षेत्र को इस विषय पर जागरूक कर, ऐसे लोगों को रोजगार देने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

मनोसामाजिक विकलांगता के अदृश्य होने के चलते, इसमें अन्य शारीरिक विकलांगों को मिलने वाले लाभ जैसे पेंशन, शिक्षा या नौकरी आदि की शर्तों में जरूरी छूट वगैरह नहीं मिल पाती है। अधिकतर लोगों का तो मनोसामाजिक विकलांगता का प्रमाणपत्र तक नहीं बन पाता है। बिहार में बहुत कम ऐसे संस्थान हैं जो मानसिक रोगियों के लिए विकलांगता प्रमाणपत्र जारी करते हैं। अब वह समय आ गया है जब मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों को बदलाव के दूत के रूप में काम करना शुरू कर देना चाहिए। कुल मिलाकर, मानसिक स्वास्थ्य की व्यापक समझ को आगे बढ़ाने की जरूरत है। ताकि मनोसामाजिक विकलांगता और सामाजिक सहयोग की भावना को इलाज या दवाइयों जितनी ही तवज्जो मिल सके।

3. हाफवे होम

आधुनिक मनोचिकित्सा और बेहतर दवाइयों की वजह से अधिकतर मामलों में मानसिक रोग के इलाज के लिए लंबे समय तक अस्पताल में भर्ती रहने की जरूरत नहीं रह गई है। लेकिन अभी भी देशभर के मानसिक अस्पतालों में लोग कुछ सालों से लेकर कई दशकों तक बंद रहने को मजबूर हैं। खासकर महिलाएं और हाशिये पर खड़े अन्य ऐसे लोग जिनमें मनोसामाजिक विकलांगता अधिक है, लेकिन उन्हें सहयोग नहीं मिल पाता है। इसके चलते उनके पास सड़कों पर रहने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं रह जाता है। ऐसे लोगों के लिए हाफ-वे होम मुख्यधारा में शामिल होने के लिए एक आश्रय प्रदान करता है। इस आश्रय घर की परिकल्पना ऐसे केंद्र के रूप में की गई है जहां मानसिक अस्पताल में समय बिता चुके या मनोसामाजिक विकलांगता के शिकार लोग बिना किसी रोकटोक के रह सकते हैं और दोबारा मुख्यधारा में शामिल होने के लिए जरूरी सहयोग जैसे रोजगार, कौशल आदि हासिल कर सकते हैं।

न्यायालय के आदेश से कुछ जगहों पर हाफ-वे होम बन तो गया है, लेकिन जमीन पर इसके स्वरूप और उद्देश्य को लेकर सही जानकारी का अभाव है। जैसे पटना में हाल ही में खुले दो हाफ-वे होम का दौरा करने के बाद पाया गया कि इनके दरवाजे भी मानसिक अस्पताल की तरह ही बंद रहते हैं और इसमें रह रहे लोगों की आवाजाही पूरी तरह नियंत्रित की जाती है। इस कारण लोग बाहरी जीवन से उसी तरह कटे रह जाएंगे जैसे कि वे मानसिक अस्पताल में थे। लेकिन समाज कल्याण विभाग के अंतर्गत ये संस्थान समाजसेवी संस्थाओं द्वारा संचालित किए जा रहे हैं और मानसिक अस्पतालों की तुलना में बेहतर माहौल प्रदान कर रहे है। हाफ-वे होम के पीछे की सोच को जमीन पर उतारने के लिए समाज कल्याण विभाग और स्वास्थ्य विभाग को साथ आने की जरूरत है। इससे जुड़े अधिकारियों और समाजसेवी संस्थाओं को मानसिक रोगियों के पुनर्वास के लिए जरूरी रोजगार, कौशल और सबसे महत्वपूर्ण एक भेदभाव रहित माहौल बनाने देने की आवश्यकता है।

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सोशल सेक्टर के लिए बढ़िया प्रशासन क्यों ज़रूरी है?

गवर्नेंस या प्रशासन शब्द का अर्थ है, किसी संगठन को चलाने का काम या तरीका। इसके लिए संचालन या व्यवस्था शब्द का इस्तेमाल भी किया जा सकता है। यह उस नेतृत्व और प्रबंधन से अलग है जहां प्रशासन ‘प्रबंधकों का प्रबंधन करता है’। जहां प्रबंधक संगठन में हर दिन का कामकाज सम्भालते हैं, वहीं प्रशासन उन सीमाओं को तय करता है जिनमें रहकर वे अपनी भूमिकाएं निभाते हैं।

डेवलपमेंट सेक्टर में एक अच्छे संचालन का मतलब होता है, समाजसेवी संगठन या सामाजिक व्यवसाय को निष्ठा और पारदर्शिता के साथ, उस उद्देश्य की तरफ लेकर जाना जिसके लिए इसकी स्थापना की गई थी।

सोशल सेक्टर में संचालन का क्या महत्व है?

सामाजिक संगठन अपना अधिकतर समय और ऊर्जा ज़मीन पर लोगों का जीवन बदलने में खर्च करते हैं। उनके लिए उनके कार्यक्रम और उनके लोग ही सबसे अधिक मायने रखते हैं। इसलिए नियम-क़ायदे बनाने और संचालन के बेहतर तरीके तय करना उनकी वरीयता सूची में नहीं होता है। 

हालांकि मज़बूत नीतियों और भीतरी नियंत्रण का संबंध केवल नियमों का पालन करने से नहीं होता है। ये आपके दानदाताओं, भागीदारों और यहां तक ​​कि उन लोगों का भरोसा जीतने के लिए भी जरूरी है जिनके साथ आप काम करते हैं।

ऐसे संगठन जिनका संचालन उचित तरीक़े से नहीं किया जाता है, उन्हें अपने सीमित संसाधनों के अनुचित खर्च, आय में कमी और धोखाधड़ी का अधिक जोखिम होने जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। इससे भीतरी और बाहरी, दोनों ही तरह के लोगों का संगठन पर भरोसा कम होता है। और, एक बार जब भरोसा टूट जाता है और छवि ख़राब हो जाती है, फिर इसे दोबारा बना पाना लगभग असंभव होता है।

प्रशासन, इसीलिए बहुत महत्वपूर्ण होता है। यह आपकी विश्वसनीयता स्थापित करता है जो आपके दानदाताओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है। इससे उन्हें बेहतर फैसले लेने में मदद मिलती है, पारदर्शिता का स्तर बेहतर होता है और यह सुनिश्चित होता है कि आपका संगठन अपने लक्ष्य की दिशा में काम कर रहा है।

अच्छे प्रशासन में पांच चीजें ज़रूर होती हैं। और भले ही आपका संगठन एक सीमित संसाधनों वाला छोटा सा संगठन ही क्यों न हो, इन्हें लागू करना बहुत आसान होता है।

1. एक प्रशासनिक इकाई

यह आमतौर पर एक बोर्ड होता है। यह या तो ट्रस्टी सदस्यों का बोर्ड होता है या निदेशकों का बोर्ड जिनकी भूमिका निर्देशन एवं नियंत्रण करना होता है। अपना बोर्ड बनाते समय आपको दो महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना चाहिए:

आपको नियमित रूप से बोर्ड मीटिंग का आयोजन करना चाहिए। यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि बोर्ड के सदस्यों/ट्रस्टियों को इतनी मात्रा में जानकारियां दी जा रही हैं कि वे सही फ़ैसले ले सकें। हर तीन साल में बोर्ड का मूल्यांकन होना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आपका बोर्ड प्रभावी एवं प्रासंगिक दोनों है। यह काम आंतरिक रूप से या किसी बाहरी एजेंसी के जरिए किया जा सकता है।

2. नीतियां एवं प्रक्रियाएं

इसकी शुरुआत एक स्पष्ट उद्देश्य, लक्ष्य और मूल्यों को बताने वाले कथन होते हैं जो कर्मचारियों को संगठन के उद्देश्य से जुड़ी दिशा एवं स्पष्टता प्रदान करते हैं। साथ ही यह भी सुनिश्चित करते हैं कि आपकी टीम हमेशा आपके संगठन के लक्ष्यों से जुड़ी हुई है।

