अगर पुरुष लैंगिक भेदभाव जैसी समस्या का हिस्सा हैं तो वे इसके समाधान में भी शामिल हो सकते हैं

हाल के वर्षों में यह स्पष्ट हो चुका है कि सिर्फ़ महिलाओं के सशक्तिकरण से ही लैंगिक समानता नहीं लाई जा सकती है। महिलाओं के शिक्षा स्तर और शादी के समय उनकी उम्र सरीखे विभिन्न विकास संकेतकों में सुधार के बावजूद, ऐसे कई क्षेत्र रह गए हैं जिनमें सुधार की बहुत ज़रूरत है। तेज़ी से अब यह माना जाने लगा है कि गहराई तक जड़ जमा चुके भेदभावपूर्ण लैंगिक मानदंडों पर संवाद शुरू करने के लिए पुरुषों, खासतौर पर लड़कों के साथ काम करना अधिक कारगर होता है। स्कूलों के भीतर और बाहर, छोटे लड़कों से संबंधित कई कार्यक्रम भारत भर में शुरू किए गए हैं। लैंगिक समानता हासिल करने के लिए कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में भी कई कार्यक्रम शुरू किए गए हैं। परिवार नियोजन और मांओं के स्वास्थ्य कार्यक्रमों में, अब बच्चों के पिताओं को भी शामिल किया जाने लगा है। महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा पर बात करने के साथ-साथ ‘टॉक्सिक मैस्क्युलिनिटी’ पर भी बात होने लगी है। लोग समझने लगे हैं कि यदि पुरुष लैंगिक भेदभाव की समस्या का हिस्सा हैं तो उन्हें इसके समाधान का भी हिस्सा होना पड़ेगा।

लैंगिक समानता ही एकमात्र ऐसा कारण नहीं है जिसके लिए पुरुषों को ध्यान के दायरे में लाया गया है। भारत के कई गांवों में किसानों की आत्महत्या एक बड़ी घटना बन गई है। ऐसा माना जाता है कि ख़राब फसल, कर्ज न चुका पाना और परिवार के पालक न बन पाना आदि जैसे कारक भी इसमें अपना योगदान देते हैं। इस तेज़ी से बदलती दुनिया में पुरुषों को कई तरह की मजबूरियों का सामना करना पड़ता है। उनकी ये मजबूरियां लैंगिक अपेक्षाओं से गहरे प्रभावित होती हैं। यह विभाजन तेजी से स्पष्ट होता जा रहा है। महिलाओं की बदलती भूमिकाओं, आकांक्षाओं और क्षमता के अलावा, पुरुषों को दूसरे कई तरह के परिवर्तनों का सामना करना पड़ता है। आर्थिक व्यवस्था, आजीविका के अवसर और पारंपरिक सामाजिक संबंध तेजी से बदलाव से गुजर रहे हैं। कई पुरुष इस गतिशील वातावरण के साथ तालमेल बैठा चुके हैं और तरक्की की तरफ बढ़ रहे हैं लेकिन बहुतों के लिए यह सम्भव नहीं है। इस तरह की असफलताएं समाज में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगी हैं। लड़कों में स्कूल की पढ़ाई जारी रखने और शैक्षणिक उपलब्धियां हासिल करने की दर कम होती जा रही है और पुरुष हिंसा में भी किसी प्रकार की कमी नहीं आई है।

हमारे काम का फोकस ग्रामीण समुदायों में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा और बहिष्कार पर था। इस ‘अनुचितस्थिति के बारे में चिंतित होने वाले पुरुषों को ढूंढ़ पाना भी सम्भव है।

मुझे लिंग समानता के क्षेत्र में और पुरुषों के साथ काम करते हुए दो दशक से भी ज़्यादा का समय हो चुका है। हमने उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों में इस काम को केवल एक सरल सवाल के साथ शुरू किया था: क्या समुदाय के पुरुष ऐसे कार्यक्रम में शामिल होंगे जिससे केवल महिलाओं को ही लाभ मिलेगा? हमने पाया कि महिलाओं की स्थिति में इस तरह सुधार लाना वास्तव में संभव है। इसे विन-विन अप्रोच कहा जा सकता है। हमारे काम के केंद्र में ग्रामीण समुदायों में महिलाओं पर की जाने वाली हिंसा और बहिष्कार था। इस ‘अनुचित स्थिति के बारे में चिंतित होने वाले पुरुषों को ढूंढ़ पाना भी सम्भव है। हम जानते थे कि सबसे पहले परिवार के पुरुषों तथा उनकी व्यक्तिगत भूमिकाओं एवं अन्य सदस्यों के साथ उनके रिश्तों में बदलाव लाने की ज़रूरत है। शुरूआती हिचक के बावजूद महिलाओं एवं लड़कियों ने इन बदलावों को स्वीकार करना शुरू कर दिया। 

पुरुष अब अपने घरों में ज़्यादा समय दे रहे थे – वे रसोई के कामों में, पानी भरने में और बच्चों की देखरेख में हाथ बंटा रहे थे। पत्नियों को अपने पतियों के साथ की नई अंतरंगता अच्छी लग रही थी और वे अपनी सखियों को प्रोत्साहित कर रही थीं कि वे भी अपने पतियों को पुरुषों के इस समूह में शामिल करवाएं। अपने पिता से बचने एवं सावधान होने की बजाय छोटे बच्चों को अब उनके साथ खेलने में अच्छा लग रहा था। इन पुरुषों को भी अब पहले से कम ग़ुस्सा आता था और उन्होंने बताया कि अब वे अपने ग़ुस्से को अलग-अलग तरीक़ों से क़ाबू करते हैं।

