हाल ही में बेंगलुरु में कचरा बीनने वाले श्रमिकों पर एक सर्वेक्षण किया गया। इससे पता चला कि जब उन्हें किसी भी सरकारी योजना तक पहुंचाने के लिए एक रुपया खर्च किया गया तो इससे उन्हें औसतन 9.83 रुपये का लाभ मिला। यह आंकड़े इस बात का ठोस प्रमाण हैं कि आर्थिक या सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए बनायी जाने वाली सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का वंचित समुदायों पर वास्तविक रूप से प्रभाव पड़ता है।
बेंगलुरु में कचरा बीनने वाले श्रमिकों के साथ काम करने वाली संस्था हसीरू डाला ने सामूहिक शक्ति नामक कलेक्टिव के साथ मिलकर इस सर्वेक्षण को अंजाम दिया। सामूहिक शक्ति 12 संगठनों का एक साझा प्रयास है, जो कचरा बीनने वाले श्रमिकों की चुनौतियों पर काम करता है। इस अध्ययन में निवेश पर सामाजिक प्रतिफल (सोशल रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट) मॉडल का उपयोग किया गया। यानी किसी कार्यक्रम या संस्था द्वारा उत्पन्न सामाजिक, स्वास्थ्य, पर्यावरणीय और आर्थिक प्रभावों को आंकड़ों के जरिए मापना। इस विश्लेषण के नतीजों से यह स्पष्ट हुआ कि सामाजिक सुरक्षा योजनाओं तक समान पहुंच कितनी जरूरी है।
विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि एक कचरा बीनने वाले श्रमिक को चार सदस्यों का परिवार चलाने के लिए हर महीने लगभग 40,000 रुपए की जरूरत होती है, जिसमें पढ़ाई, घर और अन्य जरूरी खर्च शामिल हैं। लेकिन हसीरू डाला के शोध के अनुसार, 60 प्रतिशत से अधिक कचरा बीनने वाले श्रमिक हर महीने 10,000 रुपए से भी कम कमाते हैं। उनमें से अधिकांश के पास न तो रोजगार की स्थिरता होती है, न ही वे किसी औपचारिक बैंकिंग प्रणाली से जुड़े होते हैं। अक्सर उन्हें नियमित कमाई के अभाव के चलते ऊंची ब्याज दरों पर उधार लेना पड़ता है, जिससे वे कर्ज के दुष्चक्र में फंस जाते हैं और फिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी गरीबी से बाहर नहीं आ पाते। साथ ही, उन्हें स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिल पातीं।

ऐसे में, सरकारी सामाजिक सुरक्षा योजनाएं इस आय के अंतर को पाटने में अहम भूमिका निभाती हैं। राशन, स्वास्थ्य कार्ड, दवाइयां, स्कूल स्कॉलरशिप, आवास, पेंशन और परिवहन जैसी मूलभूत जन-सुविधाएं कचरा बीनने वाले समुदाय के लिए बहुत जरूरी हैं। लेकिन अक्सर ये योजनाएं उन्हीं लोगों की पहुंच से बाहर होती हैं, जिनके लिए इन्हें बनाया गया होता है। कर्नाटक में केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों द्वारा वंचित समुदायों के लिए कुल 108 सामाजिक सुरक्षा योजनाएं उपलब्ध हैं, जिनमें से कचरा बीनने वाले श्रमिक 94 योजनाओं के लिए योग्य हैं। लेकिन इन योजनाओं का लाभ उठाने के लिए आवश्यक है कि उनके पास वैध ‘नो योर कस्टमर’ (केवाईसी) दस्तावेज हो, जो विभिन्न सरकारी कार्यालयों द्वारा जारी किए जाते हैं।
कचरा बीनने वाले समुदायों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाओं तक पहुंच पाना क्यों मुश्किल होता है?
