सदियों से पूर्वोत्तर भारत की महान नदियां इस क्षेत्र की सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान को आकार देती रही हैं। ये नदियां लोगों के जीवन से भी गहराई से जुड़ी रही हैं। उत्तर सिक्किम का लेप्चा समुदाय रोंगयोंग नदी की पूजा करता है और खेती से जुड़ी अपनी जरूरतों के लिए इस पर निर्भर है। असम के तराई वाले इलाके, गौरीपुर की ब्रह्मपुत्र नदी से नजदीकी के चलते ही यहां ग्वालपारिया लोकगीत बने और एक समूचा नौका उद्योग विकसित हुआ।
नदी किनारे रहने वाले इन समुदायों को अपने पूर्वजों से विरासत में कहानियां, सांस्कृतिक परंपराएं, संगीत, मौखिक इतिहास की विधाएं मिली है, जिसे उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया है। इसमें नदियों और उनके आसपास के परिदृश्य और पारिस्थितिकी से जुड़ी गहन ज्ञान प्रणालियां भी शामिल हैं। इनसे नदी तंत्र को समझने के लिए ऐतिहासिक और प्रासंगिक नजरिया मिलता है। दूसरी तरफ, प्रकृति के अधिक करीब होने के चलते, ये समुदाय जलवायु में आ रहे बदलाव के भी गवाह रहे हैं। इनकी वास्तुकला, खेतीबाड़ी की विविधता, पोषण के वैकल्पिक स्रोत, व्यापार के तरीके और उपभोग की शैली जैसी तमाम चीजें इनके प्राकृतिक वातावरण और कठिन मौसम के प्रति अनुकूल होने की क्षमता से गहराई से जुड़ी हुई हैं। तेजी से बदलती जलवायु के दौर में यह पारंपरिक ज्ञान हमें जलवायु अनुकूलन और सहनशीलता (रेसिलिएंस) के स्थाई समाधान खोजने में मददगार साबित हो सकता है, जो आज के समय की बड़ी जरूरत है।
साल 2023 में, इस इतिहास और ज्ञान के दस्तावेजीकरण के लिए मैंने और डॉक्युमेंट्री फिल्म निर्माता देबाशीष नंदी ने मिलकर द रिवर प्रोजेक्ट (टीआरपी) की शुरूआत की। टीआरपी एक इंटरैक्टिव मल्टीमीडिया आर्काइव है, जो ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों जगह उपलब्ध है। यह एक सहभागी पहल है, जिसमें फिल्म निर्माताओं, कलाकारों, चरवाहों, किसानों और मछुआरों ने मिलकर फिल्मों, मौखिक कहानियों, तस्वीरों और बच्चों की पिक्चर-बुक्स के जरिए कहानियों का एक बहुभाषी संग्रह तैयार किया गया है। इस प्रोजेक्ट की मूल अवधारणा यह थी कि ध्वनि (साउंड) और छवियां (इमेज) एक खास दौर की अभिव्यक्तियों का सशक्त दस्तावेज बन सकती हैं। इसके माध्यम से औपनिवेशिक दृष्टिकोण से हटकर इतिहास का एक वैकल्पिक आख्यान प्रस्तुत किया जा सकता है.
यह लेख लोगों के आर्काइव को तैयार करने की हमारी यात्रा, उसमें अपनाई गई सहभागी प्रक्रिया, और रास्ते में आई चुनौतियों का विस्तार से वर्णन करता है।
इस प्रोजेक्ट में मेरे और देबाशीष के पास एक कहानी को अलग-अलग विधाओं में कहने की तकनीकी विशेषज्ञता है। वहीं, समुदाय के लोग सह-निर्माता की भूमिका निभाते हुए हमारा मार्गदर्शन करते हैं। वे नदियों को समझने, कहानियों को गढ़ने और ध्वनि व छवियों को पहचानने और रिकार्ड करने में हमारा साथ देते हैं। आर्काइव में जाने से पहले हर कहानी के अंतिम स्वरूप पर हम सभी की सहमति जरूरी होती है।
कहानियों को अंतिम रूप देने की हमारी प्रक्रिया लगातार बदल रही है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सहभागी प्रक्रियाओं में अक्सर शक्तियों (पावर) और विशेषाधिकारों (प्रिविलेज) का असंतुलन मौजूद होता है। यहां पर आप रटे-रटाए तरीकों से काम नहीं कर सकते हैं। ऐसे में, हमारे सह-निर्माताओं और उनके परिवारों को जानना और उन्हें अपने बारे में खुलकर बताना, ताकि वे भी हमें जान सकें, हमारे लिए कारगर रहा। इससे हमारे बीच भरोसे और दोस्ती का रिश्ता बना। आमतौर पर रिसर्च और डॉक्युमेंटेशन के दौरान आपके अंदर अलगाव की भावना आ सकती है, जिसमें आप लोगों और चीज़ों को दूर बैठे बस रिकॉर्ड करते रहते हैं। अंग्रेजी में इसे ‘फ्लाई-ऑन-द-वॉल’ स्टाइल भी बोला जाता है। यानी दीवार पर बैठी किसी मक्खी की तरह सब देखते-सुनते जाना। लेकिन एक सहभागी प्रक्रिया में इसकी कोई जगह नहीं होती।
इसके अलावा सभी की दिनचर्या और समय एक समान नहीं चलते। इसलिए हम समुदाय के लोगों की उपलब्धता, बाहरी परिस्थितियों (जैसे प्राकृतिक आपदा या मानव-वन्यजीव संघर्ष) और अपनी पेशेवर व्यस्तताओं को ध्यान में रखते हुए अपने काम की गति को धीमा भी करते हैं और एक कहानी पर बार-बार लौटते भी हैं। कई बार एक कहानी को एडिटिंग तक पहुंचने से पहले महज एक फुटेज की तरह साल भर का इंतजार करना पड़ता है एक बार एडिटिंग शुरू होती है, तो कहानी में कई बदलाव और सुधार होते रहते हैं। हम नियमित रूप से इस बात पर चर्चा करते रहते हैं कि कहानी को दर्ज करने वाला व्यक्ति (डॉक्यूमेंटर) उसे किस दिशा में आगे बढ़ाना चाहता है। हर व्यक्ति में अलग-अलग कौशल होते हैं। काम के दौरान इसे ध्यान में रखते हुए ही बातचीत का तरीका, उसे फिल्माने और रिकॉर्ड करने का का माध्यम और यात्रा आदि से जुड़ी बातें तय की जाती हैं।
हमारा द्विभाषी (अंग्रेजी और समुदाय द्वारा बोली जाने वाली भाषा में) ऑनलाइन आर्काइव एक वेबसाइट के रूप में उपलब्ध है। इसके ऑफलाइन संस्करण को एंड्रायड डिवाइसों के लिए एक एप्प की तरह डिजाइन किया गया है। हम जरूरत के मुताबिक टैबलेट्स और स्मार्टफोन भी उपलब्ध करवाते हैं। यह एप्प हमारे सह-निर्माताओं और समुदाय के उन लोगों के फोन पर इंस्टाल की गयी है, जो इसे देखना चाहते हैं। इसके अलावा यह एप्प असम के तेजपुर जिले के डिस्ट्रिक्ट म्यूजियम में एक इंस्टॉलेशन स्पेस में लगे टैबलेट पर भी मौजूद है, ताकि इसे बड़े दर्शक समूह तक पहुंचाया जा सके। साथ ही इसके कुछ भौतिक संस्करण भी तैयार किए गए हैं, जिनमें म्यूजियम इंस्टॉलेशन, कार्यशालाओं के दौरान बनाए गए नक्शे, चित्र, फोटोग्राफ और बच्चों की पिक्चर-बुक्स शामिल हैं।
हमारे सहयोगी अरुणाचल प्रदेश, असम और सिक्किम में घूम-घूमकर कहानियों को संजोते हैं।
धन बहादुर प्रधान असम और अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर बहती दिबांग नदी के एक द्वीप पर भैंस पालन का काम करते हैं। वे खुटियों (चरवाहों के अस्थायी ठिकानों) में जीवनयापन से जुड़ी कहानियां इकट्ठी करते हैं। धन बहादुर पूरे साल फोटो, ऑडियो और वीडियो के जरिए मौसमी बदलावों को दर्ज करते हैं। इसमें उन द्वीपों का ब्यौरा भी शामिल है, जो (कभी-कभी मौसमी तौर पर या फिर स्थायी रूप से) जलमग्न हो जाते हैं। इसके अलावा, वे पारंपरिक प्रथाओं और उस भौगोलिक परिदृश्य से जुड़ी विलुप्त होती ध्वनियों को भी दर्ज करते हैं। वे उन कहानियों के लिए आवाजें भी रिकॉर्ड करते हैं, जो उन्हें अहम लगती हैं। साथ ही, वे अपने समुदाय के उन बुजुर्गों के अनुभव भी दर्ज करते हैं जिन्होंने अपने मवेशी बेच दिए हैं और अब काम करना छोड़ चुके हैं।
धन बहादुर ने हमारे साथ यात्रा कर सियांग, दिबांग और ब्रह्मपुत्र नदियों के किनारे बसे इलाकों में चरवाहों के प्रवासन मार्गों का मानचित्र तैयार करने में मदद की। इस दौरान उन्होंने असम और अरुणाचल प्रदेश में सियांग नदी के द्वीपों पर रहने वाले मिसिंग समुदाय के अन्य अर्ध-घुमंतू चरवाहों से मिलकर उनकी कहानियों को भी दर्ज किया। इस प्रक्रिया के दौरान, धन बहादुर ने इन समुदायों को ऑफलाइन आर्काइव के बारे में बताया और इस पर चर्चा की। वे नियमित रूप से वर्कशॉप में हिस्सा लेने, आर्काइव में अपनी कहानियां दर्ज करवाने, असमिया में बच्चों के लिए पिक्चर-बुक तैयार करने और ऊपरी इलाकों से आने वाले अन्य समुदायों के युवा कहानीकारों को मार्गदर्शन देने के लिए हमारे तेजपुर स्थित दफ्तर आते रहते हैं।
असम के तेजपुर में कोलीबाड़ी मछुआरा गांव के जीब दास फोटोग्राफी और साक्षात्कारों के जरिए अपने गांव का इतिहास दर्ज करते हैं, जिन्हें मैं और देबाशीष फिल्माते हैं। उनका यह दस्तावेजीकरण फिल्म और फोटोग्राफी के माध्यमों से आगे जाकर गांव के लोगों, खासकर महिलाओं और बच्चों, के साथ मिलकर सामूहिक रूप से तैयार होता है।
शुरूआती दौर में, वर्कशॉप को डिजाइन करने के लिए हमने जीब दास के साथ कई बार बातचीत ताकि इसकी जरूरत और इसमें भाग लेने वाले बच्चों की क्षेत्र-विशिष्ट जानकारी को सही तरह से समझा जा सके। इस सहयोगी पहल के पीछे दो वजहें थीं: पहली, बच्चों की यादों को कला के जरिए अभिव्यक्त होने देना, जिससे उनके मानसिक स्वास्थ्य और अपनी पहचान को लेकर उनकी समझ का अंदाजा मिल सके। दूसरा, तेजपुर और उसके आसपास के सार्वजनिक स्थलों में पहुंच (एक्सेस) के मायने और आत्मबोध के मतलब को जानना।
इसका एक उद्देश्य यह भी था कि प्रतिभागी जिन जगहों पर पहले कभी नहीं गए, वहां नई यादें कैसे बना सकते हैं। हमने इस सोच के साथ अपने सहयोगी अभिलाष राजखोवा, जो सोनितपुर जिला संग्रहालय के संग्रहालय अधिकारी हैं, से संपर्क किया। हमने उनके समक्ष संग्रहालय में वर्कशॉप करने और बच्चों को तेजपुर की हेरिटेज वॉक पर ले जाने का प्रस्ताव रखा। ऐसा इसलिए, ताकि बच्चे संग्रहालय और वो अन्य जगहें देख सकें जहां वे आमतौर पर नहीं जा पाते हैं।
यह पहल अब एक लंबे जुड़ाव में बदल चुकी है, जिसमें मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ रविराज शेट्टी और डॉ अदिति ब्रह्मभट्ट, द रिवर प्रोजेक्ट और कोलीबाड़ी के बुजुर्ग शामिल हैं। जीब दास इन वर्कशॉप्स के डिजाइन और सह-संचालन में मदद करते हैं। इन वर्कशॉप्स के दौरान बच्चों ने मिलकर तेजपुर और ब्रह्मपुत्र नदी का एक नक्शा भी तैयार किया है, जिसमें उन्होंने अपनी यादें और रोजमर्रा की कहानियां भी उकेरी हैं।
