भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में घरेलू कामगारों के शोषण को लेकर सख्त चिंता जताई है। घरेलू कामगार महिलाओं पर कोई केंद्रीय डेटा उपलब्ध नहीं है। लेकिन नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि देश में घरेलू कामगारों की आबादी में महिलाओं की संख्या कहीं अधिक है। इनमें से बहुतों के लिए यौन उत्पीड़न की घटना उनकी रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा है। सामाजिक संरचना में भी इन महिलाओं को ‘कामगार’ की पहचान नहीं दी जाती, बल्कि घरेलू कामों को उनका दायित्व माना जाता है। घरों में साफ-सफाई से लेकर खाना बनाने जैसे कई कामों की जिम्मेदारी निभाने वाली कामगारों के साथ होने वाली हिंसा जब तक कोई चरम रूप नहीं ले लेती है, तब तक उसे केवल उनकी दिनचर्या की सामान्य घटना मानकर दरकिनार कर दिया जाता है।
अमूमन घरेलू कामगार महिलायें सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए पर होती हैं। इसलिए जब भी उनके साथ काम के दौरान यौन उत्पीड़न की कोई भी घटना होती है, तो उनके मन में यह संशय रहता है कि उसका दोष उन पर ही मढ़ा जाएगा। उन्हें अपने नियोक्ता (एम्प्लॉयर) और समाज द्वारा झूठा करार दिए जाने, चरित्र पर उठने वाले सवालों और नौकरी खोने जैसी तमाम परेशानियां झेलनी पड़ती हैं, जो उन्हें यौन उत्पीड़न की शिकायत करने से रोकती हैं।
प्रवासी पहचान और समर्थन का अभाव
अधिकांश बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों से काम की तलाश में दिल्ली-एनसीआर का रूख करने वाली इन महिलाओं के पास कोई आर्थिक या मानसिक समर्थन नहीं होता, जो उन्हें भावनात्मक सहारा दे सके। प्रवासी होने के कारण इनके पास सामाजिक पूंजी का भी अभाव होता है, जिससे वे घर, कार्यस्थल और पूरे संस्थागत ढांचे में सबसे आखिरी पायदान पर होती हैं।
ऐसे में यह सवाल उठता है कि जब घरेलू कामगार महिलायें अपने कार्यस्थल, यानी दूसरों के घरों में, हिंसा या यौन उत्पीड़न का सामना करती हैं, तो क्या उनके पास अपनी आवाज उठाने और न्याय मांगने के पर्याप्त साधन मौजूद होते हैं? उन्हें कौन सी सामाजिक, कानूनी और संस्थागत बाधाओं से गुजरना पड़ता है?
क्या कहता है कानून?
अगर हम अपने मौजूदा श्रम कानून पर नजर डालें, तो इसे चार कोड में विभाजित किया गया है। लेकिन इनमें से किसी भी श्रेणी के अंतर्गत असंगठित कामगारों की सामाजिक सुरक्षा की बात नहीं की जाती है। उदाहरण के लिए, घरेलू कामगार महिलाओं के लिए अभी भी कानूनी रूप से न्यूनतम वेतन का कोई प्रावधान नहीं है, जिसके कारण वे सालों तक वेतन में नगण्य या बिना किसी बढ़ोतरी के काम करती रहती हैं। ऐसे में उनकी काम पर इतनी अधिक आर्थिक निर्भरता होती है, कि वो अपने साथ होने वाले यौन उत्पीड़न पर कुछ कहने की स्थिति में ही नहीं होती।
पॉश अधिनियम की धारा 6(1) के अंतर्गत घरेलू कामगार महिलाओं की शिकायतों के निवारण के लिए जिला पदाधिकारी द्वारा हर जिले में लोकल कमिटी का गठन किया जाना आवश्यक है