हमने चौंकाने वाले कुछ अन्य बदलाव भी देखे। एक अध्ययन में हमने इन पुरुषों में आने वाले बदलावों को न केवल उनकी कहानियों से बल्कि उनके घर की महिला सदस्यों तथा करीबी पुरुष दोस्तों की मदद से भी समझने का प्रयास किया था। उनके पुरुष दोस्तों ने बताया कि उस व्यक्ति विशेष से उनका संबंध पहले से बेहतर हुआ है। हमने देखा कि पुरुष घर के अंदर और बाहर अन्य पुरुषों के साथ कई तरह के रिश्तों से जुड़ा होता है। ये सामाजिक एवं स्थिति संबंधी रिश्ते आयु, जाति, धर्म, जातीयता, बोली, शैक्षणिक उपलब्धि, संगठनात्मक पद आदि से जुड़े होते हैं और पद क्रम के हिसाब से भी होते हैं। ऐसे सामाजिक मानदंड हैं जो तय करते हैं कि पुरुष एक-दूसरे के साथ कैसे संबंध रखेंगे। इनमें से किसी भी सामाजिक या स्थितिगत मापदंडों के आधार पर ‘वरिष्ठता’ की स्थिति में प्रत्येक पुरुष इस बात के प्रति सजग रहता है कि उसके ‘अधीनस्थ’ पुरुष सीमाओं का उल्लंघन तो नहीं कर रहे हैं।

हमने पुरुषों की दुनिया के बारे में जानना और उनकी अपेक्षाओं तथा रिश्तों को समझना शुरू किया। सामाजिक रूप से एक लड़के का पुरुष बनना एक जटिल प्रक्रिया है क्योंकि समाज उन्हें अनगिनत उम्मीदों और अपेक्षाओं के बारे में बताता है। लड़कों को इन सभी भूमिकाओं और अपेक्षाओं पर खरा उतरना होता है। हम सब यह जानते हैं कि लड़कों से मज़बूत बनने और चोट लगने पर न रोने की उम्मीद की जाती है। इसके साथ ही पुरुष क्रोध, नापसंदगी और नफ़रत के अलावा अन्य किसी भी तरह की भावना नहीं दर्शा सकते हैं। यह पुरुषों की ‘प्रतिस्पर्धी’ दुनिया में जीवित रहने के लिए, लड़कों को प्राप्त होने वाले प्रशिक्षण और कंडीशनिंग का हिस्सा है। हालांकि, पुरुषों की दुनिया खेल का एक सपाट मैदान नहीं है और इसमें सामाजिक ऊंच-नीच पूरे विस्तार के साथ मौजूद होता है। हमारे साथ काम करने वाले ज़्यादातर पुरुष गरीब, ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाले और उपजातियों से संबंध रखने वाले थे। एक विशेष जाति या वर्ग का पुरुष होने के नाते उन्हें कई तरह का नुक़सान उठाना पड़ता था। नतीजतन, ऐसे पुरुषों में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव और अन्याय के ख़िलाफ़ सहानुभूति थी। इस तरह दूसरे के पिछड़ेपन और पुरुष के तौर पर अपने विशेषाधिकारों को समझ सकने की यह क्षमता सामाजिक संबंधों की उनकी समझ को बदलने में महत्वपूर्ण साबित हुई।

दो युवा एक दूसरे का हाथ पकड़ कर टहल रहे हैं-लिंग भेदभाव
पुरुष घर के अंदर और बाहर अन्य पुरुषों के साथ कई तरह के सामाजिक एवं स्थितिगत रिश्तों से जुड़ा होता है। | चित्र साभार: बालाज़ गार्डी / सीसी बीवा

गरीब पुरुषों के साथ काम करने के बाद, हमने यह महसूस किया कि उनके जीवन में विशेषाधिकार एवं नुक़सान की अलग परतें हैं। हमें उनके नुक़सान के प्रति सहानुभूति प्रकट करने की ज़रूरत थी ताकि वे अपने से अधिक पिछड़ों (यानी महिलाओं) के प्रति सहानुभूति प्रकट कर सकें। हमें इस बात का एहसास हुआ कि समानता केवल वंचितों और पीड़ितों की ‘मांग’ ही नहीं हो सकती है बल्कि इसमें मौजूदा असमान सामाजिक व्यवस्था से फ़ायदा ले रहे लोगों की भी भूमिका आवश्यक है। ऐसा नहीं होने पर समानता स्थापित करने के सभी प्रयास प्रतिस्पर्धा और विपरीत प्रतिक्रिया की ओर लेकर जाएंगे क्योंकि असमान सामाजिक व्यवस्था से फ़ायदा उठाने वाले शायद ही कभी खुद इन्हें त्याग सकेंगे।

पुरुषों और किशोरों के पास पर्याप्त भावनात्मक या सामाजिक तरीके नहीं होते हैं तो वे अपनी असफलताओं से कैसे निपटें?

यदि हम अपने समाज के लिए एक अधिक परिवर्तनशील भविष्य बनाना चाहते हैं तो हमें यह समझना होगा कि कैसे समानता की हमारी चाह को ‘आधिपत्यपूर्ण पुरुषत्व’ (हेजेमोनिक मैस्क्युलिनिटी) के विचार से मिलने वाली चुनौती का सामना करना पड़ता है। इसके मूल में ‘प्रभुत्व की इच्छा’ या ‘किसी भी क़ीमत पर जीत’ की भावना निहित होती है। यह भावना लगभग सभी पुरुषों में पर्याप्त रूप से उपस्थित होती है। सफल पुरुषों में इसे ‘अच्छे’ लक्षण के रूप में देखा जाता है। लेकिन सभी पुरुष सफल नहीं हो सकते हैं, जिसके चलते ये इच्छाएं अधूरी रह जाती हैं या असफल होने पर बेकार हो जाती हैं। आज के बदलते सामाजिक और आर्थिक परिवेश के कारण आंशिक रूप से सफल पुरुषों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन जब पुरुषों एवं किशोरों के पास पर्याप्त भावनात्मक या सामाजिक तरीके नहीं होते तो वे अपनी असफलताओं से कैसे निपटें?

