June 14, 2023

आंकड़े मुस्लिम महिला श्रमिकों के बारे में क्या नहीं बताते हैं?

महामारी ने जहां एक तरफ़ मध्य और उच्च वर्ग की मुस्लिम महिलाओं के लिए नौकरी पाना आसान बना दिया है, वहीं दूसरी ओर निम्न-आय वाले परिवारों और प्रवासियों को इसके लिए काफी संघर्ष करना पड़ रहा है।
12 मिनट लंबा लेख

सामाजिक ढांचों ने हमेशा आर्थिक विभाजनों को बढ़ावा ही दिया है। कोरोना महामारी ने पिछड़े तबके के लिए, लिंग, धर्म, जाति और अन्य आधार पर होने वाले भेदभाव से जुड़ी पहले से ख़राब स्थितियों को और बदतर बना दिया है। ऐसे में मुस्लिम महिलाएं, जो भारत में कामकाजी महिलाओं की आबादी का केवल दसवां हिस्सा हैं, उनके लिए स्थितियां कहीं जटिल हैं। साथ ही, उन्हें नफ़रती अभियानों, काम पर रखने के दौरान होने वाले भेदभावों और राज्य द्वारा स्वीकृत विध्वंस अभियानों का ख़ामियाज़ा भी भुगतान पड़ता है।

हमने भारत में मुस्लिम महिला श्रमिकों के साथ काम करने वाले समाजसेवी संगठनों तथा कार्यकर्ताओं से बात की। इस बातचीत में हमने पाया कि समुदाय की सभी महिलाओं को रोज़गार मिलने और उसे बचाए रखने में अनगिनत चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, उनके संघर्ष उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति, शिक्षा के स्तर और काम करने के क्षेत्र जैसे कारकों के आधार पर अलग-अलग थे।

शिक्षा की उच्च डिग्री हासिल करने वाली उच्च एवं मध्य वर्ग की मुस्लिम महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी थी और यहां तक कि महामारी के दौरान उनके हालात में कुछ सकारात्मक विकास भी देखने को मिले। वहीं, इसके विपरीत निम्न-आयवर्ग समूहों से आने वाली महिलाओं को पैसों के लिए संघर्ष करना पड़ा और परिवार की आय ख़त्म होने जाने की वज़ह से उन्होंने काम करना शुरू कर दिया। अनौपचारिक क्षेत्र के प्रवासी श्रमिकों को सबसे अधिक नुक़सान हुआ क्योंकि अन्य चुनौतियों के अलावा उनके पास किसी प्रकार का सुरक्षा जाल भी नहीं था। एक तरह से, महामारी ने एक बार फिर से यह स्पष्ट कर दिया कि हाशिए के समुदायों के भीतर भी, किसी के जीवन और आजीविका को परिभाषित करने में उसके सामाजिक स्थान की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है।

आबादी के एक हिस्से का प्रदर्शन बेहतर रहा

कॉलेज में पढ़ी-लिखी मुस्लिम महिलाओं के बीच लीडरशिप तैयार करने के लिए काम करने वाले एक इनक्यूबेटर –लेडबी फ़ाउंडेशन की सीओओ दीपांजलि लाहिरी- का सोचना है कि वे जिनके साथ काम करती हैं कोविड-19 का उन लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। वे कहती हैं कि “जहां एक तरफ़ महामारी के कई अन्य नकारात्मक परिणाम हुए, वहीं दूर-दराज के इलाकों में काम कर रही हमारी लेडबी साथियों के लिए अच्छा रहा। हम जिन महिलाओं के साथ काम कर रहे थे उनमें से ज्यादातर को यात्रा की अनुमति नहीं थी। लॉकडाउन के दौरान उनमें से कईयों का कहना था कि “चूंकि मैं घर से काम कर सकती हूं इसलिए अब मैं आराम से काम कर पा रही हूं।” महामारी ने दूरस्थ जगहों पर रहकर भी काम करना सम्भव बना दिया। इसलिए टियर- I और टियर- II शहरों की युवा मुस्लिम महिलाएं – जिनके परिवार आमतौर पर काम की तलाश में उन्हें महानगरीय क्षेत्रों में जाने देने की अनुमति नहीं देते थे – जॉब मार्केट में प्रवेश करने में सक्षम हो गई हैं। ऐसे तो नियुक्ताओं ने अपने दफ़्तरों में बैठकर काम करना और करवाना शुरू कर दिया है लेकिन लेडबी के नेतृत्व कार्यक्रम के प्रतिभागी वास्तव में दूरस्थ और हाइब्रिड कार्य के लिए बातचीत करना जारी रख रहे हैं। दीपांजलि को इस बात की चिंता सता रही है कि अब जब नौकरियां फ़िर से ऑफ़लाइन मोड में जा रही हैं उस स्थिति में हिज़ाबी मुस्लिम महिलाओं के लिए रोज़गार की तलाश मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि कुछ नियोक्ता पहले ही उनके सामने कार्यस्थल पर हिजाब न पहनने की शर्त रख चुके हैं। हालांकि भारत में मुस्लिम आबादी की केवल एक हिस्से के पास औपचारिक क्षेत्रों में काम करने के लिए आवश्यक शैक्षणिक योग्यता है जहां कर्मचारियों को दूरस्थ कामों को करने की सुविधा उपलब्ध है। देश में अधिकांश मुसलमान अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं, जहां कम विकल्प और सुरक्षा उपाय हैं।

