June 3, 2025

समावेशी कॉन्फ्रेंस: एक ऐसा मंच, जहां हर आवाज सुनी जाए 

असल समावेश एक तटस्थ मंजिल नहीं, बल्कि एक रास्ता है जो हर पल खुलता रहता है। कभी-कभी अच्छे इरादों से किए गए प्रयास पूरी तरह से सफल नहीं होते, लेकिन इससे हमें नए अनुभव और विचार सीखने को मिलते हैं।
7 मिनट लंबा लेख

भारत में विकास सेक्टर से संबंधित अधिकतर कॉन्फ्रेंस लोगों के कुछ विशेष समूहों को ध्यान में रखकर तैयार की जाती हैं। अमूमन ये वो लोग होते हैं, जो नए माहौल में सहज होते हैं, जल्दी घुल-मिल पाते हैं, पारंपरिक तौर-तरीकों से अपनी बात रख सकते हैं और समाज की मुख्यधारा में पुरुष या महिला की पहचान रखते हैं।

ऐसे में जब किसी आयोजन में समावेशन की कोशिश की भी जाती है, तब भी आमतौर पर नियंत्रण और निर्णय लेने की शक्ति चंद सुविधा प्राप्त लोगों के पास ही सीमित रहती है। बाकी लोग केवल प्रतीकात्मक रूप से इससे जुड़े होते हैं। उदाहरण के लिए, जब किसी कॉन्फ्रेंस का आयोजन सिर्फ अंग्रेजी में किया जाता है, तो उसे समझ पाने का एकतरफा दायित्व गैर-अंग्रेजी भाषी लोगों पर आ जाता है। इसी तरह, अगर किसी आयोजन में समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों को शामिल भी किया जाता है, तो लेकिन उन्हें न तो कोई निर्णय शक्ति दी जाती है और न ही चर्चा में किसी तरह की अग्रणी भूमिका। ऐसे में उनकी मौजूदगी केवल दिखावे तक सीमित रह जाती है।

आमतौर पर ऐसे आयोजनों में सामाजिक बहिष्करण के और भी कई अन्य उदाहरण देखने को मिलते हैं। जैसे ऐसी जगह कार्यक्रम करना, जहां दिव्यांगजन के लिए पर्याप्त सुविधाएं न हों। या फिर किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए महंगी भागीदारी फीस, जिससे आर्थिक रूप से कमजोर समुदाय वहां तक पहुंच ही नहीं पाते। कई बार जब समाज में कम प्रतिनिधित्व वाले लोगों को बुलाया भी जाता है, तो उन्हें सिर्फ विविधता, यानी ‘डायवर्सिटी’ से जुड़े पैनलों तक ही सीमित रखा जाता है और मुख्य विषयों पर चर्चा का मौका नहीं दिया जाता।

जब हम ड्रीम ए ड्रीम के सालाना इवेंट ‘चेंज द स्क्रिप्ट (सीटीएस)’ की तैयारी कर रहे थे, तब हमने सोचा कि इस तरह की कॉन्फ्रेंस में लोग किन वजहों से खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं। मुख्य आयोजन से पहले हमने तैयारी के लिए एक कार्यशाला का आयोजन किया। इस कार्यशाला में थ्राइव कोलैबोरेटिव के सदस्य भी थे (जो बच्चों के लिए काम करते हैं)। इस कार्यशाला में हमने खुद के और टीम के पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों को जानने का प्रयास किया। हमारा मकसद था कि सीटीएस में सभी मेहमानों के लिए एक अच्छा और अपनत्व का माहौल बना सकें।

फेसबुक बैनर_आईडीआर हिन्दी

इस दौरान हमारा ध्यान कुछ कमियों की ओर गया, जिनके बारे में हमने पहले नहीं सोचा था। उदाहरण के लिए, कुछ प्रतिभागियों ने बताया कि जब आयोजनों में उनके जैसे बहुत कम लोगों को बुलाया जाता है, तो वे अकेले और अलग-थलग महसूस करते हैं, क्योंकि उनकी आवाज बाकी समूह में खो जाती है। इससे हमें यह समझने में मदद मिली कि सिर्फ दिखावे के लिए प्रतिभागियों को बुलाने (टोकनिज़्म) और असली समावेशन में क्या अंतर है।

