एक शौक ने जीवन के तनाव से निपटने में मेरी मदद कैसे की

 मैं मूलरूप से हरियाणा के सोनीपत जिले का रहने वाला हूं। मैं पिछले कई वर्षों से एक निजी कंपनी में नौकरी करता हूं। मैं कंपनी के सेल्स विभाग के कामों को देखता हूं इसलिए आमतौर पर मेरा दिन हमेशा ही बहुत व्यस्त रहता है। नौकरी करते हुए, पिछले कई सालों से मेरे दैनिक जीवन में तनाव लगातार बढ़ता जा रहा था। इसका कारण शायद यह था कि जो काम मैं कर रहा था, वह मेरे व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं था। लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते केवल इसे ही करता चला जा रहा था। उम्र बढ़ने के साथ मेरे पास उतने विकल्प भी नहीं रह गए थे।

ज्यादातर लोगों की तरह, कोविड-19 के दौरान मैंने अपने जीवन को लेकर सोचना शुरू किया। मैंने खुद को टटोला कि आखिर मेरे अंदर ऐसा कौन सा स्किल है जिससे मैं अपने तनाव को कम कर सकता हूं। मुझे लगा कि अगर अब मैं अपनी रुचि से जुड़ी चीजों के लिए समय नहीं दूंगा तो मेरे लिए लंबे समय तक इतने तनाव के साथ काम करना मुश्किल होगा। यही सब सोचते और ऑनलाइन रिसर्च करते हुए मैंने निर्णय लिया कि मैं उन लकड़ियों का कुछ बेहतर इस्तेमाल करूंगा जिन्हें लोग अक्सर बेकार समझकर फेंक देते हैं।

मैंने धीरे-धीरे बेकार पड़ी लकड़ियों से कुछ चीजें बनाना शुरू किया। शुरूआत एक दीवार घड़ी बनाने से हुई। मैं जब भी कस्टमर विजिट पर जाता तो समय मिलते ही वहां आसपास की आरा मशीन पर जाकर देख-ताक करने लगता। मैंने वहां देखा कि आरा मशीन पर लकड़ियों की कटाई के बाद बेकार लकड़ियों को जलाने के लिए फेंक दिया जाता था। मैं वहां से कुछ लकड़ियां मांगकर घर ले आता जिन्हें साफ सुथरा कर मेरी पत्नी और बेटी उन्हें पेंट कर सजाती संवारती थीं। 

मैं आज अपने ऑफिस के काम के साथ-साथ जहां भी जाता हूं, वहां के लोकल आरा मशीनों या किसी ढाबा वगैरह से बेकार लकड़ियों को घर लाकर दीवार घड़ी, पेन स्टैन्ड, घर की नेम प्लेट्स, हैंगिंग लाइटस जैसी कई सारी घरेलू चीजें बनाने लगा हूं।

आमतौर पर मैं रविवार के दिन उन लकड़ियों की कटाई, सफाई और वार्निश से जुड़ा काम करता हूं। इन्हें तैयार करने के लिए मैं कुछ मशीनों का इस्तेमाल करता हूं जो आसानी से ऑनलाइन उपलब्ध हो जाती हैं। मैं बता नहीं सकता कि यह सब करके मुझे कितनी खुशी मिलती है। इस पूरे अनुभव से मुझे यह एहसास हुआ है कि भले ही थोड़े समय के लिए सही, लेकिन हमें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में उन चीजों को जरूर शामिल करना चाहिए जो हमें वास्तव में प्रेरित करती रहें।

निखिल अरोड़ा एक निजी कंपनी में काम करते हैं।

आईडीआर पर इस जमीनी कहानी को आप हमारी टीम के साथी सिद्धार्थ भट्ट से सुन रहे थे।

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मध्य प्रदेश में आदिवासी फसल को लैंटाना जैसे आक्रामक पौधे से कैसे बचा रहे हैं?

लैंटाना पीसते श्रमिक_लैंटाना
दुख की बात है कि महुआ, चिरौंजी और अन्य जड़ी-बूटियां, लैंटाना जैसी आक्रामक प्रजातियों के कारण विनाश की कगार पर हैं। | चित्र साभार: सनव्वर शफी

मध्य प्रदेश के सतना जिले में लैंटाना (वैज्ञानिक नाम – लैंटाना कैमरा) नाम के एक आक्रामक पौधे का प्रसार हो रहा है। इससे इलाके के आदिवासी समुदायों को पारंपरिक खाद्य पदार्थों की कमी हो रही है और लोगों को रोजगार के लिए पलायन करना पड़ रहा है। इतना ही नहीं, नई पीढ़ी अपने कई परंपरागत वन उत्पादों के ज्ञान को खो रही है क्योंकि लैंटाना के फैलने से कई स्थानीय प्रजातियां और जड़ी-बूटियां उग नहीं पा रही हैं। लैंटाने पौधा, पानी और पोषक तत्वों को अन्य वनस्पतियों के मुकाबले जल्दी अवशोषित करता है जो मिट्टी की उर्वरकता को भी प्रभावित करता है। इस पौधे के पत्तों में पाए जाने वाले विषैले तत्वों के कारण चरने वाले जानवरों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है।

मझगवां ब्लॉक के चितहरा गांव के मवासी आदिवासी, रामेश्वर मवासी ने लैंटाना के आक्रामक फैलाव के कारण स्थानीय जंगल को धीरे-धीरे, अपने सामने ही खत्म होते देखा है। रामेश्वर बताते हैं, “मुझे अभी भी याद है कि हमने मझगवां जंगल से चिरौंजी इकट्ठा की थी ताकि हमारा परिवार मेरी बहन की शादी की दावत का खर्च उठा सके। मेरी मां, दो भाई और मैंने जंगल में चार दिन बिताए और 80 किलो चिरौंजी इकट्ठा की और उसे बाजार में जाकर बेचा। लेकिन आज स्थिति बदल गई है। आप जंगल में कितने भी दिन बिता लो, आपको कुछ नहीं मिलेगा। दुख की बात है कि महुआ, चिरौंजी और अन्य जड़ी-बूटियां, लैंटाना जैसी आक्रामक प्रजातियों के कारण विनाश की कगार पर हैं।”

यहां वन विभाग साल में दो बार लैंटाना को साफ करने का प्रयास करता है। साल 2021 में वन विभाग ने लैंटाना को काटकर सतना जिले के एक सीमेंट प्लांट को भेजना शुरू किए ताकि कोयले की जगह इसे एक ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सके।

यहां ग्राम वन समिति (विलेज फॉरेस्ट कमेटी – वीएफसी) का भी गठन किया गया जिसमें गांव के सभी निवासी सदस्य हैं। इन सदस्यों को वन क्षेत्र से लैंटाना झाड़ियों को उखाड़ने का काम सौंपा गया था। इस काम के लिए वीएफसी सदस्यों को कटी हुई लैंटाना झाड़ियों के लिए प्रति मीट्रिक टन 1,200 रुपये दिए जाते हैं। पहले तीन महीनों में, 29.87 मीट्रिक टन लैंटाना निकाला गया जिसके लिए गांव के लोगों को करीब 35 हजार 844 रुपये मिले। अब इस परियोजना को उन जिलों में भी लाया जा रहा है जहां लैंटाना पौधों का आक्रमण है।

जिले के एक अन्य निवासी कुशराम मवासी का कहना है कि “लैंटाना को हटाने के बाद पलाश, जामुन, रेला, धावा और करोंदा जैसे स्थानीय पेड़ उगने लगे हैं। अब जंगल में जानवरों के लिए चारा भी मिल जाता है। साथ ही जंगली सूअर, हिरण और चीतल फसल को अब पहले जितना, नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं।”

सनव्वर शफ़ी भोपाल, मध्य प्रदेश में बतौर स्वतंत्र पत्रकार काम करते हैं।

यह एक लेख का संपादित अंश है जो मूलरूप से 101 रिपोर्टर्स पर प्रकाशित हुआ था।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें

अधिक जानें: जानिए मध्य प्रदेश में आदिवासियों को उनके वन अधिकार क्यों नहीं मिल पा रहे हैं?

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फील्ड में एक बार (भाग-2): जब लड़कियां लाइब्रेरी जाने लगीं

1. लड़कियां छुप-छुपकर कहीं जा रही थीं…

बेटियों की शिक्षा_महिला शिक्षा

2. पर, किसी को बता नहीं रही थीं…

बेटियों की शिक्षा_महिला शिक्षा

3. और, जहां वो पहुंचीं वो मंजिल बड़ी अनोखी थी…

बेटियों की शिक्षा_महिला शिक्षा
चित्र साभार: सुगम ठाकुर

हल्का-फुल्का का यह अंक सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन के संस्थापक साक़िब अहमद के अनुभव पर आधारित है।

फॉस्टर केयर प्रणाली को मजबूत करने के देश में क्या कदम उठाए जाने की जरूरत है

भारत की बाल संरक्षण (फॉस्टर केयर) प्रणाली में एक समस्या है। यह प्रणाली किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और सुरक्षा) अधिनियम, 2015, या जुवेनाइल जस्टिस (जेजे) अधिनियम, 2015 के तहत संचालित होती है। फॉस्टर केयर प्रणाली उन बच्चों की देखभाल, सुरक्षा और पुनर्वास की जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाई गई है, जो अनाथ हैं या जो दुर्व्यवहार, परित्याग, उपेक्षा या किसी दूसरे संकट का सामना कर रहे हैं। वर्तमान में, यह प्रणाली बहुत हद तक संस्थागत देखभाल पर निर्भर करती है, यानी बाल देखभाल संस्थानों (चाइल्ड केयर इंस्टीट्यूशन – सीसीआई) पर। लेकिन, ये संस्थान ‘अंतिम विकल्प’ होने चाहिए।

हाल के सालों में, परिवार आधारित देखभाल पर बढ़ता ध्यान उन परिवारों की सहायता के लिए ज्यादा प्रयास कर रहा है, जो वित्तीय संकट का सामना कर रहे हैं या जिनके लिए बच्चों की देखभाल एक वित्तीय बोझ बन गई है। सरकार से आर्थिक सहायता प्राप्त प्रायोजित कार्यक्रमों के जरिए इन्हें सहायता प्रदान की जा रही है। इन पहलों का उद्देश्य परिवारों को अपने बच्चों की देखभाल घर पर करने में मदद करना है, ताकि आर्थिक कठिनाइयों के कारण उन्हें संस्थान में भेजने की आवश्यकता न पड़े।

हालांकि, कई बच्चों के लिए परिवार के साथ रहना कोई विकल्प ही नहीं है क्योंकि परिवार उन्हें पालने की इच्छा नहीं रखते या परिवार को ‘अयोग्य’ माना जाता है। जब ये बच्चे एक बाल देखभाल संस्थान (सीसीआई) में जाते हैं तो उनमें से कई लंबे समय तक संस्थागत देखभाल में रहते हैं और परिवार के माहौल में बड़े होने का अधिकार खो देते हैं। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात पर चिंता व्यक्त की है। ‘अनाथ, परित्यक्त और समर्पित’ (ऑर्फन्ड अबन्डन्ड सरेंडर्स – ओएएस) श्रेणी में आने वाले छह साल से बड़े बच्चे भी इसी स्थिति का सामना करते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, इनके गोद लिए जाने की संभावना भी काफी कम होती जाती है क्योंकि लगभग 80 प्रतिशत गोद लेने वाले माता-पिता दो साल से छोटे बच्चों को ही प्राथमिकता देते हैं। महिला और बाल विकास मंत्रालय की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, देश में 3 लाख 70 हजार बच्चों में से 50,000 से ज्यादा ओएएस श्रेणी के बच्चे 7 से 18 साल की आयु वर्ग में हैं। ऐसे बच्चों के लिए, जेजे अधिनियम, 2015 के तहत फॉस्टर केयर, यानी परिवार आधारित देखभाल, एक संभावित विकल्प बन सकता है।

क्या है फॉस्टर केयर?

