October 23, 2024

सामाजिक क्षेत्र को पूर्वोत्तर भारत में काम करने के बारे में क्या सीखना चाहिए?

साथ ही जानिए, क्यों समाजसेवियों और फंडर्स को पूर्वोत्तर भारत के लिए सामाजिक क्षेत्र से जुड़े कार्यक्रम बनाने से पहले वहां के स्थानीय संदर्भों को समझ लेना चाहिए।
8 मिनट लंबा लेख

मैं साल 1975 में केरल से एक युवा छात्र के तौर पर पहली बार पूर्वोत्तर आया था। तब से, मुझे चर्च समूहों, समाजसेवी संस्थाओं और शैक्षणिक संस्थानों के साथ जुड़े रहने के कारण असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा राज्यों की यात्रा करने का मौका मिलता रहा है। साल 2008 में, मैं असम के जोरहाट स्थित बोस्को इंस्टीट्यूट का निदेशक बना जो न केवल सोशल वर्क प्रोग्राम में मास्टर डिग्री प्रदान करता है, बल्कि समाजसेवी संगठनों के प्रोजेक्ट्स को प्रभावी तरीके से ज़मीन पर लागू करने में उनकी मदद भी करता है। इसके साथ ही, यह एक इनक्यूबेशन प्रोग्राम भी चलाता है जो इनक्यूबेशन, शुरूआती फंडिंग, क्षमता निर्माण, संगठनात्मक विकास आदि के जरिए पूर्वोत्तर में युवा सामाजिक उद्यमियों को सहयोग देता है।

इतने सालों में, इस इलाके के युवाओं के साथ मिलकर काम करते हुए मैंने जाना कि वे मुखर और महत्वाकांक्षी तो हैं लेकिन अकेले भी हैं। इसलिए कि सामाजिक क्षेत्र में काम करने या उद्यमी बनने जैसे अपरंपरागत व्यवसायों को अपनाने को लेकर उन्हें परिवार और समुदाय का पूरा साथ नहीं मिलता है। उनके पास समाज को बेहतर बनाने के सपने तो हैं, लेकिन अक्सर जानकारी, धन और उचित मार्गदर्शन की कमी के कारण वे पीछे रह जाते हैं। विकास सेक्टर में इन समुदायों की सांस्कृतिक, भौगोलिक और सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों को लेकर कोई स्पष्ट समझ नहीं है और इसका नुकसान भी समुदायों को झेलना पड़ता है।

पूर्वोत्तर के पारिस्थितिकी तंत्र में काम करने वाले फंडर्स, समाजसेवी संगठनों और महत्वाकांक्षी समाजसेवी लीडर्स के साथ मैं यहां कुछ सीखें साझा करना चाहूंगा। मेरा मानना ​​है कि ये उन लोगों के लिए एक शुरुआती बिंदु हो सकती हैं जो इन राज्यों के साथ कुछ सार्थक करने के लिए जुड़ना चाहते हैं।

1. पूर्वोत्तर में सब कुछ एक जैसा नहीं है

पिछले कुछ दशकों में पूर्वोत्तर में सामाजिक सेक्टर का तेजी से विकास हुआ है लेकिन इससे समुदाय को हमेशा फायदा हुआ हो, ऐसा नहीं है। इसके पीछे का कारण यह भी रहा है कि जिन बड़े फंडर्स और गैर-लाभकारी संगठनों ने इस क्षेत्र में काम करना शुरू किया, उन्होंने इस क्षेत्र को बनाने वाले आठ राज्यों की भौगोलिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जटिलताओं की वास्तविकता को ठीक तरह से समझे बिना काम किया। यहां भी उन्होंने भारत के अन्य हिस्सों में चल रहे अपने कार्यक्रमों को बगैर स्थानीय संदर्भों को जांचे शुरू कर दिया।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

