छ्त्तीसगढ़ में अब महुआ बुजुर्गों की आय का साधन क्यों नहीं रह गया है?

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मेरा नाम भगवती भगत है और मैं छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले के सारसमाल गांव की रहने वाली हूं। हमारे गांव में लगभग पिछले सत्रह सालों से कोयला खनन हो रहा है। लेकिन इससे पहले हमारे गांव की आजीविका का मुख्य स्रोत गांव और इसके आसपास के जंगलों और पहाड़ियों पर उगने वाले महुआ के पेड़ ही थे।

पारंपरिक रूप से हम लोग महुआ और तेंदू के पत्ते चुनकर ही अपनी आजीविका चलाने वाले लोग हैं और लगभग हर मायने में हम वनोपज पर ही निर्भर थे। गांव में कोयला की खदानों के खुलने से पहले हम लोग साल में छह महीने काम करते थे और बाक़ी का छह महीना बिना काम किए भी आराम से कट जाता था। उपज अधिक होने के कारण हम सस्ते दामों पर महुआ बेचते थे। बावजूद इसके हमारे पास खाने-पीने और अन्य कामों के लिए पर्याप्त पैसा होता था।

लेकिन कोयला की खदानों के आने और खनन का काम शुरू हो जाने के कारण हमारे गांव के लोगों की ज़मीनें चली गईं और हमसे हमारी आजीविका का मुख्य स्रोत छिन गया। अब हमारे गांव में ना तो महुआ के पेड़ ही बचे हैं और ना ही खेती के लिए पर्याप्त ज़मीन। ऐसे में मुझ जैसे भूमिहीन और बड़ी उम्र वाले लोगों के लिए अपना जीवनयापन करना मुश्किल हो गया है।

भगवती भगत सारसमाल गांव में रहती हैं और अपने गांव और आसपास के क्षेत्रों में कोयला खनन से प्रकृति और जनजीवन को होने वाले नुक़सान के खिलाफ़ आवाज़ उठाती हैं।

आईडीआर पर इस ज़मीनी कहानी को आप हमारी टीम की साथी कुमारी रोहिणी से सुन रहे थे।

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