मेरा जन्म राजस्थान के अलवर ज़िले के रसवाड़ा गांव में हुआ था। हमारे परिवार में मेरे अलावा छह और सदस्य थे – मेरी तीन बहनें, भाई और हमारे माता-पिता। जब मैं आठ साल की थी, तब बेहतर भविष्य की तलाश में मेरा पूरा परिवार गुरुग्राम आकर बस गया। जहां मैंने अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी की और साल 2001 में 18 साल की उम्र में मेरी शादी हो गई।
अब मैं राजस्थान के अलवर में अपने पति, एक बेटे और एक बेटी के साथ रहती हूं। मेरे पति एक दिहाड़ी-मज़दूर हैं – वे इमारतों में सफ़ेदी का काम करते हैं और उनकी रोज़ाना की आमदनी 600 रुपए है। शादी के कुछ ही दिनों बाद, मुझे इस बात का अहसास हो गया था कि अपना घर चलाने के लिए मुझे भी काम करना पड़ेगा। हमारे घर में पानी और साफ-सफ़ाई से जुड़ी साधारण सुविधाएं भी नहीं थीं।
मैंने बहुत कम उम्र में ही यह समझ लिया था कि महिलाओं को अपनी अलग पहचान बनाने की ज़रूरत है। मैंने किशोर लड़कियों को जीवन कौशल से जुड़ी शिक्षा देने के लिए समाजसेवी संस्थाओं के साथ काम करना शुरू किया ताकि उन्हें रोज़मर्रा की ज़िंदगी में शामिल तार्किक सोच और समस्याओं के समाधान के तरीके सीखने में मदद मिले। जल्दी ही मैंने यह भी जान लिया कि इस क्षेत्र में अपने काम को जारी रखने के लिए मुझे आगे पढ़ने की ज़रूरत है; इसलिए अपनी शादी के नौ सालों के बाद मैंने बीए और बीएड की पढ़ाई की। आजकल मैं राजस्थान के अलवर ज़िले में समाजसेवी संस्था इब्तिदा के लिए फ़ील्ड कोऑर्डिनेटर और प्रशिक्षक के रूप में काम कर रही हूं। मैं युवा महिलाओं को करियर से जुड़ी सलाह देने, कम्प्यूटर शिक्षा की सुविधा मुहैया करवाने और खेल-कूद करवाने जैसे काम करती हूं। इसके साथ में नव-विवाहित महिलाओं के लिए चलाए जा रहे इब्तिदा के कार्यक्रम के लिए भी काम करती हैं जहां मैं महिलाओं को संवाद कौशल का प्रशिक्षण देती हूं और उन्हें पोषण ज़रूरतों और प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारियां देती हूं। इसके अलावा, मैं इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उनके लिए मौके निकालने में उनकी मदद करती हूं और साथ ही कई स्तरों पर होने वाली लैंगिक हिंसा को समझने और उसका मुक़ाबला करने के बारे में भी बताती हूं। जहां मेरे जीवन से मेरे काम में मदद मिली है, वहीं विकास क्षेत्र में मेरे काम के अनुभवों का मेरे जीवन पर भी उतना ही प्रभाव पड़ा है।
सुबह 6.30 बजे: मेरे दिन की शुरुआत सुबह 6.30 बजे होती है। जब तक मैं सोकर उठती हूं तब तक मेरे पति अपना योग और पूजा ख़त्म कर चुके होते हैं और हम दोनों के लिए चाय भी तैयार रखते हैं। उस दिन के काम की ज़रूरत के हिसाब से हम सब अपने-अपने हिस्से के काम बांट लेते हैं ताकि किसी को भी देर न हो। जैसे कि मेरे पति सब्ज़ियां काट देते हैं और मैं सुबह का नाश्ता तैयार कर लेती हूं। मेरा बेटा कपड़े धोने और इस्तरी करने के काम में कभी-कभी मदद कर देता है। इसके बाद बच्चे स्कूल के लिए तैयार होते हैं। जिस दिन मेरी बेटी को स्कूल नहीं जाना होता है, उस दिन वह खाना तैयार करने में मेरी मदद कर देती है। अपनी व्यस्तता के आधार पर या तो मेरे पति या मेरा बेटा मेरा स्कूटर झाड़-पोंछ देते हैं और मेरे लिए दोपहर के खाने का डब्बा तैयार कर देते है।
साल 2016 में जब मेरे पति बीमार पड़ गए और हमारे पास आय का कोई स्रोत नहीं था, तब उन्हें परिवार में मेरे योगदान के महत्व का पता चला।
लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। शादी के लगभग 15 सालों तक घर के सभी कामों की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर ही थी। साल 2016 में जब मेरे पति बीमार पड़ गए और हमारे पास आय का कोई स्रोत नहीं था, तब उन्हें परिवार में मेरे योगदान के महत्व का पता चला। मैंने अस्पताल और घर के खर्चे पूरे किए और अकेले ही पूरा घर सम्भाला। तभी उन्हें समझ में आया कि अगर मैं परिवार को आर्थिक रूप से सहारा दे सकती हूं, तो उन्हें भी घर के कामों में मेरी मदद करनी चाहिए और एक दूसरे को बराबर समझना चाहिए। उन्होंने यह भी समझा कि उनकी पत्नी केवल अपने लिए नहीं बल्कि सब के लिए कमा रही है।मेरे सास-ससुर को मेरा काम करना पसंद नहीं था और उन्होंने इसका विरोध किया। जब मेरे पति ने घर के कामों में मेरी मदद करनी शुरू की तब उन्होंने पति को फटकार लगाई और कहा कि वे मेरे इशारों पर नाचते हैं। लेकिन मेरे पति अपनी बात पर अड़े रहे। मैं जिन नवविवाहिताओं के साथ काम करती हूं, उनके घरों में भी ऐसा ही बदलाव देखना चाहती हूं।
सुबह 10.00 बजे: दफ्तर पहुंचने के बाद मैं अपने दिनभर के काम की योजना बनाती हूं। मैं नवविवाहित महिलाओं के कार्यक्रम में शामिल महिलाओं के समूह के साथ बैठक करती हैं। मैं इस समय ऐसे चार समूहों के साथ काम कर रहीं हूं जिनमें कुल 69 महिलाएं शामिल हैं।इनमें से तीन समूहों की शुरुआत मई 2023 में ही हुई है।
महिलाओं और उनके परिवारों को समझाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। उन्हें इस बात का यक़ीन दिलाना जरूरी है कि मैं बिना किसी पूर्वाग्रह के केवल उनके लिए वहां पर हूं और मैं उनकी परिस्थितियों को समझती हूं। मैं उन्हें अपने जीवन का उदाहरण देती हूं ताकि उन्हें यह एहसास हो सके कि मुझे उनकी हालत के बारे में पता है। मैं उन्हें यह भी समझाती हूं कि परिवर्तन के धीमी प्रक्रिया है ताकि जब उनके घरों में पितृसत्तात्मक संरचना उनके जीवन को मुश्किल बनाएं तो वे जल्दी निराश न हों। व्यवहार में बदलाव लाने के लिए नियमित बातचीत और छोटे-छोटे कदम उठाने की ज़रूरत होती है।
मैं महिलाओं के जीवन से जुड़े मुद्दों को उठाती हूं और उनके समाधान निकालने में उनकी मदद करती हूं।
मैं महिलाओं के जीवन से जुड़े मुद्दों को उठाती हूं और उनके समाधान निकालने में उनकी मदद करती हूं, ताकि उन्हें भरोसा हो सके कि मैं उनकी मदद कर पाने में सक्षम हूं। उदाहरण के लिए, एक बातचीत के दौरान मैंने उनसे पूछा कि कौन सी सामान्य शारीरिक घटना है जिससे महिलाएं निपटती हैं, तो उनका जवाब था ‘ल्यूकोरिया‘ जो कि सही भी है। लेकिन वे इसके कारण और इससे निपटने के तरीकों के बारे में नहीं जानती थीं। परिवार के लोग इसके लिए डॉक्टरी सलाह नहीं लेते हैं और लड़कियों को इतनी समझ नहीं होती कि वे इसके लक्षणों को पहचान सकें। मैं उन्हें उनके सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों के बारे में परिवार के लोगों से बातचीत करने और ज़रूरत पड़ने पर इलाज करवाने के तरीक़ों के बारे में सिखाती हूं।
मैं बहुओं और उनकी सासों को एक साथ बुलाकर उनसे बातचीत करती हूं। इन बैठकों का मुख्य उद्देश्य विशेष रूप से सासों को समझाना होता है। आमतौर पर अपनी बहुओं के जीवन के सभी फ़ैसले सासें ही लेती हैं। मुझे अक्सर ही उनके और कभी-कभी उनके पतियों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। वे मुझसे पूछते हैं कि मैं इन युवा महिलाओं को क्या सिखाने वाली हूं। मैं उनकी पूरी बात को शांति के साथ सुनती हूं और खुले दिमाग़ के साथ सभी मुद्दों पर बातचीत करती हूं।
सास पूछती है कि “आप मेरी बहू को क्या सिखाएंगी? उसके बदले उस समूह में आप मुझे ही क्यों नहीं शामिल कर लेती हैं?” मैं उन्हें समझाती हूं कि उनका जीवन अब उस पड़ाव को पार कर चुका है और उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ हासिल कर लिया है। मैं संवेदनशीलता और समझ के उनके स्तर पर जाकर उनसे बातचीत करती हूं और पूछती हूं कि “आपके बच्चों की शादी हो चुकी है, आपने अपना पूरा जीवन काम करने में लगा दिया। आप घर के सभी फ़ैसले लेती हैं, आपको ऐसे किसी समूह की जरूरत नहीं है। अब आपकी बहू को सीखने की ज़रूरत है कि घर कैसे चलाया जाता है। उसे सीखने की ज़रूरत है कि वह आपका सम्मान करे और आपसे किसी भी तरह की बहस या लड़ाई-झगड़ा न करे। आप नहीं चाहती हैं कि आपकी बहू आपके साथ राज़ी-ख़ुशी से रहे?”
मेरी इन बातों से उन्हें यह भरोसा हो जाता है कि मैं उनकी बहुओं को कुछ ऐसा नहीं सिखाने वाली हूं जो उनकी नजर में ‘ग़लत’ है बल्कि मैं उसे कुछ ऐसा सिखाने वाली हूं जिससे उनके पूरे घर को फायदा होगा।
मैं समूह की महिलाओं के साथ निजी स्तर पर जुड़कर समझ बनाती हूं ताकि वे मुझसे अपनी समस्याओं के बारे में खुलकर बात कर सकें। कभी-कभी वे अपनी सासों से बहुत परेशान रहती हैं। यहां तक कि उनके सास और पति भी मुझसे उनकी शिकायत करते हैं। ऐसी स्थिति में मेरा काम बिना किसी हस्तक्षेप के उन सभी की बातों को सुनना होता है। मैं उन्हें एक दूसरे की बातें नहीं बताती हूं क्योंकि इससे झगड़े की सम्भावना बढ़ सकती है। कभी-कभी मुझे मध्यस्थता भी करनी पड़ती है। अगर पति का कोई नजरिया है और वह उसके बारे में बताता है, तो मैं पत्नी को भी समझाने की कोशिश करती हूं। इस तरह मैं एक संतुलन बनाते हुए परिवार के सदस्यों के साथ भरोसेमंद रिश्ता क़ायम रखती हूं।
दोपहर 12.00 बजे: मेरी दोपहर अलग-अलग तरह से बीतती है। कभी मैं कौशल प्रशिक्षण देने के लिए फ़ील्ड में जाती हूं, तो कभी मैं नई जुड़ने वाली महिलाओं के लिए स्वागत बैठक जैसा कुछ करते हैं।हम अपनी संस्था और उसके द्वारा किए जाने वाले काम के बारे में जानकारी देते हैं। परिवार के लोगों को नवविवाहित लड़कियों द्वारा किए जा रहे कामों का महत्व समझाने के लिए हम उन्हें लैंगिक शिक्षा पर केंद्रित विडियो दिखाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ नाम का वीडियो महिलाओं द्वारा किए जाने वाले कामों की आर्थिक महत्व को दिखाता है और बताता है कि अगर पैसों में देखा जाए तो उनके काम की क़ीमत कम से कम 32,000 रुपए है। हमारा उद्देश्य महिलाओं के काम को प्रत्यक्ष बनाना है। इससे पुरुषों को महिलाओं के कामों की सराहना करने में मदद मिलती है, और वे उनकी सहायता भी करना शुरू कर देते हैं ताकि घर के पूरे काम की जिम्मेदारी केवल महिलाओं के कंधे पर न पड़े।
परिवार के लोग महिलाओं को प्रशिक्षण के लिए तभी भेजते हैं जब प्रशिक्षण के दौरान सिखाई जाने वाली बातें उन्हें पसंद आती हैं।
इसके बाद मैं दोपहर का खाना खाती हूं और अपना प्रशिक्षण ज़ारी रखती हूं। यदि कोई बहुत लम्बे समय से अनुपस्थित है तो मैं उनके घर जाकर इसके कारण का पता लगाती हूं। परिवार के लोग महिलाओं को प्रशिक्षण के लिए तभी भेजते हैं जब प्रशिक्षण के दौरान सिखाई जाने वाली बातें उन्हें पसंद आती हैं। यदि इस प्रशिक्षण से उनके घर की व्यवस्था में थोड़ा-बहुत भी फेरबदल आने लगता है तो वे महिलाओं को भेजना बंद कर देते हैं। मुझ पर महिलाओं को भटकाने के आरोप भी लगे हैं। ऐसी परिस्थितियों में मेरा काम होता है कि मैं महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करूं और उन्हें अपनी पहचान बनाने के लिए कहूं, ताकि वे अपनी आवाज़ उठा सकें और परिवार के लोगों के साथ रहते हुए अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी कदम उठा सकें। मैंने उनसे कहा है कि मेरी कही गई बातों को घर पर बताने की बजाय उन्हें अपनी समझ बनाने की और समस्याओं से अपने तरीक़े से निपटने की ज़रूरत है।
कार्यक्रम में, हम हिंसा को लेकर समुदाय के दृष्टिकोण को व्यापक बनाने का भी प्रयास करते हैं। यह एक आम समझ है कि हिंसा केवल एक ही प्रकार की होती है – शारीरिक। लेकिन महिलाओं को केवल शारीरिक हिंसा का ही सामना नहीं करना पड़ता है, बल्कि वे मानसिक, यौन और आर्थिक हिंसा का भी शिकार होती हैं। मैं उन्हें बताती हूं जब आप किसी को गाली देते हैं, कोई जातीय टिप्पणी करते हैं, छेड़ते हैं या बिना मर्ज़ी के किसी को छूते हैं तो इन सभी परिस्थितियों में आप हिंसा कर रहे होते हैं।
जब मैं छोटी थी तो मैंने अपनी मां को इन सबसे गुजरते देखा था। मेरे पिता अक्सर उन्हें दूसरी शादी कर लेने की धमकी देते थे क्योंकि हम चार बहनें थीं और मेरे पिता को बेटा चाहिए था। मुझे अपनी मां की दुर्दशा तब समझ में आई जब मैंने भी पितृसत्तात्मक उत्पीड़न का अनुभव किया।जब आप अपने जीवन में हिंसा का अनुभव कर चुके होते हैं तो उस स्थिति में आप चुपचाप बैठकर किसी और को पीड़ित होता नहीं देख सकते हैं। इसलिए अब मैं जहां भी हिंसा होता देखती हूं, चाहे मेरे घर में या फ़िर आस-पड़ोस में, मैं उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाती हूं। उदाहरण के लिए, घर पर मैं उन महिलाओं के मामलों को तेज आवाज़ में पढ़ती हूं जिनके साथ मैं काम करती हूं ताकि मेरे परिवार के सदस्य भी सीख सकें। इससे न केवल उनके व्यवहार में बल्कि मेरे सास-ससुर के बर्ताव में भी बदलाव आया है।
शाम 6.30 बजे: पूरा दिन काम करने के बाद मैं घर वापस लौटती हूं। मेरे दोनों बच्चे मुझसे पहले घर पहुंचने की कोशिश करते हैं ताकि रात का खाना वे तैयार कर सकें। मेरी बेटी सब्ज़ी बनाती है और मैं चपाती। हम बर्तन धोने का काम अपनी-अपनी थकान और व्यस्तता के आधार पर आपस में बांट लेते हैं। हमारा शाम का अधिकांश समय इन्हीं कामों में चला जाता है। मेरी बेटी डॉक्टर बनना चाहती है लेकिन उसे इंजेक्शन से डर लगता है और इंजेक्शन लेने के समय वह चिल्लाना शुरू कर देती है। मेरा बेटा सीमा सुरक्षा बल में शामिल होना चाहता है क्योंकि उसे वर्दियों से प्यार है; मैं उसे लगातार कहती रहती हूं कि उसे इस बारे में एक बार फिर से सोचना चाहिए।
सारा काम ख़त्म होने के बाद मैं और मेरी बेटी साथ बैठकर टीवी पर ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ नाम का धारावाहिक देखते हैं। इसमें जीवन के सुख और दुख दोनों दिखाते हैं। हमें यह अपने जीवन जैसा लगता है और इस धारावाहिक को देखे बिना हमें अपना दिन अधूरा लगता है। मुझे पुराने गाने सुनना भी पसंद है, इससे मुझे अच्छा महसूस होता है। मैं कम्प्यूटर की पढ़ाई करने की कोशिश कर रही हूं और अपने इस कोर्स के लिए समय निकालना चाहती हूं। लेकिन दिन ख़त्म होते-होते मैं इतना थक चुकी होती हूं कि रात के 11-12 बज़े तक मुझे नींद आ जाती है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
2015 में, युवा लोगों के साथ काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था के सदस्य के रूप में, मैं मेघालय के रिभोई जिले में स्थित मावियोंग गांव गया था। इस इलाक़े की सबसे बड़ी समस्या छात्रों का बीच में स्कूली पढ़ाई छोड़ देना बनी हुई थी और समुदाय के लोग इससे निपटने की कोशिश में लगे हुए थे।
गांव के मुखिया की बेटी छात्रों को उनकी पढ़ाई में मदद करने के लिए ट्यूशन पढ़ाती थी। उन्होंने सुझाव दिया कि एक पुस्तकालय से इस समस्या का हल हो सकता है क्योंकि छात्र वहां इकट्ठे होकर पढ़ाई कर सकते हैं। पुस्तकालय का निर्माण हुआ लेकिन इससे पढ़ाई छोड़ देने वाले छात्रों की संख्या में कोई कमी नहीं आई। गांव की लड़कियां अपनी पढ़ाई जारी रख रही थीं लेकिन लड़के 8वीं कक्षा के बाद स्कूल छोड़ रहे थे। पढ़ाई छोड़ने वाले ज़्यादातर लड़कों ने पास की ही एक खदान में दिहाड़ी मज़दूरी करनी शुरू कर दी थी। पढ़ाई में रुचि न रखने वाले लोगों को पुस्तकालय तक कैसे लाया जा सकता था, भला?