फॉस्टर केयर एक ऐसा सिस्टम है जो उन बच्चों को देखभाल और सुरक्षा प्रदान करता है जिन्हें अपने जैविक माता-पिता के साथ रहने का मौका नहीं मिल रहा है और जो छह साल से बड़े हैं। यह बच्चों को परिवार के माहौल में बड़े होने का मौका देता है। यह खास तौर पर उन बच्चों के लिए उपयुक्त है जिन्हें अपने परिवारों से अस्थायी रूप से दूर रहने की जरूरत है और जो बाल देखभाल संस्थानों में इसलिए जाते हैं क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं होता। ये बच्चे आमतौर पर उन परिवारों से आते हैं जो अस्थायी संकट का सामना कर रहे होते हैं, जैसे माता-पिता की मृत्यु या अलगाव, वित्तीय कठिनाई, माता-पिता का जेल जाना, गंभीर बीमारी, या काम की तलाश में प्रवास करने की जरूरत। ऐसे कारण बच्चों के माता-पिता की देखभाल और पालन-पोषण की क्षमता को प्रभावित करते हैं।

फॉस्टर केयर को भारत की बाल न्याय प्रणाली में पहली बार -किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और सुरक्षा) अधिनियम 2000, यानी जेजे अधिनियम 2000 के जरिए शामिल किया गया था। साल 2015 में जेजे अधिनियम के फिर से लागू होने के साथ इसमें महत्वपूर्ण बदलाव किए गए। फॉस्टर केयर के लिए संचालन और प्रशासनिक प्रक्रियाएं केंद्रीय सरकार की ओर से 2016 में जारी किए गए मॉडल गाइडलाइन्स में स्पष्ट की गई थीं, जिन्हें 2024 में फिर से संशोधित किया गया। फॉस्टर केयर को लागू करने का काम जिला स्तर पर बाल कल्याण अधिकारी करते हैं, जिसमें जिला बाल संरक्षण इकाई (डिस्ट्रिक्ट चाइल्ड प्रोटेक्शन यूनिट – डीसीपीयू) और बाल कल्याण समिति (चाइल्ड वेलफेयर कमेटी – सीडब्लूसी) शामिल होती है।

फॉस्टर केयर और गोद लेने में अंतर है। फॉस्टर केयर एक अस्थायी व्यवस्था है जिसमें एक बच्चे को उसकी आवश्यकता के हिसाब से कुछ समय के लिए रखा जाता है, जो बच्चे की परिस्थितियों के आधार पर कुछ महीनों से लेकर कई सालों तक हो सकता है। फॉस्टर केयर में बच्चे और उसके जैविक परिवार के बीच का कानूनी संबंध बना रहता है और बच्चा फॉस्टर परिवार से विरासत का अधिकार नहीं प्राप्त करता है।

इसके विपरीत, गोद लेना एक स्थायी प्रक्रिया है जिसमें बच्चे को गोद लेने वाले माता-पिता के साथ स्थायी रूप से रखा जाता है। गोद लेने से बच्चे और उसके जैविक परिवार के बीच का कानूनी संबंध समाप्त हो जाता है और गोद लेने वाले माता-पिता के साथ एक नया कानूनी संबंध स्थापित हो जाता है। इस प्रक्रिया में बच्चा गोद लेने वाले परिवार के खुद के बच्चे के समान अधिकार और विशेषाधिकार प्राप्त करता है, जिसमें विरासत का अधिकार भी शामिल होता है।

फोस्टर केयर सोसायटी की तस्वीर_फॉस्टर केयर
फॉस्टर केयर एक अस्थायी व्यवस्था है जिसमें एक बच्चे को उसकी आवश्यकता के हिसाब से कुछ समय के लिए रखा जाता है। | चित्र साभार: फोस्टर केयर सोसायटी, उदयपुर

फॉस्टर केयर के लिए आदर्श दिशानिर्देश 2024

फॉस्टर केयर के आदर्श दिशानिर्देश 2024 ने साल 2016 के दिशानिर्देशों के कई प्रावधानों में संशोधन किया है और कुछ नए उपाय भी पेश किए हैं ताकि फॉस्टर केयर को संभावित फॉस्टर माता-पिता के लिए ज्यादा सुलभ और आकर्षक बनाया जा सके, साथ ही बच्चों के अधिकारों को भी बनाए रखा जा सके।

यह लेख साल 2024 के दिशानिर्देशों के मुख्य पहलुओं की जांच करता है और भारत में फॉस्टर केयर प्रणालियों और प्रथाओं को मजबूत करने के लिए सिफारिशें प्रदान करता है।

आदर्श दिशानिर्देश 2024 के अनुसार, देखभाल और संरक्षण की जरूरत वाले सभी बच्चे, जो छह साल से ज्यादा उम्र के हैं, जैसा कि किशोर न्याय अधिनियम 2015 में परिभाषित किया गया है, फॉस्टर केयर के लिए पात्र हैं। इसके अलावा, यह दिशानिर्देश दो नई परिभाषाएं पेश करता है—‘परिवार के संपर्क में ना रहने वाले बच्चे’ और ‘अयोग्य अभिभावक वाले बच्चे’— जो उन बच्चों के सामान्य परिणामों को उजागर करने के लिए हैं जो लंबे समय तक संस्थागत देखभाल में रहते हैं।

‘परिवार के संपर्क में ना रहने वाले बच्चे, ’वे बच्चे हैं जिनसे उनके माता-पिता या रिश्तेदारों ने एक साल से ज्यादा समय से मुलाकात नहीं की है। वहीं, ‘अयोग्य अभिभावक वाले बच्चे,’ वे बच्चे हैं जिनके माता-पिता या अभिभावक देखभाल करने में सक्षम या इच्छुक नहीं हैं, या जो परिभाषा में बताए गए मानदंडों के आधार पर पालन-पोषण के लिए अयोग्य माने गए हैं।

अन्य प्रमुख परिवर्तन:

फॉस्टर केयर को गति पकड़ने में संघर्ष क्यों करना पड़ा है?

हालांकि पूरे देश में फॉस्टर केयर के सफल मामले दर्ज किए गए हैं, लेकिन साल 2000 से किशोर न्याय कानून का हिस्सा होने के बावजूद यह प्रथा ज्यादा लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाई है। इसके पीछे कई कारण हैं, जिनमें से एक प्रमुख कारण सार्वजनिक जागरूकता की कमी है, जिसके परिणामस्वरूप बहुत कम लोग फॉस्टर माता-पिता के रूप में पंजीकरण कराने में रुचि दिखाते हैं। इसके अलावा, और भी चुनौतियां शामिल हैं:

आवेदन प्रक्रिया लंबी और जटिल होती है, और इसे पार करने के लिए पर्याप्त मदद नहीं मिलती है।

फॉस्टर केयर के परिणामों में सुधार

साल 2024 के दिशा-निर्देश सही दिशा में एक कदम हैं, लेकिन निम्नलिखित अनुशंसाओं के लिए जगह बनाकर फॉस्टर केयर में और भी बेहतर परिणाम हासिल हो सकते हैं:

1. फॉस्टर केयर के लिए बच्चे की उपयुक्तता का आंकलन

फॉस्टर केयर के लिए बच्चों की पहचान करते समय केवल पात्रता मानदंडों पर ध्यान देना काफी नहीं है, क्योंकि सभी पात्र बच्चे (यानी, छह साल से ऊपर के बच्चे जो देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता में हैं) इस व्यवस्था के लिए उपयुक्त नहीं हो सकते। बच्चे की उम्र, उन्हें सीसीआई में रखने के कारण, बच्चे की इच्छाशक्ति, और फॉस्टर केयर में रखने के लिए परिवार की सहमति जैसे कारकों पर ध्यान देना जरूरी है। फॉस्टर केयर के लिए बच्चे की उपयुक्तता निर्धारित करने में प्रशिक्षित पेशेवर की ओर से एक विस्तृत मूल्यांकन बेहद अहम है।

2. फॉस्टर माता-पिता का मूल्यांकन

संभावित फॉस्टर माता-पिता के चयन के दौरान, यह देखा गया है कि ध्यान अक्सर माता-पिता बच्चे को पाने की इच्छा की ओर बढ़ जाते हैं। इसमें ऐसे मामलों को शामिल किया जा सकता है जहां एक दंपति फॉस्टर करना चाहता है क्योंकि वे जैविक बच्चे नहीं पैदा कर पा रहे हैं, और गोद लेने की प्रक्रिया लंबी और समय लेने वाली होती है। या उनके अपने बच्चे बड़े हो चुके हैं और घर छोड़ चुके हैं, जिससे उनके पास किसी अन्य बच्चे की देखभाल करने के लिए समय और संसाधन हैं। ये धारणाएं मान्य हैं बशर्ते बच्चे की जरूरतों को प्राथमिकता दी जाए। मूल्यांकन को इस बात पर केंद्रित करना चाहिए कि क्या संभावित माता-पिता उस भावनात्मक समर्थन को देने में सक्षम हैं जिसकी जरूरत एक बच्चे को होती है, जिसने शायद आघात और उपेक्षा का अनुभव किया हो। इसके अलावा, परिवार के सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर भी विचार किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह बच्चे की पृष्ठभूमि के साथ मेल खाता है, या माता-पिता बच्चों की जरूरत के हिसाब से बदलाव करने के लिए तैयार और सक्षम हैं, जिससे बच्चे के लिए किसी भी संभावित बदलाव के मसले को हल किया जा सके।

