बीते एक दशक में हमारे जिले कुशीनगर, उत्तर प्रदेश के कई गांवों में छोटी रकम का कर्ज देने वाली माइक्रोफाइनेंस कंपनियों की पैठ तेजी से बढ़ी है। मैं मुसहर समुदाय से हूं और मैंने देखा है कि इन कंपनियों के ऋण एजेंट अधिकतर वंचित समुदायों की महिलाओं को निशाना बनाते हैं। इसका एक कारण यह है कि अक्सर इन महिलाओं के परिवारों के पास संपत्ति के दस्तावेज या कोई अन्य जमानत न होने के चलते उन्हें बैंकों से कर्ज नहीं मिल पाता है।
हमारे समुदाय के अधिकांश पुरुष गांव से बाहर दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। ऐसे में ये कंपनियां गांवों में घुसकर महिला समूह बनाती हैं और शुरुआत में सभी को 20,000 से 25,000 रुपये तक का कर्ज देती हैं। इस कर्ज की ब्याज दर 22 प्रतिशत तक होती है। इसके बाद उन्हें हर हफ्ते, दो हफ्तों या महीने में किस्तें चुकानी होती है। अमूमन लोग एक ही समय में अलग-अलग कंपनियों से कर्ज ले बैठते हैं। हाल ही में, मुझे एक महिला ने बताया कि उसने 15 कर्ज लिए हुए हैं जिनकी कुल राशि लगभग तीन लाख रुपये है।
कर्ज देते समय एजेंट महिला और उसके पति का पहचान पत्र लेते हैं। यदि महिला विधवा हो, तो उसके आवेदन में किसी वयस्क पुरुष रिश्तेदार का पहचान पत्र जोड़ा जाता है। लेकिन चूंकि पुरुष अक्सर काम के लिए गांव से बाहर रहते हैं, इसलिए आगे चलकर एजेंटों की गाली-गलौज और उत्पीड़न का सारा दबाव महिलाओं को ही झेलना पड़ता है।
गांवों की महिलाएं या तो पशुपालन करती हैं या खेतों में मजदूरी। खेतों में मिलने वाली दिहाड़ी मजदूरी पहले से ही मौसमी थी। लेकिन अब मशीनीकरण जैसी वजहों से यह काम भी तेजी से घटता जा रहा है। ऐसे में उन्हें केवल 120 से 150 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी मिल पाती है।
इस आमदनी से कर्ज चुकाना तो दूर, परिवार की बुनियादी जरूरतें पूरी कर पाना ही बड़ी चुनौती होती है। ऐसे में ऋण एजेंटों द्वारा लोगों के घरों में घुसकर जबरन वसूली करने और महिलाओं को परेशान करने के कई मामले सामने आए हैं। कई बार किसी की मृत्यु तक की खबरें भी सुनने में आती हैं। 2024 में जंगल खिरकिया गांव के एक युवा मुसहर युवक की मौत भी ऐसी ही एक घटना का उदाहरण है।
कई बार कर्ज किसी महिला के नाम पर होता है, लेकिन असल में उसका लाभ गांव की दबंग जातियों के लोगों को मिलता है। ये लोग महिलाओं को कर्ज के बदले कुछ नकद रकम थमा देते हैं और उन्हें आश्वासन देते हैं कि वे किस्तें भरते रहेंगे। लेकिन वे एक-दो किस्तों के बाद ही भुगतान बंद कर देते हैं, जिसके बाद ऋण एजेंट कागजों पर दर्ज नाम से वसूली करने पहुंच जाते हैं।
ऐसे में कर्ज चुकाने में असमर्थ कई परिवार धमकियों और उत्पीड़न से बचने के लिए गांव छोड़कर भागने लगे हैं। यहां तक कि नवविवाहित जोड़े और छोटे बच्चों वाले परिवार अपने बुजुर्ग माता-पिता को छोड़ने के लिए विवश हैं। इस पलायन का असर बच्चों पर भी पड़ा है। कई बच्चे बाल मजदूरी करने के लिए विवश हैं क्योंकि परिवार उनकी शिक्षा का इंतजाम नहीं कर पाते हैं।
पिछले साल भारी बारिश के कारण हुए जलभराव ने कई लोगों को काम से वंचित कर दिया था। ऐसे हालात में लोगों ने सरकार से मांग की कि वह माइक्रोफाइनेंस कंपनियों द्वारा दिए गए कर्जों को माफ करे। उस समय जिला मजिस्ट्रेट ने बयान दिया था कि सरकार निजी कंपनियों के कर्ज तो माफ नहीं कर सकती, लेकिन लोगों को अस्थायी राहत जरूर दी जा सकती है। जिला प्रशासन ने एक आधिकारिक नोटिस जारी कर कंपनी एजेंटों को आदेश दिया कि जो परिवार भुगतान नहीं कर पा रहे हैं, उन्हें परेशान न किया जाए।
इसके बाद से ऋण एजेंटों द्वारा महिलाओं पर हिंसा या दबाव बनाने की घटनाओं में थोड़ी कमी आयी है। लेकिन लोगों के सिर पर कर्ज का बोझ जस का तस बना हुआ है। कसिया ब्लॉक के उप जिला मजिस्ट्रेट ने भी बैंकों के साथ बैठक कर उन्हें सरकारी ऋण योजनाओं के तहत लोगों को कर्ज मुहैया कराने के लिए कहा। लेकिन अधिकांश बैंक प्रबंधकों ने यह कहकर उनकी मांग को खारिज कर दिया कि वे ऐसे लोगों को कर्ज नहीं दे सकते, जिनके पास किसी संपत्ति या जमीन के मालिकाना हक के कागजात नहीं हैं।
मौजूदा दौर में जब आजीविका के साधन सिमटते जा रहे हैं और वंचित समुदायों के लिए औपचारिक ऋण अब भी पहुंच से बाहर है, तब उनके पास केवल एक ही विकल्प बचता है—निजी माइक्रोफाइनेंस कंपनियों द्वारा दिया जाने वाला बेलगाम कर्ज।
दुर्गा एक्शनएड इंडिया के साथ कार्यरत एक मानवाधिकार रक्षक हैं।
इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ें।
—
अधिक जानेंः जानें, ग्रामीण महिला किसानों को सशक्त बनाने वाला एक मॉडल जो उन्हीं से मज़बूत बनता है।