यदि हमें असफलताओं से निपटने में पुरुषों की मदद करनी है तो हमें सफलता के वैकल्पिक मॉडल की ज़रूरत है। हमें लड़कों की परवरिश के तरीक़े बदलने होंगे और इसे केवल वंचित परिवारों के लड़कों पर ही लागू नहीं करना है। हमें एक साथ, एक ही समय पर लड़कों, अभिभावकों और शिक्षकों के साथ काम करने की ज़रूरत है। हमें समानुभूति पैदा करने, विभिन्न प्रकार की सफलताओं का जश्न मनाने और प्रतिस्पर्धा पर सहयोग को बढ़ावा देने के अलग-अलग तरीकों की खोज करनी होगी। घर पर लड़के और लड़कियों, दोनों को अपनी और दूसरों की देखभाल करना सीखना होगा। लड़कियों को पालने के सफल मॉडल का आशय उन्हें लड़कों की तरह पालना नहीं हो सकता। 

अगर हम लगातार लैंगिक भेदभाव, पुरुष हिंसा की बढ़ती दर, रोज़मर्रा के लैंगिक भेदभाव (सेक्सिजम), और ‘समस्या खड़ी करने वाले’ पुरुषों और लड़कों पर बात करना चाहते हैं, तो इस सवाल का जवाब ‘सफलता’ को फिर से परिभाषित करने में निहित है। हमें नेतृत्व के वैकल्पिक मॉडल विकसित करने होंगे जिनमें पुरुष अपनी शक्ति घटने की चिंता किए बग़ैर दूसरों को अवसर प्रदान कर सकें। हमें उन ‘सफलताओं’ का भी जश्न मनाना चाहिए जिनके साथ भौतिक संपदा या दूसरों पर अधिकार जैसे भाव नहीं जुड़े हैं। ऐसा करने के लिए, हमें उन पुरुषों के साथ आने की जरूरत है जो अन्य पुरुषों पर अधिकार रखते हैं। इस तरह के साथ से पुरुषों पर दोष या आरोप लगाए बिना, उन्हें यह समझने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए कि उनकी अपनी ‘सफल मर्दानगी’ खुद को और दूसरों को कैसे नुकसान पहुंचा सकती है। हमारा अनुभव कहता है कि इस प्रक्रिया में शामिल होने की इच्छा रखने वाले पुरुष होते हैं। इस तरह महिलाओं और पुरुषों के बीच, और पुरुषों और अन्य लिंगों के बीच संबंध आखिरकार सुधरते हैं और बड़े सामाजिक और संस्थागत परिवर्तन अपनी जड़ पकड़ते हैं।

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प्रभावी संचार से जुड़ी तमाम जानकारियां जो एक भारतीय एनजीओ के लिए जरूरी हैं

कई समाजसेवी संस्थाओं के लिए संचार एक बड़ी चुनौती हो सकता है। हालांकि लगातार उचित संवाद बनाए रखने और उन्हें आगे बढ़ाए जाने का अपना महत्व है। लेकिन समाजसेवी संस्था के काम के नतीजों पर सीधे असर डालने वाले कई और काम भी होते हैं। इन कामों का दबाव अधिक होने के कारण संचार रणनीति बनाना संस्थाओं की प्राथमिकता नहीं रह जाती है और उन्हें बाद के लिए टाल दिया जाता है।

यह एक आम धारणा है कि अपने उद्देश्यों के बारे में जागरूकता लाने और फ़ंडिंग हासिल करने की अपनी एक क़ीमत होती है। इसके साथ ये भी माना जाता है कि ऑनलाइन भीड़भाड़ में अपनी बात कहने के लिए कम्युनिकेशन प्रोफेशनल्स की एक सेना में निवेश करना पड़ता है। इसलिए संस्थाएं संचार को या तो पूरी तरह से नज़रअन्दाज़ कर देती हैं या इसे अस्थाई तरीके से किया जाता है। इसके कारण कई बार वे क्या कहना चाह रहे हैं, इसका असर कम हो जाता है। लेकिन चुपचाप बैठे रहने से कुछ कहना बेहतर होता है ना?

एक असरदार संचार नीति आपको अपने लोगों से गहराई और वास्तिकता के साथ जोड़ती है। साथ ही, यह उन्हें आपके द्वारा चाहा गया कदम उठाने के लिए भी प्रेरित करती है। यह आपके उद्देश्य के लिए निष्क्रिय उपभोक्ताओं को चैंपियनों में बदलने की क्षमता रखती है। संचार रणनीति को बेहतर बनाने के लिए कुछ सुझाव दिए जा रहे हैं:

1. अपनी ऑडियंस की सही पहचान करें

प्रभावी तरीक़े से संचार करने के लिए सबसे पहले उन लोगों की पहचान आवश्यक है जिनसे आप बातचीत करने जा रहे हैं। कोई छूट न जाए, इससे बचने के लिए अपने संदेश के विषय को व्यापक रखना सुरक्षित विकल्प लग सकता है। लेकिन दुर्भाग्यवश, अधिक विस्तार आपकी बात के प्रभाव को कम कर सकता है। उदाहरण के लिए, यदि आप शिक्षकों और स्कूल के पदाधिकारियों से बात कर रहे हैं तो उन्हें भारतीय शिक्षा को प्रभावित करने वाली नीतियों की जानकारी होती है। इसलिए यदि आपका संदेश विशेष रूप से उन्हें लक्षित करके तैयार किया जाता है तो इसमें अधिक से अधिक बारीकियों को शामिल किया जा सकता है। वहीं दूसरी ओर, यदि आप चाहते हैं कि आपका संदेश आमजन तक आसानी से पहुंच जाए तो आपको केवल मुख्य बातों (मुख्य दर्शकों का ध्यान भटकने के जोखिम के साथ) तक सीमित होना पड़ सकता है।

साथ ही, यह याद रखना जरूरी है कि प्रत्येक संगठन की अपनी एक खास ऑडियंस होती है जिस तक उसे पहुंचना होता है। उदाहरण के लिए, यदि आप शिक्षा के क्षेत्र को अपना लक्ष्य बना रहे हैं तो इस समुदाय में शिक्षक, स्कूल के अधिकारी, सरकारी अधिकारी, अभिभावक और शिक्षा पर ध्यान देने वाली समाजसेवी संस्थाएं शामिल हो सकती हैं। इनमें से प्रत्येक इकाई की अपनी अलग रुचि, प्राथमिकताएं और व्यवहार होगा। इसलिए, एक विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आपको इसके अनुरूप दृष्टिकोण अपनाना होगा।

टेक्स्ट बबल का ग्राफ़िक_एनजीओ संचार
सावधान रहें और अपने संचार को उन निराधार धारणाओं पर निर्मित न करें जिनसे उनकी सफलता में कमी आ सकती है। | चित्र साभार: कैन्वा प्रो

2. अपनी ऑडियंस को समझें

शुरूआत लोगों के उन समूहों के साथ करें जिनसे आप जुड़े हैं। इन समूहों में कई संगठन और वे सभी व्यक्ति शामिल हो सकते हैं जिनके साथ मिलकर आप काम करते हैं। उदाहरण के लिए, आप समाजसेवी संस्थाएं जैसे अज़ीम प्रेमज़ी और रोहिणी निलेकनी और/या फ़ाउंडेशन जैसे कि बिल एंड मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन और फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन आदि की सूची तैयार कर सकते हैं।

इसके बाद, आप अपनी टीम के साथ मिलकर प्रत्येक समूह के लिए नीचे दिए गए सवालों के जवाब देने की कोशिश करें:

इन सवालों का जवाब देने के लिए आप कई तरीके अपना सकते हैं। कोई भी तरीक़ा चुनते हुए, आपको यह ध्यान रखना है कि आपका संवाद केवल अनुमानों पर आधारित न हो, ऐसा करना इसकी सफलता की संभावना को कम करता है। आपको किससे बात करनी है, इस बात की जानकारी रखना आपके लिए संवाद और संचार से जुड़े फ़ैसले लेने में मददगार साबित हो सकता है। इसकी शुरूआत समूहों की प्राथमिकता तय करके की जा सकती है। एक व्यवस्था बनाना जो इस बात का लेखाजोखा रखती हो कि अपने उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए, एक खास समूह के लोगों तक पहुंचने के लिए कितना प्रयास करना पड़ता है, समूहों की प्राथमिकता तय करने में सहायक साबित हो सकता है। 

3. सबसे आसान और लोकप्रिय संचार चैनल का इस्तेमाल करें

एक बार की-ऑडियंस की पहचान कर लेने के बाद आपको यह सोचना है कि आप उनके साथ कैसे संवाद कर रहे हैं और यह कितना सफल है। क्या आप अपने लोगों तक पहुंचने के लिए सही चैनल का इस्तेमाल कर रहे हैं? उदाहरण के लिए, आपको यह पता चल गया कि आपके ज्यादातर दानदाता सबसे अधिक समय लिंक्डइन पर बिताते हैं तो आपको सोशल मीडिया के अन्य चैनलों पर उपस्थित रहने की जरूरत नहीं है। इससे आपका सोशल मीडिया संभालने वालों को भी राहत मिलती है क्योंकि अब उनके पास अच्छी तरह से लिखी गई, टारगेटेड पोस्ट तैयार करने के लिए अधिक समय होता है। 

एक बार आप अपनी ऑडियंस प्रोफ़ाइल का इस्तेमाल करते हुए उन चैनल या फॉरमेट्स (उदाहरण के लिए सोशल मीडिया, आलेख, न्यूजलैटर) की पहचान कर लेते हैं जिन पर अधिक ध्यान देना है तो आप इससे जुड़ी चीजों पर काम करने के लिए अच्छी स्थिति में आ जाते हैं।

4. सही उपकरणों का इस्तेमाल

कई ऐसे डिजिटल उपकरण (टूल) हैं जो सीमित संसाधन वाले संगठनों के लिए गेम चेंजर बन चुके हैं। नीचे दी गई इस छोटी सी सूची में कुछ ऐसे ही उपकरणों के बारे में बताया गया है जो या तो मुफ़्त हैं या समाजसेवी संस्थाओं को भारी छूट प्रदान करते हैं।