उदाहरण के लिए, कई लोग मानते हैं कि नागालैंड की एक ही नागा पहचान है, लेकिन उन्हें यह एहसास नहीं है कि इसके भीतर कई समुदाय और कबीले भी हैं। उनकी अपनी अलग-अलग भाषाएं/बोलियां और संस्कृतियां हैं और इसीलिए उनकी चुनौतियां एक-दूसरे से भी अलग हैं। इन सभी के लिए कोई एक ही समाधान काम में नहीं आएगा। पूर्वोत्तर में समुदाय भौगोलिक रूप से विभाजित है – लोग मैदानों, पहाड़ियों और नदी किनारे के इलाकों में रहते हैं और उनके अपने अलग संसाधन और समस्याएं हैं। ऐसे में  एक समाजसेवी संस्था जो इस तरह की विविधता को नहीं समझती, क्या वास्तव में इन समुदायों की मदद कर सकती है?

सामाजिक क्षेत्र में संस्थाओं की दौड़ आंकड़ों के पीछे भागने की ज्यादा रही है क्योंकि फंडर उनसे यही सब मांगते हैं। समाजसेवी संगठन किसी एक गांव में चुनिंदा लोगों के समूह (जैसे स्वयं सहायता समूह मॉडल) के साथ काम करना शुरू करते हैं, अपना कार्यक्रम चलाते हैं, उसका प्रभाव मापते हैं और फिर अगले गांव में चले जाते हैं। वहीं, आंकड़े बताते हैं कि ये समूह अक्सर वंचित वर्ग के लोगों को छोड़ देते हैं। अधिक समावेशी सामाजिक विकास मॉडल का रहस्य छोटे पैमाने पर सोचने में निहित हो सकता है। कम समय में, किसी राज्य के 30 गांवों को कवर करने के बजाय, समाजसेवी संस्थाओं को एक गांव या उस क्षेत्र के सभी समुदाय के सदस्यों तथा गांवों के समूह के साथ तब तक काम करना चाहिए जब तक कि समुदाय परिवर्तन को ख़ुद से बनाए रखने में सक्षम न हो जाए।

दरअसल, असम के कामरूप मेट्रोपॉलिटन जिले के सोनापुर इलाके में, बॉस्को इंस्टीट्यूट ने खेती और कृषि-आधारित उद्यमिता पर काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था स्प्रेड एनई के साथ साझेदारी की है। प्राकृतिक खेती पर आधारित इस परियोजना में हर घर से युवा, महिलायें और बच्चे इसका हिस्सा हैं। कृषि उद्यम के जिस पहलू में उनकी रुचि है, उसके आधार पर समुदाय के सदस्य उत्पादन, मार्केटिंग और नेटवर्किंग में शामिल होते हैं। लोग सीमित समय सीमा के भीतर लक्ष्य पूरा करने के तनाव के बगैर अपनी गति से काम करते हैं। चूंकि उन्होंने इस परियोजना को अपना लिया है इसलिए वे अतिरिक्त व्यावसायिक विचारों के साथ आए हैं जैसे कि एक पर्यटन मार्ग बनाना जिससे पर्यटक खेतों में रुक सकें और इससे उन्हें अतिरिक्त आय हो सके।

झील में एक नींव पर एक व्यक्ति_पूर्वोत्तर भारत
समुदायों को सामाजिक क्षेत्र द्वारा उनकी संस्कृतियों की कमजोर समझ के कारण भी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। |चित्र साभार: नियो अलफ्रेस्को / सीसी बीवाई

2. निवेश नए विचारों पर हो लेकिन असफलता की गुंजाइश के साथ

पूर्वोत्तर के राज्य वर्षों से राजनीतिक अशांति से गुजर रहे हैं, जिसका असर लोगों के मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक ताने-बाने पर पड़ा है। संसाधनों की कमी के कारण वे, जोखिम भरे माने जाने वाले, उद्यमिता और सामाजिक कार्य जैसे पेशे नहीं अपना पाते हैं। उन्हें सरकारी नौकरी करने या डॉक्टर या इंजीनियर बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है क्योंकि इन्हें स्थिर करियर विकल्प माना जाता है।