भारत में कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013, जिसे पॉश (पीओएसएच) अधिनियम के रूप में भी जाना जाता है, घरेलू महिला कामगारों के लिए कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की शिकायत करने और न्याय प्राप्त करने का एकमात्र कानूनी साधन है। मुख्य रूप से औपचारिक क्षेत्र को संबोधित करने वाला यह कानून कॉर्पोरेट या संगठित संस्थानों में कार्यरत महिलाओं के लिए मददगार साबित होता है, जहां आंतरिक शिकायत समिति (इंटरनल कंप्लेंट कमिटी) मौजूद होती है।
लेकिन जब यह कानून असंगठित क्षेत्र, विशेषकर घरेलू कामगार महिलाओं पर लागू होता है, तो इसमें कई व्यावहारिक कठिनाइयां सामने आती हैं। चूंकि यह एक सिविल कानून है, इसलिए घरेलू कामगार महिलाओं को अपनी शिकायतें स्थानीय समिति (लोकल कमिटी) के पास दर्ज करानी होती हैं। उनके लिए आंतरिक समिति (आईसी) का प्रावधान नहीं होता, क्योंकि आईसी केवल ऐसे कार्यस्थलों के लिए गठित होती है जहां दस या उससे अधिक कर्मचारी कार्यरत हों। घरेलू कामगारों सहित सभी अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों को यौन उत्पीड़न से संबंधित शिकायतें स्थानीय समिति (एलसी) में ही दर्ज करानी होती हैं।
पॉश अधिनियम की धारा 6(1) के अंतर्गत घरेलू कामगार महिलाओं की शिकायतों के निवारण के लिए जिला पदाधिकारी द्वारा हर जिले में लोकल कमिटी का गठन किया जाना आवश्यक है, ताकि वे आसानी से यौन उत्पीड़न की शिकायत पुलिस में दर्ज करा सकें। इसके अलावा यदि नियोक्ता के खिलाफ सीधी शिकायत हो, तो उसे भी इस समिति में दर्ज कराया जा सकता है।
घरेलू महिला कामगारों के लिए कितना प्रासंगिक है पॉश कानून?
पॉश कानून के अंतर्गत घरेलू कामगार महिलाओं को स्थानीय समितियों में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज करने का अधिकार दिया गया है। स्थानीय समिति यदि किसी शिकायत में पहली नजर (प्राइमा फेसी) में साक्ष्य पाती है, तो उसे उस शिकायत को सात दिनों के भीतर पुलिस को सौंपना होता है, जिसके बाद मामला आपराधिक प्रक्रिया के तहत आगे बढ़ता है।
हालांकि, पॉश अधिनियम में शिकायतकर्ता के लिए बहुत से अन्य प्रावधान भी मौजूद हैं। उदाहरण के लिए, तीन महीनों के भीतर शिकायत का निपटारा, अंतरिम राहत, ‘वर्क-फ्रॉम-होम’ की सुविधा आदि, जो स्पष्ट रूप से एक घरेलू महिला कामगार पर लागू नहीं हो सकते, क्योंकि उनका काम ही दूसरों के घरों में होता है। इन पहलुओं को देखें तो सवाल उठता है कि इस कानून को बनाते समय घरेलू महिला कामगारों को ध्यान में रखा भी गया था या नहीं? यह एक प्रमुख कारण है कि असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाली बहुत सी महिला कामगार अभी भी यौन उत्पीड़न के मामले में समयबद्ध न्याय, सर्वाइवर-आधारित कानूनों और अंतरिम राहत जैसी बातों से कोसों दूर हैं।

धरातल पर कानून की वास्तविकता
कानून बनाना और उसे अमली जामा पहनाना दो अलग बातें हैं, जिनमें बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है:
- स्थानीय समिति (लोकल कमिटी) का गठन: वर्ष 2021 से दिल्ली, फरीदाबाद और गुरुग्राम के 13 जिलों में घरेलू कामगार महिलाओं के साथ उनके अधिकारों और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मुद्दे पर काम कर रही गैर-लाभकारी संस्था मार्था फैरेल फाउंडेशन ने 2017 में एक आरटीआई दायर की थी। इससे खुलासा हुआ कि उस समय तक 655 जिलों में से केवल 191 जिलों में ही स्थानीय समितियों का गठन किया गया था। इसके बाद संस्था द्वारा 2023-24 में फिर से दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में आरटीआई दायर की गयी। इससे पता चला कि जहां दिल्ली में सभी 11 जिलों में स्थानीय समितियां गठित की जा चुकी हैं, वहीं पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अभी इस मुद्दे पर बहुत काम होना बाकी है।