3. तैयारी और अपेक्षा स्थापित करना

संभावित फॉस्टर माता-पिता के उचित प्रशिक्षण को सफल फॉस्टर केयर के लिए सबसे प्राथमिक अपेक्षाओं में से एक माना जा सकता है। दुर्भाग्यवश, साल 2024 के आदर्श दिशानिर्देश माता-पिता के लिए विशेष पूर्व-फॉस्टर केयर प्रशिक्षण को अनिवार्य नहीं करते हैं। यह जरूरी है कि संभावित फॉस्टर माता-पिता को फॉस्टर केयर व्यवस्था के बारे में साफ और सही जानकारी दी जाए, उन्हें समझाया जाए कि उनसे क्या अपेक्षा की जा रही है, और यह भी प्रशिक्षण दिया जाए कि जब बच्चे को उनकी देखभाल में रखा जाए तो वे आने वाली परिस्थितियों को कैसे संभालें? इसमें यह जानना और मानना शामिल है कि फॉस्टर केयर एक अस्थायी व्यवस्था है, जिसे समाप्त किया जा सकता है यदि जैविक माता-पिता या परिवार (यदि मौजूद हैं) सीडब्ल्यूसी की अनुमति से अपने बच्चे को वापिस पाना चाहते हैं। फॉस्टर माता-पिता को इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए कि वे बच्चे और उनके जैविक माता-पिता या रिश्तेदारों के बीच संपर्क को आसान बनाएं। साथ ही, समझें कि बच्चे का व्यवहार और आदतें उनकी अपेक्षाओं से अलग हो सकती हैं क्योंकि यह बच्चे के पिछले अनुभवों से प्रभावित हो सकती हैं।

बच्चों के लिए तैयारी उतनी ही महत्वपूर्ण है। एक बार पहचान लेने के बाद, बच्चों—विशेष रूप से उन बच्चों के लिए जिन्होंने संस्थागत देखभाल में काफी समय बिताया है और जो इसकी दिनचर्याओं के आदी हो चुके हैं—को परामर्श और पारिवारिक जीवन के मानदंडों से परिचित कराने की जरूरत है। फॉस्टर माता-पिता के साथ बच्चे का परिचय कराने से पहले उनकी पहचान कराना भी बहुत अहम है।

फॉस्टर परिवार में पहुंचने के बाद बच्चों की मदद

आदर्श दिशानिर्देश 2024 में सीडब्ल्यूसी को बच्चों की भलाई की निगरानी के लिए फॉस्टर परिवारों का मासिक निरीक्षण करने की जरूरत है। चूंकि परिवारों को आने वाली किसी भी चुनौती को प्रभावी ढंग से हल करने के लिए ज्यादा आर्थिक मदद की जरूरत हो सकती है। यह मदद रोज़मर्रा के कामों में उपयोग होती है। जैसे कि बच्चे को स्कूल में नामांकित करना, खासतौर से यदि बच्चे के पास जरूरी दस्तावेज नहीं हैं, या स्वास्थ देखभाल, बीमा, स्कूल शिक्षा, और यात्रा के लिए उन्हें फॉस्टर माता-पिता के रूप में पहचानने वाले दस्तावेज़ दिलवाना। इसके अलावा, यदि बच्चे में व्यवहार संबंधी दिक्कतें होती हैं, तो परिवारों को परामर्श या मनो-सामाजिक मदद की जरूरत हो सकती है। डीसीपीयू के लिए यह जरूरी है कि वह बच्चे के फॉस्टर परिवार को सभी जरूरी मदद देना सुनिश्चित करे।

परिवार को सशक्त बनाना

फॉस्टर केयर का मुख्य उद्देश्य उन बच्चों को अस्थायी देखभाल प्रदान करना है जिनका परिवार संकट में है, और इसका अंतिम लक्ष्य जैविक परिवार के साथ बच्चे को फिर से मिलवाना है। इसलिए, यह अहम है कि बाल कल्याण अधिकारी फॉस्टर केयर के दौरान जैविक परिवार के साथ मिलकर काम करें ताकि उनकी क्षमता को विकसित किया जा सके और उन चुनौतियों का सामना किया जा सके जो बच्चे के अलग होने का कारण बनीं। हालांकि, आदर्श दिशानिर्देश 2024 में परिवार को सशक्त बनाने के लिए आवश्यक प्रयासों का जिक्र नहीं किया गया है।

जब हम भारत में फॉस्टर केयर को मजबूत करने के लिए काम कर रहे हैं तो हमें उन देशों के अनुभवों से सीखना चाहिए जहां यह प्रणाली कभी-कभी बच्चों की सुरक्षा करने में विफल रही है।

परिवार को सशक्त बनाना एक प्राथमिकता होनी चाहिए ताकि बच्चे के जैविक परिवार से संबंध बनाए रखे जा सकें और माता-पिता के लिए एक बार फिर अपने बच्चे के साथ होने की कोशिश की जा सके। नियमित फॉलो-अप की जरूरत है ताकि जो आर्थिक मदद दी जा रही है उसकी निगरानी की जा सके, परिवार की परिस्थितियों में बदलाव को दर्ज किया जा सके, और समय पर फिर से एक होने की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए जरूरी किसी भी अतिरिक्त सहायता को समझा जा सके। यह मानना चाहिए कि माता-पिता की अपने बच्चे की देखभाल करने में असमर्थता या अनिच्छा, जो अलगाव का कारण बन सकती है, उनके हालात के सुधार के साथ बदल सकती है। परिवार को सशक्त बनाने के उपायों को डीसीपीयू की ओर से सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के साथ परिवार को जोड़कर लागू किया जाना चाहिए लेकिन वास्तव में, ये प्रयास गैर-लाभकारी संगठनों की ओर से किए जाते हैं।

फॉस्टर केयर एक ऐसे सिद्धांत की तरह लगता है जो पश्चिम से आया है, लेकिन इसका भारतीय समाज में गहरा आधार है। भारत में अक्सर इसे रिश्तेदारी की देखभाल के तौर पर अनौपचारिक तरीके से मान्य किया गया है, जहां परिवार और समुदाय हमेशा जरूरतमंद बच्चों की मदद के लिए आगे आए हैं। पौराणिक संदर्भ और ऐतिहासिक प्रथाएं विस्तारित परिवारों (रिश्तेदार के घरों) में बच्चों की देखभाल की पुरानी परंपरा प्रमाण रही हैं। जब हम भारत में फॉस्टर केयर को मजबूत करने के लिए काम कर रहे हैं तो हमें उन देशों के अनुभवों से सीखना चाहिए जहां यह प्रणाली कभी-कभी बच्चों की सुरक्षा करने में विफल रही है। आखिर में, फॉस्टर केयर के सफल होने के लिए सरकार और नागरिक समाज के बीच सहयोग सबसे अहम है। यह सहयोग मिलकर, एक ऐसा सिस्टम बना सकता हैं जो न केवल बच्चों की सुरक्षा करे, बल्कि हर जरूरतमंद बच्चे को पोषण भी प्रदान करे।

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सामाजिक क्षेत्र को पूर्वोत्तर भारत में काम करने के बारे में क्या सीखना चाहिए?

मैं साल 1975 में केरल से एक युवा छात्र के तौर पर पहली बार पूर्वोत्तर आया था। तब से, मुझे चर्च समूहों, समाजसेवी संस्थाओं और शैक्षणिक संस्थानों के साथ जुड़े रहने के कारण असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा राज्यों की यात्रा करने का मौका मिलता रहा है। साल 2008 में, मैं असम के जोरहाट स्थित बोस्को इंस्टीट्यूट का निदेशक बना जो न केवल सोशल वर्क प्रोग्राम में मास्टर डिग्री प्रदान करता है, बल्कि समाजसेवी संगठनों के प्रोजेक्ट्स को प्रभावी तरीके से ज़मीन पर लागू करने में उनकी मदद भी करता है। इसके साथ ही, यह एक इनक्यूबेशन प्रोग्राम भी चलाता है जो इनक्यूबेशन, शुरूआती फंडिंग, क्षमता निर्माण, संगठनात्मक विकास आदि के जरिए पूर्वोत्तर में युवा सामाजिक उद्यमियों को सहयोग देता है।

इतने सालों में, इस इलाके के युवाओं के साथ मिलकर काम करते हुए मैंने जाना कि वे मुखर और महत्वाकांक्षी तो हैं लेकिन अकेले भी हैं। इसलिए कि सामाजिक क्षेत्र में काम करने या उद्यमी बनने जैसे अपरंपरागत व्यवसायों को अपनाने को लेकर उन्हें परिवार और समुदाय का पूरा साथ नहीं मिलता है। उनके पास समाज को बेहतर बनाने के सपने तो हैं, लेकिन अक्सर जानकारी, धन और उचित मार्गदर्शन की कमी के कारण वे पीछे रह जाते हैं। विकास सेक्टर में इन समुदायों की सांस्कृतिक, भौगोलिक और सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों को लेकर कोई स्पष्ट समझ नहीं है और इसका नुकसान भी समुदायों को झेलना पड़ता है।

पूर्वोत्तर के पारिस्थितिकी तंत्र में काम करने वाले फंडर्स, समाजसेवी संगठनों और महत्वाकांक्षी समाजसेवी लीडर्स के साथ मैं यहां कुछ सीखें साझा करना चाहूंगा। मेरा मानना ​​है कि ये उन लोगों के लिए एक शुरुआती बिंदु हो सकती हैं जो इन राज्यों के साथ कुछ सार्थक करने के लिए जुड़ना चाहते हैं।

1. पूर्वोत्तर में सब कुछ एक जैसा नहीं है

पिछले कुछ दशकों में पूर्वोत्तर में सामाजिक सेक्टर का तेजी से विकास हुआ है लेकिन इससे समुदाय को हमेशा फायदा हुआ हो, ऐसा नहीं है। इसके पीछे का कारण यह भी रहा है कि जिन बड़े फंडर्स और गैर-लाभकारी संगठनों ने इस क्षेत्र में काम करना शुरू किया, उन्होंने इस क्षेत्र को बनाने वाले आठ राज्यों की भौगोलिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जटिलताओं की वास्तविकता को ठीक तरह से समझे बिना काम किया। यहां भी उन्होंने भारत के अन्य हिस्सों में चल रहे अपने कार्यक्रमों को बगैर स्थानीय संदर्भों को जांचे शुरू कर दिया।

उदाहरण के लिए, कई लोग मानते हैं कि नागालैंड की एक ही नागा पहचान है, लेकिन उन्हें यह एहसास नहीं है कि इसके भीतर कई समुदाय और कबीले भी हैं। उनकी अपनी अलग-अलग भाषाएं/बोलियां और संस्कृतियां हैं और इसीलिए उनकी चुनौतियां एक-दूसरे से भी अलग हैं। इन सभी के लिए कोई एक ही समाधान काम में नहीं आएगा। पूर्वोत्तर में समुदाय भौगोलिक रूप से विभाजित है – लोग मैदानों, पहाड़ियों और नदी किनारे के इलाकों में रहते हैं और उनके अपने अलग संसाधन और समस्याएं हैं। ऐसे में  एक समाजसेवी संस्था जो इस तरह की विविधता को नहीं समझती, क्या वास्तव में इन समुदायों की मदद कर सकती है?