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विध्वंस और नौकरी के नुकसान ने कम आय वाले मुस्लिम इलाकों को बदल दिया

मुस्लिम महिला कार्यकर्ताओं को उन्हें निशाना बनाने वाले अभियानों का सामना करना पड़ा, जिनमें अल्पसंख्यक समुदाय पर ‘कोरोना जिहाद’ छेड़ने —जानबूझकर अन्य धर्मों के लोगों के बीच कोविड-19 वायरस फैलाने वाले –  लोग होने का आरोप लगाया गया था। मुसलमानों के आर्थिक एवं सामाजिक बहिष्कार का आंदोलन चलाया गया। पंजाब में अनौपचारिक महिला श्रमिकों पर पहले लॉकडाउन के प्रभाव के बारे में जानने के लिए किए गए एक अध्ययन में इस्लामोफोबिया के कई उदाहरण दर्ज किए गए हैं। इसमें कहा गया है कि अपने पति के साथ परचून की दुकान चलाने वाली एक मुस्लिम महिला को सामाजिक बहिष्कार के कारण महामारी के दौरान भारी नुक़सान का सामना करना पड़ा।

दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में इस दौरान आम हो चुके ‘अतिक्रमण विरोधी अभियान’ के कारण भी समुदाय को बहुत अधिक नुक़सान झेलना पड़ा। जहां सरकार का कहना था कि इन अभियानों का उद्देश्य फुटपाथ एवं सड़कों को साफ़ रखना है वहीं आलोचकों ने इस ओर इशारा किया है कि इन विध्वंसों के जरिए अंधाधुंध तरीक़े से कम-आय वाले मुस्लिम इलाक़ों को निशाना बनाया गया है।

दिल्ली के जहांगीरपुरी जैसे इलाक़ों में महिलाओं के सशक्तिकरण और शिक्षा पर काम करने वाली समाजसेवी संस्था ख़ैर हेल्प फ़ाउंडेशन की संस्थापक शबनम नफ़ीसा कलीम बताती हैं कि “पांच-छह महिलाओं के एक समूह ने बाज़ार में इत्र और ऐसी ही चीजों को बेचने के लिए एक स्टॉल लगाया था। विध्वंस के समय उनके स्टॉल के साथ उसमें रखे उनके माल को भी बुलडोज़र से रौंद दिया गया। कबाब, बिरयानी आदि बेचने वाले ऐसे ही 15–20 ठेले भी बर्बाद कर दिए गए।”

पुरुषों की आय में योगदान देने के लिए परिवार की महिलाएं एक साथ आईं।

इन इलाक़ों को महामारी और सम्पत्ति के नुक़सान की दोहरी मार झेलनी पड़ी, नतीजतन आय में भारी गिरावट आई। शबनम के अनुसार, “पहले प्रति माह 15,000 रुपए की आमदनी वाले परिवारों की आय अब घटकर 10,000 रुपए हो गई थी। जो 10,000 कमा रहे थे, उनके लिए अब 5,000 रुपए जुटाना भी मुश्किल था।” 

