कल के लिए लड़ाई: आज़ादी से अब तक

आजादी के लिए नारे लगाते लोग_युवाओं का संघर्ष
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चित्र साभार: सुगम

माघ बिहू: आपसी विवाद निपटाने वाला एक त्यौहार जिसके सूत्रधार युवा हैं

गाना गाती हुई महिलायें-माघ बिहू
माघ बिहू एकता और उत्सव का समय है, एरातारी के लोग इस त्यौहार के दौरान शांति और सद्भाव पर जोर देकर इस भावना को मूर्त रूप देते हैं। | चित्र सौजन्य: करीना बोरदोलोई

असम में जनवरी के महीने में, फसल कटाई के मौसम के आखिरी दिन को माघ बिहू के रूप में मनाया जाता है, जिसे भोगली बिहू भी कहा जाता है। इस मौके पर, समुदाय के लोग साथ में मिलकर अच्छी उपज का जश्न मनाते हैं। इस दौरान असम के बरपेटा जिले के एरारतारी गांव में कुछ अनूठी परंपराएं भी निभाई जाती हैं।

त्यौहार की शुरुआत उरूका के साथ होती है, जो माघ बिहू की एक शाम पहले मनाया जाता है। इस रात, पूरा गांव एक आग के अलाव के चारों ओर इकट्ठा होता है और भव्य भोज का आनंद लेता है, जिसे भुज कहते हैं। समुदाय के भोज के लिए बांस, सूखे पत्तों और घास से बने भेलाघर या मेजी बनाई जाती है। भेलाघर एक तरह का अस्थायी ढांचा होता है, जिसमें बैठकर समुदाय के लोग बैठकर भोजन करते हैं। फिर अगली सुबह होते ही इन भेलाघरों को अच्छे और स्वस्थ जीवन की कामना करते हुए अग्नि देवता की प्रतीकात्मक प्रार्थना करते हुए जलाया जाता है।

माघ बिहू एकता और उत्सव का समय होता है, और एरारतारी के लोग इस त्यौहार में शांति और सौहार्द की भावना को शामिल कर इसे मनाते हैं। इसे आगे बढ़ाते हुए पूरे वर्ष, परिवार के बुजुर्ग पुरुषों पर परिवार में शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी होती है। लेकिन त्यौहार के दौरान, वे यह जिम्मेदारी युवा पीढ़ी को सौंप देते हैं, जिनका काम एरारतारी के सभी लोगों को एक साथ जोड़ने का होता है। यह इस क्षेत्र की सदियों पुरानी परंपरा है! माघ बिहू के दौरान, आमतौर पर 20 साल की उम्र के युवाओं पर शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी होती है जिसमें वे अपने समुदाय के बीच होने वाले झगड़ों को सुलझाने का काम करते हैं।

ये झगड़े आमतौर पर छोटी-मोटी बहसबाजी या गलतफहमियों के कारण हो जाते हैं। एरारतारी के निवासी राजीव दास कहते हैं, “एक बार, कोई अपने पड़ोसी से थोड़ी चीनी उधार लेना चाहता था। जब पड़ोसी उन्हें चीनी नहीं दे पाया, तो वह व्यक्ति नाराज़ हो गया। दूसरी बार, एक परिवार के परिसर में लगे पेड़ की एक बड़ी शाखा दूसरे परिवार के घर में गिर गई। इससे बरामदा टूट गया गया, जिससे उनमें झगड़ा हो गया। इस तरह की छोटी-मोटी बेवकूफी भरी बहसबाजी उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी में होती रहती है।”

भुज के बाद, जब रात को सब लोग सो जाते हैं, तो वहां के लड़के भेलाघर से बाहर निकलकर चुपचाप उन घरों में छोटे-छोटे सामान जैसे चप्पल और बर्तन आपस में बदल देते हैं जिनके मालिकों के बीच झगड़ा चल रहा होता है। अगले दिन, घरों में सामान की गुमशुदगी के कारण अफरा-तफरी और हंसी का माहौल बन जाता है , क्योंकि लोग अपने खोए हुए सामान की तलाश कर रहे होते हैं। ये सारी गतिविधियां इसलिए की जाती हैं ताकि लोग आपस के विवादों को भुलाकर फिर से बातचीत शुरू कर पाएं। 

ऐसा ही मामला दो परिवारों के आठ साल के दो लड़कों के बीच हुए झगड़े से जुड़ा है। झगड़े की वजह से उनके माता-पिता ने एक-दूसरे पर बच्चे की खराब परवरिश का आरोप लगाया। इसका नतीजा यह हुआ कि दोनों बच्चों के परिजनों ने लगभग चार महीने तक एक-दूसरे से बात नहीं की। उरुका की रात, युवाओं ने दोनों परिवारों की एक कुर्सी और एक चावल मिल की अदला-बदली कर दी। अगली सुबह, उन्हें किसी से मालूम चल गया कि उनका सामान कहां हैं। इसके लिए जब दोनों माता-पिता आपस में मिले और इस लड़ाई पर खूब हंसे, एक दूसरे से माफ़ी मांगी और जो हो गया उसे भूलकर आगे बढ़ने का फैसला किया। एरारतारी के निवासी दीप दास कहते हैं, “छोटे-मोटे विवादों को सुलझाना और लोगों के बीच सामंजस्य बढ़ाना अच्छा लगता है।” 

करीना बोरदोलोई, प्रोजेक्ट डीईएफवाई में डिजास्टर प्रिपेयर्ड कम्युनिटी स्पेसेज़ (डीआईएसपीईसीएस) कार्यक्रम की प्रोग्राम एसोसिएट हैं।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।

अधिक जानें: राजस्थान का एक इलाका, जहां बेटियां घोड़ी चढ़ रही हैं।

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कैसे ग्रामीण पुस्तकालय ज्ञान पर विशेषाधिकार को चुनौती दे रहे हैं

साल 2020 में, मैंने बिहार के किशनगंज जिले में सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन के ज़रिए लाइब्रेरी पहल की शुरुआत की थी। 25 लाख की आबादी वाले इस ज़िले में 65% पसमांदा मुसलमान रहते हैं। हमारे जिले के लोग देश के अलग-अलग शहरों में प्रवासी मजदूर के तौर पर काम करते हैं। यहां पुस्तकालय शुरू करने की प्रेरणा मुझे अपने साथ हुई कुछ दिलचस्प घटनाओं से मिली। 

फ़र्ज़ कीजिए, आप अपने शहर में एक साहित्यिक किताब ढूंढ़ने निकलें और किताब के नाम पर केवल ‘जीजा साली की शायरी’ वाली किताब मिले तो आपको कितनी निराशा होगी? हमारी लाइब्रेरी पहल की पहली प्रेरणा यही निराशा थी। हमारे इलाके की दुकानों में न तो किताबें थी और न ही शहर में कोई पुस्तकालय कि जहां बैठकर पढ़ा जा सके।  

साल 2020 में लगे लॉकडाउन के दौरान मैंने नौकरी छोड़ लाइब्रेरी पहल के विचार पर काम करना शुरू किया। लेकिन हमारी सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि न तो हमारे पास कोई संसाधन थे और न ही कोई जगह। ऐसे में एक स्कूल ने हमें मिट्टी का एक कच्चा कमरा लाइब्रेरी शुरू करने के लिए दिया। इस तरह 26 जनवरी 2021 को ‘फातिमा शेख लाइब्रेरी’ के साथ हमारी लाइब्रेरी पहल की शुरुआत हुई जो 19वीं सदी की समाज-सुधारक और शिक्षाविद फातिमा शेख के नाम पर है। पहले दिन से ही हमें बच्चों और युवाओं में पुस्तकालय के प्रति आकर्षण दिखने लगा। लेकिन जल्द ही हमें अपनी सीमाओं का अंदाज़ा होने लगा। मिट्टी के कच्चे कमरे चल रही फातिमा शेख लाइब्रेरी आठ महीने के अंदर ढ़हने की कगार पर आ गई। हमारे काम से प्रभावित कुछ साथियों ने चंदा जमा किया और एक पक्के कमरे की व्यवस्था की। इसी तरह की फंडिंग की मदद से हमने किशनगंज की बेलवा पंचायत में अपने दूसरे पुस्तकालय ‘सावित्री बाई फुले लाइब्रेरी’ की शुरुआत की। इनके साथ, सीमांचल लाइब्रेरी फ़ाउंडेशन वंचित समुदाय के बच्चों के लिए एक स्कूल भी चला रहा है।

स्थानीयता हमारे लिए एक चुनौती और मौका दोनों रही है। उदाहरण के लिए, एक बार भगत सिंह की किताब ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ से स्थानीय समुदाय के कुछ लोग आहत हो गए थे। लेकिन मैं खुद स्थानीय सुरजापूरी समुदाय से आता हूं। इस वजह से आहत हुए लोग चाह कर भी कुछ नही कर पाए। इस तरह मुझे स्थानीय होने का फायदा मिल गया। लेकिन कई बार यह काम में रुकावट भी बना है। जैसे जब हमने लाइब्रेरी आंदोलन की शुरूआत की तो स्थानीय बुद्धिजीवी और लोकल मीडिया ने ध्यान ही नहीं दिया। हम किताबों के ज़रिये समानता और समता की बातें करते तो लोग हमें आवारा, बेकार और किताब-बेचा बोलते थे। स्थानीय होने की वजह से लोग हमें और हमारे काम को कमतर आंकते थे। 

कक्षा में पढ़ते बच्चे_ग्रामीण लाइब्रेरी
हमारे इलाके की दुकानों में न तो किताबें थी और न ही शहर में कोई पुस्तकालय कि जहां बैठकर पढ़ा जा सके। | चित्र साभार: साक़िब अहमद