Ipad पर वार्षिक रिपोर्ट के बारे में कुछ टेक्स्ट_सामाजिक क्षेत्र
एक प्रभावी नियंत्रण व्यवस्था प्रोटोकॉल को स्थापित करती है, धोखाधड़ी और ग़लतियों को रोकती है और उनका पता लगाती है। | चित्र साभार: निक यंगसन

हालांकि इतना होना भर काफ़ी नहीं है। संगठन के रोजमर्रा के कामकाज के लिए स्पष्ट रूप से लिखित नीतियों और प्रक्रियाओं का एक सेट होना चाहिए। नीतियों का काम किसी संगठन के महत्वपूर्ण पहलुओं, जैसे मानव संसाधन, वित्तीय प्रबंधन, खर्च, खरीद, अधिकारों के बंटवारे, हितों के टकराव से जुड़े प्रबंधन के लिए सिद्धांत निर्धारित करना होता है।

प्रक्रियाएं इन नीतियों को लागू करने के लिए विस्तृत निर्देश तय करती हैं। उदाहरण के लिए खर्च की भरपाई का दावा कैसे करें, छुट्टी कैसे लें, एडवांस कैश कैसे सेटल करें, वगैरह। नीतियां और प्रक्रियाएं, मिलकर आपके सभी कर्मचारियों और हितधारकों के बीच नियमित संवाद तथा बेहतर कामकाज को सुनिश्चित करती हैं।

3. आंतरिक नियंत्रण

एक प्रभावी नियंत्रण व्यवस्था प्रोटोकॉल को स्थापित करती है, धोखाधड़ी और ग़लतियों को रोकती है और उनका पता लगाती है। साथ ही, यह आपदा प्रबंधन में मददगार साबित होती है और सुनिश्चित करती है कि फायनेंशियल आंकड़े सटीक हों। नियंत्रण आपके बोर्ड को यह विश्वास भी दिलाता है कि आपके संगठन का प्रबंधन कैसे किया जा रहा है।

इसका एक उदाहरण, फ़ायनेंस और ख़रीदी के कामों को अलग-अलग करना है। विक्रेताओं के साथ अनुबंध पर बातचीत करने वाला व्यक्ति, भुगतान करने वाले व्यक्ति से अलग होना चाहिए। ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भुगतान को मंजूरी देने वाली टीम और विक्रेता के बीच अलग से किसी तरह की सांठगांठ न हो। हालांकि, छोटे आकार वाली टीमों में अधिकारी एक प्रक्रिया में कई तरह के काम करते हैं। ऐसे मामलों में, एक मजबूत निगरानी और समीक्षा तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए। यह सीनियर मैनेजर या उन गतिविधियों को मंज़ूरी देने वाला निदेशक हो सकता है।

4. भूमिकाएं एवं जिम्मेदारियां

अपने कर्मचारियों की भूमिकाओं को रेखांकित करने और संगठन चार्ट को जल्दी स्थापित करने के महत्व के बारे में कोई भी संगठन साफ बातचीत नहीं करता है। भूमिकाएं स्पष्ट होनी चाहिए, बातचीत के विषय और रिपोर्टिंग का स्पष्ट दस्तावेज़ीकरण महत्वपूर्ण है।

इससे यह सुनिश्चित होता है कि कर्मचारी उनसे की जाने वाली अपेक्षाओं को लेकर स्पष्ट हैं। इससे उन्हें अपनी भूमिकाओं और कामों को लेकर जवाबदेह बनाए रखने में आसानी होती है। उदाहरण के लिए, एक कैशियर को यह सुनिश्चित करना होता है कि नक़द लेनदेन का ब्योरा सही तरीक़े से दर्ज किया जाए। क्योंकि बाद में इसके लिए उसे ही ज़िम्मेदार माना जाएगा। 

5. वित्तीय रिपोर्टिंग और पारदर्शिता

अंत में, बढ़िया प्रशासन सीधे आपके संगठन द्वारा दिखाए गए पारदर्शिता के स्तर से संबंधित होता है। यदि आपका संगठन तथ्यों और वित्तीय जानकारियों की रिपोर्टिंग नियमित अंतराल पर ठीक से करता है तो इससे बाहरी हितधारकों- जैसे दाताओं, भागीदारों और मीडिया का विश्वास बढ़ता ही है।

वित्तीय रिपोर्ट में आय, लागत, शुल्क आदि जैसे आंकड़ों पर ज़ोर दिया जाता है। आप इसका उपयोग गुणवत्ता से जुड़े पहलुओं को प्रकट करने और इन आंकड़ों तक ले जाने वाली, संगठन की गतिविधियों के बारे में बताने के लिए भी कर सकते हैं। 

इसलिए वित्तीय रिपोर्ट आपके हितधारकों को केवल आपके संगठन के वित्तीय स्वास्थ्य के बारे में ही नहीं बताती हैं। बल्कि पिछले प्रदर्शन के साथ उचित तुलना के जरिए आपके प्रभाव के उद्देश्यों की दिशा में विकास और प्रगति का संकेत भी देती हैं।

कुल मिलाकर, अपने संगठन में बढ़िया प्रशासन को कामकाज का तरीक़ा बनाने से और भी कई फ़ायदे हैं। आख़िरकार, किसी का भरोसा हासिल करना छोटी बात नहीं है।

डिस्क्लेमर: संध्या इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू की बोर्ड की सदस्य हैं।

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समाजसेवी संगठन, सरकार के साथ सहजता से काम करने के लिए इन पांच रणनीतियों को अपना सकते हैं

भारत में समाजसेवी संगठनों का इतिहास रहा है कि उन्हें सरकार के साथ साझेदारी में काम करते हुए अनगिनत चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन चुनौतियों में जटिल आवेदन प्रक्रियाएं, लंबी समय सीमाएं और समझौतों में अनिश्चितता जैसी बातें शामिल हैं। फिर भी, आठ से दस साल पहले की तुलना में अब सरकारी संस्थाएं समाजसेवी संस्थाओं के साथ साझेदारी को लेकर अधिक उदार हो गई हैं। लेकिन इन साझेदारियों में साथ काम करने के लिए, किसी प्रकार की तय मानक प्रक्रिया नहीं है जो इसे और मुश्किल बना देता है।

सरकारी संस्थाओं के साथ काम करना चुनौतीपूर्ण तो हो सकता है, लेकिन इसके नतीजे बहुत अच्छे भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, सरकारी व्यवस्थाओं के पास पर्याप्त मात्रा में धन उपलब्ध होता है लेकिन ज़्यादातर समाजसेवी संस्थाओं को इन फंड्स तक पहुंचने का तरीक़ा नहीं मालूम होता है। नतीजतन, उनके पास स्वतंत्र रूप से धन जुटाने जैसा चुनौतीपूर्ण विकल्प ही बचता है और वे इसका ही सहारा लेते हैं। सरकारी अनुदानों के लिए सफलतापूर्वक आवेदन करने या टेंडर प्रक्रिया में शामिल होने के तरीके को समझने में समय लगाकर, समाजसेवी संस्थाएं फंडिंग से जुड़ी अपनी कुछ चुनौतियों को कम कर सकती हैं। इसी प्रकार, एक या कई स्तरों पर काम करने की इच्छुक समाजसेवी संस्थाओं के पास, सरकार के साथ काम करने से बेहतर कोई विकल्प नहीं है। सरकार के पास वित्तीय और मानव संसाधनों की उपलब्धता एक समाजसेवी संगठन के पास होने वाली इसकी उपलब्धता की तुलना में बहुत अधिक होती है।

लीडरशीप फ़ॉर इक्विटी में हमने पिछले छः वर्षों का समय ज़िला, राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर की सरकारों के साथ काम करने में बिताया है। अपने अनुभवों के आधार पर हम यहां वे पांच बातें बता रहे हैं जिन्हें सरकारी व्यवस्था के साथ काम करने वाली समाजसेवी संस्थाएं इस्तेमाल कर सकती हैं।

