भारत ने साल 2023 को अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष की तरह मनाए जाने के संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का नेतृत्व किया था। यह छोटे बीज वाली उन घासों से संबंधित था जिनकी देश में सदियों से खेती और खपत की जाती रही है। ये कठोर, पोषण से भरपूर अनाज, पानी की खपत कम करते हैं और इन्हें रासायनिक खादों-कीटनाशकों की ज़रूरत नहीं होती है। साथ ही, ये अत्यधिक गर्मी और सूखे का सामना कर सकते हैं इसलिए लगातार गर्म होती इस दुनिया में भोजन और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के ज़रूरी साधन बन जाते हैं। मोटे अनाजों (मिलेट्स) का उत्पादन बढ़ाने की अनगिनत और प्रमाणिक वजहें हैं। लेकिन मजबूत लग रही सरकारी नीतियों और नेक इरादों के बावजूद, कई महत्वपूर्ण चुनौतियां रास्ते में दिखती हैं।
पूरे देश में इससे जुड़ी परिस्थितियां अलग-अलग हैं, फिर भी पिछले कुछ दशकों में एक सामान्य रुझान कुछ इस तरह का रहा है: कई ग्रामीण समुदाय मोटे अनाजों की खेती से हटकर चावल (धान) की ओर बढ़ रहे हैं और इनमें ज्यादातर हाइब्रिड बीजों का उपयोग कर रहे हैं। अर्थ फोकस फाउंडेशन के साथ काम करते हुए हमने मध्य प्रदेश में कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के आसपास गोंड और बैगा आदिवासी समुदायों को यह करते हुए देखा है। इस बदलाव की वजह बहुत हद तक, धान की खेती के लिए शुरू से अंत तक दी जाने वाली सुविधाओं की एक व्यवस्था है, जो 1960 के दशक में हरित क्रांति के दौरान बनाई गई थी। दुर्भाग्य से इसने मोटे अनाजों को असुविधाजनक और अनचाहा बना दिया।
हालांकि हाइब्रिड बीज और सिंथेटिक उर्वरक जैसी चीजों के कारण धान की खेती करना अधिक महंगा है, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के जरिए इसकी बिक्री की गारंटी मिलती है। लेकिन, कुछ राज्यों को छोड़ दें तो कम लागत के बावजूद मोटे अनाजों की बिक्री को सुनिश्चित करने के लिए कोई बाज़ार नहीं हैं। धान जैसी हाइब्रिड फसलों के बावजूद भी अगले साल के बीज नहीं मिलता है और हर साल इन्हें ख़रीदना पड़ता है लेकिन मोटे अनाजों के साथ ऐसा नहीं है।
चावल की तुलना में, मोटे अनाजों को उगाने में अधिक श्रम लगता है लेकिन सामुदायिक प्रयास की ज़रूरत कम होती है। अगर धान की फसल की बात करें तो कई परिवार मिलकर इसकी खेती करते हैं, वे इसकी बुआई और कटाई मिलकर करते हैं, जबकि मोटे अनाजों की फसल आमतौर पर एक ही परिवार द्वारा उगाई जाती है।
सावंती बाई का उदाहरण लेते हैं, जो कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के प्रवेश द्वार के पास स्थित गांव, मुक्की में अपने पति के साथ रहती हैं। उनकी बेटियां शादी के बाद चली गईं हैं, इसलिए वे अपनी उपज – कोदो और कुटकी बाजरा – खुद ही इकट्ठा करती हैं। हर दिन, सुबह से लेकर रात होने तक, वे हाथ में हंसिया लेकर बैठती हैं, इन घासों को काटती है और छोटे बंडलों में बांधती है।
इसके अलावा, फ़िलहाल मोटे अनाजों की कटाई के लिए किसानों के पास कोई विशेष उपकरण उपलब्ध नहीं हैं। जब चावल के लिए डिज़ाइन की गई मशीनरी से कटाई की जाती है तो कोदो और कुटकी जैसे छोटे अनाज – जो घास की तरह हल्के होते हैं – टूट जाते हैं और उन्हें नुक़सान होता है। ऐसे में सावंती बाई जैसे किसानों के पास हंसिया लेकर हाथ से कटाई करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। यह बताता है कि कम लागत वाले और मोटे अनाजों के लिए ऐसे ख़ास कृषि उपकरण विकसित किए जाने की ज़रूरत है जो इस फसल में लगने वाली मेहनत को कम कर सकते हैं।
कुछ मामलों में, धान के लिए इस्तेमाल की जा रही मौजूदा मशीनरी में मामूली बदलाव लाना भी मोटे अनाजों की उपज को आसान बना सकता है। उदाहरण के लिए, धान के थ्रेशर (जो डंठल को अनाज से अलग करता है) में थोड़ा बदलाव कर मोटे अनाज के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।
मोटे अनाजों के मामले में प्रोसेसिंग एक चुनौती हो सकता है। ख़ासतौर पर छोटे अनाजों (माइनर मिलेट्स) जैसे कोदो और कुटकी के लिए जिनमें प्रमुख मोटे अनाजों (मेजर मिलेट्स) जैसे ज्वार, बाजरा, और रागी की तुलना में प्रोसेसिंग के अतिरिक्त चरण होते हैं। इन्हें हाथ से करना बोझिल हो सकता है और यह ज़िम्मेदारी आमतौर पर महिलाओं पर ही आती है।
अधिकांश प्रोसेसिंग केंद्र बड़े पैमाने पर चलने वाले केंद्र हैं और विभिन्न इलाक़ों में उगाए गए अनाजों को बिचौलियों से ख़रीदते हैं और फिर उन्हें शहरी उपभोक्ताओं तक पहुंचाते हैं। उदाहरण के लिए, कान्हा के आसपास उगाए जाने वाले अधिकांश मिलेट्स को बिचौलियों द्वारा लगभग 20 रुपये प्रति किलो पर खरीदा जाता है और बाजरा- प्रोसेसिंग केंद्र नासिक भेजा जाता है। स्थानीय बुनियादी ढांचे की कमी से कठिन परिश्रम बढ़ता है और किसानों की कमाई की संभावना सीमित हो जाती है।
एक समाधान को जांचने के लिए, हमने अर्थ फोकस परिसर में छोटे अनाजों के लिए एक छोटी प्रोसेसिंग इकाई स्थापित की है। हमने पाया कि अधिकांश परिवार अपने उपभोग के लिए अनाज का प्रोसेसिंग करते हैं। इसके अलावा, कुछ घर जो स्थानीय पर्यटक रिसॉर्ट्स से जुड़े हुए हैं, वे 150 रुपये प्रति किलो तक की ऊंची कीमतें प्राप्त कर पाते हैं। राष्ट्रीय उद्यान में पर्यटकों की भारी संख्या के कारण क्षेत्र में ऐसे कई रिसॉर्ट हैं, और वे स्थानीय किसानों के लिए एक प्रमुख बाजार के रूप में काम करते हैं।
इसके साथ ही, स्थानीय व्यवसायों को और विकसित करने की भी संभावना भी दिखती है क्योंकि पीसने से पहले अनाजों को धोना, साफ करना और सुखाना आवश्यक है। आटा चक्की की तरह छोटे पैमाने की मिलों को स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) या किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) द्वारा संचालित स्थानीय व्यवसायों के रूप में भी चलाया जा सकता है।
ऐसे मामलों में जहां मोटे अनाज के बिचौलिए शामिल नहीं होते हैं, प्रोसेसिंग हमेशा अनाज के भंडारण, पैकेजिंग और वितरण के बाद किया जाता है। आमतौर पर, समुदाय मोटे अनाजों की फसल को मिट्टी के बर्तनों में रखते हैं और उन्हें कपड़े से बांध देते हैं। वे अनाज बग़ैर संसाधित किए रखते हैं क्यों कोदो में नमी लगने का ख़तरा होता है जिससे फंगस मायकोटॉक्सिन बनता है। ये मायकोटॉक्सिन उल्टी, चक्कर आना और बेहोशी जैसे कई लक्षणों का कारण बन सकते हैं। इसीलिए कुछ किसानों का मानना है कि बारिश के बाद कोदो ज़हरीला हो जाता है। लेकिन इससे जुड़े कुछ स्थानीय उपाय भी हैं जैसे मोटे अनाजों को गुड़ के साथ सुरक्षित करना (शायद नमी सोखने के लिए) या विषैलेपन की जांच के लिए पहले थोड़ा सा पशुओं को खिलाना।
इस प्रकार के मसले, खाद्य सुरक्षा के तरीक़ों को मिलेट वैल्यू चेन के विकेंद्रीकरण में महत्वपूर्ण बनाते हैं। अगर मोटे अनाजों को उनके उत्पादन और उसके आसपास के इलाक़ों से दूर बेचा जाना है तो उसे ख़राब होने से बचाने के लिए कुछ कारगर प्रक्रियाओं को स्थापित किया जाना ज़रूरी है ताकि नकारात्मक सार्वजनिक प्रतिक्रिया से बचा जा सके। उदाहरण के लिए, उचित भंडारण और पैकेजिंग से यह सुनिश्चित होता है कि नमी अनाज के भीतर ना जाए और फ़ंगस को रोका जा सके। भंडारण प्रबंधन (माल लाने, भंडारण और बेचने की व्यवस्था) भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे पता चलता है कि किस बैच में गड़बड़ है और किसे वापस लिया जाना या नष्ट किया जाना चाहिए।
इन मानदंडों के लागू होने से, मिलेट वैल्यू चेन में ग्रामीण उद्यमों के विकसित होने के मौक़े बनेंगे। उदाहरण के लिए, पड़ोसी जिले मंडला में नर्मदा सेल्फ-रिलायंट फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड ने 2023 में एक मिलेट प्रोसेसिंग इकाई स्थापित की। यह एफपीसी, रिलायंस फाउंडेशन द्वारा समर्थित और ज़्यादातर आदिवासी किसानों से जुड़ी है। यह शहरी बाज़ार में स्थापित ब्रांड्स को प्रोसेस्ड मिलेट बेचती है।
मोटे अनाज में ग्रामीण आजीविका और खाद्य सुरक्षा की मांग को पूरा करने की बड़ी संभावना दिखती है। लेकिन इसके क्षमता आज़माने के लिए, इन्हें व्यापक इकोसिस्टम का सहयोग देने की ज़रूरत है। अगर हम भारत-भर के भोजन में दोबारा मोटे अनाजों को शामिल कराना चाहते हैं तो हमें वैल्यू चेन में दिखाई पड़ रहे इन मुद्दों को हल करने की ज़रूरत है। ख़ासतौर पर, फसल उपजाने और उसके प्रोसेसिंग से जुड़े विषयों को। हमें स्थानीय स्तर पर इन्हें प्रोसेस, स्टोर, टेस्ट और पैकेज करने की क्षमता और इंफ़्रास्ट्रक्चर बनाने की ज़रूरत है ताकि इनका उत्पादन और वितरण आसान बन सके। संक्षेप में, हमें मोटे अनाजों को लेकर ठीक वैसा ही सहयोगी इंफ़्रास्ट्रक्चर बनाने की ज़रूरत है, जैसा 1960 में गेहूं और चावल को लेकर बनाया गया था। इस बार, ऐसा करते हुए हमारा उद्देश्य खाद्य सुरक्षा से आगे बढ़कर पोषण और जलवायु सहज बनाना होना चाहिए।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
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