तोड़ने होंगे मठ और गढ़ सारे 

एक पुस्तकालय कार्यकर्ता के तौर पर जब भी मैं ग्रामीण पुस्तकालय के बारे में सोचता हूं तो वेणु गोपाल की यह कविता  याद आती है – “न हो कुछ भी, सिर्फ सपना हो, तो भी हो सकती है शुरुआत, और वह एक शुरुआत ही तो है, कि वहां एक सपना है।” पुस्तकालय आन्दोलन कोई फिजिक्स का नियम नहीं है जो पूरी दुनिया में एक ही तरह से लागू हो। अंतर्राष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ लाइब्रेरी एसोसिएशन (आईएफएलए) पुस्तकालय के लिए खास मापदंडों का पालन करती है। आईएफएलए के अनुसार एक सार्वजनिक पुस्तकालय में कम से कम 10 हज़ार किताबें होने चाहिए। पुस्तकालय में पर्याप्त और आरामदायक बैठने की व्यवस्था, अध्ययन कक्ष, कंप्यूटर लैब, और अन्य आवश्यक सुविधाएं होनी चाहिए।

दिल्ली स्थित द कम्युनिटी लाइब्रेरी प्रोजेक्ट जैसी बड़ी संस्था आईएफएलए के मापदंडों का बहुत हद तक अनुसरण करती है। बड़े शहरों के लिए ये मापदंड सार्थक हो सकते हैं लेकिन ग्रामीण पुस्तकालयों को इन पर मापना ठीक नही है। 

पुस्तकालय मुफ्त ही नहीं बल्कि जाति, लिंग, धर्म, वर्ग की सीमाओं से भी आजाद होने चाहिए। 

हमारी लाइब्रेरी पहल की शुरुआत एक बुकशेल्फ और कच्चे कमरे से हुई थी। उसी तरह हिंदी पट्टी में मौजूद बहुत सारे मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालयों की शुरुआत इसी तरह से हुई है। इनके पास न तो इन्फ्रास्ट्रक्चर और न ही आधारभूत संसाधन मौजूद हैं। लेकिन इसके बावजूद ये अनूठे तरीकों से लोगों तक किताबें पहुंचाने का काम कर रहे हैं। इलाहाबाद शहर से 45 किलोमीटर दूर एक गांव में सावित्री बाई फुले पुस्तकालय एंड फ्री-कोचिंग के संचालक अमित गौतम कहते हैं कि “मैंने 2019 में प्राकृतिक वातावरण जैसे तालाब, पेड़ के नीचे बच्चों से बातें करना शुरू किया था। शुरू- शुरू में काफी दिक्कतें आई। लगभग एक साल तक खुली जगह में ही मैं बच्चों को पढ़ाता रहा। एक साल बाद बहुत मुश्किलों से हम एक पक्के कमरे का इंतजाम कर सके जहां आज हमारा पुस्तकालय चल रहा है।” 

स्नेहजोड़ी संस्था, जो गुवाहाटी के एक मुहल्ले में पुस्तकालय चला रहा है, की संचालिका रेशमा कहती हैं कि “हमारे पुस्तकालय की शुरुआत रेलवे प्लेटफार्म पर मौजूद बच्चों और स्टेशन के नज़दीक बसी झुग्गियों से हुई थी। लगभग एक साल बाद अपने साथियों की मदद से हमने अपने घर की छत पर एक कच्चा कमरानुमा ढांचा खड़ा किया जहां हमारा पुस्तकालय चल रहा है।”

उत्तराखंड में भी कुछ लोग और संस्थाएं ग्रामीण पुस्तकालय को लेकर नये प्रयोग कर रहे हैं। चीन-नेपाल से सटे पिथौरागढ़ जिले में आरंभ स्टडी सर्कल लगातार कुछ नया करने की कोशिश कर रहा है। इसके सदस्य महेंद्र कहते हैं, “शुरुआत में पुस्तकालय के लिए कोई जगह न होने के चलते हमने किताबों को घर-घर पहुंचाने का विकल्प चुना। हमने एक लिस्ट बनाई जिसे सार्वजनिक जगहों पर टांग दिया। जिसे भी किताबों की जरूरत होती वह ख़ुद हमसे संपर्क करता था और हम वह किताबें उसके घर पहुंचा देते थे। 2019 में जाकर हमने पुस्तकालय के लिए एक छोटी सी जगह ली। लेकिन लोग यहां बैठकर पढ़ नहीं पाते हैं। फ़िलहाल हमारे पास और संसाधन भी नही हैं इसलिए किताबों को घर-घर पहुंचाना ही हमारे पुस्तकालय का मॉडल है।”  

गतिविधि करते बच्चे_ग्रामीण लाइब्रेरी
सरकार को ग्रामीण पुस्तकालय के लिए एक अलग मापदंड बनाना चाहिए। | चित्र साभार: साक़िब अहमद

उत्तरखंड के ही अल्मोड़ा जिले में एक घुमंतू पुस्तकालय चल रहा है जिसका नाम ग्वाला कक्षा है। ग्वाला कक्षाओं के संचालक भास्कर जोशी बताते हैं, “जब बच्चे मवेशियों को चराने बीहड़ों में जाते हैं तो उनके पास बहुत खाली वक़्त होता। ग्वाला कक्षाएं बनाकर हमने एक मॉडल विकसित किया है जिसमें बच्चे खाली वक़्त में पढ़ पाते हैं।” राजस्थान में स्थित स्कूल फॉर डेमोक्रेसी का पुस्तकालय मॉडल भी ऐसा ही है। जहां बच्चे सामुदायिक भवन, पेड़ के नीचे, गांव के चबूतरे में पुस्तकालय चला रहे हैं। कवि और पुस्तकालय कार्यकर्ता महेश पुनेठा कहते हैं कि “ग्रामीण पुस्तकालय इन्फ्रास्ट्रक्चर के सहारे नहीं बल्कि उद्देश्य के आधार पर चल रहे हैं। पुस्तकालय का उद्देश्य बड़ा होना चाहिए। इन्फ्रास्ट्रक्चर इतना अहम नहीं है। हमारा उद्देश्य बच्चों में पढ़ने की आदतें विकसित करना, उन्हें साहित्य से जोड़ना और एक जगह लाकर उनसे संवाद करना है।” 

स्नेहजोड़ी संस्था की संचालिका रेशमा कहती हैं, “शुरू-शुरू में हमारी लाइब्रेरी में सभी तबके के बच्चे आते थे। लेकिन कुछ वक़्त बाद ऊंची जातियों और अंग्रेजी माध्यम के बच्चों ने लाइब्रेरी आना छोड़ दिया। बच्चों के लाइब्रेरी न आने का तो मैं सही-सही कारण नहीं बता सकती हूं। लेकिन जो मैंने गौर किया है, उस आधार पर कह सकती हूं कि इन बच्चों का पारिवारिक माहौल ऐसा है कि वे ओबीसी, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों के साथ नही बैठना चाह रहे हैं।” भेदभाव, छुआछूत और ऊंच-नीच की इस खाई को कम करने के लिए सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन ने ‘साथ में खाना’ नामक एक पहल की भी शुरुआत की है। बच्चे अपने घरों से खाना लाते हैं और एक जगह इकट्ठे होकर मिल-बांटकर खाते हैं। इस पहल को लेकर कमाल की प्रतिक्रियायें आ रही हैं। खाने के बहाने बच्चे अपने अधिकारों को जान रहे हैं और जाति, धर्म, लिंग और सभी तरह के भेदभाव पर खुल कर बातें कर रहे हैं।

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए सरकार को ग्रामीण पुस्तकालय के लिए एक अलग मापदंड बनाना चाहिए। लेकिन सरकार की प्राथमिकताओं में ग्रामीण पुस्तकालय आता ही नहीं है। सरकार, मीडिया और बड़े गैर-सरकारी संस्थाओं की नज़र शहरों के परिधि से बाहर निकल ही नहीं पाती है। इसलिए ये लोग ग्रामीण पुस्तकालय से जुड़े पाठकों की अनदेखी कर रहे हैं। दरअसल ग्रामीण पुस्तकालय तय मापदंड चुनौती दे रहे हैं और अपने लिए खुद मापदंड बना रहे हैं। जब हम इस देश के पाठकों की गणना करते हैं तो अक्सर ग्रामीण क्षेत्र के पाठकों को, खासकर बच्चों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। ऐसा क्यों माना जाता है कि पुस्तकालय केवल बड़े शहरों में होने चाहिए। पुस्तकालय की चौखट को पार करने के लिए मोटी फीस की ज़रूरत क्यों पड़ती है? पुस्तकालय मुफ्त ही नहीं बल्कि जाति, लिंग, धर्म, वर्ग की सीमाओं से भी आजाद होने चाहिए। 

पुस्तकालयों की दुनिया ग्रामीणों के लिए अहम  

“ये किताबें तो किसी दूसरी दुनिया की लगती हैं” पुस्तक प्रदर्शनी के दौरान सात वर्षीय औरंगजेब ने मुझे जब यह बात कही तो मुझे एहसास हुआ कि किताबें ग्रामीण बच्चों से हमेशा ही दूर रही हैं। अब जब बच्चे इन किताबों को देख रहे है तो उन्हें यह दूसरी दुनिया की लगती हैं।  

आरंभा स्टडी सर्किल के सदस्य महेंद्र कहते हैं, “महिलाएं सामाजिक उदासीनता का शिकार रोज ही बन रही हैं लेकिन किताबें इनके संघर्ष को शब्द देती है। निवेदिता मेनन की किताब सीइंग लाइक अ फेमिनिस्ट के जरिए जब हम परिवार और महिलाओं से जुड़े प्रश्नों को कैसे समझा जाए पर चर्चा करते हैं तो लड़कियों में बदलाव साफ़ नज़र आती है। 

हिंदी पट्टी में चल रहे अलग-अलग मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालय बिना किसी तय मापदंड के नई परिभाषाएं गढ़ रहे हैं।

