दीपशिखा समिति, सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक समूह है जो पिछले 32 सालों से विभिन्न विषयों पर काम करता आ रहा है। पिछले 15 वर्षों से, हमारा ट्रांसजेंडर काउंसलिंग का मुख्य सेंटर दिल्ली में है। यह वर्तमान में रोहिणी इलाके के बुद्धविहार में स्थित है। यहां हम ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों के स्वास्थ्य और उनके अधिकारों को लेकर काम करते हैं। स्वास्थ्य में हम, एचआईवी जैसे गंभीर मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाने का काम करते हैं जिसके लिए हम समय-समय पर अपने समुदाय की ऑनलाइन और ऑफलाइन, दोनों ही तरह की काउंसलिंग करते हैं। इसके अलावा हम दिल्ली राज्य एड्स नियंत्रण सोसाइटी के साथ भी मिलकर जागरूकता बढ़ाने का काम करते हैं।
वैसे तो, हर इलाके में घर या ऑफिस का एक निर्धारित किराया होता है। लेकिन ट्रांसजेंडर होने की वजह से हमें हर जगह किराये के रूप में अतिरिक्त पैसा चुकाना पड़ता है। मसलन, जिस जगह का किराया अन्य लोगों के लिए 15 हजार रुपये रहता है, उसके लिए हमें 20 से 25 हजार रुपये तक देने पड़ते हैं। जब हम किराया कम करने के लिए कहते हैं तो हमें कहीं और चले जाने के लिए कह दिया जाता है। इस वजह से हम वह किराया देने के लिए भी तैयार हो जाते हैं ताकि अपना काम सुचारु रूप से चला सकें।
हमारे काम में तब बाधा आती है जब हमें इतने साल काम करने के बावजूद बार-बार अपना सेंटर एक जगह से दूसरी जगह बदलना पड़ता है जैसे कभी मंगोलपुरी, कभी सुलतानपुरी तो कभी बुद्धविहार। इसके बावजूद, ऐसा लगभग 10-12 बार हो चुका है कि मकान मालिक ने हमें अपना सेंटर खाली करने के लिए कहा हो।
हम अपने ट्रांसजेंडर समुदाय से जुड़ी समस्याओं को लेकर सेंटर में काउंसलिंग करते हैं तो इस वजह से समुदाय के लोगों का नियमित तौर पर सेंटर में आना-जाना लगा रहता है। साथ ही, हम एचआईवी एड्स जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भी काम करते हैं। इसलिए हमारे पास कंडोम वग़ैरह की बहुत सारी पेटियां भी आती हैं जिसके बाद हम उनका वितरण करते हैं। यह सब देखकर भी कई बार आसपास के लोग हमें उस जगह से निकालने के लिए हमारे ऊपर वेश्यावृत्ति करने जैसे इल्जाम भी लगाते हैं। यही नहीं, जब हमारे सेंटर में ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग नियमित आते हैं तो भी लोगों को इससे समस्या हो जाती है कि इतने ट्रांसजेंडर क्यों आ रहे हैं। इन्हीं सब चीजों को बहाना बनाकर लोग मकान मालिक पर हमें निकालने के लिए दबाव बनाते हैं।
कई बार तो सेंटर के आसपास में रहने वाले लड़के, हमारे समुदाय के लोगों के साथ अपमानजनक व्यवहार तक करते हैं और उन्हें गलत नामों से पुकारते हैं। ये सब गतिविधियां ज्यादा बढ़ने से हमारे समुदाय के लोग भी उनका विरोध करते हैं और इन सबकी वजह से लड़कों के अभिभावक उलटा हमें दोष देते हैं। आख़िर में हमें ही जगह खाली करने के लिए कह दिया जाता है। वर्तमान में जहां हमारा सेंटर है, उसके लिए भी बड़ी मुश्किल से हमें वह जगह किराये पर मिली है।
इतना ही नहीं, जब हमें खुद को रहने के लिए कमरा लेना होता है तो उसमें भी हमें बहुत समस्या आती है। जिस कमरे का किराया पांच हजार रुपये होता है, उसे हमारे लिए बढ़ाकर आठ हजार से दस हजार तक कर दिया जाता है। हमारे समुदाय के सभी लोगों के लिए अधिक किराया देना संभव नहीं होता है। इन्हीं कई वजहों से परेशान होकर हमारे ट्रांसजेंडर समुदाय के कुछ युवा गलत गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं।
अभी भी लोगों के मन में हमारे प्रति ऐसी धारणाएं हैं कि अगर ट्रांसजेंडर हैं तो ये लोग या तो भीख मांगेंगे या फिर सेक्स वर्क करेंगे। अब हमें बाहर जाकर लोगों से एचआईवी जैसे गंभीर मुद्दों पर खुलकर बात करने से डर लगता है कि कहीं हमें इस सेंटर से भी बाहर न कर दिया जाए। लोगों को लगता है कि ये ट्रांसजेंडर हैं तो कुछ गलत ही करेंगे और इसका प्रभाव उनके परिवार पर भी पड़ेगा। हालांकि, हम आसपास के लोगों के साथ अच्छा रिश्ता बनाने के लिये उनके साथ बात करके उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं कि हम भी आपके समाज का हिस्सा हैं। लेकिन अब हमें भी कई बार लगता है कि जिन्होंने हमें जन्म दिया है, जब वे ही हमें स्वीकार नहीं कर पाते तो बाकी समुदाय का भरोसा जीतना अभी भी हमारे लिए लंबी लड़ाई है।
कमल शर्मा और मयूरी, दीपशिखा समिति के साथ पिछले कई वर्षों से जुड़े हैं।
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इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (आईआईएसईआर) ने जनवरी 2024 में एक रिपोर्ट जारी की थी। ये रिपोर्ट बताती है कि भारत में साल 1982 से 2020 के बीच शीत लहरों की संख्या 506% यानी पांच गुनी बढ़ गई है। अब भारत को लगभग हर साल ही भयंकर शीत लहरों का सामना करना पड़ता है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआईडीएम) की एक रिपोर्ट के अनुसार शीत लहर को आम भाषा में अत्यधिक ठंड और जिद्दी तापमान कहा सकता है। किसी इलाके में शीत लहर का असर तब माना जाता है जब मैदानी इलाकों में न्यूनतम तापमान 10 डिग्री सेल्सियस या उससे कम होता है। वहीं, पहाड़ी क्षेत्रों के लिए यह आंकड़ा 0 डिग्री सेल्सियस या उससे कम होता है।
भारत में शीत लहरें आमतौर पर नवंबर से फरवरी महीनों के बीच होती हैं। वहीं, जनवरी के महीने में यह अपने चरम पर होती है। इस दौरान 3-5 दिनों के लिए न्यूनतम तापमान चार डिग्री सेल्सियस या उससे भी नीचे गिर जाता है। भारत में शीत लहर से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले राज्य पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार और जम्मू और कश्मीर हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार शीत लहरें हमारे लिए तब ज़्यादा खतरनाक हो जाती हैं जब वे बेहद तीव्र हों और उनकी संख्या लगातार बढ़ती रहे।
आइये, इस वीडियो में जानते हैं कि शीत लहरें क्या हैं और यह लोगों के जीवन को किस तरह प्रभावित करती हैं?