जब युवा सामाजिक सेक्टर में काम करना चुनते हैं तो वे एक तरह से धारा के विपरीत जाकर ऐसा करने का निर्णय लेते हैं। उनमें से कई लोग इसमें पहल तो शुरू कर देते हैं, लेकिन पारिवारिक और सामाजिक दबाव तथा वित्तीय तनाव के कारण इसे छोड़ने पर मजबूर भी हो जाते हैं। इसके अलावा, इलाके में आपदाएं भी आती रहती हैं। यहां हर साल बाढ़ आना एक आम बात है जो समाजसेवी कार्यों में अतिरिक्त चुनौतियां लेकर आती है। पूर्वोत्तर राज्यों में नए समाजसेवी संगठनों में निवेश करने वाले फंडर्स को इस क्षेत्र में विफलताओं की संभावना पर विचार करना चाहिए और संगठनों पर ऐसी समय-सीमाएं पूरी करने का दबाव नहीं डालना चाहिए जो उनकी वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल न हों। उन्हें समयबद्ध, परियोजना-आधारित फंडिंग के बजाय दीर्घकालिक प्रतिबद्धताएं भी बनानी चाहिए।

यदि समाजसेवी संस्थाओं के युवा लीडर्स असफल भी होते हैं तो उन्हें अपने आपको अयोग्य नहीं मान लेना चाहिए। अगर कोई व्यवसायी दोबारा अपने काम की शुरुआत कर सकता है तो सामाजिक क्षेत्र के इन लीडर्स को भी दूसरा मौका मिलना चाहिए। इसके लिए पूर्वोत्तर में समजसेवियों और फंडर्स को एक साथ मिलकर ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करे।

3. फंडर्स को अपनी अपेक्षाओं को दोबारा आंकना चाहिए

हमारे इनक्यूबेशन प्रोग्राम में, हम सामाजिक उद्यमिता पर ध्यान केंद्रित करते हैं। हमारा मानना ​​है कि नए समाजसेवी संगठनों को बाहरी फंडिंग के लिए आवेदन करने से पहले कुछ वर्षों तक खुद को बनाए रखने पर जोर देना चाहिए।

क्षेत्र में छोटे समाजसेवी संगठनों के लिए शुरुआती चरण में फंडिंग प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण है और हम नहीं चाहते कि युवा लोग पैसे की कमी के कारण अपने प्रयासों को आगे बढ़ाना बंद कर दें। अगर कोई नया समाजसेवी संगठन फंडिंग पाने में कामयाब हो भी जाता है तो अक्सर फंडर्स यह तय करना शुरू कर देते हैं कि उसे क्या काम करना चाहिए। इन सबको लेकर युवा लीडर्स अपनी बात पूरी ताकत के साथ नहीं रख पाते हैं। फंड देने वालों के दबाव के कारण कई लोग उस मूल विचार से भटक जाते हैं जिसके लिए उन्होंने वास्तव में पहल शुरू की थी।

क्या सामाजिक क्षेत्र, जो लोगों की सेवा करने पर गर्व करता है, उसे समुदाय के तरीकों के अनुकूल नहीं होना चाहिए?

फंड देने वाले लोग संबंधित क्षेत्र के बारे में पहले से शोध नहीं करते हैं और अक्सर ऐसी मांगें करते हैं जो उस जगह पर लागू नहीं होती हैं। हाल ही में, मैं एक युवा लीडर से बात कर रहा था जो ऐसे ही एक फंडर के साथ काम कर रहा है। वे ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं और किशोर बच्चों के साथ ऑनलाइन अभियान चलाने की योजना बना रहे हैं लेकिन पूर्वोत्तर के कई गांवों में ठीकठाक इंटरनेट कनेक्शन ही नहीं है।