“भैया जिस तरह आप लोग हमें बराबर मानकर मोहब्बत से बातें करते हैं। हमारी हर एक बात को सुनते हैं। दुनिया हमारे साथ ऐसा क्यों नही करती है?” ये बातें जब सावित्री बाई फुले लाइब्रेरी में आने वाली 13 साल की फ़रीना बोलती है। या फिर जब फातिमा शेख़ लाइब्रेरी की 14 वर्षीय आयशा कहती है कि “पुरुषों को यह अधिकार किसने दिया कि वह हमारे घर आकर चाय पियें , हमें देखे और कोई कमी निकालकर रिजेक्ट कर दें।” तो इस में नारीवादी नजरिया छुपा हुआ है। हमारी तीनों लाइब्रेरी में आने वालों में 70% से ज्यादा लड़कियां हैं। पुस्तकालय लड़कियों के लिए एक सुरक्षित जगह है जहां वे खुद अपने अंदर झांक पाती हैं। दरअसल पुस्तकालय एक नॉन-जजमेंटल जगह है जहां बच्चे अपने खास व्यक्तित्व के साथ आते हैं। पुस्तकालय बच्चों में ताकतवर होने का भाव जगाता है।

पुस्तकालय का पाठ्यक्रम स्कूली पाठ्यक्रम की तरह बोझिल नहीं है। यहां बच्चे शब्दों को सिर्फ सुनते ही नहीं बल्कि उसे देखते भी हैं और उसके साथ खेलते भी हैं। यहां होने वाली कहानियां और गतिविधियां बच्चों को सिर्फ साक्षर ही नहीं बल्कि बेहतर इन्सान भी बनाने में मदद करती हैं।

किशनगंज के पोठिया में चल रहे फातिमा शेख़ लाइब्रेरी की 15 वर्षीय दलित लड़की भूमिका देवी (बदला हुआ नाम) डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की किताब ‘अछूत कौन थे’ पढ़ने के बाद कहती है, “भैया हमारे साथ इतना भेदभाव हो रहा है, मुझे तो पता ही नहीं था। ये सब तो मैं बचपन से देख रही हूं। अब जाकर मुझे पता चला कि है कि हमारे साथ भेदभाव हो रहा है।”  एक लाइब्रेरी कार्यकर्ता के तौर पर अपनी लाइब्रेरी की किसी बच्ची से ये बात सुनना बहुत ही भावुकता भरा पल था। हमारा समाज धर्म, जाति, लिंग, वर्ग के आधार पर बंटा हुआ है। किताबें इसी खाई को लगातार भरने की कोशिश कर रही हैं। 

हिंदी पट्टी में चल रहे अलग-अलग मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालय बिना किसी तय मापदंड के नई परिभाषाएं गढ़ रहे हैं। आज भी शिक्षा पर कुछ खास लोगों का ही वर्चस्व है। मुफ्त ग्रामीण पुस्तकालय इस वर्चस्व को चुनौती दे रहा है।

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सरल-कोश: विज़न और मिशन

विकास सेक्टर में तमाम प्रक्रियाओं और घटनाओं को बताने के लिए एक ख़ास तरह की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाता है। आपने ऐसे कुछ शब्दों और उनके इस्तेमाल को लेकर असमंजस का सामना भी किया होगा। इसी असमंजस को दूर करने के लिए हम एक ऑडियो सीरीज़ ‘सरल–कोश’ लेकर आए हैं जिसमें आपके इस्तेमाल में आने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्दों पर बात करने वाले हैं।

विकास सेक्टर में किसी भी संस्था के लिए उसका विज़न और मिशन कथन बहुत मायने रखता है। अक्सर यह आपको संस्था की वेबसाइट पर स्पष्ट रूप से लिखा दिखाई देता है।

आपकी संस्था का विज़न, उसके आने वाले लक्ष्यों और उन आकांक्षाओं पर बात करता है जिससे पता चलता है कि संस्था भविष्य में अपने काम से किस तरह का प्रभाव डालना चाहती है। वहीं, दूसरी ओर संस्था का मिशन, उसके मूल्यों और उद्देश्यों को दर्शाता है। यह बताता है कि कोई संस्था क्या करती है, किन लोगों के लिए काम करती है और वह अपने लक्ष्यों को कैसे प्राप्त करेगी।

उदाहरण के लिए, अगर आप वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ की वेबसाइट पर देखें तो उनका विज़न एक ऐसे भविष्य का निर्माण करना है जिसमें लोग प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रहें। वहीं, उनके मिशन पर गौर करें तो यह कहता है कि संस्था वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड के ज़रिये प्रकृति का संरक्षण करना और धरती पर जैव विविधता से जुड़े गंभीर खतरों को कम करना चाहती है।

अगर आप यह अच्छी तरह से जान लेंगे कि विज़न और मिशन क्या है, तो आप आसानी से समझा पाएंगे कि आपकी संस्था अभी कहां है तथा आपकी टीम क्या हासिल करना चाहती है। जब आपकी संस्था में सबकी एक जैसी समझ होगी तो इसका सकारात्मक प्रभाव न केवल कामकाज के तरीक़े पर पड़ेगा बल्कि इससे काम की उत्पादकता भी बढ़ेगी।

अगर आप इस सीरीज़ में किसी अन्य शब्द को और सरलता से समझना चाहते हैं तो हमें यूट्यूब के कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएं।

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सामाजिक बदलाव लाने में युवाओं की रुचि कैसे जगाएं?

किसी कार्यक्रम के लिए युवाओं में रुचि पैदा करना और उनकी सहभागिता सुनिश्चित करना, किसी समाजसेवी संगठन के लिए आसान काम नहीं है। यहां प्रोग्राम डिज़ाइन के एक हिस्से के तौर पर, एक ताकतवर और प्रभावी संदेश (नरेटिव) की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। यदि कार्यक्रम का उद्देश्य और युवाओं को उससे होने वाले लाभ को लेकर एक स्पष्ट और संक्षिप्त विचार हो तो एक ऐसा संदेश तैयार किया जा सकता है। हालांकि महत्वपूर्ण होने के बाद भी इस संदेश को कार्यक्रम के अन्य पहलुओं के सामने दरकिनार कर दिया जाता है। इसके कारण युवाओं की उतनी उत्साहपूर्ण प्रतिक्रिया नहीं मिल पाती है।

कम्यूटिनी – द यूथ कलेक्टिव के सह-संस्थापक और वार्तालीप कोअलिशन के सदस्य, अर्जुन शेखर बताते हैं कि कैसे एक मज़बूत और समाधान केंद्रित संदेश, युवा सहभागिता को बढ़ा सकता है। वे जलवायु कार्रवाई का उदाहरण देते हैं। अर्जुन कहते हैं कि “वर्तमान में जलवायु परिवर्तन पर हो रही चर्चा भयावह लग सकती है, खासतौर पर युवाओं के लिए क्योंकि उन्हें ही भविष्य में इसके प्रभावों का सामना करना है। हम समाचारों में सुनते हैं कि हम सबसे गर्म साल का अनुभव कर रहे हैं, धीरे-धीरे यह स्थिति और खराब होती जाएगी—यह हकीकत डरावनी लगती है। यह जानकारी जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली समस्या, लागत और नुकसान को उजागर करते हुए, उन्हें एक अंधकारमय और कष्टपूर्ण भविष्य का चित्र दिखाती है। यह युवाओं को कार्रवाई करने के लिए प्रेरित नहीं करती, बल्कि उन्हें निराशा का अनुभव कराती है। हमें समाधान केंद्रित संदेशों की जरुरत है जो उन्हें इस मुद्दे को समझने और सुलझाने में मदद करे।’

एक ऐसा संदेश जो आने वाले कल के लिए उम्मीद जगाता हो और युवाओं में उद्देश्य और सहनशीलता की भावना पैदा करता हो। कम्यूटिनी के मुख्य संचालन अधिकारी और वार्तालीप के सदस्य राजेश एन सिंह मेहर कहते हैं कि “अगर कोई सामाजिक मुद्दा, एक रोमांचक अवसर के रूप में प्रस्तुत किया जाए जो उन्हें एक बढ़िया करियर बनाने में मदद कर सकता है। इसके साथ ही, अगर ये उनके जीवन से जुड़ा हो तो वे इससे जुड़ेंगे।” 

एक युवा केंद्रित कार्यक्रम डिज़ाइन बनाइए

किसी कार्यक्रम को युवाओं के लिए प्रासंगिक बनाने के लिए, कार्यक्रम डिज़ाइन में उनकी ज़रूरतों को शामिल करना ज़रूरी है। अक्सर संगठन अपने कार्यक्रम एजेंडा को भागीदारों पर थोपते हुए से लगते हैं, क्योंकि फंडर्स ऐसा चाहते हैं। अर्जुन ज़ोर देकर कहते हैं कि शुरूआत से ही युवाओं की ज़रूरतों को पहचानना और उन्हें कार्यक्रम डिज़ाइन में शामिल न किए जाने के चलते ही वे इसमें रुचि नहीं लेते हैं। असल में, जब युवाओं को नेतृत्व करने के लिए शामिल किया जाता है तो इससे जल्दी परिणाम मिलते हैं।

इस तरह, संदेशों को – चाहे वह पोस्टर हो, किसी गतिविधि का बुलावा या फिर आवेदन की मांग, हमेशा यह सरलता से बताने वाला होना चाहिए कि किसी युवा को उसमें क्यों रुचि लेनी चाहिए।