अ) विक्स या स्क्वेरस्पेसये मंच कुछ ही घंटों में वेबसाइट बना देते हैं। ये साधारण वेबसाइट बिल्डर हैं जो ड्रैग एंड ड्रॉप शैली में काम करते हैं। ये बिना कोडिंग वाली एक सहज और रिस्पॉन्सिव (जो मोबाइल फ़ोन और डेस्कटॉप दोनों में ही बहुत अच्छा दिखता है) वेबसाइट बनाने में आपकी मदद कर सकते हैं। हालांकि इनकी सुविधाएं मुफ़्त नहीं हैं लेकिन किसी डिज़ाइनर और वेब डेवलपर से काम करवाने की तुलना में इनका इस्तेमाल करना बहुत सस्ता पड़ता है। ये दोनों ही प्लैटफ़ॉर्म किसी भी तरह के बदलाव और नए पेज जोड़ने की प्रक्रिया को बहुत आसान बना देते हैं। जब आप इसके लिए अपनी टीम से बाहर के किसी व्यक्ति पर निर्भर होते हैं तो यह एक बड़ी बाधा बन जाती है।

ब) गूगल एनालिटिक्स (मुफ़्त): यह आपके वेबसाइट पर आने वाले ट्रैफ़िक पर नज़र रखता है और सोशल मीडिया कैंपेन्स और इसकी सामग्री की सफलता को मापता है। उपलब्ध टूल्स में से गूगल एनालिटिक्स एक ऐसा टूल है जिसके कारगर होने के बावजूद इसे सबसे कम महत्व मिलता है। अपनी वेबसाइट लॉन्च करने के बाद आपको सबसे पहले अपना एनालिटिक्स अकाउंट सेट करना चाहिए। एक बार लिंक हो जाने के बाद यह आपको कई तरह के आंकड़े प्रदान करता है। इन आंकड़ों में आपकी साइट पर आने वाले विजिटर्स, उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले सर्च टर्म और आपकी साइट पर उनके द्वारा बिताये गए समय आदि की जानकारी शामिल होती है।

स) कैन्वा (समाजसेवी संस्थाओं के लिए मुफ़्त): इससे उच्च गुणवत्ता वाले ग्राफ़िक्स ब्रोशर, प्रजेंटेशन और रिपोर्ट बनाए जाते हैं। इसके प्रो अकाउंट पर आप अपना लोगो और ब्रांड से जुड़ी बाकी चीजों को अपलोड कर सकते हैं। एक बार ऐसा करना, इन चीजों को आपकी टीम के लिए आसानी से उपलब्ध बनाता है। इसमें अपने हिसाब से बदले जा सकने वाले कई टेम्पलेट हैं जो संस्थाओं के लिए उनके काम में सहयोगी सामग्री बनाना आसान कर देता है। 

ड) बफ़र (50 प्रतिशत छूट पर): यह बहुत ही प्रभावी तरीक़े से सोशल मीडिया पर आपकी उपस्थिति और कॉन्टेंट कैलेंडर का प्रबंधन करता है। यह पोस्ट की योजना, समय और प्रकाशन के लिए एक सरल सा डैशबोर्ड प्रदान करता है। इसका इस्तेमाल करते हुए ऑप्टिमल पोस्टिंग टाइम के लिए हर समय सोशल मीडिया लॉगइन रखने की ज़रूरत नहीं होती है!

ई) मेलचिम्प (15 प्रतिशत छूट पर): अपनी समाजसेवी संस्था की गतिविधियों और उपलब्धियों के बारे में ज़ारी किए जाने वाले न्यूज़लेटर के निर्माण और प्रसार के लिए इस विश्वसनीय टूल का इस्तेमाल कर सकते हैं।

फ) रेज़रपे: इस टूल से कुछ ही मिनटों में ऑनलाइन दान लेने के लिए पेमेंट गेटवे बनाया जा सकता है। केवायसी के लिए कुछ दस्तावेज़ों को जमा करें और आपका गेटवे इस्तेमाल के लिए तैयार हो जाता है। यह आपको अपने अनुपालन को प्रबंधित करने के लिए आवश्यक जानकारी इकट्ठा करने में भी सक्षम बनाता है। साथ ही यह सभी दाताओं को ई-मेल ऑटोमेटेड 80G रसीदें भी प्रदान करता है। लेकिन यह प्लैटफ़ॉर्म प्रत्येक लेनदेन पर दो प्रतिशत शुल्क लेता है।

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भारत का एक ज़िम्मेदार और सक्रिय नागरिक कैसे बनें?

एथेंस में प्निक्स नाम का एक पहाड़ है, जहां एथेंस के निवासी इकट्ठा होकर राजनीतिक मुद्दों पर बातचीत करते थे और अपने शहर-कस्बों के भविष्य से जुड़े फ़ैसले लेते थे। यह दुनिया के इतिहास में पहली लोकतांत्रिक परंपरा में एक सार्वजनिक मंच का एथेनियन संस्करण था। इन चर्चाओं में सभी नागरिकों ने हिस्सा लिया था जिसमें 18,000-मजबूत एक्लेसिया या एथेनियन संसद का हिस्सा रहने वाले लोग भी शामिल हैं। यह अपने साथी नागरिकों से सीखने और अपने विचारों और नज़रियों को बेहतर बनाने का अवसर था जिससे पूरे समाज को लाभ पहुंच सकता था। आज भी, एक लोकतांत्रिक प्रणाली में नागरिकों की भागीदारी अपनी तत्कालीन सरकार के साथ बातचीत करने से अधिक मानी जाती है। नागरिक आंदोलन लोकतांत्रिक मूल्यों की आधारशिला हैं और ये मूल्य सरकारी व्यवस्थाओं से बाहर निकलकर, नागरिकों के साथ जुड़ने से ही हासिल किए जा सकते हैं।