- दूरी तय करना: आमतौर पर स्थानीय समितियां डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के दफ्तर में स्थित होती हैं। काम की जगह से अलग इतनी दूरी तय करने में कामगारों के समय और वेतन का नुकसान होता है, जिससे हतोत्साहित होकर वे समितियों तक पहुंच ही नहीं पाती हैं। वहीं अधिकांश घरेलू कामगार महिलाओं को इन समितियों के बारे में पता ही नहीं होता है।
- नोडल अफसरों की कमी: पॉश कानून के तहत नोडल अधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधान है, लेकिन ये अधिकारी वार्ड स्तर पर उपलब्ध नहीं हैं। अधिकतर मामलों में एसडीएम या कुछ जिलों में तहसीलदार को यह जिम्मेदारी दी गई है, परंतु इनके नाम और संपर्क विवरण सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं। नतीजतन, महिलाएं—विशेषकर अनौपचारिक क्षेत्र की कामगार—शिकायत दर्ज कराने में असमर्थ होती हैं क्योंकि वे यह नहीं जान पातीं कि किससे संपर्क करना है। इस कारण शिकायतों को जिला या स्थानीय समिति तक पहुंचाने की नोडल अधिकारी की जिम्मेदारी प्रभावी रूप से पूरी नहीं हो पाती है।
- गोपनीयता: अगर कामगार समिति तक पहुंच भी जाती हैं, तो भी अमूमन उन्हें यह नहीं पता होता है कि शिकायत कहां दर्ज करानी है। स्थायी दफ्तर न होने के चलते समिति के सदस्य हमेशा वहां उपलब्ध नहीं होते हैं। ऐसे में कई बार कामगारों को काउंटर पर सबके सामने शिकायत जमा करवाने के लिए कहा जाता है, जो सीधे तौर पर उनकी गोपनीयता का हनन है।
सामाजिक स्तर पर समझ विकसित करने के सबक
इन चुनौतियों ने हमारे अंदर यह समझ पैदा की कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से जुड़ी पूरी शिकायत प्रणाली को न केवल अधिक सुलभ बनाना होगा, बल्कि उसमें कामगारों की गरिमा और गोपनीयता का भी विशेष ध्यान रखना होगा। इसके लिए सामाजिक स्तर पर कुछ कदम उठाए जा सकते हैं:
1. जागरूकता की जरूरत: इस लंबी प्रक्रिया में जागरूकता की अहम भूमिका है, जिसके प्रसार के लिए हमने निम्नलिखित में से कुछ उपाय अपनाए हैं:
- कानूनी भाषा का सरलीकरण: कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न जैसे गंभीर मुद्दों पर बात करने की शुरुआत अक्सर भाषा से होती है। हमने अनुभव किया कि पॉश जैसे तकनीकी कानून की जटिल भाषा घरेलू कामगारों के लिए एक बड़ी बाधा बनती है। हालांकि यह कानून हिंदी में उपलब्ध है, लेकिन ‘कार्यस्थल’, ‘शिकायत निवारण’ और ‘यौन उत्पीड़न’ जैसे शब्द उनकी रोजमर्रा की भाषा का हिस्सा नहीं हैं। ऐसे में फाउंडेशन ने कानून को 10 सरल बिंदुओं में ढालकर प्रस्तुत किया, ताकि कामगार महिलाएं न केवल उसे समझ सकें, बल्कि उस से जुड़े सवाल भी उठा सकें। उदाहरण के लिए, जब उन्हें यह बताया गया कि जिस घर में वे रोज काम करती हैं, वह भी उनका कार्यस्थल है, तो उनके लिए यह एक नई बात थी, जिससे उन्हें अपने अधिकारों को पहचानने का एक नया नजरिया मिला।