सामाजिक क्षेत्र में संस्थाओं की दौड़ आंकड़ों के पीछे भागने की ज्यादा रही है क्योंकि फंडर उनसे यही सब मांगते हैं। समाजसेवी संगठन किसी एक गांव में चुनिंदा लोगों के समूह (जैसे स्वयं सहायता समूह मॉडल) के साथ काम करना शुरू करते हैं, अपना कार्यक्रम चलाते हैं, उसका प्रभाव मापते हैं और फिर अगले गांव में चले जाते हैं। वहीं, आंकड़े बताते हैं कि ये समूह अक्सर वंचित वर्ग के लोगों को छोड़ देते हैं। अधिक समावेशी सामाजिक विकास मॉडल का रहस्य छोटे पैमाने पर सोचने में निहित हो सकता है। कम समय में, किसी राज्य के 30 गांवों को कवर करने के बजाय, समाजसेवी संस्थाओं को एक गांव या उस क्षेत्र के सभी समुदाय के सदस्यों तथा गांवों के समूह के साथ तब तक काम करना चाहिए जब तक कि समुदाय परिवर्तन को ख़ुद से बनाए रखने में सक्षम न हो जाए।

दरअसल, असम के कामरूप मेट्रोपॉलिटन जिले के सोनापुर इलाके में, बॉस्को इंस्टीट्यूट ने खेती और कृषि-आधारित उद्यमिता पर काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था स्प्रेड एनई के साथ साझेदारी की है। प्राकृतिक खेती पर आधारित इस परियोजना में हर घर से युवा, महिलायें और बच्चे इसका हिस्सा हैं। कृषि उद्यम के जिस पहलू में उनकी रुचि है, उसके आधार पर समुदाय के सदस्य उत्पादन, मार्केटिंग और नेटवर्किंग में शामिल होते हैं। लोग सीमित समय सीमा के भीतर लक्ष्य पूरा करने के तनाव के बगैर अपनी गति से काम करते हैं। चूंकि उन्होंने इस परियोजना को अपना लिया है इसलिए वे अतिरिक्त व्यावसायिक विचारों के साथ आए हैं जैसे कि एक पर्यटन मार्ग बनाना जिससे पर्यटक खेतों में रुक सकें और इससे उन्हें अतिरिक्त आय हो सके।

झील में एक नींव पर एक व्यक्ति_पूर्वोत्तर भारत
समुदायों को सामाजिक क्षेत्र द्वारा उनकी संस्कृतियों की कमजोर समझ के कारण भी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। |चित्र साभार: नियो अलफ्रेस्को / सीसी बीवाई

2. निवेश नए विचारों पर हो लेकिन असफलता की गुंजाइश के साथ

पूर्वोत्तर के राज्य वर्षों से राजनीतिक अशांति से गुजर रहे हैं, जिसका असर लोगों के मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक ताने-बाने पर पड़ा है। संसाधनों की कमी के कारण वे, जोखिम भरे माने जाने वाले, उद्यमिता और सामाजिक कार्य जैसे पेशे नहीं अपना पाते हैं। उन्हें सरकारी नौकरी करने या डॉक्टर या इंजीनियर बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है क्योंकि इन्हें स्थिर करियर विकल्प माना जाता है।

जब युवा सामाजिक सेक्टर में काम करना चुनते हैं तो वे एक तरह से धारा के विपरीत जाकर ऐसा करने का निर्णय लेते हैं। उनमें से कई लोग इसमें पहल तो शुरू कर देते हैं, लेकिन पारिवारिक और सामाजिक दबाव तथा वित्तीय तनाव के कारण इसे छोड़ने पर मजबूर भी हो जाते हैं। इसके अलावा, इलाके में आपदाएं भी आती रहती हैं। यहां हर साल बाढ़ आना एक आम बात है जो समाजसेवी कार्यों में अतिरिक्त चुनौतियां लेकर आती है। पूर्वोत्तर राज्यों में नए समाजसेवी संगठनों में निवेश करने वाले फंडर्स को इस क्षेत्र में विफलताओं की संभावना पर विचार करना चाहिए और संगठनों पर ऐसी समय-सीमाएं पूरी करने का दबाव नहीं डालना चाहिए जो उनकी वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल न हों। उन्हें समयबद्ध, परियोजना-आधारित फंडिंग के बजाय दीर्घकालिक प्रतिबद्धताएं भी बनानी चाहिए।

यदि समाजसेवी संस्थाओं के युवा लीडर्स असफल भी होते हैं तो उन्हें अपने आपको अयोग्य नहीं मान लेना चाहिए। अगर कोई व्यवसायी दोबारा अपने काम की शुरुआत कर सकता है तो सामाजिक क्षेत्र के इन लीडर्स को भी दूसरा मौका मिलना चाहिए। इसके लिए पूर्वोत्तर में समजसेवियों और फंडर्स को एक साथ मिलकर ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करे।

3. फंडर्स को अपनी अपेक्षाओं को दोबारा आंकना चाहिए

हमारे इनक्यूबेशन प्रोग्राम में, हम सामाजिक उद्यमिता पर ध्यान केंद्रित करते हैं। हमारा मानना ​​है कि नए समाजसेवी संगठनों को बाहरी फंडिंग के लिए आवेदन करने से पहले कुछ वर्षों तक खुद को बनाए रखने पर जोर देना चाहिए।

क्षेत्र में छोटे समाजसेवी संगठनों के लिए शुरुआती चरण में फंडिंग प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण है और हम नहीं चाहते कि युवा लोग पैसे की कमी के कारण अपने प्रयासों को आगे बढ़ाना बंद कर दें। अगर कोई नया समाजसेवी संगठन फंडिंग पाने में कामयाब हो भी जाता है तो अक्सर फंडर्स यह तय करना शुरू कर देते हैं कि उसे क्या काम करना चाहिए। इन सबको लेकर युवा लीडर्स अपनी बात पूरी ताकत के साथ नहीं रख पाते हैं। फंड देने वालों के दबाव के कारण कई लोग उस मूल विचार से भटक जाते हैं जिसके लिए उन्होंने वास्तव में पहल शुरू की थी।

क्या सामाजिक क्षेत्र, जो लोगों की सेवा करने पर गर्व करता है, उसे समुदाय के तरीकों के अनुकूल नहीं होना चाहिए?

फंड देने वाले लोग संबंधित क्षेत्र के बारे में पहले से शोध नहीं करते हैं और अक्सर ऐसी मांगें करते हैं जो उस जगह पर लागू नहीं होती हैं। हाल ही में, मैं एक युवा लीडर से बात कर रहा था जो ऐसे ही एक फंडर के साथ काम कर रहा है। वे ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं और किशोर बच्चों के साथ ऑनलाइन अभियान चलाने की योजना बना रहे हैं लेकिन पूर्वोत्तर के कई गांवों में ठीकठाक इंटरनेट कनेक्शन ही नहीं है।

4. सेक्टर को समुदायों की बात सुनना सीखना चाहिए

पूर्वोत्तर में सामाजिक सेक्टर की कमी यह है कि यह समुदायों की बात नहीं सुन पाता और उन पर अपने विचार थोपने की प्रवृत्ति रखता है। दूसरे राज्यों से आने वाले फंडर और समाजसेवी संगठन जो इस क्षेत्र में काम करना शुरू करते हैं, वे अक्सर स्थानीय लोगों में उद्यमशीलता की भावना और उनकी उत्पादकता की कमी की शिकायत करते हैं। लेकिन विकास के आधुनिक विचार को उन पर थोपे जाने से पहले यहां के लोगों की जीवनशैली आत्मनिर्भर थी। वे अपना भोजन खुद उगाते थे, अपने कपड़े खुद बुनते थे और धीमी गति से जीवन जीते थे। आप आज भी इन राज्यों के छोटे शहरों और गांवों में इसकी झलक देख सकते हैं। 

मैं हमेशा कहता हूं कि जब मैं 1975 में केरल से मेघालय के शिलांग आया था तो हम पैदल चलते थे क्योंकि यह सुखद था और यहां कोई वाहन नहीं था। अब शिलांग के लोगों को पैदल चलना पड़ता है क्योंकि सड़कें बहुत सारे वाहनों से भरी हुई हैं और हर जगह ट्रैफिक जाम है। यह किस तरह का विकास है? अगर लोग इंडस्ट्रियल टाइम के अनुसार काम नहीं करना चाहते हैं, अगर वे फैक्टरियों में काम करते रहने के बजाय अपने त्योहारों और सामुदायिक कार्यक्रमों को प्राथमिकता देते हैं तो यह बाजार की ताकतों के मुताबिक ढलने से उनका इनकार है। क्या सामाजिक क्षेत्र, जो लोगों की सेवा करने पर गर्व करता है, उसे समुदाय के तरीकों के अनुकूल नहीं होना चाहिए? बजाय इसके कि उन्हें ऐसा कुछ करने के लिए मजबूर किया जाए जो उनकी खुशी की समझ के खिलाफ हो?

पूर्वोत्तर के कई समुदाय आज अपनी भाषा, संस्कृति, गीत-संगीत और परम्पराओं को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अपनी संस्कृति को बचाने के लिए समुदाय के युवा प्रयास कर रहे हैं लेकिन उन्हें आर्थिक सहयोग के लिए जूझना पड़ रहा है। कुछ ऐसे लोग और समूह भी हैं जो स्लो फूड (अच्छा गुणवत्तापूर्ण खाना जो फास्ट फूड के बिलकुल उलट है), स्लो फैशन (फैशन उद्योग के पर्यावरण पर नकारात्मक असर को कम करने की सोच), खेती के प्रति लगाव, लोक संगीत, कला और लोक कथाओं को बढ़ावा दे रहे हैं। समुदाय के लिए महत्व रखने वाले ऐसे लोगों और संस्थानों को बढ़ावा देने में विकास क्षेत्र की अहम भूमिका हो सकती है। इससे उन्हें अपनी शर्तों पर समुदाय के साथ संवाद करने की दिशा में आगे बढ्ने में मदद मिलेगी।

जेरी थॉमस, असम के जोरहाट में स्थित बोस्को इंस्टीट्यूट के निदेशक हैं।

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थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड: वंचितों का रंगमंच जिसमें हम सब कलाकार हैं

थियेटर का नाम सुनते ही हमारे दिमाग में एक मंच की तस्वीर उभरती है, जिस पर कलाकार नाटक पेश कर रहे होते हैं और हम, दर्शक, ताली बजा रहे होते हैं। लेकिन क्या हो अगर मंच पर घटने वाली कहानी का हिस्सा हम भी बन जाएं? अगर कलाकारों के साथ-साथ हम भी अपनी राय रखें, सवाल पूछें और समाधान तलाशें? थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड, कुछ ऐसा ही अनुभव कराता है। शोषितों-वंचितों का एक ऐसा मंच जो उनके लिए और उन्हीं के द्वारा बनाया गया है। यह पारंपरिक थियेटर से बिल्कुल अलग और बेहद अनोखा तरीका है, जो संवाद और सहभागिता को केंद्र में रखता है। आइये समझते हैं कि थियेटर का यह विशिष्ट रूप क्यों बना, इसे कैसे मंचित किया जाता है और इसकी व्यावहारिक उपयोगिता क्या है?

थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड क्या है?

ब्राज़ील के थियेटर कर्मी अगस्तो बोआल ने 1950 के दशक में थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड की शुरुआत की थी जो सुविधा-सम्पन्न और वंचितों (दूसरे शब्दों में शोषक और शोषित) के बीच संवाद के जरिये मुद्दों को हल करने के विचार पर आधारित है। ब्राज़ील के ही शिक्षाविद और विचारक पॉलो फ्रेरे की किताब ‘पैडागौजी ऑफ द ऑप्रेस्ड’ इसका मुख्य आधार है और यह थियेटर के माध्यम से शोषक और शोषित के संबंध की जटिलताओं को समझने का प्रयास करता है। विभिन्न कलाएं, ऐतिहासिक रूप से सीखने-सिखाने का माध्यम होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति का भी सशक्त माध्यम रही हैं। मानवीय इतिहास में जब अधिकारों और बराबरी की बात आई तो उसमें थियेटर सहित विभिन्न कलाओं का शामिल होना स्वाभाविक ही था। शोषित अपनी आवाज उठाने के लिए कला का इस्तेमाल कैसे करें और इसके लिए कम समय में कला को ज्यादा लोगों तक कैसे पहुंचाया जाए, यह एक बड़ा सवाल था। इस सवाल के जवाब की तलाश में ही आगे जाकर पारंपरिक थियेटर का पैटर्न भी टूटा और थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड जैसे विशिष्ट रूप ने आकार भी लिया।

थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड अपनी प्रस्तुति देते हुए_थियेटर
थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड को भी नुक्कड़, गली, बाजार, मीटिंग्स जैसी और भी सार्वजनिक जगहों पर किया जा सकता है। | चित्र आभार : फ्लिकर/सीसी बीवाई

पारंपरिक थियेटर में मंच और दर्शक के बीच एक अदृश्य दीवार होती है—कलाकार अपनी भूमिका निभाते हैं और दर्शक देखते हैं। थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड में यह दीवार तोड़ दी जाती है। मंचन के दौरान कलाकारों और दर्शकों के बीच सीधे संवाद होते हैं, नाटक को बीच में ही रोका जा सकता है, और उस मुद्दे पर बात की जा सकती है जो कहानी में उठाया गया है। मंचन के एक अन्य रूपों जैसे नुक्कड़ नाटक से यह इस मायने में अलग है कि इसमें कलाकार अपनी बात कहकर चले जाते हैं। वहीं, थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड में दर्शकों को भी मंच पर आने, कहानी का हिस्सा बनने और खुद को शोषित के स्थान पर रखकर समाधान तलाशने का मौका मिलता है। साथ ही नुक्कड़ नाटक की ही तरह थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड को भी नुक्कड़, गली, बाजार, मीटिंग्स जैसी और भी सार्वजनिक जगहों पर किया जा सकता है। 

विकास सेक्टर में इसके व्यावहारिक प्रयोग क्या है?

किसी भी मुद्दे की गहराई में जाएं तो हम देख सकते हैं कि उसका कारण, मूलरूप से एक असहमति होती है। यह असहमति ही शोषक और शोषित के बीच का अंतर है, अगर दोनों के बीच सहमति बन जाए तो मुद्दे को सुलझाने की दिशा में बढ़ा जा सकता है। इस तरह देखें तो थिएटर हर उस जगह उपयोग किया जा सकता है, जहां किसी भी तरह की असहमति है। जहां भी कोई दबा हुआ या शोषित महसूस कर रहा हो या अपनी बात नहीं रख पा रहा हो, वहां इसका प्रयोग किया जा सकता है।

नर्मदा बचाओ आंदोलन और मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) जैसे जन संगठनों से लेकर प्रदान और पतंग जैसी सामाजिक संस्थाओं ने अपने काम के दौरान थिएटर का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है। केरल और दिल्ली की कुछ ट्रेड यूनियनों ने भी श्रमिक अधिकारों पर जागरूकता लाने के लिए इसका उपयोग किया है। थिएटर ऑफ द ऑप्रेस्ड वास्तविक कहानियों या परिस्थितियों पर आधारित होता है, ‘जिसकी लड़ाई उसकी अगुवाई’ के मूल्य को केंद्र में रखते हुए विचार यह होता है कि अभिनय भी वही करें जो प्रभावित हैं। इसलिए यह भी खयाल रखा जाता है कि इसमें हिस्सा लेने के लिए किसी खास अभिनय कुशलताओं की भी जरूरत न हो।

सामाजिक संस्थाओं के लिए थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड कैसे काम आ सकता है?

सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाएं, समुदाय के साथ मुद्दों और आपसी संबंधों पर समझ बेहतर करने के लिए इसका प्रयोग कर सकती हैं। साथ ही, अपनी संस्था के लोगों के साथ जिस भी विषय पर असहमति हो, उस पर बात करने के लिए इसका उपयोग कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था बच्चों और शिक्षक के संबंध की दृष्टि से बच्चों के अधिकारों और उनके शोषण को समझने के लिए इसका प्रयोग कर सकती है। श्रमिक अधिकार पर काम करने वाली संस्थाएं उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने और मालिक वर्ग के शोषण के खिलाफ आवाज उठाने के लिए इसका प्रयोग कर सकती हैं।

थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड को संचालित करने वाला एक प्रशिक्षित थियेटर कर्मी होता है जिसे ‘जोकर’ कहा जाता है। 

हमने एक बार छत्तीसगढ़ में एक कार्यशाला की जिसमें वन अधिकार को लेकर समुदाय ने उनकी परेशानियों और मांगों को दर्शाने वाला एक नाटक तैयार किया गया। इसका मंचन वहां के वन विभाग के अधिकारियों के सामने किया गया, इस तरह समुदाय अपने मुद्दों पर वन विभाग से संवाद कर पाया। इसी तरह दिल्ली के एक झुग्गी-झोपड़ी के इलाके में हम जेंडर पर एक नाटक कर रहे थे। नाटक के बीच में जब हम वहां मौजूद लड़कों से महिलाओं के साथ होने वाली छेड़खानी को लेकर बात कर रहे थे, तभी एक युवा लड़की बोली कि ये क्या कहेंगे ये तो खुद मुझे छेड़ते हैं। इस पर बस्ती की एक वयस्क महिला ने उस युवती से कहा कि अगली बार ऐसा हो तो मुझे भी बताना। इससे तरह थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड न केवल शोषक और शोषित के बीच संवाद कायम करता है बल्कि शोषित का सहयोग कौन कर सकते हैं, इसकी भी पहचान करता है। 

थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड को अपने काम में इस्तेमाल करने के लिए इसके बारे में केवल पढ़ लेना काफी नहीं है, इसका अभ्यास भी उतना ही जरूरी है। सबसे पहले अगर कहीं थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड किया जा रहा है तो इसे जा कर देखें और फिर विचार करें कि आपकी संस्था में इसे कैसे प्रयोग किया जा सकता है। थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड को संचालित करने वाला एक प्रशिक्षित थियेटर कर्मी होता है जिसे ‘जोकर’ कहा जाता है। जोकर, किसी एक्टर और स्पेक्ट एक्टर (सक्रिय दर्शक) के बीच होने वाली बातचीत को संचालित करता है, उसका प्रयास होता है कि आपसी संवाद के जरिये एक अहिंसापूर्ण हल तलाशा जा सके। अगर ऐसा नहीं हो पा रहा है तो वह उसे वहीं पर रोक लेता है। हमारे देश में कुछ ऐसे प्रशिक्षित जोकर हैं जो इसकी ट्रेनिंग देते हैं, उन्हें भी आप अपनी संस्था में बुला सकते हैं। इसके लिए एक से पांच दिन तक के ट्रेनिंग मॉड्यूल से लेकर एक साल तक के कैंपेन भी डिजाइन किए जा सकते हैं, जिन्हें आप अपने काम की जरूरत के अनुसार तय कर सकते हैं। वर्तमान में दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा, बिहार, कर्नाटक, केरल, और तमिलनाडु आदि राज्यों में ये जोकर सक्रिय हैं जो थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड का प्रयोग कर रहे हैं, इसे सीखने के लिए उनसे संपर्क किया जा सकता है।

ज़ुबैर इदरीसी एक सक्रिय थिएटर प्रेक्टिशनर हैं और थियेटर ऑफ द ऑप्रेस्ड के प्रशिक्षक भी हैं। ज़ुबैर के काम के बारे में और जानने के लिए उनसे zubi.khoj@gmail.com पर संपर्क करें।

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सूखे फूलों से सफलता की खुशबू बिखेरती नागालैंड की महिला उद्यमी

नागालैंड में सूखे फूल, बाजारों और दुकानों में अक्सर देखे जाते हैं। स्थानीय लोग मानते हैं कि यह प्रथा 1990 के दशक में शुरू हुई थी। इसका उद्देश्य ताजे फूलों को सड़ने से बचाना और उन मौसमों के लिए तैयारी करना था जब कुछ विशेष फूलों की प्रजातियां नहीं खिलती। हालांकि नागालैंड की भौगोलिक स्थिति और जलवायु कई मौसमी फूलों के लिए अनुकूल हैं, फिर भी ये पूरे साल उपलब्ध नहीं होते। इस समस्या के समाधान के लिए फूलों को संरक्षित करने की तकनीकों का विकास किया गया, ताकि उनके सौंदर्य को लंबे समय तक बनाए रखा जा सके।

एक वित्तीय संस्थान में काम करने वाले और फूलों के शौकीन ज़ुचानो किथन कहते हैं, “1990 के दशक में मैं [कोहिमा के पास एक शहर] वोखा में पला-बढ़ा। वहां मैं अपनी बहनों के साथ मौसमी फूलों की खेती करता था, खासतौर पर ऑर्निथोगलम (घास लिली) की। हम उन्हें अपने घरों में लगाते थे। मौसम खत्म होने के बाद हम देखते कि गमलों में लगे फूल सूख जाते थे, उनका सफेद रंग एक खूबसूरत ऑफ-व्हाइट शेड में बदल जाता था। हमने फूलों की सुंदरता को बनाए रखने के लिए उन्हें उल्टा लटकाना शुरू कर दिया। मेरे पिता भी जंगली फूलों के बहुत शौकीन हैं और जंगल में घूमने के दौरान, वे उन्हें घर लाते और सुखाते थे।”

सूखे फूलों का गुलदस्ता_महिला उद्यमी
पीडब्ल्यूडी कॉलोनी, कोहिमा के किसान बाजार में सूखे हुए जंगली फूलों को बेचा जाता है।

हालांकि, फूलों को सुखाने की परंपरा जो एक जरूरत के तौर पर शुरू हुई थी, कई महिलाओं के लिए आजीविका का विकल्प बन गई है। ये महिलाएं दुकानों, फुटपाथों और बाजारों में गुलदस्ते, बुकमार्क और सभी प्रकार की फूलों की सजावट वाले सामान बेचती हैं। यह फोटो निबंध फूल विक्रेताओं के अनुभवों, उनकी उद्यमशीलता की यात्रा, चुनौतियों और अवसरों को दर्शाता है। साथ ही इन सूखे फूलों की लोकप्रियता ने नागालैंड के समाज में जो क्रमिक परिवर्तन लाया है, उनकी एक झलक भी यहां दिखती है।

फूलों को क्यों सुखाया जाता है? 

