बाढ़ के दौरान बरती जाने वाली सावधानियों से भरी कहानियां सैदपुर गांव के निवासियों के बीच पीढ़ियों से चली आ रही हैं। यह गांव गंगा नदी के उत्तरी तट पर, गंगा और कोसी नदियों के दोआब (दो नदियों के बीच का क्षेत्र जो आपस में मिल जाते हैं) पर स्थित है। नदी के किनारे रहने वाले लोगों ने समझ लिया है कि अपने जान-माल को नुक़सान से बचाने और बाढ़ के संभावित प्रभावों को कम करने के लिए ख़तरनाक क्षेत्रों में निर्माण न करना ही ठीक है। दो नदियों द्वारा लाई गई गाद के कारण एक ओर जहां यह इलाका बहुत अधिक उपजाऊ और घनी आबादी वाला हो गया है, वहीं दूसरी तरफ़ बार-बार आने वाली बाढ़ इस इलाक़े में बड़े पैमाने पर विध्वंस मचाती रही है। साल 1996 में आई बाढ़, इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की यादों में आज भी ताज़ा है।
बाढ़ के मैदानों में और उसके आस-पास निर्माण किए जाने की प्रवृति बढ़ने के कारण नदी के अपनी पूरी क्षमता तक पहुंचने पर बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। साल 2000 के आसपास, इन क्षेत्रों में नदियों से सटे कृत्रिम तटबंधों का निर्माण किया गया था। ये मिट्टी, रेत या पत्थर से बने, उभरे हुए कृत्रिम तट हैं जो नदियों के समांतर होते हैं। यह एक ऐसा तरीक़ा है जो औपनिवेशिक काल के दौरान अपनाया गया था ताकि नदियों में बढ़ते पानी से खेतों और गांवों को बचाया जा सके। भारत के कई क्षेत्रों में, नदियों पर इन कृत्रिम तटों से सटे बैराज भी बनाये गये थे ताकि इसके पानी को नहरों के जरिए सिंचाई के लिए इस्तेमाल में लाया जा सके। हालांकि, ये निर्माण पूरी तरह से कारगर नहीं हैं और उचित संचालन या इस तरह के ढांचों में गड़बड़ी आने से घटने वाली घटनाएं विनाशकारी साबित हो सकती हैं।
बैराज जैसी बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की शुरूआत ने समय के साथ नदियों की प्रवाह व्यवस्था में बड़ा बदलाव लाया है। पिछले कुछ सालों में जहां हमने इस तरह के मामलों की पुष्टि करने वाले ऐसे कई उदाहरण देखे हैं, फिर भी इस जानकारी के प्रति उदासीनता बनी हुई है। 2008 में बड़े पैमाने पर कोसी नदी के मार्ग में किए गये बदलाव – जो आगे जाकर सैदपुर तक पहुंचती है – से कई क्षेत्रों में तटबंधों के हर वर्ष टूटने तक, बिहार में बाढ़ से जुड़ी खबरें एक हद तक वार्षिक मामला बन चुकी हैं।
लेकिन बाढ़ के अलावा, इन ढांचों ने पारंपरिक रीति-रिवाजों को भी बदला है। सैदपुर गांव के निवासी उन दिनों को याद करते हैं जब तटबंध नहीं बने थे और इस क्षेत्र की मिट्टी नम होती थी जो इसे धान की खेती के लिए अनुकूल बनाती थी। लेकिन, तटबंधों के निर्माण के बाद मिट्टी ने अपनी नमी को खो दिया है। अब, इस क्षेत्र के निवासियों को गेहूं और बाजरे की सिंचाई के लिए पंप-आधारित सिंचाई पर निर्भर रहना पड़ता है। मिट्टी में नमी के स्तर में कमी का एक दूसरा अर्थ है महिलाओं के श्रम में वृद्धि, जो कृषि कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा हैं। उन्हें समय-समय पर बैठ कर नमी की कमी के कारण मिट्टी में बने ढेलों को तोड़ना पड़ता है।
जलवायु परिवर्तन और अनियमित मौसम भी बाढ़ से होने वाली तबाही का प्रमुख कारण माना जाता है। हालांकि, नदी विज्ञान और सामुदायिक ज्ञान पर ध्यान दिए बिना, बैराज और तटबंधों जैसे बुनियादी ढांचे के हस्तक्षेप के साथ-साथ बाढ़ के मैदानों में अनियमित निर्माण का बढ़ना, बाढ़ के प्रभाव और इन ‘बाढ़ नियंत्रण’ के ढांचो को बदतर बना रहा है। राज्य इन संरचनाओं की मरम्मत के लिए हर साल सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च करता है। फिर भी, नदी के व्यवहार का सम्मान करने की दिशा में ठोस कार्रवाई की अब भी कमी है। भारत को ऐसी सशक्त नीतियों की आवश्यकता है जो सीमांकित क्षेत्रों में अतिक्रमण और निर्माण पर सख्त नियम लागू करें। बैराजों और तटबंधों का उचित रखरखाव होना चाहिए और उनका संचालन उचित तरीक़े से किया जाना चाहिए, और बाढ़ के इलाक़ों में होने वाले निर्माण – यहां तक कि बाढ़ को रोकने के लिए किया गया निर्माण- इन बाढ़ क्षेत्रों के आसपास रहने वाले लोगों की सलाह के आधार पर वैज्ञानिक तरीके से किया जाना चाहिए।
सिद्धार्थ अग्रवाल पिछले सात वर्षों से भारत में नदियों के किनारे-किनारे पदयात्रा कर रहे हैं। वे वेदितुम इंडिया फाउंडेशन के संस्थापक हैं, जो एक नॉन-प्रॉफिट रिसर्च, मीडिया और एक्शन ऑर्गनाइजेशन है।
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