इस वीडियो में इस्तेमाल किये गए चित्र सुगम ठाकुर द्वारा बनाए गए हैं।
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वैसे तो भारत में बहुत पुराने समय से पंचायतें अस्तित्व में रही हैं। लेकिन, 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1992 के साथ, पंचायती राज संस्थानों (पंचायती राज इंस्टीट्यूशन्स – पीआरआई) को 29 विषयों पर संवैधानिक अधिकार दिए गए थे। इनमें कृषि, भूमि सुधार, लघु सिंचाई, वाटरशेड विकास और पशुपालन शामिल थे। शासन के सबसे निचले स्तर या ग्राम पंचायतों को सत्ता के इस हस्तांतरण का उद्देश्य ग्रामीण समुदायों को सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास को लेकर काम करने के लिए सशक्त बनाना था।
भारत जैसे देश में, जहां अधिकांश ग्रामीण आबादी की मुख्य आजीविका आज भी खेती है। उसके लिए गांव की समृद्धि की खातिर खेती को व्यवहार्य और लंबे समय तक चलते रहने वाला बनाना ज़रूरी है। हालांकि, कृषि क्षेत्र को अपनी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जैसे भूजल स्तर में गिरावट, मिट्टी की खराब गुणवत्ता, जलवायु का लगातार बदलते रहना और घटती कृषि आय। कृषि को सुरक्षित करने के लिए सामूहिक और समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
कृषि व्यवहार्यता यानी खेती का फायदेमंद होना सबसे अधिक पानी पर निर्भर करता है। भूमिगत जल और सतह पर मौजूद पानी, दोनों सामूहिक संसाधन हैं और समुदाय की अल्पकालिक और दीर्घकालिक जरूरतों को पूरा करने के लिए योजना और कार्यान्वयन की आवश्यकता होती है। पानी की समस्या अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह की होती है। जल संकट के प्रकारों – बहुत अधिक बारिश, बहुत कम बारिश, गलत समय पर बारिश, सिंचाई के पानी की अनुपलब्धता, वग़ैरह – को देखते हुए स्थानीय सरकारें क्षेत्रीय जल चुनौती से निपटने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। चूंकि पानी एक स्थानीय संसाधन है, यह स्थानीय सरकारों का प्राकृतिक डोमेन है।
पिछले कई दशकों में, सरकारों के प्रयास इस पर केंद्रित रहे हैं कि ग्राम पंचायतों को शक्तियां सौंपी जाएं और उन्हें अधिक धन उपलब्ध कराया जाए। आज ग्राम पंचायतें, सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की प्लानिंग तैयार करने और उन्हें लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। उन्हें केंद्रीय वित्त आयोग (सेंट्रल फ़ायनेंस कमीशन – सीएफसी), राज्य वित्त आयोग (स्टेट फ़ायनेंस कमीशन – एसएफसी), और उनके स्वयं के राजस्व स्रोतों से धन मिलता है। इसके अलावा, ग्राम पंचायतों को मनरेगा जैसे प्रमुख सरकारी कार्यक्रमों को सीधे लागू करने का आदेश दिया गया है।
इन उपायों के बावजूद, ग्राम पंचायतों को खुद को मिले जनादेश को प्रभावी ढंग से पूरा करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। प्रत्येक ग्राम पंचायत को ग्राम सभाएं आयोजित करनी होती हैं जो समुदायों के लिए विकास योजना प्रक्रिया में भाग लेने और उनका योगदान देने का मंच है। हालांकि, इस प्रक्रिया को अक्सर निम्नलिखित चुनौतियों का सामना करना पड़ता है:
अक्सर ध्यान लंबे समय तक चलने वाले समाधानों की बजाय अल्पकालिक कार्रवाइयों पर केंद्रित किया जाता है। सही इरादों के साथ चलाए गए कई कार्यक्रम और योजनाएं अनगिनत ग्रामीण चुनौतियों का समाधान करती है जैसे – अस्थायी रोजगार पैदा करना और लंबे समय तक चलने वाला ऐसा बुनियादी ढांचा बनाना जो पानी की उपलब्धता सुनिश्चित कर, खेती को सुरक्षित बनाता है। हालांकि ये योजनाएं एक स्थाई संभावना तैयार करने से चूक जाती हैं। उदाहरण के लिए, जल संग्रहण के साधनों पर काम करना पानी से जुड़े प्रयासों में पहली वरीयता होनी चाहिए। नतीजतन, किसी कार्यक्रम के लिए आवंटित धन ख़त्म हो जाता है लेकिन समुदाय की समस्या फिर भी हल नहीं हो पाती है।
विकेंद्रीकरण के साथ, ग्राम पंचायतों की जिम्मेदारियां कई गुना बढ़ गई हैं। उदाहरण के लिए, प्रत्येक ग्राम पंचायत को शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि जैसे विभिन्न विषयों से संबंधित कार्यक्रमों को ज़मीन पर लाने का काम सौंपा गया है। हालांकि, उनके पास दिए गए सभी कामों और ज़िम्मेदारियों को कुशलतापूर्वक पूरा करने के लिए पर्याप्त और नियमित कर्मचारी नहीं होते हैं।
पंचायती राज संस्थानों के ज़मीनी पदाधिकारी तकनीक के बढ़ते उपयोग को समझने में सक्षम नहीं हैं। उदाहरण के लिए, मनरेगा के तहत, सभी संरक्षण प्रयासों और बुनियादी ढांचे को उचित रूप से (वॉटरशेड के भीतर) और जियोटैग किया जाना आवश्यक है, लेकिन अक्सर इसे अच्छी तरह से या सटीक रूप से लागू करने के लिए पंचायत स्तर पर कोई आईटी संसाधन उपलब्ध नहीं होता है। इस प्रकार, बनाया गया संरक्षण बुनियादी ढांचा या तो उस स्थान के लिए उपयुक्त नहीं है या उसकी पानी तक पहुंच नहीं है। कार्यक्रम कार्यान्वयन की बेहतर गुणवत्ता के लिए पंचायती राज संस्थानों के कार्यकर्ताओं में कौशल विकसित करना जरूरी है।
