भारत में घुमंतू और अधिसूचित जनजातियों (एनटी-डीएनटी) को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम के तहत गलत तरीके से ‘अपराधी’ के श्रेणी में वर्गीकृत कर दिया गया था। हालांकि 1952 में इस अधिनियम को समाप्त कर दिया गया था, लेकिन घुमंतू और भूमिहीन होने के कारण इन समुदायों के साथ आज भी भेदभाव किया जाता है।
साल 2008 में, ‘अधिसूचित, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजाति राष्ट्रीय आयोग’ का अनुमान था कि भारत में इन जनजातियों की आबादी 10 -12 करोड़ है जो देश की कुल आबादी का लगभग 10 फ़ीसद है। इसके बाद भी सरकार द्वारा की गई जनगणना में इन्हें शामिल नहीं किया जाता है। इनमें से अधिकतर के पास अपने नाम से कोई भी ज़मीन नहीं है जिससे ये लोग विभिन्न सामाजिक कल्याण योजनाओं के अन्तर्गत मिलने वाले लाभ से वंचित रह जाते हैं।
आमतौर पर सार्वजनिक सुविधाओं की योजना प्रणालियों में एनटी-डीएनटी समुदाय के लोगों की ज़रूरतों को ध्यान में नहीं रखा जाता है। लगातार एक से दूसरी जगह जाते रहने के कारण इन समुदायों की ज़रूरतें भी अलग होती हैं। वे आमतौर पर कच्चे टेंट हाउस या पक्के किराए के कमरों में रहते हैं और पानी, स्वच्छता और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ता है। वे अपना कच्चा टेंट हाउस किसी भी ख़ाली उपलब्ध ज़मीन पर खड़ा कर लेते हैं। उनके भीतर शौचालय नहीं हो सकते हैं, नतीजतन उन्हें में खुले में शौच जाना पड़ता है या शुल्क वाले या सामूहिक शौचालयों का विकल्प चुनना पड़ता है।
एनटी-डीएनटी समुदाय के लोगों की स्वच्छता को सामने लाने के क्रम में, अनुभूति ट्रस्ट ने महाराष्ट्र के ठाणे जिले में एनटी-डीएनटी समुदाय के लिए उपलब्ध स्वच्छता सुविधाओं का ऑडिट करवाया था। अनुभूति ट्रस्ट पिछड़े समुदायों के लोगों के अधिकारों की पहचान के लिए काम करने वाली एक समाजसेवी संस्था है। ऑडिट के हमारे परिणामों के आधार पर, हमने ‘टेंट के लिए शौचालय’ नाम की अपनी रिपोर्ट में कुछ सुझावों की एक सूची तैयार की। संकल्पना से लेकर कार्यान्वयन तक की पूरी प्रक्रिया का नेतृत्व एनटी-डीएनटी और बहुजन समुदायों के युवाओं और महिलाओं ने किया। ये परिणाम ठाणे के 22 इलाकों, 14 बस्तियों (झुग्गी झोपड़ियों) और 6 नगर निगमों में रहने वाले 11 एनटी-डीएनटी समुदायों के 209 व्यक्तियों के साथ किए गए साक्षात्कारों से प्राप्त हुए हैं। इस प्रक्रिया में 28 शौचालय का ऑडिट किया गया था जिसमें 20 सामूहिक और आठ सशुल्क शौचालय थे। इस लेख में दोनों तरह के शौचालय की स्थिति की जानकारी दी गई है। जहां सशुल्क शौचालयों में बेहतर सुविधाएं उपलब्ध थीं वहीं पैसों के कारण एनटी-डीएनटी समुदायों के लोग इन शौचालयों की सुविधा उठाने में सक्षम नहीं थे।
रिपोर्ट के कुछ मुख्य परिणाम और सुझाव यहां दिये गए हैं।
1. घुमंतू और विमुक्त जनजातियां और उनका व्यवहार