1. सरकार की संरचना और सूचना के प्रवाह को समझें

सरकार की संरचना को तीन पहलुओं: स्तर, सरकारी निकाय और व्यक्तियों से जाना जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे मंत्री होते हैं जो विभिन्न क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय एजेंडा तय करते हैं। इसमें शिक्षा, कृषि और स्वास्थ्य जैसे विषय शामिल होते हैं। केंद्र सरकार के नीचे राज्य सरकार होती है और राज्य सरकार के नीचे ज़िला, प्रखंड और तालुक़ा जैसी सरकारी स्थानीय इकाइयां होती हैं। सरकारी व्यवस्था में उच्च स्तर के निकाय, निचले स्तर पर काम कर रहे निकायों को जिम्मेदारियां देते हैं। इन ज़िम्मेदारियों को पूरा करते हुए विभिन्न स्तरों पर प्रत्येक इकाई की स्वायत्तता का स्तर अलग-अलग हो सकता है। विभिन्न स्तरों पर सरकार का प्रत्येक निकाय, इसके लोगों (यानी कर्मचारियों) से बना होता है जो इन इकाइयों के नेतृत्व और संचालन के लिए ज़िम्मेदार होते हैं।

विभिन्न सरकारी स्तरों की व्याख्या करने वाला एक चार्ट_सरकार
स्त्रोत: लीडरशीप फ़ॉर इक्विटी

2. सरकार के उस स्तर के बारे में अच्छी तरह सोचें जिसके साथ आप जुड़ना चाहते हैं

सरकार की वह इकाई जिससे एक संगठन सम्पर्क करेगा और जिस हैसियत से संपर्क किया जाएगा, दोनों ही उनके द्वारा बनाए गए मध्यस्थता कार्यक्रमों (इंटरवेंशन) और उसके लाभार्थियों पर निर्भर करता है। किसी एक संगठन की विशेषज्ञता छात्रों या शिक्षकों के साथ सीधे काम करने में हो सकती है। वहीं, दूसरा टीकाकरण प्रदान करने के लिए आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ काम कर सकता है। दूसरे वाले मामले में संगठन सीधे समुदाय के साथ काम करता है इसलिए इस संगठन को राज्य स्तर के नेतृत्व से अनुमति या सहयोग के लिए सम्पर्क करने की जरूरत होगी न कि साझेदारी करने की।

जिला स्तर के निकायों को अक्सर कार्यक्रमों को लागू करने में मदद चाहिए होती है, और किसी समाजसेवी संस्था से इस प्रकार की सहायता मिलने से वे खुश हो जाते हैं।

हमारे अनुभव में, जिला-स्तरीय निकाय आमतौर पर सबसे अधिक ग्रहणशील होते हैं क्योंकि वे अंतिम लाभार्थी के सबसे करीब होते हैं। उनकी विशिष्ट जिम्मेदारियां होती हैं, वे समझते हैं कि उनके परिवेश में क्या ज़रूरी है, और वे निर्णय लेने की स्थिति में होते हैं। हालांकि, वे अक्सर राज्य और राष्ट्रीय मंत्रालयों द्वारा सौंपी जाने वाली प्राथमिक जिम्मेदारियों से दबे होते हैं। लेकिन फिर भी, जिला स्तर के निकायों को अक्सर कार्यक्रमों को लागू करने में मदद की जरूरत होती है, और किसी समाजसेवी संस्था से इस प्रकार की सहायता मिलने से वे खुश हो जाते हैं। उच्च स्तर पर, निर्णय लेने में एक राजनीतिक पहलू भी शामिल होता है जिससे वहां स्थिति जटिल हो सकती है।

3. समानांतर व्यवस्था या मध्यस्थता कार्यक्रम बनाएं

यदि कोई समाजसेवी संस्था सरकार के साथ काम कर रही है लेकिन उनका समाधान सरकार के काम के साथ चलने वाला है तो वे मौजूदा समाधान को बेहतर करने या उसका लाभ उठाने के बजाय इकोसिस्टम को खराब करते हैं। उदाहरण के लिए, स्टेट काउंसिल ऑफ एजुकेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग की ज़िम्मेदारी सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को प्रशिक्षण देना है। कई समाजसेवी संस्थाएं शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए विकासशील मॉड्यूल में अच्छा-खासा निवेश करती हैं, जिसके लिए वे सरकार से संपर्क करती हैं। यह समाधान सरकार के प्रयासों का पूरक होने की बजाय मौजूदा प्रणाली को बदलने का प्रयास करता है। यदि एक समानांतर कार्यक्रम को सरकार की मंजूरी मिल भी जाती है तो यह अंततः शिक्षकों और छात्रों को भ्रमित करने वाला होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें एक ही विषय पर कई स्रोतों से अलग-अलग निर्देश मिलते हैं। नतीजतन, एक बेहतर शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का अंतिम उद्देश्य अधूरा रह जाता है। 

इसलिए समाजसेवी संस्थाओं द्वारा डिज़ाइन किए गए समाधान, आवश्यकता-अंतर विश्लेषण पर आधारित यानी जरूरत के मुताबिक होना चाहिए और इसे व्यवस्था द्वारा छूट गई कमियों को पूरा करने का काम भी करना चाहिए। मौजूदा सरकारी कार्यक्रमों में अपने हस्तक्षेपों को एकीकृत करके समाजसेवी संस्थाएं एक अधिक टिकाऊ, मजबूत और प्रभावी साझेदारी विकसित कर सकती हैं। हमारा अनुभव कहता है कि कुछ सरकारी निकायों की रणनीति बहुत ही अच्छी हैं और कुछ प्रभावी रूप से किसी एक योजना का संचालन कर सकते हैं। लेकिन इनमें से ज़्यादातर बड़े पैमाने पर निगरानी ढांचे की योजना बनाने और उन्हें लागू करने में पिछड़ जाते हैं। यहां पर एक समाजसेवी संस्था किसी भी सरकार के लिए एक मूल्यवान साझेदार हो सकती है। यह कार्यक्रम के बड़े लक्ष्यों को छोटे-छोटे उद्देश्यों में बांट सकती है और हर उद्देश्य पर नजर बनाए रखने वाला एक ढांचा तैयार कर सकती है।

4. अधिकारियों से रणनीतिक रूप से संपर्क करें

व्यवस्था के भीतर, अपने हितों को साधने में मदद करने वाले व्यक्ति की पहचान करने के लिए समाजसेवी संस्थाओं को पहले सरकारी अधिकारियों की विभिन्न भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को समझना होगा। सरकारी निकायों के भीतर नेतृत्व के पदों पर ऐसे राजनीतिक या प्रशासनिक प्रमुखों का कब्जा होता है जिन पर उनके कामों को पूरा करने की जिम्मेदारी होती है। राजनीतिक प्रमुख आमतौर पर लक्ष्य तय करने जैसे बड़े कार्यों पर काम करते हैं। वहीं प्रशासनिक प्रमुखों का काम नीतियों तथा कार्यक्रमों के जरिए इस लक्ष्य को हासिल करना, होता है।

राष्ट्रीय स्तर पर पदों के क्रम को देखने पर हम पाते हैं कि एक कैबिनेट मंत्री होता है जिसे एक विशेष मंत्रालय सौंपा जाता है। यदि हम शिक्षा का उदाहरण लेते हैं तो यह व्यक्ति शिक्षा मंत्री होगा। एक मंत्री वह राजनीतिक प्रमुख होता है जिसका काम मंत्रालय के उद्देश्य और संवाद को सम्भालना होता है। राज्य स्तर पर इसका कार्यान्वयन प्रमुख सचिव द्वारा किया जाता है, जो एक आईएएस अधिकारी होता है। हालांकि ज़्यादातर विभागों का ढांचा एक समान होता है लेकिन अमूमन ज़िला-स्तर पर इनमें विविधता आ जाती है। प्रत्येक स्तर पर प्रशासनिक एवं राजनीतिक प्रमुखों का एक समूह होता है। उदाहरण के लिए मुख्य जिला-स्तरीय अधिकारी कलेक्टर होता है जो जिले का नियुक्त मुखिया होता है। कलेक्टर के अधीन मुख्य कार्यकारी अधिकारी/मुख्य विकास अधिकारी (सीईओ/सीडीओ) होते हैं। ये अधिकारी विभिन्न विभागों में कार्यक्रमों को लागू करने की ज़िम्मेदारी सम्भालते हैं। सीईओ/सीडीओ द्वारा देखे जाने वाले विभागों के अपने संबंधित प्रमुख होते हैं, जो सीईओ/सीडीओ के मार्गदर्शन में इन विभागों के प्रशासन को संभालते हैं।