ग्राम सभाएं साल में दो बार आयोजित की जाती है। इससे सदस्यों के लिए मिलकर, गांव के स्तर पर एक सुगठित और प्राथमिकताओं को ध्यान में रखकर कार्ययोजना बनाना मुश्किल हो जाता है। हालांकि अब ग्राम सभाओं की संख्या बढ़ा दी गई है लेकिन बावजूद इसके, बैठकें फिर भी बहुत कमहोती हैं या उनमें सीमित प्रतिनिधित्व होता है जिससे कार्य योजना तैयार करना और उस पर फ़ैसले लेना मुश्किल हो जाता है।
छत्तीसगढ़ में ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया (टीआरआई) और हिंदुस्तान यूनिलीवर फाउंडेशन (एचयूएफ) साझेदारी पंचायतों को विभिन्न स्तरों पर सामूहिक कार्रवाई करने में सक्षम बनाती हैं। छत्तीसगढ़ के दक्षिणी पठार में मानसून के दौरान बहुत वर्षा होती है, लेकिन साल के अधिकांश समय, विशेषकर गर्मियों में, सूखे जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है। पंचायती राज मंत्रालय ने 17 सतत विकास लक्ष्यों को नौ विषयों में बांटा है जो ग्राम पंचायतों और समुदाय के लिए अधिक प्रासंगिक हैं। इनमें से एक विषय जल-सुलभ पंचायतें हैं जिनका लाभ उठाने की आवश्यकता है।
इस क्षेत्र में जल सुरक्षा काफी हद तक इस बात पर निर्भर है कि मानसून के दौरान पानी को कितने प्रभावी ढंग से संरक्षित किया जाता है और कृषि और अन्य मांगों के लिए इसका कितनी कुशलता से उपयोग किया जाता है। उपयुक्त मंचों और क्षमता निर्माण के साथ, ग्राम पंचायतें जल-संकट वाले क्षेत्रों में जल सुरक्षा का आधार बन सकती हैं।
स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) गरीबों और हाशिए पर रहने वाले लोगों सहित प्रत्येक ग्रामीण परिवार के लिए एक खुला और सहज माहौल प्रदान करते हैं। एसएचजी बैठकें नियमित अंतराल पर आयोजित की जाती हैं और महिलाओं की पानी से जुड़ी चिंताओं और समाधानों को उठाने और चर्चा करने के लिए एक मजबूत मंच प्रदान करती हैं। इसके अलावा, छत्तीसगढ़ में आधी ग्राम पंचायत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। यह देखते हुए कि महिलाएं पंचायत और एसएचजी दोनों का हिस्सा हैं। पंचायतों के पास पानी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर महिला समूहों के साथ सहयोग करने की संभावना बहुत अधिक है।
छत्तीसगढ़ में, कलेक्टिव्स ने 200 गांवों में पानी की जरूरतों और उपयोग का आकलन करने के लिए एक अभ्यास किया, जिसमें ग्राम पंचायतों के साथ समन्वय कर 9,000 से अधिक योजनाएं बनाई गईं। उन्होंने संस्थागत रूप से इन मांगों को ब्लॉक प्रशासन तक पहुंचाया है। वे इन योजनाओं की प्रगति की निगरानी के लिए ब्लॉक-स्तरीय समन्वय समितियों का भी हिस्सा हैं।
पंचायत प्रतिनिधि और पदाधिकारी पंचायतों के प्रावधानों, उनकी भूमिका और प्रशासनिक पहलुओं को जानते हैं, लेकिन उन्हें जल सुरक्षा, विशेष रूप से इसके टेक्निकल और टेक्नोलॉजिकल पहलुओं पर मदद की ज़रूरत होती है। उदाहरण के लिए, टीआरआई प्रतिनिधियों को इस बात का प्रशिक्षण देता है कि भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) तकनीक का उपयोग कैसे किया जाए ताकि उनके गांव में आने वाले बारिश के पानी की सारी स्थिति को समझा जा सके। फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को प्रक्रियाओं और तकनीकी पहलुओं से भी परिचित कराया जाता है, जिससे समावेशन, विविधता और उत्पादकता सुनिश्चित होती है।
मनरेगा यह सुनिश्चित करता है कि सबसे गरीब समुदाय के सदस्यों को एक वर्ष में कम से कम 100 दिन का रोजगार मिले।
दूसरी ओर, जहां समुदायों को विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों से लाभ होता है, ये कार्यक्रम अलग-अलग रूप में काम करते हैं। मनरेगा और एनआरएलएम जैसे कार्यक्रम एक ही समुदाय को लाभ पहुंचाते हैं, लेकिन समग्र समस्या के एक सीमित पहलू को देखते हैं। एनआरएलएम स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी), के माध्यम से काम करता है, और मनरेगा यह सुनिश्चित करता है कि सबसे गरीब समुदाय के सदस्यों को एक वर्ष में कम से कम 100 दिन का रोजगार मिले। चूंकि दोनों कार्यक्रमों के लिए लक्ष्य समुदाय एक ही है, इसलिए लंबे समय में एक एकीकृत दृष्टिकोण कहीं अधिक प्रभावशाली होगा।
स्थानीय लोगों को पहले से ही अपने भूगोल और इलाके का पारंपरिक ज्ञान है। इस जानकारी का लाभ उठाने के लिए, टीआरआई एसएचजी सदस्यों को जल सुरक्षा और उनके क्षेत्र के लिए उपयुक्त संभावित हस्तक्षेपों पर तकनीकी विवरण प्रदान करता है। एसएचजी सदस्यों, जो ग्राम सभा सदस्य भी हैं, को संस्थागत पहलुओं और समूह व्यवहार के बारे में समझाया जाता है। कार्यक्रम जल सुरक्षा मुद्दों और प्रौद्योगिकी के उपयोग पर महिला निर्वाचित प्रतिनिधियों की क्षमता-उनकी भूमिका, आवाज और एजेंसी-के निर्माण पर केंद्रित है।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रक्रिया आत्मनिर्भर है, समुदायों और पंचायतों की क्षमता और योग्यता का निर्माण महत्वपूर्ण है।