उत्तर सिक्किम की जोंगू घाटी में नदी कार्यकर्ता ग्यात्सो टोंगदेन लेप्चा, लेप्चा समुदाय के मौखिक इतिहास को आज के जलवायु परिवर्तन से जुड़ी कहानियों के साथ जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि इस समय के अनुभवों का एक समकालीन दस्तावेज तैयार किया जा सके।
इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए हमने जोंगू के लिए ऑफलाइन आर्काइव का एक विशेष डिजाइन तैयार किया है। फिलहाल हम जोंगू के लिए एक विशेष ऑफलाइन संस्करण विकसित कर रहे हैं, जिसमें घाटी के सभी गांवों और वहां बहने वाली नदियों का मानचित्रण किया जा रहा है। यह द्विभाषी (लेप्चा–अंग्रेज़ी) आर्काइव मौखिक इतिहास, लोककथाओं, सांस्कृतिक रीति-रिवाज और पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों का संग्रह होगा। इनके साथ-साथ ये हर गांव से जुड़ी वर्तमान घटनाओं और बदलाव की कहानियों को भी दर्ज करेगा। इस तरह, यह संग्रह इस समय के बदलते पर्यावरणीय और सामाजिक संदर्भ को एक साथ पकड़ने का प्रयास है।
एक बार शुरूआती डिजाइन तैयार हो जाने के बाद ग्यात्सो ने हमें पूरे इलाके का भ्रमण करवाया और वहां के निवासियों से मुलाकात करवाई। हमने जाना कि हर गांव का इतिहास अलग होता है और केवल वहां रहने वाले ही यह तय करते हैं कि क्या साझा किया जाए। ग्यात्सो पहले से तय विषयों पर ऑडियो और वीडियो कहानियां भी रिकॉर्ड करते हैं। इसके अलावा, वे लोगों से होने वाली बातचीत को सुगम बनाते हैं, जिससे हमें उनके समुदाय के उस संघर्ष की गहरी समझ मिलती है जो वे अपनी जमीन बचाने के लिए कर रहे हैं।
जैसा कि किसी भी सहयोगात्मक परियोजना (कोलैबोरेशन प्रोजेक्ट) में अपेक्षित होता है, खासतौर पर जब वह भौगोलिक रूप से दुर्गम इलाकों में हो, हमें कई तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है। हमारे सामने कई तरह की चुनौतियां आती हैं, जैसे:
हमारे सहयोगी जिन समुदायों से आते हैं, वे ऐसे इलाकों में रहते हैं जहां जलवायु परिवर्तन का गहरा प्रभाव पड़ता है। यहां मौसम लगातार अनिश्चित होता जा रहा है, मानव-वन्यजीव संघर्ष घातक दर से बढ़ रहे हैं और प्राकृतिक आपदाओं के कारण कई बार बहुत से इलाकों में जाना खतरनाक या लगभग असंभव होने लगा है। बरसात के महीनों में कुछ भी फिल्माना हमारे लिए ही नहीं, बल्कि हमारे सहयोगियों के लिए भी चुनौतीपूर्ण होता है, क्योंकि इस समय वे जान-माल के नुकसान से जूझ रहे होते हैं।
उदाहरण के लिए, साल 2024 की गर्मियों में ऊपरी असम में दिबांग और लुइत नदियों में आई बाढ़ के कारण उस नदी द्वीप पर पानी भर गया था, जहां धन बहादुर की खुटी (चरवाहों का ठिकाना) स्थित थी। कई दिनों तक धन बहादुर और उनके साथी चरवाहे खुटी के भीतर ही फंसे रहे। उनके लिए बाहर निकलना भी संभव नहीं था। इस बाढ़ के बाद असम भयानक लू की चपेट में आ गया, जिससे इतनी तेज गर्मी पड़ी कि भैंसों को चराना मुश्किल हो गया। इसके अलावा, उस इलाके में कोई स्वास्थ्य सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी। ऐसे में हमने फिल्मांकन का काम रोक दिया था, ताकि धन बहादुर और उनके साथी चरवाहे अतिरिक्त दबाव में आए बगैर अपने रोजमर्रा के जरूरी काम कर सकें।
तकनीक के तेजी से विकसित होने के साथ एक और बड़ी चुनौती यह है कि हम न केवल अप–टु–डेट रहें, बल्कि इस प्रक्रिया में पहुंच (एक्सेस), स्वामित्व, डेटा अधिकार, साक्षरता, उम्र और जेंडर जैसी चुनौतियों को भी समझें और उनके समाधान निकालें। डिजिटल मंचों को कहानियों को कहने, सहेजने और साझा करने के एक साधन की तरह इस्तेमाल करते हुए यह ध्यान रखना और भी जरूरी हो जाता है।
काम के दौरान छोटी और मामूली सी लगने वाली बातों, जैसे कि ऐप्लिकेशन में किस आइकन का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, के लिए भी हमें समुदाय के अपने साथियों के साथ बीटा-टेस्टिंग करनी पड़ी। हमने सीखाकि आइकनों के मायने हर जगह एक से नहीं होते। ऐसे में हर समुदाय को समझ में आने वाले सेट तैयार करने की कोशिश ने एक निरंतर प्रक्रिया का रूप ले लिया । उदाहरण के लिए, असम में जब हम ‘भोजन’ को दर्शाने वाले आइकन की तलाश कर रहे थे, तो यह स्पष्ट हुआ कि लकड़ी के चूल्हे पर रखे वोक (गहरे तले वाली कढ़ाई) की तस्वीर, फ्राइंग पैन या शेफ की इमोजी की तुलना में अधिक उपयुक्त होगी। इसी तरह, ‘काम’ के लिए लैपटॉप की बजाय हथौड़े का चित्र ज्यादा सही था। ‘वास्तुकला’ को दर्शाने के लिए सीमेंट के मकान की बजाय फूस की झोपड़ी का आइकन चुना गया। ‘प्रवास’ को दिखाने के लिए सड़क के चित्र का इस्तेमाल किया गया, न कि विमान या ट्रेन का। जोंगू के ऑफलाइन आर्काइव संस्करण के लिए भी आइकन इसी तरह सांस्कृतिक प्रतीकों को ध्यान में रखते हुए डिजाइन किए जा रहे हैं।
मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल से जुड़े संसाधनों की कमी और समुदाय के लोगों को अपनी कहानियां खुद दर्ज करने में सक्षम बनाने वाले प्रशिक्षण का न होना, दो ऐसी चुनौतियां है जिनका हम लगातार सामना कर रहे हैं। दस्तावेजीकरण करने वाले हमारे ज्यादातर साथी ऐसे समुदायों से आते हैं, जो दुर्गम और सुदूर इलाकों में रहने के कारण अक्सर सामाजिक विमर्श से दूर होते हैं। यहां आमतौर पर बुनियादी ढांचा भी मौजूद नहीं होता है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को याद रखने, दोहराने और साझा करने की प्रक्रिया में जो बात अक्सर नजरअंदाज हो जाती है, वह है पारिस्थितिक शोक (इकलॉजिकल ग्रीफ) का मानसिक प्रभाव, जिसमें एक गहरे अलगाव और ‘पराएपन’ की भावना शामिल होती है। उदाहरण के लिए, खुटी, जो कभी एक फलता-फूलता डेयरी व्यवसाय था, वहां अब कुछ ही चरवाहे रह गए हैं जो नदी के द्वीपों में अलग-थलग रहकर किसी तरह गुजारा कर रहे हैं। इन चरवाहों का कौशल पूरी तरह से उस वन-परिदृश्य से जुड़ा होता है, जिसमें वे रहते है और यह चारों ओर से नदियों से घिरा होता है। उनकी सामाजिक व्यवस्थाएं भी इसी जीवनशैली के मुताबिक बनी थीं, जो गांवों और कस्बों से दूर खुली जगहों में रहने की शैली थी।
आज ज्यादातर लोगों को गांवों में बसना पड़ रहा है और आजीविका के लिए नए कौशल सीखने पड़ रहे हैं। उनका पेशे से जुड़ा आत्मबोध और पहचान अब पहले जैसे नहीं रह गए हैं। इसी तरह, कोलीबाड़ी में भी अधिकतर मछुआरों को अब मछली पकड़ने का काम छोड़कर कृषि या इससे जुड़े अन्य काम करने पड़ रहे हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि संसाधन कम होते जा रहे हैं, मिट्टी का क्षरण नदी के बहाव को बदल रहा है और युवा पीढ़ी की आकांक्षाएं पारंपरिक मत्स्य व्यवसाय से दूर होती जा रही हैं।
आज यह जरूरी हो गया है कि हम इतिहास को दर्ज करने और फिर से गढ़ने के वैकल्पिक तरीके खोजें, ताकि एक नया कथानक (नैरेटिव)अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण हो। इसी दिशा में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों, इतिहासकारों, शोधकर्ताओं और अन्य विशेषज्ञों के जरिए विविध क्षेत्रों का मिलकर काम करना भी महत्वपूर्ण है, ताकि इस नाजुक होती दुनिया में सहनशीलता और अनुकूलनशीलता विकसित की जा सके।
दस्तावेजीकरण और अभिलेखीकरण की इस प्रक्रिया में पीढ़ियों से चली आ रही कहानियां और लोगों के रोजमर्रा के साधारण जीवन में बसी स्मृतियां बार-बार नए सिरे से गढ़ी जाती हैं। जैसे-जैसे व्यक्तिगत और सामूहिक स्मृतियां दोहराई और साझा की जाती हैं, ये कहानियां भी बदलती हैं और विकसित होती जाती हैं। यही प्रक्रिया पहचान और निरंतरता की भावना को बनाए रखती है। हमारी आशा है कि आने वाले वर्षों में द रिवर प्रोजेक्ट पूर्वोत्तर भारत की नदियों का ऐसा दस्तावेज बन पाएगा, जिसे इन नदियों के किनारे रहने वाले लोगों ने खुद तैयार किया हो और जो सबके लिए सुलभ हो।
जीब दास, धन बहादुर प्रधान, और ग्यात्सो टोंगदेन लेपचा द रिवर प्रोजेक्ट के सह-निर्माता हैं।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
—
शाम के चार बजकर पैंतीस मिनट। आपके लैपटॉप में 9% बैटरी बची है, वाई-फाई बार-बार डिस्कनेक्ट हो रहा है और आपकी कॉफी बर्फ की तरह ठंडी हो चुकी है। स्क्रीन पर एक नीले रंग का बार धीरे-धीरे लोड हो रहा है, जिस पर लिखा है ‘Connecting…’ ये नजारा तकनीकी गड़बड़ी कम और आपके सोशल सेक्टर के करियर का मेटाफर ज्यादा लगता है। स्वागत है विकास की उस दुनिया में, जहां ऑनलाइन मीटिंग्स ने न सिर्फ समय, बल्कि आपकी आत्मा, सब्र और बैटरी को भी हाईजैक कर लिया है।
हर सुबह ऐसे कैलेंडर इनवाइट आपके इनबॉक्स में किसी प्राचीन शिलालेख की तरह जड़े हुए होते हैं: ‘Impact Assessment Review, 10 AM IST. Link: meet.google.com/xyz-abc.’ उसके नीचे वही लाइन: ‘Please join 5 minutes early.’ मानो पांच मिनट पहले जॉइन करने से सामाजिक बदलाव की रफ्तार दुगुनी हो जाएगी। आप लिंक पर क्लिक करते हैं। स्क्रीन पर कोई अपनी बिल्ली को गोद में लिए उसे ‘मीटिंगएटिकेट’ समझा रहा है, तो कोई अपने बच्चे को चुपके से बिस्किट थमाकर कह रहा है कि, “भागो यहां से! पापा अभी दुनिया बदलने में बिज़ी हैं।”
