सलूंबर की किशोरियों को शादी या खनन में से एक क्यों चुनना पड़ रहा है?

Location Iconसलूंबर जिला, राजस्थान
खनन करती लड़कियों की चप्पल_खनन
लड़कियां खान में तब तक काम करती हैं जब तक कि उनकी शादी नहीं हो जाती है। | चित्र साभार: रेखा नरुका

राजस्थान के सलूंबर जिले के लसाडिया ब्लॉक में बड़े पैमाने पर पत्थरों का खनन होता है। इस इलाक़े की आबादी में ज़्यादातर लोग मीणा आदिवासी समुदाय से आते हैं। बीते कुछ समय से इलाक़े में चल रही खनन गतिविधियां एक चिंताजनक मुद्दा बन गई हैं, खासकर किशोरी श्रमिकों की भागीदारी के कारण।

लसाडिया ब्लॉक के बेडावल गांव में, महज़ 12 से 20 साल की उम्र में लड़कियां अपने परिवार की आर्थिक सहायता के लिए खान में काम करने को मजबूर हैं। उनके परिवारों की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर है कि वे अपनी बेटियों को स्कूल भेजने की बजाय उन्हें खदान में काम करने के लिए भेज देते हैं और घर के पुरुष कमाई के लिए पलायन कर जाते है।

खनन का काम करने वाली आशा* बताती हैं कि “हम अपनी बड़ी बहनों जो पिछले कई सालों से खान में काम कर रही हैं, उन्हें देखकर काम करने आए हैं क्योंकि इस काम को करने के लिए पैसे मिलते हैं और उस पैसे से हम हमारी ज़रूरतें पूरी कर सकते हैं। सुबह जल्दी उठकर घर के काम निपटा कर 5 से 6 किलोमीटर पैदल चलकर जाते हैं और वहां पर 7 से 8 घंटे काम करने के बाद वापस चल कर आते हैं।” आशा के साथ काम करने वाली और लड़कियों ने भी इस जानकारी पर सहमति दिखाई।

वे जोड़ती हैं कि उन्हें स्कूल जाने और अपने मास्टर जी से डर लगता है क्योंकि स्कूल बंद होने के बाद उनसे सफाई कराई जाती है। आशा कहती हैं कि “इससे बेहतर है कि हम मेहनत करके काम करेंगे तो खुद के खर्चे का पैसा तो कमा पाएंगे और परिवार के लिए भी कुछ मदद कर पाएंगे।” किशोरियां अपनी कमाई का ज़्यादातर हिस्सा घर का खर्चा चलाने के लिए दे देती हैं।

इस गांव कि लड़कियां खान में तब तक काम करती हैं जब तक कि उनकी शादी नहीं हो जाती है। यहां जो लड़कियां खान में काम नहीं कर रही है, 15 साल के बाद उनकी शादी कर दी जाती है क्योंकि वह कमाई का जरिया नहीं बन पा रही हैं। वहीं, जो खान में काम करती हैं उनकी शादी 20 साल के बाद की जाती है।

किशोरियां शादी नहीं करके, आजाद रहने के लिए भी खान में काम करने को तैयार हैं। घर के खर्चे के बाद उनके पास जो पैसे बच जाते हैं, उसका इस्तेमाल वे बाहर घूमने, मेले में जाने, अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए करती हैं। शादी के बाद आमतौर पर उनके पति उन्हें बाहर काम करने की आज़ादी नहीं देते हैं, जिससे वे अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर पाती हैं। उनके लिए खान पर आने-जाने में लगने वाला लगभग डेढ़ से दो घंटे का समय, वह समय है जब वे सबसे अधिक स्वतंत्र महसूस करती हैं क्योंकि इस दौरान वे अपनी सहेलियों के साथ हंस-खेल सकती है।

इस आत्मनिर्भरता और आज़ादी के लिए, इन्हें खानों में ख़तरनाक परिस्थितियों में काम करने, काम के लंबे घंटों और न्यूनतम वेतन जैसे जोखिम उठाने पड़ते हैं। इसके लिए उन्हें दिन की लगभग 200 रुपए दिहाड़ी मिलती है। खदान में फिसलन वाले पत्थरों का खनन होने के चलते उन्हें शारीरिक खतरों से भी जूझना पड़ता है। धूल से उन्हें सांस लेने में समस्या और भारी मशीन से चोट लगने का ख़तरा भी है। घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए और जल्दी शादी न करने के लिए उनके पास काम करना ही एक विकल्प है जो उन्हें स्वीकार भी है। लेकिन क्षेत्र में उचित रोजगार अवसरों के अभाव के कारण खान में काम उनका एकमात्र विकल्प बन जाता है।

*गोपनीयता के लिए नामों को बदल दिया गया है।

रेखा नरूका पिछले 6 साल से समाजिक क्षेत्र में काम कर रही हैं।

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