यदि कोई समाजसेवी संगठन नीति के स्तर पर काम कर रहा है, तब भी उसे जमीनी स्थितियों के बारे में जानना चाहिए और उचित सुझाव देना चाहिए।

यदि कोई समाजसेवी संस्था नीति से जुड़े कार्यक्रम पर काम कर रही है तो यह नेतृत्व कर रहे अधिकारियों के साथ मिलकर काम करेगी। उदाहरण के लिए राज्य स्तर पर, संस्था प्रमुख सचिव और शिक्षा आयुक्त के साथ काम करेगी। यदि कोई समाजसेवी संस्था कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करना चाहती है तो उसे जिला और ब्लॉक स्तर के अधिकारियों के साथ काम करना चाहिए। इसलिए कि ये अधिकारी समुदायों के भीतर कार्यक्रमों को लागू करने का काम देखते हैं। यह भी है कि अगर कोई समाजसेवी संस्था केवल नीति के स्तर पर काम कर रही हो, तो भी उसे जमीनी परिस्थितियों के बारे में जानना चाहिए और उचित सुझाव देते रहना चाहिए।

नई दिल्ली में सचिवालय भवन_सरकार
सरकारी प्रणालियों के साथ काम करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है लेकिन समाजसेवी संस्थाओं के लिए यह बेहद फायदेमंद भी हो सकता है। | चित्र साभार: मैथ्यू टी रेडरसीसी बीवाई

5. सरकारी अधिकारियों के साथ सहानुभूतिपूर्वक जुड़ें

समाजसेवी संस्थाओं के लिए यह बहुत जरूरी है कि वे अथॉरिटी की तरह बर्ताव न करें। ऐसा करने से यह लग सकता है कि संगठन में इस स्तर का अहंकार है कि वह सरकार को काम करने के तरीक़े सिखा सकता है। सार्वजनिक विभागों से जुड़ी आम धारणा उन्हें धीमा, आलसी और अप्रभावी मानती है। लेकिन, प्रणालीगत अनिश्चितताएं जैसे फंड वितरण में देरी, राजनीतिक/अधिकारी वर्ग के नेतृत्व में बदलाव, और बेहद सीमित समय सीमा जैसी वजहें असल में इन विभागों के अनियमित प्रदर्शन के लिए जिम्मेदार हैं। निकायों में बुद्धिमान और कुशल अधिकारी भी होते हैं लेकिन वे काम के बोझ से दबे होते हैं। इसके अतिरिक्त ज़मीन से जुड़े और ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले सरकारी अधिकारी अपने प्रभार के तहत समुदायों की गहरी समझ विकसित कर लेते हैं और जानते हैं कि समुदायों की मदद किस तरह की जा सकती है। फिर भी, ऐसा संभव है कि इन समुदायों में बदलाव को अकेले ही प्रभावी बनाने के लिए उनके पास समुचित संसाधनों की कमी हो। इसलिए, सरकारी अधिकारियों के साथ काम करते हुए उनके सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों के प्रति संवेदनशील होना जरूरी होता है। साथ ही, उनकी विशेषज्ञता और विचारों को नज़रअन्दाज़ करके उनके काम में टांग अड़ाने से भी बचना चाहिए।

ऐसे कोई नियम नहीं हैं जो समाजसेवी संस्थाओं को, सहयोगी प्रयासों में शामिल होने के उद्देश्य से सरकारी निकाय से संपर्क करने से रोकते हों।

ऐसे कोई नियम नहीं हैं जो समाजसेवी संस्थाओं को, सहयोगी प्रयासों में शामिल होने के उद्देश्य से किसी सरकारी निकाय से संपर्क करने से रोकते हों। लेकिन इन निकायों का नेतृत्व करने वाले अधिकारियों की मानसिकता, किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार करने में एक प्रमुख भूमिका निभाती है। जहां कुछ सरकारी निकाय किसी भी तरह के सहयोग का स्वागत कर सकते हैं। वहीं अन्य वैकल्पिक समाधान के प्रस्ताव को, अपने द्वारा किए जा रहे काम के लिए खतरे के रूप में देख सकते हैं। उनकी आशंकाओं को पहचानना और एक सम्मानजनक और सहानुभूति भरे तरीके से इन्हें दूर करना जरूरी है। ऐसा करके सफलता और स्थिरता लाने वाली एक टिकाऊ साझेदारी स्थापित की जा सकती है। यह भी है कि सरकार के साथ की जाने वाली साझेदारी की सफलता और असफलता कई कारकों पर निर्भर करती है लेकिन इन पांच सिद्धांतों को ध्यान में रखकर शुरुआत करने से विषम परिस्थितियां भी अनुकूल हो सकती हैं।

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चार तरीके जो फंडरेज़िंग को आसान बनाते हैं

किसी कार्यक्रम के चलते रहने के लिए प्रभावी फंडरेजिंग जरूरी है। एक सामाजिक उद्यमी होने के नाते, हमें इसे हासिल करने वाले कौशल में निपुण होना पड़ता है। इससे हम फंड की कमी से होने वाली समस्याओं से बच सकते हैं और अपना काम जारी रख सकते हैं।

हालांकि अपने अनुभवों से मैंने यही सीखा है कि इसका कोई एक तय तरीका नहीं होता है। लेकिन मैं यह भी जानती हूं कि ऐसे कई कदम हैं जिनका इस्तेमाल करने से सफल होने की संभावना बढ़ जाती है। यह बात किसी भी आकार के संगठन पर समान रूप से लागू होती है।

1. छोटे स्तर से शुरू करें, फिर आगे बढ़ें

एक समाजसेवी संस्था होने के नाते, जब बात हमारे किसी कार्यक्रम की आती है तब हम हर तरह की चुनौती का सामना करने के लिए तैयार रहते हैं। फिर फंडरेजिंग के लिए भी हमें यही नज़रिया क्यों नहीं अपनाना चाहिए?

फंडरेजिंग रिश्ते बनाना है

फंडरेजिंग पूरी तरह से इस बारे में है कि आप और आपके फंडर के बीच कैसे संबंध हैं। यानी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि धन लेने से पहले और धन लेने के बाद यह संबंध कितना बदलता है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी से पहली मुलाक़ात में ही फंड की मांग नहीं करनी चाहिए। इसकी बजाय आप लोगों से मार्केटिंग, मैनेजमेंट इंफॉर्मेशन सिस्टम (एमआईएस) या तकनीक से जुड़ी मदद मांग सकते हैं। बाद में, जब वे आपकी यात्रा का हिस्सा बन जाएं और आपसे या आपके संगठन के नाम से जुड़ने की इच्छा जताएं, तब आप इसकी पहल कर सकते हैं। आप उनसे यह पूछ सकते हैं कि “क्या आप वित्तीय मदद करने वाले किसी व्यक्ति या संगठन को जानते हैं?” ऐसे में वे खुशी-खुशी आपसे यह जानकारी साझा करेंगे।

हम बहुत ही जल्दी पैसे की मांग कर लेते हैं। मेरा अनुभव कहता है कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।

एक बार जब आपको उनका सहयोग हासिल हो जाए तो आपको उन्हें अपने सह-यात्री के रूप में देखना चाहिए, न कि एक बाहरी व्यक्ति या संगठन के रूप में। आपको उनके साथ ऐसा संबंध स्थापित करना है जिसमें आप किसी भी कामकाजी या रणनीतिक चुनौती के बारे में उनसे मुक्त भाव से बात कर सकें और उनकी राय हासिल कर सकें।

