स्वास्थ्य सेक्टर में काम करने के दौरान हमने पाया कि भारत के कई हिस्सों में महिलाएं अपने स्वास्थ्य को प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे रखने की आदी हैं। महाराष्ट्र के पुणे ज़िले में स्थित वेल्हे गांव भी इसका कोई अपवाद नहीं है। अक्सर, महिलाओं के स्वास्थ्य पर दिया जाने वाला ध्यान उनके परिवार के रवैये और उनकी अपनी धारणाओं पर निर्भर करता है। आमतौर पर महिलाओं में रोगों से बचाव के लिहाज़ से स्वास्थ्य जांच करवाने की जागरुकता का अभाव भी देखने को मिलता है। वे डॉक्टर से चर्चा के लिए भी स्वास्थ्य को एक निजी मामला मानती हैं। इसके अलावा, उन्हें यह भी लगता है कि जांच और इलाज के बारे में डाक्टर से ज़्यादा सवाल करना ठीक नहीं हैं। उन्हें तो केवल विशेषज्ञों से मिलने वाले सलाह का पालन करना चाहिए।
इसी संदर्भ में, 2018 में, जब हमने महिलाओं के लिए हीमोग्लोबिन (एचबी) स्तर की जांच का अभियान शुरू करने के बारे में सोचा, तब हमारे लिए यह सोच पाना भी असंभव था कि वे अपनी इच्छा से जांच के लिए आगे आएंगी। हमने दिवाली के आसपास अपने इस अभियान को शुरू करने का फ़ैसला किया। महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाक़ों में यह एक महत्वपूर्ण त्योहार है और मानसून की फसल (अक्तूबर महीने के शुरुआत में) की कटाई के साथ आता है। गांवों में, ऐसे त्यौहार आपस में मिलने-जुलने और सामूहिक गतिविधियों के साथ प्रसिद्ध स्थानीय मंदिरों के आसपास सामुदायिक समारोहों या जत्राओं (मेलों) के आयोजन का अवसर बनते हैं। नवरात्रि के दौरान सामाजिक उत्सवों में महिलाओं ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया था इसलिए हम त्यौहारों के दौरान ही महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी जागरूकता के विचार को स्थापित करना चाहते थे। अंत में, इस अभियान की दो उपलब्धियां रहीं – रक्त जांच से जुड़ी सामाजिक रूढ़िवादी सोच को समाप्त करना और वह भी सार्वजनिक स्थलों पर, और नियमित खून की जांच का महत्व बताना।
पहले साल में, ज़्यादातर महिलाएं अपने खून की जांच करवाने की इच्छुक नहीं थीं। इसके कई कारण थे। कुछ महिलाओं को सुई से डर लगता था जबकि कुछ महिलाओं के पास समय नहीं था। उनका हमसे एक ही सवाल होता था कि, ‘त्योहार के शुभ अवसर पर ही क्यों? क्या हम खून की जांच कभी और नहीं करवा सकते हैं?’
चूंकि हम वहां ज्ञान प्रबोधिनी नामक एक ऐसे संगठन के साथ काम कर रहे थे जिसने पहले ही उस क्षेत्र में कुछ अभियान करवाए थे, इसलिए हम स्थानीय स्वयं-सहायता समूह की मदद से एक छोटी सी बैठक आयोजित करवाने में सफल हो पाए। इस बैठक में महिलाओं की कई धारणाओं पर खुलकर चर्चा की गई। स्थानीय आशा कर्मचारी की उपस्थिति, जो कि एक जाना-पहचाना चेहरा था, से भी हमें विश्वास बनाने और संवाद करने में मदद मिली।
रक्त जांच अभियान उस समय चल रही उन कई गतिविधियों – खेल आयोजनों, गीतों और नृत्य प्रतियोगिताओं – के साथ सहजता से मिश्रित हो गया, जिन्हें प्रबोधिनी स्वयंसेवकों द्वारा नवरात्रि मनाने के लिए भी आयोजित किया गया था। इस प्रकार, इस अभियान का स्वरूप केवल स्वास्थ्य से जुड़ा नहीं रह गया और इसमें एक उत्सव की भावना आ गई। इससे महिलाओं में रक्त जांच को लेकर झिझक भी कम हो गई।
आशा कार्यकर्ताओं ने रक्त की जांच की और प्रतिभागियों के सामने ही परिणाम सुनाए। उच्च और ‘अच्छी’ एचबी स्तर (13 से अधिक) वाले लोगों को सम्मानित करने के साथ-साथ एक उपहार भी दिया गया। आठ से कम एचबी स्तर वाले लोगों को सांत्वना दी गई और उनसे कहा गया कि वे उचित दवा के लिए आशा कर्मचारियों से संपर्क करें। इसके अलावा, किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य पर कम एचबी के प्रभाव के बारे में चर्चा की गई जिनमें कृषि कार्य के दौरान कार्यक्षमता में कमी आदि जैसे विषय शामिल थे। साथ ही, उन्हें ऐसे खाद्य पदार्थों के बारे में भी बताया गया जो एचबी स्तर में सुधार कर सकते हैं।
पहले साल में लगभग सौ महिलाएं अपने रक्त परीक्षण के लिए सामने आईं थीं। 2023 में, यह संख्या बढ़कर लगभग तेरह सौ तक पहुंच गई, जो पुणे के दो ब्लॉक- भोर और वेल्हे के 48 गांवों में रहती हैं। कभी वर्जित रहा विषय, स्वास्थ्य अब बातचीत का मुद्दा बन चुका है। कुछ अनजान करने के डर और उससे जुड़ी चिंता ने ‘मुझे पता लगाना चाहिए कि मेरी स्थिति क्या है और मैं इसे ठीक करने के लिए क्या कर सकती हूं।’ जैसी प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया। अब यह इतना लोकप्रिय हो चुका है कि इन गांवों के पुरुषों ने भी अपने रक्त परीक्षण के लिए कहना शुरू कर दिया है।
डॉ अजीत कानिटकर पुणे स्थित एक शोधकर्ता और नीति विश्लेषक हैं। सुवर्णा गोखले ज्ञान प्रबोधिनी के स्त्री शक्ति ग्रामीण विभाग की प्रमुख हैं।
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