मीटिंग शुरू होती है। प्रोजेक्ट लीड, जो आदतन होस्ट भी है, कहता है, “क्या मेरी आवाज आ रही है?” उसकी पहली स्लाइड पर लिखा होता है: एजेंडा: प्रोग्राम अपडेट्स, फंडिंग चैलेंजेस एंड नेक्स्ट स्टेप्स। आप मन ही मन सोचते हैं कि ये वही एजेंडा है, जो पिछले छह हफ्तों से रिसाइकल हो रहा है। बस तारीख पर तारीख बदल रही है। इतने में एक सीनियर मैनेजर, जो हमेशा नए-नए जार्गन से लैस रहता है, बोल पड़ता है, “हमें डिजिटल एंगेजमेंट को स्केल करना चाहिए, स्टेक होल्डर सिनर्जी क्रिएट करनी चाहिए।” तभी उसकी स्क्रीन फ्रीज़ हो जाती है और उसका चेहरा एक अजीब-सी मुस्कान के साथ अटक जाता है। जैसे वो मैनेजर नहीं, मैनेजर का मीम हो।
इस बीच मीटिंग में कुछ नए चेहरों को देखकर आप चौंकते हैं। ये हैं फील्डवर्कर। यानी वो पहिए, जो सारी दौड़-धूप कर गांव-गांव सर्वे करते हैं, घर-घर जाकर डेटा इकट्ठा करते हैं और वो भी इतने कम मेहनताने में कि आपकी ब्लू टोकाई की कॉफी का बिल भी उससे ज्यादा होता है। रमेश भाई, जो पिछले हफ्ते तक गांव में भूजल का सर्वे कर रहे थे, स्क्रीन पर दिखते हैं। वो चुपचाप बैठे हैं, क्योंकि ‘इम्पैक्टस्केलिंग’ और ‘सिनर्जी’ जैसे शब्द उनके लिए किसी एलियन भाषा से कम नहीं हैं। मीटिंग में उनकी राय पूछी जाती है, तो वो हड़बड़ाते हुए कहते हैं, “जी, गांव में लोग बोल रहे थे कि पानी तो है, लेकिन पंप नहीं हैं।” जवाब में प्रोजेक्ट लीड कहता है, “ग्रेट इनपुट, रमेश जी! इसे हम अगले क्वार्टर के स्ट्रैटेजिक फ्रेमवर्क में इंटीग्रेट करेंगे।” रमेश भाई बस सिर हिलाते हैं, लेकिन उनके चेहरे पर साफ है कि उन्हें ‘स्ट्रैटेजिकफ्रेमवर्क’ का मतलब उतना ही समझ आया, जितना आपको पिछले हफ्ते की मीटिंग का।
तभी एक नया जॉइनी, जो छा जाने के लिए बेताब है, पूरे उत्साह से बोलता है, “हम एक डिजिटल डैशबोर्ड बना सकते हैं, जो रियल–टाइम फील्ड इम्पैक्ट को ट्रैक करेगा।”सबके हाथ ताली-मुद्रा में जा चुके होते हैं, लेकिन रमेश भाई धीरे से पूछते हैं, “सर यहां तो बिजली ही गुल रहती है। पूरे दिन कंप्यूटर चलेगा कैसे?” जवाब में मिलती है एक लंबी खामोशी, जिसे भरने के लिए लीड तपाक से कहता है, “गुड पॉइंट! फिलहाल इसे हम ऑफलाइन मोड में डेवलप करेंगे।” यानी वही पुराना गुलाबी रजिस्टर, जिसमें रमेश भाई पहले से ही डेटा लिखते रहे हैं।
फिर आता है वो पल, जब डायरेक्टर पूछता है, “तो, एक्शन प्वाइंट्स क्या हैं?” जवाब में खुले हुए कैमरे और माइक एक-एक कर बंद होते दिखते हैं। प्रोजेक्ट कॉर्डिनेटर को एहसास होता है कि कैमरा बंद कर के नमकीन खाने के चक्कर में उसका माइक ऑन ही रह गया था और जवाब का दारोमदार अब उसके ऊपर है। पहले वो “आई एग्री” कहकर मामला निपटाने की कोशिश करता है। लेकिन डायरेक्टर का “एग्री विद व्हाट?” सुनकर उसे कहना पड़ता है कि,“आई थिंक हमें इस पर एक और मीटिंग करनी चाहिए।”
मीटिंग को अंजाम की ओर ले जाते हुए होस्ट अपनी स्क्रिप्ट पढ़ता है, “ग्रेट डिस्कशन, एवरीवन! मैं एक्शन आइटम्स का डॉक्यूमेंट शेयर कर दूंगा।” आप जानते हैं कि वो डॉक्यूमेंट अगली मीटिंग की सुबह तक नहीं आएगा। और जब आएगा भी, तो उसमें वही पुराने पॉइंट होंगे, बस नए फॉन्ट में।
मीटिंग खत्म होती है और चैट बॉक्स में एक मैसेज चमकता है: “Thanks for the insights! Let’s reconvene next week.” इससे पहले कि आप ‘Leave Meeting’ बटन दबाएं, एक नया कैलेंडर इनवाइट आपके इनबॉक्स में आ चुका है।
Follow-up: Impact Assessment Review, Next Monday, 10 AM IST.
आप एक गहरी सांस लेते हैं, चाय हो चुकी कॉफी का आखिरी घूंट पीते हैं और सोचते हैं: क्या ये मीटिंग कभी खत्म होगी?
वर्तमान में चैट-जीपीटी, जैमिनाई और मेटा-एआई जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) टूल बड़े शहरों में जीवन का नियमित हिस्सा बन चुके हैं। लेकिन बिहार जैसे राज्यों के शहरी और ग्रामीण इलाकों में यह तकनीक अब भी आम जनजीवन से दूर है। इस अंतर को पाटने के लिए इंटेल ने हमारी संस्था आई-सक्षम से संपर्क किया। हमने एक डिजिटल साक्षरता प्रोग्राम के जरिए हाशिए पर रहने वाले समुदायों के बीच एआई साक्षरता को बढ़ावा देने की साझा पहल की।
मैं आई-सक्षम में प्रोग्राम मेंटर के तौर पर काम करती हूं। हमारी संस्था ग्रामीण समुदायों की युवतियों के साथ मिलकर काम करती है, ताकि वे अपने समुदाय के जमीनी विकास में सक्रिय भूमिका निभा पायें।
एडु-लीडर्स की तरह काम करने वाली इन युवतियों को भी इस परियोजना को धरातल पर लागू करने के लिए एआई की बुनियादी साक्षरता सीखने की जरूरत थी। शुरुआत में उनके पास पाठयक्रम तैयार करने, अपना सीवी लिखने या काम से जुड़े जटिल विषयों को समझने के लिए न तो तकनीकी संसाधन थे और न ही कोई अन्य समर्थन। इसलिए सबसे पहले उन्होंने फंडर द्वारा शुरू किए गए प्रशिक्षण कार्यक्रम को पूरा किया और फिर स्वयं ट्रेनर की भूमिका में अन्य लोगों को प्रशिक्षण देने लगीं।
हमारा उद्देश्य था बिहार के पांच जिलों—मुजफ्फरपुर, गया, मुंगेर, बेगूसराय और जमुई—के गांवों में यह समझ विकसित करना कि एआई का उपयोग रोजमर्रा की जिंदगी में कैसे किया जा सकता है। हालांकि यह एक प्रासंगिक और जरूरी पहल थी, लेकिन हम जानते थे कि जब तक इसे स्थानीय संदर्भ में नहीं ढाला जाएगा, तब तक इसका असर बेहद सीमित रहेगा।
फंडर द्वारा तैयार की गई प्रशिक्षण सामग्री में टेस्ला गाड़ियों और एआई-आधारित ट्रैफिक सर्वेलेंस सिस्टम जैसे उदाहरण दिए गए थे। लेकिन ये उदाहरण उन ग्रामीण समुदायों के जीवन से काफी कटे हुए थे, जहां हम काम करते हैं। इसलिए हमने ऐसे उदाहरण चुने, जो लोगों के रोजमर्रा के जीवन से जुड़े हों। जैसे यूट्यूब कैसे वीडियो सजेस्ट करता है, उन्हें अपने मोबाइल पर कुछ विशेष विज्ञापन क्यों दिखते हैं या डिजिटल असिस्टेंट वॉइस कमांड पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं आदि।
हमने ऐसे एआई टूल्स का चयन किया, जो स्थानीय समुदायों के लिए सुलभ और परिचित थे। हमने ऐसे किसी भी प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल नहीं किया, जिसमें अंग्रेजी लिखनी हो या जटिल इंटरफेस से जूझना पड़े। इसके बजाय हमने चैट-जीपीटी, जैमिनाई और मेटा-एआई जैसे टूल इस्तेमाल किए, जो हिंदी भाषा में भी चलते हैं और वॉइस कमांड से काम कर सकते हैं। खासतौर से मेटा-एआई पर विशेष जोर दिया गया, क्योंकि यह व्हॉट्सएप से ही जुड़ा हुआ है, जिसे कई ग्रामीण पहले से ही इस्तेमाल करते हैं। इससे उन्हें कोई नया एप्प डाउनलोड करने या अलग इंटरफेस सीखने की जरूरत नहीं पड़ी।
इस पहल के जरिए एडु-लीडर्स ने करीब 10,000 लोगों को एआई के उपयोग का प्रशिक्षण दिया, जिनमें से लगभग 7,000 लोग आज भी इन टूल्स का नियमित रूप से इस्तेमाल कर रहे हैं। प्रशिक्षण के दौरान व्यवहारिक उपयोग पर खास ध्यान दिया गया। जैसे वॉइस प्रॉम्प्ट (निर्देश) देकर बिना “हेलुसिनेशन”, यानी काल्पनिक जानकारी के सही और प्रासंगिक जवाब किस तरह हासिल किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, कोई अभिभावक जो ट्यूशन का खर्च नहीं उठा सकता, एआई से यह पूछ सकता है: “मैं बिहार के गया जिले में रहने वाला एक अभिभावक हूं। मैं अपने सात साल के बच्चे को दो का पहाड़ा कैसे सिखाऊं?” जगह की जानकारी देने से एआई ज्यादा प्रासंगिक और स्थानीय संदर्भ से जुड़ा हुआ जवाब देता है।
प्रशिक्षण में प्रतिभागियों को कई तरह के प्रॉम्प्ट के बारे में जानकारी दी गयी, जैसे सरकारी कार्यालयों के लिए आवेदन पत्र तैयार करना, सरकारी योजनाओं की जानकारी लेना आदि। जैसे-जैसे समुदाय के लोग इन टूल्स को अपनाने लगे, वे स्वयं अपने सवाल भी तैयार करने लगे। उदाहरण के लिए, सरकारी चिट्ठी का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद करना, नई रेसिपी खोजना या अपने बच्चों के स्कूल के लिए छुट्टी की अर्जी लिखना।
हमारे लिए यह समझना जरूरी था कि डिजिटल प्रशिक्षण में हर व्यक्ति की सहजता का स्तर अलग होता है। फीडबैक के दौरान यह बात और पुख्ता रूप से सामने आई। उदाहरण के लिए, शुरुआत में कोर्स की रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया में ओटीपी आधारित लॉगिन की जरूरत थी, जो कई लोगों के लिए चिंता का कारण था। ओटीपी से जुड़े तमाम फर्जीवाड़ों के डर से वह इस प्रक्रिया में असहज महसूस कर रहे थे। इसके बाद हमने बदलाव करते हुए ईमेल आधारित लॉगिन को अपनाया। यह अधिक सुरक्षित था और इसे स्मार्टफोन पर आसानी से किया जा सकता था।
वहीं कुछ प्रतिभागी ऐसे भी थे, जिनके पास स्मार्टफोन नहीं थे। ऐसे लोगों को कोर्स में शामिल रखने के लिए एडु-लीडर्स ने अपने ही डिवाइस के माध्यम से उन्हें प्रशिक्षण दिया या एक डिवाइस के साझा उपयोग का विकल्प भी खुला रखा। उत्साहजनक बात यह है कि कुछ प्रतिभागियों ने इसके बाद खुद स्मार्टफोन खरीदे, ताकि वे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में एआई का लाभ उठा सकें।
अंकिता सिंह आई-सक्षम में एक प्रोग्राम मेंटर के रूप में कार्यरत हैं। इस संस्था का उद्देश्य सामुदायिक विकास प्रयासों के माध्यम से युवा महिलाओं की ‘वॉइस एंड चॉइस’, यानी ‘आवाज और पसंद’ को सशक्त बनाना है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
–
अधिक जानें: राजस्थान की ग्रामीण लड़की यूट्यूब का क्या करेगी?