हालांकि इसका समाधान जल्द ही मिल गया। गांव के लोगों को फुटबॉल खेलना पसंद था। जहां बुजुर्ग और वयस्क दर्शक की भूमिका में थे, वहीं युवा लड़के केवल खेलने के लिए भी अपनी स्कूल की कक्षाओं से अनुपस्थित रहा करते थे।
हालांकि इसका समाधान जल्द ही मिल गया। गांव के लोगों को फुटबॉल खेलना पसंद था। जहां बुजुर्ग और वयस्क दर्शक की भूमिका में थे, वहीं युवा लड़के केवल खेलने के लिए भी अपनी स्कूल की कक्षाओं से अनुपस्थित रहा करते थे।
इसे देखते हुए स्कूल में लड़कों के फुटबॉल खेलने के लिए बेहतर सुविधाएं और उपकरण उपलब्ध करवाए गए। इसके बदले में उन्हें कुछ नियमों का पालन भर करना था। जैसे कि यदि वे फुटबॉल को बार-बार पंचर करेंगे तो उन्हें खेलने के लिए नई गेंद नहीं दी जाएगी। वे केवल खेलने के लिए स्कूल नहीं जा सकते हैं, उनके लिए कक्षाओं में भी उपस्थित रहना अनिवार्य रखा गया। स्कूल में लड़कों की उपस्थिति बढ़ने लगी क्योंकि वे खेलना चाहते थे। जल्द ही, इस खेल को सभी छात्रों के लिए उपलब्ध करवा दिया गया ताकि लड़के और लड़कियां एक साथ खेल सकें। शुरुआत में लड़कों ने इसका विरोध किया लेकिन जब उन्होंने देखा कि लड़कियां न केवल अधिक पेशेवर तरीके से खेल रही हैं बल्कि गांवों के बीच होने वाले टूर्नामेंटों में भी भाग ले रही हैं तो उन्होंने विरोध छोड़ किया।
जैसे-जैसे स्कूल में छात्रों की उपस्थिति में सुधार आया, वैसे-वैसे पुस्तकालय में पढ़ाई में भागीदारी भी बढ़ी। पुस्तकालय छात्रों को स्कूल तक लेकर नहीं आई बल्कि स्कूल ने फुटबॉल के बहाने छात्रों को पुस्तकालय का रास्ता दिखाया।
सोनल रोशन यूथ इन्वॉल्व में कोऑर्डिनेटर और एक्सोम स्टेट कलेक्टिव में राज्य प्रबंधक हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
अधिक जानें: जानें कि अल्टीमेट फ्रिस्बी का खेल असम में दो जनजातियों के बीच की असहमति को दूर करने में किस प्रकार मददगार साबित हो रहा है।
अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।
मैं गुजरात के महिसागर जिले में पड़ने वाले मोटेरा नाम के एक छोटे से गांव से हूं। अपने गांव के अधिकांश लोगों की तरह मैं भी भील जनजाति से आती हूं। अपने तीन भाई-बहनों में मैं सबसे बड़ी हूं; मेरे दोनों छोटे भाई-बहन अभी माध्यमिक स्कूल में पढ़ाई कर रहे हैं। हमारे गांव में ही हमारा एक घर और एक छोटा सा खेत है और हमारे पास थोड़े से मवेशी भी हैं।
जब मैं छोटी थी तो अपने भविष्य को लेकर मेरी समझ स्पष्ट नहीं थी। लेकिन मैं इस अहसास और जागरूकता के साथ बड़ी हो रही थी कि मेरी जनजाति के लोगों का जीवन उस स्थिति से बहुत अलग है जिसे एक आदर्श जीवन कहा जाता है। गांव से हो रहे पलायन की दर तेज़ी से बढ़ रही थी और लोग आसपास के जंगलों में उपलब्ध संसाधनों का अंधाधुंध तरीक़े से दुरुपयोग कर रहे थे। गांव के कुओं की स्थिति बदतर थी और पीने के पानी का संकट था। सबसे महत्वपूर्ण बात जो मैंने देखी वह यह थी कि गांव में होने वाली बैठकों जैसी महत्वपूर्ण बातचीत में औरतों की उपस्थिति नहीं थी।
इसलिए मुझे अपने गांव की स्थिति में सुधार के लिए अपने समुदाय, विशेषकर इसकी महिलाओं के साथ काम करने की प्रेरणा मिली। एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो गांव में पला-बढ़ा है और समुदाय के सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों से वाकिफ है, मुझे विश्वास था कि मैं सार्थक बदलाव ला सकने में सक्षम थी। मुझे मेरे गांव में फ़ाउंडेशन फ़ॉर एकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफ़ईएस) से सहयोग प्राप्त सात कुंडिया महादेव खेदूत विकास मंडल नाम की संस्था द्वारा किए जा रहे काम के बारे में पता चला। यह संस्था पारिस्थितिक पुनरुद्धार और आजीविका की बेहतरी के लिए काम करती है और मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि इनका काम मेरे समुदाय के लोगों की बेहतरी के लिए हस्तक्षेपों का एक उचित मिश्रण है। मैं 2021 में गांव की संस्था से जुड़ी और तब से ही समुदाय संसाधन व्यक्ति (कम्यूनिटी रिसोर्स पर्सन) के रूप में काम कर रही हूं।
चूंकि मैंने सीआरपी के रूप में अपना काम शुरू किया था इसलिए मैं ऐसी कई गतिविधियों में शामिल थी जिनका उद्देश्य आसपास के जंगलों और उनके संसाधनों का संरक्षण और प्रबंधन करना था। क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने के लिए हमने गांव की संस्था को मजबूत करने और जंगल को पुनर्जीवित करने जैसे कामों को अपनी प्राथमिक रणनीतियों के रूप में अपनाया है। मैं महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के माध्यम से लोगों की रोजगार तक पहुंच को सुविधाजनक बनाने पर भी काम करती हूं। इसके लिए मैं संस्था की मदद एक वार्षिक श्रम बजट तैयार करने में करती हूं जिसे ब्लॉक और जिला दफ़्तरों में अधिकारियों के सामने प्रस्तुत किया जाता है। रोज़गार ढूंढने वाले लोगों को इस बजट के आधार पर ही काम आवंटित किया जाता है। हमारे गांव में मनरेगा के माध्यम से आवंटित किए जा रहे कामों में वन संरक्षण, चेक डैम बनाना और कुआं खोदना आदि शामिल है। गांव के लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार प्राप्त करने में सक्षम बनाने से पलायन को कम करने के साथ-साथ आजीविका की समस्या का समाधान करने में मदद मिलती है।
सुबह 6.00 बजे: मैं सुबह जल्दी उठती हूं और अगले कुछ घंटों में घर के काम और नाश्ता करने जैसे काम निपटाती हूं। गांव के अन्य परिवारों की तरह मेरा परिवार भी आय के अन्य स्त्रोत के लिए पशुपालन पर निर्भर है। इसलिए सुबह-सुबह मैं गौशाला की साफ़-सफ़ाई, गायों को पानी देने और दूध दुहने में अपनी मां की मदद करती हूं। मेरे गांव में लोगों को आमदनी के दूसरे विकल्पों पर गम्भीरता से सोचना पड़ा क्योंकि खेती से उनका काम चलता दिखाई नहीं पड़ रहा था। यहां खेती के लिए बहुत अधिक ज़मीन उपलब्ध नहीं है और गांव की विषम भौगोलिक स्थिति खेती के काम को और भी अधिक चुनौतीपूर्ण बना देती है। एक किसान इतना ही अनाज उगा पाता है जितने में उसके परिवार का भरण-पोषण हो जाए। मैं अब परिवारों को उनकी आजीविका के विकल्पों में विविधता लाने में मदद करने की दिशा में काम कर रही हूं। गांव के लोग पशुपालन और वन संसाधनों के संग्रहण जैसे काम करते आ रहे हैं और अब मैं विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए इन्हें बढ़ाने में उनकी मदद कर रही हूं।
सुबह 10.00 बजे: घर के कामों में हाथ बंटाने के बाद मुझे फ़ील्डवर्क के लिए जाना पड़ता है। दिन के पहले पहर में मैं गांव के विभिन्न घरों का दौरा करती हूं। इन घरों से आंकड़े इकट्ठा करना मेरी ज़िम्मेदारियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। उनका सर्वे करते समय मैं परिवार के आकार, इसके सदस्यों की उम्र, शिक्षा के स्तर और लिंग जैसी जानकारियां इकट्ठा करती हूं। ये घरेलू सर्वेक्षण मनरेगा श्रम बजट और ग्राम पंचायत विकास योजना (जीपीडीपी) में काम आते हैं, जिसे तैयार करने में मैं मदद करती हूं। मैंने जिस पहले बजट को तैयार करने में मदद की थी उसमें रोजगार हासिल करने पर ध्यान केंद्रित किया गया था। लेकिन आख़िरकार हमने यह महसूस किया कि जल संरचनाओं का निर्माण भविष्य में भी हमारी उत्पादकता और आय बढ़ाने में मदद कर सकता है। हाल के बजट में इन विषयों को केंद्र में रखा गया था। गांव में पानी की कमी का सीधा मतलब यह था कि महिलाओं को पानी लाने के लिए नियमित रूप से एक किलोमीटर पैदल चलकर नदी तक जाना पड़ता था। इस समस्या का समाधान भूजल स्त्रोतों को फिर से सक्रिय करके किया जा सकता था और इसलिए ही मैंने भूजल सर्वे करना शुरू कर दिया। इस सर्वे से हमें यह जानने और समझने में मदद मिली कि ऐसे कौन से क्षेत्र हैं जहां भूजल पुनर्भरण कार्य करने की तत्काल आवश्यकता है, और इसके लिए हमने ग्राउंडवाटर मॉनिटरिंग टूल नामक एक एप्लिकेशन का उपयोग करके कुओं की जियोटैगिंग की। जियोटैगिंग से हमें उन कुओं पर नज़र रखने में मदद मिलती है जिन्हें रिचार्ज करने की आवश्यकता होती है और जिनका उपयोग विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिए। समय के साथ गांव के बदलते हालात और वर्तमान में उसकी आवश्यकता के आकलन के लिए मैं नियमित अंतराल पर ऐसे सर्वेक्षण करती हूं। अब तक, हम गांव भर में 10 कुओं को पुनर्जीवित कर पाने में कामयाब रहे हैं, और इससे पानी की कमी को दूर करने में मदद मिली है।
स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन से जुड़े फ़ैसले हम सामूहिक रूप से लेते हैं।
दिन के समय मैं गांव में होने वाली बैठकों में भी शामिल होती हूं। इन बैठकों में हम सामूहिक रूप से स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन से जुड़े फ़ैसले लेते हैं। हाल तक वन प्रबंधन से जुड़े कई नियमों का पालन नहीं किया जाता था। उदाहरण के लिए, कुछ किसान संसाधनों के लिए जंगल के कुछ हिस्सों को साफ कर रहे थे जिससे उनकी आय में वृद्धि हो सके। गांव में होने वाली बैठकों के माध्यम से हमने एक समुदाय के रूप में जंगल की रक्षा के महत्व को सुदृढ़ किया और फिर से ऐसी स्थिति न आए इसके लिए नए नियम बनाए। लेकिन मैं यह भी समझ गई थी कि किसानों ने यह सब कुछ हताशा के कारण किया था न कि अपमान के कारण, इसलिए मैंने मनरेगा के माध्यम से उनके रोज़गार को सुनिश्चित करने के क्षेत्र में काम किया।
दोपहर 2.00 बजे: गांव से जुड़े मेरे काम ख़त्म होने के बाद आमतौर पर मैं घर वापस लौटती हूं और दोपहर का खाना खाती हूं। उन दिनों में जब मेरे लौटने की सम्भावना कम होती है मैं घर से निकलने से पहले भर पेट खाना खा लेती हूं। मेरे खाने में आमतौर पर गिलोडा (लौकी) का साग या करेला, मकई रोटला और कढ़ी होती है। दोपहर के खाने के बाद मैं गांव के पंचायत दफ़्तर चली जाती हूं। यहां मैं प्रासंगिक सरकारी योजनाओं के लिए आवेदन करने और उनके लाभों को पाने में लोगों की मदद करती हूं। इसके परिणाम स्वरूप विशेष रूप से गांव की औरतों की स्थिति में बहुत सुधार आया है। उदाहरण के लिए, विधवा महिलाएं इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना के माध्यम से सामूहिक रूप से पेंशन प्राप्त करने में सक्षम हैं। इसके अतिरिक्त, हमने राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के माध्यम से गांव में स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी) की स्थापना की है।
इसने भी उन महिलाओं की वित्तीय साक्षरता को बेहतर बनाने में अपना योगदान दिया है और अब महिलाएं एसएचजी के माध्यम से सामूहिक रूप से पैसों की बचत करती हैं। गांव ने जिला कार्यालय में सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) का दावा प्रस्तुत किया है। इस दावे की मान्यता कानूनी रूप से सामुदायिक वन की सुरक्षा, पुनर्जनन और प्रबंधन के हमारे अधिकार की गारंटी देगी। यह हमें वन संसाधनों के उपयोग के लिए आधिकारिक रूप से नियम बनाने और गैर-इमारती वन उत्पादों पर अधिकार प्रदान करने में भी सक्षम करेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जंगल का स्वामित्व वन विभाग से हमारी ग्राम सभा को प्राप्त होगा। दुर्भाग्य से, हमें अभी तक समुदाय के पक्ष में किसी तरह का फ़ैसला नहीं मिला है। इसके परिणाम स्वरूप, हमें अभी तक इ स बात की जानकारी नहीं है कि गांव की सुरक्षा के अंतर्गत अधिकारिक रूप से कितनी हेक्टेयर भूमि आवंटित है। लेकिन चूंकि समुदाय के लोगों ने पारम्परिक रूप से वन की सुरक्षा की है और इससे प्राप्त होने वाले संसाधनों पर ही जीवित रहे हैं, इसलिए हम अनौपचारिक रूप से भी अपने इन अभ्यासों को जारी रखने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं।