- रचनात्मक तरीकों का इस्तेमाल: मौखिक या लिखित संवाद की सीमाओं को समझते हुए, हमने वयस्क शिक्षा और सहभागिता आधारित पद्धतियों को अपनाया। इसके अंतर्गत चित्रकला, स्टोरीटेलिंग, नुक्कड़ नाटक और लर्निंग सर्कल जैसे रचनात्मक तरीकों को अपनाया गया। इन विधाओं की मदद से महिलाएं न केवल अपनी बात कहने में सहज होती हैं, बल्कि दूसरों की कहानियों से भी सीखती हैं। उदाहरण के तौर पर, किसी महिला का अनुभव जब नाटक के रूप में मंचित होता है, तो वह केवल एक कहानी न रहकर सामूहिक चेतना का हिस्सा बन जाती है। साथ ही, एनिमेटेड वीडियो और आईईसी (सूचना, शिक्षा और संचार) सामग्री ने भी कानून को जीवंत और सुलभ बनाने में अहम भूमिका निभाई।
- सुरक्षित और सहज माहौल तैयार करना: इन तमाम प्रयासों का सबसे अहम पहलू यह रहा कि महिलाओं के लिए एक ऐसा माहौल तैयार किया जाए, जिसमें वे खुद को सुरक्षित और सहज महसूस करें। इसके लिए बातचीत को केवल जानकारी देने की प्रक्रिया न बनाकर, उसे आपसी विश्वास और समझ का माध्यम बनाया जाना चाहिए। संवाद की यह प्रक्रिया महिलाओं को अपने अनुभव साझा करने, सवाल पूछने और अपनी बात पर टिके रहने का आत्मविश्वास देती है। जैसे-जैसे कानून और अधिकारों को लेकर समझ बढ़ी, वैसे-वैसे महिलाओं की हिस्सेदारी भी गहराई से सामने आने लगी। यह माहौल एक ऐसा मंच बना जहां उनकी आवाज सुनी और समझी जाती है।

2. सामुदायिक नेतृत्व की प्रासंगिकता: घरेलू कामगार महिलाओं के लिए बदलाव की असली शुरुआत तब होती है, जब वे खुद अपनी समस्याओं को पहचान कर, समाधान सोचने और उस पर कार्रवाई करने में सक्षम हो पाती हैं। इसी सिलसिले में सामुदायिक नेतृत्व और उससे जुड़ी चुनौतियों की भूमिका को समझना जरूरी हो जाता है:
- अपनी कहानी, अपनी जुबानी: जब घरेलू कामगार महिलायें अपने अधिकारों, कानूनों, शिकायत प्रणालियों और संस्थागत ढांचे की समझ विकसित कर लेती हैं, तो उनकी आवाज एक सक्रिय नागरिक की आवाज बन जाती है। यही प्रक्रिया उन्हें अपने मुद्दों का प्रतिनिधि बनने का अवसर देती है।
- सामुदायिक लीडर की अग्रणी भूमिका: इस पूरी प्रक्रिया को जमीनी स्तर पर प्रभावी बनाने में सामुदायिक लीडरों की भूमिका बेहद अहम है। उदाहरण के लिए, हमने बहुत सी ऐसी महिलाओं के साथ काम किया, जो स्वयं घरेलू कामगार हैं और समुदाय की अन्य महिलाओं को उनके अधिकारों, कानूनी उपायों और संस्थागत सपोर्ट सिस्टम की जानकारी देती हैं। ‘पहलकार’ नामक इन महिला कामगारों को सहभागी पद्धति से नियमित प्रशिक्षण दिया जाता है, जिसमें वे कानून, एफआईआर की प्रक्रिया और विभिन्न सरकारी विभागों से संवाद की विधियों को सीखती हैं। साथ ही, वे सहभागी तरीकों जैसे सामूहिक विमर्श, खेल और संवाद सत्रों के जरिए समुदाय से जुड़ती हैं। इस तरह वे अपने क्षेत्र में कानूनी साक्षरता और सामाजिक एकजुटता की नींव रखती हैं।
- नेतृत्व की मुश्किलें: जब घरेलू कामगार महिलाएं पहलकार बनती हैं और अपने अधिकारों को लेकर मुखर होती हैं, तो यह नियोक्ताओं को असहज कर सकता है। उन्हें ‘ज्यादा बोलने वाली’ या ‘खतरनाक’ महिला के रूप में देखा जाने लगता है। कई सोसाइटियों में यह भी देखने को मिला कि आरडब्ल्यूए ग्रुप में इन महिलाओं के प्रति शंका और भय का माहौल बनता गया। यह सामाजिक अस्वीकार्यता पहलकारों के लिए मानसिक और व्यावसायिक दोनों स्तरों पर दबाव पैदा करती है। ऐसे में संस्थाओं की जिम्मेदारी है कि वे ऐसे लीडरों को न केवल प्रशिक्षण दें, बल्कि एक ऐसे सहयोगी और संरक्षित माहौल की भी व्यवस्था करें, जिससे वे बिना भय के अपने काम जारी रख सकें।