1. उन्हें लगना चाहिए कि यह उनका कार्यक्रम है

अर्जुन ज़िक्र करते हैं कि उन्हें बहुत पहले यह समझ आ गया था कि युवा आमतौर पर चार चीजों से जुड़े होते हैं: करियर, शिक्षा, दोस्त और परिवार। इनमें से किसी भी जगह पर उनके पास फैसले लेने की क्षमता (या एजेंसी) नहीं होती है। नियम हमेशा उनके लिए बनाए जाते हैं, उनके द्वारा नहीं। “उन्हें एक ऐसा पांचवां स्थान चाहिए जहां उन पर दुनिया बदलने का दबाव न हो। यहां वे खुद को बदल सकते हैं और आपसी बातचीत के जरिए अपनी मान्यताएं तय कर सकते हैं, जिससे उन्हें जवाबदारी की भावना महसूस होगी।”

अर्जुन आगे कहते हैं कि ऐसी जगहें युवाओं को अपने खुद के माइक्रो-नरेटिव बनाने में भी मदद करती हैं। उनके अनुसार, हम जो समाचार देखते-सुनते और अखबारों में पढ़ते हैं, वे मुख्यधारा में चल रही बातें और विचार होते हैं। इसके विपरीत, माइक्रो-नरेटिव तब होता है जब लोग अपने व्यक्तिगत अनुभवों को कहानियों में बयान करते हैं और दूसरे उनसे कुछ करने के लिए प्रेरि​त होते हैं। दूसरों को शामिल करने और उन्हें रास्ता दिखाने वाली आत्मनिर्भरता से भरी यह भावना बहुत जरूरी है। 

2. आंकड़ों की बजाय अनुभव को प्राथमिकता देना

युवा तब ज्यादा प्रेरित होते हैं जब वे किसी मुद्दे से व्यक्तिगत रूप से जुड़ाव महसूस करते हैं। अर्जुन कहते हैं कि “कम्यूटिनी कभी आंकड़ों के सहारे यह नहीं कहता है कि किसी युवा को कार्यक्रम में क्यों शामिल किया जाना चाहिए? इसकी बजाय, हम उस मुद्दे को युवाओं के जीवन से जोड़ते हैं।” राजेश बताते हैं कि उनके “चेंजलूम्स” प्रोग्राम में एक ‘इर्मशन फेज़’ होता है जिसमें युवाओं को उन जगहों पर ले जाते है जो जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हैं या भीषण गर्मी में उन्हें यात्रा करवाई जाती है।

हम चिंतनशील कामों और क्षमता निर्माण को बढ़ावा देते हैं जिससे वे सोचना सीख सकें।

इससे उन्हें मुख्यधारा में चल रही बातचीत को वास्तविक अनुभव के साथ जोड़कर यह समझने में मदद मिलती है कि उनके आसपास के वातावरण में जलवायु परिवर्तन का क्या असर पड़ रहा है। इस जागरूकता के साथ, युवा वापस आकर समस्याओं के समाधान खोजने के बारे में सोचते हैं और ऐसे तरीके तलाशते हैं जो उनके समुदाय के लिए हितकारी हो।

3. जरुरतों की पहचान और समाधान

• वित्तीय जरुरत: राजेश अपने अनुभव बताते हैं कि युवाओं के लिए वित्तीय ज़रूरतें बाकी सभी चीज़ों से ज़्यादा अहमियत रखती हैं। वे कहते हैं कि “संगठन चाहे किसी भी सामाजिक मुद्दे पर काम कर रहे हों, उन्हें अपने हस्तक्षेप कार्यक्रम में आजीविका को शामिल करना ज़रूरी है। इसका मतलब यह नहीं है कि युवा सक्रिय नागरिकता या लिंग, जलवायु परिवर्तन आदि के बारे में सीखने में रुचि नहीं रखते हैं। बल्कि, आर्थिक सहायता उनके लिए शिक्षा में किया जाने वाला एक निवेश हो सकता है। कपड़े, मग या कोई तोहफा उनके लिए प्रोत्साहन का काम नहीं करता, यह हम करके देख चुके हैं।

वहीं, आर्थिक प्रोत्साहन एक अल्पकालिक आर्थिक सहायता है लेकिन आर्थिक समाधानों को लंबे समय के लिए भी अपनाया जा सकता है। अर्जुन कहते हैं कि वे जलवायु कार्रवाई पर काम करते हुए युवाओं को पर्यावरण सहज नौकरियां (ग्रीन जॉब्स) करने की जानकारी और प्रोत्साहन देते हैं। राजेश बताते हैं कि वे युवाओं को उद्योग लगाने के दौरान पर्यावरण के लिए बने अनुकूल सिद्धांतों का ध्यान रखने और पर्यावरणीय लाभ को बढ़ावा देने वाले प्रोजेक्ट यानी ग्रीन मनी के बारे में बताते हैं।

• मनोवैज्ञानिक जरुरत: राजेश कहते हैं कि युवा अपने साथियों और परिवार की तरफ से मिल रहे सामाजिक दबाव से परेशान होते हैं, जो उनके मानसिक स्वास्थ्य और बेहतरी पर भी असर डालता है। “इस उम्र में उनकी पहचान के कई पहलू मजबूत होने लगते हैं और वे अपने जीवन के दूसरे पहलुओं जैसे जाति, धर्म, ओरिएंटेशन वग़ैरह पर अपनी कोई राय बनाना शुरू कर देते हैं। (परिवार पर) निर्भरता से आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे युवा के लिए संगठनों को ऐसे स्थान बनाने चाहिए जिसके माहौल में उन्हें यह ना सोचना पड़े कि बाक़ी लोग उनके बारे में क्या सोचेंगे और वे बिना किसी तनाव के अपने विचार और भावनाएं जाहिर कर सकें।”

अर्जुन युवाओं में आत्मसम्मान पैदा करने और ख़ुद का महत्व समझने में काम आने वाले मनौवैज्ञानिक साधनों के महत्व को सामने लाते हैं। “हम चिंतनशील कामों और क्षमता निर्माण को बढ़ावा देते हैं जिससे वे यह सोचने में सक्षम हो सकें कि किसी विशेष मुद्दे को लेकर नेतृत्व और बदलाव लाने वाली भूमिका कैसे निभाई जा सकती है।

आसमान की ओर देखती एक लड़की_युवा
युवाओं में बदलाव लाने के बजाय कार्यक्रमों को उनके साथ गहरे संबंध बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। | चित्र साभार: मीना क़ादरी / सीसी बीवाय

एक मज़बूत डिज़ाइन के साथ, अपना संदेश तैयार करें

1. सामाजिक परिवर्तन को संभव बनाना

सामाजिक बदलाव को प्राथमिकता के तौर पर सोचना हमेशा मुश्किल होता है। युवा पहले से ही करियर बनाने, परिवार के प्रति जवाबदेह होने, अपनी संस्कृति में शामिल होने और अपने दोस्तों के साथ रोमांचक अनुभव करने जैसी कई इच्छाएं रखते हैं। सामाजिक बदलाव में योगदान देना उनसे एक अतिरिक्त अपेक्षा करने जैसा है और इस अपेक्षा के साथ कहानी को आगे बढ़ाना कारगर नहीं होता है। अर्जुन इसे अपनी एक पहल जिसका नाम स्माइल (स्टूडेंट्स मोबिलाइजेशन इनिशिएटिव फॉर लर्निंग थ्रू एक्सपोजर) है, के उदाहरण से समझाते हैं। वे ​कहते हैं कि “युवाओं को जमीनी स्तर के संगठनों और सामाजिक आंदोलनों में इंटर्न के तौर पर रखा जाता है, ताकि वे जमीनी हकीकतों का सामना कर सकें और कुछ सीख सकें। लेकिन उन्हें अपने परिजनों को यह समझाना मुश्किल लगता है कि ‘हम ग्रामीण इलाकों का दौरा क्यों करना चाहते हैं।’ पहला सवाल जो पूछा जाता है, वह है, ‘इससे आपको क्या मिलेगा?’ इसलिए हमने पिच बदल दी। हमने व्यक्ति के सीखने पर ध्यान केंद्रित किया। जब हम उनसे पूछते है कि क्या वे नेतृत्व क्षमता का निर्माण करना चाहते हैं और अपने सोच-विचार को मज़बूत बनाना चाहते हैं तो वे भाग लेने में ज्यादा रुचि दिखाते हैं।”

2. इसे मज़ेदार बनाएं

राजेश इस बात पर ज़ोर देते हैं कि युवाओं के लिए किसी भी अनुभव को रोमांचक और मज़ेदार बनाना ज़रूरी है। सामाजिक मुद्दों के बारे में बहुत सी जानकारी है जो हर किसी को पता होनी चाहिए, लेकिन इसके बारे में सीखना बहुत उबाऊ या समय लेने वाला है। वे कहते हैं कि “उदाहरण के लिए, हमारे एक कार्यक्रम में संविधान के महत्व को उजागर किया जाता है, लेकिन इस विषय को रोचक कैसे बनाया जाए? उन्होंने इसके लिए गेम आधारित गतिविधियां और चैंपियनशिप बनाई जिसमें विभिन्न क्षेत्रों की टीमें संविधान के बारे में सबसे ज्यादा जानकारी दिखाने के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं।”

युवा की भावनाओं को शामिल करना एक स्थायी प्रभाव और सार्थक संबंध बनाने की कुंजी है।

राजेश के मुताबिक यह गेमिंग अनुभव उन्हें आकर्षित करने का एक तरीका है। इसके बाद, वे उन्हें जरुरी कौशल और तरीके निकालने में मदद करते हैं। बाकी दूसरे समूहों को जानबूझकर एक—दूसरे से मिलाया जाता है ताकि प्रतिभागियों को अलग-अलग दृष्टिकोण और वास्तविकताओं का अनुभव हो। इससे उन्हें बंधुत्व, समानता और न्याय जैसे बुनियादी मूल्यों को समझने में मदद मिलती है। इसके अलावा, प्रतिभागियों को अपने माता-पिता, शिक्षकों और दूसरे जरुरी लोगों को भी साथ लाने के लिए कहा जाता है, जिससे एक अनोखा सांस्कृतिक भाव पैदा होता है जो परिचित और अपरिचित को एक साथ लाता है। इस तरह, सामाजिक मुद्दों को मजेदार और आकर्षक तरीके से पेश करने से युवाओं में सक्रियता और उत्साह लाता है।