शाम 5.00 बजे: कभी-कभी मैं अपने कोऑर्डिनेटर से मिलने या एकत्रित आंकड़ों को रजिस्टर में दर्ज करने के लिए एफ़ईएस के कार्यालय भी जाती हूं। यह दफ़्तर मेरे गांव से 30 किमी दूर है इसलिए मुझे वहां तक पहुंचने के लिए स्टेट बस लेनी पड़ती है। एक ऐसा मंच बनाने के लिए जहां विभिन्न हितधारक आम मुद्दों पर इकट्ठा हो सकें, चर्चा कर सकें और विचार-विमर्श कर सकें, हम साल में एक बार संवाद कार्यक्रम भी आयोजित करते हैं। फोरम हमारे ब्लॉक के विभिन्न गांवों के लोगों को स्थानीय कलेक्टर, आहरण और संवितरण अधिकारी और अन्य ब्लॉक स्तर के अधिकारियों के साथ सम्पर्क स्थापित करने में मदद करता है। यह कार्यक्रम ग्रामीणों को इन अधिकारियों के सामने अपनी चिंताओं को रखने और सामूहिक रूप से उनकी समस्याओं के समाधान की दिशा में काम करने का अवसर प्रदान करता है। उदाहरण के लिए पिछले कार्यक्रम में हमने स्थानीय लोगों की पारिश्रमिक और भूमि से जुड़ी समस्याओं पर चर्चा की थी। कार्यक्रम में सरकार भी अपने स्टॉल लगाती है जहां जाकर स्थानीय लोग खेती-किसानी, कीटनाशक, भूमि संरक्षण, पशुपालन, मत्स्यपालन और विभिन्न सरकारी योजनाओं के बारे में जानकरियां हासिल कर सकते हैं।
मैं वन संसाधनों के संग्रह के लिए समुदाय के सदस्यों को नियम बनाने में मदद करती हूं।
सामूहिक ज्ञान का उपयोग करते हुए हमारी महिलाओं और समुदाय के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर मैं वन संसाधनों जैसे महुआ (बटरनट) और टिमरूपन (कांटेदार राख के पत्ते) के संग्रह के लिए नियम बनाने में उनकी मदद करती हूं। उदाहरण के लिए, एक समय में केवल कुछ ही परिवारों को संसाधनों को इकट्ठा करने की अनुमति दी जाती है। इससे हम अनजाने में ही सही लेकिन प्रकृति के किए जा रहे दोहन पर रोक लगाने में सक्षम हो पाते हैं। इसी प्रकार हम जंगल से केवल सूखी लकड़ियां ही इकट्ठा करते हैं और पेड़ों को नहीं काटते हैं। हालांकि आमतौर पर महिलाएं जंगल के संरक्षण के मुद्दे से सहमत होती हैं लेकिन मैं भी उन्हें विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से सीखने के लिए प्रोत्साहित करती हूं और उन्हें ऐसी जगहों पर लेकर जाती हूं जहां इन नियमों का पालन किया जा रहा है।
शाम 6.00 बजे: शाम में घर वापस लौटने के बाद मुझे घर के कई काम पूरे करने होते हैं। मैं मवेशियों के खाने-पीने पर एक नज़र डालने के बाद पूरे परिवार के लिए खाना पकाती हूं। खाना तैयार होने के तुरंत बाद ही हम खाने बैठ जाते हैं। घर की सबसे बड़ी बच्ची होने के कारण मेरे ऊपर घर के कामों की जिम्मेदारी है और मैं उन्हें हल्के में नहीं ले सकती। समुदाय के लिए अथक काम करने के कारण मेरे गांव में मेरी एक पहचान बन चुकी है। मैं मात्र 22 साल की हूं लेकिन मुझसे उम्र में बड़े लोग भी मुझे अनिता बेन (बहन) पुकारते हैं। इससे मेरे पिता और मेरी मां को बहुत गर्व होता है। मैं अपने छोटे भाई-बहनों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनना चाहती हूं। मैं चाहती हूं कि मेरी छोटी बहन भी मेरे नक़्शे-कदमों पर चले और मेरे भाई को एक अच्छी नौकरी मिल जाए ताकि हमारे परिवार की आमदनी में थोड़ा इज़ाफ़ा हो सके। मुझे पूरी उम्मीद है कि वे दोनों अपने-अपने जीवन में बहुत उंचाई पर जाएंगे और हमारे परिवार और समुदाय के लिए कुछ बड़ा करेंगे।
रात 9.00 बजे: रात का खाना खाने के बाद मुझे तुरंत ही बिस्तर पर जाना होता है। नींद में जाने से पहले कभी-कभी मैं अपने काम से समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में सोचती हूं। मैं चाहती हूं कि गांव में महिलाओं की भागीदारी बढ़े और उनके विचारों को महत्व दिया जाए। सम्भव है कि एक दिन हमारे गांव की सरपंच कोई महिला ही हो!
अंत में, मैं केवल इतना चाहती हूं कि मेरे समुदाय के लोग सौहार्दपूर्वक रहें और विरासत में मिले इस जंगल को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करते रहें। मैं अपने गांव में कर रहे अपने कामों को आसपास के गांवों में भी लेकर जाना चाहती हूं। मुझे पूरा भरोसा है कि वे लोग भी इसी प्रकार की चुनौतियों का सामना कर रहे होंगे और स्थानीय ज्ञान के आदान-प्रदान से इसमें शामिल प्रत्येक व्यक्ति को लाभ होगा।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
मल्कानगिरी ओडिशा के दक्षिणी हिस्से में स्थित एक पहाड़ी जिला है जो आंध्रप्रदेश के बेहद क़रीब है। मल्कानगिरी जहां स्थित है, वहां राज्य के अन्य हिस्सों की तुलना में अधिक वर्षा होती है। राज्य के सभी जिलों की तरह मल्कानगिरी के गांवों में भी रागी, बाजरा (पर्ल मिलेट) और फॉक्सटेल मिलेट जैसे अनाजों की उपज होती थी। लेकिन हरित क्रांति के बाद इस इलाक़े के किसान बेहतर दाम और आमदनी के लिए चावल और गेहूं जैसी नक़दी फसलें उगाने लगे हैं।
मल्कानगिरी के एक किसान मुका पदियामी कहते हैं कि “हमारे पूर्वज खेती के पारम्परिक तरीक़ों का उपयोग कर रागी जैसे तमाम अनाज उपजाते थे। लेकिन बाजार में इनके अच्छे दाम नहीं मिलते थे इसलिए उन लोगों ने ज्यादा एमएसपी वाले चावल और गेहूं की खेती शुरू कर दी।”
मल्कानगिरी चावल जैसी फसलों को उगाने के लिए एक आदर्श जगह थी क्योंकि यहां अच्छी वर्षा होती थी। लेकिन पानी के बहाव के कारण लंबे समय तक ऐसा करना सम्भव नहीं हो सका, जो कि पहाड़ियों के ऊपरी इलाक़ों में रहने वाले किसानों के लिए आम बात है। इसके साथ ही, वर्षा चक्र में भी अंतर आया है और इससे इलाक़े में लम्बे समय तक सूखे की स्थिति पैदा हो जाती है। नतीजतन, पानी की अधिक खपत वाली फसलों को नुक़सान पहुंचता है। ओडिशा मिलेट मिशन (ओएमएम) पर ओडिशा सरकार के कार्यक्रम सचिवालय के साथ काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था वासन के कार्यक्रम प्रबंधक अभिजीत मोहंती कहते हैं कि “पानी के बहाव के कारण मिट्टी का कटाव होता है और खेतों की उपजाऊ मिट्टी बह जाती है। पहले इन पहाड़ियों में रहने वाली जनजातियां मोटे अनाज की खेती करती थी जिनकी जड़ें ज़मीन में गहरे होतीं थीं और मिट्टी को पकड़कर रखती थीं। इससे मिट्टी का कटाव नहीं हो पाता था।”
मुका जैसे किसान अब फिर से मोटे अनाजों की खेती की तरफ़ लौट रहे हैं। मुका कहते हैं कि “मैं पिछले कई वर्षों से रागी की खेती कर रहा हूं और बाजरा की खेती करते हुए भी मुझे तीन साल हो गए हैं। जब मैंने रागी और बाजरा की खेती करनी शुरू की तब गांव के लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया था। लेकिन अब वे भी मेरे नक़्शे-कदम पर चलने लगे हैं क्योंकि अब हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है। यहां वर्षा अनियमित होती है, और बाजरे को बहुत कम पानी की जरूरत होती है।”
पिछले कुछ वर्षों में सरकार द्वारा बाजरे की खेती के लिए किए गए प्रोत्साहन से वास्तव में मदद मिली है। ओडिशा के आदिवासी विकास सहकारी निगम द्वारा स्थापित स्थानीय मंडी (बाजार) में मुका जैसे किसान अब एमएसपी पर एक क्विंटल बाजरा के लिए 3,400 रुपये कमा रहे हैं। वे नए और पुराने तरीक़ों को मिलाकर खेती कर रहे हैं। मुका कहते हैं कि “हमारे पूर्वज उतना ही अनाज उगाते थे जितना हमारे घर के लिए पर्याप्त होता था।”
मल्कानगिरी में बाजरा किसानों की नई पीढ़ी उन्नत कृषि विधियां अपना रही है। बेहतर उत्पादकता और उपज के लिए, वे जीवामृत, घनजीवामृत और बीजामृत जैसे जैव-इनपुट का उपयोग करते हैं। बहुत सारी रासायनिक खाद की जरूरत वाली चावल की फसल के विपरीत बाजरे के लिए ज्यादा खाद वगैरह की ज़रूरत नहीं होती है।
मल्कानगिरी के समुदायों के लिए, बाजरा की खेती एक से अधिक तरीकों से उनकी आजीविका में मदद पहुंचा रही है। यहां वर्षा पर आधारित खेती करने वाले किसान आय के अन्य स्त्रोत के रूप में पशुपालन करते हैं। बाजरे की फसल के अवशेष पशुओं के चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
अभिजीत मोहंती वाटरशेड सपोर्ट सर्विसेज एंड एक्टिविटीज नेटवर्क (वासन), भुवनेश्वर में प्रोग्राम मैनेजर हैं। मुका पदियामी ओडिशा मिलेट मिशन (ओएमएम) द्वारा सहयोग प्राप्त एक प्रगतिशील बाजरा किसान-सह-प्रशिक्षक है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
अधिक जानें: जानें कि पश्चिम बंगाल के एक गांव के किसान खेती के पारंपरिक तरीकों की ओर क्यों लौट रहे हैं।
अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।
मैं जनवरी 2021 से असम के माजुली जिले में स्थित हमिंगबर्ड स्कूल में शिक्षक हूं। मैं कक्षा 6 से 8 तक के बच्चों को विज्ञान पढ़ाता हूं। हमारे यहां आसपास के कई गांवों से बच्चे पढ़ने आते हैं। सीखने में उनकी मदद करने के लिए वीडियो और तस्वीरों का उपयोग करने के अलावा हम उनसे कई तरह के व्यावहारिक प्रयोग भी करवाते हैं। इन प्रयोगों का उद्देश्य उन्हें यह दिखाना होता है कि विज्ञान किस तरह से हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है।
अपने स्कूल के छात्रों को खमीर और सूक्ष्मजीवों के काम के बारे में सिखाने के लिए, हम उनसे राइस बियर बनाने के लिए कहते हैं। राइस बियर एक ऐसी चीज़ है जो यहां के स्थानीय लोग घर पर ही बनाते हैं। माजुली में अचार एक लोकप्रिय चीज़ है इसलिए हम छात्रों को नमक वाले और बिना नमक वाले अचार बनाने को भी कहते हैं। इससे उन्हें खाने को लम्बे समय तक संरक्षित रखने में नमक की भूमिका समझने में मदद मिलती है।
छात्र हर चीज़ पर सवाल करते हैं, यहां तक कि समुदाय की परम्पराओं और आस्थाओं पर भी। उदाहरण के लिए, एक बार हम लोग धारणाओं और उन्हें प्रमाणित और अप्रमाणित करने के विषय पर चर्चा कर रहे थे। छात्रों ने पास के कोलमुआ गांव में भूत होने की अफ़वाह पर हमसे बात की। इस गांव के स्थानीय लोगों ने गांव में नदी से सटे एक इलाक़े को भुतहा घोषित कर उसे प्रतिबंधित कर दिया था। ऐसा कहा जाता है कि इस गांव की एक लड़की ने आत्महत्या कर ली थी और उसे वहीं दफ़नाया गया था। कई लोगों का दावा था कि उन्होंने उस लड़की को रात में नदी के तट पर घूमते देखा है इसलिए उन्हें वहां जाने से डर लगता है। अब धारणा यह थी कि भूतों का अस्तित्व है, लेकिन हम इसे अप्रमाणित कैसे कर सकते हैं? एक छात्र ने सुझाव दिया कि हमें रात में वहां जाकर देखना चाहिए कि भूत है या नहीं।
यदि भूत नहीं दिखता है तो वे मान लेंगे कि कहानी ग़लत है। हमने तय किया कि हम वहां जाएंगे और उस स्थान से थोड़ी दूरी पर अपना टेंट लगाएंगे। वहां मुझे मिलाकर तीन शिक्षक और कुल 14 बच्चे थे। कुछ बच्चे बहुत ज़्यादा डरे हुए थे, लेकिन कुछ में उत्साह था। डरने वाले बच्चों से हमने कहा कि वे हम में से एक शिक्षक के साथ टेंट में ही रुकें और बाक़ी के लोग रात के दस बजे टेंट से बाहर निकल गए।
हमने अगले आधे घंटे तक भूत को उसके नाम से पुकारा लेकिन वह हमारे सामने प्रकट नहीं हुआ। इस तरह हमने इस डरावनी कहानी को ग़लत साबित किया और वापस लौट आए। छात्र तो इतने गर्व के साथ उछल रहे थे, मानो वे युद्ध में जीत हासिल कर लौटने वाले योद्धा हों।
दीपक राजपूत असम के माजुली में हमिंग बर्ड स्कूल में विज्ञान के शिक्षक हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
अधिक जानें: जानें कि दिल्ली के निज़ामुद्दीन इलाक़े के बच्चे किस तरह जलवायु शिक्षक के रूप में अपनी भूमिका निभा रहे हैं।