छत्तीसगढ़ में यह कार्यक्रम प्रमुख हितधारकों-स्वयं सहायता समूहों के ज़रिए प्रतिनिधित्व करने वाले समुदाय के सदस्यों; पंचायत सदस्य (निर्वाचित सदस्य); और स्थानीय पदाधिकारियों (ग्राम सचिव और अन्य विभाग के पदाधिकारियों) को ग्राम पंचायत समन्वय समिति (जीपीसीसी) स्थापित करके एक साझा मंच पर लाया गया। जीपीसीसी का उद्देश्य क्षेत्र की जल सुरक्षा में सुधार के लिए स्थानीय योजनाओं के विकास को सुविधाजनक बनाना है। इन योजनाओं को ग्राम पंचायत विकास योजना (जीपीडीपी) के हिस्से के रूप में शामिल और कार्यान्वित किया जाता है। इस प्रक्रिया को एसएचजी सदस्यों द्वारा बारीकी से समन्वित किया जाता है।
जीपीसीसी जैसा मंच विभिन्न स्तरों, यानी गांव, ब्लॉक और जिला पर चर्चा और प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करके पंचायतों को विकास के एजेंडे को संगठित तरीके से चलाने में मदद करता है। जीपीसीसी सरकार के विभिन्न विभागों – महिला एवं बाल, कृषि, मत्स्य पालन इत्यादि के साथ भी बातचीत करता है – जो उन्हें एक एकीकृत योजना के लिए योजनाओं को एकत्रित करने में सक्षम बनाता है।
इस तरह का प्रणालीगत दृष्टिकोण यह सुनिश्चित करता है कि दीर्घकालिक लाभों को प्राथमिकता दी जाए। इस प्रकार, योजनाएं स्थानीय आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व करती हैं और इसलिए, उन पर पूर्ण स्वामित्व ग्राम सभा के सदस्यों का होता है।
पंचायती राज संस्थानों को इस परिप्रेक्ष्य को विकसित करने में मदद करने से प्रमुख कार्यक्रमों और उनके लिए उपलब्ध धन के आवंटन के बीच एक सामान्य दृष्टिकोण की दिशा में विस्तार दे पाना संभव हो सकता है। जल संसाधनों के प्रभावी प्रबंधन के लिए, योजनाओं में आपूर्ति और संरक्षण प्रयासों के साथ-साथ मांग पक्ष के प्रयासों को भी ध्यान में रखना होगा। पंचायतों के माध्यम से सामूहिक योजना और कार्यान्वयन इसे सफलतापूर्वक करने में मदद कर सकता है।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
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हमने अपनी और विकास सेक्टर में काम करने वाले अपने साथियों की स्थिति पर बेहद गहन विचार-विमर्श किया। ऐसा करने पर हमें कुछ अधिकारों की जरूरत महसूस हुई जिनकी मांग हमने यहां रखी है। चूंकि ये अधिकार हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं और हमारी जिंदगी को आसान बना सकते हैं, इसलिए हमने इन्हें ‘सुविधानिक अधिकार’ नाम दिया है। ये कुछ इस प्रकार हैं:
हमारा इलाका राजस्थान के झुंझनू और सीकर जिले का सीमाई इलाका है। झुंझनू जिले की नवलगढ़ तहसील में गोठड़ा गांव पड़ता है जहां करीब दो साल पहले एक विशाल सीमेंट फैक्ट्री स्थापित की गई। सीकर जिले में पड़ने वाला मेरा गांव धर्मशाला बेरी वहां लगभग सात किलोमीटर दूर है। सीमेंट फैक्ट्री लगने से लगा था कि अब हमारे इलाके का विकास होगा और युवाओं को रोजगार मिलेगा। यह कुछ हद तक हुआ भी लेकिन इस विकास के साथ एक गंभीर समस्या ने भी जन्म लिया है – जल संकट। फैक्ट्री के आसपास 15 किलोमीटर के दायरे में स्थित गांवों के कुएं सूख गए हैं। मेरे गांव के अलावा खिरोड़, बसावा, झाझड़, बेरी जैसे कई गांव इस संकट का सामना कर रहे हैं। ऐसे में किसान और स्थानीय निवासी अपनी खेती और पीने के पानी को लेकर चिंतित हैं।
हमारे इलाके में चना, सरसों, गेहूं, बाजरा यानी हर तरह की उपज होती थी। हम रबी और खरीफ दोनों तरह की उपज ले पाते थे। लेकिन अब महज दो साल में यह दिखाई देने लगा है कि हमारी उपज कम होती जा रही है। फैक्ट्री में सीमेंट बनाने के लिए जो प्रक्रिया होती है, उसके लिए ज़मीन में बहुत गहरी खुदाई की जाती है। यह खुदाई हमारे भूमिगत जल भंडार को प्रभावित कर रही है। हमारे बुजुर्ग बताते हैं कि पहले 50-100 फीट पर पानी मिल जाता था, लेकिन अब 400 फीट पर भी नहीं मिल रहा है। सीमेंट फैक्ट्री का पानी खींचने वाला सिस्टम इतना ताकतवर है कि आस-पास का सारा जलस्तर नीचे चला गया है। अब जो पानी बचा भी है, वह फ्लोराइड से दूषित है। और, यह सब बहुत तेजी से हुआ है।
एक बेरोजगार युवा होने के चलते मैं खुद को इस मुद्दे से जोड़कर देख सकता हूं। पहले हमारे इलाके में ज़्यादातर लोग खेती पर ही निर्भर थे। ऐसे में फैक्ट्री लगने से नौकरी के अवसर दिखे थे लेकिन वहां पर भी ज़्यादातर काम मशीनों और कुशल श्रमिकों के लिए है। स्थानीय युवाओं के पास इन कुशलताओं की कमी है जिससे हमें सिर्फ साधारण नौकरियां ही मिल सकती हैं। वहीं, स्थानीय लोगों के लिए अब खेती में अलग तरह की परेशानियों का सामना कर रहे हैं क्योंकि पानी की कमी से खेतों में उनकी फसलें सूख रही हैं।
सीमेंट फैक्ट्री से रोजगार की उम्मीदें तो हैं लेकिन क्या यह उन खेतों की कीमत पर सही है जो पीढ़ियों से हमें जीवन दे रहे हैं? गांव के बुजुर्गों का कहना है कि अगर इसी तरह पानी की समस्या बढ़ती रही तो खेती तो जाएगी ही, लोगों को भी पलायन के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इस समस्या का हल क्या है? क्या फैक्ट्री के पानी के उपयोग पर नियंत्रण नहीं होना चाहिए? क्या सरकार जल संरक्षण के लिए कोई ठोस कदम उठाएगी?