धैर्य रखें और लगे रहें

सितम्बर 2015 में मैं एक कॉरपोरेट के साथ मीटिंग करने की कोशिश कर रही थी जिसकी सीएसआर (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) रणनीति अर्पण के उद्देश्यों के साथ मेल खाती थी। मैंने एक मिड-लेवल के व्यक्ति से मुलाक़ात की जिसने मेरा परिचय सीएसआर में उसके साथी से करवाया। मैं इन-पर्सन मीटिंग करने की कोशिश कर रही थी लेकिन उनका लगातार यही कहना था कि “नहीं, हमारे पास पर्याप्त पैसे नहीं है”, “हम आपसे सम्पर्क करेंगे।” मैंने उनकी बात सुनी और लगभग चार सप्ताह बाद उनसे फिर सम्पर्क किया। फिर दो महीने बाद और फिर ऐसे ही थोड़े-थोड़े समय अंतराल पर मैं उनसे लगातार सम्पर्क करती रही। मैंने 2015 का अपना पूरा साल और 2016 का अपना ज़्यादातर समय इसी काम में लगाया।

2016 में मैं अपने एक मेंटॉर से मिली। मैंने उन्हें बताया कि मैं एक मीटिंग करने का प्रयास कर रही हूं लेकिन मुझे अब तक इसमें सफलता नहीं मिली है। उन्होंने एक कॉल किया और उसके एक महीने के भीतर ही, दिसंबर 2016 में मीटिंग हो गई। 2017 के मार्च में हमें फ़ंडिंग भी मिल गई। इस काम में दो साल का समय और बहुत सारा धीरज लगा। 2015 में हमने उनसे पहली बार सम्पर्क किया, 2016 के दिसंबर में मीटिंग हुई और अंत में 2017 के मार्च में फंड मिला। 

ब्लॉक्स से money लिखा है_फंडरेज़िंग
चित्र साभार: पीटी मनी 

अपनी रणनीति को लेकर गम्भीर रहें

सफलता, आंकड़ों से भी उतनी ही संबंधित होती है जितनी रिश्तों से। इसके लिए आपको अपनी सेल्स प्रोसेस यानी प्रस्ताव की प्रक्रिया और रूपांतरण अनुपात दोनों पर ही ध्यान देना होगा। रूपांतरण से यहां मतलब किसी प्रस्ताव के फ़ंडिंग हासिल करने वाले नतीजों में बदलने से है। आपको यह ध्यान रखना होगा कि आपको कितने लोगों से मिलना चाहिए और कितने प्रस्ताव, असल फ़ंडिंग में बदल सकेंगे।

सफलता आंकड़ों और रिश्तों दोनों से जुड़ी होती है।

उदाहरण के लिए 2016-17 में हम लोगों ने 88 प्रस्तावों पर बातचीत से शुरू किया था। उनमें से छत्तीस असफल रहे। अभी हमारे पास ‘फ़नल’ में 34 लाइव संवाद हैं यानी वे बातचीत जो चल रही हैं, अन्य 13 प्रस्ताव के स्तर पर हैं और पांच रूपांतरण के करीब हैं।

फनल जितना अधिक व्यापक होगा सफलता की संभावना उतनी ही मजबूत होगी। बहुत सारे लोग बाहर हो जाएंगे और इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि रूपांतरण की समय-सीमा लगभग नौ महीने से एक साल होता है। इसका कोई छोटा रास्ता या शॉर्टकट नहीं है।

शुरुआत में बड़ी राशियों पर ध्यान दें

मैंने पाया है कि खुदरा या छोटे अनुदानों (एकाधिक दाताओं से 1,000 रुपये) की तुलना में थोक अनुदान (5 लाख रूपये से अधिक की राशि) प्राप्त करना अधिक आसान होता है। खुदरा अनुदान आकर्षक तो हो सकते हैं लेकिन इन पर बाद में ध्यान केंद्रित करना चाहिए क्योंकि शुरुआती वर्षों में आपके पास समय की कमी हो सकती है। साथ ही, आपके पास फ़ंडरों का एक छोटा-मोटा समूह होना चाहिए ताकि किसी एक फ़ंडर के चले जाने से आपके संगठन को किसी प्रकार की चुनौती का सामना न करना पड़े।

2. नए रिश्ते बनाएं

अपना नेटवर्क बनाएं और आपकी सिफ़ारिश करने वालों को खोजें

फ़ंडरेज़िंग के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, ताकि लगातार आपकी उपस्थिति बनी रहे और ज़्यादा से ज़्यादा मीटिंग करने की कोशिश की जा सके। मेरा अनुभव कहता है यदि आप अपना सारा समय पैसे की चिंता करने में लगाते हैं और इसके लिए जरूरी काम नहीं करते हैं तो आपके पास कभी पैसा नहीं आने वाला है। किसी प्रभावशाली व्यक्ति द्वारा आपकी सिफारिश किया जाना, आधी लड़ाई जीत लेने जैसा है। जब अर्पण, गोल्डमैन सैक्स के चेयरपर्सन की सिफारिश के साथ बैठक में जाता है तो उसे गंभीरता से लिया जाता है। उन लोगों से सम्पर्क बनाएं जो आपके लिए नए दरवाज़े खोलने में मददगार साबित होंगे। मुझे किसी ख़ास परिचय और सिफ़ारिश के बग़ैर, एक लाख रुपए से अधिक का एक भी अनुदान आज तक नहीं मिल पाया है।

कॉर्पोरेट साइकल से जुड़कर काम करें

एक सेल्स साइकल में पहली मीटिंग से फंड मिलने तक अमूमन 6 से 9 महीने तक का समय लगता है। इस प्रक्रिया को तेज करने वाला कारक आपकी टाइमिंग होती है। सभी प्रकार के सीएसआर प्रस्तावों को कार्यसमिति की बोर्ड बैठक में मंज़ूरी मिलती है। इसलिए विभिन्न कॉरपोरेट्स के लिए समय-सीमा और प्रणालियों के बारे में जानना महत्वपूर्ण है। कम्पनियां सीएसआर पर चर्चा करने के लिए तिमाही या छमाही बैठकें भी करती हैं। यदि उनकी छमाही बैठक कुछ दिनों पहले ही ख़त्म हुई है तो ऐसा संभव है कि आपके प्रस्ताव पर अगले छः महीने तक किसी तरह की चर्चा न हो।

उन्हें वह बताएं जो वे जानना चाहते हैं, कि वह जो आप कहना चाहते हैं

आमतौर पर उद्यमी या कॉर्पोरेट क्षेत्र के पेशेवर लोग ही आपके डोनर होते हैं। वे संख्याओं और प्रतिशतों के बारे में जानना चाहते हैं और आपको उनकी भाषा में बात करना आना चाहिए। चाहे आप कोई प्रस्ताव लिख रहे हों या किसी मीटिंग में जा रहे हों, आपके लिए यह समझना जरूरी है कि वे वास्तव में क्या जानना चाहते हैं। अक्सर हमारा ध्यान उन बातों पर होता है जो हम कहना चाहते हैं न कि उन बातों पर जो वे जानना चाहते हैं।

अपने कारण को उनका एजेंडा बनाएं

कई बार आपका उद्देश्य आपके फ़ंडर के लिए ‘महत्वपूर्ण’ नहीं होता है। जब हम लोगों ने अर्पण में बाल यौन शोषण के मुद्दे को उठाना शुरू किया, तब यह किसी भी संगठन या कॉर्पोरेट के एजेंडे में शामिल नहीं था। मुझे इसे बदलने और उनके लिए बाल यौन शोषण को एक जरूरी मुद्दा बनाने की जरूरत थी।