जब हमने इस विषय पर और गहराई से सोचा, तो हमें समझ में आया कि जिन लोगों के पास विशेषाधिकार होता है, उनकी जरूरतें अपने आप पूरी हो जाती हैं, क्योंकि वे संपन्न समूह का हिस्सा होते हैं। इसलिए वे अक्सर पहुंच (एक्सेस) और समावेशन जैसे अहम मुद्दों से दूर रहते हैं या उन्हें अनदेखा कर देते हैं। जब हमें यह संशय होता है कि हम अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोगों के साथ काम करने में सक्षम नहीं हैं, तो हम अंततः उन लोगों को अनदेखा कर देते हैं, जिनकी पहचान बहुआयामी होती है।

अक्सर यह धारणा आम होती है कि कम बजट में समावेशी कार्यक्रम का आयोजन करना मुश्किल है। हमें जल्दी ही यह समझ में आया कि समावेशन के लिए आत्मचिंतन और विभिन्न समुदायों की जरूरतों को गहराई से समझने की प्रतिबद्धता ज्यादा जरूरी है।

कॉन्फ्रेंस और कार्यक्रमों में ऐसा माहौल बनाना चाहिए, जहां मौलिक कहानियों को मंच मिल सके। इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए समावेशन को सही या गलत के डर से नहीं, बल्कि सहानुभूति और सीखने की उत्सुकता के साथ अपनाना जरूरी था। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम मात्र विविध पहचानों के कुछ व्यक्तियों को एकत्रित कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो सकते हैं। बल्कि, इसका मतलब है कि हम ऐसा वातावरण बनाएं जहां हर कोई खुद को सम्मानित, स्वीकृत और सुरक्षित महसूस करे, ताकि वह खुलकर अपनी बात रख सके।

समूह में कुछ लोग_समावेशी कॉन्फ्रेंस
सच्चा समावेशन कोई तय मंज़िल नहीं, बल्कि एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। | चित्र साभार: ड्रीम ए ड्रीम

समावेश कैसा दिखता है?

सीटीएस आयोजन के दौरान हमने सीखा कि मानसिकता में होने वाले बदलाव से ही समावेश की शुरूआत होती है। यहां कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं, जो हमनें इस सफर में सीखी:

1. यह केवल विविधता की सूची नहीं है

समावेश का असली मतलब केवल प्रतिनिधित्व नहीं है। यह हमें बताता है कि हर व्यक्ति की अलग पहचान और अनुभव उसकी सोच और बात करने के तरीके को प्रभावित करते हैं। जब हम समावेशी वातावरण तैयार करते हैं, तो हमें यह स्वीकार करना होता है कि लोग केवल एक पहचान में नहीं बंधे होते। इसके उलट, उनकी पहचान कई अन्य पहलुओं से जुड़ी होती है, जैसे लिंग, जाति, संस्कृति या शारीरिक क्षमता। इस तरह की समझ से गहन जुड़ाव और असली भागीदारी को बढ़ावा मिलता है,, क्योंकि फिर हर व्यक्ति की समग्र पहचान को अहमियत मिलती है और उसकी आवाज सुनी जाती है।

सही मायनों में समावेश सुनिश्चित करने के लिए, सभी प्रतिभागियों की जरूरतों और सुविधाओं का ध्यान रखना जरूरी है। उदाहरण के लिए, सीटीएस में हमने कई तरह के पहुंच संबंधी उपाय किए थे।

समावेश सुनिश्चित करने के लिए यह जरूरी है कि सभी प्रतिभागियों के लिए पहुंच (एक्सेस) की सुविधा को ध्यान में रखा जाए। सीटीएस में हमनें इस बात का विशेष ध्यान रखा । उदाहरण के लिए, बधिर प्रतिभागियों के लिए भारतीय सांकेतिक भाषा (आईएसएल) के अनुवादक उपलब्ध कराए गए, ताकि वे भी आसानी से बातचीत कर सकें। इसके अलावा, कार्डजिला ऐप का इस्तेमाल किया गया, जिससे उनके लिए संवाद की प्रक्रिया सुलभ बन सकती है।

हमने बधिर प्रतिभागियों के लिए कुछ खास गतिविधियां भी तैयार की, जिन्हें वे आसानी से समझ सकें और बाकी सभी के साथ मिलकर उन गतिविधियों में भाग ले पाएं। दृष्टिहीनों को, ब्रेल बोर्ड गेम्स और स्पर्श से महसूस होने वाले पेंटिंग बोर्ड जैसी बहु-संवेदी कला सामग्री दी गई, ताकि उन्हें भी कला का अनुभव हो और और वे इस प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग ले सकें।