सर्वेक्षणों में भाग लेने वाले प्रतिभागियों में से 58.8 फ़ीसद कच्चे टेंट हाउस में रहने वाले लोग और बाक़ी किराए के पक्के कमरों में रहते थे। ये समुदाय साल भर बसने के लिए एक से दूसरी जगह की यात्रा करते रहते हैं। हालांकि, इनके पास इस यात्रा की एक तय योजना होती है और वे प्रत्येक साल एक निश्चित समय के लिए तय या आसपास की जगहों पर रुकते हैं। वर्तमान में, स्वच्छता सेवाओं के प्रावधान की योजना बनाते समय एनटी-डीएनटी श्रेणी में आने वाली आबादी को ना तो गिना ही जाता है और न ही उस पर विचार ही किया जाता है। इसलिए, प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण है कि वह इनके प्रवासी पैटर्न को पहचाने (जो कि काम के अवसरों पर आधारित होता है), उनकी आधिकारिक गिनती करे और उस अनुसार उन्हें स्वच्छता सुविधाएं प्रदान करें। इनका निर्माण किया जा सकता है या फिर उन स्थानों पर मोबाइल शौचालयों की सुविधा प्रदान की जा सकती है जहां ये परिवार अपने तंबू लगाते हैं।
ऑडिट इस तरह से किया गया था – इस प्रक्रिया का नेतृत्व करने वाले समुदाय के सदस्यों ने परिवार के रहने वाले स्थानों का पता लगाने के लिए समुदाय के नेताओं की मदद ली। सर्वेक्षण में शामिल 14 बस्तियों के बाईस इलाकों में लगभग 6880 परिवार रहते थे, लेकिन इस आंकड़े को कहीं भी दर्ज नहीं किया गया है।
2. सरकारी योजनाओं में एनटी–डीएनटी को शामिल करना
कुछ सामाजिक कल्याण योजनाओं का लाभ उठाने के लिए परिवारों को घर या जमीन के मालिकाना हक़ का प्रमाण देने की आवश्यकता होती है। इसका एक अच्छा उदाहरण स्वच्छ भारत मिशन है, जिसका लक्ष्य सभी ग्रामीण परिवारों को शौचालय की सुविधा प्रदान करके 2019 तक भारत को खुले में शौच से मुक्त बनाना है। हालांकि, ऐसी योजनाओं में घुमंतू आबादी को बाहर रखा जाता है और साथ ही बिना ज़मीन या स्थायी घर वाले बेघर लोगों के लिए भी इसमें किसी तरह का प्रावधान नहीं है। सर्वेक्षण से यह बात स्पष्ट है क्योंकि एनटी-डीएनटी समुदाय के दस में से आठ सदस्यों के घरों में शौचालय नहीं था।
ये वे समुदाय हैं जो गांवों और शहरों के निर्माण, सफाई और रखरखाव की आवश्यक सेवाएं प्रदान करते हैं। लेकिन उन्हें बुनियादी सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता है। उन्हें सशुल्क सार्वजनिक शौचालयों का उपयोग करना पड़ता है या खुले में शौच करने के लिए मजबूर किया जाता है। यह स्थिति उनकी गरिमा, गोपनीयता और सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करती है। इसलिए, यह और भी महत्वपूर्ण है कि एनटी-डीएनटी समुदायों को आवास और भूमि के आवंटन और सामाजिक कल्याण योजनाओं में उनके सक्रिय समावेश के लिए प्रावधान किए जाएं।
3. बेहतर शौचालयों का निर्माण और मौजूदा शौचालयों की स्थिति में सुधार
सर्वेक्षण में शामिल 74 फ़ीसद लोगों ने बताया कि जिस क्षेत्र में वे रहते हैं, वहां उनके आसपास सार्वजनिक शौचालय तो हैं, लेकिन ये उनके घरों से बहुत दूर हैं क्योंकि वे बस्तियों के बाहरी इलाके में रहते हैं। अस्सी फ़ीसद ने कहा कि उन्हें खुले में शौच करना पड़ता है। इसके कई कारणों में से एक यह है कि जब वे सार्वजनिक शौचालयों के उपयोग की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अटेंडेंट और सुरक्षा गार्ड का दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है।