मेरे जैसे बेरोजगार युवाओं के लिए यह सोचना जरूरी हो गया है कि रोजगार पाने के साथ-साथ हमारे गांव और खेती को बचाने के लिए हम क्या कर सकते हैं।
रामचंद्र स्वामी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं और अपने इलाके में युवा मंडल चलाते हैं।
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अधिक जानें: बिहार के बक्सर में भू जल कैसे दूषित हो रहा है पढ़िये इस लेख में।
अधिक करें: लेखक और उनके काम के बारे में अधिक जानने और उन्हें समर्थन करने के लिए उन्हें [email protected] पर संपर्क करें।
क्या आप जानते हैं कि हमारे संविधान में 1.4 लाख से अधिक शब्द हैं और यह दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है। क्या आपने कभी इसे पढ़ने और समझने पर विचार किया है? अगर आपका उत्तर हां है तो यह वीडियो आपको भारतीय संविधान की संरचना और सूची को समझने में मदद करेगा।
यह वीडियो मूल रूप से वी, द पीपल अभियान में प्रकाशित हुआ है।
कर्नाटक के बागेपल्ली गांव के शिवप्पा एक सीमांत किसान हैं जो तेजी से हो रहे जलवायु परिवर्तन के मुताबिक ढलने के लिए हर संभव कोशिश कर रहे हैं। कई पीढ़ियों से उनका परिवार आधे हेक्टेयर से भी कम जमीन पर खेती कर अपना भरण-पोषण करता रहा है। लेकिन अब मानसून का सही पूर्वानुमान लगा पाना मुश्किल होता जा रहा है, बारिश या तो बहुत देर से होती है या बहुत जल्दी हो जाती है। लंबे समय तक सूखे जैसे हालात के कारण कभी जमीन सूख जाती है और फिर बारिश आने के साथ बाढ़ आ जाती है। भूजल भी लगातार कम होता जा रहा है। इसके चलते उन्हें अपने कुओं को और गहरे खोदना पड़ा जिसका खर्च उठाने के लिए वे कर्ज लेने पर भी मजबूर हुए। कीट और बीमारियां भी फसलों को कमजोर कर देती हैं। हमेशा से आत्मनिर्भर रहा उनका परिवार अब आर्थिक संकटों और खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहा है।
शिवप्पा जैसे सीमांत किसान – जो एक हेक्टेयर से कम जमीन पर खेती करते हैं – भारत के कृषि क्षेत्र को सशक्त बनाते हैं और किसान समुदाय का लगभग 70% हिस्सा हैं। फिर भी, दस करोड़ लोगों का यह समुदाय आर्थिक और सामाजिक संकेतकों पर खराब प्रदर्शन कर रहा है और जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित है। बार-बार आने वाली लू (हीट वेव), सूखा, अनियमित बारिश और बाढ़ जैसी आपदाएं, प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र का संतुलन बिगाड़ती हैं और किसानों के लिए खेती करना दिन पर दिन अधिक चुनौतीपूर्ण बनाती हैं। इससे वे किसान सबसे अधिक प्रभावित होते हैं जिनके पास जमीन और अनुकूलन उपायों पर खर्चने के लिए धन कम है। असल में, जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले कई देशों के सरकारों के दल (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज-आईपीसीसी) ने पाया है कि भारत, खेती के लिहाज से जलवायु जोखिमों के मामले में पूरे एशिया में सबसे कमजोर स्थिति में है।
कई अध्ययन सुझाते हैं कि अनुकूलन उपायों के बगैर, प्रमुख फसलों की पैदावार में काफी गिरावट आ सकती है। इससे किसानों की आजीविका के साथ-साथ, देश की खाद्य सुरक्षा भी खतरे में पड़ सकती है। वैसे तो सरकार ने अनुकूलन प्रयासों के लिए एक बड़ी रकम – 2024 से 2030 के लिए 57 लाख करोड़ रुपये – तय की है। लेकिन पिछले कुछ सालों में जलवायु परिवर्तन के लिए नेशनल अडाप्टेशन फंड को दिया जाना वाला धन लगातार और तेजी से कम हुआ है। यह फंड स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर जलवायु से जुड़ी चुनौतियों से निपटने की परियोजनाओं को जारी रखने के लिए महत्वपूर्ण है। इसमें गिरावट कुछ इस तरह है कि साल 2015-16 में जो रकम 118 करोड़ रुपए थी, वह 2022-23 में घटकर लगभग 20 करोड़ रुपए रह गई है। देश के सामने आई इस भीषण अनुकूलन चुनौती से निपटने के लिए न केवल सरकारी मदद चाहिए बल्कि निजी वित्तीय प्रयास (फिलैन्थ्रपी और निवेश दोनों के जरिए) भी किए जाने की जरूरत है।
अनुकूलन के लिए जरूरी यह धन, कृषि समुदायों की आजीविका को मजबूत करने और जलवायु संकट से निपटने में सक्षम बनाने की दिशा में कैसे जा सकता है? यह समझने के लिए हमने हाल ही में, एचएसबीसी इंडिया के सहयोग से आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में लगभग 800 किसानों और 150 खेतिहर मजदूरों का सर्वेक्षण और गहन साक्षात्कार करने के साथ-साथ इलाके का दौरा कर एक अध्ययन किया है। इन राज्यों को एग्रोइकोलॉजिकल जोन्स, इलाके में उगाई जाने वाली फसलों और जलवायु से जुड़े खतरों के अलग-अलग संयोजन सुनिश्चित करने के लिए चुना गया था। अध्ययन में वंचित तबकों जैसे महिलाओं, दलित और आदिवासी समुदाय के सदस्यों पर ध्यान केंद्रित किया गया।
सर्वेक्षण में शामिल 98% किसानों का कहना था कि उन्होंने पिछले 10 सालों में जलवायु से जुड़े खतरों का अनुभव किया है। कई सीमांत किसान, परिवार के उपयोग के लिए फसल उपजाते हैं और बचा हुआ अनाज बेच देते हैं। हमने जिनसे बात की उनमें से 79% किसान सालाना 40,000 रुपये से कम कमाते हैं, जो लगभग चार लोगों के परिवार के लिए गरीबी रेखा के बराबर है। केवल 16% ही इतना कमाते हैं कि वे अपने घरेलू खर्चों को पूरा कर सकें और उनके पास बचत हो। सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वालों का एक बड़ा हिस्सा अन्य कामों जैसे जानवर पालने, पशु उत्पाद बेचने और कभी-कभी मिलने वाले श्रम कार्य से अपनी कमाई पूरी करते हैं। इस दौरान केवल 15% किसानों और 13% खेतिहर मजदूरों ने आय का कोई अन्य जरिया ना होने की बात कही है।
