हमारे देश में हजारों छोटे-बड़े जन संगठन मौजूद हैं जो जनता के मुद्दों पर लगातार संघर्ष कर रहे हैं। यहां जन-संगठन से अर्थ उन संस्थानों से है जो समुदायों के साथ सीधे जमीन पर काम कर रहे हैं। इन्हें समाजसेवी संस्थाओं या एनजीओ से अलग देखे जाने की जरूरत है।
पारंपरिक संस्थाओं से अलग जन संगठनों में से ज्यादातर का कोई औपचारिक ढांचा नहीं होता है। यहां तक कि इनमें कार्यकर्ताओं की मासिक आमदनी की कोई तय व्यवस्था भी नहीं होती है। ये मूलरूप से, समुदाय के लोगों द्वारा अपने मुद्दों को लेकर खुद ही संघर्ष किए जाने के विचार के साथ काम करते हैं। इस तरह जन संगठनों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि कैसे वे अपने जमीनी प्रयासों को जारी रखते हुए, अपने कार्यकर्ताओं के दैनिक जीवन की जरूरतें भी पूरी कर सकें।
1. संगठन समुदाय की जरूरत है, किसी एक व्यक्ति की नहीं
बनारस की मनरेगा मजदूर यूनियन के प्रमुख, सुरेश राठौड़ बताते हैं कि जनता के काम में उसकी भागीदारी तय करना जरूरी है। हमारा प्रयास होता है कि जनता के काम के लिए जनता से ही पैसा जुटाया जाए। इसे और समझाते हुए महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में कार्यरत सर्वहारा जन आंदोलन की प्रमुख उल्का महाजन कहती हैं, “हमें ध्यान रखना चाहिए कि अगर हम कोई संगठन बना रहे हैं तो वह समुदाय की जरूरत होनी चाहिए, किसी एक व्यक्ति या कुछ संगठन कार्यकर्ताओं भर की नहीं। संगठन के शुरुआती दिनों में ही हमने तय कर लिया था कि हम किसी प्रोग्राम के लिए फंडिंग नहीं लेंगे और संगठन की आर्थिक जरूरतों को सदस्यता शुल्क और व्यक्तिगत सहयोग से ही पूरा किया जाएगा।” वे आगे बताती हैं कि शुरुआत में लोगों को बताना पड़ा कि संगठन के काम के लिए आर्थिक सहयोग की जरूरत होती है, लेकिन अब समय के साथ लोग समझ गए हैं और सदस्यता राशि या किसी कार्यक्रम के लिए चंदा जमा करने में वह खुद ही सहयोग करते हैं।
झारखंड के लातेहार जिले में आदिवासी समुदाय के अधिकारों और नेतरहाट फील्ड फाइरिंग रेंज (जहां सेना अपने हथियारों और विस्फोटकों का अभ्यास करती है) के खिलाफ संघर्ष कर रहे संगठन केंद्रीय जन संघर्ष समिति के प्रमुख जेरोम कुजूर बताते हैं कि “हमारा प्रयास होता है कि संगठन के कार्यक्रम कम से कम खर्च में हों, इसलिए समुदाय की भागीदारी तय करना जरूरी है। इसके लिए हमें जिस भी रूप में सहयोग मिलता है, हम लेते हैं।” वे कहते हैं “फील्ड फायरिंग रेंज के आंदोलन के दौरान जब कार्यक्रम होते थे तो लोग अपना राशन खुद लेकर आते थे। हफ्ते भर तक चलने वाले इन कार्यक्रमों में लोग न केवल मिल-जुल कर अपना खाना खुद ही बनाते थे बल्कि आने-जाने की व्यवस्था भी करते थे।”
2. समुदाय में क्षमता निर्माण
संगठन में लोगों की सीधी भागीदारी उसे संख्या के आधार पर विशाल रूप तो देती है, लेकिन वंचित समुदायों से 10 रुपये से लेकर 50 रुपये तक की सालाना सदस्यता राशि और चंदे आदि से मिलने वाला आर्थिक सहयोग सीमित ही होता है। ऐसे में संगठन के काम को मजबूत करने के लिए समुदाय का क्षमता निर्माण महत्वपूर्ण है। समुदाय से नजदीकी रिश्ता संगठनों को कुछ ऐसे कौशल पहचाने में मदद कर सकता है, जिनके लिए पैसे देकर कहीं अन्य जगह से सहयोग लेना पड़ता है। जैसे संगठन के सदस्यों को जीपीएस मैपिंग, गांव का नजरी नक्शा बनाना, वन अधिकार दावा फॉर्म भरना आदि जैसे कौशलों में प्रशिक्षित किया जा सकता है।