अधिक करें: दीपक राजपूत के काम को विस्तार से जानने और उन्हें अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।
2018 में, वर्की फाउंडेशन ने 35 देशों में ग्लोबल टीचर स्टेटस इंडेक्स सर्वेक्षण किया था। इस सर्वेक्षण का उद्देश्य यह पता लगाना था कि दुनियाभर के समाजों में शिक्षकों की स्थिति क्या है। इस सर्वे में शिक्षकों के काम के घंटों को लेकर लोगों की अवधारणाओं का अध्ययन किया गया। प्राप्त आंकड़ों की तुलना शिक्षकों द्वारा अपने काम में दिए गए वास्तविक समय से की गई जिसमें क्लासरूम के अलावा अन्य गतिविधियों में लगाया गया समय भी शामिल होता है। अध्ययन से यह बात सामने आई कि ज़्यादातर देशों में लोग शिक्षकों के वास्तविक काम के घंटों को कम करके आंकते हैं, भारत में शिक्षकों के काम के घंटों को प्रति सप्ताह लगभग दो घंटे कम करके आंका जाता है। इसके अलावा, भारत उन छह देशों में शामिल था जहां जनता की तुलना में शिक्षकों की अपनी स्थिति की धारणा के बीच सबसे बड़ा अंतर स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ा।
अपनी शाला में हमने यह समझने की कोशिश की कि मुंबई के स्कूलों में काम करने वाली हमारी टीम के लिए इस बात का क्या मतलब है। अपनी शाला का उद्देश्य स्कूलों में शिक्षकों एवं छात्रों के साथ साप्ताहिक सत्र आयोजित कर सामाजिक भावनात्मक शिक्षा (सोशल इमोशनल लर्निंग – एसईएल) के अनुरूप शिक्षा का निर्माण करना है। यह काम एक समावेशी, एसईएल-सम्मिलित पाठ्यक्रम को तैयार करके और छात्रों के जीवन के अनुभवों की जानकारी रखने और परवाह करने वाले शिक्षण अभ्यासों के माध्यम से किया जाता है।
हमारी टीम के साथ उनकी बातचीत के दौरान स्कूल के शिक्षकों ने यह महसूस किया कि उनकी नौकरी को क्लास में पढ़ाने या उनके निर्देशात्मक घंटों तक ही सीमित करके देखा जाता है। इसने हमें एक अनौपचारिक सर्वे के लिए प्रेरित किया ताकि हम यह जान सकें कि एक आम आदमी की नजर में शिक्षक की क्या भूमिका होती है। उत्तरदाताओं को ज्ञान को छात्रों तक पहुंचाने और उन्हें कुशल बनाने के साथ-साथ नैतिक मार्गदर्शन प्रदान करने में एक शिक्षक की भूमिका के बारे में पता था। हालांकि, शिक्षकों की प्रशासनिक या अन्य अनदेखी ज़िम्मेदारियों को लेकर उनमें जागरूकता की कमी थी। इन ज़िम्मेदारियों में किताबों या छात्रों के रिकॉर्ड की देखभाल करना, छात्रों के काम की जांच करना, अभिभावक-शिक्षक मीटिंग आयोजित करना और सीखने के लिए एक सुरक्षित वातावरण को बढ़ावा देना शामिल होता है। इससे पता चलता है कि ऐसी गतिविधियां जो सीधे तौर पर छात्रों के सीखने से संबंधित नहीं हैं, उन्हें मापना एक मुश्किल काम होता है।
व्यवस्था के स्तरों जैसे कि स्कूलों, संगठनों पर भी शिक्षकों द्वारा किए जाने वाले ग़ैर-शिक्षण श्रम को नज़रअंदाज़ किया जाता है। यहां तक कि नीति निर्माता भी शिक्षकों के कार्य समय के लिए पर्याप्त योजनाएं बनाने में विफल रहे हैं। शिक्षकों की प्रेरणा पर एसटीआईआर एजुकेशन और माइक्रोसॉफ़्ट रिसर्च इंडिया द्वारा किए गए एक अध्ययन के रिपोर्ट के अनुसार सार्वजनिक स्कूलों के शिक्षकों के सामने आने वाली प्रमुख चुनौतियों में से एक शिक्षण कार्य के साथ-साथ प्रशासनिक काम करना भी है। शिक्षकों के अनुसार प्रशासनिक कार्यों के कारण उन्हें पाठ्यक्रम की योजना बनाने और अपने छात्रों के साथ गहरे संबंध स्थापित करने का समय नहीं मिल पाता है।
एसटीआईआर एजुकेशन की एक अन्य रिपोर्ट बताती है कि स्कूल शिक्षकों के प्रशासनिक कार्यों पर जोर देते हैं और उन्हें विषय-संबंधी कौशल विकसित करने का अवसर देते हैं। लेकिन वे उनके लिए अनुकूल वातावरण निर्माण, उनका उत्साह बनाए रखने और छात्रों के लिए बेहतर सोचने की उनकी स्वायत्ता, विशेषज्ञता और उद्देश्य पर कुछ विशेष ज़ोर नहीं देते हैं। स्कूल के प्राध्यापकों और शिक्षकों के साथ हुई हमारी बातचीत ने इस बात की पुष्टि की है कि – ऐसा माना जाता है कि स्कूल के दौरान शिक्षकों को अपने प्रशासनिक कार्यों को अवश्य प्राथमिकता देनी चाहिए, वहीं पाठ्यक्रम की योजना और क्लासरूम प्रबंधन के लिए रणनीति बनाने जैसी ज़िम्मेदारियों को काम के घंटों के समाप्त होने के बाद पूरा किया जाना चाहिए। किसी भी स्तर पर नीतियां काफी हद तक डेटा द्वारा संचालित होती हैं लेकिन, हमारी जानकारी के अनुसार, ऐसे कुछ अध्ययन हैं जो शिक्षकों द्वारा किए जाने वाले विभिन्न प्रकार के ग़ैर-शिक्षण श्रम की जानकारी देते हैं।
शिक्षकों द्वारा किए जाने वाले कामों को समझने और छात्रों के आगे सीखने के लिए अपना समय बिताने के विभिन्न तरीक़ों के बारे में अपनी समझ बनाने के लिए हमने अपनी शाला में शिक्षकों के साथ सेमी-स्ट्रक्चर्ड इंटरव्यू किया। हम नीचे आपको उस इंटरव्यू के कुछ मुख्य परिणामों के बारे में बता रहे हैं।
शिक्षकों और फैसिलिटेटर्स के साथ हमारी टीम की बातचीत से यह पता चला कि वे अपना बहुत अधिक समय उस काम में लगाते हैं जिसे समाजशास्त्री अर्ली रशेल हॉक्सचाइल्ड ने भावनात्मक श्रम का नाम दिया है। इसमें देखभाल-आधारित काम शामिल होता है जिनमें शिक्षकों को आवश्यक रूप से भाग लेना चाहिए लेकिन जो नौकरी से अपेक्षित शारीरिक और मानसिक श्रम से परे है। और इसलिए यह अक्सर ही अदृश्य होता है और लगभग हमेशा ही इसे कम करके आंका जाता है।
उदाहरण के लिए, एक फैसिलिटेटर ने विभिन्न प्रकार के परिवारों के बारे में एक कहानी सुनाने का अनुभव साझा किया, जिसके बाद उसने एक छात्र को कक्षा से बाहर जाते हुए देखा। कक्षा समाप्त होने के बाद उस छात्र से बात करने पर फैसिलिटेटर को पता चला कि वह छात्रा अपने परिवार के साथ नहीं रहती थी। उसने इस जानकारी का उपयोग समय-समय पर कक्षा समाप्त होने के बाद उस छात्रा से बातचीत करने के लिए किया। उन्होंने ग़ैर-पारंपरिक घरों में रहने वाले युवाओं के अनुभव को लेकर बेहतर समझ विकसित करने के उद्देश्य से अधिक जानकारी एकत्र करने के लिए सहयोगियों से भी सम्पर्क किया। इससे उन्हें कक्षा के दौरान छात्रों के भावनात्मक ज़रूरतों का प्रभावी ढंग से उत्तर देने और सीखने में उनका समर्थन करने में भी मदद मिली।
समान शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए, शिक्षक उचित मात्रा में अपना समय पाठों की योजना बनाने, शिक्षण और सीखने की सहायक सामग्री बनाने और सीखने का दस्तावेजीकरण और मूल्यांकन करने में लगाते हैं। कक्षा 10 के फैसिलिटेटर ने बताया कि अपने एसईएल सत्रों में, उन्होंने एक ही कक्षा में कई उपकरणों (जैसे कला, कहानी सुनाना और गीत) का उपयोग किया और कक्षा को छात्रों की रुचियों के आधार पर वर्गों में विभाजित किया। इससे छात्रों को अधिक विकल्प मिलते हैं और उन्हें कक्षा में व्यस्त रहने में मदद मिलती है। यह सीखने और अभिव्यक्ति में उपयोग की जाने वाली विधा को बाधा बनने से भी रोकता है। लेकिन इन तरीकों को विकसित करने में समय लगता है।
सीखने की प्रक्रिया को अधिक न्यायसंगत बनाने में एक अन्य महत्वपूर्ण कारक प्रगति को मापने के लिए हर छात्र को अलग तरह से देखना भी है। कभी-कभी इसमें छात्रों के कौशल और सीखने के संबंध में अलग-अलग शुरुआती बिंदुओं का लगातार आकलन करना और फिर प्रगति की सूक्ष्म समझ का निर्माण करना शामिल होता है।
खोज (अपनी शाला की एसईएल-एकीकृत स्कूल पहल) में कक्षा 2 की एक शिक्षिका बताती हैं कि वह अपने छात्रों की सीखने की विभिन्न आवश्यकताओं के बारे में जानती हैं, और नतीजे और प्रक्रिया दोनों से अपने दृष्टिकोण को अलग करती हैं। डिफ़रेंशिएशन बाई प्रोडक्ट का एक उदाहरण यह है कि यदि सीखने का उद्देश्य जोड़ की प्रक्रिया से जुड़ा है तो कुछ छात्र शब्द की समस्या के माध्यम से सीखते हैं तो कुछ छात्र शब्द समस्याओं के माध्यम से सीखते हैं। वहीं अन्य संख्यात्मक समस्याओं को हल करते हैं या दृश्यात्मक साधनों को उपयोग में लाते हैं। वहीं दूसरी ओर डिफेरेंशिएटिंग बाई प्रोसेस का अर्थ यह है कि कुछ छात्र वॉलंटीयर के साथ काम कर सकते हैं जबकि अन्य को शिक्षकों के साथ अलग से समय मिल सकता है।
कक्षा के हमेशा बदलते संदर्भ के अनुकूल होने के लिए, फैसिलिटेटर्स और शिक्षकों को बहुत सारे निर्णय लेने पड़ते हैं। ये परिवर्तन छात्रों के मूड, स्कूल के वातावरण या फिर छात्रों के स्वास्थ्य के कारण हो सकते हैं। निर्णय लेना एक शिक्षक के जीवन का अंतहीन हिस्सा है क्योंकि वह निर्देशात्मक और तार्किक दोनों ही प्रकार के निर्णयों की एक ऋंखला का निर्माण करता है। कक्षा में निर्णय क्षमता का अर्थ, उन कारकों को ध्यान में रखना है जो छात्रों की सीखने की प्राथमिकताओं, ताकत, सीमाओं और उनकी बदलती सांस्कृतिक और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की जरूरतों से जुड़े होते हैं। अन्य कारक जैसे मानसिकता या मूड या फ़िर दिन का समय या मौसम आदि भी अनुकूलन की आवश्यकता उत्पन्न करते हैं। (गर्म मौसम के कारण पैदा होने वाली चिड़चिड़ाहट बहुत ही आसानी से कक्षा की सबसे रोचक गतिविधि पर हावी हो सकती है।)
एक शिक्षक ने ऐसे समय का उदाहरण दिया जब एक छात्र असाधारण रूप से शांत था और अपनी कक्षा में होने वाली किसी भी गतिविधि में हिस्सा नहीं ले रहा था। अगली कक्षा शारीरिक शिक्षा की थी और जहां बाक़ी के छात्र नीचे मैदान में जाने के लिए क़तार में थे, वहीं इस छात्र ने शिक्षक से कहा कि उसे भूख लगी है क्योंकि उन्होंने सुबह का नाश्ता नहीं किया है। शिक्षक ने बाक़ी छात्रों को जाने देने का फ़ैसला किया और उस एक छात्र को रुकने की अनुमति दी ताकि शारीरिक शिक्षा के सत्र में जाने से पहले वह कुछ खा-पी सके।
शिक्षकों द्वारा अपने छात्रों को जानने और समझने के लिए निरंतर सूचना संग्रह में लगे रहना पड़ता है और यह काम कुछ हद तक एक शोध परियोजना जैसा होता है। शिक्षक अपना समय ऐसे अन्य शिक्षकों से बातचीत करने में लगाते हैं जिन्होंने उनके छात्रों को पढ़ाया है, वे कक्षा समाप्त होने के बाद छात्रों से बात करते हैं और उन्हें लेकर बेहतर समझ विकसित करने के उद्देश्य से उनकी देखभाल करने वाले लोगों/अभिभावकों से संवाद करते हैं।
हमारे द्वारा आयोजित सेमी-स्ट्रक्चर्ड साक्षात्कारों के दौरान शिक्षाओं ने बताया कि वे लगातार छात्रों की देखभाल करने वाले लोगों से संवाद में थे ताकि उनके साथ संबंध स्थापित कर सकें। खोज एवं मुंबई के अन्य स्कूलों के संदर्भ में इसमें देखभाल करने वालों को बुलाना, अभिभावकों और माता-पिता के साथ लगातार सम्पर्क में रहना और छात्रों और उनके घर के वातावरण पर नजर बनाए रखने के लिए उनके घरों का दौरा करना शामिल है।
शिक्षकों द्वारा अनुभव की जाने वाली थकान अक्सर बर्नआउट का कारण बन सकती है। 2008 के एक अध्ययन में भाग लेने वाले आधे से अधिक माध्यमिक विद्यालय के शिक्षकों ने कुछ हद तक बर्नआउट की बात को स्वीकार किया और इसी समूह के भीतर 11 फ़ीसद से अधिक ने बर्नआउट के उच्च स्तर की बात को स्वीकारा है। शोध से पता चलता है कि महामारी के दौरान दुनिया भर के शिक्षकों के सामने आने वाली चुनौतियों और संकट ने इसमें और इजाफा किया। कई मामलों में, इसके कारण शिक्षकों ने अपने इस पेशे को ही छोड़ दिया।
यहां हम उन कुछ तरीकों के बारे में बता रहे हैं जिन्हे स्कूल एवं संगठन अपने शिक्षकों के कल्याण को सुनिश्चित करने के लिए लागू कर सकते हैं और इस प्रकार यह छात्रों के कल्याण एवं सीखने की प्रक्रिया को भी सुनिश्चित करेगा।
