मैं पिछले 30 साल से छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में आने वाले तेगनवाड़ा गांव में वैद्य (पारंपरिक चिकित्सक) के रुप में काम कर रहा हूं। मैंने अपने पिता और दादा से पारंपरिक चिकित्सा की शिक्षा ली है। वे दोनों भी वैद्य थे। वे अपने मरीज़ों से किसी भी प्रकार का शुल्क नहीं लेते थे। तमाम तरह की बीमारियों से पीड़ित लोग इलाज के लिए उनके पास आया करते। वे रोगी की जांच करते और उस आधार पर जंगलों से चुनकर लाई गई जड़ी-बूटियों से बनी दवा उन्हें देते थे। इसके बदले में वे मरीज़ों से नारियल और अगरबत्ती लेते थे।
अब समय बदल चुका है। मुझे अपने परिवार के खाने-पीने और बच्चों की पढ़ाई का इंतज़ाम भी करना पड़ता है। मैं गरीब लोगों से कोई तय शुल्क नहीं लेता हूं। हां, यदि वे मुझे कोई छोटी-मोटी राशि देना चाहते हैं तो बीमारी ठीक होने के बाद दे सकते हैं। लेकिन दूसरों से मैं उनकी बीमारी की गंभीरता के आधार पर पैसे लेता हूं। अब जड़ी-बूटियां ख़रीदना भी मुश्किल हो गया है। एक समय था जब हमारे गांवों में ये प्रचुरता से उपलब्ध थीं। जल्दी पैसा कमाने की इच्छा रखने वाले गांव के कुछ लोगों ने इन जड़ी-बूटियों को बाज़ार के विक्रेताओं को बेचना शुरू कर दिया है। बाजार के विक्रेता हमारी इन जड़ी-बूटियों को शहर ले जाते हैं और फिर वहां से हमें ही उंची क़ीमतों पर बेचते हैं।
मुझ जैसों वैद्यों के लिए यह ख़तरा बनता जा रहा था। इसलिए हमने अपने घर के पीछे की ज़मीनों में जड़ी-बूटी उगाने का फ़ैसला किया। इस तरह इन्हें उगाना और देखभाल करना आसान है। हम इनकी पत्तियों को अपने मवेशियों को खिला देते हैं और इसमें किसी प्रकार का नुक़सान नहीं होता है क्योंकि दवा बनाने में इस्तेमाल होने वाली जड़ें आमतौर पर सुरक्षित होती हैं।
हम भी जड़ी-बूटियां बेचते हैं लेकिन हमारे ग्राहक केवल दूसरे वैद्य ही होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि मैं बेल उगाता हूं तो एक दूसरा बेल नहीं उगाने वाला वैद्य, अपनी ऐसी किसी जड़ी-बूटी के बदले मुझसे बेल ले सकता है जो मेरे पास उपलब्ध नहीं है। या फिर, वह मुझसे सीधे ख़रीद भी सकता है। कूरियर सेवा से जड़ी-बूटी की यह अदला-बदली देश के विभिन्न हिस्सों में होती है। मैंने हाल ही में कुछ जड़ी-बूटियों का एक पैकेट श्रीलंका भी भेजा है। अदला-बदली की यह व्यवस्था हमारे लिए आवश्यक है क्योंकि ऐसी कई जड़ी-बूटियां हैं जो विशेष वातावरण में ही उगाई जा सकती हैं। आंखों से जुड़ी एक बीमारी के इलाज में एक विशेष प्रकार की जड़ी-बूटी इस्तेमाल होती है और यह केवल महानदी नदी के उद्गम स्थल सिवान पहाड़ के आसपास की मिट्टी में ही पैदा होती है। मैंने इसे अपने गांव के वातावरण में उपजाने की कोशिश की थी लेकिन असफलता ही हाथ लगी।
पारम्परिक चिकित्सा का अभ्यास एवं जड़ी-बूटी की ख़रीद-बिक्री के अलावा मैं कपड़ों की सिलाई का काम भी करता हूं। जब मैं 8वीं कक्षा में था तभी मैंने अपने गांव के दर्ज़ियों से टेलरिंग का काम सीखा था। पैसों की कमी के कारण मैं 10वीं के आगे नहीं पढ़ सका लेकिन मैंने वनस्पति विज्ञान में डिप्लोमा किया है। वनस्पति विज्ञान की परीक्षा में मैंने टॉप किया था और इसके बाद जड़ी-बूटियों के इस्तेमाल, उनके रोपण और खेती से जुड़ा प्रशिक्षण पूरा किया। जब मैं अपने तीन बेटों को सिखाता हूं तब मैं उन्हें प्रत्येक पौधे का वैज्ञानिक नाम और उनके इस्तेमाल के बारे में भी विस्तार से बताता हूं। मेरे बेटे मुझसे पारम्परिक चिकित्सा से जुड़ा ज्ञान भी ले रहे हैं और साथ ही अपनी औपचारिक शिक्षा भी पूरी कर रहे हैं।
सम्मेलाल यादव छत्तीसगढ़ राज्य के बिलासपुर जिले में रहने वाले वैद्य हैं।
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