युवा शिविर जैसे संगठन के कार्यक्रमों में क्षमता निर्माण की ऐसी कार्यशालाओं को शामिल किया जा सकता है या इन्हें संगठन की जरूरत के अनुसार अलग से भी आयोजित किया जा सकता है। संगठन के अन्य कार्यक्रमों में भी जानकारी-पूर्ण विशेष सत्र आयोजित करना भी इसका एक तरीका हो सकता है।
एक उदाहरण देते हुए उल्का महाजन कहती हैं, “हमारे काम के दौरान भू अधिकार सहित कई मामलों में न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना होता है। ऐसे में हम समुदाय के लोगों को कोर्ट की जिरह-बहस के लिए तैयार करते हैं ताकि समुदाय और संगठन के न्यायिक प्रक्रिया का खर्च कम किया जा सके। साथ ही, इससे लोगों में आत्मविश्वास भी आता है और संगठन का भी समुदाय से रिश्ता मजबूत होता है।”
3. समुदाय के साथ मूल्य निर्माण के लगातार प्रयास
किसी राजनीतिक पार्टी की मीटिंग में जाना, संगठन के किसी कार्यक्रम में जाने से किस तरह अलग है यह समुदाय के लोग तभी समझ पाएंगे जब उनके बीच समानता, न्याय, और सामाजिक सद्भाव आदि जैसे मूल्यों पर काम होगा। उल्का महाजन बताती हैं, “हमारे लगातार संवाद से लोग अब समझ पाए हैं कि संगठन के कार्यक्रम उन्हीं के अधिकारों के लिए हैं, उसकी व्यवस्था भी उन्हीं को करनी होगी। संगठन के हर कार्यक्रम में ये बात रखी जाती है कि संगठन को बनाने और चलाने की प्रक्रिया में सभी को सहयोग करना है।“
उल्का आगे जोड़ती हैं कि “संगठन से जुड़े कई लोग जो संगठन के काम को समझते हैं, जन्मदिन या खुशी के किसी मौके पर कोई जलसा करने या दावत देने की बजाय संगठन को कुछ सहयोग राशि देते हैं। कुछ लोग किसी परिजन या प्रियजन की मृत्यु हो जाने पर उनकी याद में भी सहयोग राशि देते हैं। ऐसा तभी संभव है जब लोग संगठन के काम के साथ-साथ सामाजिक मुद्दों पर काम किए जाने की अहमियत को भी समझ पाएं।” इसे और समझाते हुए उल्का कहती हैं, “हमने तय किया था कि हम किसी को गोद में उठाकर नहीं चलेंगे। अगर पैरों में ताकत नहीं है तो हम आपसी सहयोग से ताकत बढ़ाने की बात करेंगे।”
जेरोम कुजूर बताते हैं कि फील्ड फायरिंग रेंज के संघर्ष के लिए आर्थिक सहयोग जुटाने के लिए संगठन ने प्रभावित इलाके के सभी परिवारों को एक यूनिट माना। इसमें आदिवासी और गैर-आदिवासी सभी शामिल हैं। साथ ही, अन्य राज्यों में रहने वाले प्रवासी लोगों से भी हमने सहयोग मांगा। हमने उनसे कहा कि अगर आप यहां आंदोलन में शामिल नहीं हो सकते तो आर्थिक सहयोग तो कर ही सकते हैं। उनके परिवार के लोगों ने भी उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया।
4. संगठन के आर्थिक फैसलों में समुदाय की भूमिका तय करना