इसके अलावा, हमने प्रार्थना कक्ष, यूनिसेक्स शौचालय और अन्य सुविधाएं भी प्रदान की, जो हाशिए के प्रतिभागियों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए बनाई गई थी। इस तरह हमने यह सुनिश्चित किया कि हर पहचान और क्षमता का प्रतिभागी सुरक्षित महसूस करे और समावेशी माहौल में अपना योगदान दे सके।

2. ‘पहुंच’ बनाने से ज़्यादा जरूरी है ‘रुकावटें’ हटाना 

जब हम एक्सेस, यानी ‘पहुंच को सुविधाजनक बनाने की बात करते हैं, तो इसका मतलब होता है कि हम समावेश को एक अतिरिक्त काम मानते हैं, जिसे बाद में किया जाता है। यानी पहले से सब कुछ सामान्य तरीके से चल रहा होता है और फिर समावेश को जोड़ने के लिए अलग से उपाय किए जाते हैं।

लेकिन समावेश का असली मतलब यह नहीं है। असल में, समावेश एक भावी योजना नहीं, बल्कि एक सुनियोजित काम होना चाहिए। इसका मतलब है कि समावेश की जरूरत को शुरुआत से ही ध्यान में रखते हुए पूरे कार्यक्रम की योजना बनाई जाए।

हमारी सोच यह थी कि हम पहले से मौजूद रुकावटों को दूर करें, ताकि हर किसी के लिए प्रक्रिया में भाग लेना आसान हो जाए। उदाहरण के लिए, अगर हम कार्यक्रम की शुरुआत से ही सांकेतिक भाषा में अनुवाद या ब्रेल में सामग्री उपलब्ध कराते हैं, तो इससे बाहरी रुकावटें दूर हो सकती हैं। हमनें यह सुनिश्चित किया कि अलग-अलग क्षमताओं वाले प्रतिभागियों के लिए कार्यक्रम को पहले से ही समावेशी बनाया जाए। उदाहरण के लिए, परिचय के दौरान विजुअल वर्णन देना और सहायक तकनीकों का इस्तेमाल करना हमारे लिए मददगार साबित हुआ।

3. समावेश में कम निवेश से भी मिल सकते हैं बड़े परिणाम

हमारे अनुभव में, ज्यादातर समावेशी उपायों के लिए अतिरिक्त वित्तीय संसाधनों की नहीं, बल्कि सजगता और प्रतिबद्धता की जरूरत होती है। फोन-आधारित ऐप्स, जैसे कार्डजिला और भाषिणी का इस्तेमाल करना, जो कि मुफ्त में उपलब्ध हैं, अलग-अलग जरूरतों वाले लोगों के साथ संवाद करने में मदद कर सकता है। दृष्टिहीन व्यक्तियों से बात करते समय हमें खुद का वर्णन करना होता है, जिसमें किसी भी प्रकार की धनराशि की आवश्यकता नहीं होती है। सीटीएस में, सांकेतिक भाषा अनुवाद, स्पर्श कला सामग्री, और ब्रेल अनुवाद जैसे कई समावेशी साधनों में इवेंट के कुल बजट का 3 प्रतिशत से भी कम हिस्सा खर्च हुआ।

समूह में चर्चा करते लोग_समावेशी कॉन्फ्रेंस
समावेशन में हमें यह स्वीकार करना होता है कि लोग केवल एक पहचान में नहीं बंधे होते। | चित्र साभार: ड्रीम ए ड्रीम

हर अनुभव से समावेशन सीखते हैं

जब हम हाशिए पर रहने वाले लोगों के अनुभव और कहानियां सुनते हैं, तो हमारी समझ बढ़ती है और हम बहिष्कार और भेदभाव के बारे में गहराई से सोचने लगते हैं। इससे हमें अपनी ताकत और विशेषाधिकार पर भी विचार करने का मौका मिलता है। इसके अलावा, प्रतिभागियों की विभिन्न पहचानें हमें नया और अलग नजरिया देती हैं।