सरकारी कागजात न होना: अधिकांश सरकारी योजनाओं के लिए आवेदन करते समय आधार कार्ड, पैन कार्ड, जन्म प्रमाण पत्र, आय प्रमाण पत्र और मतदाता पहचान पत्र जैसे दस्तावेजों की जरूरत होती है। अधिकांश अनुसूचित जातियों से आने वाले, कचरा बीनने वाले श्रमिकों को कई योजनाओं में पंजीकरण करने के लिए जाति प्रमाण पत्र दिखाना अनिवार्य होता है। वहीं, विधवाओं के लिए अपने पति की मृत्यु का प्रमाण पत्र जरूरी होता है ताकि वे विशेष लाभ प्राप्त कर सकें। कई लोगों के पास जन्म प्रमाण पत्र नहीं होता, जिससे उन्हें आधार कार्ड बनवाने में दिक्कत आती है। अधिकांश सरकारी योजनाओं की पात्रता के लिए आधार कार्ड होना आवश्यक है। वैसे भी, अब उम्र के प्रमाण पत्र को वैकल्पिक दस्तावेज के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है। स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति भरोसे की कमी और सामाजिक पूर्वाग्रहों के चलते घर पर प्रसव की घटनाएं आम हैं, विशेष रूप से प्रवासी समुदायों में। कर्नाटक में थायी कार्ड जैसी योजनाएं गर्भवती महिलाओं को पोषण और टीकाकरण जैसी सुविधाएं प्रदान करती हैं, फिर भी प्रवासी परिवार अक्सर इन लाभों से वंचित रह जाते हैं।
शिक्षा और साक्षरता की कमी: जिन लोगों को पढ़ना-लिखना नहीं आता, उनके लिए दस्तावेजों में जानकारी की जांच कर पाना मुश्किल होता है। जब कचरा बीनने वाले श्रमिकों को अपने पहचान पत्र मिलते भी हैं, तो भी वे उनमें गलत नाम या वर्तनी की त्रुटियां पकड़ नहीं पाते। उदाहरण के लिए, मतदाता पहचान पत्र और आधार कार्ड में नामों का मेल न खाना एक आम समस्या है।
डिजिटल अंतर: सरकारी प्रक्रियाओं के डिजिटलीकरण ने एक नई कठिनाई पैदा की है। बहुत से कचरा बीनने वाले श्रमिकों के पास मोबाइल फोन नहीं होते, जिनसे ओटीपी (वन टाइम पासवर्ड) प्राप्त किया जा सके। कई बार बहुत से लोग एक ही मोबाइल नंबर इस्तेमाल कर रहे होते हैं। इससे साइबर कैफे जैसी जगहों पर निर्भरता बढ़ती है, जहां अक्सर उनका शोषण हो सकता है। साहूकारों की धमकियों या आर्थिक अस्थिरता के चलते बार-बार मोबाइल नंबर बदलने से यह पूरी स्थिति और पेचीदा बन जाती है।
प्रशासनिक अड़चनें: आवश्यक प्रमाण पत्र प्राप्त करने की प्रक्रिया भी एक बड़ी बाधा है। रोज कमाने-खाने वाले श्रमिकों के लिए बार-बार काम के घंटों में सरकारी दफ्तरों की लंबी कतारों में खड़ा होना संभव नहीं होता। उन्हें कई बार विभागीय ढिलाई और देरी का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, कर्नाटक में कोई व्यक्ति आय प्रमाण पत्र के लिए ऑनलाइन आवेदन कर सकता है, लेकिन उसे प्राप्त करने के लिए राजस्व विभाग में ख़ुद जाना पड़ता है। आधार कार्ड केंद्र सरकार देती है, जबकि जाति प्रमाण पत्र राज्य के राजस्व विभाग द्वारा जारी किया जाता है। कचरा बीनने वाले कई श्रमिक वंचित समुदायों से आते हैं, लेकिन फिर भी उनके लिए जाति प्रमाण पत्र हासिल करना कठिन होता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इसके लिए स्कूल छोड़ने का प्रमाण पत्र (टीसी) मांगा जाता है, भले ही वह व्यक्ति कभी स्कूल गया ही न हो।
विश्वास की कमी: जातीय और वर्गीय भेदभाव के लंबे अनुभव और ‘अस्वच्छ’ या ‘चोर’ जैसे नामों से बुलाये जाने की वजह से इस समुदाय में संस्थानों के प्रति गहरा अविश्वास है। वे अक्सर ऐसे धोखाधड़ी करने वाले दलालों के शिकार बन जाते हैं जो उनसे पैसे ऐंठकर जाली दस्तावेज या अधूरी जानकारी देते हैं। इस अविश्वास को दूर करने के लिए, जरूरत है कि समुदाय-आधारित संगठन लगातार समर्थन और मार्गदर्शन दें, जो उनके संघर्षों को समझते हों। भरोसे की इस कमी को दूर करने के लिए ऐसे संगठनों की जरूरत है ,जो लगातार उनका मार्गदर्शन करें और समुदाय की परिस्थितियों को समझते हों।
