क्या जंगलों की वापसी ने बांकुरा में खेती को प्रासंगिक बना दिया है?

Location Iconबांकुरा जिला, ​पश्चिम बंगाल
गुनियादा की पहाड़ियां_जल संरक्षण
पहाड़ आजीविका में हमारी मदद करते हैं और बदले में हम उनकी देखभाल करते हैं। | चित्र साभार: प्रदान

मेरी शादी साल 2002 में हुई जिसके बाद मैं पश्चिम बंगाल के बांकुरा जिले में पड़ने वाले गांव गुनियादा आ गई, तब से मैं यहीं रह रही हूं। यह इलाका कभी घने जंगलों से घिरा था, लेकिन पिछले कुछ सालों में आसपास की पहाड़ियां बंजर हो गई थीं। जब मैं यहां आई, यहां हरियाली का नामोनिशान नहीं रह गया था। हम धान और कुछ अन्य खाने-पीने की चीजें उगाते थे लेकिन इतना भी करना आसान नहीं था। अगर आप ज़मीन की तरफ़ देखेंगे तो आपको मिट्टी से ज़्यादा चट्टानें दिखाई पड़ेंगी। कुछ लोग जिन्होंने पशुपालन करने की कोशिश की, उन्होंने भी हार मान ली और अपनी गायें बेच दीं क्योंकि जानवरों के चरने के लिए मैदान ही नहीं थे। इसका नतीजा यह हुआ कि कई लोग आजीविका के नए मौक़ों की तलाश में गांव से पलायन कर गए।

बांकुरा में भरपूर बारिश होती है लेकिन नंगी पहाड़ियां पानी को सोख नहीं पाती थीं। इससे इलाक़े में पानी की कमी होने लगी क्योंकि हमारे गांवों के पास बहते पानी को रोकने का कोई साधन नहीं था। पंचायत, अन्य सरकारी विभाग, प्रदान जैसी समाजसेवी संस्थाएं और गांव के लोग अक्सर जल संरक्षण के तरीक़ों पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा होते थे। मैंने इन बैठकों में हिस्सा लेना शुरू किया और सीखा कि पानी इकट्ठा करने की व्यवस्था कैसे बनाई जा सकती है। अपने इलाक़े के कुछ लोगों के साथ मिलकर, मैंने संसाधनों का एक मानचित्र (रिसोर्स मैप) तैयार किया जिस पर हमने पानी रुकने वाले क्षेत्रों और उन रास्तों को दिखाया जहां से पानी बहता था। हमने इससे मिले सबक़ को अपने खेतों में आज़माया जिसने हमें इन्हें अपनाने, ग़लतियां करने, सवाल पूछने और आख़िर में सफल होने का मौक़ा दिया। कुछ ही सालों में, मैं चशी बंधु (किसान मित्र) बन गई और अपने समुदाय के लोगों को इन तरीक़ों को अपनाने में मदद करने लगी।

शुरूआत में यह काम आसान नहीं था। हमें पता चला कि कैसे ऊपरी इलाक़ों में वनीकरण, निचले इलाक़ों की मिट्टी की गुणवत्ता को बेहतर बनाता है, जिसमें हम खेती करते हैं। लेकिन अब चुनौती यह थी कि हम लोगों को पेड़ लगाने में उनके संसाधन खर्च करने के लिए कैसे मनाएं? इससे पहले भी इसकी कोशिशें हो चुकी थी लेकिन मिट्टी के कटाव और बंजरपन की वजह से पेड़ ज़्यादा समय तक जीवित कभी नहीं रह सके।

हमने गांव के उन बुजुर्गों की उपस्थिति में लोगों के साथ कई बैठकें कीं जिन्होंने हरी-भरी पहाड़ियों से होने वाले फ़ायदों को देखा था। उनकी मदद से और भी लोग साथ आए। हमने सुनिश्चित किया कि हम अपनी पिछली ग़लतियों को ना दोहराएं। हमने ढलानों पर खाइयां बनाईं जो पानी को सोख लेतीं, इससे हमारे लगाए पौधों को बढ़ने के लिए पानी मिलने लगा। ये खाइयां पानी को नीचे बह जाने से भी रोकती हैं और जो ज़मीन में रिसकर निचले इलाक़े में स्थित हमारे कुओं तक पहुंचने लगा। पानी की अतिरिक्त उपलब्धता हो जाने के बाद हमारे किसान अब तरबूज़, सरसों, दाल वग़ैरह उगा पा रहे हैं। इन फसलों को बेचकर उन्हें कुछ अतिरिक्त आय भी हो जाती है।

समय के साथ, महज़ वृक्षारोपण के रूप में शुरू हुई पहल अब वनीकरण में बदल रही है। ढलानों पर घास उगने लगी है और हमारे मवेशियों को अब चरने की जगह मिल गई है। जैसे-जैसे पेड़ बढ़ते हैं, वे अपने मवेशियों के साथ आने वाले गांव वालों को छाया देते हैं। हमारी पहाड़ियां अब हरी-भरी हो गई हैं। यहां तक कि हमारे जंगल में एक आम का बगीचा भी है। हमारे लोग दोबारा मवेशी पालने लगे हैं और कभी पलायन कर गए लोग भी घर लौटने का विकल्प चुन रहे हैं क्योंकि यहां खेती दोबारा कमाई का व्यावहारिक विकल्प बनने लगी है। हमें पता है कि यह एक लंबी यात्रा है, लेकिन अब हमारे पास एक कारगर व्यवस्था है – पहाड़ देवता आजीविका में हमारी मदद करते हैं और बदले में हम उनकी देखभाल करते हैं।

रिंकू गोप प्रदान में चशी बंधु हैं।

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