सर्वेक्षण के दौरान अपनी आय बहुत कम (40,000 रुपये या उससे कम) बताने वालों में आदिवासी और दलित समुदाय के लोग अधिक थे। आदिवासी और दलित समुदाय से आने वाले किसानों और श्रमिकों ने बताया कि उनके पास ग्राम पंचायत, किसान समूह, स्वयं सहायता समूह या सरकारी सहायता प्राप्त कार्यक्रम तक पहुंच जैसी कोई सहायता प्रणाली नहीं है। कम बचत और संपत्ति के साथ, ये किसान निर्वाह-स्तर की खपत पर निर्भर हैं और इनके सामने स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़े जोखिम भी अधिक होते हैं। जब जलवायु आपदाओं के चलते इनकी आजीविका छिन जाती है तो परिवार अक्सर भोजन में कटौती करते हैं, बच्चों (खासकर लड़कियों) को स्कूल से निकाल लेते हैं, उत्पादक परिसंपत्ति (सोना, घर, जमीन, बचत बॉन्ड वगैरह) बेच देते हैं, या ऐसे ही अन्य नकारात्मक समाधान अपनाते हैं।
उनके सामने आने वाली कठिनाइयों के बारे में विस्तार से पूछे जाने पर, सर्वेक्षण में हिस्सा लेने वालों ने जलवायु-संबंधी समस्याओं की पहचान की, जो सामाजिक-आर्थिक और प्रणालीगत चुनौतियों के साथ मिलकर, उनके लिए जोखिम और बढ़ा देती हैं। एक मुद्दा जिसका सबसे अधिक जिक्र किया गया वह कीटों और बीमारियों के बढ़ने का था, इसके बाद जल संकट दूसरे नंबर पर था। इसके अलावा मिट्टी की उर्वरता में कमी, मुश्किल से या ना मिल सकने वाले खेती के संसाधन और फसल की कम कीमतें भी प्रमुख मुद्दों में शामिल रहा। ज्यादातर लोगों का कहना था कि खेती से जुड़े उनके फैसलों जिनमें बीज की किस्में बदलना, काम के घंटे और खेती के तरीके बदलना शामिल है, सभी पर जलवायु परिवर्तन का असर पड़ा है।
सर्वेक्षण में शामिल किसानों के पास, पारंपरिक ज्ञान और स्थानीय संदर्भों की समझ है और वे यह भी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन से उनके खेती के तरीकों में बदलाव आ रहा है। लेकिन अनुकूलन की जरूरत कहां पर है, यह बात अच्छी तरह से जानने के बाद भी उनके जीवन को प्रभावित करने वाले फैसलों और समाधानों से उन्हें बाहर रखा जाता है। सीमांत किसानों के पास कम आर्थिक संपत्ति होती है जिस पर वे निर्भर हो सकें, और सामाजिक सहयोग हमेशा उन तक नहीं पहुंच पाता है। उदाहरण के लिए, अनेक किसानों के पास अपनी भूमि का स्वामित्व नहीं है लेकिन सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए जमीन का मालिकाना हक जरूरी है। यह किराए की जमीन पर खेती करने वाले किसानों, भूमिहीन खेत मजदूरों और उन सभी को अयोग्य घोषित करती हैं, जिनके पास अपनी जमीन नहीं है।
यह जरूरी है कि अनुकूलन में निवेश, स्थानीय समुदायों की समझ और प्राथमिकताओं के अनुसार हो, इस मामले में एक समाधान सभी के लिए कारगर नहीं हो सकता है। हमारे सर्वेक्षण के एक हिस्से के तौर पर, हमने समुदायों से जलवायु चुनौतियों से निपटने के संभावित समाधानों के बारे में बात की। उन्होंने यह कुछ सुझाव दिए हैं और हमारा मानना है कि अगर सरकार और निजी फंडर्स अपना निवेश बढ़ाते हैं तो यह उपयोगी साबित हो सकते हैं:
इनमें से कुछ समाधान पहले से ही देश के विभिन्न हिस्सों में समाजसेवी संगठनों द्वारा कार्यान्वित किए जा रहे हैं, लेकिन कई छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों तक पहुंचने के लिए इन्हें और बढ़ाया जा सकता है। समाजसेवी समुदाय (फिलैंथ्रॉपिस्ट) और इन्पैक्ट फर्स्ट निवेशकों द्वारा उत्प्रेरक निवेश, नवाचारों को बढ़ावा दे सकते हैं, सबूत तैयार कर सकते हैं, जोखिमों को कवर कर सकते हैं और अधिक लोगों को भाग लेने के लिए एक सक्षम पारिस्थितिकी तंत्र (इकोसिस्टम) का निर्माण कर सकते हैं। उनके सहयोगात्मक प्रयास, सरकारी योजनाओं और बैंकों द्वारा दी जाने वाली पूंजी तक पहुंचने में मदद कर सकते हैं और संकटग्रस्त किसान समुदायों को फिर से जलवायु परिवर्तन से होने वाली चुनौतियों के लिए तैयार कर सकते हैं।
ब्रिजस्पैन की पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ें।
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कल्पना करिए कि मध्य भारत के एक छोटे से गांव में, रामू किसान को अपना खेत जोतते हुए कुछ पुराने और कीमती सिक्के मिलते हैं। खुश होकर, वह इन सिक्कों को 1500 रुपए की मामूली सी कीमत पर बेच देता है। लेकिन ये खुशी थोड़ी ही देर की है क्योंकि उसे पता चलता है कि जिला अधिकारियों को खजाना मिलने की खबर न देने के कारण अब उस पर इंडियन ट्रेजर ट्रोव एक्ट, 1878 के तहत मुक़दमा चलेगा। अब रामू को एक साल के लिए जेल जाना पड़ सकता है।
यह अस्पष्ट और गुजरे जमाने का कानून, उन कई कानूनों में से एक है जो एक आम नागरिक को अपराधी में बदल सकते हैं। असल में, भारतीय कानून में 6000 से अधिक ऐसे अपराध हैं जो किसी के भी लिए जेल जाने का खतरा पैदा कर सकते हैं। आपराधिक कानूनों पर यह अतिनिर्भरता, अक्सर सामाजिक व्यवस्था और नैतिकता की अपनी धारणाओं से निकलती है और छोटी गलतियों का अपराधीकरण एक बड़े मुद्दे की ओर इशारा करता है। यह मुद्दा है – आपराधिक कानूनों को कब और कैसे लागू किया जाना चाहिए, यह बताने वाली किसी स्पष्ट नीति का ना होना।
आपराधिक कानूनों को लेकर स्पष्टता की कमी इसका राजनीतिकरण होने देती है। यह सरकार की चुनौतियों (जैसे शासन-व्यवस्था बनाए रखने) से निपटने में एक सहज और लगभग स्वीकार्य प्रतिक्रिया बन गई है, जबकि इसके लिए अन्य प्रकार की नागरिक कार्रवाइयां (जैसे जुर्माना लगाना) भी अपनाई जा सकती हैं। आपराधिक कानूनों पर हमेशा बनी रहने वाली यह निर्भरता, इस आधुनिक और लोकतांत्रिक भारत के स्वतंत्रता, न्याय और उदारता जैसे संवैधानिक मूल्यों के साथ संगत नहीं है।