बीते कुछ सालों में, नागालैंड में उपभोक्ता व्यवहार में बदलाव आया है। कई स्थानीय फूल विक्रेताओं ने बताया है कि लोग अब फूलों को ज्यादा महत्व देते हैं, जिसके कारण फूलों की खरीदारी बढ़ रही है और इन्हें तोहफे देने के लिए एक अच्छे विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। अलग-अलग फूल और उनके रंग अलग-अलग भावनाओं का प्रतीक हैं, जैसे दोस्ती, प्यार, शांति और कृतज्ञता! कभी-कभी, फूल बस देने की खुशी को भी जाहिर करते हैं। कई लोग ताजे फूलों को पसंद करते हैं, लेकिन उनका जीवनकाल बहुत कम होता है। समारोहों और पार्टियों में अक्सर ताजे फूलों की सजावट होती है जिन्हें बाद में फेंक दिया जाता है। हाल के सालों में, सूखे फूल पर्यावरण के अनुकूल जीवन के प्रतीक के तौर पर उभरे हैं। यह उन लोगों के लिए दिलचस्प विकल्प है जो अपने उपहारों में नया बदलाव लाना चाहते हैं। 

सूखे स्टेटाइस_महिला उद्यमी
सूखे हुए स्टेटाइस, नागालैंड में मिलने वाला एक आम तोहफा।

ज़ुचानो कहते हैं कि लंबे समय तक चलने वाले सूखे फूल उपहार देने के लिए आदर्श विकल्प बन गए हैं। कई लोग उपहार की याद को बनाए रखने और उसे लंबे समय तक संजोने के लिए मिले हुए ताजे फूलों को सुखाने का विकल्प भी चुनते हैं।

राज्य में सूखे फूलों की लोकप्रियता के पीछे कुछ और कारण भी हैं। स्थानीय फूल विक्रेताओं का मानना ​​है कि नागालैंड में बिकने वाले ज़्यादातर ताजे फूल राज्य के बाहर से आते हैं, जबकि सभी सूखे फूल स्थानीय स्तर पर उत्पादित होते हैं। नागालैंड में केवल मौसमी फूल- जैसे ऑर्किड, स्टेटिस और लिली- ही पनपते हैं, ऐसे में विक्रेता दूसरे ताजे फूलों के लिए बाहरी स्रोतों पर निर्भर हैं। ज्यादातर मौसमी फूल कुछ खास इलाकों में ही खिलते हैं लेकिन कॉसमॉस और गुलदाउदी जैसे पूरे साल खिलने वाले फूल यहां के सामान्य मौसम के अनुकूल नहीं हैं। जब फूलों का मौसम खत्म हो जाता है, तब न बिक पाने वाले फूलों को सुखाकर बिक्री के लिए तैयार किया जाता है।

सूखते फूल_महिला उद्यमी
फूलों को उलटा लटकाकर सुखाया जाता है।

फूलों का संरक्षण एक नाजुक और लंबी प्रक्रिया है जो मौसमी उतार-चढ़ाव, बाजार की मांग और दूसरे कारणों के हिसाब से अलग-अलग होती है। इनसे प्रभावित एक ऐसा लोकप्रिय सूखा फूल है स्टेटिस, जो आमतौर पर बाजारों और फूलों की दुकानों में पाया जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों में, इसे बसंत के मौसम (मार्च-अप्रैल) के दौरान उगाया जाता है, जबकि मैदानी इलाकों में इसे अक्टूबर और नवंबर में लगाया जाता है। कटाई के बाद, फूल वाले इन फूलों को झड़ने से बचाने और उनकी सुंदरता को बनाए रखने के लिए उन्हें उल्टा लटकाकर सुखाते हैं।

कुछ फूल प्राकृतिक रूप से सूख जाते हैं वहीं कुछ को फूल विक्रेता इनकी जीवंतता बढ़ाने और बाजार की मांग को पूरा करने के लिए उन्हें रंग देते हैं। कोहिमा में, फूलवाले तेज बारिश के मौसम में अपने सूखे फूलों को फफूंद से बचाने के लिए भी रंगते हैं।

सूखे फूलों के बुके_महिला उद्यमी
सूखे फूलों को रंगकर बाजार की मांग के मुताबिक रंग-बिरंगे बुके बनाए जाते हैं।

महिला उद्यमियों के लिए एक फलता-फूलता व्यवसाय

नागालैंड में फूलों का कारोबार कई महिलाओं को स्थायी आजीविका प्रदान कर रहा है। इनमें से एक हैं ज़ुविनु टेट्सो। ज़ुविनु कोहिमा के बीओसी में बांस मार्केट में एक सफल स्टॉल चलाती हैं। कुछ सालों तक सब्जियां बेचने के बाद, उन्होंने 2021 में फूलों के कारोबार शुरू किया। वे अपने खूबसूरत सूखे फूलों के लिए जानी जाती हैं, जिन्हें वह अपने शेड के ऊपर सुखाती हैं। वह बताती हैं, “मैं ताजे फूल भी बेचती हूं, लेकिन अगर वे बिक नहीं पाते, तो वे जल्दी सड़ जाते हैं और इससे नुकसान होता है। सूखे फूलों के साथ ऐसा नहीं होता, क्योंकि उन्हें सालभर रखा जा सकता है। यही सूखे फूल मेरे स्टोर में पर्यटकों और ग्राहकों को पसंद आते हैं। इस कारोबार से ज़ुविनु अपने परिवार का भरण-पोषण कर पा रही हैं। हालांकि, वह चाहती हैं कि उन्हें एक बड़ी जगह मिल जाए क्योंकि उनके मौजूदा छोटे स्टॉल में ग्राहकों के लिए घूमना भी मुश्किल होता है और फूलों को सही तरीके से प्रदर्शित करना भी।

फूल खरीदती एक महिला_महिला उद्यमी
ज़ुविनु की फूलों की दुकान जो बीओसी, कोहिमा के बैम्बू मार्केट में है।

ज़ुविनु की तरह, टेम्सुयांगला पोंगेन भी कई सालों से फूल बेचने का काम कर रही हैं। वह इस व्यवसाय के ज़रिए अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही हैं। उनका यह व्यवसाय खासतौर पर इंडोर प्लांट्स यानि घर के भीतर सजाए जाने वाले पौधों और सूखे फूलों पर केंद्रित है, जिसकी बाजार में काफी मांग है। टेम्सुयांगला, जो नागालैंड फ्लावर ग्रोवर्स सोसाइटी में उपाध्यक्ष भी हैं (एक गैर-लाभकारी संस्था जो उद्यमियों का सहयोग करती है) समझाती हैं, “इंडोर प्लांट्स और सूखे फूलों का सही से खयाल रखा जाए तो वह लंबे समय तक चलते हैं, यही खासियत उन्हें बहुत फायदेमंद बनाती है। मैंने पांच साल पहले एक राजनेता के लिए सूखे फूलों का गुलदस्ता बनाया था, और वह आज भी बिल्कुल नया जैसा दिखता है।”

उद्यमी बनने की संभावना और इससे मिलने वाली आजादी एक और अहम वजह है कि, लोग नौकरी करने की बजाय इस व्यवसाय की ओर आ​कर्षित हो रहे हैं। कोहिमा ट्रेड सेंटर में एक फूलों की दुकान की मालिक रुकुनु केनाओ सूखे और ताजे दोनों तरह के फूल बेचती हैं। नवंबर 2023 में अपना व्यवसाय शुरू करने से पहले, उन्होंने चार साल तक कोहिमा जिला न्यायालय में एक निजी वकील के रूप में काम किया। अब नागालैंड के कई फूल विक्रेता डिजिटल हो गए हैं और अपने उत्पादों को दिखाने और बेचने के लिए इंस्टाग्राम का उपयोग करते हैं। अक्सर, उन्हें राज्य के बाहर से भी ऑर्डर मिलते हैं। रुकुनु भी एक इंस्टाग्राम अकाउंट (peta_lparadise) चलाती हैं, जहां वह फूलों को दिखाती और बेचती हैं। हालांकि उन्हें स्टोर में पूरा समय देना जरूरी है इसलिए रोजाना सोशल मीडिया पर पोस्ट करना किसी चुनौती से कम नहीं लगता। 

पहला कदम उठाने वालों का नुकसान

सूखे फूलों का कारोबार 1990 के दशक की शुरुआत से अब काफी आगे बढ़ चुका है। पहले उद्यमियों को बड़े बाजारों तक पहुंच बनाने और उन तक पहुंचने के लिए संघर्ष करना पड़ा था। उदाहरण के लिए, 1994 में केवीमेसे-ii, ने जब फूलों को संरक्षित करना शुरू किया तब वह बीस साल की थी। वे बताती हैं, “पहले, सूखे फूल आमतौर पर सर्दियों के मौसम में बाजारों में दिखाई देते थे, लेकिन अब वे पूरे साल मिलते हैं।” उनके लिए, यह एक झटके जैसा था। उन्होंने फूलों का इस्तेमाल बुकमार्क और फ्रेम वाली सजावटी चीजें बनाने के लिए किया। इनमें से बहुत से तो उन्होंने अपने दोस्तों को तोहफे के तौर पर दी और कुछ को घर पर सजाया। 

केवीमेसे-ii ने एक बार अपनी इस कारीगरी को बड़े व्यवसाय में बदलने का सपना तो देखा, पर सफलता नहीं मिली। वह बताती हैं, “1994-95 के आसपास, मुझे एक व्यवसायी से मिलवाया गया, जिसने बताया कि वह दिल्ली हाट [दिल्ली में एक ओपन-एयर क्राफ्ट बाज़ार जिसमें कई भारतीय राज्यों के स्टॉल हैं] में एक प्रदर्शनी में भाग लेगा। मैंने सूखे फूलों के टुकड़ों को फ्रेम के साथ तैयार किया और उन्हें कार्यक्रम के लिए भेज दिया, इस उम्मीद में कि कुछ पैसे कमाऊंगी और अपना व्यवसाय शुरू करूंगी। लेकिन एक बार जाने के बाद दोबारा उससे कोई संपर्क नहीं हो पाया।”