लेकिन असल समावेश एक तटस्थ मंजिल नहीं, बल्कि एक रास्ता है जो हर पल खुलता रहता है। कभी-कभी अच्छे इरादों से किए गए प्रयास पूरी तरह से सफल नहीं होते, लेकिन इससे हमें नए अनुभव और विचार सीखने को मिलते हैं। उदाहरण के लिए, सीटीएस में जब हमने प्रतिभागियों से नाम और प्रोनाउन्स (लैंगिक पहचान) टैग पर लिखवाए, तो हम उन लोगों की असुविधा नहीं समझ पाए जो सार्वजनिक रूप से अपने प्रोनाउन्स बताने में असहज थे। इससे हमें यह सीख मिली कि सभी प्रतिभागियों से एक जैसी भागीदारी की उम्मीद न करते हुए उन्हें अपनी पहचान साझा करने का समय और अवसर देना चाहिए।

कार्यक्रम के सत्रों को रोचक और सहभागी तरीके से डिजाइन किया गया था। लेकिन फिर हमें यह महसूस हुआ कि ढाई दिन का लंबा कार्यक्रम कुछ प्रतिभागियों के लिए बहुत कठिन था, खासकर जिन्हें एडीएचडी (अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर) था। इतने लंबे आयोजन में होने वाली नियमित बातचीत और मानसिक दबाव के चलते उन्हें आयोजन में पूरी सक्रियता से भाग लेने में चुनौती का सामना करना पड़ा। अगर हमारे पास आराम से बैठने के लिए जगह होती और गतिविधियों के बीच में लंबे अंतराल होते, तो शायद उनकी जरूरतें बेहतर तरीके से पूरी की जा सकती थी।

जब हम प्रतिभागियों के अनुभवों को सुन रहे थे, तो हमने देखा कि कुछ लोग, जिनके पास समाज में ज्यादा विशेषाधिकार हैं, असहज महसूस कर रहे थे। ऐसा इसलिए, क्योंकि इस तरह की बातचीत ने अनजाने में उन्हें दोषी या शर्मिंदा महसूस कराया था। इससे हमें यह समझ आया कि ऐसे विमर्श बहुत ध्यान से संचालित करने चाहिए, ताकि यह सिर्फ सामूहिक रूप से सीखने और जिम्मेदारी समझने पर केंद्रित हो, न कि व्यक्तिगत खामियों या गलतियों पर। हमें यह भी समझ में आया कि जिनके पास समाज में विशेषाधिकार है, वे हमेशा निर्णय लेने की स्थिति में नहीं होते।

समावेश सिर्फ एक बार का प्रयास नहीं है। यह एक निरंतर प्रक्रिया है, जिसमें सोचने, सीखने और स्वयं को सुधारने की जरूरत होती है। इसका मतलब है कि हमें पुराने विचारों को चुनौती देनी होगी, असहज होने के दौरान भी सही काम करना होगा और उन लोगों से प्रतिक्रिया लेनी होगी, जिनका अनुभव हमसे अलग होता है। समावेशी कॉन्फ्रेंस का भविष्य किसी एक सही तरीके को अपनाने में नहीं है, बल्कि ऐसा माहौल बनाने में है, जहां हर व्यक्ति के योगदान को महत्वपूर्ण माना जाए। इससे हम प्रतीकात्मक रूप से विविध दिखने से ज्यादा समान रूप से सभी की भागीदारी सुनिश्चित कर पाएंगे।

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लेखक के बारे में
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सबा अहमद

सबा ड्रीम ए ड्रीम में कंसल्टेंट के रूप में काम कर रही हैं। सामाजिक क्षेत्र में काम करते हुए उन्हें दो दशक हो चुके हैं। इस दौरान उन्होंने मानवाधिकार, बाल संरक्षण, शिक्षा और स्वयंसेवक प्रबंधन जैसे विषयों पर अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर कई प्रतिष्ठित संगठनों के साथ मिलकर काम किया है।

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तानिया

तानिया ड्रीम ए ड्रीम में सामाजिक पहचान, शिक्षा और मानसिक स्वास्थ्य के बीच के जुड़ाव पर काम करती हैं। वह ट्रॉमा-संवेदनशील मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ और क्रिएटिव आर्ट्स फैसिलिटेटर हैं, जिनके पास युवाओं और वयस्कों के साथ काम करने का आठ वर्षों का अनुभव है। तानिया ऐसे माहौल बनाने के लिए काम कर रही हैं, जहां हर उम्र के लोग सम्मान, रचनात्मकता और देखभाल के साथ अच्छी तरह से जी सकें। वह टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ और लेडी श्रीराम कॉलेज की पूर्व छात्रा भी हैं।

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