कम से कम 12-15 महीने का कैश फ्लो बनाए रखें।

ऐसा करने के लिए मुझे उन्हें इस मुद्दे का महत्व समझाना पड़ा और उन समाधानों को सामने रखना पड़ा जिसे अर्पण ने इस समस्या से निपटने के लिए विकसित किया था। आपको अपने दानदाताओं को बताना पड़ेगा और अपने काम को उनके एजेंडे में शामिल करना होगा। आपके काम और उनकी प्राथमिकताओं के बीच के संबंध को समझना भी मददगार होता है।

नए दानदाताओं से छोटी और पुरानों से बड़ी राशि की मांग करें

सीधे एक बड़ी राशि के बजाय छोटा राशि का अनुदान मांगना हितकर होता है। दानदाताओं को पहली बार छोटे से अनुदान के लिए तैयार करना आसान होता है। जब कोई कॉर्पोरेट साझेदार बन जाता है, तब उनके छोड़ के जाने की संभावना बहुत ही कम हो जाती है। पहले वर्ष में उनके दृष्टिकोण एवं प्रणालियों के बारे में जानने का प्रयास करें, साथ ही यह भी देखें कि क्या यह संबंध आगे भी बना रह सकता है।

यदि यह आपके रणनीतिक उद्देश्यों से मेल नहीं खाता है तो नहीं कहना सीखें

सीमित संसाधनों वाले समाजसेवी संगठन, पैसों के पीछे भाग सकते हैं। जैसे वे इसके लिए अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में जा सकते हैं। लेकिन अपने वास्तविक मूल्यों पर टिके रहना जरूरी होता है। साथ ही, अपनी रणनीतिक दिशा को परिभाषित करना एक ऐसी भूमिका है जिसे बोर्ड के सदस्यों और सलाहकारों को बेहतर ढंग से निभाना चाहिए। कई बार ऐसा होता है कि हमें डोनर के साथ सहमति जतानी पड़ती है। ऐसे मामलों में यह तय कर लेना बेहतर होता है कि ऐसा करने के पीछे एक मज़बूत रणनीतिक कारण मौजूद हो।

3. मौजूदा संबंधों को बनाए रखें

विश्वसनीयता बनाएं

अर्पण के शुरुआती वर्षों में मैंने ग्लोबल फ़ाउंडेशन द्वारा संचालित होने वाले इंडिया एनजीओ पुरस्कार के लिए आवेदन दिया था। हालांकि मैं उनके बारे में पहले से नहीं जानती थी लेकिन मुझे लगा कि एक अंतरराष्ट्रीय इकाई हमें कुछ विश्वसनीयता प्रदान कर सकती है। हमने एक करोड़ रुपए वाली श्रेणी के लिए आवेदन किया और जीत गए। उसके बाद मैंने हमारी इस जीत का उपयोग अपने मौजूदा और नए दानदाताओं के सामने करना शुरू कर दिया। मैं यह जानती थी कि दोनों ही तरह के दानदाता, बाहर से सम्मान हासिल करने वाली संस्था के बारे में आश्वस्त होंगे।

बाहरी सत्यापन महत्वपूर्ण है

इसी प्रकार, आंतरिक एवं बाहरी दोनों तरह की एजेंसी के सत्यापन से मजबूत हुआ एम-एंड-ई (मॉनिटरिंग एंड इवॉल्यूशन) फ़ंडर को इस बात के लिए आश्वस्त करता है कि आपका संगठन नई चीजों को सीखने वाला, विश्वसनीय और बाहरी दुनिया में भी सम्मानित है। एम-एंड-ई आपके संगठन की रणनीतिक दिशा तय करने में मदद करता है और आपके आगे बढ़ने की यात्रा में आपके दानदाताओं को भी साथ लेकर आता है।

4. एक टीम बनाएं

आर्थिक संबंधों को विकसित एवं पोषित करने में बहुत अधिक समय एवं प्रयास की ज़रूरत होती है। अक्सर इस काम के लिए संस्थापक/सीईओ पर अतिरिक्त निर्भरता होती है। फंडरेजिंग से जुड़े प्रयासों में मदद के लिए टीम बनाने का काम शुरू करें। यदि आपके पास सीमित फ़ंडिंग है तो उस स्थिति में लीडर्स की मदद के लिए इंटर्न की नियुक्ति करें। मझले और वरिष्ठ पदों पर कार्यरत कार्यक्रम कर्मचारी प्रस्ताव लिखने में मदद कर सकते हैं। बजट में वृद्धि होने पर किसी एक वरिष्ठ की नियुक्ति के बाद फंडरेजिंग के लिए एक टीम विकसित करें। इसे खर्च की बजाय निवेश की तरह देखें।

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कोविड-19 ने साफ़ किया है कि ग्रामीण रोज़गार को बनाए रखने में मनरेगा की क्या भूमिका है

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) 2005, रोज़गार को एक अधिकार मानता है। यह सरकार को आधिकारिक दावे के 15 दिनों के भीतर रोज़गार प्रदान करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य करता है। यह एक मांग-आधारित और संचालित कार्यक्रम है। इसे इस तरह तैयार किया गया है कि यह महामारी सरीखी आपदाओं के दौरान बीमा तंत्र की भूमिका निभाता है। नतीजतन समय-समय पर इसे कठिन परीक्षाओं से भी गुजरना पड़ता है। 2021 के नवम्बर और दिसम्बर महीनों में अज़ीम प्रेमज़ी यूनिवर्सिटी ने नैशनल कन्सॉर्टियम ऑफ़ सिविल सोसायटी ऑर्गनायज़ेशन्स ऑन नरेगा और कॉलैबरेटिव रिसर्च एंड डिसिमिनेशन (सीओआरडी) के साथ मिलकर नरेगा पर एक सर्वेक्षण किया था। इस सर्वेक्षण का उद्देश्य महामारी के दौरान आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों को सहायता प्रदान करने में मनरेगा की भूमिका को समझना था। 

बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के आठ विकासखंडों (ब्लॉक) के दो हज़ार घरों के साथ यह सर्वे किया गया। इस दौरान नमूना लेने के लिए एक खास तरीके का प्रयोग किया गया। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि सर्वेक्षण से मिलने वाला परिणाम प्रत्येक विकासखंड के सभी जॉब-कार्ड धारकों का प्रतिनिधित्व करे। 

इस अध्ययन में मनरेगा का विश्लेषण निम्न कारकों के आधार पर किया गया: जॉब कार्ड धारक परिवारों पर कार्यक्रम का कुल प्रभाव, अधूरी रह गई मांगों की मात्रा, मजदूरी भुगतान, महामारी के दौरान कार्यक्रम के कामकाज में बदलाव और कठिन परिस्थितियों में आर्थिक सुरक्षा देने में मनरेगा की प्रभावशीलता। अध्ययन में पाया गया कि मनरेगा के तहत काम करने के इच्छुक सभी जॉब कार्ड धारक परिवारों में से लगभग 39 प्रतिशत को महामारी के पहले वर्ष 2020-21 में एक भी दिन काम नहीं मिला। साथ ही, इस साल काम करने वाले परिवारों में से औसतन केवल 36 प्रतिशत को ही काम करने के 15 दिनों के भीतर अपनी मजदूरी प्राप्त हुई।

इन कमियों के बावजूद नतीजों से यह बात सामने आई कि मनरेगा ने महामारी के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और आर्थिक रूप से सबसे कमजोर वर्ग के परिवारों को आय के नुक़सान से बचाया था। नतीजे ये भी बताते हैं कि जिन विकासखंडों में सर्वे किया जा रहा था, वहां आय में होने वाले नुक़सान की लगभग 20 से 80 फ़ीसद भरपाई मनरेगा से हुई है।

अध्ययन के सह-लेखक और अज़ीम प्रेमज़ी विश्वविद्यालय के अध्यापक राजेंद्र नारायणन कहते हैं कि “हमारे अध्ययन से पता चलता है कि मज़दूर वर्ग मनरेगा की आवश्यकता और उपयोगिता को कितना अधिक महत्व देता है। 10 में से आठ से अधिक परिवारों ने सिफारिश की कि मनरेगा को प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 100 दिनों का रोजगार प्रदान करना चाहिए। हमें बड़े पैमाने पर पर्याप्त से कम धनराशि (अंडरफ़ंडिंग) के मामले भी देखने को मिले। एक अनुमान के तहत, सर्वेक्षण किए गए विकासखंडों में आवंटित राशि को वास्तव में आवंटित राशि का तीन गुना होना चाहिए था, तब ही सही मायनों में मांग को पूरा किया जा सकता था।” 