स्कूल और संगठन कक्षा की तैयारी, पाठ योजना, आकलन ग्रेडिंग, और काम के रूप में लगने वाले घंटों का लेखा-जोखा रख सकते हैं। अपनी शाला के एसईएल कार्यक्रमों के सूत्रधार आधे घंटे पहले अपनी कक्षाओं में पहुंचते हैं ताकि वे खुद को स्थिर कर सकें और एक घंटे के सत्र की तैयारी कर सकें। यह समय कार्यक्रम के डिज़ाइन में शामिल होता है।
अपने बेहिसाब भावनात्मक श्रम को स्पष्ट करने में शिक्षकों की मदद करना एक ऐसे वातावरण के निर्माण की दिशा में प्रभावी शुरुआती बिंदु हो सकता है जो इस पेशे में होने वाले असाधारण तनाव के प्रबंधन के लिए अनुकूल साबित हो। अपनी शाला में होने वाले पाठ्यक्रम सभाओं (सूत्रधारों के लिए आयोजित होने वाले पेशेवर विकास सत्र) के हिस्से के रूप में प्रतिभागी अक्सर उन सम्भावित स्थानों के बारे में बताते हैं जहां उन्हें तनाव महसूस होता है और इसके बेहतर प्रबंधन के लिए आवश्यक रणनीतियों पर विचार कर सकते हैं।
यह अब रहस्य नहीं रह गया है कि आराम और मानसिक शिथिलता से लोगों को तनाव से निपटने में मदद मिल सकती है। इसलिए स्कूलों और संगठनों की संरचना में शिक्षकों को विराम देने के लिए जगह बनाना प्रभावी साबित हो सकता है। अवकाश के लिए जगह बनाकर और काम की ऐसी संस्कृति को विकसित कर इसे किया जा सकता है जिसमें शिक्षकों को सक्रिय रूप से नियमित आराम करने की आज़ादी प्राप्त हो। काम के घंटों के भीतर प्रासंगिक प्रशासनिक कार्य के लिए सिस्टम स्थापित करना या इसके समान वितरण से भी मदद मिल सकती है।
छात्र-शिक्षक अनुपात (पीटीआर) का कम होना एक ऐसा बदलाव है जिसे व्यवस्था के स्तर पर लागू करने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 में स्कूल स्तर पर 30:1 से कम पीटीआर और 25:1 से कम पीटीआर “…सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित छात्रों की बड़ी संख्या वाले क्षेत्रों” को संबोधित करता है। इस कदम को उठाने के पीछे की सोच यह है कि शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों पर व्यक्तिगत रूप से दिया जाने वाला ध्यान सीखने की प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण है। यह इस बात को भी मानता है कि शिक्षकों के लिए आवश्यक काम की मात्रा सामाजिक-आर्थिक विविधता, सीखने के अंतर और न्यूरोडायवर्सिटी जैसे कारकों पर निर्भर करती है। इसे लागू करना शिक्षकों एवं छात्रों की बेहतरी एवं कल्याण के लिए महत्वपूर्ण है, विशेष रूप से घनी आबादी वाले सार्वजनिक और निजी स्कूलों में जहां हाशिए के छात्र भी होते हैं।
एक ऐसे समुदाय को बढ़ावा देना जहां शिक्षक चुनौतियों को साझा और संबोधित कर सकते हैं, और शिक्षकों की भलाई और सामुदायिक उपचार के लिए स्थान बनाना भी उपयोगी साबित हुआ है। अपनी शाला में, पर्यवेक्षी संरचनाओं के उत्तरदायित्व को बढ़ावा देने के लिए डिज़ाइन किया गया है। इसके अलावा, यह पुनर्स्थापनात्मक स्थानों के रूप में कार्य करने के लिए भी शिक्षकों को अभ्यास पर सोचने और कक्षा की मौजूदा सेटिंग्स में नियमित रूप से लगातार तनाव को नियंत्रित करने की अनुमति देता है। टीम के सदस्यों द्वारा आयोजित ऐसी बैठक या सभाएं जिनमें कला, संगीत और खेलकूद को शामिल किया जाता है या फिर विविध चिकित्सीय उपकरणों जैसे कि माइंडफुलनेस प्रैक्टिस भी उपचार और ग्राउंडिंग के लिए उपयोगी साबित हुई हैं। इनके अतिरिक्त, शिक्षकों के बीच दोस्ताना व्यवहार देखभाल, सोच-विचार और ठहर कर सोचने के लिए जगह बनाता है। एक उदाहरण मानसिक स्वास्थ्य सहायता या एक दूसरे की स्थिति की जांच के लिए उपयोग किए जाने वाले बडी सिस्टम्स हैं।
शिक्षकों की बेहतरी के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। लेकिन शिक्षक-छात्र अनुपात को कम करके या सजग रूप से उनकी प्रशासनिक जिम्मेदारियों में कमी लाने जैसे व्यवस्था से जुड़े परिवर्तन शिक्षकों को उनकी भूमिकाओं में सहयोग देने में एक बड़ी भूमिका निभाएंगे।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
सामाजिक ढांचों ने हमेशा आर्थिक विभाजनों को बढ़ावा ही दिया है। कोरोना महामारी ने पिछड़े तबके के लिए, लिंग, धर्म, जाति और अन्य आधार पर होने वाले भेदभाव से जुड़ी पहले से ख़राब स्थितियों को और बदतर बना दिया है। ऐसे में मुस्लिम महिलाएं, जो भारत में कामकाजी महिलाओं की आबादी का केवल दसवां हिस्सा हैं, उनके लिए स्थितियां कहीं जटिल हैं। साथ ही, उन्हें नफ़रती अभियानों, काम पर रखने के दौरान होने वाले भेदभावों और राज्य द्वारा स्वीकृत विध्वंस अभियानों का ख़ामियाज़ा भी भुगतान पड़ता है।
हमने भारत में मुस्लिम महिला श्रमिकों के साथ काम करने वाले समाजसेवी संगठनों तथा कार्यकर्ताओं से बात की। इस बातचीत में हमने पाया कि समुदाय की सभी महिलाओं को रोज़गार मिलने और उसे बचाए रखने में अनगिनत चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, उनके संघर्ष उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति, शिक्षा के स्तर और काम करने के क्षेत्र जैसे कारकों के आधार पर अलग-अलग थे।
शिक्षा की उच्च डिग्री हासिल करने वाली उच्च एवं मध्य वर्ग की मुस्लिम महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी थी और यहां तक कि महामारी के दौरान उनके हालात में कुछ सकारात्मक विकास भी देखने को मिले। वहीं, इसके विपरीत निम्न-आयवर्ग समूहों से आने वाली महिलाओं को पैसों के लिए संघर्ष करना पड़ा और परिवार की आय ख़त्म होने जाने की वज़ह से उन्होंने काम करना शुरू कर दिया। अनौपचारिक क्षेत्र के प्रवासी श्रमिकों को सबसे अधिक नुक़सान हुआ क्योंकि अन्य चुनौतियों के अलावा उनके पास किसी प्रकार का सुरक्षा जाल भी नहीं था। एक तरह से, महामारी ने एक बार फिर से यह स्पष्ट कर दिया कि हाशिए के समुदायों के भीतर भी, किसी के जीवन और आजीविका को परिभाषित करने में उसके सामाजिक स्थान की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है।
कॉलेज में पढ़ी-लिखी मुस्लिम महिलाओं के बीच लीडरशिप तैयार करने के लिए काम करने वाले एक इनक्यूबेटर –लेडबी फ़ाउंडेशन की सीओओ दीपांजलि लाहिरी- का सोचना है कि वे जिनके साथ काम करती हैं कोविड-19 का उन लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। वे कहती हैं कि “जहां एक तरफ़ महामारी के कई अन्य नकारात्मक परिणाम हुए, वहीं दूर-दराज के इलाकों में काम कर रही हमारी लेडबी साथियों के लिए अच्छा रहा। हम जिन महिलाओं के साथ काम कर रहे थे उनमें से ज्यादातर को यात्रा की अनुमति नहीं थी। लॉकडाउन के दौरान उनमें से कईयों का कहना था कि “चूंकि मैं घर से काम कर सकती हूं इसलिए अब मैं आराम से काम कर पा रही हूं।” महामारी ने दूरस्थ जगहों पर रहकर भी काम करना सम्भव बना दिया। इसलिए टियर- I और टियर- II शहरों की युवा मुस्लिम महिलाएं – जिनके परिवार आमतौर पर काम की तलाश में उन्हें महानगरीय क्षेत्रों में जाने देने की अनुमति नहीं देते थे – जॉब मार्केट में प्रवेश करने में सक्षम हो गई हैं। ऐसे तो नियुक्ताओं ने अपने दफ़्तरों में बैठकर काम करना और करवाना शुरू कर दिया है लेकिन लेडबी के नेतृत्व कार्यक्रम के प्रतिभागी वास्तव में दूरस्थ और हाइब्रिड कार्य के लिए बातचीत करना जारी रख रहे हैं। दीपांजलि को इस बात की चिंता सता रही है कि अब जब नौकरियां फ़िर से ऑफ़लाइन मोड में जा रही हैं उस स्थिति में हिज़ाबी मुस्लिम महिलाओं के लिए रोज़गार की तलाश मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि कुछ नियोक्ता पहले ही उनके सामने कार्यस्थल पर हिजाब न पहनने की शर्त रख चुके हैं। हालांकि भारत में मुस्लिम आबादी की केवल एक हिस्से के पास औपचारिक क्षेत्रों में काम करने के लिए आवश्यक शैक्षणिक योग्यता है जहां कर्मचारियों को दूरस्थ कामों को करने की सुविधा उपलब्ध है। देश में अधिकांश मुसलमान अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं, जहां कम विकल्प और सुरक्षा उपाय हैं।
मुस्लिम महिला कार्यकर्ताओं को उन्हें निशाना बनाने वाले अभियानों का सामना करना पड़ा, जिनमें अल्पसंख्यक समुदाय पर ‘कोरोना जिहाद’ छेड़ने —जानबूझकर अन्य धर्मों के लोगों के बीच कोविड-19 वायरस फैलाने वाले – लोग होने का आरोप लगाया गया था। मुसलमानों के आर्थिक एवं सामाजिक बहिष्कार का आंदोलन चलाया गया। पंजाब में अनौपचारिक महिला श्रमिकों पर पहले लॉकडाउन के प्रभाव के बारे में जानने के लिए किए गए एक अध्ययन में इस्लामोफोबिया के कई उदाहरण दर्ज किए गए हैं। इसमें कहा गया है कि अपने पति के साथ परचून की दुकान चलाने वाली एक मुस्लिम महिला को सामाजिक बहिष्कार के कारण महामारी के दौरान भारी नुक़सान का सामना करना पड़ा।
दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में इस दौरान आम हो चुके ‘अतिक्रमण विरोधी अभियान’ के कारण भी समुदाय को बहुत अधिक नुक़सान झेलना पड़ा। जहां सरकार का कहना था कि इन अभियानों का उद्देश्य फुटपाथ एवं सड़कों को साफ़ रखना है वहीं आलोचकों ने इस ओर इशारा किया है कि इन विध्वंसों के जरिए अंधाधुंध तरीक़े से कम-आय वाले मुस्लिम इलाक़ों को निशाना बनाया गया है।
दिल्ली के जहांगीरपुरी जैसे इलाक़ों में महिलाओं के सशक्तिकरण और शिक्षा पर काम करने वाली समाजसेवी संस्था ख़ैर हेल्प फ़ाउंडेशन की संस्थापक शबनम नफ़ीसा कलीम बताती हैं कि “पांच-छह महिलाओं के एक समूह ने बाज़ार में इत्र और ऐसी ही चीजों को बेचने के लिए एक स्टॉल लगाया था। विध्वंस के समय उनके स्टॉल के साथ उसमें रखे उनके माल को भी बुलडोज़र से रौंद दिया गया। कबाब, बिरयानी आदि बेचने वाले ऐसे ही 15–20 ठेले भी बर्बाद कर दिए गए।”
पुरुषों की आय में योगदान देने के लिए परिवार की महिलाएं एक साथ आईं।
इन इलाक़ों को महामारी और सम्पत्ति के नुक़सान की दोहरी मार झेलनी पड़ी, नतीजतन आय में भारी गिरावट आई। शबनम के अनुसार, “पहले प्रति माह 15,000 रुपए की आमदनी वाले परिवारों की आय अब घटकर 10,000 रुपए हो गई थी। जो 10,000 कमा रहे थे, उनके लिए अब 5,000 रुपए जुटाना भी मुश्किल था।”
ऐसी कई घटनाएं हैं जब पुरुषों की आमदनी में आई गिरावट की क्षतिपूर्ति के लिए परिवार की महिलाओं ने काम करना शुरू किया है। शबनम ने उत्तर पूर्व दिल्ली की खजूरिया ख़ास इलाके की एक महिला का उदाहरण दिया। उस महिला ने लॉकडाउन के दिनों में कमाना शुरू किया और डेनिम की सिलाई और कपड़ों के बड़े ऑर्डर को पूरा करते हुए घर चलाया। शबनम कहती हैं कि “छह महीनों तक उस महिला और उसकी बेटी ने घर का पूरा खर्च चलाया। छह महीने के बाद 2022 में उसके पति ने ई-रिक्शा चलाने का काम शुरू किया।” लॉकडाउन के दौरान, ज़्यादा से ज़्यादा मुस्लिम महिलाओं – यहां तक कि कम-आयवर्ग वाले घरों की महिलाओं- ने काम करना शुरू कर दिया और उनमें से कई अब भी काम कर रही हैं। शबनम आगे बताती हैं कि “यहां तक कि जो पहले काम नहीं करती थीं और जिनके पति ही अकेले कमाने वाले थे, वे भी अब काम कर रही हैं।”
खैर हेल्प फाउंडेशन उन मुस्लिम इलाकों में काम करता है जहां महिलाएं स्वरोजगार करती हैं। चूंकि उनके व्यवसाय स्थानीय लोगों की सेवा करते हैं, इसलिए उन्हें गैर-मुस्लिम क्षेत्रों में काम करने वाले मुस्लिमों की तरह धार्मिक भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता है। लेकिन उन प्रवासी मुस्लिम महिला श्रमिकों के बारे में क्या जो न केवल धार्मिक उत्पीड़न का सामना करती हैं बल्कि सरकारी रिकॉर्ड में भी दर्ज नहीं हैं, यहां तक कि कल्याणकारी कार्यक्रमों की सूची से भी गायब हैं?