4. सेक्टर को समुदायों की बात सुनना सीखना चाहिए

पूर्वोत्तर में सामाजिक सेक्टर की कमी यह है कि यह समुदायों की बात नहीं सुन पाता और उन पर अपने विचार थोपने की प्रवृत्ति रखता है। दूसरे राज्यों से आने वाले फंडर और समाजसेवी संगठन जो इस क्षेत्र में काम करना शुरू करते हैं, वे अक्सर स्थानीय लोगों में उद्यमशीलता की भावना और उनकी उत्पादकता की कमी की शिकायत करते हैं। लेकिन विकास के आधुनिक विचार को उन पर थोपे जाने से पहले यहां के लोगों की जीवनशैली आत्मनिर्भर थी। वे अपना भोजन खुद उगाते थे, अपने कपड़े खुद बुनते थे और धीमी गति से जीवन जीते थे। आप आज भी इन राज्यों के छोटे शहरों और गांवों में इसकी झलक देख सकते हैं। 

मैं हमेशा कहता हूं कि जब मैं 1975 में केरल से मेघालय के शिलांग आया था तो हम पैदल चलते थे क्योंकि यह सुखद था और यहां कोई वाहन नहीं था। अब शिलांग के लोगों को पैदल चलना पड़ता है क्योंकि सड़कें बहुत सारे वाहनों से भरी हुई हैं और हर जगह ट्रैफिक जाम है। यह किस तरह का विकास है? अगर लोग इंडस्ट्रियल टाइम के अनुसार काम नहीं करना चाहते हैं, अगर वे फैक्टरियों में काम करते रहने के बजाय अपने त्योहारों और सामुदायिक कार्यक्रमों को प्राथमिकता देते हैं तो यह बाजार की ताकतों के मुताबिक ढलने से उनका इनकार है। क्या सामाजिक क्षेत्र, जो लोगों की सेवा करने पर गर्व करता है, उसे समुदाय के तरीकों के अनुकूल नहीं होना चाहिए? बजाय इसके कि उन्हें ऐसा कुछ करने के लिए मजबूर किया जाए जो उनकी खुशी की समझ के खिलाफ हो?

पूर्वोत्तर के कई समुदाय आज अपनी भाषा, संस्कृति, गीत-संगीत और परम्पराओं को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अपनी संस्कृति को बचाने के लिए समुदाय के युवा प्रयास कर रहे हैं लेकिन उन्हें आर्थिक सहयोग के लिए जूझना पड़ रहा है। कुछ ऐसे लोग और समूह भी हैं जो स्लो फूड (अच्छा गुणवत्तापूर्ण खाना जो फास्ट फूड के बिलकुल उलट है), स्लो फैशन (फैशन उद्योग के पर्यावरण पर नकारात्मक असर को कम करने की सोच), खेती के प्रति लगाव, लोक संगीत, कला और लोक कथाओं को बढ़ावा दे रहे हैं। समुदाय के लिए महत्व रखने वाले ऐसे लोगों और संस्थानों को बढ़ावा देने में विकास क्षेत्र की अहम भूमिका हो सकती है। इससे उन्हें अपनी शर्तों पर समुदाय के साथ संवाद करने की दिशा में आगे बढ्ने में मदद मिलेगी।

जेरी थॉमस, असम के जोरहाट में स्थित बोस्को इंस्टीट्यूट के निदेशक हैं।

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जेरी थॉमस

जेरी थॉमस, असम के जोरहाट में स्थित बोस्को इंस्टीट्यूट के निदेशक हैं। यह संस्थान सामाजिक कार्य में स्नातकोत्तर कार्यक्रम चलाता है। थॉमस, बीआई की यूथ इनवॉल्व पहल का भी नेतृत्व करते हैं जो पूर्वोत्तर में युवा सामाजिक उद्यमियों को प्रोत्साहित करती है। उन्हें पूर्वोत्तर राज्यों के लिए सामाजिक क्षेत्र में काम करने का 40 से अधिक वर्षों का अनुभव है।

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