नरेगा कंसोर्टियम के अश्विनी कुलकर्णी कहते हैं कि “मनरेगा के कई उद्देश्यों में से एक उद्देश्य संकट के समय सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है। महामारी और लगातार लगाए गए लॉकडाउन के कारण स्थिति बहुत बुरी हो गई थी और मनरेगा ने उम्मीद के अनुसार जरूरत के समय अपनी भूमिका निभाई। लॉकडाउन के बाद के सालों में मनरेगा के तहत, बड़ी संख्या में गांवों और परिवारों को रोज़गार मिला। पिछड़ेपन को कम करने में मनरेगा की भूमिका पर फिर से जोर दिया जा रहा है और महामारी के बाद के समय में भी इसकी महत्ता बरकरार है। नागरिक संगठनों की जिम्मेदारी है कि वे कार्यान्वयन प्रक्रिया को ठीक करने के लिए नीति निर्माताओं तक लोगों की आवाज पहुंचाएं। यह रिपोर्ट इस संबंध में एक प्रयास है।”

प्लेड शर्ट पहना एक आदमी सड़क पर चल रहा है_मनरेगा
रोज़गार की मांग से निपटने के लिए मनरेगा कार्यक्रम के व्यापक विस्तार की आवश्यकता है। | चित्र साभार: पेक्सेल्स

मुख्य निष्कर्ष 

अध्ययन के सुझाव

मांग का पूरा न होना और समय पर मज़दूरी न मिलना चिंता का विषय रहा है। समग्र ग्राम विकास और समुदायों को सशक्त बनाने में सहायता करते हुए भारत के सबसे कमजोर परिवारों को आय सुरक्षा प्रदान करके, इस चिंता से निपटने में मनरेगा की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। इन लक्ष्यों को प्रभावी ढंग से प्राप्त करने के लिए, इनके आवंटन में वृद्धि करने, सरकार की जवाबदेही बढ़ाने और संरचनात्मक मामलों के लिए केवल तकनीकी सुधारों से बचने की आवश्यकता लगातार बनी हुई है।

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फुटनोट:

  1. लाभार्थी के खाते में सीधे मजदूरी हस्तांतरित करने के लिए कार्य के सत्यापन के बाद कार्यान्वयन एजेंसी (ग्राम पंचायत/ब्लॉक) द्वारा एफटीओ तैयार किए जाते हैं। 
  2. सात रजिस्टरों में जॉब कार्ड (आवेदन, पंजीकरण और जारी करना), घरेलू रोजगार, ग्राम सभा (बैठक और सामाजिक लेखा परीक्षा) मिनट, मांग, आवंटन और काम का पंजीकरण, मज़दूरी का भुगतान, शिकायत और सामग्री से संबंधित जानकारी होती है।

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जब तक जातिगत समुदायों की कोई जानकारी ही नहीं होगी तो उनके विकास की तैयारी कैसे होगी?

बीती गर्मियों में किए गए अपने एक ट्वीट में एक्टिविस्ट बेजवाड़ा विल्सन ने लिखा था कि भारत में पिछले पांच वर्षों में सीवर और सेप्टिक टैंक में मरने वाले श्रमिकों की संख्या 35 फ़ीसदी तक घट गई है। विल्सन सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय कर्ताधर्ता हैं। यह हाथ से मैला ढोने (भारत की सबसे निचली जाति के लोगों को सौंपा गया काम जिसपर 2013 में प्रतिबंध लगा दिया गया था) की प्रथा समाप्त करने की मांग करने वाले सफाई कर्मचारियों का एक संघ है। 

विल्सन ने अपने ट्वीट में लिखा था कि “आंकड़ों में हेराफेरी करने की बजाय जीवन बचाना ज़्यादा आसान होता।” लेकिन जाति पर आधारित आंकड़ों के साथ तो हेराफेरी की ज़रूरत भी नहीं है क्योंकि जाति-आधारित असमानताओं पर पर्याप्त जानकारी उपलब्ध ही नहीं हैं।

भारत में हाथ से मैला ढ़ोने की परम्परा अब तक क्यों जारी है? सरकार सीवर की सफ़ाई का मशीनीकरण कर इस अमानवीय प्रथा पर रोक क्यों नहीं लगा देती है, जैसा कि इसने संकेत दिया है कि यही इसका उद्देश्य रहा है? इसका उत्तर गहरे तक जमी उस गैर-बराबरी में है जो विकास से जुड़ी चर्चाओं और आंकड़ों दोनों में साफतौर पर दिखाई देती है।

जातिप्रथा, गरीबी और अलगाव को पैदा करती है और इसकी उपस्थिति कई सतत विकास लक्ष्यों (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स – एसडीजी) में साफ़ देखी जा सकती है। जातिगत भेदभाव के सबूत स्पष्ट होने के बावजूद, विकास लक्ष्यों के संदर्भ में तरक्की को दिखाने वाले वे आंकड़े बहुत थोड़े हैं जो जाति पर आधारित ग़ैर-बराबरी की बात करते हों। भारत को आज़ाद हुए सात दशक से भी अधिक का समय बीत चुका है लेकिन जाति पर आधारित भेदभाव और ग़ैर-बराबरी, औपचारिक और अनौपचारिक दोनों ही रूपों में, विकास के प्रयासों को प्रभावित कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर जाति-आधारित आंकड़ों की भारी कमी है।

आंकड़ों की कमी का वास्तविक जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है, जैसा हमने ऊपर दिए उदाहरण में देखा। इस ग़ैर-बराबर दुनिया में जिन लोगों की गिनती नहीं होती, वे महज़ गुमशुदा आंकड़े नहीं हैं। अपने कमजोर लोगों की गणना करने में विफल लोकतंत्र उन लोगों को ही मताधिकार से वंचित कर देता है, जिन्हें लोकतंत्र की सबसे अधिक ज़रूरत होती है।

जाति को नज़रअंदाज़ करने से करोड़ों लोग प्रभावित होते हैं

समस्या कितनी गम्भीर है? दुनियाभर में करोड़ों लोग पहले से निर्धारित और अत्यंत असमान सामाजिक वर्ग या जाति व्यवस्था में जन्म लेते हैं। ये व्यवस्थाएं ही इन लोगों को जीवन भर मिलने वाले अवसरों का निर्धारण करती हैं।

यदि इन्हें एक देश मान लिया जाए तो दलितों की कुल संख्या दुनिया के सातवें सबसे बड़े देश की आबादी के बराबर है (और यदि हम उन लोगों को भी शामिल कर लें जिन्होंने बौद्ध या इस्लाम धर्म अपना लिया है लेकिन अब भी उन्हें दलितों में ही गिना जाता है तो ये विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाले चौथे देश हो जाएंगे)। दलितों को वंश-आधारित भेदभावों जैसे जाति या जाति जैसी ही अन्य व्यवस्थाओं से निकलने वाली छुआछूत और अपमान आदि का सामना करना पड़ता है। इसी प्रकार, अधिसूचित समुदायों या विमुक्त जातियों (1971 के आपराधिक जनजाति अधिनियम के तहत इस्तेमाल की जाने वाली शब्दावली) के लोगों की कुल संख्या लगभग 15 करोड़ है। ये लोग मुख्य रूप से खानाबदोश वर्ग में आते हैं और भारत के अधिकारिक आंकड़ों से बाहर होते हैं।

एरर मैसेज_जाति व्यवस्था
कमजोर लोगों की गणना करने में विफल लोकतंत्र उन लोगों को ही मताधिकार से वंचित कर देता है जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है। | चित्र साभार: अनस्प्लैश