3. समानुभूति के साथ नेतृत्व करें

अर्जुन इस बात पर जोर देते हैं कि युवाओं को प्रभावी ढंग से जोड़ने के लिए, उनके साथ समानुभूति रखना और उसके हिसाब से कार्यक्रम के उद्देश्यों को ढालना अहम है। “युवाओं के मन में बहुत सारी भावनाएं होती हैं और पारंपरिक सोच अक्सर उनके साथ मेल नहीं खाती है। उनका मानसिक दृष्टिकोण गतिशील होता है, वे एक साथ कई गतिविधियों और बातचीत में उलझे होते हैं। वे एक साथ टेक्स्टिंग, कॉलिंग और एक आर्टिकल पढ़ने जैसे काम कर सकते हैं। उनसे जुड़ने के लिए, नरेटिव और अभियान भावनात्मक आधार पर बनाए जाने चाहिए जो उनके जज्बातों को छू लें। उनके मन को बदलने के बजाय, उनके दिल को जीतने पर ध्यान देना चाहिए। उनकी भावनाओं को शामिल करना एक स्थायी प्रभाव और सार्थक संबंध बनाने की कुंजी है।”

राजेश ने इन मामलों में गैर-लाभकारी संगठनों की गलती को उजागर करते हुए कहा कि “संगठन अक्सर सोशल मीडिया पर काफी समय खर्च करते हैं, अपने काम के बारे में पोस्टर और पोस्टकार्ड बनाते हैं। लेकिन ये प्रयास अक्सर बाहरी दुनिया, खासतौर पर युवाओं के साथ मेल नहीं खाते हैं। हम अपनी ही कहानियों के इको चैंबर में और वास्तविकता से दूर रहते हैं। हालांकि, हमारे पास लोगों की शक्ति है, और इसका उपयोग करना हमारी सबसे सफल “नरेटिव बिल्डिंग” रणनीति रही है। हर युवा जिसे हम काम में शामिल करते हैं, वह अपने आप में एक “कहानीकार” बन जाता है, संदेश को दूर तक फैलाता है और दूसरों को भी जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करता है।”

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कहीं धूप, कहीं छांव!

किसानों और युवाओं का एक दृश्य_बेमौसम बारिश
चित्र साभार: सुगम

आईडीआर इंटरव्यूज | डॉ. नरेंद्र गुप्ता 

डॉ. नरेंद्र गुप्ता एक सामुदायिक स्वास्थ्य चिकित्सक और प्रयास नाम के स्वयंसेवी संस्था के संस्थापक सदस्य हैं। उन्होंने लगभग 40 सालों से राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में भील मीना आदिवासी समुदाय के स्वास्थ्य, शिक्षा और आजीविका में सुधार के लिए काम किया है। वह जन स्वास्थ्य अभियान के राष्ट्रीय आयोजकों में से एक, और राजस्थान में इसके संयोजक हैं।

डॉ. गुप्ता ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ढांचे को डिज़ाइन करने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय कार्य समूह के गठन में अहम भूमिका निभाई जिससे पंचायती राज संस्थान की भूमिका और स्पष्ट हो सकी। साथ ही वह भारत की 12वीं पंचवर्षीय योजना के कार्य समूह के सदस्य थे जिसमें उन्होंने दवाओं और खाद्य सुरक्षा पर काम किया। राजस्थान में निशुल्क दवा योजना की शुरुआत में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।

डॉ. गुप्ता ने आईडीआर से अपने स्वास्थ्य के काम से संबंधित सफ़र कि बात की। उन्होंने  राजस्थान में लोगों में स्वास्थ्य की समझ को बदलने के प्रयास के बारे में बताया।भारत में राइट टू हेल्थ और निशुल्क स्वास्थ्य सेवाएं की ख़ासा ज़रूरत क्यों है और इन्हें बढ़ावा देने के लिए किस तरह से काम करना चाहिए।

1. डॉ नरेंद्र गुप्ता का परिचय और विकास सेक्टर का सफर 

स्वास्थ्य का काम करने शुरू करने के लिए चित्तौड़गढ़ जिला एक चुनौती भरा इलाक़ा क्यों है और यहां स्वास्थ्य और शिक्षा एक साथ काम करना क्यों ज़रूरी था।

2. राजस्थान में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और निशुल्क दवा योजना कैसे आई?

नेशनल रुरल हैल्थ मिशन लॉन्च होने से स्वास्थ्य पर आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडीचर (जेब से खर्च) कैसे कम हो सकता है, और कैसे निशुल्क दवा योजना के अंतर्गत कई गुना कीमत पर मिलने वाली दवाई अब मुफ्त में उपलब्ध होती है।

3. कैसे मेनिफेस्टो से सरकारी कागज़ बना राइट टू हेल्थ

अगर आपके पास राइट टू एजुकेशन, राइट टू इन्फॉर्मेशन, राइट टू इंप्लॉयमेंट, राइट टू फूड, फॉरेस्ट राइट एक्ट सब कुछ है तो स्वास्थ्य पर क्यों नहीं?

4. स्वास्थ्य सेक्टर की मुख्य चुनौतियां और उनके हल

भारत की बहुत बड़ी आबादी को आज भी स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध नहीं होती – हर परिवार के लिए डॉक्टर तय होना चाहिए और घर से कुछ ही दूरी पर छोटी से बड़ी बीमारी के लिए स्वास्थ्य केंद्र उपलब्ध होने चाहिए।5.5.

5. वैश्विक जनस्वास्थ्य अभियान की भारत में शुरुआत कैसे हुई?

जन स्वास्थ्य अभियान साल 2000 में भारत आया जिसके अंतर्गत सभी स्वास्थ्य से जुड़ी लड़ाई जैसे राइट टू हेल्थ और फ्री मेडिसिन का कैंपेन राजस्थान में शुरू हुआ।

मनरेगा में रोजगार बंद होने से पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों पर क्या असर पड़ा है?

पश्चिम बंगाल में पिछले ढाई साल से केंद्र सरकार के निर्देशों का पालन न किए जाने के आधार पर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट, 2005 (मनरेगा) के तहत कार्य गतिविधियां बंद हैं। लगातार तीन वित्तीय वर्षों से, पश्चिम बंगाल में केंद्र की ओर से आवंटित किया जाने वाला मनरेगा बजट लगातार शून्य है।

इसका सीधा असर यहां से पलायन कर रहे श्रमिकों की बढ़ती संख्या के रूप में देखा जा सकता है। यह लेख इसी समस्या से जूझ रहे तीन जिलों उत्तर दिनाजपुर, दक्षिण दिनाजपुर और पुरुलिया के श्रमिकों के अनुभव पर आधारित है।

पश्चिम बंगाल के उत्तर दिनाजपुर जिले की ईटाहार पंचायत के कमालपुर गांव में 29 साल के भजन बर्मन और 27 साल की उनकी पत्नी किरण पॉल के साथ रहते हैं। ये दोनों हैं कि उन्हें उनके गांव या उसके आसपास के क्षेत्रों में ही काम मिल जाए ताकि रोजगार के लिए किसी और राज्य ना जाना पड़़े।

पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाके से भजन और उनके जैसे हजारों युवा पलायन कर रोज़गार के लिए कहां जाएंगे, यह तय नहीं है। भजन कहते हैं, “हम साल में आमतौर पर आठ महीने पैसा कमाने के लिए दूसरे राज्य में जाते हैं और शेष चार महीने खेती-बाड़ी के समय गांव में रहते हैं। दिल्ली, हरियाणा, हैदराबाद जहां हमें काम मिलता है, वहां चले जाते हैं। फिलहाल तो हम लोग हैदराबाद के एक अस्पताल में हाउस कीपिंग का काम करते हैं जिसमें हमें 12 हजार रुपये महीने की तनख्वाह मिलती है। उसी में घर के लिए पैसे बचाना होता है हालांकि गांव और यहां दोनों जगहों के खर्च की वजह से बहुत दिक्कत होती है”। वे मानते हैं कि बेशक मनरेगा में 100 दिन का ही रोजगार मिलता है और मजदूरी भी कम है, लेकिन ये बाहर जाने से बेहतर विकल्प है।

मनरेगा फ़ंड की दिक्कत

कमालपुर के बुजुर्ग मनरेगा मजदूर जुलाल बर्मन कहते हैं कि जब मनरेगा चालू था तो उन्होंने काम किया था, लेकिन केंद्र सरकार द्वारा बजट आवंटन रोके जाने के कारण उनका 30 से 40 दिन का पैसा अभी भी बकाया है। हालांकि अब पैसा और काम रोके जाने का केस कोर्ट में चल रहा है।

स्थानीय मनरेगा कार्यकर्ता एवं श्रमिक संगठन पीबीकेएमएस (पश्चिम बंग खेत मजूर समिति) के एरिया-कोआर्डिनेटर हसीरुद्दीन अहमद कहते हैं, “केंद्र सरकार के द्वारा मनरेगा का फंड रोके जाने के बाद पलायन बहुत बढ़ा है। कमालपुर और बलरामपुर में अनुसूचित जाति, मुस्लिम वर्ग और ओबीसी समुदाय के लोग ज्यादा रहते हैं। दोनों गांवों को मिलाकर करीब 600 घर हैं और लगभग हर घर का कोई न कोई सदस्य बाहर काम की तलाश में पलायन करने पर मजबूर है।”