अधिक करें: अंकिता के काम के बारे में अधिक जानने और सहयोग करने के लिए उनसे [email protected] पर संपर्क करें।
लगभग डेढ़ महीने पहले, 22 अप्रैल, 2025 को पहलगाम की बैसरन घाटी में पर्यटकों पर आतंकी हमला हुआ जिसमें 26 लोगों की दुखद मौत हुई। घटना के बाद, इलाके में बहुत अशांति देखी गई। यहां कुछ आतंकी बताए जा रहे लोगों के घरों को गिरा दिया गया और बहुतों को हिरासत में भी ले लिया गया। इसके बाद कश्मीर के 87 में से 48 पर्यटन स्थलों पर जाना भी प्रतिबंधित कर दिया गया। इससे इलाके की स्थानीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है, जो ज्यादातर पर्यटन पर ही निर्भर है। हमले के बाद के हफ्तों में होटल बुकिंग और उड़ानें भी बड़ी संख्या में रद्द होने लगी हैं और बहुत से पर्यटक यहां से जा चुके हैं।
ऐसे में कोई और विकल्प न होने के चलते, कई होटलों को अपने कर्मचारियों को काम से निकालना पड़ रहा है। इनमें से ज्यादातर कश्मीर के छोटे शहरों से आने वाले प्रवासी हैं। श्रीनगर में एक होटल के मालिक, शौक़त अहमद बताते हैं कि हमले के बाद से कोई बुकिंग नहीं हुई है और सभी 26 कमरे खाली हैं। बुकिंग कैंसल होने पर उन्होंने लोगों के पैसे भी लौटा दिए हैं। इसके चलते, वह अब अपने 15 में से केवल तीन कर्मचारियों को ही रख पाने में समर्थ हैं। शौकत को लगभग 10 लाख रुपये का घाटा हुआ है। अभी उनके पास आय का कोई जरिया नहीं है और खर्चे लगातार जारी हैं।
इरफ़ान लोन, जो बारामूला जिले के पलहालन गांव से आने वाले प्रवासी श्रमिक हैं और श्रीनगर के ज़ाकुरा होटल में बतौर हाउसकीपर काम करते थे, हमले के कुछ समय बाद अपनी नौकरी गंवा बैठे। वह कहते हैं, “मैं बहुत असहाय महसूस करता हूं।” खानयार, श्रीनगर के एक होटल में वेटर की नौकरी करने वाले इम्तियाज़ आह बताते हैं कैसे उन्हें नौकरी छोड़ने के लिए कहा गया क्योंकि इलाके में पर्यटकों का आना कम हो गया है। अपने परिवार का एकमात्र कमाऊ सदस्य होने के चलते इम्तियाज़ इस मुश्किल समय में उनका भरण-पोषण करने में दिक्कतों का सामना कर रहे हैं।
लेकिन यह परेशानी सिर्फ होटल कर्मचारियों तक सीमित नहीं है।
सोनमर्ग के मोहम्मद आरिफ़ पर्यटकों के लिए घुड़सवारी की सुविधा मुहैया करवाते हैं। वे कहते हैं कि “मैं पर्यटकों को घोड़े पर बैठाकर घास के मैदानों में घुमाने का काम करता हूं। इससे मुझे रोजाना लगभग दो हजार रुपए की कमाई होती है। लेकिन फिलहाल मेरे पास कोई काम नहीं है और मैं घर पर बैठा हूं।”
श्रीनगर में मुगल गार्डन की तरफ जाने वाली बुलवार्ड रोड पर रेहड़ी लगाने वाले शाहनवाज़, जो डल झील के किनारे ग्राहकों का इंतजार कर रहे थे, बताते हैं कि, “मैं यहां बीते 10 सालों फलूदा आइस-क्रीम बेच रहा हूं, लेकिन मैंने पहले कभी ऐसा मंजर नहीं देखा है। पहले मैं लगभग 3000 रुपए रोज कमाता था। अब मैं केवल 500 रुपए ही कमा पाता हूं। इतने में बच्चों की स्कूल और ट्यूशन की फीस दे पाना और घर के बाकी खर्च चला पाना मुश्किल हो रहा है। मेरे परिवार में छह सदस्य हैं। मैं इन 500 रुपयों में क्या ही कर सकता हूं?” वे आगे कहते हैं कि, “मैं पर्यटकों से कहना चाहता हूं कि वे कश्मीर आएं और यहां घूमें, क्योंकि यह एक सुरक्षित और खूबसूरत जगह है। लेकिन फिर सोचता हूं कि मेरी बात का कितना ही असर हो पायेगा।”
एक हाउसबोट के मालिक, शबीर आह हमले के असर पर बात करते हैं। वह भारत और यहां तक कि विदेश से आने वाले मेहमानों द्वारा रद्द की जाने वाली बुकिंग का जिक्र करते हैं। उन्होंने बताया कि इससे इलाके के शिकारा और हाउसबोट मालिक अनिश्चितता का सामना कर रहे हैं। वह कहते हैं कि, “हम पूरी तरह पर्यटन पर ही निर्भर हैं।”
पहलगाम में हुए हमले ने कश्मीर के अनगिनत लोगों और परिवारों की आजीविका को प्रभावित किया है। यह इलाका अब भी इसके असर से जूझ रहा है। ऐसे में, सामान्य हालात की बहाली और पर्यटन को फिर से शुरू किया जाना बहुत जरूरी है।
इल्हाक अहमद तांत्रे और उमर फ़ारूक़ जरगर, स्वतंत्र पत्रकार हैं और श्रीनगर, जम्मू और कश्मीर में रहते हैं।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
—
अधिक जानें: जानें, कश्मीर में जलाऊ-लकड़ी की बदलती तस्वीर।
अधिक करें: लेखक के काम के बारे में जानने और उन्हें सहयोग देने के लिए उनसे [email protected] और [email protected] पर संपर्क करें।
जो लोग अपने संगठन का अस्तित्व बनाये रखने के लिए बमुश्किल संसाधन जुटा पा रहे हैं, उन्हें इस लेख का शीर्षक किसी संपन्न और धनाढ्य फाउंडेशन का दिखावा लग सकता है। लेकिन यह सच नहीं है। नवसर्जन ट्रस्ट, दलित शक्ति केंद्र और दलित फाउंडेशन का संस्थापक होने के नाते मैं पूरे यकीन से कह सकता हूं कि जब से भारत सरकार ने एफसीआरए पंजीकरण में बदलाव किए हैं, तब से हमारी फंडिंग का पूरा जिम्मा ‘हमसे और हमारे लिए’ के ढर्रे पर आ गया है। एफसीआरए की बंदिशों ने जहां कुछ संगठनों को बंद होने पर मजबूर किया है, वहीं कुछ ‘विश्वसनीय’ माने गए संस्थानों को अपार संसाधन भी दिलाए हैं। इस बदलाव ने मुझे यह एहसास कराया है कि न्याय की लड़ाई में हाशिए पर रहने वाले समुदायों को अब अपने संघर्ष की पूंजी खुद जुटानी होगी।
कई अन्य एक्टिविस्टों की तरह मेरी कहानी भी अपने निजी अनुभवों से जन्मी है। दलितों ने सदियों तक जो हिंसा और अपमान सहा है, उसे एक छोटे लेख में समेटना संभव नहीं है। वर्ष 1986 मेरे लिए एक निर्णायक मोड़ था। उस साल तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने निर्ममता से मेरे चार दलित ग्रामीण साथियों की हत्या कर दी थी। इस क्रूरता की वजह केवल इतनी थी कि दलितों ने एक कृषि सहकारी संस्था के माध्यम से संगठित होने का साहस किया था। इस सहकारी संस्था ने सवर्ण जमींदारों पर दबाव बनाया था कि वे उनकी मजदूरी को एक रुपये से बढ़ाकर सात रुपये प्रतिदिन करें। यह संस्था दलितों के लिए उस उत्पीड़न के खिलाफ खड़े होने का एक मंच बन गई थी, जिसका वे सामना करते आए थे। हमने इसी सहकारिता से ताकत बटोरी और एकजुट होकर दोषियों को न्याय के कटघरे तक पहुंचाया।
मैं यह कहानी इसलिए साझा कर रहा हूं ताकि फिलन्थ्रॉपी से जुड़े लोग यह समझ सकें कि गरिमा और न्याय के लिए संघर्ष कोई क्षणिक प्रयास नहीं, बल्कि एक आजीवन संकल्प है। इसकी शुरुआत होती है विश्वास से। सबसे पहले, मुझे अपने मूल्यों और अपने आप पर भरोसा करना जरूरी है। फिर समुदाय को भी मुझ पर भरोसा होना चाहिए। अन्यथा, एक संस्था के प्रमुख के रूप में मुझसे जुड़ी हुई धनराशि विनाशकारी भी साबित हो सकती है। सबसे जरूरी है एक सामूहिक विश्वास, जो इस सोच को जन्म देता है कि साझा प्रयासों और एकता से हम बदलाव की एक प्रभावशाली ताकत बन सकते हैं। यही विश्वास एक ऐसा मजबूत बंधन बनाता है, जिसे फिलन्थ्रॉपी के नित बदलते चलन डिगा नहीं सकते। जब समुदाय में यह भरोसा होता है कि हम सामूहिक रूप से अपनी आवाज उठा सकते हैं, तभी उन्हें यह अहसास भी होता है कि केवल अपने काम, पहल और नेतृत्व से ही गुलामी से मुक्त हो पाना मुमकिन है।
यही वह स्वायत्तता (एजेंसी) है जिसे अक्सर ऐसे संस्थान हासिल नहीं कर पाते, जिनकी सामाजिक परिवर्तन को लेकर प्रतिबद्धता केवल सतही होती है। वे न तो समुदाय पर भरोसा करते हैं और न ही यह स्वीकार करते हैं कि असली ज्ञान लोगों से ही मिलता है। उनके पास संसाधन हो सकते हैं, लेकिन जब तक समुदाय उनपर विश्वास नहीं करता, तब तक उनकी वैधता केवल दिखावटी होती है। इसके उलट, ऐसी संस्थाओं को वे लोग जरूर विश्वसनीय मानते हैं जो व्यवस्था की जड़ें हिलाने के बजाय सिर्फ सतह पर ही सुधार दिखाना चाहते हैं। ये संस्थाएं इस भय से ग्रस्त रहती हैं कि कहीं उन्हें राज्य या सत्ताधारी दलों के विरुद्ध न समझा जाए। अनुकूल छवि बनाए रखने की होड़ में वे अपने संसाधनों का उपयोग एकजुटता की जगह चैरिटी, यानी दान पर केंद्रित करती हैं। वे जवाबदेही, पारदर्शिता और प्रभावशीलता जैसे ‘मूल्य’ तो अपनाती हैं, लेकिन करुणा, गरिमा और सत्य जैसे मूल्यों को पीछे छोड़ देती हैं। कुछ खोने का डर, चाहे वह सरकारी मान्यता हो या आर्थिक सहायता, नैतिक रूप से हानिकारक होता है। फिलन्थ्रॉपी भय के माहौल में फल-फूल नहीं सकती, विशेषकर तब जब उसका उद्देश्य ही लोगों को भयमुक्त और सशक्त बनाना हो।
बहुत लोगों के लिए यह मानना मुश्किल हो सकता है, लेकिन मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से यह पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि बिना पैसों के भी हम बहुत सारा और ज्यादा चुनौतीपूर्ण काम पूरा कर पाए हैं। यह बात नई नहीं है कि पैसे अक्सर अपने साथ नियंत्रण और कई शर्तें लाता है। यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारी प्राथमिकताओं को भी बदलने का माद्दा रखता है, जिससे हमारा ध्यान भटक सकता है। इसके उलट, पिछले चार महीनों में नवसर्जन को हमारे समुदाय से 16 लाख रुपये का योगदान प्राप्त हुआ है। यह उन तमाम कोशिशों के खिलाफ एक प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया है, जिसे समुदाय और हमारे सहयोगी राज्य द्वारा दलित चेतना को व्यवस्थित रूप से समाप्त करने की एक सोची-समझी योजना के रूप में देख रहे हैं। संसाधनों का यह जुटान विश्वास, एकजुटता और प्रतिरोध का प्रतीक है। यह सामाजिक न्याय पर आधारित फिलन्थ्रॉपी है, जो किसी भी जन आंदोलन की मजबूती के लिए अनिवार्य तत्व है।