3. प्रशासनिक चुनौतियां: देश के विभिन्न राज्यों और जिलों में हुए संवादों के दौरान घरेलू कामगार महिलाओं ने अपनी जमीनी हकीकत के आधार पर पॉश कानून की समीक्षा की है। इस कड़ी में उन्होंने न केवल इसकी व्यावहारिक चुनौतियों की पहचान की है, बल्कि जमीनी स्तर पर इसके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए कुछ ठोस सुझाव भी सामने रखे हैं। यदि जिला प्रशासन, स्थानीय समितियां और पुलिस विभाग समन्वय के साथ अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करें, तो पॉश कानून का प्रभाव और अधिक व्यापक और असरदार तरीके से जमीनी स्तर तक पहुंच सकता है। इसके लिए कुछ बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है:
- सरकारी निकायों में खाली पदों पर भर्तियां: पॉश कानून के क्रियान्वयन में स्थानीय समितियों और नोडल अधिकारियों की भूमिका अहम है, लेकिन कई जगह ये पद लंबे समय तक खाली पड़े रहते हैं। इससे शिकायत निवारण की प्रक्रिया धीमी और असंगठित हो जाती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी शिकायत को आगे बढ़ाने वाला नोडल अफसर ही मौजूद नहीं है, तो कामगार महिलाओं को अधिकार मिलने की प्रक्रिया अधूरी रह जाती है। इस स्थिति को बदलने के लिए जरूरी है कि इन पदों की समयबद्ध और पारदर्शी नियुक्ति सुनिश्चित की जाए, ताकि संस्थागत ढांचा मजबूत हो सके।
- प्रशासन की जवाबदेही: सुप्रीम कोर्ट द्वारा इनिशिएटिव फॉर इंक्लूजन फाउंडेशन बनाम भारत सरकार (2023) मामले में दिए गए निर्देशों के अनुसार, जिला अधिकारी, स्थानीय समितियों और नोडल अधिकारियों को पॉश कानून से जुड़ी जिम्मेदारियों के संबंध में विधिवत प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, प्रत्येक वार्ड में एक नोडल अधिकारी की नियुक्ति होनी चाहिए, जो किसी भी घरेलू कामगार महिला की शिकायत को स्थानीय समिति तक पहुंचाने में मदद कर सके। जिला अधिकारी को यह जिम्मेदारी दी जानी चाहिए कि वह इस व्यवस्था को प्रभावी बनाए।
- जन-जागरूकता अभियान: जिला प्रशासन को नियमित रूप से जन-जागरूकता अभियान चलाने चाहिए। नुक्कड़ नाटक, दीवार-चित्र, वन-स्टॉप सेंटर, बस और मेट्रो स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर घरेलू कामगारों और नियोक्ताओं को यौन उत्पीड़न और शिकायत निवारण से जुड़ी जानकारी दी जानी चाहिए। इसके साथ ही तमाम स्थानीय अधिकारियों और पुलिस को भी घरेलू कामगार महिलाओं के प्रति संवेदनशील रवैया अपनाने के लिए जागरूक किया जाना चाहिए।
देश में बड़ी संख्या में घरेलू कामगार महिलायें कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न का शिकार होती हैं, लेकिन ऐसे अधिकतर मामले सामने नहीं आ पाते हैं। इस मुद्दे पर कानूनी साक्षरता और सामाजिक जागरूकता, दोनों की समान जरूरत है। इनके बिना न तो प्रशासनिक सुधार संभव हैं और न ही सामुदायिक एकजुटता।
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