संग्रामी घरेलू कामगार यूनियन (उत्तर भारत में सक्रिय घरेलू कामगारों का एक संघ) और मायग्रंट वर्कर्स सॉलिडैरिटी नेटवर्क की सदस्य श्रेया घोष कहती हैं कि “अधिकांश प्रवासी मुस्लिम महिलाएं खाना पकाने और साफ़-सफ़ाई जैसे घरेलू काम करती हैं और ऐसी प्रवासी मुस्लिम महिलाओं की संख्या बहुत कम हैं जो कपड़ा बनाने और निर्माण के क्षेत्र में कार्यरत हैं। दरअसल हमारे संघ से जुड़ी घरेलू कामगारों की 65–70 फ़ीसद हिस्सा मुसलमानों का है और बाक़ी के बचे लोग दलित वर्ग से हैं।”
लॉकडाउन का प्रभाव जिन लोगों पर सबसे ज़्यादा पड़ा है, उनमें से एक घरेलू कामगार भी हैं। आवागमन पर प्रतिबंध लगने के कारण उनके काम तो छूट ही गए, कई मामलों में उन्हें अपराधी भी करार दे दिया गया। 2020 में भारत के आठ राज्यों में किए गए एक सर्वे के अनुसार इनमें से 85 फ़ीसद लोगों को उनके काम का पैसा नहीं मिला।
लॉकडाउन के दौरान, घरेलू कामगारों पर अतिरिक्त निगरानी और उनके साथ होने वाली हिंसा और दुर्व्यवहार में बढ़ोतरी के कई मामले सामने आए।
श्रेया बताती हैं कि “चूंकि अधिकांश प्रवासी मुस्लिम महिलाएं घरेलू कामगारों का काम करती हैं, इसलिए इसका सीधा अर्थ यह भी है कि उन्हें संघर्ष भी करना पड़ता है।” लॉकडाउन के दौरान, घरेलू कामगारों पर अतिरिक्त निगरानी और उनके साथ होने वाली हिंसा और दुर्व्यवहार में बढ़ोतरी के कई मामले सामने आए। श्रेया आगे बताती हैं कि “गेटेड सोसायटीज में घरेलू कामगारों को प्रवेश के पहले सैनिटायज़ करने वाले शॉवर काउंटर से गुजरना अनिवार्य था। जबकि वहां के निवासियों को ऐसा करने की ज़रूरत नहीं थी। इसका स्पष्ट मतलब यह है कि आप घरेलू कामगारों को वायरस के वाहक के रूप में देख रहे थे।”
श्रेया के अनुसार, नियोक्ताओं की पहली पसंद प्रवासी घरेलू कामगार होते हैं क्योंकि वे कम पैसे मांगते हैं और अक्सर ज़्यादा दिनों तक टिकते हैं। वे आगे कहती हैं कि “कोविड-19 के चरम और प्रवासियों के अपने गांव लौटने के दिनों में भी घरेलू कामगार नहीं गए। कुछ ने छह महीनों तक इंतज़ार किया तो वहीं कुछ ने एक साल तक इस उम्मीद में अपने दिन काटे कि चीजें सामान्य हो जाएंगी। किसी दूसरे शहर में रहने और खाने का संघर्ष होने के बावजूद वे शहर छोड़ कर नहीं गए क्योंकि वहां अपने गांव में उनके पास न तो खेती के लिए ज़मीन है और ना ही छोटा-मोटा कोई धंधा शुरू करने के लिए आवश्यक संसाधन।”
भले ही कोविड-19 के कारण आवाजाही पर अब उस प्रकार से प्रतिबंध नहीं रह गया है लेकिन घरेलू कामगारों और प्रवासी मुस्लिम महिला श्रमिकों की स्थिति में सुधार की सम्भावना न के बराबर है। उनका यह संघर्ष ज़ारी रहेगा क्योंकि उनके पास श्रम क़ानून सुरक्षा की कमी है। 1959 से कई ऐसे बिल संसद में पेश किए गए हैं जो बुनियादी सुरक्षा उपायों जैसे कि उचित वेतन, पेंशन और घरेलू कामगारों को मातृत्व और स्वास्थ्य लाभ सुनिश्चित करने की मांग करते हैं। लेकिन इनमें से एक भी क़ानून पारित नहीं हुआ है।
प्रवासी मुस्लिम महिलाओं को एरर ऑफ़ ओमिसन का भी सामना करना पड़ता है। 2011 जनसंख्या सर्वे के अनुसार कुल प्रवासी आबादी का 67 फ़ीसद महिलाएं हैं और ऐसा अनुमान लगाया गया है कि इनमें 11 फ़ीसद महिलाओं ने अपने पूरे परिवार के साथ प्रवास किया है। इस आंकड़े में यह नहीं दर्शाया गया है कि इनमें से अपने पतियों के साथ प्रवास करने वाली ज़्यादातर महिलाएं भले ही खुद को घर का खर्च चलाने वाले के रूप में न देखती हों लेकिन वे काम करती हैं। श्रेया बताती हैं कि “अगर आप उन घरेलू कामगारों से पूछेंगे तो उनका यही कहना होगा कि ‘हम अपना घर-गांव छोड़कर इसलिए आ गए क्योंकि हमारे पति प्रवासी थे’, लेकिन वे सभी कामकाजी महिलाएं हैं। हमारे समाज में महिलाओं के श्रम को जिस रूप में देखा और समझा जाता है वह एक शोचनीय प्रश्न है।”
भारत में अंतरराज्यीय प्रवासन पर पर्याप्त डेटा उपलब्ध नहीं है और सरकार, महामारी के दौरान नौकरियों के नुकसान और श्रमिकों की मौतों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी एकत्र करने में विफल रही है। आजीविका पर पहचान के प्रभाव को लेकर भी शोध की कमी है। बिना आंकड़ों के सरकारी योजनाओं, नीतियों और कल्याणकारी कार्यक्रमों का लाभ लोगों तक कैसे पहुंचेगा?
श्रमबल में मुस्लिम महिलाओं के विषय पर कोई भी गहन शोध नहीं कर रहा है।
श्रेया का मानना है कि यह जानबूझकर छोड़ा गया विषय है। “सरकार उनकी गिनती नहीं करती है क्योंकि वह उन उद्योगों को नुक़सान नहीं पहुंचाना चाहती जो बड़े पैमाने पर कुछ राज्यों से विशेष आर्थिक क्षेत्रों में प्रवासन से लाभान्वित हो रहे हैं। वे चाहते हैं कि श्रमिकों को नागरिकों के बजाय एक समूह के रूप में देखा जाए जो अपनी तरह की चुनौतियां लेकर आता है।”
शोध की यह कमी केवल प्रवासियों तक ही सीमित नहीं है। 2022 में लेड बाय ने प्रवेश स्तर की नौकरियों में मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ भेदभाव पर एक अध्ययन प्रकाशित किया था। दीपांजलि कहती हैं कि “हमने अध्ययन शुरू किया क्योंकि हम यह कहते-कहते थक गए थे कि किसी भी तरह का वास्तविक डेटा उपलब्ध नहीं है। कोई भी [कार्यबल में मुस्लिम महिलाओं पर] गहन शोध नहीं कर रहा है। उदाहरण के लिए, भारत में काम पर हिजाबी महिलाओं को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, उन पर कोई शोध नहीं है, हालांकि विदेशों में ऐसे अध्ययन हैं जो उनके साथ बड़े पैमाने पर हो रहे भेदभाव को दिखाते हैं।”
समाजसेवी संस्थाओं का मानना है कि भारत के विशाल और विविध भूगोल और जनसांख्यिकी के अनुरूप बड़े पैमाने पर अनुसंधान करने के लिए केवल सरकार के पास बैंडविड्थ है। श्रेया कहती हैं कि “जब हम श्रमिकों के बीच काम करते हैं, तो हमारे पास एक व्यापक सर्वेक्षण करने के लिए आवश्यक संसाधन और पहुंच नहीं है। यह सरकार का काम है। यहां तक कि सबसे साधन-संपन्न समाजसेवी संस्था भी उस तरह का सर्वेक्षण नहीं कर सकती है, जैसा कि सरकारी कार्यालय कर सकता है।”
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
ब्रह्मपुत्र नदी पर स्थित द्वीप, माजुली 1950 के दशक में 1250 वर्ग किलोमीटर तक फैला हुआ था लेकिन अब यह सिकुड़ कर 483 वर्ग किलोमीटर रह गया है। कभी यह क्षेत्र दुनिया के सबसे बड़े नदी द्वीप के नाम से प्रसिद्ध था। लेकिन अब इस क्षेत्र की मिट्टी नदी में आने वाली बाढ़ के कारण नष्ट हो रही है। इसका गम्भीर प्रभाव यहां के निवासियों के भरण-पोषण पर पड़ रहा है। माजुली में काम कर रहे SeSTA के इग्ज़ीक्यूटिव कीशम बलदेव सिंह का कहना है कि “मैंने एक साल के भीतर ही [लगभग] 500 मीटर का कटाव देखा है। पिछले साल हमने श्री लुहित पंचायत के पास पिकनिक का आयोजन किया था। इस साल वह जगह गायब हो चुकी है।”
सरकार ने मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए नदी के तट पर जियोबैग और कंक्रीट के तिकोने ढांचों का निर्माण करवाया है जिसे पर्क्यूपाईन या साही कहा जाता है। लेकिन इन समाधानों का प्रभाव सीमित है। कटाव के कारण कई गांव ढह गए हैं और वहां के निवासियों को विस्थापित होना पड़ा है। क्षेत्रफल में आई कमी के कारण जानवर अब गांवों का रुख़ करने लगे हैं। इसके चलते उनके और स्थानीय किसानों के बीच टकराव के मामले भी सामने आए हैं।
बाढ़ के कारण क्षेत्र में उपजाऊ जमीन की उपलब्धता और वन्यजीव के प्राकृतिक आवास भी प्रभावित हुए हैं। उदाहरण के लिए, माजुली में पहले बंदर दिखाई नहीं पड़ते थे लेकिन पिछले कुछ सालों में वे गांवों की तरफ़ आ गए हैं और किसानों की फसल को नुक़सान पहुंचाने लगे हैं। माजुली के आसपास फलों का कोई बगीचा या घने जंगल वाला इलाक़ा नहीं है जहां ये बंदर रह सकें और अपना पेट भर सकें। इसलिए वे किसानों की फसल खा जाते हैं और कभी-कभी न खाने लायक़ फसलों को जड़ से उखाड़कर बर्बाद कर देते हैं। अपनी आजीविका को बचाने के लिए किसानों के पास उन बंदरों को मार कर भगाने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता है।
फसल के लिए उपलब्ध सीमित भूमि ने इलाक़े के अनगिनत किसानों को पशुपालन अपनाने की तरफ भेज दिया है। बेलोगुरी गांव में मुर्गीपालन करने वाली सपना घोष बताती हैं कि मवेशियों को पालने की अपनी चुनौतियां हैं। गांव के भीतर घुस चुकी जंगली बिल्लियों के लगातार हमलों के कारण उसके मुर्गीपालन व्यापार का आकार बहुत छोटा हो गया है। इसलिए उन्होंने अपनी मुर्गियों के लिए एक आश्रय बनवाया है और अपनी मेहनत पर पानी फेरने वाले उन शिकारी बिल्लियों को पकड़ने के लिए पिंजरे भी लगवाए हैं। सपना कहती हैं कि “मैं क्या कर सकती हूं? मैंने पिंजरा बनवाया और तीन जंगली बिल्लियों को पकड़ा। लेकिन पिछले कुछ दिनों से एक भी बिल्ली पकड़ में नहीं आई है। अब वे पिंजरे में नहीं घुसती हैं।”
इंसानों और जानवरों के बीच इस विवाद का मुख्य कारण भूमि पर किया जाने वाला क़ब्ज़ा है। द्वीप का तेज़ी से हो रहा क्षरण इसके निवासियों के बीच स्वामित्व और अस्तित्व के प्रश्न को उठा रहा है।
जैसा कि आईडीआर को बताया गया।
कीशम बलदेव सिंह असम के माजुली में SeSTA के इग्ज़ेक्युटिव हैं। सपना घोष असम के माजुली में मुर्गीपालन का काम करती हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
अधिक जानें: इस लेख को पढ़ें और जानें कि कश्मीर में वनों की कटाई मानव-पशु संघर्ष का कारण कैसे बन रही है।
अधिक करें: लेखक के काम को विस्तार से जानने और अपना समर्थन देने के लिए उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें।
इंटर्नेशनल यूनियन कन्ज़र्वेशन ऑफ़ नेचर (आईयूसीएन) का एक सिस्टम जो ख़तरों का वर्गीकरण करता है, “जलवायु परिवर्तन और उग्र मौसम” को वन्यजीवों के लिए ख़तरा पैदा करने वाली 12 श्रेणियों में से एक रूप में पहचानता है।
इंटरगवर्नमेंटल सायंस-पॉलिसी प्लैटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज़ की एक ऐतिहासिक रिपोर्ट के अनुसार, वन्य जीवों में से 47 फ़ीसदी और विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुके पक्षियों में से 23 फ़ीसदी पर पहले से ही जलवायु परिवर्तन का नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
भारत में, नैशनल वाइल्डलाइफ एक्शन प्लान (एनडबल्यूएपी) 2017–31 इस बात को स्वीकार करती है कि देश के संरक्षित क्षेत्रों को जब डिज़ाइन किया गया था तब वन्यजीव संरक्षण के लिए जलवायु परिवर्तन को मानदंड नहीं माना जाता था। एनडबल्यूएपी इस ओर ध्यान दिलाता है कि जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप वन्यजीव प्रजातियों को अधिक अनुकूल आवास मुहैया करवाने की ज़रूरत है। वर्तमान में भारत में वन्यजीव के लिए सुरक्षित क्षेत्र के रूप में केवल 5 फ़ीसद भूमि ही आवंटित है। ये सुरक्षित क्षेत्र भी अक्सर सघन आबादी वाली बस्तियों से घिरे होते हैं जहां मनुष्य एवं पशुओं के बीच पस्पर संबंध एवं संघर्ष की गुंजाइश होती है। वन्यजीव शोध, संरक्षण, नीति एवं शिक्षा पर काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था सेंटर फ़ॉर वाइल्डलाइफ़ स्टडीज़ (सीडबल्यूएस) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में वन्यजीव संघर्ष की दर बहुत ऊंची है और यहां सरकार द्वारा वन्यजीव संघर्ष से जुड़े औसतन 80 हजार मामले प्रतिवर्ष दर्ज किए जाते हैं।
मोटे तौर पर पांच तरह के संघर्ष होते हैं: लोगों की फसल का नुकसान, संपत्ति का नुकसान, पशुधन पर हमला, लोगों का घायल होना या मृत्यु। लगभग 70 फ़ीसद मामले फसल एवं सम्पत्ति के नुक़सान से जुड़े होते हैं। पशुधन नुक़सान का आंकड़ा लगभग 15–20 फ़ीसद है और लोगों को पहुंचने वाली चोट या मृत्यु के 5 फ़ीसद मामले दर्ज किए जाते हैं। हालांकि हाथियों, सूअरों, बाघों, तेंदुओं और भालुओं जैसे बड़े जानवरों के निकट संपर्क में आने वाले लोगों की भारी संख्या को देखते हुए यह आंकड़ा उल्लेखनीय रूप से कम है।
सीडब्ल्यूएस की कार्यकारी निदेशक डॉ कृति कारंत बताती हैं कि किन परिस्थितियों में मानव-वन्यजीव संघर्ष चरम पर पहुंच जाता है। वे कहती हैं कि “अगर एक हाथी किसी किसान के खेत में घुसता है और सात साल में 70 बार किसी की फसल बर्बाद कर देता है तो लोगों की प्रतिक्रिया स्वाभाविक है जैसा कि हमने अपने वाइल्ड सेव कार्यक्रम में देखा है। सम्भव है कि ये लोग अपने खेतों में खुले तार बिछा दें जिससे उनके खेतों को चरने वाले हाथियों को करंट लग जाए। यह इस बात का एक उदाहरण है कि यदि आप नुक़सान उठा रहे लोगों की मदद के लिए आगे नहीं आते हैं तो क्या-क्या हो सकता है। किसी व्यक्ति को चोट पहुंचने या उसकी मृत्यु की स्थिति में भीड़ वन अधिकारियों पर हमला कर देती है क्योंकि लोग मानते हैं कि ये वन्यजीव इन अधिकारियों की जिम्मेदारी हैं। हालांकि ये सब अतिवादी स्थितियां है। लेकिन ऐसा रोज़-रोज़ नहीं होता है।”