दोनों गांव के लोग बताते हैं कि जब पहले यहां मनरेगा का काम चल रहा था, तब उसमें कई सारी गड़बड़ियां की जाती थीं। जो काम मनरेगा श्रमिकों से लिया जाना चाहिए था उसकी जगह जेसीबी मशीन का इस्तेमाल किया जाता था ताकि श्रमिकों के मुकाबले मशीन से जल्दी काम लेकर पैसा बनाया जा सके।

हालांकि इस वर्ष के शुरुआत में राज्य सरकार ने बकाया मजदूरी करीब 30 लाख मनरेगा कर्मियों के खाते में ट्रांसफर करने का निर्णय लिया है। इसमें कुछ लोगों को उनकी मज़दूरी मिल चुकी हैं तो कुछ को नहीं। हालांकि आंकड़ों के अनुसार राज्य में वास्तविक मनरेगा मजदूरों की संख्या कहीं अधिक है।

पीबीकेएमएस के सदस्य और सामाजिक कार्यकर्ता अबू बकर कहते हैं, “मनरेगा में बेरोजगारी भत्ते का प्रावधान होने के बावजूद कोई लाभ नहीं मिलता है। जब भत्ता मांगने के लिए पंचायत में जाते हैं तो कहा जाता है कि बीडीओ ऑफिस जाएं, वहां जाकर कहा जाता है कि डीएम (कलेक्टर) ऑफिस जाएं। आखिर में जब डीएम ऑफिस हम जाते हैं तो वहां कहा जाता है कि इसके लिए हम बीडीओ या प्रखंड विकास अधिकारी को आदेश कर देंगे”।

मनरेगा योजना के तहत काम करती महिलाएं_मनरेगा
मनरेगा ने आत्मनिर्भर महिलाओं का एक वर्ग भी तैयार किया था जो अब काम बंद होने से खत्म होता नज़र आ रहा है। | चित्र साभार: यूएन वुमन एशिया एंड द पैसिफिक / सीसी बीवाई

काम बंद होने के बाद सूची से नाम हटाना

उत्तर दिनाजपुर के ईटाहार ब्लॉक के कमालपुर गांव की ही निवासी सुचित्रा दास बताती हैं कि उनका और उनके पति दीपक दास का नाम मनरेगा सूची से हटा दिया गया है। अब उनके पति दिल्ली में काम करते हैं जबकि वह गांव में ही रहती हैं। मनरेगा एमआइएस (प्रबंधन सूचना प्रणाली) की पड़ताल में यह पाया गया कि दोनों का नाम तीन फरवरी 2023 को हटा दिया गया था और इसकी वजह काम की मांग नहीं होना बताया गया है।

उत्तर दिनाजपुर के रायगंज ब्लॉक की  कमलाबाड़ी पंचायत के 733 मनरेगा मजदूरों में से 242 मनरेगा मजदूरों यानी करीब एक तिहाई श्रमिकों के नाम विभिन्न वजहों से डिलीट किये गये हैं। यहां रायगंज शहर का विस्तार हो चुका है, जहां कई सरकारी दफ़्तर और बाजार हैं। इस वजह से यहां रोजगार के दूसरे विकल्प भी मौजूद हैं और अपेक्षाकृत पलायन का असर यहां कम है। लेकिन ग्रामीणों का अनुमान है कि यहां के करीब 50 लोग बाहर काम करने गये हैं।

मनरेगा सूची से नाम हटाये जाने की शिकायत पश्चिम बंगाल के सबसे अधिक गरीब आबादी वाले जिले पुरुलिया से भी मिलती है। यहां के बड़ा बाजार ब्लॉक के तुमरासोल गांव की रहनेवाली पूर्णिमा महतो और ममानी रजक बताती हैं कि उनका नाम 17 मार्च 2023 को मनरेगा सूची से डुप्लीकेट जॉब कार्ड होने की बात कहकर हटा दिया गया था। लेकिन उनका दावा है कि यह पूरी तरह से गलत है।

सूची से नाम हटाए जाने पर केंद्र सरकार क्या कहती है?

25 जुलाई 2023 को तत्कालीन केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री गिरिराज सिंह द्वारा लोकसभा में दिये गये एक जवाब के अनुसार, सूची से जॉब कार्ड को हटाए जाने के कई कारण हैं। इसमें फर्जी या डुप्लीकेट जॉब कार्ड होना, काम की मांग न होना, परिवार का अपनी ग्राम पंचायत से कहीं और स्थायी रूप से चले जाना या फिर मृत्यु हो जाने के बाद भी जॉब कार्ड में उस व्यक्ति का नाम चल रहा हो। इन तमाम मामलों में जॉब कार्ड से नाम हटाया जा सकता है।

केंद्रीय मंत्री के जवाब के अनुसार, वर्ष 2022-23 डिलीट किये गये जॉब कार्ड में पांच करोड़ से अधिक नाम हैं। राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 2021-22 की तुलना में वर्ष 2022-23 में 247 प्रतिशत अधिक नाम डिलीट किये गए हैं।

पश्चिम बंगाल में मनरेगा सूची से नाम डिलीट किये जाने के मामले राष्ट्रीय औसत से 21 गुणा अधिक हैं।

नाम डिलीट किये जाने में पश्चिम बंगाल सबसे ऊपर है। वित्त वर्ष 2022-23 में 83 लाख से अधिक श्रमिकों के नाम डिलीट किये गये जबकि वर्ष 2021-22 में करीब डेढ़ लाख श्रमिकों के नाम डिलीट किये गये थे। मात्र एक वित्तीय वर्ष के अंतराल पर पश्चिम बंगाल में 5199.20 प्रतिशत नाम अधिक डिलीट किये गये। यानी, पश्चिम बंगाल में मनरेगा सूची से नाम डिलीट किये जाने के मामले राष्ट्रीय औसत से 21 गुणा अधिक हैं।

पश्चिम बंग खेत मजूर समिति ने नवंबर 2022 में कलकत्ता हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर पश्चिम बंगाल के वैध मनरेगा मजदूरों को मजदूरी से वंचित रखने का विरोध किया था। हाईकोर्ट ने 19 जनवरी 2024 को इस जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान एक चार सदस्यीय समिति का गठन कर उससे पश्चिम बंगाल में वास्तविक मनरेगा मजदूरों की पहचान सुनिश्चित कराने का फैसला दिया।

हालांकि इस समिति के वकील पूर्वायण चक्रवर्ती ने बताया, “कमेटी तो गठित हो गई है लेकिन हमें अब तक यह पता नहीं चला है कि इसने काम करना शुरू किया है या नहीं, हमें इसका इंतजार है”।

मनरेगा में कामबंदी से महिलाओं पर असर

जैसा कि दक्षिण दिनाजपुर जिले के कुसमंडी ब्लॉक के समसिया गांव की मनरेगा मजदूर सिद्दीका बेगम कहती हैं कि उनके पति सहराब अली पंजाब में काम करते हैं और घर पर परिवार की पूरी जिम्मेवारी उन्हीं पर है। इसी तरह गांव की मरजीना खातून नाम की एक महिला ने बताया कि उनके पति कश्मीर में कमाते हैं और यहां परिवार की जिम्मेवारी उन पर है।

इस तरह, मनरेगा की काम बंदी ने महिलाओं पर दोहरा बोझ बढ़ाया है। एक तो कामबंदी की वजह से उनकी आय का जरिया छिन गया है औरनदूसरा इसमें काम न होने की वजह से घर के पुरुषों के पलायन से उन पर पारिवारिक जिम्मेवारियों का दबाव दो गुना हो गया है। मनरेगा ने आत्मनिर्भर महिलाओं का एक वर्ग भी तैयार किया था जो अब काम बंद होने से खत्म होता नज़र आ रहा है। फिलहाल, केंद्र व राज्य के बीच टकराव की वजह से कानूनन मिली रोजगार गारंटी धरातल पर लागू न होने से लोगों के पास पलायन के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है।

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यह बजट पर्यावरण के लिहाज से कितना अनुकूल है?

पिछले महीने संपन्न हुए आम चुनावों में मिले झटकों के बाद केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मंगलवार को अपना सातवां बजट पेश किया। यह मौजूदा सरकार का पहला बजट था। इस दौरान उनके सामने दोहरी चुनौती थी – गठबंधन में शामिल सहयोगी दलों की उम्मीदों को जगह देना और बढ़ती हुई बेरोजगारी का हल खोजना। इन चुनौतियों के बावजूद, उन्होंने बजट में पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए कई घोषणाएं की। हालांकि, उनमें से कई ऐसी घोषणाएं हैं जिन पर पहले से काम हो रहा है। 

अपने बजट भाषण में सीतारमण ने नौ मुख्य प्राथमिकताओं को रेखांकित किया। इनमें खेती को मौसम के अनुकूल बनाकर उपज बढ़ाना, शहरी विकास को आगे बढ़ाना, ऊर्जा सुरक्षा और मध्यम, लघु व सूक्ष्म उद्यमों (एमएसएमई) पर ध्यान देते हुए विनिर्माण और सेवाओं को बढ़ाना शामिल है।

नई दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संगठन आईफॉरेस्ट के मुख्य कार्यकारी अधिकारी चंद्र भूषण ने कहा कि घोषणाओं की संख्या अंतरिम बजट जैसी ही है। हालांकि, चार प्राथमिकताएं – ऊर्जा सुरक्षा, टिकाऊ खेती, एमएसएमई पर ध्यान और शहरी विकास भविष्य के लिए अहम हैं। ये क्षेत्र पर्यावरण के लिहाज से भी काफी महत्वपूर्ण हैं।

इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए वित्त मंत्री ने कई ऐसी घोषणाएं की जो पहले से ही चल रही हैं। उदाहरण के लिए, जलवायु वित्त के लिए वर्गीकरण का काम कम से कम दो सालों से चल रहा है। इसके अलावा प्रधानमंत्री सूर्य घर मुफ्त बिजली योजना की घोषणा फरवरी में ही की जा चुकी है। वहीं, कार्बन मार्केट बनाने की प्रक्रिया 2022 से जारी है। साथ ही, एडवांस्ड अल्ट्रा सुपर क्रिटिकल थर्मल पावर प्लांट के लिए साल 2016 में पायलट अध्ययन शुरू किए गए थे। यही नहीं, एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती के तरीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने की योजना की घोषणा भी पिछले आम बजट में की जा चुकी है।