संगठन के काम में समुदाय की सक्रिय भागीदारी, आपसी विश्वास का एक रिश्ता कायम करती है। यह किसी संगठन के लिए आर्थिक सहयोग जुटाने के लिहाज से महत्वपूर्ण है। जेरोम कुजूर अपने संगठन की संरचना समझाते हुए बताते हैं कि मैम्बरशिप और चंदे से जो भी पैसा इकट्ठा होता है, उसे एक तय अनुपात में ग्राम समिति, क्षेत्रीय समिति और केंद्रीय समिति में बांट दिया जाता है। हर स्तर पर होने वाले कार्यक्रम की योजना बनाने में इन समितियों की मुख्य भूमिका होती है, जो विभिन्न स्तरों पर समुदाय का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस तरह हम अपने कार्यक्रमों में लोगों की सहभागिता तय कर पाते है।
तीनों ही संगठनों से चर्चा में यह सामने आया कि तय समय पर (सालाना, छमाही और तिमाही) संगठन की बैठकें होती हैं जिनमें संगठन ने कितना पैसा जमा किया और उसके खर्च की जानकारी दी जाती है। साथ ही, आगामी कार्यक्रमों की योजनाओं पर भी चर्चा की जाती है। इस तरह समुदाय के लोग इन पर अपने विचार और सुझाव साझा कर पाते हैं और संगठन के काम की पारदर्शिता और समुदाय से मिलने वाले आर्थिक सहयोग की जवाबदेही भी तय हो पाती है।
5. जन संगठनों और सिविल सोसाइटी नेटवर्क से जुड़ना
उल्का महाजन बताती हैं कि संगठन के कार्यक्रमों के लिए समुदाय से ही आर्थिक सहयोग लिया जाता है लेकिन कार्यकर्ताओं के मानदेय के लिए हम कुछ स्थानीय संस्थाओं से मदद लेते हैं। जैसे महाराष्ट्र में ‘सामाजिक कृतज्ञता निधि’ नाम के एक ग्रुप से हम सहयोग लेते हैं। इसमें देश और राज्य के ऐसे लोग शामिल हैं जो साहित्य, कला, लेखन, फिल्म आदि जैसे रचनात्मक क्षेत्रों से जुड़े हैं, सामाजिक बदलाव के लिए अपना जीवन लगा देने वाले लोगों को यह समूह सहयोग करता है। इसी तरह दिल्ली की एक संस्था श्रुति से भी हमारे कुछ कार्यकर्ताओं को फेलोशिप मिलती है। ऐसे समूह और संस्थाएं विभिन्न संगठनों को एक मंच पर लेकर आती हैं और आपसी रिश्ते और नेटवर्क बनाने का मौका देती हैं।
आज के दौर में तकनीक का लाभ उठाते हुए बड़े स्तर पर जन संगठन आपस में जुड़ रहे हैं और ऐसे अलायंस और नेटवर्क बना पा रहे हैं जो कई राज्यों में फैले हैं। यह नेटवर्क जमीनी अनुभवों से मिले ज्ञान का बड़ा स्रोत हैं जो किसी संगठन को सफलतापूर्वक चलाने के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध करा सकते हैं। इनसे समान विचार रखने वाले ऐसे लोगों और संगठनों से संपर्क बन पाता है, जिनसे आर्थिक सहयोग भी पाया जा सकता है।
इस तरह के नेटवर्क से जुड़ने का एक अन्य फायदा यह भी है कि किसी एक संगठन के लोगों को दूसरे इलाके में अपने जैसा काम करने वाले किसी अन्य संगठन से बातचीत करने या उनके यहां जाने का अवसर भी मिलता है। जेरोम बताते हैं कि ऐसे ही एक नेटवर्क के कारण उनके संगठन के लोगों को जम्मू कश्मीर की तोशा मैदान फील्ड फायरिंग रेंज का संघर्ष कर रहे संगठन के क्षेत्र में जाने, उनके काम को देखने और उनसे सीखने का मौका मिल पाया। हमारे रहने-खाने और संगठन के कार्यक्षेत्र में आने-जाने की व्यवस्था भी कश्मीर के ही उस संगठन ने की थी और इस तरह बहुत कम खर्च में हम उनके काम के बारे में सीख पाए।
मौजूदा समय की चुनौतियां