लोगों को उनके जीवन और स्वतंत्रता से वंचित रखने की क्षमता को देखें तो आपराधिक कानून सरकार का एक शक्तिशाली साधन बन जाते हैं। खासतौर पर जब बात सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने की आती है। परंपरागत रूप से, आपराधिक कानून जीवन, स्वतंत्रता, शासन व्यवस्था और राज्य की सुरक्षा के लिए होते हैं और इन्हें नुकसान पहुंचाने वाले आचरणों को रोकते और दंडित करते हैं। आजादी के बाद बनाए गए कई विशेष कानूनों के साथ भारतीय दंड संहिता, 1860 भी इस नजरिए के अनुरूप थी। बीते दशकों में, नए कानूनों के बनने के बाद भी आपराधिक कानून के इस्तेमाल को निर्देशित करने वाली धारणाएं जस की तस बनी हुई हैं।1 इन सिद्धांतों में समाज और राजनीतिक व्यवस्थाओं के लिए जरूरी मूल्यों की रक्षा करना और यह तय करना शामिल है कि संवैधानिक अधिकारों का अपराधीकरण ना होने पाए। साथ ही,2 इन मूल्यों को सुरक्षित रखने के लिए एक तार्किक और उचित दंड व्यवस्था बनाना भी शामिल है।
हालांकि, अपवाद हमेशा से ही रहे हैं। उपनिवेश काल से राजद्रोह और मानहानि जैसे अपराध कानूनों का इस्तेमाल अक्सर असहमति को दबाने, और स्वतंत्रता आंदोलन समेत तमाम राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों को कुचलने के लिए किया जाता रहा है। इसी तरह विक्टोरियन नैतिकता भी भारतीयों पर थोपी गई और समलैंगिक संबंध व विवाहेतर संबंधों को अपराध घोषित कर दिया गया, जिसे हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया है। भीख मांगने और नशा करने को अपराध बताना भी सामाजिक मुद्दों से निपटने में अपराध कानूनों पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता को दिखाते हैं। यह बताता है कि सरकारी प्रतिक्रियाओं में अक्सर बारीकियों का ध्यान रखे जाने और गहन विचार-विमर्श की कमी दिखाई देती है।
ऊपर जिक्र किए उदाहरण समस्या का एक सिरा भर हैं। बीते कुछ समय से, कई तरह की नागरिक प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करने के लिए अपराध कानूनों का इस्तेमाल करने का चलन बढ़ रहा है। यहां तक कि जब यह प्रक्रियाएं सामाजिक व्यवस्था, जीवन, संपत्ति या राज्य की सुरक्षा के लिए खतरा नहीं होती हैं, तब भी ऐसा किया जाता है? असल में अपराध कानून भारत में रोजाना के शासन-प्रशासन के केंद्र में आ गए हैं।
उदाहरण के लिए, साधारण नियमों का पालन न करना जैसे पंजीकरण की औपचारिकताओं को पूरा ना करना, आर्थिक दस्तावेजों का ठीक से प्रबंधन ना करना या समय पर सरकारी विभाग तक उसकी जानकारी ना पहुंचाना, पालतू जानवरों से ठीक से व्यवहार ना करना, किसी सरकारी अधिकारी की प्रशासनिक शक्तियों के प्रयोग में बाधा डालना या सड़क पर लाल बत्ती पार करना आदि जैसी गतिविधियां, किसी को जेल पहुंचा सकती हैं। गौर करने वाली बात है कि अगर कोई अपने आर्थिक दस्तावेजों का एकदम सही प्रबंधन नहीं करता है तो ऐसे 14 कानून हैं जो इसे अपराध बताते हैं और इसके लिए उसे दो साल तक की सजा भी हो सकती है। इसी तरह, 20 कानून हैं जो बताते हैं कि सरकारी अधिकारी के काम (शक्ति के प्रयोग) में बाधा डालना अपराध है जिसके लिए जेल और जुर्माना हो सकता है। लेकिन इन कानूनों में बाधा डाले जाने को स्पष्टता से नहीं बताया गया है।
मामूली उल्लंघनों के लिए अपराध कानूनों पर निर्भर होना एक ऐसी प्रणाली को मजबूती देता है जो न केवल बहुत सख्त है बल्कि आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के लिहाज से भी उपयुक्त नहीं है।
भले ही, ऐसा नियमों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करने के लिए किया गया हो, लेकिन मूलभूत सवाल यह उठता है कि क्या अपराध कानून इस उद्देश्य के लिए उपयुक्त साधन हैं? क्या हत्या और बलात्कार जैसे गंभीर मामलों में न्याय करने के लिए बनाए कानूनों का इस्तेमाल इसके लिए भी हो सकता है कि किसी ने अपने दस्तावेज सही समय पर नहीं जमा किए, या सफाई कर्मचारी ने समुचित औपचारिकता के बगैर छुट्टी ली, या फिर कोई बिना इंश्योरेंस की गाड़ी चला रहा था? गंभीर अपराधों और छिटपुट उल्लंघनों के बीच स्पष्ट सीमारेखा ना होने से, न केवल अपराध कानून और इन्हें लागू करने वालों की भूमिका का विस्तार होता है बल्कि, इससे न्याय व्यवस्था का मूल उद्देश्य भी समाप्त हो जाता है। अपराध कानून केवल उन गंभीर अपराधों के लिए होने चाहिए जिनसे मानव जीवन, संपत्ति या सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को खतरा हो। छोटे-मोटे उल्लंघनों के लिए भी उतना ही सख्त रवैया अपनाया जाना और दोनों के बीच के अंतर को ना समझना, अपराध क़ानूनों के मूल उद्देश्य को कमजोर करता है।
इसके अलावा, यह नजरिया एक ऐसी संस्कृति को बढ़ावा देता है जहां दंड और अवरोध को कानूनों को लागू करने का एकमात्र तरीका माना जाता है। मामूली उल्लंघनों के लिए अपराध कानूनों पर निर्भर होना एक ऐसी प्रणाली को मजबूती देता है जो न केवल बहुत सख्त है बल्कि आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के लिहाज से भी उपयुक्त नहीं है, जहां दंडात्मक उपायों को सुधार उपायों से बदला जा रहा है। यह नजरिया वर्तमान नागरिक-सरकार संबंधों के साथ भी मेल नहीं खाता है क्योंकि अब इस संबंध को शिक्षा, प्रोत्साहन और सामाजिक जुड़ाव के जरिए मज़बूत किए जाने पर जोर दिया जाता है।
अपराध कानूनों का मनमाना उपयोग अत्यधिक अपराधीकरण पर जाकर नहीं रुकता है। सजा तय करने में असंगतता और अतार्किकता इसे और उलझन भरा बना देती हैं। रामू के उदाहरण पर वापस जाएं तो खजाना मिलने की जानकारी न देने के कारण उसे एक साल तक की कैद का सामना करना पड़ सकता है। विडंबना यह है इतनी ही सजा तब भी दी जा सकती है जब कोई किसी को आपत्तिजनक बात कहकर उसका यौन उत्पीड़न करता है या किसी से उसकी इच्छा के खिलाफ काम करवाता है।
