फरवरी 2019 में भारत सरकार ने पर्यावरण प्रदूषण को कम करने और किसानों की आय दोगुनी करने के दोहरे उद्देश्य से प्रधानमंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान (पीएम कुसुम योजना) की शुरुआत की थी। इस योजना के तहत किसानों की बंजर भूमि पर सोलर पॉवर प्लांट लगाए जाते हैं। योजना का उद्देश्य है कि इन सोलर प्लांटों से पैदा होने वाली बिजली को वितरन कंपनियों को बेचने से किसानों को अतिरिक्त आय हो सके। इस योजना के तहत देशभर में साल 2022 के अंत तक सौर ऊर्जा की 30,800 मेगावाट क्षमता स्थापित करना का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन कोरोना महामारी के चलते इसका क्रियान्वयन प्रभावित होने से यह समयसीमा मार्च 2026 तक बढ़ा दी गई है।
मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले में खेती का काम करने वाले राजेंद्र सिंह कहते हैं कि ‘साल 2020 में मैंने अपनी जमीन पर 0.5 मेगावाट का सोलर पावर प्लांट लगवाने के लिए आवेदन किया था। तब से लेकर अब तक मैं काग़ज़ी कार्यवाही में ही उलझा हुआ हूं। उस वक्त प्लांट की लागत करीब 3.5 करोड़ के आसपास थी। अब यह बढ़ कर करीब 4.5 करोड़ हो गई है।’ वे आगे जोड़ते हैं कि ‘राजगढ़ के गांगोरनी गांव में मेरी पांच एकड़ जमीन है। अब सरकारी बैंक नई लागत पर लोन देने को तैयार नहीं हैं। उनका कहना हैं कि पुरानी कीमत पर ही लोन दिया जाएगा। वहीं प्राइवेट बैंक फाइनेंस नहीं करना चाहते हैं।
राजेंद्र सिंह, मध्य प्रदेश ऊर्जा विकास निगम लिमिटेड के साथ बिजली खरीदने का पावर पर्चेज एग्रीमेंट भी साइन कर चुके हैं। उनकी ज़मीन पर सोलर पावर प्लांट लग जाने के बाद ऊर्जा विकास निगम 3.07 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीदेगा।
रायसेन जिले के किसान शुभम राय ने 2020 में सोलर प्लांट का आवेदन दिया था। राय बताते हैं कि ‘मेरा कंपनी से बिजली खरीदी का एग्रीमेंट हो चुका है लेकिन अब बैंक फाइनेंस करने को तैयार नहीं हैं। मैं अपनी चार एकड़ की जमीन पर एक मेगावाट का सोलर प्लांट लगवाना चाहता था। मंजूरी मिलने में ही दो साल लग गए और इतने समय में लागत में एक करोड़ का इजाफा हो गया है। यदि प्लांट लगवा भी लिया तो मुझे प्लांट के मेंटेनेंस और सुरक्षा के लिए चौकीदार आदि का खर्चा उठाना पड़ेगा। लोन के साथ इन चीज़ों का खर्चा देखें तो प्लांट शुरूआत के 13-14 सालों में मेरे लिए कोई आमदनी पैदा नहीं करेगा।’
जब से किसानों ने प्लांट के लिए आवेदन किया है, उस दौरान जीएसटी भी पांच से बढ़कर 12 प्रतिशत हो गया है। किसान अपनी परेशानी का जिम्मेदार धीमी दस्तावेज़ीकरण और सत्यापन प्रक्रिया को ठहराते हैं। यदि लागत कम होने पर वे अपना प्लांट लगवा पाते तो उनकी यह स्थिति नहीं होती। उनकी मांग है कि उनसे खरीदी गई बिजली की प्रति यूनिट कीमत नई लागत के मुताबिक बढ़नी चाहिए। लेकिन क्या ऐसा होना संभव है?
सनव्वर शफ़ी एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और भोपाल, मध्य प्रदेश में रहते हैं।
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