हालांकि अब हालात अलग हैं। अब कोई बिचौलिया नहीं है और आजकल, कई फूल उद्यमियों ने मोबाइल फोन और सोशल मीडिया को अपना लिया है। केवीमेसे-ii का मानना है कि इस नई पीढ़ी के फूल विक्रेताओं की सफलता के पीछे उनकी उद्यमिता और रचनात्मकता, सरकार और स्थानीय लोगों का सहयोग, और इंटरनेट की व्यापक पहुंच है।

साथ मिलकर फूल उगाएं

इस बदलाव का एक कारण राज्य के फूल विक्रेताओं को एकजुट करने का प्रयास भी है। नागालैंड फ्लावर ग्रोवर्स सोसाइटी की स्थापना साल 2006 में हुई। यह फूल उत्पादकों के लिए एक ऐसा मंच है जहां वे एक-दूसरे की मदद कर सकते हैं और बाजार में अपनी मौजूदगी बढ़ा सकते हैं। सोसाइटी की महासचिव मेयेविनो बताती हैं कि इस मंच की शुरुआत नागालैंड सरकार के बागवानी विभाग की ओर से की गई थी, जब उन्होंने फ्लोरीकल्चर पर काम करना शुरू किया। यह पहल राज्य सरकार की मदद से शुरू हुई, और अब यह सोसाइटी एक पंजीकृत गैर-सरकारी संगठन के तौर में काम कर रही है। हर महीने के दूसरे शुक्रवार को, सोसाइटी कोहिमा के पीडब्ल्यूडी कॉलोनी में किसानों के बाजार में एक बिक्री का आयोजन करती है। काम करने वाले और महत्वाकांक्षी फूल उत्पादकों के समूहों को अपने उत्पादों को रोटेशन के आधार पर बेचने के लिए जगह दी जाती है, क्योंकि बाजार सभी सदस्यों को एक साथ समायोजित नहीं कर सकता है।

फूल खरीदते लोग_महिला उद्यमी
अगस्त के दूसरे हफ्ते में फूल खरीदते लोग।

मेयेविनो राज्य के बाहर से ताजे फूलों की आवक के बारे में कहती हैं, “हम अपने सदस्यों को ताजे फूल उगाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, लेकिन ऐसा काम शुरू करने के लिए काफी लागत लगती है, जो कई सदस्यों के पास नहीं है। फूलों के व्यवसाय के लिए निवेश सुरक्षित करना भी चुनौती वाला काम है। पिछले साल, हममें से कुछ लोगों ने कम लागत वाला पॉलीहाउस बनाने के लिए एक छोटा सा कर्ज लिया था, लेकिन दुर्भाग्य से, इस साल की हवाओं ने उसे खराब कर दिया।” उन्होंने बताया कि बहुत से सदस्यों को पॉलीहाउस की कमी की वजह से राज्य के बाहर से आने वाले ताजे फूलों पर निर्भर रहना पड़ता है। राज्य का बागवानी विभाग हर साल आवेदकों को पॉलीहाउस मुहैया करवाता है, लेकिन मांग ज्यादा होने के कारण सभी को इसका फायदा नहीं मिल पाता। विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि यह चयन जिला बागवानी अधिकारी करते हैं। और (फूलों की) फसलों के साथ-साथ पॉलीहाउस के लिए सामान बांटने का काम उन्हें उसी फंड से करना जरूरी है जो केंद्र की तरफ से आवंटित होता है।

नागालैंड फ्लावर ग्रोवर्स सोसाइटी की महिला सदस्य पिछले एक दशक से फूलों के व्यापार में हैं। उन्होंने एक दिलचस्प बदलाव देखा है—असल में अब पुरुष पहले से ज्यादा फूल खरीदने लगे हैं, जो वाकई एक दुर्लभ नजारा है। कई विक्रेताओं का कहना है कि पहले, जब पुरुषों से उनके साथी के लिए फूल खरीदने के लिए कहा जाता था, तो वे शर्माते थे और इसे टाल देते थे। यह बदलाव फूल विक्रेताओं के लिए सशक्तिकरण का प्रतीक है, क्योंकि यह सभी जनसांख्यिकी के बीच फूलों की बढ़ती सराहना को दर्शाता है।

फूलों का स्टॉल_महिला उद्यमी
बाजार में सूखे फूलों से सजा एक स्टॉल।

नागालैंड में फूलों के मुख्य ग्राहक में पुरुष और महिलाएं—दोनों ही, चाहे वे युवा हों या बुजुर्ग, साथ ही चर्च जैसी संस्थाएं भी शामिल हैं। कई चर्चों के पास सजावट के लिए अलग बजट होता है, जिसे आमतौर पर ताजे और सूखे फूलों पर खर्च किया जाता है। शादी में भी ताजे, सूखे और कृत्रिम फूलों को मिलाकर इस्तेमाल करते हैं। खासकर, अंत्येष्टि के लिए कृत्रिम फूलों की मांग ज्यादा होती है क्योंकि वे टिकाऊ होते हैं और जलवायु के प्रति सहनशील होते हैं।

हालांकि, टेम्सुयांगला और मेयेविनो दोनों ही मांग को पूरी करने के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन की जरूरत पर जोर देते हैं, जिसमें समाज को धन और सहायता की कमी के कारण संघर्ष करना पड़ रहा है। टेम्सुयांग्ला कहती हैं, “हम नागा लोगों के पास जमीन, प्रचुर मात्रा में पानी और कई क्षेत्रों में उपजाऊ मिट्टी है—जो सभी फूल उगाने के लिए उपयुक्त है। अगर हम इन संसाधनों को एकजुट कर सकें, तो हम ज्यादा मजबूत समाज बन सकते हैं।” वह सुझाव देती हैं कि और जिलों में ज्यादा से ज्यादा तादाद में महिलाओं को संगठित कर प्रशिक्षित किया जा सकता है जिससे ताजे मौसमी फूलों की खेती के लिए सभी जरूरतें पूरी हो सकती हैं। इस नजरिए के पीछे का उद्देश्य कोहिमा और दीमापुर को स्थानीय फूलों की आपूर्ति करना है, जिससे राज्य के बाहर से फूलों के ऑर्डर को पूरा करने की आवश्यकता कम हो जाएगी और रोजगार के अवसर भी पैदा हों। वह आगे कहती हैं, “मौजूदा कमियों को दूर करके और एक मजबूत नेटवर्क बनाकर, हम दूसरे राज्यों के ग्राहकों को भी रोजाना फूलों की आपूर्ति कर सकते हैं।”

नागालैंड फ्लावर ग्रोवर्स सोसाइटी को उम्मीद है कि विभिन्न संगठन उन्हें सभी जिलों में उद्यमियों के समूह संगठित करने में मदद करेंगे। इसके साथ ही, उन्हें फूल उगाने, संरक्षित करने और आपूर्ति करने के लिए जरूरी उपकरण भी मुहैया किए जाएंगे, ताकि फूलों की खेती का उद्योग फल-फूल सके।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।

अधिक जानें

महिला किसान और उनके अलग-अलग भाव 

1. जब महिला किसान दिवस पर लोग शुभकामनायें दे रहे होते हैं।

फूलों के साथ एक महिला_महिला किसान

2. लेकिन जब ऑनलाइन ‘किसान’ शब्द सर्च करने पर सिर्फ किसान पुरुषों के बारे में ही जानकारी आए।

विचार करती एक महिला_महिला किसान

3. जब ट्रैक्टर वाला, महिला किसान से खेत जोतने के ज्यादा पैसे मांगे। 

हाल के साथ एक महिला_महिला किसान

4. जब तमाम वायदों के बावजूद भी पंचायत सिंचाई की व्यवस्था न करे।

एक महिला और एक पुरुष_महिला किसान

5. जब अपनी फसल का जायज़ दाम मांगने के बावजूद आढ़ती अपनी बात पर ही अड़ा हो।

बंदूक लिए महिला_महिला किसान

6. एक महिला किसान जो घर का काम निपटाकर खेत में काम करने आती है और फिर उसे घर जाकर काम करने की चिंता सताये…

खेत में एक महिला_महिला किसान

7. जब गांव में कृषि विकास पर चर्चा हो रही हो और उस चर्चा में केवल पुरुष किसानों को ही न्यौता मिले।

दो महिलायें_महिला किसान

8. जब गांव की बेटियां कृषि विज्ञान की पढ़ाई करने में रुचि दिखाएं और घर के पुरुष उन्हें टीचर बनने की सलाह दें…

एक साथ कई महिलाएं_महिला किसान

मैं हिंदी भाषा सीखने के लिए मिजोरम से असम गया

शहर को देखता युवा_हिन्दी भाषा
भाषा के ज्ञान से मुझे अंजान शहर में भी रास्ता ढूंढने में मदद मिली। | चित्र साभार: श्रिया रॉय

मैं मिजोरम के मामित जिले के दमपरेंगपुई गांव का एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हूं। मैं ब्रू समुदाय से ताल्लुक रखता हूं, इसलिए बचपन से घर पर ब्रू भाषा में ही बात करना सीखा। मैंने स्कूल में मिज़ो भाषा सीखी क्योंकि यह सभी छात्रों के लिए अनिवार्य थी, और राज्य में रहने वाले अधिकांश लोगों के लिए यह पर्याप्त थी। मिज़ो यहां सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है और लोग आमतौर पर अपनी ही भाषा में बातचीत करना पसंद करते हैं। हालांकि, 2016 में मैंने तय किया कि मुझे हिंदी सीखनी है।

मुझे लगा कि हिंदी जानना राज्य के भीतर और बाहर रोजगार के अवसरों को ढूंढने के लिए अहम है, और यह मिज़ोरम के बाहर के लोगों से जुड़ने, बातचीत करने और विचारों का आदान-प्रदान करने का माध्यम भी है।

हिंदी सीखने के लिए मैं उसी साल गुवाहाटी, असम चला गया और अलग-अलग होटलों और रेस्टोरेंट में काम करना शुरू किया। मैंने संचालकों से कहा कि मुझे हिंदी भाषा सीखनी है, इसलिए कोई भी काम करने के लिए तैयार हूं। मेरी पहली नौकरी एक मिज़ो रेस्टोरेंट में थी, जहां मैंने रसोई में काम किया। चूंकि ये भाषा सीखने के शुरुआती दिन थे तो एक परिचित माहौल में रहना मेरे लिए मददगार साबित हुआ। मैं वहां काम करने वाले सभी लोगों से हिंदी में बात करने का आग्रह करता था, और उनसे कहता था कि अगर मैं कोई गलती करूं तो मुझे सुधार दें। धीरे-धीरे जब मैंने भाषा को समझना शुरू किया तो मुझे रसोई से हटा कर रिसेप्शन पर काम दे दिया गया क्योंकि इसमें ग्राहकों के साथ बातचीत शामिल थी, जिनमें से कई अन्य राज्यों के केवल हिंदी बोलने वाले टैक्सी ड्राइवर थे। जब मेरी भाषा में और सुधार हुआ, तो मैंने एक गैर-मिज़ो रेस्टोरेंट में शेफ (बावर्ची) की नौकरी कर ली, जिससे मुझे अच्छा वेतन मिला। भाषा जानने से मुझे एक अंजान शहर में भी आसानी से घूमने-फिरने में मदद मिली। बाहरी होते हुए भी मैं ऑटो ड्राइवरों और दुकानदारों से बात कर सकता था और इस बात का ध्यान रखता था कि कोई मुझसे ज्यादा पैसे न ले।