सामाजिक न्याय एक ऐसे परिप्रेक्ष्य में काम करता है, जहां राज्य, फंडिंग संस्थाएं, संगठन, समुदाय और व्यक्तिगत कार्यकर्ता व एक्टिविस्ट जैसे कई हितधारकों के बीच शक्ति असमान रूप से बंटी होती है। यह तभी फल-फूल सकता है जब हम केवल पैसों की बजाय विश्वास और करुणा जैसे अडिग मूल्यों के आधार पर आगे बढ़ें। हमें नहीं भूलना चाहिए कि जिन धनाढ्य और समृद्ध लोगों के पास अत्यधिक संसाधन हैं, उन्होंने अक्सर समस्याओं को हल करने की जगह उन्हें बढ़ाया ही है। जैसा कि गांधी ने कहा था, ‘ये दुनिया सबकी जरूरतों के लिए तो काफी है, लेकिन एक भी इंसान के लालच के लिए नाकाफी है।’
जब हमने अपनी सामर्थ्य पर विश्वास करना शुरू किया, तो हमें एकजुटता और करुणा का अनुभव हुआ, जो कि गरिमा के मूल स्तंभ हैं। मैं यह अनुभव उन सभी के साथ एकजुटता और आशा की भावना के साथ साझा कर रहा हूं, जो मानवाधिकार और सामाजिक न्याय के कार्यों के लिए तेजी से सिमटते आर्थिक संसाधनों के बीच रास्ता तलाशने की कोशिश कर रहे हैं।
जब हम खुद को देखेंगे और अपने ऊपर भरोसा रखेंगे, तो हमें यह साफ दिखाई देगा कि दुनिया को बदलने के लिए हम काफी हैं। यही हमारी असली ताकत है।
यह लेख मूल रूप से अलायंस पर प्रकाशित हुआ था, जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं।
–
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में घरेलू कामगारों के शोषण को लेकर सख्त चिंता जताई है। घरेलू कामगार महिलाओं पर कोई केंद्रीय डेटा उपलब्ध नहीं है। लेकिन नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि देश में घरेलू कामगारों की आबादी में महिलाओं की संख्या कहीं अधिक है। इनमें से बहुतों के लिए यौन उत्पीड़न की घटना उनकी रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा है। सामाजिक संरचना में भी इन महिलाओं को ‘कामगार’ की पहचान नहीं दी जाती, बल्कि घरेलू कामों को उनका दायित्व माना जाता है। घरों में साफ-सफाई से लेकर खाना बनाने जैसे कई कामों की जिम्मेदारी निभाने वाली कामगारों के साथ होने वाली हिंसा जब तक कोई चरम रूप नहीं ले लेती है, तब तक उसे केवल उनकी दिनचर्या की सामान्य घटना मानकर दरकिनार कर दिया जाता है।
अमूमन घरेलू कामगार महिलायें सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए पर होती हैं। इसलिए जब भी उनके साथ काम के दौरान यौन उत्पीड़न की कोई भी घटना होती है, तो उनके मन में यह संशय रहता है कि उसका दोष उन पर ही मढ़ा जाएगा। उन्हें अपने नियोक्ता (एम्प्लॉयर) और समाज द्वारा झूठा करार दिए जाने, चरित्र पर उठने वाले सवालों और नौकरी खोने जैसी तमाम परेशानियां झेलनी पड़ती हैं, जो उन्हें यौन उत्पीड़न की शिकायत करने से रोकती हैं।
अधिकांश बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों से काम की तलाश में दिल्ली-एनसीआर का रूख करने वाली इन महिलाओं के पास कोई आर्थिक या मानसिक समर्थन नहीं होता, जो उन्हें भावनात्मक सहारा दे सके। प्रवासी होने के कारण इनके पास सामाजिक पूंजी का भी अभाव होता है, जिससे वे घर, कार्यस्थल और पूरे संस्थागत ढांचे में सबसे आखिरी पायदान पर होती हैं।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि जब घरेलू कामगार महिलायें अपने कार्यस्थल, यानी दूसरों के घरों में, हिंसा या यौन उत्पीड़न का सामना करती हैं, तो क्या उनके पास अपनी आवाज उठाने और न्याय मांगने के पर्याप्त साधन मौजूद होते हैं? उन्हें कौन सी सामाजिक, कानूनी और संस्थागत बाधाओं से गुजरना पड़ता है?
अगर हम अपने मौजूदा श्रम कानून पर नजर डालें, तो इसे चार कोड में विभाजित किया गया है। लेकिन इनमें से किसी भी श्रेणी के अंतर्गत असंगठित कामगारों की सामाजिक सुरक्षा की बात नहीं की जाती है। उदाहरण के लिए, घरेलू कामगार महिलाओं के लिए अभी भी कानूनी रूप से न्यूनतम वेतन का कोई प्रावधान नहीं है, जिसके कारण वे सालों तक वेतन में नगण्य या बिना किसी बढ़ोतरी के काम करती रहती हैं। ऐसे में उनकी काम पर इतनी अधिक आर्थिक निर्भरता होती है, कि वो अपने साथ होने वाले यौन उत्पीड़न पर कुछ कहने की स्थिति में ही नहीं होती।
पॉश अधिनियम की धारा 6(1) के अंतर्गत घरेलू कामगार महिलाओं की शिकायतों के निवारण के लिए जिला पदाधिकारी द्वारा हर जिले में लोकल कमिटी का गठन किया जाना आवश्यक है
भारत में कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013, जिसे पॉश (पीओएसएच) अधिनियम के रूप में भी जाना जाता है, घरेलू महिला कामगारों के लिए कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की शिकायत करने और न्याय प्राप्त करने का एकमात्र कानूनी साधन है। मुख्य रूप से औपचारिक क्षेत्र को संबोधित करने वाला यह कानून कॉर्पोरेट या संगठित संस्थानों में कार्यरत महिलाओं के लिए मददगार साबित होता है, जहां आंतरिक शिकायत समिति (इंटरनल कंप्लेंट कमिटी) मौजूद होती है।
लेकिन जब यह कानून असंगठित क्षेत्र, विशेषकर घरेलू कामगार महिलाओं पर लागू होता है, तो इसमें कई व्यावहारिक कठिनाइयां सामने आती हैं। चूंकि यह एक सिविल कानून है, इसलिए घरेलू कामगार महिलाओं को अपनी शिकायतें स्थानीय समिति (लोकल कमिटी) के पास दर्ज करानी होती हैं। उनके लिए आंतरिक समिति (आईसी) का प्रावधान नहीं होता, क्योंकि आईसी केवल ऐसे कार्यस्थलों के लिए गठित होती है जहां दस या उससे अधिक कर्मचारी कार्यरत हों। घरेलू कामगारों सहित सभी अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों को यौन उत्पीड़न से संबंधित शिकायतें स्थानीय समिति (एलसी) में ही दर्ज करानी होती हैं।
पॉश अधिनियम की धारा 6(1) के अंतर्गत घरेलू कामगार महिलाओं की शिकायतों के निवारण के लिए जिला पदाधिकारी द्वारा हर जिले में लोकल कमिटी का गठन किया जाना आवश्यक है, ताकि वे आसानी से यौन उत्पीड़न की शिकायत पुलिस में दर्ज करा सकें। इसके अलावा यदि नियोक्ता के खिलाफ सीधी शिकायत हो, तो उसे भी इस समिति में दर्ज कराया जा सकता है।
पॉश कानून के अंतर्गत घरेलू कामगार महिलाओं को स्थानीय समितियों में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज करने का अधिकार दिया गया है। स्थानीय समिति यदि किसी शिकायत में पहली नजर (प्राइमा फेसी) में साक्ष्य पाती है, तो उसे उस शिकायत को सात दिनों के भीतर पुलिस को सौंपना होता है, जिसके बाद मामला आपराधिक प्रक्रिया के तहत आगे बढ़ता है।
हालांकि, पॉश अधिनियम में शिकायतकर्ता के लिए बहुत से अन्य प्रावधान भी मौजूद हैं। उदाहरण के लिए, तीन महीनों के भीतर शिकायत का निपटारा, अंतरिम राहत, ‘वर्क-फ्रॉम-होम’ की सुविधा आदि, जो स्पष्ट रूप से एक घरेलू महिला कामगार पर लागू नहीं हो सकते, क्योंकि उनका काम ही दूसरों के घरों में होता है। इन पहलुओं को देखें तो सवाल उठता है कि इस कानून को बनाते समय घरेलू महिला कामगारों को ध्यान में रखा भी गया था या नहीं? यह एक प्रमुख कारण है कि असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाली बहुत सी महिला कामगार अभी भी यौन उत्पीड़न के मामले में समयबद्ध न्याय, सर्वाइवर-आधारित कानूनों और अंतरिम राहत जैसी बातों से कोसों दूर हैं।
कानून बनाना और उसे अमली जामा पहनाना दो अलग बातें हैं, जिनमें बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है:
इन चुनौतियों ने हमारे अंदर यह समझ पैदा की कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से जुड़ी पूरी शिकायत प्रणाली को न केवल अधिक सुलभ बनाना होगा, बल्कि उसमें कामगारों की गरिमा और गोपनीयता का भी विशेष ध्यान रखना होगा। इसके लिए सामाजिक स्तर पर कुछ कदम उठाए जा सकते हैं:
1. जागरूकता की जरूरत: इस लंबी प्रक्रिया में जागरूकता की अहम भूमिका है, जिसके प्रसार के लिए हमने निम्नलिखित में से कुछ उपाय अपनाए हैं:
2. सामुदायिक नेतृत्व की प्रासंगिकता: घरेलू कामगार महिलाओं के लिए बदलाव की असली शुरुआत तब होती है, जब वे खुद अपनी समस्याओं को पहचान कर, समाधान सोचने और उस पर कार्रवाई करने में सक्षम हो पाती हैं। इसी सिलसिले में सामुदायिक नेतृत्व और उससे जुड़ी चुनौतियों की भूमिका को समझना जरूरी हो जाता है:
3. प्रशासनिक चुनौतियां: देश के विभिन्न राज्यों और जिलों में हुए संवादों के दौरान घरेलू कामगार महिलाओं ने अपनी जमीनी हकीकत के आधार पर पॉश कानून की समीक्षा की है। इस कड़ी में उन्होंने न केवल इसकी व्यावहारिक चुनौतियों की पहचान की है, बल्कि जमीनी स्तर पर इसके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए कुछ ठोस सुझाव भी सामने रखे हैं। यदि जिला प्रशासन, स्थानीय समितियां और पुलिस विभाग समन्वय के साथ अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करें, तो पॉश कानून का प्रभाव और अधिक व्यापक और असरदार तरीके से जमीनी स्तर तक पहुंच सकता है। इसके लिए कुछ बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है:
देश में बड़ी संख्या में घरेलू कामगार महिलायें कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न का शिकार होती हैं, लेकिन ऐसे अधिकतर मामले सामने नहीं आ पाते हैं। इस मुद्दे पर कानूनी साक्षरता और सामाजिक जागरूकता, दोनों की समान जरूरत है। इनके बिना न तो प्रशासनिक सुधार संभव हैं और न ही सामुदायिक एकजुटता।
—
1. महीनों से टलती हुई फील्ड ट्रिप जब भीषण गर्मी के मौसम में तय हो जाए और जाना जरूरी हो।
2. फील्ड ट्रिप पर निकल तो आए हों लेकिन सनस्क्रीन लगाना भूल जाएं।
3. जैसे-तैसे फील्ड पर पहुंचे तो हों पर समुदाय से कोई दरवाजा खोलने को राजी ना दिखे।
4. जब बहुत कोशिशों के बाद कोई दरवाजा खोलकर आपकी बात सुनने को राजी हो।
5. दोपहर भर खाक छानने के बाद जब घर जाने की बारी हो!