ऐसी कई घटनाएं हैं जब पुरुषों की आमदनी में आई गिरावट की क्षतिपूर्ति के लिए परिवार की महिलाओं ने काम करना शुरू किया है। शबनम ने उत्तर पूर्व दिल्ली की खजूरिया ख़ास इलाके की एक महिला का उदाहरण दिया। उस महिला ने लॉकडाउन के दिनों में कमाना शुरू किया और डेनिम की सिलाई और कपड़ों के बड़े ऑर्डर को पूरा करते हुए घर चलाया। शबनम कहती हैं कि “छह महीनों तक उस महिला और उसकी बेटी ने घर का पूरा खर्च चलाया। छह महीने के बाद 2022 में उसके पति ने ई-रिक्शा चलाने का काम शुरू किया।” लॉकडाउन के दौरान, ज़्यादा से ज़्यादा मुस्लिम महिलाओं – यहां तक कि कम-आयवर्ग वाले घरों की महिलाओं- ने काम करना शुरू कर दिया और उनमें से कई अब भी काम कर रही हैं। शबनम आगे बताती हैं कि “यहां तक ​​कि जो पहले काम नहीं करती थीं और जिनके पति ही अकेले कमाने वाले थे, वे भी अब काम कर रही हैं।” 

खैर हेल्प फाउंडेशन उन मुस्लिम इलाकों में काम करता है जहां महिलाएं स्वरोजगार करती हैं। चूंकि उनके व्यवसाय स्थानीय लोगों की सेवा करते हैं, इसलिए उन्हें गैर-मुस्लिम क्षेत्रों में काम करने वाले मुस्लिमों की तरह धार्मिक भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता है। लेकिन उन प्रवासी मुस्लिम महिला श्रमिकों के बारे में क्या जो न केवल धार्मिक उत्पीड़न का सामना करती हैं बल्कि सरकारी रिकॉर्ड में भी दर्ज नहीं हैं, यहां तक कि कल्याणकारी कार्यक्रमों की सूची से भी गायब हैं?

रेशम के धागे से काम करती एक महिला_मुस्लिम महिला श्रमिक
प्रवासी मुस्लिम महिला श्रमिक एरर ऑफ़ ओमिशन से पीड़ित हैं। | चित्र साभार: जेपी डेविडसन / सीसी बीवाय

प्रवासी मुस्लिम महिलाओं की उपस्थिति अब भी गौण है

संग्रामी घरेलू कामगार यूनियन (उत्तर भारत में सक्रिय घरेलू कामगारों का एक संघ) और मायग्रंट वर्कर्स सॉलिडैरिटी नेटवर्क की सदस्य श्रेया घोष कहती हैं कि “अधिकांश प्रवासी मुस्लिम महिलाएं खाना पकाने और साफ़-सफ़ाई जैसे घरेलू काम करती हैं और ऐसी प्रवासी मुस्लिम महिलाओं की संख्या बहुत कम हैं जो कपड़ा बनाने और निर्माण के क्षेत्र में कार्यरत हैं। दरअसल हमारे संघ से जुड़ी घरेलू कामगारों की 65–70 फ़ीसद हिस्सा मुसलमानों का है और बाक़ी के बचे लोग दलित वर्ग से हैं।”

लॉकडाउन का प्रभाव जिन लोगों पर सबसे ज़्यादा पड़ा है, उनमें से एक घरेलू कामगार भी हैं। आवागमन पर प्रतिबंध लगने के कारण उनके काम तो छूट ही गए, कई मामलों में उन्हें अपराधी भी करार दे दिया गया। 2020 में भारत के आठ राज्यों में किए गए एक सर्वे के अनुसार इनमें से 85 फ़ीसद लोगों को उनके काम का पैसा नहीं मिला।

लॉकडाउन के दौरान, घरेलू कामगारों पर अतिरिक्त निगरानी और उनके साथ होने वाली हिंसा और दुर्व्यवहार में बढ़ोतरी के कई मामले सामने आए।