जागरूकता की कमी: कचरा बीनने वाले श्रमिक अक्सर उन सरकारी योजनाओं से ही अनजान होते हैं, जो उनके लिए बनायी गयी होती हैं। यहां तक कि इन समुदायों के साथ काम करने वाले संगठन भी सरकार और प्रशासन द्वारा समय-समय पर की जाने वाली घोषणाओं और बदलावों की जानकारी पूरी तरह नहीं रख पाते हैं। योजनाओं से जुड़ी जानकारी जमीनी स्तर तक पहुंचाने की कोई मजबूत प्रणाली न होने के कारण बहुत से समुदाय अपने अधिकारों से वंचित रह जाते हैं।
सामाजिक सुरक्षा को समावेशी बनाने के लिए जरूरी है कि प्रक्रियाएं सरल हों, जानकारी पहुंचाने की प्रणाली बेहतर हो और समुदाय-केंद्रित दृष्टिकोण को अपनाया जाए।

सामाजिक सुरक्षा तक पहुंच के लाभ
हसीरू डाला ने मोबाइल तकनीक—जैसे ऐप्स और वेब प्लेटफॉर्म्स—का इस्तेमाल करते हुए कचरा बीनने वालों को सामाजिक सुरक्षा सेवाओं से जोड़ने का रास्ता आसान बनाया। इस पहल के तहत उन्हें पैन कार्ड, आधार कार्ड, बैंक खाता, मतदाता पहचान पत्र, राशन कार्ड, स्वास्थ्य आईडी और ई-श्रम कार्ड जैसी आवश्यक सुविधाएं प्राप्त करने में सहायता मिली। यह मोबाइल सोशल सिक्योरिटी (एमएसएस) पहल सामूहिक शक्ति के अंतर्गत शुरू की गई थी, जिसका उद्देश्य आजीविका से जुड़ी बुनियादी सरकारी योजनाओं तक समुदाय की पहुंच बढ़ाना था। इसके जरिए कचरा बीनने वाले श्रमिक 49 से अधिक सरकारी योजनाओं के लिए आवेदन कर पाए। बीते चार वर्षों में एमएसएस टीम ने बेंगलुरु और इसके ग्रामीण इलाकों के आठ जोन में काम करते हुए 2,500 से अधिक श्रमिकों के लिए 7,992 सफल आवेदन दर्ज किए हैं।
सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के माध्यम से कचरा बीनने वाले श्रमिकों को खाद्य राशन, वृद्धावस्था और विकलांगता पेंशन, रियायती या निशुल्क बिजली (गृह ज्योति योजना), स्वास्थ्य बीमा (प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना) और अन्य स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ मिल सकता है। उदाहरण के तौर पर, कर्नाटक सरकार की शक्ति योजना के तहत राज्य परिवहन बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्रा की सुविधा मिलती है, जिससे एक कचरा बीनने वाली महिला श्रमिक हर दिन 100 रुपए और महीने भर में 3,000 रुपए तक की बचत कर सकती है।
खाद्य सुरक्षा: राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के अंतर्गत जरूरी खाद्य सामग्री, जैसे चावल आदि की उपलब्धता सुनिश्चित की जाती है। कर्नाटक में आधे से अधिक कचरा बीनने वाले श्रमिकों के पास राशन कार्ड नहीं है। कोविड-19 लॉकडाउन के समय जिनके पास राशन कार्ड नहीं थे, उन्हें भारी संकट का सामना करना पड़ा था। कई समुदायों में कुपोषण की स्थिति इतनी गंभीर थी कि राज्य सरकार को आपातकालीन सहायता के लिए हस्तक्षेप करना पड़ा।
आवास: सर्वेक्षण के दौरान की गयी फोकस ग्रुप चर्चाओं में सामने आया कि सार्वजनिक आवास का समुदाय पर गहरा सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। झुग्गियों और तिरपाल की चादरों के अस्थायी घरों में रहने वाले लोग सुरक्षित भंडारण की सुविधा न होने और चोरी के डर से सीमित मात्रा में ही खाद्य सामग्री खरीद पाते हैं। बाढ़ के दौरान, कई लोग अपने सामान के खो जाने के डर से सुरक्षित आश्रय में नहीं जाना चाहते। सामान्य परिस्थितियों में भी, कचरा बीनने वाली महिला श्रमिकों को सड़कों पर उत्पीड़न का सामना करती हैं। स्थायी आवास न केवल इन समस्याओं को कम करता है, बल्कि एक स्थिर वातावरण भी तैयार करता है, जिसमें बच्चे नियमित स्कूल जा सकते हैं। सार्वजनिक आवास प्राप्त करने में पहचान पत्र और उचित दस्तावेजों की अहम भूमिका होती है।
