कानपुर, उत्तर प्रदेश के अमरौधा ब्लॉक के अंदरूनी इलाक़ों में परेरापुर गांव पड़ता है। स्थानीय लोगों के मुताबिक़ बीते 30 सालों में गांव और आसपास की कृषि भूमि में ईंट भट्ठों के कारण काफी बदलाव आया है। जिस ज़मीन पर पहले खेती होती थी, वहां से अब ईंट बनाने के लिए मिट्टी निकाली जा रही है। इससे ज़मीन का क्षरण होने लगा है और उपज प्रभावित हो रही है। शुरुआत में कुछ ही भूमि मालिकों ने जमीन की ऊपरी मिट्टी को भट्ठा मालिकों को बेचा था लेकिन अब ये प्रथा बन चुकी है। खासतौर पर उन परिवारों के लिए जिनके आर्थिक हालात खराब हैं, कर्जा चुकाना है या फिर घर में बड़ा खर्चा जैसे शादी है या बीमारी का इलाज होना है।
सतह वाली मिट्टी, भूमि का सबसे उपजाऊ हिस्सा होती है जिसमें पौधों के लिए जरुरी सभी कार्बनिक पदार्थ, पोषक तत्व और सूक्ष्मजीव होते हैं। जब मिट्टी की ऊपरी परतों को हटाया जाता है तो निचले हिस्से की कम उपजाऊ और सघन मिट्टी ऊपर आ जाती है जिससे मिट्टी की गुणवत्ता और उपज घटने लगती है। सीधे तौर पर कहें तो ऊपरी मिट्टी निकलने से मिट्टी की संरचना गड़बड़ा जाती है। इसके चलते मिट्टी में पानी को रोके रखने की क्षमता कम हो जाती है और ज़मीन सूखने लगती है। ऐसा होने से पारंपरिक तरीक़ों से सिंचाई करना मुश्किल हो गया है और पानी की खपत बढ़ गई है। कुल मिलाकर, मिट्टी की ऊपरी परत के ख़त्म हो जाने से समुदाय मुश्किल में पड़ गया है।
परेरापुर की महिला किसान, किरण देवी 1.5 बीघा (या एक तिहाई एकड़) जमीन पर खेती करती थीं, जिससे 14 क्विंटल तक फसल पैदा होती थी। हालांकि, जब से उन्होंने अपने खेतों को पास के ईंट भट्टों के लिए पट्टे पर दिया है, तब से उनकी फसल की पैदावार घटकर सिर्फ 4-6 क्विंटल रह गई है। यहां तक कि बाजरा और गेहूं जैसी फसलें, जो कभी इस इलाके में आम थीं, अब उगाना मुश्किल हो गया है। किरण कहती हैं, “हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था। मुझे अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसों की जरुरत थी पर अब असर दिखाई दे रहा है। जब से भट्टों के लिए मिट्टी ली गई है, तब से जमीन बंजर होने लगी है।”
रमनकांति और उनके परिवार के पास तीन बीघा जमीन है जिसकी मिट्टी उन्होंने छह साल पहले भट्टा मालिकों को पट्टे पर दी थी। उस समय रमनकांति को पति की बीमारी का इलाज करवाना था और बेटी की शादी का खर्च भी था। वे कहती हैं कि पहले इस ज़मीन पर 13-14 क्विंटल मक्का और गेहूं की पैदावार होती थी, लेकिन अब पैदावार पहले की तुलना में आधी से भी कम रह गई है।
खराब होते हालात के बावजूद कुछ आशावादी लोग भी हैं। जैसे गांव के किसान लखन ने 60,000 रुपये प्रति बीघा के हिसाब से मिट्टी दान की। उन्हें उम्मीद है कि ऐसी पहल से किसान फिर से अपनी जमीन पर खेती कर पाएंगे। एक बार जब ऊपरी मिट्टी खत्म होने लगती है तो मिट्टी का निचला हिस्सा ईंट भट्टों के काम का नहीं होता। ऐसे हालात में भट्टे किसी दूसरे क्षेत्र की तलाश कर लेते हैं। लखन जैसे किसानों को उम्मीद है कि एक बार खुदाई बंद हो जाने पर, वे मिट्टी की उर्वरता को बहाल कर सकते हैं। वे कहते हैं कि “अगर हमें अपनी जमीन वापस मिल जाए तो हम गेहूं, चावल और बाजरा बोएंगे।”
अंकिता और गोल्डी उड़ान फेलो हैं। उड़ान फेलोशिप बुनियाद और चंबल अकादमी द्वारा समर्थन प्राप्त हैं। सेजल पटेल ने इस लेख पर शोध और लेखन में योगदान दिया है.
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