मध्य प्रदेश के बंछाड़ा समुदाय की मेघा* का कहना है कि “हमारे लिए शिक्षा हासिल करना दूसरों की तुलना में दोगुना मुश्किल है।”
गैर-अधिसूचित जनजाति के बंछाड़ा समुदाय का जातिगत पेशा सेक्स वर्क है। समुदाय की ज़्यादातर लड़कियां जीवन में कभी-भी स्कूल का मुँह तक नहीं देख पाती हैं और उन्हें जवान होते ही सेक्स के धंधे में धकेल दिया जाता है।
मेघा आगे बताती है कि सेक्स के धंधे में काम करने वाली महिलाओं का कामकाजी जीवन बहुत छोटा होता है और 26 से 27 की उम्र के बाद उनके लिए काम खोजना मुश्किल हो जाता है। ऐसी औरतों को औपचारिक क्षेत्रों में काम नही मिल सकता है। सेक्स के धंधे और जातीय भेदभाव से जुड़े कलंक के कारण अनौपचारिक क्षेत्रों में भी काम मिलना असंभव ही है। मेघा का कहना है कि, “अगर उन्हें घरेलू कामकाज करने वाले मजदूर के रूप में काम मिल भी जाता है तो भी उन्हें यौनकर्मियों के समुदाय से आए लोगों के रूप में ही देखा जाता है। अक्सर उन्हें अपने मालिकों से गालियाँ सुननी पड़ती हैं।”
इस समुदाय की कई औरतें शिक्षा को इस समस्या का समाधान मानती हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि इससे उन्हें ऐसी नौकरियाँ मिलने में आसानी होगी जिन्हें समाज का बड़ा तबका सम्मान की नज़र से देखता है। हालांकि, परिवार के सदस्यों और समुदाय के बाकी लोगों को इस बात के लिए तैयार करना एक मुश्किल काम है। क्योंकि सदियों से बंछाड़ा समुदाय के लिए उनकी जवान लड़कियां कमाई का मूल स्त्रोत रही हैं।
इसके अलावा भी कई तरह की समस्याएँ हैं। सरकार द्वारा जारी किए गए सर्क्युलर के बावजूद, कई विद्यालय अब भी प्रवेश के लिए पिता का नाम और उससे जुड़े दस्तावेजों की मांग अनिवार्य रूप से करते हैं। बंछाड़ा समुदाय के बच्चों को अक्सर अपने पिता का नाम मालूम नहीं होता है। मेघा कहती है कि, “यह हमारे लिए एक दुष्चक्र है। आपको सेक्स कार्य के अलावा कोई दूसरा काम नहीं मिल सकता है क्योंकि आपके पास शिक्षा नहीं है। और आपको शिक्षा नहीं मिल सकती है क्योंकि यह व्यवस्था इसी तरह काम करती है।”
*गोपनीयता बनाए रखने के लिए नाम बदल दिया गया है।
मेघा एक स्वयंसेवी संस्थान के लिए काम करती है जो यौन हिंसा और बंधुआ मजदूरी के पीड़ितों के साथ काम करता है। देबोजीत आईडीआर में समपादकीय सहयोगी हैं। यह लेख मेघा के साथ किए गए संवाद को आधार बनाकर लिखा गया है।
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