पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार जिले की नदियां इलाक़े के एक तबके के लिए उनकी आजीविका का मुख्य स्त्रोत बन गई हैं। यहां बहुत से लोग मज़दूरी के साथ-साथ पत्थर बीनने और रेत इकट्ठा करने का काम करते हैं।
इकट्ठा किए गए रेत और पत्थरों को ट्रैक्टरों में भरकर क्रशर तक ले जाया जाता है। यहां पत्थरों को और तोड़कर उन्हें निर्माण कार्य में इस्तेमाल के लायक़ बनाया जाता है। इसके बाद, क्रशर मालिक और कारोबार से जुड़े अन्य लोग इसे आगे बेच देते हैं। आगे इनका इस्तेमाल कंस्ट्रक्शन के काम या बाहर सप्लाई करने के लिए होता है।
इस काम को करने वाले कुछ मजदूर चाय बागान में भी काम करते हैं। लेकिन बाग़ानों में नियमित रूप से रोज़गार नहीं मिलता है या अक्सर बाग़ान ही बंद हो जाते हैं। ऐसे में लोगों के पास रेत-पत्थर का यह काम करने या फिर पलायन कर जाने के ही विकल्प बचते हैं।
स्थानीय लोग, इसे लेकर एक अलग ही पक्ष सामने लाते हैं। उनका कहना है कि नदियों से इस तरह से पत्थर निकाले जाने से नदियों की अवरोधक क्षमता कम होती जा रही है और गहराई बढ़ती जा रही है। इसके चलते, भूमि का कटाव भी बढ़ रहा है। साथ ही, जिले के भूटान की सीमा से लगे होने के कारण वहां से नदियों में प्रदूषित पानी आ रहा है, जिससे प्रदूषण का खतरा भी बढ़ रहा है।
राहुल सिंह एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड में रहते हैं। वे पूर्वी राज्यों में चल रही गतिविधियों, खासकर पर्यावरण व ग्रामीण विषयों पर लिखते हैं।
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