
मणिपुर के चुराचांदपुर जिले में जमीन का अधिकांश स्वामित्व और नियंत्रण गांव के मुखियाओं के पास होता है। कुकी-ज़ो समुदाय में यह व्यवस्था और भी गहरी है, जहां पारंपरिक भू-कानूनों के तहत अधिकतर लोग जमीन के व्यक्तिगत अधिकार से वंचित हैं। खेती-बाड़ी और उससे जुड़ी अधिकांश गतिविधियां मुखिया की जमीन पर ही होती हैं और गांवों की बसावटें अमूमन अस्थायी होती हैं।
ऐसे में लोग अक्सर कभी झूम खेती के लिए तो कभी मुखिया की जमीन पर मजदूरी करने के लिए एक गांव से दूसरे गांव की ओर पलायन करते हैं। इस निरंतर बदलाव की वजह से समुदाय के लिए स्थायी आजीविका और आर्थिक स्थिरता हासिल करना बेहद कठिन हो जाता है। इन्हीं चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए, हमने रूरल एड सर्विस (आरएएस) के माध्यम से एक आजीविका पहल की शुरूआत की है। इसका उद्देश्य है कि समुदाय के पास स्थाई आय का एक स्रोत हो। इस पहल में जंगली खाद्य फसलों की खेती को बढ़ावा दिया गया है। यह ऐसी फसलें हैं जिनकी शहरी बाजारों में अधिक मांग भी है और बेहतर दाम भी।
हमने ‘मॉडल प्लॉट’ नामक एकीकृत कृषि प्रणाली की शुरुआत की, जिसे गांव के मुखियाओं की जमीन पर विकसित किया गया। लेकिन ऐसे प्रत्येक प्लॉट की स्थापना आसान नहीं थी क्योंकि जमीन स्वयं मुखियाओं के लिए आय का मुख्य स्रोत होती है। इसलिए हमें उनके साथ संवेदनशील तरह से बातचीत करनी पड़ी। समझौते के तहत मुखियाओं को अपनी नियमित आर्थिक गतिविधियां जारी रखने की स्वतंत्रता है, लेकिन उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे जमीन का एक छोटा हिस्सा इन मॉडल प्लॉट के लिए उपलब्ध कराएं। अभी तक 12 गांवों ने एक-एक एकड़ जमीन आवंटित करने की सहमति जतायी है। यह समझौता 15 वर्षों तक मान्य है, कानूनी रूप से सुरक्षित है और ग्रामीणों के लिए जमीन की सुगम्य पहुंच सुनिश्चित करता है।
इस पहल से लोग खेती में लंबे समय तक निवेश करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं और उनमें जमीन के प्रति स्वामित्व की भावना भी विकसित होती है। ऐसे में उन्हें लगातार गांव दर गांव पलायन नहीं करना पड़ता है, जिससे परिवारों को अपना स्थायी ठिकाना बनाने में भी मदद मिलती है।
प्रत्येक एकड़ के मॉडल प्लॉट में ऐसे फलों और सब्जियों का मिश्रण लगाया जाता है, जिनका पोषण और औषधीय दोनों ही दृष्टि से महत्व है। उदाहरण के तौर पर, पैशन फ्रूट का उपयोग आमतौर पर फल या जूस के रूप में किया जाता है। लेकिन इसकी एक कड़वी पत्ती, जिसे स्थानीय भाषा में खल्थेई चे कहा जाता है, सूअर के मांस (पॉर्क) के व्यंजनों में डाली जाती है और रक्त शर्करा स्तर को कम करने में सहायक मानी जाती है। समुदाय के कई बुजुर्ग अपने बेहतर स्वास्थ्य के लिए नियमित रूप से इन पत्तियों का सेवन करते हैं।
चोनबेह नामक एक अन्य पौधे का फल भी शहरी इलाकों में काफी लोकप्रिय है। इसकी बड़ी पत्तियां इसे मॉडल प्लॉट की चारदीवारी के लिए उपयुक्त बनाती हैं। जब इसे चारों ओर लगाया जाता है, तो यह प्लॉट की स्वाभाविक घेराबंदी का काम करता है और बीच की फसलों तक धूप आसानी से पहुंचने देता है।
कई किसान अब इन जंगली फसलों की कटाई कर उन्हें बाजार में बेचने लगे हैं, जिससे उनकी आय बढ़ रही है। सबसे अहम बात यह है कि उन्हें अब रोजगार की तलाश में अपना गांव छोड़कर पलायन नहीं करना पड़ रहा है। वे उसी जमीन पर रहते हुए अपना गुजारा कर सकते हैं, जिसे उनकी पीढ़ियां घर मानती रही हैं।
पाओहाओलन हाओकिप वर्तमान में रूरल एड सर्विस में परियोजना समन्वयक (प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर) के रूप में कार्यरत हैं।
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