भारत के आपराधिक कानून का परिदृश्य ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जहां अलग-अलग अपराधों के लिए समान रूप से सजा दी जाती है। या फिर इसके उलट, समान अपराधों के लिए अलग-अलग तरह से सजा दी जाती है। उदाहरण के लिए, मानहानि के लिए दो साल तक की कैद की सजा का प्रावधान है और यही सजा तब भी दी जाती है जब कोई किसी बच्चे के जन्म को छुपाने के लिए, उसकी लाश को छुपाता है। इसी तरह, अदालत में झूठा बयान देने और किसी महिला के साथ क्रूरता करने, दोनों अपराधों के लिए के लिए तीन साल की सजा है। दूसरी तरफ देखें तो सरकारी अधिकारी के काम में दखल देने के लिए मर्चेंट शिपिंग एक्ट, 1958 के तहत 200 रुपए का जुर्माना है, ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 के तहत यह सजा तीन साल तक की जेल है और फूड सेक्योरिटी एंड स्टैंडर्ड एक्ट, 2006 के तहत महज तीन महीने की सजा काफी है।
हालांकि कारावास की अवधि अपराध की गंभीरता को दिखाती है – अपराध जितना अधिक गंभीर, सजा उतनी ही कठोर – लेकिन इसमें विसंगतियां साफ दिखाई देती हैं। उदाहरण के लिए, जहां गंभीर उकसावे के बगैर हमला करने या आपराधिक बल प्रयोग करने पर तीन महीने तक की कैद की सजा हो सकती है, वहीं बाड़े से मवेशियों को छुड़ाने पर छह महीने तक की कैद की सजा हो सकती है।
एक ऐसा देश जहां रोजमर्रा के प्रशासनिक मामलों के लिए अपराध कानून पर इतनी अधिक निर्भरता है, वहां यह तय करने में स्पष्टता नहीं है कि कौन से अपराध के लिए क्या सजा दी जानी चाहिए। इस असंगति की जड़ शायद उस समझ की कमी है कि सज़ा किस उद्देश्य से तय की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, खजाना मिलने की खबर ना देने वाले को एक साल की सजा देने का क्या तुक है? इसी तरह संपत्ति कर देने में देरी और महिला के साथ क्रूरता किए जाने में क्या तुलना है कि दोनों के लिए तीन साल तक सजा देने का प्रावधान है? ये अपराध अपनी प्रवृत्ति में एकदम अलग हैं, फिर भी कानून उनके साथ एक जैसा व्यवहार करता है। सजा प्रभावी होने के साथ सुधार लाने वाली होनी चाहिए, न कि केवल हतोत्साहित करने वाली। सरकार को अलग-अलग तरह के अपराध के दोषियों के लिए अलग-अलग नजरिया अपनाना चाहिए।
बीते दो सालों में, इन मुद्दों को हल करने और शासन में अपराध कानूनों की भूमिका का दोबारा आकलन करने के उद्देश्य से कुछ नीतिगत बदलाव होते दिखे हैं। भारतीय न्याय संहिता (बीएमएस), 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस), 2023, और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बीएसए), 2023, का उद्देश्य आपराधिक न्याय व्यवस्था को आधुनिक बनाना और उपनिवेशवाद की छाया से मुक्त करना है। इसके लिए इन नई किताबों में नागरिक केंद्रित प्रक्रियाओं, तेजी से निराकरण के लिए समयसीमा, फ़ॉरेंसिंक और तकनीक का इस्तेमाल, पीड़ित केंद्रित न्याय व्यवस्था और सजा के ऊपर न्याय को वरीयता देने पर जोर दिया गया है। इसी तरह, जन विश्वास (अमेंडमेंट ऑफ प्रोविज़न) एक्ट, 2023 में भारत में व्यापार से जुड़ी प्रक्रियाओं को आसान बनाने के इरादे के साथ अपराधों के लिए सजा का गैर-अपराधिकरण करने और उन्हें तर्कसंगत बनाने की मांग की गई है।
भारत का विधायी (लेजिस्लेटिव) परिदृश्य आपराधिक प्रावधानों और ऐसे दंडों से भरा है जो कि अपराध के अनुरूप नहीं हैं।
भले ही ये सुधार मौजूदा व्यवस्था के भीतर समस्याओं को स्वीकार करने की दिशा में एक सकारात्मक कदम हैं, लेकिन वे यथास्थिति को बदल पाने में असफल ही रहे हैं। उदाहरण के लिए, बीएनएस मनमाने ढंग से दंड देना जारी रखता है। मानहानि, राजद्रोह और धर्म के खिलाफ अपराध जैसे अपराध पुराने मापदंडों के साथ किताब में बने हुए हैं। ध्यान खींचने वाला एक मात्र जुड़ाव, अतिरिक्त सजा के तौर पर सामुदायिक सेवा की शुरूआत है, लेकिन यह प्रावधान केवल छह अपराधों पर लागू होता है जिससे इसका प्रभाव सीमित हो जाता है।
संक्षेप में, भारत का विधायी (लेजिस्लेटिव) परिदृश्य आपराधिक प्रावधानों और ऐसे दंडों से भरा है जो कि अपराध के अनुरूप नहीं हैं, साथ ही प्रशासनिक व्यवस्था भी अपराधीकरण पर जरुरत से ज्यादा निर्भर है।
आपराधिक कानून उन मामलों तक सीमित होना चाहिए जो लोगों, सार्वजनिक व्यवस्था, सुरक्षा, या संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं या उससे संबंधित होते हैं। उदाहरण के लिए, क्रोएशिया और स्लोवेनिया जैसे देशों में दंड संहिताएं हैं जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानवाधिकारों पर खतरा होने या उनका उल्लंघन करने वाले कृत्यों के लिए आपराधिक प्रतिबंधों पर ही बात करती हैं।
इससे परे के मुद्दों के लिए, जिनके लिए अभी भी विनियमन की आवश्यकता है, सरकार को सजा के विकल्प या कम से कम सजा के वैकल्पिक रूपों पर विचार करना चाहिए। उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया में कई विकल्प होते हैं, जैसे गहन सुधार आदेश, ड्रग्स और शराब उपचार आदेश, और गैर-दोषी आदेश – जो अदालत को अपराध के अनुरूप सजा देने के लिए उचित विकल्प प्रदान करते हैं।
हालांकि, आपराधिक कानूनों की नई कल्पना करने के लिए कुछ जरूरी सवालों पर विचार करने की जरूरत होगी: आधुनिक भारत के लिए आपराधिक कानून का असली उद्देश्य क्या है? लोगों को सजा देने से कौन से उद्देश्य पूरे होते हैं? क्या इन उद्देश्यों को पाने के लिए और अधिक प्रभावी विकल्प हैं? और आखिर में, क्या हम आचरण को अपराध बनाकर या केवल नई समस्याएं पैदाकर किसी समस्या का समाधान कर रहे हैं?
आपराधिक कानून-निर्माण पर एक ठोस नीति – जिसमें अपराधीकरण के मानदंड, कानून के मसौदे पर लोगों की राय का आकलन और सजा के स्वरूप और मात्रा निर्धारित करने के नियम शामिल हैं, गैर-जरूरी और मनमाने अपराधीकरण को खत्म करने में मदद कर सकती है। इसी तरह, सजा निर्धारित करने की एक रूपरेखा, जेल की शर्तों और जुर्माने के उपयोग की अधिक उपयुक्त और स्थिर व्यवस्था तय कर पाएगी। न्यायाधीशों के लिए स्पष्ट रूप से सजा के लिए निर्धारित दिशानिर्देशों की गैरमौजूदगी में, इस तरह की रूपरेखा यह तय करने में महत्वपूर्ण बदलाव ला पाएगी कि दंड अपराध के अनुरूप हो।
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