6. गांव के बाहर चाय की टपरी दिखे और आप राहत की सांस लें।
हाल के वर्षों में भारत में स्थानीय उद्यमिता को लेकर लोगों की सोच में तेजी से परिवर्तन आया है। आज सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) क्षेत्र भारत की जीडीपी में 30 प्रतिशत से अधिक का योगदान देता है। हिंदी पट्टी के दर्शकों के बीच शार्क टैंक इंडिया जैसे कार्यक्रमों की लोकप्रियता दिखाती है कि अब व्यवसायिक विचारों को मुख्यधारा में स्थान मिल रहा है। गांवों और छोटे कस्बों के लोग भी अब नए अवसरों की तलाश में हैं और अपने पारंपरिक एवं गैर-पारंपरिक कौशल को व्यावसायिक रूप देने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। ‘मेक इन इंडिया‘ और ‘स्किल इंडिया’ जैसी पहलें भी इस दिशा में सरकार की सकारात्मक मंशा दिखाती हैं। लेकिन, सवाल यह है कि क्या वाकई हमारे छोटे शहरों और गांवों से आने वाले उद्यमी भी उतनी तेजी से आगे बढ़ पा रहे हैं, जितना उद्यमिता को लेकर बनते सकारात्मक वातावरण को देखकर लगता है।
उत्तर प्रदेश के देवरिया की पूनम देवी, कपूर उद्योग चलाती हैं। वे रोजाना 40 किलो कपूर का उत्पादन कर रही हैं जबकि मांग 70 किलो से अधिक की है। उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्हें नई मशीन लगानी होगी और इसके लिए 10 लाख रुपए का निवेश और करना होगा। पूनम कहती हैं कि वे लंबे समय से प्रयास कर रही हैं लेकिन कर्ज से जुड़ी कागजी जटिलताओं ने उनका रास्ता रोक रखा है। एक और उदाहरण, देवरिया की ही अमृता तिवारी का है। अमृता कपड़े की कतरनों से पोटली, टोट बैग, साड़ी जैसे उत्पाद बनाती हैं। लेकिन मार्केटिंग और सरकारी प्रक्रियाओं की जानकारी न होने के चलते ऑनलाइन बिक्री शुरू नहीं कर पा रही हैं। अमृता बताती हैं कि वे इंटरनेट से व्यावसायिक बारीकियां सीखने की कोशिश करती हैं लेकिन अलग-अलग स्रोतों पर अलग-अलग बातें सुनकर और भ्रमित हो जाती हैं। उनकी कई मुश्किलों में एक यह भी है कि ऑनलाइन प्लेटफार्म पर उत्पाद रजिस्टर करने के लिए आर्टिजन कॉर्ड होना जरूरी है, लेकिन ये कहां बनता है, इसकी जानकारी उनके पास नहीं है।
इन दो उद्यमियों की कहानी आपको यह अंदाजा देने भर के लिए काफी है कि भारत के कई छोटे शहरों और गांवों में उद्यमियों की क्या स्थिति है। ऐसा होना एक तरफ जहां स्थानीय उपभोक्ताओं को महंगे और बाहरी उत्पाद खरीदने पर मजबूर करता है। वहीं, दूसरी ओर स्थानीय रोजगार और कौशल के खत्म होने और इससे जुड़े लोगों के पलायन जैसी तमाम मुश्किलें पैदा करता है।
स्थानीय उद्यमिता को बढ़ावा देने की दिशा में हम कहां पिछड़ रहे हैं? क्या हम सभी उद्यमों को एक ही चश्मे से देख रहे हैं, या फिर हमें अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है?
स्थानीय उद्यमिता को सही दिशा में आगे बढ़ाने के लिए सबसे पहले समझना जरूरी है कि आखिर ये उद्यम होते क्या हैं और किन क्षेत्रों में इनका अधिक विकास संभव है। स्थानीय स्तर पर होने वाले उद्यम ज्यादातर बार कृषि और उससे जुड़े व्यवसायों से संबंधित होते हैं। ये उद्यम स्थानीय जरूरतों को पूरा करते हैं। उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल क्षेत्र, जहां मैं काम करती हूं, इसका एक उदाहरण है। यहां धान, गेहूं, गन्ना और दलहन उत्पादन से लेकर खाद्य प्रसंस्करण, कोल्ड स्टोरेज, जैविक खेती और हस्तशिल्प से जुड़े तमाम उद्यम प्रमुखता से दिखते हैं।
कुछ और उदाहरण देखें तो हथकरघा उद्योग, मूंझ से चीजों का निर्माण, पारंपरिक कपड़ा उद्योग और बांस से बनी वस्तुओं का व्यापार भी अब बढ़ने लगा है। इसके अलावा, उद्यमों में धीरे-धीरे तकनीक का भी समावेश हो रहा है। जैसे कि ‘ड्रोन दीदी’ नाम की एक पहल के तहत महिलाएं ड्रोन के जरिए खेतों में कीटनाशक छिड़काव का काम कर रही हैं।
ग्रामीण, छोटे शहरों के और महानगरीय उद्यमों के बीच कई बुनियादी अंतर होते हैं। उदाहरण के लिए, ग्रामीण और छोटे शहरी क्षेत्रों में स्टार्ट-अप्स को बुनियादी ढांचे की कमी, प्रौद्योगिकी तक सीमित पहुंच और प्रमुख बाजारों से दूरी जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसके विपरीत, महानगरों में स्टार्ट-अप्स को तीव्र प्रतिस्पर्धा और उच्च व्यापार लागत जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है।
भारतीय युवा शक्ति ट्रस्ट (बीवायएसटी) द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि भारत के 12 राज्यों में करीब 13,000 ग्रामीण और अर्ध-शहरी उद्यमियों में से 60% डिजिटल पेमेंट को अपनाते हैं, लेकिन केवल 26% ही ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स का लाभ उठा पाते हैं। इससे पता चलता है कि तकनीक को अपनाने में अभी भी बड़ा अंतर है। उद्यमियों को बिजनेस टैक्स भरने, जीएसटी फाइल करने और अन्य सरकारी प्रक्रियाओं को समझने में कठिनाई होती है। इसके चलते वे अक्सर अपने व्यवसाय के आधिकारिक विस्तार में पीछे रह जाते हैं। बैंकों और वित्तीय संस्थानों से ऋण प्राप्त करने में भी स्थानीय उद्यमियों को दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। प्रोपराइटरशिप, पार्टनरशिप और प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों के बीच का अंतर न समझ पाने की वजह से वे सही तरीके से अपने व्यापार का पंजीकरण भी नहीं कर पाते हैं।
स्थानीय उद्यमों को बड़े बाजारों तक पहुंच बनाने में दिक्कत होती है। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के मंत्रालय (एमएसएमई) की 2022-23 की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2020 की शुरुआत में आई कोविड-19 महामारी के प्रसार ने इस क्षेत्र के लिए और कई कठिनाइयां उत्पन्न कर दीं हैं। उनके उत्पादों की मार्केटिंग और ब्रांडिंग पर व्यक्तिगत ध्यान दिया जाता रहा है, जिससे कोविड-19 के समय वे बाजार के साथ सतत संबंध बनाए रखने में कठिनाई महसूस करने लगे। इसके विपरीत, महानगरीय ब्रांड्स ने तकनीकी साधनों का उपयोग करके अपने बाजार संबंधों को मजबूत बनाए रखा। इन्होंने तकनीकी बदलाव, उपभोक्ता मांगों में परिवर्तन, नए बाजारों के उभरने जैसी चुनौतियों का सामना करने के लिए खुद को तैयार रखा।
स्थानीय उद्यमी अक्सर बड़े ऑर्डर लेने से अपने हाथ खींचते हैं जिससे वे अपने काम को पूर्ण क्षमता पर ले जाने और आगे बढ़ाने में पीछे रह जाते हैं। कुछ समय पहले, हमारे साथ काम करने वाले एक उद्यमी द्वारा काले गेंहू के एक बड़े ऑर्डर को हासिल किए जाने और पूरा किए जाने में हम कामयाब रहे। लेकिन इसमें हमें उनके और वेंडर के बीच तकनीकी एवं दस्तावेजीकरण की मदद करनी पड़ी। वे एक बड़ा किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) चलाते हैं। इसलिए वे शायद बड़े स्तर पर उत्पाद को इकट्ठा करने में और जागृति के तकनीकी सहयोग से इस मांग पूरा करने में सक्षम हुए। लेकिन कई उद्यमी ऐसे भी हैं जो बड़े ऑर्डर को इसलिए भी पूरा नहीं कर पाते क्योंकि उनके पास आवश्यक वित्तीय सहयोग के ऑप्शन नहीं होते हैं।
निवेशकों के लिए किसी भी व्यवसाय में निवेश का मुख्य उद्देश्य मुनाफा कमाना होता है। वहीं, छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों से उभरने वाले स्टार्ट-अप्स अक्सर स्थानीय मांग, सीमित संसाधनों और बुनियादी ढांचे की समस्याओं से प्रभावित होते हैं। इससे उनका विकास धीमा हो सकता है। निवेशकों को यह संदेह रहता है कि क्या ये व्यवसाय लंबे समय तक टिक पाएंगे? ऐसे में उद्यमियों के पास भारी ब्याज वाले ऋण या सरकारी योजनाओं जैसे परंपरागत विकल्प ही रह जाते हैं।
छोटे उद्यमियों के लिए सरकारी योजनाओं का लाभ उठाना कई बार जटिल प्रक्रियाओं और पेचीदगियों के कारण कठिन हो जाता है। पूर्वांचल के उद्यमी साहसी और मेहनती है लेकिन छोटे-छोटे उद्योग जैसे डेयरी फार्म, बुटीक जैसे काम करने की इच्छा करने वाले लोग प्रोजेक्ट रिपोर्ट, तकनीकी दस्तावेज की लंबी सूची और बार-बार की भागदौड़ से हतोत्साहित हो रहे हैं।
प्रधानमंत्री मुद्रा योजना (पीएमएमवाय), प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम (पीएमईजीपी), एवं कई राज्य स्थानीय उद्यमों के प्रोत्साहन हेतु योजनाएं चलाते हैं लेकिन कई मामलों में ऋण का अंतिम फैसला करना बैंकों पर होता है। हाल ही में, प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम लाया गया है जो कि क्रेडिट-लिंक्ड सब्सिडी योजना है। यह बेरोजगार युवाओं तथा पारंपरिक कारीगरों को स्वरोजगार के अवसर प्रदान करने के लिए है। लेकिन, इन योजनाओं के तहत नए स्टार्ट-अप की जरूरतें कम ही पूरी हो पाती हैं। हमारे अनुभवों में ज्यादातर मामलों में बैंकों की उदासीनता, भ्रष्टाचार और असहयोग वाला रवैया सामने आता है।