उदारीकरण के बाद सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाली समाजसेवी संस्थाओं की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है। पहले जिन समस्याओं के लिए लोग संगठन के पास जाया करते थे, अब कई संस्थाएं उन पर काम कर रही हैं जिनके पास संगठनों की तुलना में कहीं अधिक संसाधन हैं। उदाहरण के लिए पंचायत या ब्लॉक स्तर पर कोई दस्तावेज जैसे कोई पहचान पत्र या राशन कार्ड आदि बनवाना संगठन के लोग किया करते हैं, लेकिन अब कई संस्थाएं भी यह काम करती हैं और इसके लिए वे जनता से कोई चंदा भी नहीं लेती हैं। इस तरह संगठनों के लिए अब लोगों से जुड़ाव बरकरार रख पाना बड़ी चुनौती बनता जा रहा है।
सुरेश राठौड़ कहते हैं, “इन बदलती परिस्थितियों के कारण बहुत से जन-संगठन भी संस्थागत सहयोग पर निर्भर होते जा रहे हैं जो कि चिंता की बात है। एनजीओ अक्सर तय लक्ष्यों के साथ एक तय अवधि के लिए प्रोजेक्ट के आधार पर काम कर रहे होते हैं। जैसे ही प्रोजेक्ट पूरा हो जाता है उनसे मिलने वाला आर्थिक सहयोग भी बंद हो जाता है और उन पर निर्भर संगठन के बंद होने की संभावनाएं बढ़ जाती है।” संगठन के लिए जनता से आर्थिक सहयोग जुटाने में आने वाली चुनौतियों पर आगे बात करते हुए सुरेश कहते हैं कि “पिछले कुछ सालों से देश में विभाजनकारी सोच को भी बढ़ावा मिला है, इस कारण विभिन्न समुदायों को संगठित करना मुश्किल होता जा रहा है।”
समाजसेवी संस्थाओं के बढ़ते प्रभाव को उल्का महाजन भी एक बड़ी चुनौती के रूप में देखती हैं। वे बताती हैं कि इन संस्थाओं के पास आर्थिक संसाधन तो होते हैं, लेकिन प्रोजेक्ट के आधार पर काम करने से बदलाव को नापकर देखने का एक नजरिया बनता जा रहा है। ऐसे में बदलाव के लिए लगातार प्रयास करने की प्रक्रिया को सहयोग मुश्किल से मिल पाता है। साथ ही, वंचित समुदायों से आने वाले युवा जो अपने समुदाय के लिए कुछ करने की इच्छा से संगठन से जुड़ते हैं, उन्हें भी अच्छे वेतन पर ये समाजसेवी संस्थाएं अपने यहां काम दे देती हैं। इस तरह जो युवा वैचारिक रूप से संगठन के उद्देश्यों को लेकर समर्पित हैं वे तो संगठन से जुड़ते हैं, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर पैसों की जरूरत के कारण युवा इन समाजसेवी संस्थाओं की तरफ ज्यादा आकर्षित होते हैं।
इन तमाम चुनौतियों के बाद भी सर्वहारा जन आंदोलन, मनरेगा मजदूर यूनियन और केंद्रीय जन संघर्ष समिति जैसे संगठन हाशिये के समुदायों के अधिकारों के लिए आवाज उठा रहे हैं। बदलते समय के अनुसार नए तरीके अपनाना इन संगठनों की सफलता की एक मुख्य वजह भी है। उल्का महाजन बताती हैं कि सामाजिक क्षेत्र में पढ़ाई करने वाले युवा और शोध करने वाले विद्यार्थी भी संगठन का काम समझने के लिए आते हैं और अपनी इच्छा से आर्थिक सहयोग भी देते हैं। इस तरह के प्रयास युवाओं को सामाजिक बदलाव के क्षेत्र में अनुभव देने के साथ आने वाली नई साझेदारियों की नींव डालते हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है समुदाय से लगातार रिश्ता बनाए रखना, समुदाय को यदि संगठन की अहमियत समझ आएगी तो वह स्वयं ही उसे टिकाए रखने के प्रयास करेगा।
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