June 7, 2023

जलवायु से जुड़ी खबरों पर आम लोगों का रुख कैसा होता है?

भारत समेत आठ देशों में रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म द्वारा किया गया एक ऑनलाइन अध्ययन बताता है कि जलवायु से जुड़ी खबरें लोगों को कितना जागरुक बना पाती हैं।
5 मिनट लंबा लेख

बात जब जलवायु संकट की आती है तो सार्वजनिक संवाद और राय को सूरत देने में मीडिया की भूमिका बहुत अधिक महत्वपूर्ण होती है। यह आपातकालीन परिस्थितियों, उनके प्रभाव और उनकी गंभीरता से जुड़ी जानकारी को लोगों तक पहुंचाने वाला एक शक्तिशाली साधन है। यह लोगों को जलवायु-अनुकूल व्यवहारों को अपनाने के लिए प्रेरित कर सकता है। समय के साथ न्यूज़रूम में जलवायु संबंधी चर्चा गम्भीर होती जा रही है। लेकिन समाचार के भरोसेमंद स्त्रोतों की कमी, इस तरह की सूचनाओं के प्रसार के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा-शैली और कठिन भाषा के इस्तेमाल के कारण इस संकट से जुड़ी जानकारियां आम लोगों के लिए सुलभ नहीं हो पा रही हैं। ऐसा होना जलवायु के संरक्षण के लिए व्यक्तिगत स्तर पर सही कार्रवाई करने में एक बड़ी बाधा बन सकता है।

जलवायु परिवर्तन कवरेज की सार्वजनिक धारणा के रूप में समाचार मीडिया में जलवायु परिवर्तन का प्रतिनिधित्व, एक ऐसा विषय है जिस पर बहुत कम अध्ययन हुआ है। वहीं विश्व के अन्य हिस्सों (ग्लोबल नॉर्थ) में जलवायु परिवर्तन और इससे संबंधित खबरों को लेकर लोगों की सोच से जुड़े आंकड़े उपलब्ध हैं। इसके उलट, ग्लोबल साउथ से इस तरह के आंकड़े प्राप्त करना आसान काम नहीं है।

जलवायु परिवर्तन के प्रति लोगों के दृष्टिकोण और इससे जुड़े समाचारों के प्रति उनकी धारणा का अध्ययन करने के लिए, रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म की ओर से इप्सोस ने 2022 में एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में ब्राज़ील, फ़्रांस, जर्मनी, भारत, जापान, पाकिस्तान, यूके तथा यूएसए जैसे आठ देशों ने हिस्सा लिया था। हालांकि इस अध्ययन के लिए आयु वर्ग, लिंग और धर्म के राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व वाली आबादी से सैम्पल इकट्ठा किए गए थे। लेकिन इसमें कई प्रकार की चेतावनियां भी शामिल हैं। दरअसल, भारत और पाकिस्तान में इंटरनेट की पहुंच का स्तर बहुत कम क्रमश: 43 फ़ीसद तथा 25 फ़ीसद है। इसके अतिरिक्त, भारत में यह सर्वेक्षण अंग्रेज़ी भाषा में किया गया था। नतीजतन, स्वाभाविक रूप से इस सर्वे में अंग्रेज़ी भाषा तथा इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों ने हिस्सा लिया था जो कुल आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।

इस अध्ययन से मिलने वाले कुछ मुख्य परिणाम इस प्रकार हैं:

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जलवायु से जुड़े समाचारों की खपत

  • कितना देखा जाता है: ज़्यादातर उत्तरदाताओं ने पिछले दो सप्ताह के भीतर जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरों को देखने की बात कही। वहीं, आधे से अधिक उत्तरदाताओं ने बताया कि उन्हें जलवायु से जुड़ी खबरें देखे हुए अभी सात दिन से अधिक नहीं हुए हैं। दो सप्ताह से अधिक समय से किसी भी तरह का जलवायु समाचार नहीं देखने वाले सबसे ज़्यादा लोग भारत से थे। सामान्य तौर पर, युवाओं द्वारा अंतिम एक सप्ताह में जलवायु परिवर्तन समाचारों को देखने या पढ़ने की संभावना कम होती है। यह नतीजे शोध के अनुरूप हैं जो दिखाता है कि अन्य लोगों की तुलना में युवा वर्ग की रुचि जलवायु से जुड़े समाचारों में कम होती है।
  • कहां देखा जाता है: जलवायु परिवर्तन से जुड़े समाचारों के बारे में जानने के लिए सबसे लोकप्रिय साधन टेलीविजन है। लगभग एक तिहाई से अधिक उत्तरदाताओं ने कहा कि खबरें देखने के लिए वे टीवी का इस्तेमाल करते हैं। दूसरे लोकप्रिय तरीक़ों में समाचार के ऑनलाइन स्त्रोत, विभिन्न समाचार संस्थानों की वेबसाइट और सोशल मीडिया तथा मैसेजिंग ऐप शामिल हैं जिनसे लोग जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरें जानते और पढ़ते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में जहां सर्वे के उत्तरदाता ऑनलाइन आबादी के प्रतिनिधि हैं, मुख्य स्त्रोत ऑनलाइन न्यूज़ (32 फ़ीसद) है और इसके बाद टीवी समाचार (21 फ़ीसद) का नम्बर आता है। उत्तरदाताओं ने अख़बारों और रेडियो जैसे अन्य पारंपरिक मीडिया साधनों का भी ज़िक्र किया लेकिन ये सभी माध्यम उम्रदराज़ लोगों में अधिक लोकप्रिय पाए गए। एक छोटी सी आबादी डॉक्युमेंटरी (10 फ़ीसद), परिचितों के साथ संवाद (10 फ़ीसद), पत्रिकाओं (5 से 10 फ़ीसद के बीच) तथा अकादमिक पत्रिकाओं (5 फ़ीसद से कम) जैसे स्त्रोतों के जरिए भी जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरों तक पहुंचती है।
  • स्त्रोत: सर्वेक्षण किए गए सभी देशों में, जलवायु परिवर्तन की खबरों में प्रकाशित लोगों में जलवायु वैज्ञानिकों और कार्यकर्ताओं को प्रमुख स्थान दिया गया, वहीं सरकार और राजनीतिक दलों को पीछे रखा गया। बहुसंख्यकों का स्पष्ट मत था कि उन्हें वैज्ञानिकों पर पूरा भरोसा है। जलवायु कार्यकर्ताओं की प्रतिक्रियाएं मिश्रित थीं। फ़्रांस, जापान, जर्मनी और यूके के कार्यकर्ताओं में वैज्ञानिकों पर कम भरोसा पाया गया, वहीं भारत, पाकिस्तान ब्राज़ील और यूएस के कार्यकर्ताओं के भरोसे का स्तर अपेक्षाकृत उंचा था। दिलचस्प बात यह है कि भारत में उत्तरदाताओं ने सरकार, राजनेताओं और राजनीतिक दलों और एनर्जी कंपनियों में अधिक विश्वास  का संकेत दिया। ब्राजील, भारत और पाकिस्तान में ऑनलाइन समाचार एक लोकप्रिय माध्यम है। इसलिए उत्तरदाताओं ने मशहूर हस्तियों और ऐसे व्यक्तिगत जान-पहचान वाले लोगों को भी इन खबरों पर टिप्पणी करते देखा है जिनके लिए मुख्यधारा की मीडिया में जगह पाने की सम्भावना कम होती है। भारत एवं पाकिस्तान में एक अन्य दिलचस्प प्रवृति धार्मिक नेताओं का जलवायु परिवर्तन पर टिप्पणी करना और जलवायु समाचारों के लिए भरोसेमंद स्त्रोत के रूप में देखा जाना है। सर्वेक्षण में शामिल किए गए अन्य देश में ऐसी किसी तरह की प्रवृति नहीं पाई गई।
टेबल पर रखे कुछ भारतीय अख़बार_जलवायु समाचार
गलत सूचनाओं की निरंतरता के कारण जलवायु समाचारों पर भरोसे की कमी है। | चित्र साभार: शाजन कुमार / सीसी बीवाय

जलवायु समाचारों को नज़र अंदाज़ करना और ग़लत सूचना प्रदान करना

आमतौर पर जलवायु समाचारों से भी उसी प्रकार बचने की प्रवृति देखी गई है जिस प्रकार कुछ चुनिंदा समाचारों से बचा जाता है। भारत के उत्तरदाताओं ने सामान्य एवं जलवायु परिवर्तन से जुड़े दोनों प्रकार के समाचारों के प्रति नकारात्मक संकेत दिए हैं। शोध से यह बात भी सामने आई है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं में समाचारों को नजरअंदाज करने की प्रवृति अधिक पाई जाती है। लेकिन इस अध्ययन के अनुसार जलवायु से जुड़े समाचारों के उपभोग के मामले में पुरुषों एवं महिलाओं में किसी प्रकार का विशेष अंतर नहीं पाया गया है। जैसा कि आमतौर पर सभी प्रकार के समाचारों के साथ होता है, जलवायु-संबंधी खबरों को नजरअंदाज करने की सबसे अधिक संभावना युवाओं में होती है लेकिन यह अंतर भी बहुत अधिक नहीं है। उत्तरदाताओं का कहना है कि जलवायु से जुड़ी खबरों को नजरअंदाज करने के पीछे नई जानकारियों की कमी, दिमाग़ पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरों की बहुतायत से होने वाली मानसिक थकान और अविश्वसनीयता जैसे कई कारण हैं।

गलत सूचनाओं की निरंतरता के कारण जलवायु समाचारों पर भरोसे की कमी है। शोध बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी गलत सूचनाओं का प्रसार जलवायु कार्रवाई के लिए आवश्यक सार्वजनिक समर्थन को लगातार कमजोर करता है। जलवायु परिवर्तन की गलत सूचना के स्रोतों के बारे में पूछे जाने पर, उत्तरदाताओं ने उन्हीं स्रोतों का हवाला दिया, जिनका उपयोग वे जलवायु समाचारों तक पहुंचने के लिए करते हैं। ग़लत सूचनाओं के स्त्रोत के रूप में ऑनलाइन न्यूज़, सोशल मीडिया और मैसेजिंग ऐप का ज़िक्र आया है। शोध बताता है कि जलवायु समाचार से जुड़ी ग़लत सूचनाओं वाले देशों में भारत का स्थान पहला है जहां 38 फ़ीसद उत्तरदाताओं का कहना है कि उन्हें नियमित रूप से जलवायु समाचारों से जुड़ी ग़लत सूचनाएं दी जाती हैं।

जलवायु समाचार और जलवायु कार्रवाई

अध्ययन के निष्कर्षों के अनुसार जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरों से सशक्त महसूस करने वाले लोगों का प्रतिशत बहुत अधिक है। उदाहरण के लिए, भारत में 76 फ़ीसद उत्तरदाताओं का कहना था कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरें उन्हें इस विषय में और अधिक जानकारी हासिल करने के लिए प्रेरित करती हैं। बहुत कम उत्तरदाताओं ने कहा कि जलवायु से जुड़ी खबरों के बारे में पढ़ने-सुनने के बाद वे चिंतित और उदास महसूस करने लगते हैं। हालांकि भारत के 61 फ़ीसद उत्तरदाताओं का कहना है कि जलवायु से जुड़े समाचारों में बहुत अधिक विरोधी विचार देखने को मिलते हैं और 48 फ़ीसद का ऐसा दावा है कि ये खबरें उन्हें भ्रमित कर देती हैं। 

लोगों द्वारा जलवायु समाचारों के उपभोग की फ़्रीक्वेंसी और इस उपभोग में उनकी रुचि में एक प्रकार का संबंध है।

अध्ययन आगे जलवायु खबरों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिकाओं और उचित कार्रवाई के लिए लोगों को सशक्त बनाने की इसकी क्षमता पर भी प्रकाश डालता है। लोगों द्वारा जलवायु समाचारों के उपभोग की फ़्रीक्वेंसी और इस उपभोग में उनकी रुचि में एक प्रकार का संबंध है। संभव है कि पिछले सात दिनों के भीतर जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरों में दिलचस्पी लेने वाले लोग रिसायकल और ऊर्जा की कम खपत आदि जैसी चीजों पर ध्यान देंगे। हालांकि, जलवायु समाचारों से लोगों के जुड़ने की फ़्रीक्वेंसी को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि वे मांस के कम सेवन, कम यात्रा करने या इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग की ओर ठोस कदम उठाएंगे। इस बात पर गौर किया ज़ाना चाहिए कि सर्वेक्षण द्वारा दिए गए कुछ विकल्प (जैसे, इलेक्ट्रिक वाहनों का इस्तेमाल करना) कुछ देशों में उत्तरदाताओं के लिए उपलब्ध नहीं थे।

जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को सामने लाने में न्यूज़ मीडिया की भूमिका के बारे में पूछे जाने पर एक तिहाई उत्तरदाताओं का कहना था कि इस विषय में यह बहुत थोड़ा काम कर रहा है। ज़्यादातर उत्तरदाताओं का मानना है कि इस क्षेत्र में सरकार द्वारा किए गए प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। सभी देशों के उत्तरदाताओं का मानना है कि जीवन यापन की लागत का संकट और अर्थव्यवस्था की स्थिति सबसे बड़ी चिंता है। जलवायु परिवर्तन को सबसे गम्भीर चिंता मानने वाले लोगों में पाकिस्तान के लोग पहले स्थान पर थे। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि यहां 2022 की बाढ़ के दौरान सर्वेक्षण किया गया था। इसके विपरीत ब्राज़ील में केवल 2 फ़ीसद लोग जलवायु परिवर्तन को सबसे गम्भीर चिंता के विषय के रूप में देखते हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि ब्राज़ील में यह सर्वेक्षण 2022 चुनावों के दौरान आयोजित करवाया गया था। इसलिए इस दौरान सर्वे को पूरा करने में स्थानीय राजनीति एवं आयोजनों ने उत्तरदाताओं की मदद की थी। हालांकि, सभी देशों में ऐसे उत्तरदाताओं की संख्या अधिक थी जो कुछ हद तक जलवायु परिवर्तन के वैश्विक प्रभावों के बारे में चिंतित था। 

दिलचस्प बात यह है कि लोगों के जलवायु परिवर्तन की खबरों से जुड़ने की फ़्रीक्वेंसी का इस बात पर कोई असर नहीं पड़ता है कि वे वैश्विक या घरेलू जलवायु नीति से कितने परिचित हैं। चालीस फ़ीसद उत्तरदाताओं ने यह दावा किया कि वे वैश्विक नीति पहलों और जलवायु परिवर्तन पर उनकी सरकार की प्रमुख नीतियों के बारे में एक हद तक जानकारी रखते हैं। हालांकि, यह 40 फ़ीसद का आंकड़ा, उन दोनों के लिए सही है जो साप्ताहिक आधार पर जलवायु समाचारों का उपभोग करते हैं और जो इससे भी कम मात्रा में इन खबरों को देखते-सुनते हैं। यह वर्तमान समाचार मीडिया कवरेज में एक महत्वपूर्ण अंतर को सामने लाता है – जबकि जलवायु परिवर्तन के विज्ञान के लिए आम सहमति बनाना महत्वपूर्ण है, समाचार मीडिया को पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं को जलवायु गवर्नेंस पर शिक्षित करने पर भी ध्यान देना चाहिए। 

अध्ययन से पता चलता है कि अधिकांश उत्तरदाता किस तरह से जलवायु परिवर्तन को लेकर जागरूक हैं और वैज्ञानिकों की टिप्पणियों पर भरोसा करते हैं। लेकिन विभिन्न देशों में इन खबरों के लिए उपयोग में लाए जाने वाले मीडिया स्त्रोतों और उनकी विश्वसनीयता को लेकर पाई जाने वाली विविधता को देखना भी दिलचस्प है। लोगों को जलवायु समाचारों के साथ कैसे जोड़ा जाता है, और इस जुड़ाव का क्या प्रभाव पड़ता है, इस बारे में निर्णायक परिणाम तक पहुंचने के लिए आवश्यक आंकड़ों के संग्रहण और मैपिंग में कई वर्षों का समय लगेगा।

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  • जलवायु से जुड़ी ग़लत सूचनाओं को पहचानने के तरीक़ों को सीखने के लिए इस लेख को पढ़ें

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