अगर हमें स्थानीय उद्यमिता को सशक्त बनाना है तो हमें निम्नलिखित रणनीतियां अपनानी होंगी—
आज के समय में डिजिटल तकनीक व्यवसाय की सफलता में अहम भूमिका निभाती हैं। छोटे उद्यमियों के लिए डिजिटल भुगतान, सोशल मीडिया मार्केटिंग और ई-कॉमर्स प्लेटफार्मों (एमेजॉन, फ्लिकपकार्ट, उड़ान, मीशो) पर कारोबार करना सीखना बेहद जरूरी हो गया है। सरकार और निजी संगठनों को मिलकर डिजिटल प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने चाहिए। इनमें ऑनलाइन विज्ञापन, एसईओ, डिजिटल लेन-देन और ग्राहक प्रबंधन जैसे विषय शामिल हों। इससे छोटे व्यापारियों को अपने उत्पादों को न केवल स्थानीय बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों तक पहुंचाने का अवसर भी मिले सकेगा।
ग्रामीण और छोटे उद्यमियों के लिए पूंजी की उपलब्धता सबसे बड़ी चुनौती होती है। कई बार बड़े बैंकों की सख्त शर्तों और लंबी प्रक्रियाओं के कारण छोटे उद्यमी वित्तीय सहायता से वंचित रह जाते हैं। स्थानीय उद्यमियों को सस्ती ब्याज दर पर ऋण, उद्यम पूंजी और कार्यशील पूंजी तक सहज पहुंच मिलनी चाहिए। इसके लिए सहकारी बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को प्रशिक्षण देकर उनकी कार्यशैली को उद्यमी के लिए सहज बनाया जा सकता है। इसके अलावा, ‘इंपैक्ट इन्वेस्टमेंट’ या सीएसआर निवेश को भी इन उद्यमों की ओर मोड़ने की रणनीति विकसित की जा सकती है।
स्थानीय उत्पादों की पहचान और उनकी मार्केटिंग को मजबूत करने के लिए क्षेत्रीय ब्रांडिंग एक कारगर रणनीति हो सकती है। उदाहरण के लिए, ‘मेड इन गांव’, ‘देसी हैंडमेड’, या ‘इको-फ्रेंडली प्रोडक्ट्स’ जैसी टैगलाइन का उपयोग किया जा सकता है। इससे ग्राहकों का स्थानीय उत्पादों पर भरोसा बढ़ेगा, और उद्यमियों को अपने ब्रांड की अलग पहचान बनाने में सहायता मिल सकेगी। सरकार और निजी कंपनियों को भी इस दिशा में सहायता करनी चाहिए ताकि इन उत्पादों को सही बाजार मिल सके।
हर जिले में ‘स्थानीय इनक्यूबेशन सेंटर’ की जरूरत है, जो न केवल नए विचारों को व्यवसाय में बदलने में मदद करें, बल्कि उत्पाद की पैकेजिंग, ब्रांडिंग, तकनीकी सहायता, दस्तावेजीकरण और बाजार से जोड़ने जैसे कार्यों में भी सहायता दें। जागृति का अनुभव रहा है कि जब सही मार्गदर्शन और नेटवर्किंग मिलती है तो ग्रामीण उद्यम भी स्थाई और लाभकारी बनते हैं।
अक्सर महिलाओं के पास कौशल होते हुए भी शहर से बाहर जाकर काम करना उनके लिए मुश्किल होता है। इसलिए उनके लिए उपयुक्त अवसर पैदा करने के लिये विशेष योजनाएं बनाई जानी चाहिए। हमारे इलाके में ‘ड्रोन दीदी’ जैसी योजनाएं महिलाओं को तकनीकी और वित्तीय रूप से सक्षम बना रही हैं। इसी तरह, हस्तशिल्प, जैविक उत्पाद, फूड प्रोसेसिंग, और सिलाई-कढ़ाई जैसे व्यवसायों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता दी जा सकती है। इसके अलावा, महिलाओं के नेतृत्व वाले स्टार्ट-अप्स को विशेष अनुदान और सब्सिडी उपलब्ध कराई जानी चाहिए।
छोटे उद्यमों की सफलता के लिए सिर्फ योजनाएं पर्याप्त नहीं हैं बल्कि अनुकूल वातावरण तैयार करना जरूरी है। सरकारी प्रक्रियाओं को सरल बनाकर, स्थानीय स्तर पर सूचना केंद्र स्थापित कर और उद्यमिता को करियर विकल्प के रूप में प्रोत्साहित कर इसे संभव बनाया जा सकता है।
साथ ही, अगर हम वास्तव में स्थानीय उद्यमिता को बढ़ावा देना चाहते हैं तो यह मान लेना कि सभी उद्यम एक ही तरह के होते हैं, एक बड़ी भूल होगी। हमें एकीकृत दृष्टिकोण अपनाने की बजाय, प्रत्येक क्षेत्र की आवश्यकताओं के अनुसार अलग-अलग रणनीतियां बनानी होंगी। तभी हम ‘लोकल को ग्लोबल’ बनाने के अपने सपने को साकार कर सकेंगे।
—
भारत का संविधान केवल एक कानूनी दस्तावेज नहीं है, जो ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों को ‘कानून के समक्ष समानता’ की गारंटी देता है। घुमंतू और विमुक्त जनजातियों (एनटी-डीएनटी) के लिए, जिन्हें औपनिवेशिक काल से ही व्यवस्थागत उपेक्षा और पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ा है और जिनके मुद्दे लगातार हाशिए पर धकेले गए हैं, संविधान स्वतंत्रता और गरिमा का भी संरक्षक है।
मैं स्वयं घिसाडी गाडिया लोहार समुदाय से हूं, जो एक विमुक्त जनजाति है। हमारे लिए संविधान में निहित मूल्य हमारी पहचान का मूल आधार हैं—चाहे वह स्वतंत्रता संग्राम में हमारी भागीदारी हो, अभिव्यक्ति की आजादी का तरीका या हमारा जीवन जीने का स्वाभाविक ढंग। महाराष्ट्र में, जहां मैं रहती हूं, संविधान को ‘घटना’ कहा जाता है। हमारे समुदाय में एक प्रचलित कहावत है—“आमचे पण हक्क घटना”—अर्थात संविधान हमारा अधिकार है।
गैर-लाभकारी संस्था अनुभूति, जिसकी स्थापना 2016 में हुई थी, में हम यह प्रयास कर रहे हैं कि संविधान की भाषा को एनटी-डीएनटी समुदायों के लिए सुलभ बनाया जा सके। हमारी यह पहल इस विश्वास पर आधारित है कि जब ये समुदाय संविधान की भाषा और भावना को समझते हैं, तो वे यह जान पाते हैं कि संविधान पहले से ही उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा है; कि उनका ज्ञान संविधान के विभिन्न पहलुओं में गहराई से समाहित है और शिक्षा, भूमि, आवास, स्वास्थ्य, या भेदभाव से संरक्षण जैसे अधिकार उनके लिए भी समान रूप से लागू होते हैं।
हमने पिछले एक दशक से अधिक समय से ग्रामीण, अर्ध-शहरी और शहरी क्षेत्रों में बहुजन समुदायों के साथ मिलकर काम किया है। इस दौरान हमने यह सीखा है कि संविधान साक्षरता के कार्यक्रमों को वास्तव में लोकतांत्रिक बनाने के लिए संस्थाओं को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। यहां हम अपनी कुछ महत्वपूर्ण सीख साझा कर रहे हैं।
भारत में ज्ञान का उत्पादन और प्रसार प्रमुख रूप से एकपक्षीय प्रक्रिया है, जिसे अंग्रेजी में ‘टॉप-डाउन प्रोसेस’ भी कहा जाता है। इसका अर्थ है कि कोई चीज प्रभुत्वशाली वर्ग के माध्यम से धरातल तक पहुंचती है। केवल उन्हीं वर्गों के ज्ञान को वैध और विश्वसनीय माना जाता है, जो समाज के उच्च वर्गों और उच्च जातियों से संबंध रखते हैं। हालांकि जमीनी स्तर पर भी अनुभवों से उपजा समृद्ध ज्ञान मौजूद होता है, जो समुदायों के जीवित अनुभवों में निहित है। लेकिन इस ज्ञान को मुख्यधारा के विमर्श में जगह दिलाने के लिए कोई प्रभावी माध्यम मौजूद नहीं है।
महाराष्ट्र में, जहां मैं रहती हूं, संविधान को ‘घटना’ कहा जाता है। हमारे समुदाय में एक प्रचलित कहावत है—“आमचे पण हक्क घटना”—अर्थात संविधान हमारा अधिकार है।
संविधान की व्याख्या और विवरण के लिए प्रयुक्त भाषा भी वर्चस्वशाली पक्ष के नियंत्रण में होती है, जिससे यह आम लोगों की पहुंच से बाहर हो जाती है। अमूमन केवल ऐसी ही आवाजों को ही विश्वसनीय माना जाता है।
‘अनुभूति’ में हम इस ‘टॉप-डाउन’ और मुख्यधारा की भाषा को सरल बनाने का प्रयास करते हैं, ताकि सभी समुदाय संविधान को समझ सकें। हम एनटी-डीएनटी समुदायों के लोगों के लिए संवैधानिक मूल्यों पर कार्यशालाएं आयोजित करते हैं। शुरुआत में लोग खुलकर भाग नहीं लेते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह एक जटिल विषय होगा। लेकिन जैसे ही हम कहानियों, खेलों और वास्तविक जीवन के उदाहरणों के माध्यम से परिचय करते हैं, लोग अपने आप हमारे साथ शामिल होने लगते हैं। उन्हें यह एहसास होता है कि संविधान से जुड़ना केवल अनुच्छेदों या कानूनों को रटने का विषय नहीं है, बल्कि यह इस बात को समझने का माध्यम है कि हम गरिमा के साथ कैसे जीते हैं।
चर्चा के दौरान प्रतिभागियों को यह भी समझ में आता है कि संविधान में दर्ज मौलिक कर्तव्यों को वे लंबे समय से अपने जीवन में निभाते आ रहे हैं— भले ही सामाजिक विमर्श में इन्हें महज प्रतीकात्मक, अमूर्त (ऐबस्ट्रैक्ट) या गौण माना जाता हो।
इसी तरह आज जहां समाज में जाति, धर्म और संस्कृति के आधार पर भेदभाव लगातार बढ़ रहा है, वहीं घुमंतू समुदायों के भीतर इस तरह का भेदभाव उतना कठोर नजर नहीं आता। जब समुदाय के सदस्य इन बातों को समझने लगते हैं और संवैधानिक ज्ञान को अपने जीवन से जोड़ते हैं, तो वे यथास्थिति पर सवाल भी उठाने लगते हैं। अमूमन इन समुदायों की युवतियां मुझसे पूछती हैं, “हमारी कला को कला क्यों नहीं माना जाता?” यह सवाल अपने आप में बेहद लोकतांत्रिक है। यह उनके ज्ञान, अभिव्यक्ति और जीवनशैली को आम सांस्कृतिक परिभाषाओं से बहिष्कृत रखे जाने की धारणा को चुनौती देता है।