प्राकृतिक आपदाओं को कम करने और उनके हिसाब से ढल जाने की कोशिशों पर बजट में जोर है। साथ ही, बजट में बिहार, असम, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और सिक्किम जैसे बाढ़ प्रभावित राज्यों में बाढ़ प्रबंधन और पुनर्निर्माण के लिए प्रावधान भी शामिल हैं। इसका उद्देश्य कुदरती आपदाओं के दुष्प्रभाव को कम करना और इन क्षेत्रों के पुनर्निर्माण में मदद करना है।

एनर्जी ट्रांजिशन पर जोर

इससे पहले, 22 जुलाई को संसद में आर्थिक सर्वेक्षण पेश हुआ था। इसमें देश में एनर्जी ट्रांजिशन की चुनौती और इससे जुड़े समझौतों को शामिल किया गया था। सर्वेक्षण में कहा गया था कि यह काफी चुनौती भरा लक्ष्य है। इसमें भारत की खास स्थिति को रेखांकित किया गया, जहां सरकार को सस्ती उर्जा भी उपलब्ध करानी है ताकि देश विकसित देशों की कतार में खड़े होने की अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा कर सके। दूसरी तरफ पर्यावरण को देखते हुए कार्बन उत्सर्जन कम करने के तरीकों को भी बढ़ावा देना है। सर्वेक्षण में भंडारण क्षमता, जरूरी खनिजों, परमाणु ऊर्जा, साफ-सुथरे कोयले की तरफ धीरे-धीरे बढ़ना और ज्यादा कुशल तकनीकों के महत्व पर जोर दिया गया है।

इन जटिलताओं को देखते हुए वित्त मंत्री ने उचित एनर्जी ट्रांजिशन के तरीकों पर नीति दस्तावेज पेश करने की घोषणा की जो रोजगार, विकास और टिकाऊ पर्यावरण की जरूरतों के हिसाब से है।

चंद्र भूषण ने बताया, “मुझे उम्मीद है कि देश में व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही यह नीति लायी जाएगी। क्योंकि विभिन्न राज्यों में ऊर्जा सुरक्षा और ट्रांजिशन की चुनौतियां अलग-अलग हैं।”

कोयला खनन_बजट
बजट में खेती को मौसम के अनुकूल बनाकर उपज बढ़ाना, शहरी विकास को आगे बढ़ाना, ऊर्जा सुरक्षा और उद्यमों पर ध्यान देते हुए विनिर्माण और सेवाओं को बढ़ाना शामिल है। | चित्र साभार: पिक्साबे

केंद्रीय मंत्री सीतारमण ने छतों के जरिए सौर ऊर्जा, पंप स्टोरेज और परमाणु ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए योजनाओं की घोषणा की। सरकार छोटे व उन्नत रिएक्टर बनाने और परमाणु ऊर्जा से जुड़ी नई तकनीकों के विकास के लिए निजी क्षेत्र से हाथ भी मिलाएगी।

उन्होंने बहुत ज़्यादा जरूरी खनिजों (क्रिटिकल मिनरल) के लिए मिशन शुरू करने की घोषणा की। इसके जरिए घरेलू स्तर पर उत्पादन, इन खनिजों को दोबारा इस्तेमाल करने के लायक बनाने और दूसरे देशों में इन खनिजों के लिए खनन पट्टे लेने पर ध्यान दिया जाएगा। सरकार खनन के लिए अपतटीय ब्लॉक की पहली किश्त की नीलामी शुरू करेगी। परमाणु और नवीन ऊर्जा क्षेत्रों के लिए लिथियम, तांबा, कोबाल्ट और दुर्लभ अर्थ एलिमेंट जैसे अहम खनिजों की अहमियत को पहचानते हुए मंत्री ने ऐसे 25 खनिजों पर सीमा शुल्क से पूरी तरह छूट देने का प्रस्ताव रखा।

मंत्री ने ऐसे उद्योगों के लिए ‘ऊर्जा कुशलता’ से ‘उत्सर्जन लक्ष्यों’ की तरफ बढ़ने के लिए रोडमैप बनाने का ऐलान भी किया जिनमें ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करना बहुत मुश्किल है।

उन्होंने सूक्ष्म और लघु उद्योगों की अहमियत को पहचाना और बताया कि पीतल और सिरेमिक सहित 60 पारंपरिक क्लस्टरों का एनर्जी ऑडिट किया जाएगा। इन उद्योगों में साफ-सुथरी ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा देने और ऊर्जा कुशलता से जुड़े उपायों को लागू करने में मदद के लिए वित्तीय सहायता दी जाएगी। उन्होंने कहा कि अगले चरण में इस योजना का विस्तार 100 और क्लस्टरों तक किया जाएगा।

जलवायु परिवर्तन से बचाव के लिए धन जुटाने पर जोर

आर्थिक सर्वेक्षण में जलवायु वित्त (क्लाइमेट फाइनेंस) की अहमियत पर कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन की लड़ाई में सबसे कठिन है सस्ते दर पर पूंजी की व्यवस्था। 

वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार टैक्सनॉमी लेकर आएगी जिससे पता चलेगा कि कौन सा क्षेत्र पर्यावरण के दायरे में आता है। इससे जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ढलने और उससे पार पाने के लिए धन की व्यवस्था करने में मदद मिलेगी। हालांकि, वित्त मंत्रालय कम से कम तीन सालों से टैक्सोनॉमी तैयार करने की दिशा में काम कर रहा है। हालांकि, इसका मसौदा आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया है।

आने वाले भविष्य में जैव विविधता और पानी जैसे पर्यावरण से जुड़े दूसरे मुद्दों को भी जलवायु परिवर्तन में शामिल करना होगा।

इस पर क्लाइमेट बॉन्ड्स इनिशिएटिव की दक्षिण एशिया प्रमुख नेहा कुमार कहती हैं कि बजट मे इसकी घोषणा करना स्वागत योग्य कदम है। उन्होंने आगे कहा कि सरकार उम्मीद है अब तक किये काम को ही आगे बढ़ाएगी। उन्होंने कहा, “मुझे उम्मीद है कि इस काम को नए सिरे से शुरुआत से करने की बजाए मौजूदा ढांचे पर काम किया जाएगा, जिसमें बेहतरीन तरीकों को शामिल किया गया है और देश की प्राथमिकताओं का भी ध्यान रखा गया है।” कुमार वित्त मंत्रालय के उस टास्क फोर्स का हिस्सा रही हैं जिसने टैक्सनॉमी पर काम किया है। 

टैक्सनॉमी को लेकर उन्होंने कहा कि यह स्पष्ट है कि अभी फोकस जलवायु परिवर्तन को रोकने और उस हिसाब से ढलने पर है, लेकिन आने वाले भविष्य में जैव विविधता और पानी जैसे पर्यावरण से जुड़े दूसरे मुद्दों को भी इसमें शामिल करना होगा। टैक्सनॉमी में ट्रांजिशन भी शामिल होना चाहिए। पिछला मसौदा अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया। इस मसौदे में ऊर्जा और परिवहन और खेती-बाड़ी को शामिल किया गया था।

शहरों में सुधार के लिए वित्तीय मदद

आर्थिक सर्वेक्षण में शहरों को भविष्य के हिसाब से आर्थिक केंद्र के तौर पर विकसित करने की बात की गयी है। इसे वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में दोहराया है। उन्होंने जोर दिया कि यह बदलाव आर्थिक और ट्रांजिट प्लानिंग और टाउन प्लानिंग योजनाओं के जरिए होना चाहिए। साथ ही, शहरों के आस-पास के क्षेत्रों का व्यवस्थित तरीके से विकास किया जाएगा।

वित्त मंत्री ने स्टांप ड्यूटी में कमी जैसे शहरी सुधारों पर जोर दिया जिसे शहरी विकास योजनाओं का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाएगा। केंद्र सरकार भूमि प्रशासन, प्लानिंग, प्रबंधन और भवन उपनियमों में सुधारों की पहल करेगी और उन्हें आगे बढ़ाएगी। इसके लिए सरकार को आर्थिक प्रोत्साहन भी देगी जैसे राज्यों को दिए जाने वाले 50 साल के ब्याज मुक्त कर्ज का बड़ा हिस्सा इन सुधारों के आधार पर आवंटित किया जाएगा।

इसके अलावा, उन्होंने सौ बड़े शहरों में पानी की आपूर्ति, गंदे पानी को साफ करना और ठोस कचरे के व्यवस्थित निपटान से जुड़ी परियोजनाओं को बढ़ावा देने के बारे में बात की। इस साफ किये गए पानी से सिंचाई और स्थानीय जलाशयों को फिर से भरने की भी बात की गयी। 

सभी परिवर्तन सिर्फ शहर तक सीमित नहीं रहते जैसे कि जलवायु परिवर्तन। इसलिए एक क्षेत्र के हिसाब से सोचने की जरूरत है। 

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स के पूर्व निदेशक हितेश वैद्य ने बजट की व्यावहारिकता पर खुशी जताई। जहां पिछली पहलों में शहरों को ‘स्मार्ट’ या ‘गैर-स्मार्ट’ के रूप में बांटा गया था, वहीं यह बजट नया नजरिया अपनाता है, जिसमें बड़े, मध्यम और छोटे शहरों पर ध्यान दिया दया है। इसे वे सकारात्मक बदलाव मानते हैं।