‘ये जानवर हमसे पहले से यहां रह रहे थे। हमें उनके साथ रहना सीखना होगा।’
मानव-पशु संघर्ष का यह मामला अकेले भारत की समस्या नहीं है। बड़े पैमाने पर विकास, ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव और आर्थिक रूप से प्रगति करने के बावजूद भारत ने अपने वन्य जीवन को बनाए रखा है। यहां के लोगों में पशुओं के प्रति एक गज़ब की सांस्कृतिक सहिष्णुता होती है। कृति के अनुसार “भगवान गणेश के कारण हाथियों के प्रति श्रद्धा तो होती ही है। इसके अलावा हमें कई लोगों ने यह भी बताया कि ‘ये जानवर हमसे पहले से यहां रह रहे थे। हमें उनके साथ रहना सीखना होगा।’ यही बात भारत को अन्य एशियाई देशों से अलग बनाती है। चीन, थाईलैंड और वियतनाम जैसे देशों में भी ऐसे ही जानवर हैं, लेकिन वन्यजीव से उनके अलग प्रकार के संबंध के कारण इन जानवरों की संख्या अब बहुत कम रह गई है।” कृति का मानना है कि अपनी अंतर्निहित संस्कृति और जगह को साझा करने की अपनी विरासत के कारण भारत ने लोगों और जानवरों के बीच एक बहुत ही अस्थिर सा संतुलन बनाए रखा है।
दक्षिणी भारत के बन्नेरघट्टा होसुर इलाके में वैज्ञानिक अनुसंधान, पर्यावरण शिक्षा और समुदाय-आधारित संरक्षण परियोजनाओं पर काम करने वाली संस्था- ए रोचा इंडिया के कार्यकारी निदेशक अविनाश कृष्णन भी कृति की इस बात से सहमति जताते हैं। “एक देश के रूप में हम इस तरह के संघर्षों के प्रति बहुत अधिक सहिष्णु हैं। इसलिए हम इस क्षेत्र में बहुत कुछ कर सकते हैं क्योंकि समुदायों की नींव में स्वीकृति और सकारात्मकता है। ऐसी स्थितियां तभी आती हैं जब आप इस संघर्ष को उस स्तर पर पहुंचने देते हैं जहां लोगों का जीवन और उनकी आजीविका गम्भीर रूप से ख़तरे में पड़ जाएं और वे प्रतिशोध की भावना से भर जाएं।”
वे आगे जोड़ते हैं कि यदि हम संघर्ष को प्रबंधित किए जा सकने लायक बनाए रख पाएं और इसकी जवाबदेही उठाएं तो लोगों में स्वीकार्यता का स्तर बढ़ेगा। “समस्या यह है कि संघर्ष की जवाबदेही कोई नहीं लेता है। यदि किसानों की फसलों को नुक़सान पहुंचता है तो वन विभाग की यह जिम्मेदारी होती है कि वह तुरंत उस घटना की जांच करे और आवश्यक कदम उठाए। लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि किसान अपना ग़ुस्सा सीधे उन पर ही निकालेंगे। वहीं, दूसरी तरफ किसानों को लगता है कि इन जानवरों की ज़िम्मेदारी वन विभाग की है। लेकिन हमने देखा है कि जब हमने (एक संरक्षण संगठन के रूप में) लोगों से सम्पर्क किया तो हमारे हाथियों के पक्ष से होने के बावजूद उन लोगों को महसूस हुआ कि उनकी बातें सुनी जा रही हैं और उनकी भी सुध लेने वाला कोई है।”
संघर्ष इन प्रदेशों के लोगों की आजीविका को नष्ट कर देते हैं और उन्हें शारीरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, भारत के पूर्वी घाटों में स्थित बनेरघट्टा नैशनल पार्क (बीएनपी) के आसपास के इलाक़ों में फसल सीधे हाथियों की चपेट में आ जाती हैं। अविनाश के अनुसार, इस इलाक़े में किसानों को प्रति एकड़ पैदा होने वाले 15 क्विंटल रागी में से औसतन 10 क्विंटल का नुक़सान उठाना पड़ता है। अपनी जीविका के लिए खेती करने वाले एक किसान की फसल का 75 फ़ीसद हिस्सा बर्बाद हो जाने के बाद उसके पास कुछ भी नहीं बचता है। कौशल की कमी के कारण उनके पास वैकल्पिक काम के सीमित अवसर उपलब्ध होते हैं। वे आसपास के शहरों में दिहाड़ी मज़दूर के रूप में भी काम करने में सक्षम नहीं होते। इसके अतिरिक्त, इन इलाक़ों में सब्सिडी या सामाजिक सुरक्षा के रूप में किसी तरह की सहायता की व्यवस्था भी उपलब्ध नहीं है। इसलिए हाथियों के इस आतंक से बचने में किसानों की मदद करने के अलावा उनकी आर्थिक स्थिति को बेहतर करने के प्रयास भी समान रूप से महत्वपूर्ण हैं, अविनाश सुझाव देते हैं। ताकि मानव-हाथी संघर्ष के बावजूद इन किसानों के पास एक आय का एक स्थिर स्त्रोत उपलब्ध हो सके।
सुरक्षा के पारम्परिक तरीक़ों का प्रभाव सीमित होता है। सीडबल्यूएस ने संघर्ष को कम करने के लिए लोगों द्वारा किए गए बिजली या सौर बाड़ लगाने, मिर्ची या अदरक उगाने या खाई खोदने जैसे विभिन्न उपायों का वैज्ञानिक मूल्यांकन किया है। उनके अध्ययन से यह बात सामने आई है कि ज़मीन की सुरक्षा में किए गए ज़्यादातर निवेश व्यर्थ जाते हैं। कृति बताती हैं कि बाड़ वाला उपाय तभी कारगर हो सकता है जब ये लोग नियमित रूप से बिजली के बिल का भुगतान करें या फिर सौर बाड़ के लिए बैट्री का इस्तेमाल करें। लेकिन सीडबल्यूएस के अनुसार शुरुआती उत्साह के बाद समुचित रखरखाव की कमी के कारण ये सभी उपाय असफल साबित होते हैं।
जानवरों के चरने और इसके लिए उनके द्वारा वन के उपयोग के तरीक़ों में भी बदलाव आ रहा है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को ध्यान में रखना भी महत्वपूर्ण है। बेमौसम और अनियमित बारिश पहले फसल की पैदावार और उसके बाद किसानों की आय को प्रभावित करती है। नतीजतन, इन किसानों की स्थिति और अधिक कमजोर हो जाती है। जानवरों के चरने और वन का इस्तेमाल करने के तरीक़ों में भी बदलाव आ रहा है। कुछ प्रजातियों में मौसम के अनुसार नियमित रूप से फूल और फल नहीं लगते हैं जिसके कारण पेट भरने के लिए इन इलाक़ों के जानवर अपना रास्ता बदल लेते हैं। नतीजतन, तेज़ी से असंतुलन की स्थिति पैदा हो रही है।
अविनाश बताते हैं कि वन के कुछ क्षेत्रों में जानवरों की उपस्थिति नहीं होनी चाहिए लेकिन उनके रास्ता बदलते रहने के कारण इकोसिस्टम में भी बदलाव आ रहा है। इसके चलते चीजों की प्राकृतिक व्यवस्था प्रभावित हो रही है। उदाहरण के लिए, हाथी हिमाचल और देश के अन्य ठंडे प्रदेशों की ओर बढ़ रहे हैं, उन इलाक़ों में जहां पिछले चार दशकों में हाथी नहीं देखे गए थे। हाथी चलते हुए अपने रास्ते में आने वाले जंगलों को रौंदते हुए आगे बढ़ते हैं। नतीजतन इन इलाक़ों में रह रही प्रजातियों का जीवन भी प्रभावित होता है।
संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाली सीडबल्यूएस, ए रोचा और नेचर कंज़र्वेशन फ़ाउंडेशन जैसी समाजसेवी संस्थाएं अपना बहुत सारा समय इन इलाक़ों में रहने वाले समुदायों के साथ विश्वासपूर्ण संबंध स्थापित करने में लगाती हैं। उदाहरण के लिए, कोविड-19 के दिनों में सीडबल्यूएस ने राहत अभियान चलाए थे जिनमें उन्होंने पश्चिमी घाटों में स्थित 610 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में दवा एवं अन्य जरूरी चीजों की आपूर्ति की थी। चूंकि इन इलाक़ों में उनके अलावा कोई दूसरी संस्था इस तरह का काम नहीं कर रही थी इसलिए उन्हें यहां के लोगों के साथ भरोसेमंद रिश्ते बनाने में बढ़िया सफलता मिली। महामारी के दौरान सीडबल्यूएस ने जब इन समुदायों की मदद की, तब स्थानीय लोगों को इस बात का एहसास हुआ कि यह संगठन न केवल वन्यजीव संरक्षण का काम करता है बल्कि लोगों के कल्याण का भी ध्यान रखता है।
संरक्षण के प्रयासों में लगे हुए ज़्यादातर लोगों के पास स्थितियों को समझने एवं उपयुक्त समाधान देने के लिए आवश्यक पारम्परिक और स्थान-विशिष्ट ज्ञान की कमी होती है। अविनाश के अनुसार, संरक्षण को कारगर बनाने के लिए संघर्ष में शामिल समुदायों के समीकरणों या विशिष्ट प्रजातियों की इकोलॉजी और जीवविज्ञान को समझना जरूरी है। अविनाश कहते हैं कि “इस ज्ञान की अनुपस्थिति में हम ऐसे समाधान लेकर आते हैं जो लम्बे समय तक प्रभावी नहीं रह पाते।”
सीडबल्यूएस, वाइल्ड सुरक्षे नाम से एक सामुदायिक कार्यशाला संचालित करता है। इस कार्यशाला में वन्यजीव एवं समुदायों के बीच पुल की तरह काम करने वाले लोगों जैसे ग्राम पंचायत, आशा तथा आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया जाता है। इन कार्यशालाओं में उन्हें संघर्ष के कारण, सुरक्षित रहने के उपायों, वन्यजीवों, लोगों और मवेशियों में फैलने वाली छह आम बीमारियों तथा उन्हें फैलने से रोकने के उपायों आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है। कृति का कहना है कि ज़मीन पर हुई इन साझेदारियों की मदद से उन्हें समुदाय की ज़रूरतों के बारे में गहराई से जानने और संघर्ष को कम करने वाले समाधानों पर काम करने में आसानी होती है।
हर संघर्ष की प्रकृति स्थानीय पर्यावरण, संदर्भ और पारिस्थितिकी के मुताबिक विशिष्ट होती है, इसलिए इनका समाधान भी विशिष्ट होना चाहिए। अविनाश एलिफ़ेंट सिग्नल का उदाहरण देते हैं जिसे एक बड़ी समस्या के सरल समाधान के रूप में तैयार किया गया था। अन्य संरक्षित क्षेत्रों के विपरीत, बीएनपी का एक रास्ता पार्क के बीच से होकर गुजरता है। चूंकि ये सड़कें आधिकारिक रास्ता नहीं हैं इसलिए यहां आए दिन हाथियों और आम लोगों के बीच टक्कर होती रहती है। इसके एक सरल समाधान के रूप में ट्रैफ़िक सिग्नल की तरह ही ‘एलिफ़ेंट सिग्नल’ लगाया गया जो चेतावनी यंत्र की तरह काम करता है। यह सिग्नल लोगों को हाथियों के चलने की जानकारी देता है और उन्हें रुकने और सावधान होने का संकेत प्रदान करता है। यह सिग्नल शहरों में काम करने वाले ट्रैफ़िक सिग्नल की तरह ही काम करता है। स्थानीय लोगों ने इसे स्वीकार किया क्योंकि इससे उन्हें अपना दैनिक कामकाज जारी रखने और अपनी आजीविका चलाने में सुविधा हुई।
ए रोचा इंडिया, संस्था भी समुदायों के साथ मिलकर काम कर रही है ताकि उन किसानों को आर्थिक स्थिरता प्रदान की जा सके जिनकी फसलें हाथियों के कारण बर्बाद हो जाती हैं। अविनाश कहते हैं कि “हमने स्वदेशी रागी और मसूर की कुछ क़िस्मों के बारे में उन्हें बताया जो पर्यावरण के बदलावों का सामना ज्यादा कर सकती हैं। जलवायु परिस्थितियों के बदलते रहने की स्थिति में भी इन फसलों की उपज स्थिर रहती है।” अविनाश आगे जोड़ते हैं कि संरक्षण के लिए किसी भी प्रकार के स्केलेबल मॉडल का होना असंभव है। उनका कहना है कि इसके बदले यहां छोटे-छोटे और अति स्थानीय समाधानों की एक श्रृंखला अधिक कारगर है। इनमें एलिफ़ेंट सिग्नल, वैकल्पिक फसल की उपलब्धता, आय के स्त्रोत के रूप में मधुमक्खी पालन आदि शामिल हैं। जब आप इन उपायों को एक साथ अपनाते हैं, तब यह समुदायों और संरक्षण के लिए एक कारगर समाधान के रूप में काम करता है।
संघर्ष के कारण हुए नुकसान के लिए मुआवजा एक महत्वपूर्ण रणनीति है। कृति का कहना है कि कई राज्यों में वन्यजीव मुआवजे के लिए अलग से राशि उपलब्ध होती है। लेकिन वास्तविक चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि इस राशि का लाभ उन लोगों तक पहुंचे जिन्हें मानव-पशु संघर्ष के कारण नुक़सान उठाना पड़ता है।
अपने पुरस्कृत वाइल्ड सेव कार्यक्रम की मदद से सीडबल्यूएस एक पुल की तरह काम करता है। इसका काम यह सुनिश्चित करना है कि आवेदकों के दावे ख़ारिज न हों और उन्हें मुआवज़े की राशि मिल जाए। टोल-फ़्री नंबर जैसे सहज उपाय पर केंद्रित वाइल्ड सेव कार्यक्रम की पहुंच भारत में चार अभ्यारण्यों के आसपास बसे लगभग 1,500 गांवों तक हो चुकी है। किसी भी प्रकार की दुर्घटना की स्थिति में लोग इस नम्बर पर फ़ोन करते हैं जिसके बाद सीडबल्यूएस के कर्मचारी घटना स्थल पर पहुंच कर दुर्घटना को दर्ज करने और मुआवजे के लिए आवश्यक काग़ज़ात तैयार करने, फ़ोटो लेने और सरकार के सामने दावे को वैध बनाने जैसे जरूरी काम करते हैं। कृति बताती हैं कि अपने कार्यान्वयन के सात सालों में उन्होंने 22,000 से अधिक मामलों को दर्ज करवाने में मदद की है और लोगों को कर्नाटक एवं तमिलनाडु सरकार से पांच लाख डॉलर से अधिक राशि मुआवजे के रूप में दिलवाई है।
मानव-पशु संघर्ष में तीन तरह के हितधारक शामिल होते हैं। सरकार में वन से जुड़े सभी विभाग क्योंकि संघर्षों के प्रबंधन की जिम्मेदारी उनकी होती है; दूसरे संघर्ष से सीधे रूप से प्रभावित होने वाले स्थानीय समुदाय और दोनों के बीच पुल के रूप में काम करने और समस्याओं पर ध्यान दिलवाने में मदद करने वाले समाजसेवी संगठन वगैरह। अविनाश कहते हैं कि इन हितधारकों के बीच संवाद, समन्वय एवं सहयोग को विकसित करना जरूरी है जो अब तक न के बराबर है। “जब तक हम इसे किसी दूसरे की समस्या के रूप में देखना बंद कर, इसके लिए सामूहिक रूप से कुछ करना आरम्भ नहीं कर देते हैं। तब तक आज उभर रही ये समस्याएं, जो पहले से हमें विरासत में मिली हैं, भविष्य में अधिक जटिल मुद्दों के रूप में हमारे सामने आएंगी।