स्वास्थ्य सेवा: सामाजिक सुरक्षा योजनाएं स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रमों और योजनाओं से स्वास्थ्य सेवाओं को उपलब्ध बनाती हैं। इससे माध्यमिक और तृतीयक स्तर की चिकित्सा सेवाएं सुलभ बनती हैं, जो कचरा बीनने वाले समुदायों के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। हालांकि, प्रवासी समुदायों के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) अक्सर सुलभ नहीं होते, जिसके कारण वे आसपास की दवा दुकानों पर ही निर्भर रहते हैं। कई कचरा बीनने वाले श्रमिक इन केंद्रों पर जाने से हिचकिचाते हैं क्योंकि उन्हें वहां पहले उपेक्षा या अवहेलना का अनुभव हुआ होता है।
आजीविका: कचरा बीनने वाले श्रमिक परंपरागत रूप से सड़कों, नालियों और घरों से सूखा कचरा इकट्ठा करते हैं। लेकिन अब कचरा प्रबंधन के निजीकरण के चलते यह काम केंद्रीकृत होकर घर-घर जाकर किया जाने लगा है। शहरी जीवन की गुणवत्ता सुधारने के लिए एक कुशल कचरा संग्रहण प्रणाली आवश्यक है। लेकिन यह भी जरूरी है कि यह प्रणाली समावेशी हो और स्थानीय निकायों द्वारा पंजीकृत कचरा बीनने वाले श्रमिकों को भी रोजी-रोटी के अवसर प्रदान करे।
सर्वेक्षण में यह सामने आया कि जिन कचरा बीनने वालों के पास पेशेवर पहचान पत्र थे, उन्हें एक पेशेवर के रूप में स्वीकार किया गया और उन्हें विकेन्द्रीकृत कचरा प्रबंधन प्रणाली में सूखा कचरा संग्रहण केंद्रों (ड्राई वेस्ट कलेक्शन सेंटर) के माध्यम से शामिल किया गया। भविष्य में इन्हें घर-घर कचरा संग्रहण और कचरा प्रसंस्करण की प्रक्रिया में भी शामिल किया जाना चाहिए।
डिजिटल भुगतान प्रणालियों जैसे यूपीआई, एटीएम और डायरेक्ट डिपॉजिट जैसी व्यवस्थाओं से कचरा बीनने वाले समुदायों के लिए उपलब्ध वित्तीय सुविधाओं में कुछ हद तक सकारात्मक बदलाव आया है। इन माध्यमों ने समुदाय के भीतर छोटे उद्यमियों को सशक्त किया है, जिससे वे अपनी आर्थिक योजनाओं और खर्चों को बेहतर तरीके से प्रबंधित कर पा रहे हैं।
सामाजिक सुरक्षा के प्रभाव को मापने के लिए किए गए सोशल रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट (एसआरओआई) विश्लेषण ने ठोस आंकड़ों से यह दिखाया कि इन योजनाओं का वास्तविक लाभ किन लोगों तक पहुंचता है। एक आम धारणा यह है कि सामाजिक सुरक्षा के लिए आवंटित लाभ अक्सर लक्षित व्यक्तियों तक नहीं पहुंच पाता है। फंडिंग करने वाले कई बार इस बात को लेकर संशय में रहते हैं कि क्या इस दिशा में पैसा खर्च करना सार्थक है। आमतौर पर हम सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को केवल राज्य द्वारा दी गई राशि के रूप में भी आंकते हैं। उदाहरण के लिए, बीमा की राशि बीमाधारकों और कंपनियों के लिए होती है या छात्रवृत्ति की राशि केवल छात्रों के लिए इस्तेमाल होती है। लेकिन एसआरओआई यह दर्शाता है कि इन योजनाओं तक पहुंच वास्तव में हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए एक सुरक्षा कवच के रूप में काम करती है, जिसके सामाजिक व आर्थिक प्रभाव व्यापक होते हैं।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
—
गोपनीयता बनाए रखने के लिए आपके ईमेल का पता सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *