October 19, 2022

छोटे और पिछड़े किसानों के लिए खेती को सहज बनाना

स्वयं शिक्षण प्रयोग और प्रदान जैसे संगठन यह दिखा रहे हैं कि लगातार आसान और नए उपाय अपनाकर छोटी जोत वाली खेती को व्यावहारिक बनाया जा सकता है।
9 मिनट लंबा लेख

भारत की 43 फ़ीसदी आबादी के लिए आजीविका का मुख्य स्त्रोत कृषि है और इसने साल 2020–21 में देश की कुल जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में 18.8 फ़ीसदी का योगदान दिया है। इसे संभव बनाने वाले लगभग 85 प्रतिशत किसान परिवार, ऐसे छोटे या सीमांत किसान हैं जिनके पास दो हेक्टेयर से कम ज़मीन है। वास्तव में, औसत जोत प्रति परिवार केवल 0.5 हेक्टेयर है। ज़मीन के इन छोटे टुकड़ों को अक्सर खेती के लिए अव्यावहारिक माना जाता है और यह समझा जाता है कि इतनी जमीन अपने मालिकों को स्थाई आजीविका देने में सक्षम नहीं होती है। उन इलाक़ों में इस स्थिति के और भी गम्भीर होने की संभावना है जहां जल संरक्षण एक मुद्दा हो।

उत्तर-पश्चिम महाराष्ट्र का मराठवाड़ा इलाक़ा ऐसा ही एक उदाहरण है। यह एक सूखा-प्रभावित इलाक़ा है जहां पानी का उपलब्ध ना होना एक व्यापक स्तर की समस्या है और इसी के चलते यहां की ज़मीन को समुदाय के सदस्यों और नीति निर्माताओं द्वारा अव्यावहारिक कह कर ख़ारिज कर दिया जाता है। इस स्थिति का नतीजा  खाद्य असुरक्षा, पलायन और कर्ज के ढ़ेर के रूप में देखने को मिलता है। उधर देश के पूर्वी इलाक़ों जैसे पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ राज्यों में घने जंगल होने के कारण, अनियमित रूप से ही सही लेकिन बहुत अधिक बारिश होती है। इन क्षेत्रों में भी जल संरक्षण एक मुद्दा है क्योंकि असमतल भौगोलिक स्थिति होने के कारण पानी का बहाव तेज होता है।

इन भौगोलिक क्षेत्रों के अलग-अलग होने के बावजूद, दोनों ही जगहों पर छोटे किसानों को एक जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन इलाक़ों में जब जल संरक्षण सुनिश्चित करने के प्रयास किए गए तो जल आपूर्ति में सुधार लाने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है। जलवायु संकट के कारण होने वाली अनियमित वर्षा, जल भंडारण के लिए बुनियादी ढांचे (जैसे बांध और खेत के तालाब) के निर्माण और रखरखाव में आने वाला खर्च और समुदायों द्वारा पानी का दुरुपयोग किया जाना, कुछ ऐसे कारण हैं जो इस दृष्टिकोण को सीमित कर देते है।

दो संगठन रास्ता दिखा रहे हैं

स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) एक ऐसा स्वयंसेवी संगठन है जो 1993 से मराठवाड़ा क्षेत्र में महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए काम कर रहा है। यह संगठन लातूर भूकम्प के विनाशकारी प्रभावों से निपटने में समुदाय की मदद के उद्देश्य से बनाया गया था। 

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एसएसपी के कार्यक्रम निदेशक उपमन्यु पाटिल बताते हैं कि “हम पिछले तीन दशकों से महिलाओं के साथ कई और बारीक स्तरों पर काम कर रहे हैं। हम उन्हें उद्यमिता में प्रशिक्षित करने और सामुदायिक स्तर पर फ़ैसले लेने में योग्य बनाने पर काम कर रहे हैं। 2013–14 में जब हमने अनगिनत किसानों को आत्महत्या करते देखा तो हमने फ़ैसला किया कि अब कृषि के क्षेत्र में काम करने का समय आ गया है। इसके लिए हमने प्रारम्भिक अध्ययन किए। इन अध्ययनों में हमने पाया कि लोग ऐसी नक़दी फसलों की खेती करते हैं जिनमें बहुत अधिक लागत की ज़रूरत होती है। और, कम या अधिक बारिश, कर्ज की बढ़ती राशि और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के आने से स्थिति बिगड़ जाती है। ऐसे में उनके पास ना नक़द होता है और ना ही भोजन।”

देश के पूर्वी इलाके की कहानी इससे थोड़ी अलग भले ही है लेकिन उसके नतीजे मराठवाड़ा जैसे ही हैं। पश्चिम बंगाल के 72 पश्चिमांचल उन्नयन पार्षद प्रखंडों/ब्लॉकों में भौगोलिक स्थितियों और वर्षा आधारित फसलों पर निर्भरता ने समुदाय को एक फसल वाली खेती के लिए प्रेरित किया। यह एक आदिवासी बहुल इलाक़ा है और शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, आय और उत्पादकता के मामले में अत्यधिक गरीब भी। यहां के कई लोग अपने परिवार को एक समय का भोजन देने में भी सक्षम नहीं थे और पलायन कर पश्चिम बंगाल के अन्य इलाक़ों और यहां तक कि राज्य से बाहर भी जा रहे थे।

प्रदान पिछले तीन दशकों से भारत के मध्य और पूर्वी इलाक़ों में आजीविका के क्षेत्र में काम करने वाला एक स्वयंसेवी संगठन है। इसने झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में सामुदायिक भागीदारी मॉडल के माध्यम से महिलाओं के साथ जुड़ने का काम किया है। इसके बाद से ही इन क्षेत्रों की महिलाओं की आय, आत्मविश्वास और फ़ैसले लेने की उनकी क्षमता में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला है। जब प्रदान ने पश्चिम बंगाल में काम करना शुरू किया तब वे महिलाओं के साथ किए गए काम से मिलने वाले अनुभवों को आगे लेकर गए।

प्रदान के पश्चिम बंगाल इकाई के इंटिग्रेटर अलक जना का कहना है कि “हमने इस क्षेत्र में विकास की चुनौतियों और आदिवासी समुदाय के सामने आने वाली समस्याओं के बारे में जानने में समय लगाया। समय के साथ हमने उन्हें महिला समूहों के विभिन्न रूपों में संगठित करने में सक्षम बनाया। साथ ही, उनके लिए पंचायती राज संस्थानों, सरकारी प्रशासन, बैंकों और बाजारों सहित कई हितधारकों के साथ जोड़ने के तरीक़े और रास्ते बनाए। संक्षेप में कहा जाए तो यहां हम एक उत्प्रेरक और सूत्रधार की भूमिका निभा रहे थे।”

कैमरे की तरफ़ पीठ की हुई एक महिला खेत में खड़े होकर अपने हाथ में सिंचाई वाली एक पाइप पकड़े हुए _खेती किसान
पानी की कमी से निपटने के लिए भौगोलिक और पारम्परिक तरीक़ों का स्थानीय ज्ञान बहुत महत्वपूर्ण होता है। | चित्र साभार: आईडबल्यूएमआईसीसी बीवाई

छोटी जोत वाली खेती को बदलना: उन्होंने यह कैसे किया

1. महिलाओं को एकत्रित करना

सबसे पहला काम छोटे और कम जोत वाले किसान परिवारों की महिलाओं को स्व-सहायता समूहों में संगठित करना था। अलक ने आगे बताया कि “हम लोगों ने उनकी ज़रूरतों, उनके सामने आने वाली समस्याओं को समझने और उनके पास उपलब्ध संसाधनों के बारे में जानने के लिए उनसे बातचीत की। और, यह काम हमने सहभागी प्रक्रियाओं का उपयोग करते हुए किया। हमने आजीविका के उन अवसरों के बारे में भी पता लगाया जिन पर काम करके ये महिलाएं अपनी आय, पोषण और भोजन की जरूरतों को पूरा कर सकती थीं।” 

“हमने उन परिवारों को चिन्हित करना शुरू किया जिनके पास साल भर का भोजन नहीं था, जहां कुपोषण का स्तर बहुत उंचाई पर पहुंच चुका था और जिनकी आय बहुत कम थी। लेकिन फिर भी अपने और अपने बच्चों के लिए उनकी आकांक्षाएं बहुत उंची थीं।”

प्रदान के टीम कोर्डिनेटर रितेश पांडे के अनुसार “ज्ञान ताक़त है और जब महिलाएं अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे पोषण, आजीविका और स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारी के साथ-साथ बाज़ारों, बैंकों और सरकारी योजनाओं तक पहुंचने के लिए कौशल विकसित कर लेती हैं। तब यह ज्ञान ही उनकी क्षमताओं को बढ़ाता है और उन्हें कई चुनौतियों का समाधान करने में मदद करता है। वे उनका सामना करती हैं।”

2. परंपरा और विज्ञान के संयोजन का उपयोग करना

शुरुआत में इस क्षेत्र में खेती के इतिहास और उत्पत्ति को समझने के लिए महिलाओं को अपने गांवों में बुजुर्गों के साथ बातचीत करनी थी। भौगोलिक स्थिति और पारंपरिक प्रथाओं का स्थानीय ज्ञान महत्वपूर्ण है। इस ज्ञान का अधिकांश हिस्सा, जैसे कि क्या उगाना है, मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार कैसे करना है, और पानी की कमी से निपटने के लिए क्या किया जा सकता है, स्थानीय लोगों के दिमाग में रहता है।

अलक बताते हैं कि प्रदान ने महिला किसानों को आधुनिक बाज़ारों के लिए पारंपरिक प्रथाओं को अपनाने और बाज़ार के मुताबिक उन्हें नई तरह से ढालने में मदद की। उदाहरण के लिए उन्होंने इन इलाक़ों में पारंपरिक रूप से उगाए जाने वाली चावल की क़िस्मों को लगाना शुरू किया। “अगर सही तरीक़ा अपनाया जाए तो चावल की इन क़िस्मों की फसल भी मुख्यधारा के धान जितनी ही उत्पादक होती है। इसके बाद चुनौती यह थी कि इन किस्मों का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने के लिए मदद की जाए और इसके लिए कुछ तरीक़ों में सुधार किया जाए। बजाय इसके कि इन्हें बस कम मात्रा में होने वाले कुछ चुनिंदा उत्पादों की तरह देखा जाए।”

प्रदान और एसएसपी दोनों ने ही इसमें वैज्ञानिक समझ के पहलू को भी शामिल करने का काम किया। उन्होंने अपने किसानों को कृषि विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के प्रमुख वैज्ञानिकों से जोड़ा। ये वैज्ञानिक इन महिला किसानों से बात करते थे, उनके खेतों का मुआयना करते थे और फिर अपने सुझाव देते थे। “हमने विश्विद्यालयों के साथ साझेदारी की कि वे अपने कुछ प्रदर्शनों को विश्वविद्यालय की प्रयोगशालाओं में करने की बजाय किसानों के खेतों में करें। खुद करके सीखने से महिलाओं का आत्मविश्वास बढ़ाने में मदद मिली। उदाहरण के लिए बिधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर महिला किसानों के खेत पर जाते थे और मिट्टी की नमी मापने के लिए वहीं अपना यंत्र लगाते थे। इसके बाद परिणाम के मुताबिक अपने सुझाव देते कि कौन सी फसल किस मौसम में पैदा होगी,” रितेश बताते हैं।

प्रदान के मदद से किए गए विभिन्न सहयोगों और वैज्ञानिकों की सिफारिशों के कारण, पानी की अधिकता वाले धान से धीरे-धीरे उन फसलों के उत्पादन में बदलाव आया है जिन्हें खुले बाजारों में बेचा जा सकता है। मराठवाड़ा के मामले में, एसएसपी ने किसानों को अधिक पानी की खपत वाली नकदी फसलों से दूर पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य फसलों जैसे दाल, फल और सब्जियों की ओर बढ़ने में मदद की है।

3. समझना कि ज्यादा निवेश बेहतर नतीजों की गारंटी नहीं है

देशभर में ज़्यादातर किसानों की आम समझ यही है कि अधिक उत्पादन के लिए अधिक निवेश जैसे अधिक पानी, अधिक उर्वरक आदि की ज़रूरत होती है। लेकिन एसएसपी और प्रदान दोनों ने यह दिखा दिया कि बेहतर इनपुट प्रबंधन से बेहतर उत्पादकता प्राप्त की जा सकती है।

कम पानी की ज़रूरत और पत्तियों और वर्मीकम्पोस्ट जैसे जैव पदार्थों के उपयोग से की जाने वाली जैव कृषि से खेती में आने वाले खर्चे में कमी आती है।

महिला किसानों द्वारा अपनाई गई कई तकनीकों ने उनके खेतों में पानी की खपत को कम करने में मदद की है। इसका एक उदाहरण जैविक खेती है। इसमें सड़ी-गली पत्तियां और वर्मीकम्पोस्ट जैसे जैव अपशिष्टों का उपयोग होता है जो स्थानीय रूप से आसानी से उपलब्ध होते हैं और इससे उत्पादन लागत में भी कमी आती है। ऐसी ही एक अन्य तकनीक ड्रिप स्प्रिंकलर का उपयोग है जो पौधों की जड़ों को धीमी गति से (2–20 लीटर प्रति घंटे) पानी की थोड़ी मात्रा पहुंचाती है। इसने मराठवाड़ा में अच्छा काम किया है जहां एसएसपी महिलाओं को प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना जैसी योजनाओं तक पहुंचाने में मदद कर सका है। इस योजना के तहत किसानों को स्प्रिंकलर की लागत पर सब्सिडी मिलती है। इन तकनीकों को अपनाने से जल भराव वाली सिंचाई के पुराने तरीके की तुलना में कम पानी खपत होता है। साथ ही, यह मराठवाड़ा जैसे सूखा प्रभावित क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण बदलाव साबित हुआ है।

इन तकनीकों का प्रभाव स्पष्ट है। पिछले तीन सालों में मराठवाड़ा में अच्छी बारिश हुई है और वहां का जल स्तर भी चार इंच बढ़ा है। इसके साथ ही, इस क्षेत्र में किसान आत्महत्या दर में गिरावट देखी गई है।

4. फसलों में विविधता लाना और कई फसलें हासिल करना

दोनों क्षेत्रों की महिला किसानों ने एकल-फसल को छोड़कर बहु-फसल मॉडल को अपना लिया है। अलक बताते हैं कि आमतौर पर खरीफ फसल के मौसम के अंत में, 85–90 प्रतिशत भूमि परती (ख़ाली) रहती थी। “अब, अपने नए हासिल ज्ञान के आधार पर महिलाओं ने खरीफ के दौरान कम अवधि की धान की किस्मों की खेती की खोज कर ली है ताकि मिट्टी में कुछ नमी बरकरार रहे। यह दृष्टिकोण सुनिश्चित करता है कि कम पानी की आवश्यकता वाली फसलें जैसे दालें, तिलहन या सब्ज़ियों जैसी दूसरी फसलों (जिसमें मिट्टी को केवल हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है) के लिए मिट्टी में नमी की पर्याप्त मात्रा उपस्थित रहे। कुछ किसान एक ही भूमि का उपयोग साल की तीसरी फसल के लिए भी करते हैं – उदाहरण के लिए वे लता वाली फसलें उगाते हैं जिनमें कम पानी लगता है और गर्मी के महीनों में इनसे भोजन और नकदी प्राप्ति होती है।”

वास्तव में, महिलाएं लगातार अपनी फसल के विकल्पों, निवेश के तरीकों और जल प्रबंधन के जरिए खाद्य सुरक्षा, पोषण और आय को अधिकतम करने के उपायों के बारे में सोच रही हैं – यह एक ऐसी बात है जो कुछ साल पहले इन क्षेत्रों में नहीं सुनी गई थी।

परिणाम दिखने लगे हैं

अलक के अनुसार “जब बात इस क्षेत्र के धान की आती है तब यहां की पारंपरिक उत्पादन क्षमता 1.9–2 मेट्रिक टन प्रति हेक्टेयर थी। कृषि के बेहतर तरीक़ों को अपनाने के बाद यह मात्रा बढ़कर 3.5–4 मेट्रिक टन प्रति हेक्टेयर हो गई है। इससे महिलाओं के आत्मविश्वास का स्तर और उनकी फसलों की उत्पादकता दोनों बढ़ी है। साथ ही खाद्य पदार्थों की पर्याप्त मात्रा सुनिश्चित हुई है और लोगों की आमदनी में वृद्धि हुई है।जल सुरक्षा में हुई वृद्धि के अन्य सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिलने लगे हैं। 2014–15 में संबोधि द्वारा किए गए अध्ययन से यह बात सामने आई कि पश्चिम बंगाल के ऊपरी इलाक़ों में पलायन दर अन्य क्षेत्रों की तुलना में 50 फ़ीसदी अधिक थी। चार साल बाद यह घट कर 30 फ़ीसदी हो गई। अब इस क्षेत्र को संकट प्रवास के उच्च दर वाले क्षेत्र के रूप में नहीं देखा जाता है।

खाद्य फसलों की खेती से खाद्य सुरक्षा में वृद्धि हुई है और महिलाओं के परिवारों के स्वास्थ्य में सुधार हुआ है।

उपमन्यु ने हमें बताया कि मराठवाड़ा में भी ऐसे ही परिणाम देखने को मिले हैं। खाद्य फसलों को उपजाने से खाद्य सुरक्षा में बढ़त हुई है और यह महिलाओं के परिवारों के स्वास्थ्य में आए सुधार में भी सहायक हुआ है। इसके चलते महिलाओं की आय बढ़ी है और उनके अधिकार क्षेत्र में भी विस्तार आया है। समाज और पर्यावरण के स्तर पर इन तरीक़ों के इस्तेमाल से पानी की मांग में कमी आई है और मिट्टी की गुणवत्ता भी बेहतर हुई है। ये दोनों ही बातें जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले दबावों से निपटने के लिए महत्वपूर्ण हैं जिनका किसान हर दिन सामना कर रहे हैं।

सरकार ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई

एसएसपी और प्रदान दोनों ही इन नई तकनीकों और तरीकों के प्रति सरकार की बढ़ती ग्रहणशीलता के बारे में बात करते हैं। अलक कहते हैं कि “हम केवल पंचायतों और ग्रामीण विकास विभागों से ही नहीं बल्कि कृषि, बागवानी और जल संसाधन जांच और विकास विभागों से भी मिल रहे हैं। अब वे अपने कार्यक्रमों में प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन और बेहतर बागवानी के तरीकों को अपना रहे हैं।”

उपमन्यु जैविक खेती पर केंद्र के साथ-साथ महाराष्ट्र सरकार द्वारा बढ़ाई गई तवज्जो की बात करते हैं। वे कहते  हैं कि  “हमने महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना पर काम किया जिसका फंड केंद्र सरकार से मिलता है। सरकार चाहती है कि महिलाएं किसानों के तौर पर पहचानी जाएं और इसके साथ ही वह खाद्य फसल और जैविक खेती को प्राथमिकता देने की इच्छुक है। इसलिए इस काम के लिए बड़ा बजट आवंटित किया गया है। हमारा काम यह सुनिश्चित करना है कि महिलाएं इसमें शामिल हों और ये योजनाओं उन तक पहुंचें।

हालांकि प्रदान और एसएसपी कई दशकों से अपने क्षेत्रों में महिलाओं के साथ काम कर रहे हैं, लेकिन यह सफलता के लिए पहले से मौजूद शर्त नहीं है। उपमन्यु बताते हैं कि कैसे इस मॉडल से उन नए इलाकों में भी जबरदस्त सफलता देखने को मिली है जिनमें उन्होंने हाल ही में विस्तार किया है। ये ऐसे जिले हैं जहां एसएसपी की पहले से कोई उपस्थिति नहीं थी – जैसे औरंगाबाद, अहमदनगर और वाशिम। दरअसल, इन जिलों में ये मॉडल सीधे सरकार के पास गए हैं। “इन तीनों ज़िलों के समुदायों में हमारी किसी भी तरह की उपस्थिति नहीं है, इसलिए इन गांवों में हम सरकार के फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण दे रहे हैं।” उपमन्यु ने भविष्यवाणी की है कि खरीफ फसल के इस पहले मौसम में ही वे औरंगाबाद और नगर के दो जिलों में लगभग 20,000 किसानों तक पहुंचेंगे।

एसएसपी और प्रदान दोनों ने ही यह दिखाया है कि लगातार सरल और नए तरीकों को अपनाकर छोटी जोत वाली खेती को व्यावहारिक बनाना संभव है। इसमें महिलाओं को एकत्रित करने, सिंचाई के लिए प्रौद्योगिकी के उपयोग या फसल पैटर्न में बदलाव करने जैसे काम शामिल हैं। इस समाधान की प्रकृति यूनीवर्सल (सार्वभौमिक) है इसलिए इसे लागू करना और इसकी नक़ल पर काम करना आसान है। 

समीकरण के मांग पक्ष पर ध्यान केंद्रित करके, छोटी जोत वाली महिला किसानों ने दिखाया है कि वे पहले अपर्याप्त या बंजर मानी जा चुकी जमीन पर खेती कर सकती हैं। साथ ही, ये महिलाएं यह भी सुनिश्चित करती हैं कि उनके परिवार का पेट भरा हो और स्वास्थ्य अच्छा रहे। फिर भले उनके पास बाज़ार में बेचने के लिए अतिरिक्त अनाज हो या न हो। ऐसा करते हुए वे भारत में छोटी जोत वाली खेती के परिदृश्य को बदल रही हैं।

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लेखक के बारे में
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स्मरिनीता शेट्टी

स्मरिनीता शेट्टी आईडीआर की सह-संस्थापक और सीईओ हैं। इसके पहले, स्मरिनीता ने दसरा, मॉनिटर इंक्लूसिव मार्केट्स (अब एफ़एसजी), जेपी मॉर्गन और इकनॉमिक टाइम्स के साथ काम किया है। उन्होनें नेटस्क्राइब्स – भारत की पहली नॉलेज प्रोसेस आउटसोर्सिंग संस्था – की स्थापना भी की है। स्मरिनीता ने मुंबई विश्वविद्यालय से कम्प्युटर इंजीनियरिंग में बीई और वित्त में एमबीए की पढ़ाई की है।

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स्नेहा फिलिप

स्नेहा फिलिप आईडीआर में कंटेंट डेवलपमेंट और क्यूरेशन का नेतृत्व करती हैं। आईडीआर से पहले, उन्होंने स्वास्थ्य, स्वच्छता, लिंग और रणनीतिक परोपकार जैसे मुद्दों पर अनुसंधान और परिश्रम वर्टिकल में दसरा और एडेलगिव फाउंडेशन में काम किया। स्नेहा ने आईसेक (दुनिया के सबसे बड़े युवा-संचालित गैर-लाभकारी संगठन) में भी काम किया, और बुडापेस्ट, हंगरी में एक भाषा प्रशिक्षण कंपनी की संस्थापक सदस्य थीं। उन्होंने इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज, ससेक्स विश्वविद्यालय से विकास अध्ययन में एमए और सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुंबई से अर्थशास्त्र में बीए किया है।

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