June 8, 2023

इंसान और वन्यजीवों के बीच जंगल का बंटवारा कैसे हो?

जलवायु परिवर्तन जंगली जानवरों और उनके आवास के लिए एक बड़ा ख़तरा है और यह इंसानों से उनके संघर्ष की संभावना भी बढ़ाता है।
8 मिनट लंबा लेख

इंटर्नेशनल यूनियन कन्ज़र्वेशन ऑफ़ नेचर (आईयूसीएन) का एक सिस्टम जो ख़तरों का वर्गीकरण करता है, “जलवायु परिवर्तन और उग्र मौसम” को वन्यजीवों के लिए ख़तरा पैदा करने वाली 12 श्रेणियों में से एक रूप में पहचानता है।

इंटरगवर्नमेंटल सायंस-पॉलिसी प्लैटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज़ की एक ऐतिहासिक रिपोर्ट के अनुसार, वन्य जीवों में से 47 फ़ीसदी और विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुके पक्षियों में से 23 फ़ीसदी पर पहले से ही जलवायु परिवर्तन का नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। 

भारत में, नैशनल वाइल्डलाइफ एक्शन प्लान (एनडबल्यूएपी) 2017–31 इस बात को स्वीकार करती है कि देश के संरक्षित क्षेत्रों को जब डिज़ाइन किया गया था तब वन्यजीव संरक्षण के लिए जलवायु परिवर्तन को मानदंड नहीं माना जाता था। एनडबल्यूएपी इस ओर ध्यान दिलाता है कि जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप वन्यजीव प्रजातियों को अधिक अनुकूल आवास मुहैया करवाने की ज़रूरत है। वर्तमान में भारत में वन्यजीव के लिए सुरक्षित क्षेत्र के रूप में केवल 5 फ़ीसद भूमि ही आवंटित है। ये सुरक्षित क्षेत्र भी अक्सर सघन आबादी वाली बस्तियों से घिरे होते हैं जहां मनुष्य एवं पशुओं के बीच पस्पर संबंध एवं संघर्ष की गुंजाइश होती है। वन्यजीव शोध, संरक्षण, नीति एवं शिक्षा पर काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था सेंटर फ़ॉर वाइल्डलाइफ़ स्टडीज़ (सीडबल्यूएस) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में वन्यजीव संघर्ष की दर बहुत ऊंची है और यहां सरकार द्वारा वन्यजीव संघर्ष से जुड़े औसतन 80 हजार मामले प्रतिवर्ष दर्ज किए जाते हैं।

संघर्ष के पैटर्न

मोटे तौर पर पांच तरह के संघर्ष होते हैं: लोगों की फसल का नुकसान, संपत्ति का नुकसान, पशुधन पर हमला, लोगों का घायल होना या मृत्यु। लगभग 70 फ़ीसद मामले फसल एवं सम्पत्ति के नुक़सान से जुड़े होते हैं। पशुधन नुक़सान का आंकड़ा लगभग 15–20 फ़ीसद है और लोगों को पहुंचने वाली चोट या मृत्यु के 5 फ़ीसद मामले दर्ज किए जाते हैं। हालांकि हाथियों, सूअरों, बाघों, तेंदुओं और भालुओं जैसे बड़े जानवरों के निकट संपर्क में आने वाले लोगों की भारी संख्या को देखते हुए यह आंकड़ा उल्लेखनीय रूप से कम है।

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सीडब्ल्यूएस की कार्यकारी निदेशक डॉ कृति कारंत बताती हैं कि किन परिस्थितियों में मानव-वन्यजीव संघर्ष चरम पर पहुंच जाता है। वे कहती हैं कि “अगर एक हाथी किसी किसान के खेत में घुसता है और सात साल में 70 बार किसी की फसल बर्बाद कर देता है तो लोगों की प्रतिक्रिया स्वाभाविक है जैसा कि हमने अपने वाइल्ड सेव कार्यक्रम में देखा है। सम्भव है कि ये लोग अपने खेतों में खुले तार बिछा दें जिससे उनके खेतों को चरने वाले हाथियों को करंट लग जाए। यह इस बात का एक उदाहरण है कि यदि आप नुक़सान उठा रहे लोगों की मदद के लिए आगे नहीं आते हैं तो क्या-क्या हो सकता है। किसी व्यक्ति को चोट पहुंचने या उसकी मृत्यु की स्थिति में भीड़ वन अधिकारियों पर हमला कर देती है क्योंकि लोग मानते हैं कि ये वन्यजीव इन अधिकारियों की जिम्मेदारी हैं। हालांकि ये सब अतिवादी स्थितियां है। लेकिन ऐसा रोज़-रोज़ नहीं होता है।”

‘ये जानवर हमसे पहले से यहां रह रहे थे। हमें उनके साथ रहना सीखना होगा।’

मानव-पशु संघर्ष का यह मामला अकेले भारत की समस्या नहीं है। बड़े पैमाने पर विकास, ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव और आर्थिक रूप से प्रगति करने के बावजूद भारत ने अपने वन्य जीवन को बनाए रखा है। यहां के लोगों में पशुओं के प्रति एक गज़ब की सांस्कृतिक सहिष्णुता होती है। कृति के अनुसार “भगवान गणेश के कारण हाथियों के प्रति श्रद्धा तो होती ही है। इसके अलावा हमें कई लोगों ने यह भी बताया कि ‘ये जानवर हमसे पहले से यहां रह रहे थे। हमें उनके साथ रहना सीखना होगा।’ यही बात भारत को अन्य एशियाई देशों से अलग बनाती है। चीन, थाईलैंड और वियतनाम जैसे देशों में भी ऐसे ही जानवर हैं, लेकिन वन्यजीव से उनके अलग प्रकार के संबंध के कारण इन जानवरों की संख्या अब बहुत कम रह गई है।” कृति का मानना है कि अपनी अंतर्निहित संस्कृति और जगह को साझा करने की अपनी विरासत के कारण भारत ने लोगों और जानवरों के बीच एक बहुत ही अस्थिर सा संतुलन बनाए रखा है। 

दक्षिणी भारत के बन्नेरघट्टा होसुर इलाके में वैज्ञानिक अनुसंधान, पर्यावरण शिक्षा और समुदाय-आधारित संरक्षण परियोजनाओं पर काम करने वाली संस्था- ए रोचा इंडिया के कार्यकारी निदेशक अविनाश कृष्णन भी कृति की इस बात से सहमति जताते हैं। “एक देश के रूप में हम इस तरह के संघर्षों के प्रति बहुत अधिक सहिष्णु हैं। इसलिए हम इस क्षेत्र में बहुत कुछ कर सकते हैं क्योंकि समुदायों की नींव में स्वीकृति और सकारात्मकता है। ऐसी स्थितियां तभी आती हैं जब आप इस संघर्ष को उस स्तर पर पहुंचने देते हैं जहां लोगों का जीवन और उनकी आजीविका गम्भीर रूप से ख़तरे में पड़ जाएं और वे प्रतिशोध की भावना से भर जाएं।”

वे आगे जोड़ते हैं कि यदि हम संघर्ष को प्रबंधित किए जा सकने लायक बनाए रख पाएं और इसकी जवाबदेही उठाएं तो लोगों में स्वीकार्यता का स्तर बढ़ेगा। “समस्या यह है कि संघर्ष की जवाबदेही कोई नहीं लेता है। यदि किसानों की फसलों को नुक़सान पहुंचता है तो वन विभाग की यह जिम्मेदारी होती है कि वह तुरंत उस घटना की जांच करे और आवश्यक कदम उठाए। लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि किसान अपना ग़ुस्सा सीधे उन पर ही निकालेंगे। वहीं, दूसरी तरफ किसानों को लगता है कि इन जानवरों की ज़िम्मेदारी वन विभाग की है। लेकिन हमने देखा है कि जब हमने (एक संरक्षण संगठन के रूप में) लोगों से सम्पर्क किया तो हमारे हाथियों के पक्ष से होने के बावजूद उन लोगों को महसूस हुआ कि उनकी बातें सुनी जा रही हैं और उनकी भी सुध लेने वाला कोई है।”

जंगल की एक सड़क पार करता हुआ एक हाथी_मानव वन्यजीव संघर्ष
हाथी हिमाचल प्रदेश और देश के अन्य ठंडे प्रदेशों की ओर जा रहे हैं। | चित्र साभार: द बेलूर्स / सीसी बीवाय

संघर्ष लोगों को हर स्तर पर प्रभावित करते हैं

संघर्ष इन प्रदेशों के लोगों की आजीविका को नष्ट कर देते हैं और उन्हें शारीरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, भारत के पूर्वी घाटों में स्थित बनेरघट्टा नैशनल पार्क (बीएनपी) के आसपास के इलाक़ों में फसल सीधे हाथियों की चपेट में आ जाती हैं। अविनाश के अनुसार, इस इलाक़े में किसानों को प्रति एकड़ पैदा होने वाले 15 क्विंटल रागी में से औसतन 10 क्विंटल का नुक़सान उठाना पड़ता है। अपनी जीविका के लिए खेती करने वाले एक किसान की फसल का 75 फ़ीसद हिस्सा बर्बाद हो जाने के बाद उसके पास कुछ भी नहीं बचता है। कौशल की कमी के कारण उनके पास वैकल्पिक काम के सीमित अवसर उपलब्ध होते हैं। वे आसपास के शहरों में दिहाड़ी मज़दूर के रूप में भी काम करने में सक्षम नहीं होते। इसके अतिरिक्त, इन इलाक़ों में सब्सिडी या सामाजिक सुरक्षा के रूप में किसी तरह की सहायता की व्यवस्था भी उपलब्ध नहीं है। इसलिए हाथियों के इस आतंक से बचने में किसानों की मदद करने के अलावा उनकी आर्थिक स्थिति को बेहतर करने के प्रयास भी समान रूप से महत्वपूर्ण हैं, अविनाश सुझाव देते हैं। ताकि मानव-हाथी संघर्ष के बावजूद इन किसानों के पास एक आय का एक स्थिर स्त्रोत उपलब्ध हो सके।

संरक्षण व्यावहारिक होना चाहिए

सुरक्षा के पारम्परिक तरीक़ों का प्रभाव सीमित होता है। सीडबल्यूएस ने संघर्ष को कम करने के लिए लोगों द्वारा किए गए बिजली या सौर बाड़ लगाने, मिर्ची या अदरक उगाने या खाई खोदने जैसे विभिन्न उपायों का वैज्ञानिक मूल्यांकन किया है। उनके अध्ययन से यह बात सामने आई है कि ज़मीन की सुरक्षा में किए गए ज़्यादातर निवेश व्यर्थ जाते हैं। कृति बताती हैं कि बाड़ वाला उपाय तभी कारगर हो सकता है जब ये लोग नियमित रूप से बिजली के बिल का भुगतान करें या फिर सौर बाड़ के लिए बैट्री का इस्तेमाल करें। लेकिन सीडबल्यूएस के अनुसार शुरुआती उत्साह के बाद समुचित रखरखाव की कमी के कारण ये सभी उपाय असफल साबित होते हैं।

जानवरों के चरने और इसके लिए उनके द्वारा वन के उपयोग के तरीक़ों में भी बदलाव आ रहा है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को ध्यान में रखना भी महत्वपूर्ण है। बेमौसम और अनियमित बारिश पहले फसल की पैदावार और उसके बाद किसानों की आय को प्रभावित करती है। नतीजतन, इन किसानों की स्थिति और अधिक कमजोर हो जाती है। जानवरों के चरने और वन का इस्तेमाल करने के तरीक़ों में भी बदलाव आ रहा है। कुछ प्रजातियों में मौसम के अनुसार नियमित रूप से फूल और फल नहीं लगते हैं जिसके कारण पेट भरने के लिए इन इलाक़ों के जानवर अपना रास्ता बदल लेते हैं। नतीजतन, तेज़ी से असंतुलन की स्थिति पैदा हो रही है।

अविनाश बताते हैं कि वन के कुछ क्षेत्रों में जानवरों की उपस्थिति नहीं होनी चाहिए लेकिन उनके रास्ता बदलते रहने के कारण इकोसिस्टम में भी बदलाव आ रहा है। इसके चलते चीजों की प्राकृतिक व्यवस्था प्रभावित हो रही है। उदाहरण के लिए, हाथी हिमाचल और देश के अन्य ठंडे प्रदेशों की ओर बढ़ रहे हैं, उन इलाक़ों में जहां पिछले चार दशकों में हाथी नहीं देखे गए थे। हाथी चलते हुए अपने रास्ते में आने वाले जंगलों को रौंदते हुए आगे बढ़ते हैं। नतीजतन इन इलाक़ों में रह रही प्रजातियों का जीवन भी प्रभावित होता है। 

संघर्ष को कम करना: उपयुक्त समाधान

1. समुदायों के साथ विश्वासपूर्ण संबंध स्थापित करना

संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाली सीडबल्यूएस, ए रोचा और नेचर कंज़र्वेशन फ़ाउंडेशन जैसी समाजसेवी संस्थाएं अपना बहुत सारा समय इन इलाक़ों में रहने वाले समुदायों के साथ विश्वासपूर्ण संबंध स्थापित करने में लगाती हैं। उदाहरण के लिए, कोविड-19 के दिनों में सीडबल्यूएस ने राहत अभियान चलाए थे जिनमें उन्होंने पश्चिमी घाटों में स्थित 610 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में दवा एवं अन्य जरूरी चीजों की आपूर्ति की थी। चूंकि इन इलाक़ों में उनके अलावा कोई दूसरी संस्था इस तरह का काम नहीं कर रही थी इसलिए उन्हें यहां के लोगों के साथ भरोसेमंद रिश्ते बनाने में बढ़िया सफलता मिली। महामारी के दौरान सीडबल्यूएस ने जब इन समुदायों की मदद की, तब स्थानीय लोगों को इस बात का एहसास हुआ कि यह संगठन न केवल वन्यजीव संरक्षण का काम करता है बल्कि लोगों के कल्याण का भी ध्यान रखता है।

2. ज्ञान की कमी को पूरा करना

संरक्षण के प्रयासों में लगे हुए ज़्यादातर लोगों के पास स्थितियों को समझने एवं उपयुक्त समाधान देने के लिए आवश्यक पारम्परिक और स्थान-विशिष्ट ज्ञान की कमी होती है। अविनाश के अनुसार, संरक्षण को कारगर बनाने के लिए संघर्ष में शामिल समुदायों के समीकरणों या विशिष्ट प्रजातियों की इकोलॉजी और जीवविज्ञान को समझना जरूरी है। अविनाश कहते हैं कि “इस ज्ञान की अनुपस्थिति में हम ऐसे समाधान लेकर आते हैं जो लम्बे समय तक प्रभावी नहीं रह पाते।”

सीडबल्यूएस, वाइल्ड सुरक्षे नाम से एक सामुदायिक कार्यशाला संचालित करता है। इस कार्यशाला में वन्यजीव एवं समुदायों के बीच पुल की तरह काम करने वाले लोगों जैसे ग्राम पंचायत, आशा तथा आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया जाता है। इन कार्यशालाओं में उन्हें संघर्ष के कारण, सुरक्षित रहने के उपायों, वन्यजीवों, लोगों और मवेशियों में फैलने वाली छह आम बीमारियों तथा उन्हें फैलने से रोकने के उपायों आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है। कृति का कहना है कि ज़मीन पर हुई इन साझेदारियों की मदद से उन्हें समुदाय की ज़रूरतों के बारे में गहराई से जानने और संघर्ष को कम करने वाले समाधानों पर काम करने में आसानी होती है।

3.  समाधानों के समूह का निर्माण

हर संघर्ष की प्रकृति स्थानीय पर्यावरण, संदर्भ और पारिस्थितिकी के मुताबिक विशिष्ट होती है, इसलिए इनका समाधान भी विशिष्ट होना चाहिए। अविनाश एलिफ़ेंट सिग्नल का उदाहरण देते हैं जिसे एक बड़ी समस्या के सरल समाधान के रूप में तैयार किया गया था। अन्य संरक्षित क्षेत्रों के विपरीत, बीएनपी का एक रास्ता पार्क के बीच से होकर गुजरता है। चूंकि ये सड़कें आधिकारिक रास्ता नहीं हैं इसलिए यहां आए दिन हाथियों और आम लोगों के बीच टक्कर होती रहती है। इसके एक सरल समाधान के रूप में ट्रैफ़िक सिग्नल की तरह ही ‘एलिफ़ेंट सिग्नल’ लगाया गया जो चेतावनी यंत्र की तरह काम करता है। यह सिग्नल लोगों को हाथियों के चलने की जानकारी देता है और उन्हें रुकने और सावधान होने का संकेत प्रदान करता है। यह सिग्नल शहरों में काम करने वाले ट्रैफ़िक सिग्नल की तरह ही काम करता है। स्थानीय लोगों ने इसे स्वीकार किया क्योंकि इससे उन्हें अपना दैनिक कामकाज जारी रखने और अपनी आजीविका चलाने में सुविधा हुई।

ए रोचा इंडिया, संस्था भी समुदायों के साथ मिलकर काम कर रही है ताकि उन किसानों को आर्थिक स्थिरता प्रदान की जा सके जिनकी फसलें हाथियों के कारण बर्बाद हो जाती हैं। अविनाश कहते हैं कि “हमने स्वदेशी रागी और मसूर की कुछ क़िस्मों के बारे में उन्हें बताया जो पर्यावरण के बदलावों का सामना ज्यादा कर सकती हैं। जलवायु परिस्थितियों के बदलते रहने की स्थिति में भी इन फसलों की उपज स्थिर रहती है।” अविनाश आगे जोड़ते हैं कि संरक्षण के लिए किसी भी प्रकार के स्केलेबल मॉडल का होना असंभव है। उनका कहना है कि इसके बदले यहां छोटे-छोटे और अति स्थानीय समाधानों की एक श्रृंखला अधिक कारगर है। इनमें एलिफ़ेंट सिग्नल, वैकल्पिक फसल की उपलब्धता, आय के स्त्रोत के रूप में मधुमक्खी पालन आदि शामिल हैं। जब आप इन उपायों को एक साथ अपनाते हैं, तब यह समुदायों और संरक्षण के लिए एक कारगर समाधान के रूप में काम करता है।

4. वन्यजीव क्षतिपूर्ति निधि तक पहुंचने में लोगों की मदद करना

संघर्ष के कारण हुए नुकसान के लिए मुआवजा एक महत्वपूर्ण रणनीति है। कृति का कहना है कि कई राज्यों में वन्यजीव मुआवजे के लिए अलग से राशि उपलब्ध होती है। लेकिन वास्तविक चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि इस राशि का लाभ उन लोगों तक पहुंचे जिन्हें मानव-पशु संघर्ष के कारण नुक़सान उठाना पड़ता है।

अपने पुरस्कृत वाइल्ड सेव कार्यक्रम की मदद से सीडबल्यूएस एक पुल की तरह काम करता है। इसका काम यह सुनिश्चित करना है कि आवेदकों के दावे ख़ारिज न हों और उन्हें मुआवज़े की राशि मिल जाए। टोल-फ़्री नंबर जैसे सहज उपाय पर केंद्रित वाइल्ड सेव कार्यक्रम की पहुंच भारत में चार अभ्यारण्यों के आसपास बसे लगभग 1,500 गांवों तक हो चुकी है। किसी भी प्रकार की दुर्घटना की स्थिति में लोग इस नम्बर पर फ़ोन करते हैं जिसके बाद सीडबल्यूएस के कर्मचारी घटना स्थल पर पहुंच कर दुर्घटना को दर्ज करने और मुआवजे के लिए आवश्यक काग़ज़ात तैयार करने, फ़ोटो लेने और सरकार के सामने दावे को वैध बनाने जैसे जरूरी काम करते हैं। कृति बताती हैं कि अपने कार्यान्वयन के सात सालों में उन्होंने 22,000 से अधिक मामलों को दर्ज करवाने में मदद की है और लोगों को कर्नाटक एवं तमिलनाडु सरकार से पांच लाख डॉलर से अधिक राशि मुआवजे के रूप में दिलवाई है। 

5. हितधारकों के बीच संवाद को प्रोत्साहित करना

मानव-पशु संघर्ष में तीन तरह के हितधारक शामिल होते हैं। सरकार में वन से जुड़े सभी विभाग क्योंकि संघर्षों के प्रबंधन की जिम्मेदारी उनकी होती है; दूसरे संघर्ष से सीधे रूप से प्रभावित होने वाले स्थानीय समुदाय और दोनों के बीच पुल के रूप में काम करने और समस्याओं पर ध्यान दिलवाने में मदद करने वाले समाजसेवी संगठन वगैरह। अविनाश कहते हैं कि इन हितधारकों के बीच संवाद, समन्वय एवं सहयोग को विकसित करना जरूरी है जो अब तक न के बराबर है। “जब तक हम इसे किसी दूसरे की समस्या के रूप में देखना बंद कर, इसके लिए सामूहिक रूप से कुछ करना आरम्भ नहीं कर देते हैं। तब तक आज उभर रही ये समस्याएं, जो पहले से हमें विरासत में मिली हैं, भविष्य में अधिक जटिल मुद्दों के रूप में हमारे सामने आएंगी।

कृति के अनुसार, समाजसेवी संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है लेकिन उनके काम और उनके महत्व को कम आंका जा रहा है जिसे बदलने की ज़रूरत है। “समाजसेवी संस्थाएं सरकार की तरह बड़े पैमाने पर किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकती हैं। लेकिन उनके पास कई वर्षों में हासिल हुआ ज्ञान, उपकरण और सबसे महत्वपूर्ण गहरी समझ और कारगर उपायों की विशेषज्ञता ज़रूर है।” कृति का सुझाव है कि सरकारों को सरकारी प्रणालियों में समाजसेवी संस्थाओं को ज्ञान के सहयोगी के रूप में शामिल करना चाहिए क्योंकि वे इस मानव-पशु संघर्ष को प्रबंधित करने वाले आवश्यक कार्यक्रम बनाने में सक्षम हैं।

प्रत्येक व्यक्ति को संरक्षण के बारे में सोचना चाहिए

संरक्षण के प्रयासों को समाजसेवी संस्थाओं, युवा कार्यकर्ताओं या शहरी सम्भ्रांत लोगों के एक छोटे से समूह तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। अविनाश के अनुसार एक बढ़ई से लेकर एक मंत्री तक सभी को संरक्षण के प्रयास से जुड़ना चाहिए।

संस्था के स्तर पर, शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे संगठनों को स्कूल में छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए संरक्षण को एक विषय के रूप में शामिल करने के प्रयास पर काम करना चाहिए। उदाहरण के लिए, सीडबल्यूएस के वाइल्ड शेल कार्यक्रम को भारत में वन्य जीव अभ्यारण्यों के आसपास के ग्रामीण इलाक़ों में स्कूल जा रहे 10–13 वर्ष के बच्चों के लिए तैयार किया गया है। इस कार्यक्रम के हिस्से के रूप में वे कला, कथा-वाचन और विभिन्न प्रकार के खेलों का उपयोग कर बच्चों को पर्यावरण विज्ञान और संरक्षण के बारे में इस प्रकार सिखाते हैं जिससे उनका ध्यान पर्यावरण की देखभाल पर जाता है।

अविनाश का सुझाव है कि सामाजिक दृष्टिकोण से स्थानीय राजनेताओं जैसे कि विधायकों एवं सांसदों को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। वे कहते हैं कि “लोगों को उनसे पूछना चाहिए कि संरक्षण को लेकर उनकी क्या राय है। आज हम अपने प्रतिनिधियों से ख़राब सड़कों, स्ट्रीट लाइट के न होने जैसी चीजों की शिकायतें करते हैं लेकिन जंगलों का मुद्दा भी हमें इतना ही प्रभावित करता है। जब हम जंगल बचाते हैं, तभी बाक़ी लोगों को इकोसिस्टम से लाभ मिल पाता है। यह तापमान को कम करता है और हवा को साफ़ रखता है। हमारा संदेश यही होना चाहिए, न कि यह कि पर्यावरण विकास विरोधी है।”

जिस तरह से मीडिया में मानवपशु संवाद को कवर किया जाता है उसे बदलने की जरूरत है।

मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है। कृति का मानना है कि जिस तरह से मीडिया में मानव-पशु संवाद को कवर किया जाता है उसे बदले जाने की जरूरत है। वे कहती हैं कि “उन्हें मानव-पशु संघर्षों से जुड़े मामलों को सनसनीखेज़ बनाना बंद करना होगा। चाहे किसी बाघ की वज़ह से किसी इंसान की मृत्यु हो या फिर गलती लोगों की हो, यह सब कुछ एक बड़े और विस्तृत संवाद का हिस्सा होता है। मारे जा रहे लोगों या जानवरों की क्लिप को बार-बार चलाना सही नहीं है। जब मीडिया संघर्ष की इन घटनाओं को सनसनीखेज बनाता है, तो यह दीर्घावधि में संरक्षण के प्रयासों के प्रभाव को कम करता है और उसे असफल बनाता है।”

समाज के हर व्यक्ति के जागरूक होने से, जानवरों के जीवन में अंतर आ सकता है, इन जानवरों के आसपास रहने वाले स्थानीय लोगों पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने में मदद मिल सकती है। साथ ही, ऐसा होना संरक्षण के प्रयासों को समग्र रूप से प्रभावी बनाने में भी अपना योगदान दे सकता है।

इस लेख में हलीमा अंसारी ने भी योगदान दिया है।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें

अधिक जानें

  • इस लेख को पढ़ें एवं समझें कि मानव-वन्यजीव संघर्ष जानवरों की प्रजातियों के लिए कैसे एक सबसे बड़े ख़तरे के रूप में उभर रहा है।
  • मानव-बाघ संघर्ष बहस को विस्तार से जानने के लिए इस लेख को पढ़ें।
  • इस विडीयो को देखें और जानें कि भारत का वन्यजीव संरक्षण अधिनियम किस प्रकार देश में पिछड़े समुदायों को ग़ैर-अनुपातिक ढंग से प्रभावित कर रहा है।

लेखक के बारे में
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स्मरिनीता शेट्टी

स्मरिनीता शेट्टी आईडीआर की सह-संस्थापक और सीईओ हैं। इसके पहले, स्मरिनीता ने दसरा, मॉनिटर इंक्लूसिव मार्केट्स (अब एफ़एसजी), जेपी मॉर्गन और इकनॉमिक टाइम्स के साथ काम किया है। उन्होनें नेटस्क्राइब्स – भारत की पहली नॉलेज प्रोसेस आउटसोर्सिंग संस्था – की स्थापना भी की है। स्मरिनीता ने मुंबई विश्वविद्यालय से कम्प्युटर इंजीनियरिंग में बीई और वित्त में एमबीए की पढ़ाई की है।

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श्रेया अधिकारी

श्रेया अधिकारी आईडीआर में एक संपादकीय सहयोगी हैं। वे लेखन, संपादन, सोर्सिंग और प्रकाशन सामग्री के अलावा पॉडकास्ट के प्रबंधन से जुड़े काम करती हैं। श्रेया के पास मीडिया और संचार पेशेवर के रूप में सात साल से अधिक का अनुभव है। उन्होंने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल सहित भारत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न कला और संस्कृति उत्सवों के क्यूरेशन और प्रोडक्शन का काम भी किया है।

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