वैद्य ने कहा कि सरकार अब इस बात पर जोर दे रही है कि परियोजना बनाने से पहले सुधार किया जाना चाहिए। उन्होंने भवन उपनियमों और प्लानिंग से जुड़े ढांचे को नया बनाने की जरूरत पर प्रकाश डाला। उन्होंने बजट में शहरी क्षेत्रों और उनकी खास तरह की चुनौतियों को मान्यता दिए जाने की ओर भी ध्यान दिलाया। यह बजट शहरी नियोजन के लिए क्षेत्रीय नजरिए को अपनाना है। उन्होंने कहा कि यह जरूरी है क्योंकि सभी परिवर्तन सिर्फ शहर तक सीमित नहीं रहते जैसे कि जलवायु परिवर्तन। इसलिए एक क्षेत्र के हिसाब से सोचने की जरूरत है। 

हालांकि वे इन घोषणाओं के जमीनी असर को लेकर सशंकित हैं। उन्होंने कहा कि शहरों के लिए ज्यादा टाउन प्लानर जरूरी हैं। उन्होंने कहा, “हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, कहीं ये योजनाएं जमीन पर कैसे लागू की जाती हैं उसका भी मूल्यांकन जरूरी है। “

खेती-बाड़ी से जुड़े वादों की जांच

हाल के सालों में, किसान अपनी उपज के लिए बेहतर कीमत की मांग को लेकर कई बार सड़कों पर उतरे हैं। चूंकि, देश की 65% आबादी खेती-बाड़ी पर निर्भर है, इसलिए वित्त मंत्री के बजट भाषण में बताए गए नौ उद्देश्यों में खेती-बाड़ी को सबसे पहले रखा गया है। 

वित्त मंत्री ने उपज बढ़ाने और जलवायु-अनुकूल फसल की किस्मों के विकास पर ध्यान देने की घोषणा की। उन्होंने कहा, “हमारी सरकार उपज बढ़ाने और जलवायु-अनुकूल किस्मों के विकास के लिए कृषि अनुसंधान व्यवस्था की व्यापक समीक्षा करेगी।”

केंद्रीय मंत्री ने खेती से जुड़ी ऐसे 109 नए किस्म के फसल का जिक्र किया। इसके अलावा, सरकार का लक्ष्य अगले दो सालों में एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती के गुर सिखाना है। इसमें प्रमाणन और ब्रांडिंग से भी मदद दी जाएगी। इसके अलावा, दस हजार जैव-इनपुट संसाधन केंद्र स्थापित किए जाएंगे।

वहीं, टिकाऊ खेती पर काम करने वाली बेंगलुरु स्थित सामाजिक कार्यकर्ता कविता कुरुगंती ने कृषि के लिए बजट घोषणाओं की आलोचना की। उन्होंने कहा कि वे मौजूदा परिस्थितियों से मेल नहीं खाती हैं और उनके लिए आवंटन भी कम है। उन्होंने दलील दी कि सरकार बड़े-बड़े वादे करती है, लेकिन उन्हें लागू करने का दस्तावेजीकरण खराब तरीके से किया जाता है। 

कुरुगंती ने फसल की नई किस्मों पर जोर दिए जाने पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि जैविक और गैर-जैविक समस्याओं से पार पाने वाली पारंपरिक किस्मों की उपेक्षा की जा रही है। उन्होंने कहा कि सरकार का ध्यान बाढ़ या सूखा रोधी फसल की तरफ है। पर यह सही नहीं है क्योंकि एक ही क्षेत्र में कुछ दिन सूखे की स्थिति रहती है तो कुछ दिन बाढ़ की। ऐसा लगता है कि सरकार ट्रांसजेनिक और जीन में बदलाव करके तैयार फसलों पर ध्यान केंद्रित करेगी, जिसके बारे में उनका मानना ​​है कि अनुसंधान की आड़ में बड़ी कंपनियों को फायदा पहुंचाया जाएगा। कुरुगंती ने प्राकृतिक खेती से जुड़े घोषणा की भी आलोचना की। उन्होंने बताया कि 2023-24 के बजट में भी इसी तरह की घोषणा की गई थी। पर पिछले वादे का क्या हुआ उसका कोई लेखा-जोखा नहीं है। 

यह लेख मूलरूप से मोंगाबे हिंदी पर प्रकाशित हुआ था।

महाराष्ट्र बस डिपोज पर शौचालयों की कमी से परेशान महिलाएं

महाराष्ट्र राज्य सड़क परिवहन निगम (एमएसआरटीसी) की बसें राज्य के भीतर यात्रा करने वाले यात्रियों के लिए जीवन रेखा की तरह हैं। बावजूद इसके, महाराष्ट्र के ज्यादातर बस डिपो परिसरों में शौचालय नहीं हैं। अगर कहीं हैं भी तो बहुत खराब स्थिति में हैं। इस बात का पता तब चला जब हमने ठाणे, मुंबई (शहर और उपनगरीय) और पनवेल जिलों में 18 एमएसआरटीसी बस डिपो में जाकर शौचालयों का ऑडिट किया।

यह ऑडिट गट्स फ़ेलोशिप के 28 फ़ेलो ने अनुभूति की देख-रेख में की है। फ़ेलो में खानाबदोश और विमुक्त जनजातियों (एनटी-डीएनटी) के साथ-साथ दलित और बहुजन समुदायों के युवा और महिलाएं शामिल हुए। एक फ़ेलो ने हमें बताया, “एक बस डिपो में, शौचालय की दीवारें इतनी नीची थीं कि कोई भी आसानी से उन पर चढ़कर अंदर जा सकता था। इस वजह से, महिलाएं शौचालय का उपयोग करते समय असुरक्षित महसूस करती हैं। अंदर कोई रोशनी भी नहीं है जिससे यह रात में अनुपयोगी और असुरक्षित हो जाता है।”

एक और फेलो साथी ने बताया कि “ठाणे जिले में एक बस डिपो के शौचालय में जाने से हमें डर लगता था। यह पूरी तरह से खंडहर हो चुका था। करीब 2,500 लोग रोजाना उस डिपो का इस्तेमाल करते हैं। आस-पास कोई दूसरी सुविधा नहीं है, इसलिए कोई विकल्प भी नहीं है। जब बस अगले डिपो पर पहुंचती है तो शौचालय की स्थिति वैसी ही या उससे भी बदतर होती है। यह चिंता का विषय है।”

ठाणे जिले में स्थित दूसरे बस डिपो से बड़ी संख्या में ग्रामीण और आदिवासी आबादी आती-जाती है। वहां से एक महिला यात्री ने बताया कि, “डिपो के अंदर होने वाला शौचालय असल में झाड़ियों में है, जहां पुरुष नशा करते हैं। डिपो से यात्रा करने वाले आदिवासियों सहित कई युवतियों को शौचालय असुरक्षित लगता है। इसलिए हम खुले में जाने के लिए मजबूर हैं, जो अशोभनीय होने के साथ साथ खतरनाक भी है।”

ठाणे के भिवंडी में डिपो में एक अटेंडेंट बताते हैं कि उन्हें एसिड अटैक का निशाना बनाया गया क्योंकि उन्होंने शौचालय परिसर में महिलाओं और ट्रांस व्यक्तियों के उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाई थी।

बस डिपो और उनके परिसर में शौचालयों का उपयोग बहुत से लोग करते हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं, बच्चे और हाशिए के समुदायों के युवा हैं। ऐसे में शौचालयों को सुरक्षित स्थान बनाने के लिए एक प्रणाली और प्रक्रिया की जरूरत है। बस डिपो को यौन उत्पीड़न रोकथाम (पॉश) अधिनियम, 2013 के तहत कार्यस्थलों के रूप में बांटा जा सकता है। इस अधिनियम के अनुसार ‘कार्यस्थल’ को मोटे तौर पर “रोजगार स्थल या फिर काम करने के लिए कर्मचारी जहां जाता है, उस स्थान के तौर पर परिभाषित किया गया है। इसमें नियोक्ता की ओर से प्रदान किया गया परिवहन भी शामिल है।” “जो माल उत्पादन, बिक्री या सेवाएं प्रदान करने में लगे हुए हैं, और “व्यक्तियों या फिर श्रमिकों—कर्मचारियों के स्वामित्व वाली कोई भी जगह शामिल हो सकती है।” बस डिपो काम पर जाने वाले यात्रियों, व्यवसाय करने वाले विक्रेताओं, बस ड्राइवरों, कंडक्टरों, परिचारकों और क्षेत्र में काम करने वाले लोगों से भरे हुए हैं। हालांकि, हमने जिन बस डिपो का ऑडिट किया, उनमें से किसी में भी पॉश अधिनियम की व्याख्या करने वाला बोर्ड नहीं लगा था। यह बोर्ड अधिनियम की जानकारी देता है। साथ ही इसमें आंतरिक समिति के सदस्यों के बारे में जानकारी होती है— जो यौन उत्पीड़न से संबंधित शिकायतों को सुनती है और उनका निवारण करती है। इस समिति को नियोक्ता की ओर से गठित किया जाना चाहिए। साथ ही बोर्ड पर यौन उत्पीड़न के परिणामों के बारे में भी जानकारी होती है। हालांकि डिपो में और उसके आस-पास के किसी भी यात्री या कर्मचारी को इसकी जानकारी नहीं थी।

यदि बस डिपो में पॉश अधिनियम को सही तरीके से लागू किया जाए तो एनटी-डीएनटी, अनौपचारिक कर्मचारियों के साथ प्रवासी आबादी को बहुत राहत मिलेगी। चूंकि यह यौन उत्पीड़न के लिए निगरानी और शिकायत निवारण जैसी व्यवस्था को सही ढंग से पेश कर सकता है।

दीपा पवार एक एनटी-डीएनटी कार्यकर्ता हैं और अनुभूति की संस्थापक हैं जो एक जाति-विरोधी और नारीवादी संगठन है।

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