श्रेया बताती हैं कि “चूंकि अधिकांश प्रवासी मुस्लिम महिलाएं घरेलू कामगारों का काम करती हैं, इसलिए इसका सीधा अर्थ यह भी है कि उन्हें संघर्ष भी करना पड़ता है।” लॉकडाउन के दौरान, घरेलू कामगारों पर अतिरिक्त निगरानी और उनके साथ होने वाली हिंसा और दुर्व्यवहार में बढ़ोतरी के कई मामले सामने आए। श्रेया आगे बताती हैं कि “गेटेड सोसायटीज में घरेलू कामगारों को प्रवेश के पहले सैनिटायज़ करने वाले शॉवर काउंटर से गुजरना अनिवार्य था। जबकि वहां के निवासियों को ऐसा करने की ज़रूरत नहीं थी। इसका स्पष्ट मतलब यह है कि आप घरेलू कामगारों को वायरस के वाहक के रूप में देख रहे थे।”

श्रेया के अनुसार, नियोक्ताओं की पहली पसंद प्रवासी घरेलू कामगार होते हैं क्योंकि वे कम पैसे मांगते हैं और अक्सर ज़्यादा दिनों तक टिकते हैं। वे आगे कहती हैं कि “कोविड-19 के चरम और प्रवासियों के अपने गांव लौटने के दिनों में भी घरेलू कामगार नहीं गए। कुछ ने छह महीनों तक इंतज़ार किया तो वहीं कुछ ने एक साल तक इस उम्मीद में अपने दिन काटे कि चीजें सामान्य हो जाएंगी। किसी दूसरे शहर में रहने और खाने का संघर्ष होने के बावजूद वे शहर छोड़ कर नहीं गए क्योंकि वहां अपने गांव में उनके पास न तो खेती के लिए ज़मीन है और ना ही छोटा-मोटा कोई धंधा शुरू करने के लिए आवश्यक संसाधन।”

मुस्लिम महिलाओं के लिए काम का भविष्य कैसा है?

भले ही कोविड-19 के कारण आवाजाही पर अब उस प्रकार से प्रतिबंध नहीं रह गया है लेकिन घरेलू कामगारों और प्रवासी मुस्लिम महिला श्रमिकों की स्थिति में सुधार की सम्भावना न के बराबर है। उनका यह संघर्ष ज़ारी रहेगा क्योंकि उनके पास श्रम क़ानून सुरक्षा की कमी है। 1959 से कई ऐसे बिल संसद में पेश किए गए हैं जो बुनियादी सुरक्षा उपायों जैसे कि उचित वेतन, पेंशन और घरेलू कामगारों को मातृत्व और स्वास्थ्य लाभ सुनिश्चित करने की मांग करते हैं। लेकिन इनमें से एक भी क़ानून पारित नहीं हुआ है।

प्रवासी मुस्लिम महिलाओं को एरर ऑफ़ ओमिसन का भी सामना करना पड़ता है। 2011 जनसंख्या सर्वे के अनुसार कुल प्रवासी आबादी का 67 फ़ीसद महिलाएं हैं और ऐसा अनुमान लगाया गया है कि इनमें 11 फ़ीसद महिलाओं ने अपने पूरे परिवार के साथ प्रवास किया है। इस आंकड़े में यह नहीं दर्शाया गया है कि इनमें से अपने पतियों के साथ प्रवास करने वाली ज़्यादातर महिलाएं भले ही खुद को घर का खर्च चलाने वाले के रूप में न देखती हों लेकिन वे काम करती हैं। श्रेया बताती हैं कि “अगर आप उन घरेलू कामगारों से पूछेंगे तो उनका यही कहना होगा कि ‘हम अपना घर-गांव छोड़कर इसलिए आ गए क्योंकि हमारे पति प्रवासी थे’, लेकिन वे सभी कामकाजी महिलाएं हैं। हमारे समाज में महिलाओं के श्रम को जिस रूप में देखा और समझा जाता है वह एक शोचनीय प्रश्न है।”

भारत में अंतरराज्यीय प्रवासन पर पर्याप्त डेटा उपलब्ध नहीं है और सरकार, महामारी के दौरान नौकरियों के नुकसान और श्रमिकों की मौतों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी एकत्र करने में विफल रही है। आजीविका पर पहचान के प्रभाव को लेकर भी शोध की कमी है। बिना आंकड़ों के सरकारी योजनाओं, नीतियों और कल्याणकारी कार्यक्रमों का लाभ लोगों तक कैसे पहुंचेगा?

