मैं उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में रहने वाली एक थारू आदिवासी हूं। थारू आदिवासी इस इलाके में पिछले 300 सालों से रह रहे हैं। हम जंगल की रक्षा करते हैं और अपनी आजीविका के लिए औषधीय जड़ी-बूटियों, जंगली घास और गिरे हुए पेड़ों की लकड़ी जैसे वन संसाधनों का उपयोग करते हैं। लेकिन साल 1977 में दुधवा नेशनल पार्क की स्थापना के बाद से वन विभाग ने जंगल तक हमारी पहुंच को प्रतिबंधित करना शुरू कर दिया।
वन विभाग, हमें जलावनी लकड़ी और पौधे इकट्ठा करने से रोकता हैं और कुछ मौक़ों पर हमला भी कर देता है। वे हमें जंगल के तालाब में मछली भी पकड़ने नहीं देते हैं। जंगल तक पहुंच के बिना, हम भोजन के लिए संघर्ष करेंगे और हमें अपने घरों के लिए जंगली घास और पेड़ के तने जैसी सामग्री नहीं मिल सकेगी।
साल 2009 में, हमारे समुदाय की महिलाओं ने हमारे अधिकारों के लिए लड़ने के लिए थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच का गठन किया। हम लोगों को, उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने के लिए नारे लगाते हैं और विरोध प्रदर्शन करते हैं ताकि वे भी हमारे साथ संघर्ष में शामिल हों।
हम जो नारे लिखते हैं, उन्हें अब हम गीतों में बदल देते हैं। हम पारंपरिक थारू पोशाक पहनते हैं और होरी नृत्य करते हुए गाने गाते हैं। शायद वन विभाग चाहता है कि हम पारंपरिक जीवन जीने के अपने तरीकों को भूल जाएं। लेकिन, हम अपने अधिकारों की लड़ाई में अपनी परंपराओं को शामिल रखते हैं।
निबादा राना थारू आदिवासी महिला मजदूर किसान मंच की उपाध्यक्ष हैं।
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