भारत में अधिकारिक आंकड़ा लोगों को या तो अनुसूचित जाति (निचली जाति के लोग जिनमें दलित भी शामिल हैं) या ग़ैर-अनुसूचित जाति (सवर्ण जातियों का समूह जिनमें उच्च जाति के हिंदू और अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शामिल होते हैं) में वर्गीकृत करता है। ये वर्ग आंकड़ों की विषमता पर प्रकाश डालते हैं। ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ की श्रेणी में आने वाले लोग भारत की कुल आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं और इनके एक बड़े तबके का जीवन अनुसूचित जाति वर्ग में आने वाले लोगों के जीवन स्तर के समान ही होता है।

निजी अनुसंधान एजेंसियों द्वारा किए गए सर्वेक्षणों से भारत में गरीबी और असमानता की एक अधिक साफ़ और पूरी तस्वीर सामने आती है। घरेलू स्तर पर उपभोग का आंकड़ा आय की तुलना में जीवन-स्तर को मापने के लिए एक अधिक मज़बूत और कारगर तरीक़ा होता है। इस आंकड़े को यूनीवर्सिटी ऑफ़ मेरीलैंड और एक समाजसेवी थिंकटैंक नेशनल काउन्सिल ऑफ़ अप्लाइड एकनॉमिक रिसर्च के इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे द्वारा प्राप्त किया जाता है। हालाकि इनके आंकड़े ग़रीबी और असमानता को अधिक स्पष्ट रूप से दिखाते हैं, पर सरकार एडवोकेसी या नीति परिवर्तन के लिए इस आंकड़े को स्वीकार नहीं करती है।

जाति के वर्ग में शामिल हो पाने का प्रभाव

वर्ग से संबंधित आंकड़ों की कमी मौजूदा ग़ैर-बराबरी को दिखाती है और उसकी पुष्टि करती है। इसके लिए आर्थिक और सामाजिक शक्ति के ऐतिहासिक स्त्रोत, भूमि का उदाहरण लेते हैं। हम नहीं जानते हैं कि भूमि स्वामित्व के मौजूदा आंकड़े में जातियों का क्या अनुपात है। किस जाति के पास अधिक भूमि है? आज़ादी के सात दशकों में किस जाति के लोग अधिक भूमिहीन हो गए?

वर्ग से संबंधित आंकड़ों की कमी मौजूदा ग़ैर-बराबरी को दिखाती है और उसकी पुष्टि करती है।

हमारे पास इससे जुड़ी जानकारी नहीं है कि प्रत्येक जाति के कितने लोगों को सरकारी कल्याणकारी सुविधाओं और सामाजिक सुरक्षा का लाभ मिलता है? हम एसडीजी के आधार पर जाति स्तर पर होने वाली प्रगति पर नज़र नहीं रख सकते हैं। हमारे पास उपलब्ध सीमित आंकड़े हमें यह बताते हैं कि ऐतिहासिक रूप से पिछड़े वर्गों के लोगों का जीवन स्तर बदतर है। उदाहरण के लिए, औसतन, अनुसूचित जाति की महिलाओं की औसत आयु, राष्ट्रीय औसत आयु से 14.6 वर्ष कम है। लेकिन हम नहीं जानते कि अनुसूचित और अन्य पिछड़ी जातियों के रूप में समूहीकृत हजारों विविध जातियों/समुदायों में यह आंकड़ा बदतर है या बेहतर। कितने बाल श्रमिक किस जाति से आते हैं? कितने बेघर दलित या अनुसूचित और अधिसूचित जनजाति के हैं? जातीय स्तर पर शिशु मृत्यु दर का आंकड़ा क्या कहता है? अधिक और बेहतर आंकड़े इकट्ठा किए बिना हम इन सवालों का जवाब नहीं दे सकते हैं और न ही असमानताओं को दूर करने के लिए किसी भी तरह की नीतियां ही विकसित कर सकते हैं।

जाति की उपेक्षा कर विकास को नकारना

यह कोई संयोग नहीं है कि भारत सरकार अलग-अलग जातियों की गणना करने वाले आंकड़े को इकट्ठा करने या प्रकाशित करने का विरोध करती है। हम क्या गिनते हैं और क्या नहीं यह हमारे मूल्यों को प्रतिबिम्बित करता है। जाति की जानकारियों पर आधारित विकास ढांचे की कमी- गुणवत्ता के स्तर पर और राजनीतिक रूप से- उस ढांचे से अलग है जो अन्य पहचान कारकों, उदाहरण के लिए लिंग आदि, की उपेक्षा करता है। एक सामाजिक श्रेणी के रूप में लिंग की महत्ता को व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है। लेकिन जाति का सवाल, विकास और इससे जुड़े लोगों और कर्तव्य-वाहकों दोनों के लिए, अब भी एक अभिशाप बना हुआ है।

उदाहरण के लिए, नीति आयोग (भारत की नीति और नियोजन प्राधिकरण) और भारत में संयुक्त राष्ट्र द्वारा तैयार एसडीजी स्थानीयकरण का भारतीय मॉडल, बड़े पैमाने पर जाति की वास्तविकताओं की उपेक्षा करता है। इस प्रक्रिया में यह एक असंभव स्थिति को प्राप्त करने की कोशिश करता है, और वो है, जातिगत वास्तविकताओं को नज़रअन्दाज़ करके विकास के लक्ष्यों का स्थानीयकरण करना। इसी प्रकार, घोर गरीबी और मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत की एक हालिया रिपोर्ट आई है जिसका उद्देश्य है उन लाखों सामाजिक रूप से कमजोर लोगों के बारे में जागरूकता बढ़ाना जिनके पास सामाजिक सुरक्षा जैसी सुविधाएं या तो उपलब्ध नहीं हैं या वे इन तक पहुंच नहीं पाते हैं। पर यह रिपोर्ट बुरी तरह विफल हो जाता है क्योंकि यह जाति, नस्ल, लिंग, धर्म और यौन झुकावों की चर्चा ही नहीं करता जिनके आधार पर लोग सामाजिक लाभों से वंचित कर दिए जाते हैं।

विश्व स्तर पर, लैक ऑफ़ डेवलपमेंट (विकास की कमी) सामाजिक विकास प्रयासों के डिजाइन, योजना निर्माण एवं उसे लागू करने तथा उसके मूल्यांकन करने के लिए प्रमुख रूपरेखा रही है। ऐसी धारणा है कि धीरे-धीरे ही सही लेकिन विकास अंततः उन लोगों तक पहुंचेगा जो हाशिए के आख़िरी छोर पर हैं। हालांकि सबूत इसके विपरीत हैं। किसी को पीछे नहीं छोड़ने के एजेंडे के (लीव नो वन बिहाइंड एजेंडा) बावजूद हम विकास को समान रूप से सभी तक नहीं पहुंचा पाए हैं।

ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने वाली जातियों के अधिकांश लोगों के लिए, प्रासंगिक और गहराई से अध्ययन कर तैयार किए आंकड़े उपलब्ध करवा सकने में व्यवस्था का इनकार भारत को एसडीजी हासिल करने में बाधा उत्पन्न करता है। जाति को मापने के लिए आंकड़े की मौजूदगी या ग़ैर-मौजूदगी हमारे ढांचे और प्राथमिकताओं पर निर्भर करती है। अक्सर हमारे सामने वही आंकड़े आते हैं जिनमें व्यवस्थागत तरीक़े से लोगों और समुदायों को लगातार बाहर ही रखा जाता है। इसे ठीक करने के लिए मेरी राय है कि हम ‘डिनायल ऑफ़ डेवलपमेंट’, विकास से जानबूझ कर दूर रखने वाली नज़र या लेंस, को दिमाग़ में रखें। भारतीय उपमहाद्वीप में यह लेंस असमानता और अभाव के मूलभूत कारण (पर्सिसटेंट स्ट्रक्चरल रीजन) को समझने के लिए जातिगत नजरिए को अहम दर्ज़ा देगा और इससे जाति पर बेहतर डेटा डिज़ाइन और संग्रह भी मुमकिन हो पाएगा।

यह लेख मौलिक रूप से द डाटा वैल्यूज डायजेस्ट में प्रकाशित हुआ था

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