कृति के अनुसार, समाजसेवी संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है लेकिन उनके काम और उनके महत्व को कम आंका जा रहा है जिसे बदलने की ज़रूरत है। “समाजसेवी संस्थाएं सरकार की तरह बड़े पैमाने पर किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकती हैं। लेकिन उनके पास कई वर्षों में हासिल हुआ ज्ञान, उपकरण और सबसे महत्वपूर्ण गहरी समझ और कारगर उपायों की विशेषज्ञता ज़रूर है।” कृति का सुझाव है कि सरकारों को सरकारी प्रणालियों में समाजसेवी संस्थाओं को ज्ञान के सहयोगी के रूप में शामिल करना चाहिए क्योंकि वे इस मानव-पशु संघर्ष को प्रबंधित करने वाले आवश्यक कार्यक्रम बनाने में सक्षम हैं।
संरक्षण के प्रयासों को समाजसेवी संस्थाओं, युवा कार्यकर्ताओं या शहरी सम्भ्रांत लोगों के एक छोटे से समूह तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। अविनाश के अनुसार एक बढ़ई से लेकर एक मंत्री तक सभी को संरक्षण के प्रयास से जुड़ना चाहिए।
संस्था के स्तर पर, शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे संगठनों को स्कूल में छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए संरक्षण को एक विषय के रूप में शामिल करने के प्रयास पर काम करना चाहिए। उदाहरण के लिए, सीडबल्यूएस के वाइल्ड शेल कार्यक्रम को भारत में वन्य जीव अभ्यारण्यों के आसपास के ग्रामीण इलाक़ों में स्कूल जा रहे 10–13 वर्ष के बच्चों के लिए तैयार किया गया है। इस कार्यक्रम के हिस्से के रूप में वे कला, कथा-वाचन और विभिन्न प्रकार के खेलों का उपयोग कर बच्चों को पर्यावरण विज्ञान और संरक्षण के बारे में इस प्रकार सिखाते हैं जिससे उनका ध्यान पर्यावरण की देखभाल पर जाता है।
अविनाश का सुझाव है कि सामाजिक दृष्टिकोण से स्थानीय राजनेताओं जैसे कि विधायकों एवं सांसदों को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। वे कहते हैं कि “लोगों को उनसे पूछना चाहिए कि संरक्षण को लेकर उनकी क्या राय है। आज हम अपने प्रतिनिधियों से ख़राब सड़कों, स्ट्रीट लाइट के न होने जैसी चीजों की शिकायतें करते हैं लेकिन जंगलों का मुद्दा भी हमें इतना ही प्रभावित करता है। जब हम जंगल बचाते हैं, तभी बाक़ी लोगों को इकोसिस्टम से लाभ मिल पाता है। यह तापमान को कम करता है और हवा को साफ़ रखता है। हमारा संदेश यही होना चाहिए, न कि यह कि पर्यावरण विकास विरोधी है।”
जिस तरह से मीडिया में मानव–पशु संवाद को कवर किया जाता है उसे बदलने की जरूरत है।
मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है। कृति का मानना है कि जिस तरह से मीडिया में मानव-पशु संवाद को कवर किया जाता है उसे बदले जाने की जरूरत है। वे कहती हैं कि “उन्हें मानव-पशु संघर्षों से जुड़े मामलों को सनसनीखेज़ बनाना बंद करना होगा। चाहे किसी बाघ की वज़ह से किसी इंसान की मृत्यु हो या फिर गलती लोगों की हो, यह सब कुछ एक बड़े और विस्तृत संवाद का हिस्सा होता है। मारे जा रहे लोगों या जानवरों की क्लिप को बार-बार चलाना सही नहीं है। जब मीडिया संघर्ष की इन घटनाओं को सनसनीखेज बनाता है, तो यह दीर्घावधि में संरक्षण के प्रयासों के प्रभाव को कम करता है और उसे असफल बनाता है।”
समाज के हर व्यक्ति के जागरूक होने से, जानवरों के जीवन में अंतर आ सकता है, इन जानवरों के आसपास रहने वाले स्थानीय लोगों पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने में मदद मिल सकती है। साथ ही, ऐसा होना संरक्षण के प्रयासों को समग्र रूप से प्रभावी बनाने में भी अपना योगदान दे सकता है।
इस लेख में हलीमा अंसारी ने भी योगदान दिया है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
बात जब जलवायु संकट की आती है तो सार्वजनिक संवाद और राय को सूरत देने में मीडिया की भूमिका बहुत अधिक महत्वपूर्ण होती है। यह आपातकालीन परिस्थितियों, उनके प्रभाव और उनकी गंभीरता से जुड़ी जानकारी को लोगों तक पहुंचाने वाला एक शक्तिशाली साधन है। यह लोगों को जलवायु-अनुकूल व्यवहारों को अपनाने के लिए प्रेरित कर सकता है। समय के साथ न्यूज़रूम में जलवायु संबंधी चर्चा गम्भीर होती जा रही है। लेकिन समाचार के भरोसेमंद स्त्रोतों की कमी, इस तरह की सूचनाओं के प्रसार के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा-शैली और कठिन भाषा के इस्तेमाल के कारण इस संकट से जुड़ी जानकारियां आम लोगों के लिए सुलभ नहीं हो पा रही हैं। ऐसा होना जलवायु के संरक्षण के लिए व्यक्तिगत स्तर पर सही कार्रवाई करने में एक बड़ी बाधा बन सकता है।
जलवायु परिवर्तन कवरेज की सार्वजनिक धारणा के रूप में समाचार मीडिया में जलवायु परिवर्तन का प्रतिनिधित्व, एक ऐसा विषय है जिस पर बहुत कम अध्ययन हुआ है। वहीं विश्व के अन्य हिस्सों (ग्लोबल नॉर्थ) में जलवायु परिवर्तन और इससे संबंधित खबरों को लेकर लोगों की सोच से जुड़े आंकड़े उपलब्ध हैं। इसके उलट, ग्लोबल साउथ से इस तरह के आंकड़े प्राप्त करना आसान काम नहीं है।
जलवायु परिवर्तन के प्रति लोगों के दृष्टिकोण और इससे जुड़े समाचारों के प्रति उनकी धारणा का अध्ययन करने के लिए, रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म की ओर से इप्सोस ने 2022 में एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में ब्राज़ील, फ़्रांस, जर्मनी, भारत, जापान, पाकिस्तान, यूके तथा यूएसए जैसे आठ देशों ने हिस्सा लिया था। हालांकि इस अध्ययन के लिए आयु वर्ग, लिंग और धर्म के राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व वाली आबादी से सैम्पल इकट्ठा किए गए थे। लेकिन इसमें कई प्रकार की चेतावनियां भी शामिल हैं। दरअसल, भारत और पाकिस्तान में इंटरनेट की पहुंच का स्तर बहुत कम क्रमश: 43 फ़ीसद तथा 25 फ़ीसद है। इसके अतिरिक्त, भारत में यह सर्वेक्षण अंग्रेज़ी भाषा में किया गया था। नतीजतन, स्वाभाविक रूप से इस सर्वे में अंग्रेज़ी भाषा तथा इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों ने हिस्सा लिया था जो कुल आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।
इस अध्ययन से मिलने वाले कुछ मुख्य परिणाम इस प्रकार हैं:
आमतौर पर जलवायु समाचारों से भी उसी प्रकार बचने की प्रवृति देखी गई है जिस प्रकार कुछ चुनिंदा समाचारों से बचा जाता है। भारत के उत्तरदाताओं ने सामान्य एवं जलवायु परिवर्तन से जुड़े दोनों प्रकार के समाचारों के प्रति नकारात्मक संकेत दिए हैं। शोध से यह बात भी सामने आई है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं में समाचारों को नजरअंदाज करने की प्रवृति अधिक पाई जाती है। लेकिन इस अध्ययन के अनुसार जलवायु से जुड़े समाचारों के उपभोग के मामले में पुरुषों एवं महिलाओं में किसी प्रकार का विशेष अंतर नहीं पाया गया है। जैसा कि आमतौर पर सभी प्रकार के समाचारों के साथ होता है, जलवायु-संबंधी खबरों को नजरअंदाज करने की सबसे अधिक संभावना युवाओं में होती है लेकिन यह अंतर भी बहुत अधिक नहीं है। उत्तरदाताओं का कहना है कि जलवायु से जुड़ी खबरों को नजरअंदाज करने के पीछे नई जानकारियों की कमी, दिमाग़ पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरों की बहुतायत से होने वाली मानसिक थकान और अविश्वसनीयता जैसे कई कारण हैं।
गलत सूचनाओं की निरंतरता के कारण जलवायु समाचारों पर भरोसे की कमी है। शोध बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी गलत सूचनाओं का प्रसार जलवायु कार्रवाई के लिए आवश्यक सार्वजनिक समर्थन को लगातार कमजोर करता है। जलवायु परिवर्तन की गलत सूचना के स्रोतों के बारे में पूछे जाने पर, उत्तरदाताओं ने उन्हीं स्रोतों का हवाला दिया, जिनका उपयोग वे जलवायु समाचारों तक पहुंचने के लिए करते हैं। ग़लत सूचनाओं के स्त्रोत के रूप में ऑनलाइन न्यूज़, सोशल मीडिया और मैसेजिंग ऐप का ज़िक्र आया है। शोध बताता है कि जलवायु समाचार से जुड़ी ग़लत सूचनाओं वाले देशों में भारत का स्थान पहला है जहां 38 फ़ीसद उत्तरदाताओं का कहना है कि उन्हें नियमित रूप से जलवायु समाचारों से जुड़ी ग़लत सूचनाएं दी जाती हैं।
अध्ययन के निष्कर्षों के अनुसार जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरों से सशक्त महसूस करने वाले लोगों का प्रतिशत बहुत अधिक है। उदाहरण के लिए, भारत में 76 फ़ीसद उत्तरदाताओं का कहना था कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरें उन्हें इस विषय में और अधिक जानकारी हासिल करने के लिए प्रेरित करती हैं। बहुत कम उत्तरदाताओं ने कहा कि जलवायु से जुड़ी खबरों के बारे में पढ़ने-सुनने के बाद वे चिंतित और उदास महसूस करने लगते हैं। हालांकि भारत के 61 फ़ीसद उत्तरदाताओं का कहना है कि जलवायु से जुड़े समाचारों में बहुत अधिक विरोधी विचार देखने को मिलते हैं और 48 फ़ीसद का ऐसा दावा है कि ये खबरें उन्हें भ्रमित कर देती हैं।
लोगों द्वारा जलवायु समाचारों के उपभोग की फ़्रीक्वेंसी और इस उपभोग में उनकी रुचि में एक प्रकार का संबंध है।
अध्ययन आगे जलवायु खबरों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिकाओं और उचित कार्रवाई के लिए लोगों को सशक्त बनाने की इसकी क्षमता पर भी प्रकाश डालता है। लोगों द्वारा जलवायु समाचारों के उपभोग की फ़्रीक्वेंसी और इस उपभोग में उनकी रुचि में एक प्रकार का संबंध है। संभव है कि पिछले सात दिनों के भीतर जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरों में दिलचस्पी लेने वाले लोग रिसायकल और ऊर्जा की कम खपत आदि जैसी चीजों पर ध्यान देंगे। हालांकि, जलवायु समाचारों से लोगों के जुड़ने की फ़्रीक्वेंसी को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि वे मांस के कम सेवन, कम यात्रा करने या इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग की ओर ठोस कदम उठाएंगे। इस बात पर गौर किया ज़ाना चाहिए कि सर्वेक्षण द्वारा दिए गए कुछ विकल्प (जैसे, इलेक्ट्रिक वाहनों का इस्तेमाल करना) कुछ देशों में उत्तरदाताओं के लिए उपलब्ध नहीं थे।
जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को सामने लाने में न्यूज़ मीडिया की भूमिका के बारे में पूछे जाने पर एक तिहाई उत्तरदाताओं का कहना था कि इस विषय में यह बहुत थोड़ा काम कर रहा है। ज़्यादातर उत्तरदाताओं का मानना है कि इस क्षेत्र में सरकार द्वारा किए गए प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। सभी देशों के उत्तरदाताओं का मानना है कि जीवन यापन की लागत का संकट और अर्थव्यवस्था की स्थिति सबसे बड़ी चिंता है। जलवायु परिवर्तन को सबसे गम्भीर चिंता मानने वाले लोगों में पाकिस्तान के लोग पहले स्थान पर थे। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि यहां 2022 की बाढ़ के दौरान सर्वेक्षण किया गया था। इसके विपरीत ब्राज़ील में केवल 2 फ़ीसद लोग जलवायु परिवर्तन को सबसे गम्भीर चिंता के विषय के रूप में देखते हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि ब्राज़ील में यह सर्वेक्षण 2022 चुनावों के दौरान आयोजित करवाया गया था। इसलिए इस दौरान सर्वे को पूरा करने में स्थानीय राजनीति एवं आयोजनों ने उत्तरदाताओं की मदद की थी। हालांकि, सभी देशों में ऐसे उत्तरदाताओं की संख्या अधिक थी जो कुछ हद तक जलवायु परिवर्तन के वैश्विक प्रभावों के बारे में चिंतित था।
दिलचस्प बात यह है कि लोगों के जलवायु परिवर्तन की खबरों से जुड़ने की फ़्रीक्वेंसी का इस बात पर कोई असर नहीं पड़ता है कि वे वैश्विक या घरेलू जलवायु नीति से कितने परिचित हैं। चालीस फ़ीसद उत्तरदाताओं ने यह दावा किया कि वे वैश्विक नीति पहलों और जलवायु परिवर्तन पर उनकी सरकार की प्रमुख नीतियों के बारे में एक हद तक जानकारी रखते हैं। हालांकि, यह 40 फ़ीसद का आंकड़ा, उन दोनों के लिए सही है जो साप्ताहिक आधार पर जलवायु समाचारों का उपभोग करते हैं और जो इससे भी कम मात्रा में इन खबरों को देखते-सुनते हैं। यह वर्तमान समाचार मीडिया कवरेज में एक महत्वपूर्ण अंतर को सामने लाता है – जबकि जलवायु परिवर्तन के विज्ञान के लिए आम सहमति बनाना महत्वपूर्ण है, समाचार मीडिया को पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं को जलवायु गवर्नेंस पर शिक्षित करने पर भी ध्यान देना चाहिए।
अध्ययन से पता चलता है कि अधिकांश उत्तरदाता किस तरह से जलवायु परिवर्तन को लेकर जागरूक हैं और वैज्ञानिकों की टिप्पणियों पर भरोसा करते हैं। लेकिन विभिन्न देशों में इन खबरों के लिए उपयोग में लाए जाने वाले मीडिया स्त्रोतों और उनकी विश्वसनीयता को लेकर पाई जाने वाली विविधता को देखना भी दिलचस्प है। लोगों को जलवायु समाचारों के साथ कैसे जोड़ा जाता है, और इस जुड़ाव का क्या प्रभाव पड़ता है, इस बारे में निर्णायक परिणाम तक पहुंचने के लिए आवश्यक आंकड़ों के संग्रहण और मैपिंग में कई वर्षों का समय लगेगा।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—