कुछ शौचालयों में बेसिन और कूड़ेदान जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं थीं; 10 शौचालयों में से केवल चार में खिड़की थी। जहां 67.8 शौचालय चौबीसों घंटे खुले रहते थे (बाक़ी के शौचालय रात में बंद हो जाते थे), वहीं सफ़ाई की समस्याओं और समुदाय के सदस्यों द्वारा किए जाने वाले भेदभाव के कारण उनका इस्तेमाल करना मुश्किल था। सर्वेक्षण में भाग लेने वाले 88 लोगों ने यह बताया कि उनके घर के आसपास के शौचालयों में रौशनी नहीं थी। 16 शौचालय में नियमित पानी भी नहीं आता था वहीं उनमें से छह में पानी की व्यवस्था थी लेकिन उन्हें रात में बंद कर दिया जाता था। यही कारण था कि 62.3 फ़ीसद प्रतिभागियों ने कहा कि उनके पास रात के समय खुले में शौच के अलावा अन्य विकल्प नहीं है।
मौजूदा शौचालयों में दी जाने वाली बुनियादी सुविधाओं में तुरंत सुधार किया जाना चाहिए और एनटी-डीएनटी बस्तियों के पास नए शौचालय बनाए जाने चाहिए। सर्वेक्षण में शामिल 78 फ़ीसद उत्तरदाताओं का कहना था कि उनके क्षेत्र के नगर निगम या नगरपरिषद के अधिकारियों ने कभी भी सार्वजनिक शौचालयों का निरीक्षण नहीं किया। नए शौचालय सार्वजनिक और निशुल्क, सरकारी स्वामित्व वाले होने चाहिए और उनका नियमित रूप से निरीक्षण किया जाना चाहिए।
4. महिलाओं और ट्रांसपर्सन के लिए शौचालयों को सुरक्षित बनाएं
महिलाओं एवं ट्रांसपर्सन ने असुरक्षा की शिकायत दर्ज करवाई है – गंदे और रौशनी की कमी के अलावा कुछ शौचालयों में कुंडी या यहां तक कि दरवाज़े तक नहीं थे। इन परिस्थितियों ने उन्हें खुले में शौच का विकल्प चुनने के लिए बाध्य कर दिया। लेकिन आसपास खड़े सुरक्षा गार्ड उन पर चिल्लाते हैं और महिलाओं और ट्रांसपर्सन को पुरुषों के शोषण का शिकार होना पड़ता है।
सर्वेक्षण में यह भी सामने आया कि दस में छह शौचालयों में कोई भी अटेंडेंट नहीं था। महिलाओं और ट्रांसपर्सन की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सभी शौचालयों में अटेंडेंट तैनात किए जाने चाहिए और उनकी जरूरतों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। उत्पीड़न को रोकने के लिए शौचालयों के आसपास सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने चाहिए। पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग शौचालय और प्रत्येक क्षेत्र में कम से कम एक जेंडर न्यूट्रल शौचालय बनाया जाना चाहिए ताकि ट्रांसपर्सन भी इन सुविधाओं का उपयोग आराम से कर सकें।
5. विकलांग लोगों के लिए शौचालयों को सुलभ बनाएं
ऑडिट किए गए 28 शौचालयों में से केवल एक में सपोर्ट रेलिंग थी। विकलांग लोगों के लिए किसी भी प्रकार की अन्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं। उनके लिए जो एक शौचालय बनाया गया था, वह ढह गया था और उसका रास्ता चट्टानों और मलबे से भर गया था। ये स्वच्छता सुविधाएं केवल तभी सुलभ हो सकती हैं जब प्रत्येक शौचालय में एक रैंप, सपोर्ट रेलिंग, उचित ऊंचाई पर बेसिन और विकलांगों के लिए कम से कम एक अलग शौचालय हो।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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