थियेटर का नाम सुनते ही हमारे दिमाग में एक मंच की तस्वीर उभरती है, जिस पर कलाकार नाटक पेश कर रहे होते हैं और हम, दर्शक, ताली बजा रहे होते हैं। लेकिन क्या हो अगर मंच पर घटने वाली कहानी का हिस्सा हम भी बन जाएं? अगर कलाकारों के साथ-साथ हम भी अपनी राय रखें, सवाल पूछें और समाधान तलाशें? थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड, कुछ ऐसा ही अनुभव कराता है। शोषितों-वंचितों का एक ऐसा मंच जो उनके लिए और उन्हीं के द्वारा बनाया गया है। यह पारंपरिक थियेटर से बिल्कुल अलग और बेहद अनोखा तरीका है, जो संवाद और सहभागिता को केंद्र में रखता है। आइये समझते हैं कि थियेटर का यह विशिष्ट रूप क्यों बना, इसे कैसे मंचित किया जाता है और इसकी व्यावहारिक उपयोगिता क्या है?
थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड क्या है?
ब्राज़ील के थियेटर कर्मी अगस्तो बोआल ने 1950 के दशक में थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड की शुरुआत की थी जो सुविधा-सम्पन्न और वंचितों (दूसरे शब्दों में शोषक और शोषित) के बीच संवाद के जरिये मुद्दों को हल करने के विचार पर आधारित है। ब्राज़ील के ही शिक्षाविद और विचारक पॉलो फ्रेरे की किताब ‘पैडागौजी ऑफ द ऑप्रेस्ड’ इसका मुख्य आधार है और यह थियेटर के माध्यम से शोषक और शोषित के संबंध की जटिलताओं को समझने का प्रयास करता है। विभिन्न कलाएं, ऐतिहासिक रूप से सीखने-सिखाने का माध्यम होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति का भी सशक्त माध्यम रही हैं। मानवीय इतिहास में जब अधिकारों और बराबरी की बात आई तो उसमें थियेटर सहित विभिन्न कलाओं का शामिल होना स्वाभाविक ही था। शोषित अपनी आवाज उठाने के लिए कला का इस्तेमाल कैसे करें और इसके लिए कम समय में कला को ज्यादा लोगों तक कैसे पहुंचाया जाए, यह एक बड़ा सवाल था। इस सवाल के जवाब की तलाश में ही आगे जाकर पारंपरिक थियेटर का पैटर्न भी टूटा और थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड जैसे विशिष्ट रूप ने आकार भी लिया।
पारंपरिक थियेटर में मंच और दर्शक के बीच एक अदृश्य दीवार होती है—कलाकार अपनी भूमिका निभाते हैं और दर्शक देखते हैं। थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड में यह दीवार तोड़ दी जाती है। मंचन के दौरान कलाकारों और दर्शकों के बीच सीधे संवाद होते हैं, नाटक को बीच में ही रोका जा सकता है, और उस मुद्दे पर बात की जा सकती है जो कहानी में उठाया गया है। मंचन के एक अन्य रूपों जैसे नुक्कड़ नाटक से यह इस मायने में अलग है कि इसमें कलाकार अपनी बात कहकर चले जाते हैं। वहीं, थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड में दर्शकों को भी मंच पर आने, कहानी का हिस्सा बनने और खुद को शोषित के स्थान पर रखकर समाधान तलाशने का मौका मिलता है। साथ ही नुक्कड़ नाटक की ही तरह थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड को भी नुक्कड़, गली, बाजार, मीटिंग्स जैसी और भी सार्वजनिक जगहों पर किया जा सकता है।
विकास सेक्टर में इसके व्यावहारिक प्रयोग क्या है?
किसी भी मुद्दे की गहराई में जाएं तो हम देख सकते हैं कि उसका कारण, मूलरूप से एक असहमति होती है। यह असहमति ही शोषक और शोषित के बीच का अंतर है, अगर दोनों के बीच सहमति बन जाए तो मुद्दे को सुलझाने की दिशा में बढ़ा जा सकता है। इस तरह देखें तो थिएटर हर उस जगह उपयोग किया जा सकता है, जहां किसी भी तरह की असहमति है। जहां भी कोई दबा हुआ या शोषित महसूस कर रहा हो या अपनी बात नहीं रख पा रहा हो, वहां इसका प्रयोग किया जा सकता है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन और मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) जैसे जन संगठनों से लेकर प्रदान और पतंग जैसी सामाजिक संस्थाओं ने अपने काम के दौरान थिएटर का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है। केरल और दिल्ली की कुछ ट्रेड यूनियनों ने भी श्रमिक अधिकारों पर जागरूकता लाने के लिए इसका उपयोग किया है। थिएटर ऑफ द ऑप्रेस्ड वास्तविक कहानियों या परिस्थितियों पर आधारित होता है, ‘जिसकी लड़ाई उसकी अगुवाई’ के मूल्य को केंद्र में रखते हुए विचार यह होता है कि अभिनय भी वही करें जो प्रभावित हैं। इसलिए यह भी खयाल रखा जाता है कि इसमें हिस्सा लेने के लिए किसी खास अभिनय कुशलताओं की भी जरूरत न हो।
सामाजिक संस्थाओं के लिए थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड कैसे काम आ सकता है?
सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाएं, समुदाय के साथ मुद्दों और आपसी संबंधों पर समझ बेहतर करने के लिए इसका प्रयोग कर सकती हैं। साथ ही, अपनी संस्था के लोगों के साथ जिस भी विषय पर असहमति हो, उस पर बात करने के लिए इसका उपयोग कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था बच्चों और शिक्षक के संबंध की दृष्टि से बच्चों के अधिकारों और उनके शोषण को समझने के लिए इसका प्रयोग कर सकती है। श्रमिक अधिकार पर काम करने वाली संस्थाएं उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने और मालिक वर्ग के शोषण के खिलाफ आवाज उठाने के लिए इसका प्रयोग कर सकती हैं।
थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड को संचालित करने वाला एक प्रशिक्षित थियेटर कर्मी होता है जिसे ‘जोकर’ कहा जाता है।
हमने एक बार छत्तीसगढ़ में एक कार्यशाला की जिसमें वन अधिकार को लेकर समुदाय ने उनकी परेशानियों और मांगों को दर्शाने वाला एक नाटक तैयार किया गया। इसका मंचन वहां के वन विभाग के अधिकारियों के सामने किया गया, इस तरह समुदाय अपने मुद्दों पर वन विभाग से संवाद कर पाया। इसी तरह दिल्ली के एक झुग्गी-झोपड़ी के इलाके में हम जेंडर पर एक नाटक कर रहे थे। नाटक के बीच में जब हम वहां मौजूद लड़कों से महिलाओं के साथ होने वाली छेड़खानी को लेकर बात कर रहे थे, तभी एक युवा लड़की बोली कि ये क्या कहेंगे ये तो खुद मुझे छेड़ते हैं। इस पर बस्ती की एक वयस्क महिला ने उस युवती से कहा कि अगली बार ऐसा हो तो मुझे भी बताना। इससे तरह थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड न केवल शोषक और शोषित के बीच संवाद कायम करता है बल्कि शोषित का सहयोग कौन कर सकते हैं, इसकी भी पहचान करता है।
थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड को अपने काम में इस्तेमाल करने के लिए इसके बारे में केवल पढ़ लेना काफी नहीं है, इसका अभ्यास भी उतना ही जरूरी है। सबसे पहले अगर कहीं थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड किया जा रहा है तो इसे जा कर देखें और फिर विचार करें कि आपकी संस्था में इसे कैसे प्रयोग किया जा सकता है। थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड को संचालित करने वाला एक प्रशिक्षित थियेटर कर्मी होता है जिसे ‘जोकर’ कहा जाता है। जोकर, किसी एक्टर और स्पेक्ट एक्टर (सक्रिय दर्शक) के बीच होने वाली बातचीत को संचालित करता है, उसका प्रयास होता है कि आपसी संवाद के जरिये एक अहिंसापूर्ण हल तलाशा जा सके। अगर ऐसा नहीं हो पा रहा है तो वह उसे वहीं पर रोक लेता है। हमारे देश में कुछ ऐसे प्रशिक्षित जोकर हैं जो इसकी ट्रेनिंग देते हैं, उन्हें भी आप अपनी संस्था में बुला सकते हैं। इसके लिए एक से पांच दिन तक के ट्रेनिंग मॉड्यूल से लेकर एक साल तक के कैंपेन भी डिजाइन किए जा सकते हैं, जिन्हें आप अपने काम की जरूरत के अनुसार तय कर सकते हैं। वर्तमान में दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा, बिहार, कर्नाटक, केरल, और तमिलनाडु आदि राज्यों में ये जोकर सक्रिय हैं जो थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड का प्रयोग कर रहे हैं, इसे सीखने के लिए उनसे संपर्क किया जा सकता है।
ज़ुबैर इदरीसी एक सक्रिय थिएटर प्रेक्टिशनर हैं और थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड के प्रशिक्षक भी हैं। ज़ुबैर के काम के बारे में और जानने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।
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