जब मिज़ोरम वापस आया, तो मैंने ऐसे कोर्स और फेलोशिप्स की तलाश शुरू की जो मुझे बेहतर कौशल सिखा सके, भले ही इसके बदले एक बार फिर घर से दूर रहना हो। मुझे साल 2022 में ग्रीन हब फेलोशिप के लिए चुना गया, जो पर्यावरणीय फिल्म निर्माण पर आधारित एक आवासीय कार्यक्रम है। एक बार फिर मैंने नियमित रूप से हिंदी बोलना शुरू किया। चूंकि कक्षाओं का संचालन अंग्रेजी और हिंदी में होता था, हिंदी जानने से मुझे अपने विचार और राय सही तरीके से व्यक्त करने में मदद मिली और फिल्म निर्माण के बारे में लोगों से बातचीत करने का मौका मिला। जब मैंने फेलोशिप पूरी की और मिज़ोरम से एक नए बैच के फेलो शामिल हुए, तो मैं उनके और मेंटर्स के बीच एक सेतु बन गया, जब तक कि वे फेलो हिंदी या अंग्रेजी में बातचीत करना नहीं सीख गए।

इस फेलोशिप ने मुझे डॉक्यूमेंट्री बनाने का तरीका सिखाया और वन्यजीव संरक्षण में मेरी रुचि भी बढ़ाई। इस तरह देखा जाए तो मैंने एक भाषा सीखी और इसने मुझे और कुछ नया सीखने का रास्ता दिखाया। आजकल, जब मैं डॉक्यूमेंट्री नहीं बना रहा होता, तो स्कूलों में पर्यावरण जागरूकता कार्यशालाएं आयोजित करता हूं। मैं हमारे गांव आने वाले वन्यजीव प्रेमियों के साथ भी जाता हूं और उनके लिए दुभाषिए का काम करता हूं, जिससे मुझे कुछ पैसे कमाने और ज्ञान का आदान-प्रदान करने का मौका मिलता है।

रोडिंगलिआन आईडीआर नॉर्थईस्ट मीडिया फेलो 2024-25 हैं।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।

अधिक जानें: जानें, कैसे मिज़ोरम का ब्रू समुदाय जो अपनी पारंपरिक कला खोता जा रहा है।

अधिक करें: लेखक से rdaapeto157@gmail.com पर संपर्क करें और उनके काम के बारे में अधिक जानें और उनका समर्थन करें।

महुआ: जलवायु संकट में भी बचा रह गया एक पारंपरिक भोजन

बंगाल में 1770 के अकाल में महुआ ने कई लोगों की जान बचायी थी। एक रिकॉर्ड के अनुसार, 1873-74 में बिहार के खाद्य संकट में भी ये महुआ ही था जिसने यहां के बहुत लोगों को जीवित रखा था। पहले गांव के लोग 3-4 महीने, एक समय महुआ खाकर रहते थे। इसमें पौष्टिकता भरपूर होती है। हमें लगता है कि यह सब अब पहले की बात है। महुआ का महपिट्ठा, लट्टा, महरोटी, खीर, भूंजा, मड़ुआ का लड्डू, नमकीन बनता है। ज़्यादातर लोग कहते हैं कि बचपन में उन्होंने इसे खाया है। लेकिन अभी भी ये जीवित हैं।

इस साल जून में, गया ज़िला के बाराचट्टी थाना के कोहबरी गांव में सहोदय ट्रस्ट के प्रांगण में, महुआ और मड़ुआ पर ग्रामीण लोगों के साथ एक प्रशिक्षण कार्यक्रम रखा गया, जिसमें डोभी प्रखंड के नक्तैया गांव की दो ग्रामीण महिलाओं – सुमंती देवी और कौशल्या देवी ने सहोदय आकर महुआ से कई तरह के स्थानीय व्यंजन पारंपरिक तरीके से बनाए और हम लोगों को सिखाये। उन्होंने महुआ का महपिट्ठा, महरोटी, लट्टा या लड्डू, खीर, और भूंजा बनाए। महपिट्ठा, और महरोटी, महुआ और मड़ुआ को आटा के साथ मिलाकर, दोनों ओर से पलास के पत्ते चिपकाकर, पानी के भाप से सिंझाये (पकाए)। उसी तरह महुआ को मिट्टी के चूल्हा पर मिट्टी के खपड़ी में सूखा भूनकर, और भूंजा तीसी को मिलाकर और कूटकर, लट्टा और लड्डू बनाये। उसी तरह महुआ को भूंजकर उसमें लहसुन और मिर्च मिलाकर भूंजा बनाया। दूध में महुआ को सिंझाकर लाजवाब खीर भी बनायी। हम सब लोगों और सहोदय के बच्चों ने भी इसे बनाने की प्रक्रिया सीखी। 

छतों पर सूखता महुआ_पारंपरिक भोजन
प्रतीकात्मक तस्वीर | चित्र साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

सहोदय की रेखा ने ग्रामीणों को मड़ुआ के आटा से लड्डू और नमकीन बनाना सिखाया। लड्डू पहले तीसी या घी में भूंजकर, गुड़ के पाग में बनाया जाता है। स्वाद के लिए मूंगफली का दाना मिला सकते हैं। नमकीन भी मड़ुआ के आटे को गूंथदकर छोटे-छोटे टुकड़े निमकी (नमकपारे) के आकार का काटकर, सेंधा नमक मिलाकर, तीसी के तेल में फ्राई किया जाता है। इस तरह आप एक पारंपरिक, पौष्टिक, और जैविक खाद्य पदार्थ को न केवल जीवित रख रहे हैं बल्कि इसका सेवन करके अपने स्वास्थ्य को संरक्षित और मजबूत भी कर रहे हैं और कई बीमारियों से अपने शरीर को बचा रहे हैं। 

जलवायु परिवर्तन और प्रकृति के मूल तत्वों के प्रदूषण के कारण मौसम और तापमान में अनुपातहीन बदलाव ने पूरी पृथ्वी पर जीवन को खतरे में डाल दिया है। कई जीव-जंतु तो विलुप्त हो चुके हैं। इसका असर हमारे स्वास्थ्य, व्यवसाय और खेती पर साफ दिखाई देता है। इसलिए हमें अपने जंगलों और स्थानीय जैव विविधता को बचाने के साथ-साथ इन्हें समृद्ध करने की हर कोशिश करनी चाहिए। हमें खेती के पुराने पारंपरिक जैविक तरीके अपनाने होंगे। प्राकृतिक स्थानीय फल-सब्जियों और औषधियों को फिर से अपने जीवन और समुदाय से जोड़ना होगा। रासायनिक या कृत्रिम रूप से संसाधित खाद्य पदार्थ अपनी थाली से हटाने होंगे। इन सब में हमारे पुराने पेड़ों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होगी। महुआ ऐसा ही एक पेड़ है जिससे हमारे लोग पहले लगभग 2-3 महीने तक प्राकृतिक, जैविक और पौष्टिक खाद्य पदार्थ फूल के रूप में सेवन करते थे, लेकिन अब भूलते जा रहे हैं या लगभग भूल ही गए हैं। इसके बीज के तेल से सब्ज़ी और अन्य व्यंजन बनाते थे। यह तेल गर्मी में लू से बचने में भी काम आता है। बहुत ही कम लोग अभी भी इस ज्ञान, अनुभव और कौशल का उपयोग करते हैं।

महुआ की दो प्रजातियां हैं। एक जो ज़्यादा मीठा होता है, उसको चुनकर और धूप में सुखाकर रखते हैं। व्यंजन बनाने से पहले उसको अंदर से साफ़ करते हैं। इसके फूल अप्रैल महीने में आना शुरू होते हैं और मई के पहले सप्ताह तक सारे फूल झड़ जाते हैं और पेड़ में नई पत्तियों के साथ फल आते हैं। ये फल जून में तैयार होते हैं और झड़ते हैं। इनके फल से बीज निकालकर उससे तेल निकाला जाता है। बीज को स्थानीय भाषा में डोरा कहते हैं। 

इस साल, पिछले साल की तुलना में फूल कम आये हैं। शायद पेड़-पौधे भी किसी साल अपने आप को आराम देते हैं या फिर मौसम में परिवर्तन का असर भी एक वजह हो सकता है। लेकिन सभी पेड़-पौधों की उत्पादन क्षमता पहले से घटी है, ऐसा यहां के स्थानीय किसान सोचते हैं। महुए के पेड़ भी पहले से घटे हैं और अब बहुत कम लोग इसे लगाते हैं क्योंकि ये फल-फूल देने लायक होने में 10-15 वर्ष का समय लेते हैं। महुआ के उपयोग और पेड़ों में कमी, पर्यावरण और जैव विविधता के लिए सकारात्मक नहीं है।

जेठ के महीने में एक त्यौहार आता है जिसका नाम सरहुल है जिसमें महुए के पेड़ की पूजा, महुए से ही बने व्यंजन से होती है। ये पर्यावरण-हितैषी संस्कृति भी अब विलुप्त होती जा रही है। मड़ुआ, मिलेट के जैसे महुआ से भी हमारे समाज, समुदाय, प्रकृति और स्वस्थ्य का गहरा रिश्ता रहा है जो कमजोर हो गया है। हम लोग इससे बने व्यंजन को अपनी थाली में शामिल कर न केवल अपने स्वास्थ्य को ठीक कर रहे हैं बल्कि अपने स्थानीय जैव विविधता पर निर्भर न जाने कितने जीव जंतुओं, और आब-ओ-हवा को जीवित, सुंदर और शुद्ध रखने में सहयोग कर रहे हैं। 

साथ ही, इससे हमारी आर्थिक व्यवस्था भी सुदृढ़ होगी क्योंकि हम लोग अपने घर की कई जरूरतों, जैसे खाना, तेल, लकड़ी, जानवरों के लिए चारा के लिए बाजार पर निर्भरता को कम करेंगे। महुए से कई जैविक खाद्य पदार्थ और व्यंजन बनाकर स्थानीय व्यवसाय करके, इसे एक टिकाऊ जीविका का साधन भी बना सकते हैं। इससे मानव और प्रकृति के अन्य जीवित तत्वों के बीच के सम्बन्ध समृद्ध होंगे और जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने में मददगार साबित होंगे।

यह लेख मूलरूप से युवानिया पर प्रकाशित हुआ था।