श्रमबल में मुस्लिम महिलाओं के विषय पर कोई भी गहन शोध नहीं कर रहा है।

श्रेया का मानना है कि यह जानबूझकर छोड़ा गया विषय है। “सरकार उनकी गिनती नहीं करती है क्योंकि वह उन उद्योगों को नुक़सान नहीं पहुंचाना चाहती जो बड़े पैमाने पर कुछ राज्यों से विशेष आर्थिक क्षेत्रों में प्रवासन से लाभान्वित हो रहे हैं। वे चाहते हैं कि श्रमिकों को नागरिकों के बजाय एक समूह के रूप में देखा जाए जो अपनी तरह की चुनौतियां लेकर आता है।”

शोध की यह कमी केवल प्रवासियों तक ही सीमित नहीं है। 2022 में लेड बाय ने प्रवेश स्तर की नौकरियों में मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ भेदभाव पर एक अध्ययन प्रकाशित किया था। दीपांजलि कहती हैं कि “हमने अध्ययन शुरू किया क्योंकि हम यह कहते-कहते थक गए थे कि किसी भी तरह का वास्तविक डेटा उपलब्ध नहीं है। कोई भी [कार्यबल में मुस्लिम महिलाओं पर] गहन शोध नहीं कर रहा है। उदाहरण के लिए, भारत में काम पर हिजाबी महिलाओं को जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, उन पर कोई शोध नहीं है, हालांकि विदेशों में ऐसे अध्ययन हैं जो उनके साथ बड़े पैमाने पर हो रहे भेदभाव को दिखाते हैं।”

समाजसेवी संस्थाओं का मानना ​​है कि भारत के विशाल और विविध भूगोल और जनसांख्यिकी के अनुरूप बड़े पैमाने पर अनुसंधान करने के लिए केवल सरकार के पास बैंडविड्थ है। श्रेया कहती हैं कि “जब हम श्रमिकों के बीच काम करते हैं, तो हमारे पास एक व्यापक सर्वेक्षण करने के लिए आवश्यक संसाधन और पहुंच नहीं है। यह सरकार का काम है। यहां तक ​​कि सबसे साधन-संपन्न समाजसेवी संस्था भी उस तरह का सर्वेक्षण नहीं कर सकती है, जैसा कि सरकारी कार्यालय कर सकता है।”

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  • इस बारे में पढ़ें कि महामारी ने भारत के काम करने की स्थिति और श्रमिकों को कैसे प्रभावित किया है।
  • जानें कि विध्वंस अभियानों ने किस प्रकार मुस्लिम महिलाओं की स्वतंत्रता को प्रभावित किया है।
  • जानें कि भारत में नेतृत्व पदों पर मुस्लिम महिलाओं की उपस्थिति क्यों नहीं है?

लेखक के बारे में
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देबोजीत दत्ता

देबोजीत दत्ता आईडीआर में संपादकीय सहायक हैं और लेखों के लिखने, संपादन, सोर्सिंग और प्रकाशन के जिम्मेदार हैं। इसके पहले उन्होने सहपीडिया, द क्विंट और द संडे गार्जियन के साथ संपादकीय भूमिकाओं में काम किया है, और एक साहित्यिक वेबज़ीन, एंटीसेरियस, के संस्थापक संपादक हैं। देबोजीत के लेख हिमल साउथेशियन, स्क्रॉल और वायर जैसे प्रकाशनों से प्रकाशित हैं।

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जैस्मीन बल

जैस्मीन बल आईडीआर में एक संपादकीय विश्लेषक हैं, जहां वह कंटेंट राइटिंग और संपादन से जुड़े काम करती हैं। इससे पहले इन्होंने वीवा बुक्स में एक संपादक के रूप में और सोफिया विश्वविद्यालय, जापान में एफएलए राइटिंग सेंटर में एक ट्यूटर के रूप में काम किया है। जैस्मीन ने वैश्विक अध्ययन और अंग्रेजी में एमए और सामाजिक विज्ञान में बीए किया है।

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