इतिहास में हाशिए पर रखे गए समुदाय केवल मुख्यधारा के ज्ञान तंत्रों से बाहर नहीं रहे हैं। अक्सर उनसे यह भी उम्मीद की जाती है कि वे खुद ही इस खाई को पाटें। किसी भी चीज तक पहुंचने और उसे समझने की पूरी जिम्मेदारी हर बार उन्हीं लोगों पर लाद दी जाती है, जो पहले से ही वंचित हैं। वे उन व्यवस्थाओं तक पहुंचने के लिए संघर्ष करते रहते हैं, जो कभी उनके लिए बनी ही नहीं थीं। इस निरंतर बहिष्कार से उनके भीतर हीनता और अपराधबोध की भावना घर कर लेती है।
जब इन समुदायों से स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान के बारे में पूछा जाता है, तो बहुत से लोग जवाब देने में हिचकिचाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें अपने पूर्वजों की भूमिका पर संदेह रहता है।
इसका मूल कारण यह है कि इन समुदायों के इतिहास को कभी भी स्वतंत्रता आंदोलन की स्वीकृत धारा का हिस्सा नहीं माना गया। क्या यह बात कभी व्यापक रूप से स्वीकार की गई कि भारत के लगभग 200 आदिवासी समुदायों को ब्रिटिश शासन ने केवल इस आशंका में जेलों में डाल दिया था कि वे विद्रोह कर सकते हैं? अपनी अनोखी कला, संस्कृति, भाषा और जीवनशैली के चलते वे न केवल दृढ़ और गतिशील थे, बल्कि अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देने में भी सक्षम थे।
फिर भी विमुक्त और घुमंतू समुदायों को लेकर चर्चा प्रायः केवल इस बात पर रुक जाती है कि उन्हें “अपराधी” घोषित कर दिया गया था। शायद ही कभी इस तथ्य पर विचार किया जाता है कि ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ महज एक प्रशासनिक निर्णय नहीं था। यह वास्तव में एक राजनीतिक रणनीति थी, जिसका उद्देश्य उन समुदायों का दमन था, जिनकी स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका थी। ये वही समुदाय हैं, जिन्होंने भीड़ की हिंसा, शोषण और प्रशासनिक अत्याचार के सबसे पुराने और व्यापक दंश को झेला है।
यह हमारे देश का ही इतिहास है। हम इसे सामने लाते हैं, ताकि ये समुदाय अपना आत्मविश्वास फिर से हासिल कर सकें।
संविधान संबंधी ज्ञान को केवल शब्दावलियों और परिभाषाओं तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। इसके बजाय समुदाय के व्यवहारिक और अनुभव-आधारित ज्ञान को केंद्र में लाना जरूरी है। यह एक-दो दिन की गोष्ठियों से कहीं आगे की बात है।
उदाहरण के तौर पर, देवदासी प्रथा से गुजरी एक महिला अब 70 अन्य महिलाओं को इकट्ठा कर कहती हैं, “हम अपनी बेटियों को इस प्रथा के लिए समर्पित नहीं करेंगी। हम उन्हें भगवान के हवाले नहीं करेंगे।” यह अनुभव-आधारित ज्ञान है। जब ऐसी गहन समझ आदिवासी और अन्य समुदायों में जमीनी स्तर पर पहले से मौजूद है, तो हमारा काम केवल उन्हें एक-दूसरे से जोड़ना और यह दिखाना है कि समुदाय अपने ज्ञान का सबसे अच्छा इस्तेमाल कैसे कर सकता है।
हम जिन बस्तियों के साथ काम करते हैं, उनमें से एक में लोगों को अपने घर से उजाड़े जाने का खतरा था। कुछ लोग उनकी बस्ती को गिराना चाहते थे और हर रात घरों में पत्थर फेंक कर उन्हें डराने की कोशिश करते थे। डर और तनाव लगातार बढ़ रहा था। हमारे एक शुरुआती सत्र में हमने इसी घटना से जुड़ा एक सवाल उठाया था: यदि कोई आप पर पत्थर फेंके, तो क्या आप भी जवाब में पत्थर फेंकेंगे या संवैधानिक रास्ता अपनाएंगे? उस समय 90 प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने कहा था कि वे भी पत्थर से जवाब देंगे।
लेकिन जब उन्हें संविधान द्वारा हासिल अधिकारों की जानकारी मिली तो समुदाय ने एक अलग रास्ता चुना। वे पुलिस स्टेशन गए, आवेदन दर्ज किया, लगातार प्रयासरत रहे और समुदाय के नेताओं से संपर्क किया। इससे पूरा मामला बिना किसी हिंसा के शांति से निबट गया। यह सब तब हुआ, जब वे सीधे हमलों का सामना कर रहे थे। ऐसा इसलिए, क्योंकि अब संविधान उनके लिए केवल एक किताब नहीं, बल्कि जीने का तरीका बन चुका था।
आदिवासी समुदाय का संविधान के बारे में ज्ञान शहरी या सवर्ण व्याख्याओं से अलग हो सकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। हम उनके इसी ज्ञान को पहचानते हैं, उससे सीखते हैं और फिर उसे संविधान से जोड़कर चर्चा को समृद्ध बनाने की कोशिश करते हैं।
अगर कोई संगठन जमीनी स्तर पर संवैधानिक साक्षरता पर काम कर रहा है, तो उसका नेतृत्व उसी समुदाय के लोगों के हाथ में होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर, हमारे समुदाय जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। फिर भी, इस मुद्दे पर हमारे समुदायों के लिए जागरूकता और क्षमता-विकास के कार्यक्रम अक्सर बाहरी लोगों द्वारा संचालित किए जाते हैं।
ऐसे कार्यक्रमों को संचालित करने वाले आमतौर पर यह मानकर चलते हैं कि गांव के लोग ‘स्वतंत्रता’, ‘समानता’ या ‘संवैधानिक अधिकारों’ जैसे शब्दों को समझ नहीं सकते। लेकिन महाराष्ट्र में ‘स्वतंत्रता’ और ‘भाईचारा’ जैसे शब्दों का गहरा भावनात्मक अर्थ है, जो अकादमिक परिभाषाओं से कोसों दूर है।
इन समुदायों के कई कार्यकर्ता या फील्डवर्कर, जो दशकों से जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं, मानते हैं कि उनके पास पर्याप्त ज्ञान नहीं है या वे बौद्धिक रूप से कुछ योगदान नहीं दे सकते हैं। उनके मन में यह बात बिठा दी गई है कि उनका योगदान केवल श्रम तक सीमित है और उन्हें केवल मोबिलाइजेशन करना चाहिए, न कि विचार या समझ पैदा करने से जुड़े कामों में शामिल होना चाहिए। जबकि असल में संविधान के लोकतांत्रिक सिद्धांतों में उनका ही ज्ञान निहित है, जो कहानियों, लोकगीतों, दिनचर्या, आपसी बातचीत और सामुदायिक जीवन के माध्यम से प्रकट होता है।
आदिवासी समुदाय का संविधान के बारे में ज्ञान शहरी या सवर्ण व्याख्याओं से अलग हो सकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है।
कोविड-19 महामारी के दौरान जब ‘अनुभूति’ राहत कार्य में लगी हुई थी, तब हर घर जाकर राशन पहुंचाना संभव नहीं था। तब हमने लगभग 250 सामुदायिक लीडर्स से संपर्क कर नेतृत्व का एक साझा सेतु बनाया। ये लीडर घुमंतू, अनुसूचित जाति और दलित समुदायों से थे। उनके प्रयासों से हम प्रत्येक समुदाय तक 2–3 लाख रुपए के संसाधन पहुंचा सके। लेकिन फिर भी हमारे फंडिंग संस्थानों ने हमसे पूछा, “क्या गारंटी है कि यह राशन सही लोगों तक पहुंचेगा?”
बाद में हमें पता चला कि इन लीडर्स ने पूरी रणनीति के साथ काम किया था। उदाहरण के लिए, अगर किसी जगह केवल 100 किट मौजूद थी और वहां 200 से अधिक लोग थे, तो उन्होंने जरूरतमंदों की प्राथमिकता सूची बनाई, जिसमें गर्भवती महिलाएं, अकेली माताएं, विकलांग व्यक्ति और बुजुर्ग शामिल थे।
यहीं से मैंने भी सीखा कि असल मायनों में संविधान में वर्णित सामाजिक न्याय, अंतःसंबद्धता (इंटर-सेक्शनेलिटी) और नारीवाद के क्या मायने हैं। इन समुदायों के लीडर्स ने भले ही विश्वविद्यालयों से ये सिद्धांत नहीं पढ़े हैं, लेकिन फिर भी ये उनके दैनिक कामों का एक अहम हिस्सा हैं।
इसलिए जो संगठन संवैधानिक साक्षरता पर काम करते हैं, उन्हें समुदाय में केवल ‘ज्ञान देने’ की मंशा से नहीं जाना चाहिए। यह प्रक्रिया साझेदारी पर आधारित होनी चाहिए। ‘अनुभूति’ में हम हमेशा इस बात का ध्यान रखते हैं कि समुदायों को किसी बैनर तले न खड़ा किया जाए, क्योंकि जमीनी स्तर पर उनकी अपनी पहचान बेहद सशक्त होती है।
संवैधानिक साक्षरता कोई एकतरफा प्रक्रिया नहीं है। यह जमीनी स्तर पर मौजूद समुदायों के ज्ञान को सुनने, उससे सीखने, उसकी महत्ता को स्वीकारने, और उन अधिकारों तक उनकी पहुंच सुनिश्चित करने की एक पहल है, जिनसे वे लंबे समय से वंचित रहे है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
__
दिल्ली के निजामुद्दीन क्षेत्र की गलियों में काम कर रहे आगाज थियेटर ट्रस्ट ने कम्युनिटी लीडरशिप की अलग ही परिभाषा गढ़ी है। ऐसी लीडरशिप, जो समुदाय के भीतर से आती है, रोज की जिंदगी से जुड़ी है और जिसे लोग अपना मानते हैं।
नगीना, नगमा और जैस्मिन जैसे कई नाम इस बात का उदाहरण हैं कि जब कोई लीडर समुदाय से आता है, तो वो न सिर्फ समस्याओं को बेहतर समझता है, बल्कि उसके समाधान भी जमीनी और भरोसेमंद होते हैं। ये लीडर्स बताती हैं कि नेतृत्व सिर्फ नीतियों से नहीं, अनुभव और जुड़ाव से बनता है।
यह वीडियो कहानी इस विचार को सामने लाती है कि बाहर से आने वाला कोई विशेषज्ञ चाहे जितना सक्षम हो, वह उस समझ और भरोसे को नहीं पा सकता जो भीतर से आने वाले लीडर के पास होता है।
कम्युनिटी लीडरशिप का यह मॉडल हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम असल में लोगों को लीड करने का मौका दे रहे हैं, या बस उनके लिए फैसले ले रहे हैं?
यह एक झलक है उस नेतृत्व की, जो जड़ से जुड़ा है — और बदलाव की सबसे मजबूत नींव बन सकता है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
—