बच्चों की देखभाल पिता की भी जिम्मेदारी है!

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एक पिता अपने दो नवजात शिशुओं को हाथों में लिए हुए है-पिता
स्थानीय अस्पतालों में काम करने वाले लोगों का अक्सर ऐसा मानना होता है कि नवजात बच्चों की देखभाल में पुरुषों के करने लायक कोई काम नहीं होता है। | चित्र साभार: ताहा इब्राहिम सिद्दीक़ी

उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक अस्पतालों के प्रसूति (मैटरनिटी) या बाल चिकित्सा वार्ड के बाहर “पुरुषों का प्रवेश निषेध है” का बोर्ड टंगा हुआ दिखाई पड़ना एक आम बात है। इस बोर्ड के पीछे नवजात शिशुओं की देखभाल और पालन-पोषण में पुरुषों की भूमिका से जुड़ी मान्यताएं हैं। स्थानीय अस्पताल के प्रशासक आमतौर यह मानते हैं कि इन कामों में पुरुषों के करने लायक़ कुछ नहीं होता है और इसलिए वार्ड में उनकी उपस्थिति से भीड़ बढ़ेगी और/या महिलाओं को असुरक्षित भी महसूस होगा।

2022 में अगस्त की एक भीषण गर्मी वाले दिन निज़ाम को यह ख़बर मिली कि उनकी पत्नी मीना को समय से पहले ही प्रसव पीड़ा शुरू हो गई है और उसे एक बड़े सार्वजनिक अस्पताल में सीज़ेरियन सेक्शन का ऑपरेशन करवाना होगा। निज़ाम दिल्ली में एक प्रवासी श्रमिक के रूप में काम करते हैं। यह खबर मिलते ही वे जल्दी से अपने घर पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए निकल गए। रास्ते में ही उन्हें पता चला कि मीना ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया है। दोनों ही बच्चों का वजन 1.6 किलोग्राम था। एक सामान्य नवजात शिशु का वजन 2.5 किलोग्राम होता है। यानी, निज़ाम के बच्चों का वजन औसत से बहुत कम था।

अक्सर समय से पहले और कम वजन के साथ पैदा होने वाले बच्चों को, अपने शरीर के तापमान को नियंत्रित करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। उनमें दूध पीने की क्षमता का विकास भी पूरी तरह नहीं हो पाता है। इसलिए निज़ाम और मीना के जुड़वा बच्चों को अस्पताल के स्तनपान और नवजात शिशु देखभाल कार्यक्रम के अंतर्गत नामांकित कर लिया गया था। परिवारों, विशेषकर पिताओं की भागीदारी को ध्यान में रखकर निकाले गए सरकारी दिशा-निर्देशों के बावजूद, अस्पताल ने अन्य लोगों की तरह पिताओं को भी नवजात शिशु की देखभाल वाले आईसीयू में बच्चे और उसकी मां के साथ रहने की अनुमति नहीं दी थी। हालांकि निज़ाम का मामला एक अपवाद बना और जुड़वा बच्चों की देखभाल से जुड़े तर्क के कारण अस्पताल को उसे विशेष अनुमति देनी पड़ी थी।

इस अनुमति के कारण निज़ाम को अपने बच्चों के साथ तब तक रहने का अवसर मिला जब तक कि वे अस्पताल से घर नहीं आ गए। इससे पहले वे अपनी पत्नी को, बच्चे के जन्म के एक माह के भीतर ही छोड़कर चले जाते थे। लेकिन इस बार वे पूरे तीन महीनों तक घर पर ही रहे और तब तक रहने की योजना बनाई जब तक कि उनके जुड़वा बच्चे पूरी तरह स्वस्थ न हो जाएं। उनका कहना है कि “मेरे बड़े बच्चों की तुलना में मुझे अपने इन दोनों बच्चों से अधिक लगाव महसूस होता है क्योंकि मैंने इनके साथ ज़्यादा समय बिताया है। वे भी मुझसे अधिक जुड़े हुए हैं। मैं जैसे ही काम से घर लौटता हूं वे दोनों मेरे लिए रोना शुरू कर देते हैं और मुझसे बंदर की तरह चिपक जाते हैं।”

मीना को भी ऐसा लगता है कि निज़ाम की मदद से उसे फायदा हुआ है। ऑपरेशन के बाद होने वाले दर्द से खाना खाने और दवा लेने जैसे साधारण कामों में भी मुश्किल होती है। ऐसे में मदद के बिना बच्चों की देखभाल करना संभव नहीं हो पाता। मीना कहती हैं कि “यदि निज़ाम नहीं होते तो मुझे अस्पताल से जल्दी निकलना पड़ता।”

इस बात की पुष्टि के लिए पर्याप्त चिकित्सीय साक्ष्य हैं जो यह बताते हैं कि बच्चों के पिता भी कुशलतापूर्वक देखभाल कर सकते हैं। हालांकि इससे पिताओं पर पड़ने वाला वह सामाजिक दबाव ख़त्म नहीं हो जाता है जिसका सामना उन्हें पितृसत्तात्मक लैंगिक मानदंडों का पालन करने के लिए करना पड़ता है। बच्चों की देखभाल को केवल महिलाओं के ज़िम्मे आने वाले काम के रूप में देखा जाता है और इस काम में मदद की इच्छा रखने वाले पिताओं को अक्सर ही हतोत्साहित किया जाता है। अपने नवजात शिशुओं की गम्भीरता से देखभाल करने वाले एक और पिता पुत्तन का कहना है कि “हमारे आसपास कुछ लोग ऐसे थे जिनका कहना था कि यह आदमियों का काम नहीं है और मुझे इस प्रकार अपने बच्चों की देखभाल नहीं करनी चाहिए।” लेकिन उन्होंने इन बातों पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया। “आजकल, महिलाएं सब कुछ कर रही हैं। वे अफ़सर, डॉक्टर बन रही हैं तो हम पुरुष भी सारे काम क्यों नहीं कर सकते हैं? यदि पति-पत्नी एक दूसरे की मदद नहीं करेंगे तो काम कैसे चलेगा?”

ताहा इब्राहिम सिद्दिक़ी रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ कम्पैशनट एकनॉमिक्स (आरआईसीई) में एक शोधकर्ता और डेटा विश्लेषक हैं। इन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया से अर्थशास्त्र में बीए किया है।

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