आधुनिक लोकतांत्रिक सरकार के तीन प्रमुख तत्व हैं: स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के माध्यम से सरकार को चुनने/बदलने की प्रणाली, सभी नागरिकों के मानवाधिकारों की रक्षा, और सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू नियम-कानून। लेकिन आप अपनी सरकार को लोकतांत्रिक तभी कह सकते हैं जब एक नागरिक इन तीनों बातों को अपने व्यवहार में शामिल करता है। अर्थात, लोकतंत्र तभी जीवित रहता है जब उस देश के नागरिक की सक्रिय भागीदारी होती है।

लोकतंत्र में नागरिक भागीदारी के महत्व के बारे में सभी जानते हैं और यह सार्वजनिक रूप से स्वीकार्य है। इसके बावजूद हम उन नागरिकों के बीच उल्लेखनीय अंतर पाते हैं जो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से जुड़ना चाहते हैं और जो वास्तविक रूप से जुड़ते हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं जिनमें से एक प्रभावी ढंग से जुड़ने के तरीकेों के बारे में जागरूकता की कमी है। भारत में एक नागरिक, सरकार से उसके कई स्तरों- संघ, राज्य और स्थानीय प्रशासन के साथ-साथ साथी नागरिकों के साथ भी जुड़ सकते हैं। इसके कुछ तरीक़े निम्नलिखित हैं:

केंद्र सरकार के साथ जुड़ाव

1. प्रतिनिधियों का चुनाव

हर पांच साल (सामान्य परिस्थितियों में) में, ‘हम भारत के लोगों’ को लोकसभा में उन प्रतिनिधियों को वोट देने के लिए कहा जाता है, जिनके बारे में हमें यह विश्वास होता है कि वे अपनी भूमिकाएं निभाने के योग्य और सक्षम हैं। मतदान के आंकड़ों की बात करें तो 2009 में 58 प्रतिशत से बढ़कर 2019 में मतदान दर 67 फ़ीसदी तक पहुंच गया था। इस आंकड़े को देखकर यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय आबादी का आधा से अधिक हिस्सा इस माध्यम से केंद्र सरकार से जुड़ता है।

2. कानूनों का सहनिर्माण

केंद्र सरकार के कई मंत्रालय नीतियों, संशोधनों, प्रस्तावित योजनाओं और विचारों पर आम जनता की प्रतिक्रिया जानना चाहते हैं। विशिष्ट विषयों पर कानूनों का मसौदा तैयार करने वाले केंद्रीय मंत्रालय अक्सर नागरिकों और हितधारकों से उनकी टिप्पणियां मांगते हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रस्तावित कानून में उन लोगों के जीवंत अनुभव शामिल हों जो इससे सबसे अधिक प्रभावित होंगे। नागरिक अपनी प्रतिक्रिया सीधे मंत्रालयों को भेज सकते हैं या परामर्श की इस प्रक्रिया को सक्षम बनाने वाले हमारे जैसे मंचों का उपयोग कर सकते हैं।

सार्वजनिक प्रतिक्रिया एकत्र करने की इस प्रक्रिया को 2014 की सरकार द्वारा बनाई गई पूर्व-विधायी परामर्श नीति (प्री-लेजिस्लेटिव कन्सल्टेशन पॉलिसी) नामक नीति प्रोत्साहित करती है। यह नीति सांसदों को कम से कम 30 दिनों की अवधि के लिए, सार्वजनिक परामर्श के लिए दस्तावेज़ का एक मसौदा सार्वजनिक करने को कहती है। सिविस.वोट (Civis.vote) पर अपने अनुभवों से हमने पाया है कि अक्सर समुदायों से मिलने वाली प्रतिक्रियाओं के लगभग 30 से 70 प्रतिशत हिस्से को अंतिम दस्तावेज़ों में शामिल कर लिया जाता है। ऐसा करने से बनाए गए नए क़ानून में नागरिकों की आवाज़ भी शामिल हो जाती है। उदाहरण के लिए, सिविस पर ट्रांसजेंडर (अधिकारों का संरक्षण) नियमों के मसौदे पर एकत्र की गई प्रतिक्रियाओं में से 52 प्रतिशत को अंतिम कानून में शामिल किया गया था। कानून बनाने की प्रक्रिया में भाग लेने से, नागरिकों में स्वामित्व की भावना विकसित होती है और संवाद के माध्यम से आम सहमति बनती है।

3. प्रश्न करना

सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 में नागरिकों को सरकार से पारदर्शिता, जवाबदेही और जवाब मांगने के अधिकार की गारंटी दी गई है। हालांकि जवाबदेही बनाए रखने का दायित्व निर्वाचित और अन्य सरकारी अधिकारियों पर होता है, लेकिन एक नागरिक को सार्वजनिक सूचना और सरकार के कामकाज से संबंधित कोई भी प्रश्न पूछने का अधिकार है। आरटीआई अधिनियम ने एक ऐसी संरचना तैयार की है जो नागरिकों को सार्वजनिक अधिकारियों से उनके कामकाज, विभागों के कामकाज, बजट और परियोजनाओं, कुछ क्षेत्रों के नाम पर सवाल पूछने की अनुमति देती है। कानूनन सार्वजनिक अधिकारी 30 दिनों की अवधि के भीतर ऐसे सवालों का जवाब देने के लिए बाध्य होते हैं। अच्छी बात यह है कि इस कानून के तहत सूचना के अनुरोध की प्रक्रिया बहुत सरल है और आवेदन ऑफलाइन या ऑनलाइन दोनों तरह से किया जा सकता है।

4. संसद का अवलोकन

संसद के ऊपरी और निचले सदनों की सभी कार्यवाहियों का सीधा प्रसारण सभी भारतीय नागरिकों के लिए बिना किसी शुल्क किया जाता है। इन कार्यवाहियों को देखने से हमें अपने द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों और सत्ता में सरकार के प्रदर्शन की गहरी समझ मिलती है। ये जानकारियां हमारे भविष्य के विकल्पों को हमारे सामने लाती हैं। संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही को टेलीविजन पर या उनकी आधिकारिक वेबसाइट के जरिए देखा जा सकता है। यह वेबसाइट सदस्यों द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों के उत्तर सहित कार्यवाही के अभिलेखागार तक नागरिकों की पहुंच भी प्रदान करती है।

5. MyGov.in के माध्यम से ऑनलाइन भाग लेना

26 जुलाई, 2014 को लॉन्च किया गया MyGov.in सरकार का एक ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म है। यह प्लेटफ़ॉर्म विभिन्न परामर्शों, क्विज़, चुनावों, सर्वेक्षणों और प्रतियोगिताओं के माध्यम से सक्रिय नागरिक भागीदारी को बढ़ावा देता है। बड़े पैमाने पर लोकप्रिय यह प्लेटफ़ॉर्म नागरिकों को शासन के तरीक़ों से जुड़े विचारों को जुटाने का एक अवसर देता है। उदाहरण के लिए, नमामि टेट अभियान के एक हिस्से के रूप में पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ़ अर्थ साइयन्सेज) ने हाल ही में नागरिकों से समुद्र तट को साफ़ करने से जुड़े नए तरीकों पर सुझाव मांगे हैं। इस पहल के तहत मंत्रालय को सीधे प्रभावित समूहों से लगभग 2,000 सुझाव मिले हैं। तटीय प्रदूषण को कम करने के लिए बनाई जाने वाली योजनाओं में इन सभी सुझावों को शामिल किए जाने की उम्मीद है। कोई भी नागरिक MyGov.in पर सीधे अपना अकाउंट बनाकर भागीदारी कर सकता है।

अपनी राज्य सरकार से जुड़ना

राज्य के चुनावों में मतदान करने और विभिन्न मंत्रालयों को आरटीआई दाखिल करने के साथ-साथ, आपकी राज्य सरकार के साथ जुड़ने के अन्य तरीको के बारे में यहां जानें:

टाउन हॉल में भाग लेना

केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा आयोजित सार्वजनिक परामर्शों की तरह ही राज्य सरकारें अक्सर उन जगहों पर टाउन हॉल्स और सार्वजनिक बैठकों का आयोजन करती है, जहां नीति में किसी प्रकार की कमी है या उसमें संशोधन की आवश्यकता है। ये टाउन हॉल्स नागरिकों को उनके अनुभवों, विचारों और समस्याओं के बारे में बताने का अवसर देते हैं। किसी भी नीति का मसौदा तैयार करने या आवश्यक बदलावों को करते समय, राज्य सरकारें नागरिकों के अनुभवों, विचारों और समस्याओं का ध्यान रखती हैं। ऐसे टाउन हॉल या इन जैसे मंचों का संचालन करने वाले अधिकारी आमतौर पर ऑनलाइन और अन्य पारंपरिक मीडिया स्रोतों का उपयोग करके उनका प्रचार करते हैं।

इसका सबसे ताज़ा उदाहरण तमिलनाडु सरकार है। तमिलनाडु सरकार ने ऑनलाइन गेम्स पर प्रतिबंध लगाने या उन्हें विनियमित करने का फ़ैसले लेने के लिए इस तरीके को अपनाया था। इस मामले में नए क़ानून पर विचार करने के लिए न्यायमूर्ति (सेवानिवृत) के चंद्रु की अध्यक्षता में गठित समिति ने अपनी रिपोर्ट दी थी। इस रिपोर्ट के मिलने के बाद सरकार ने सभी संबंधित हितधारकों (आम जनता, अभिभावक, शिक्षक, छात्र, युवा, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता और ऑनलाइन गेमिंग प्रोवाइडर) को संभावित प्रतिबंध या विनियमितता पर अपने विचार रखने के लिए टाउन हॉल में आमंत्रित किया था। लोगों को एक ऐसा मंच प्रदान किया गया जहां विभिन्न खेल सेवाओं का लाभ उठाने वालों पर पड़ने वाले, इसके नतीजों पर चर्चा तो हुई ही। साथ ही, इस उद्योग में शामिल लोगों पर पड़ने वाले इसके प्रभाव पर भी बातचीत सम्भव हो सकी। इसके तुरंत बाद ही राज्य के कैबिनेट ने एक अध्यादेश जारी किया जिसके तहत राज्य में ऑनलाइन गेमिंग पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

कैंडल लाइट मार्च में भारत के नागरिक_नागरिक भारत
कानून निर्माण प्रक्रिया का हिस्सा बनने से नागरिकों में स्वामित्व की भावना विकसित होती है। | चित्र साभार: रमेश लालवानी/सीसी बीवाई

अपने नगर निगम से जुड़ना

नगरपालिका, पंचायत, और अन्य स्थानीय चुनावों में मतदान करने और विभिन्न विभागों में आरटीआई दाखिल करने के साथ-साथ, आपकी स्थानीय सरकार के साथ जुड़ने के कुछ तरीके:

वार्ड/पंचायत/ब्लॉक, निर्वाचन क्षेत्रों से छोटे होते हैं, और इसलिए उन्हें चलाने के लिए चुने गए लोगों में अपने नागरिकों के साथ जुड़ने और प्रक्रियाओं में शामिल होने की क्षमता अधिक होती है। हालांकि एक वार्ड के निर्वाचित प्रतिनिधियों का दायरा पानी, स्वच्छता, पार्क और सड़कों जैसे सार्वजनिक स्थानों के रखरखाव जैसे नगर निगम के मुद्दों को हल करने तक सीमित है। लेकिन जब आप इन प्रतिनिधियों से जुड़ते हैं, तब नागरिक मुद्दों पर इनके प्रत्यक्ष और सार्थक प्रभाव की संभावना बढ़ जाती है। इसके अलावा, ऐसे कई कारक हैं जो तेज और सकारात्मक परिणामों के पक्ष में काम करते हैं: एक सक्रिय और भागीदारी करने वाला नागरिक वर्ग, वार्ड कार्यालयों तक सीधी पहुंच और नागरिक निकायों का पारदर्शी कामकाज।

नागरिक अपने वार्ड/पंचायत कार्यालयों में जाकर, उन्हें पत्र लिखकर या उनके हेल्पलाइन नंबरों पर कॉल करके अपने स्थानीय सरकारी अधिकारियों से संपर्क कर सकते हैं। कुछ स्थानीय सरकारों- जैसे मुंबई- ने भी अपने सोशल मीडिया इकोसिस्टम को इस तरह से बनाया है कि नागरिक अपनी समस्याएं बताने के लिए इन प्लेटफ़ॉर्म का उपयोग कर सकें।

किसी विशेष मुद्दे पर अधिकारियों से संपर्क साधने के अलावा नागरिकों को नगर निगमों या पंचायतों द्वारा लिए जाने वाले बजट संबंधी फ़ैसलों या नीतियों पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आमंत्रित किया जाता है। नागरिक, प्रजा जैसे संगठनों द्वारा ज़ारी की गई रिपोर्टों के माध्यम से अपनी स्थानीय सरकारों के काम की समीक्षा कर सकते हैं।

नागरिक से नागरिक का जुड़ाव

1. नागरिक/राजनीतिक आंदोलनों में शामिल होना

नागरिकों को उन मुद्दों से जुड़े आंदोलनों या प्रदर्शनों में सक्रियता से भाग लेना चाहिए जिनसे वे सीधे रूप से प्रभावित होते हैं या फिर जिनसे वे सहमत होते हैं। ऐसा करने से समुदायों के बीच एकजुटता विकसित होती है। वैकल्पिक रूप से, स्टडी सर्कल या राजनीतिक दल के मंचों के जरिए, राजनीतिक विचारधाराओं के बारे में जानना अपनी नागरिक भागीदारी की ताकत का प्रयोग करने का एक और तरीका है।

2. अपने समुदाय का निर्माण

अपने समुदाय की बेहतरी के लिए नागरिक समाज संगठनों या क्लबों से स्वेच्छापूर्वक जुड़कर काम करना, किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे शक्तिशाली हथियार है। सफ़ाई-अभियानों में शामिल होने या एडवांस लोकल मैनेजमेंट (एएलएम) जैसे नागरिक आंदोलनों में शामिल होने से एक सशक्त समुदाय के निर्माण में मदद मिल सकती है। अपने कौशल के आधार पर काम शुरू करना सबसे अधिक लाभदायक होता है।

3. अपनी आवाज़ उठाना

नागरिकों के पास शासन के मुद्दों पर अपने विचार और राय व्यक्त करने के कई विकल्प हैं। इन विकल्पों में प्रतियोगिताओं में बहस करना, सामाजिक कार्यक्रमों की बातचीत में शामिल होना या सोशल मीडिया पर रचनात्मक रूप से अपनी राय व्यक्त करना वगैरह शामिल हैं। अपने विचारों को सामने रखने और प्रसारित करने जैसा एक सामान्य सा काम एक सक्रिय नागरिक बनने की लंबी सीढ़ी पर पहला कदम है। लेख लिखकर या अपनी राय व्यक्त करने के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करके अपने विचारों और अभिव्यक्तियों का योगदान देना और राजनीतिक या शासन के मुद्दों पर संवाद शुरू करना भी नागरिक जुड़ाव का एक महत्वपूर्ण तरीका है। यूथकीआवाज और यौरस्टोरी जैसे प्लेटफॉर्म नागरिकों को जोड़ने के लिए एक मंच प्रदान करने में सहायक रहे हैं।

4. सामुदायिक जागरूकता का निर्माण

स्थानीय और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों के बारे में नागरिक जागरूकता लाना लेखन से परे है। महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर बातचीत शुरू करने के लिए रंगमंच समूह और अन्य कला समूह अक्सर अपनी कला का उपयोग करते हैं। उनके प्रदर्शनों ने उत्पीड़न पर संवाद को उचित ठहराने में मदद की है और नागरिकों को संगठित होने और संस्थागत परिवर्तन लाने का एक अवसर प्रदान किया है। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश के हरदा गांव के कॉम्यूटिनी संगठन से जुड़े युवा नागरिकों के एक समूह—या ‘जस्टिस जाग्रिक्स’ ने नागरिकों को संवैधानिक अधिकारों की जानकारी देने के लिए ‘कबीर के दोहे’ का इस्तेमाल किया है। रंगमंच (थिएटर) कलाकारों के कई ऐसे समूह भी हैं जो महिलाओं के अधिकारों पर बातचीत शुरू करने के लिए दिल्ली में नुक्कड़ नाटकों का आयोजन करते हैं।

5. विरोध प्रदर्शन में शामिल होना

आजादी से पहले से ही विरोध प्रदर्शन भारत में नागरिक समाज आंदोलनों का एक अभिन्न हिस्सा रहा है। आज भी यह साथी नागरिकों और सरकारों के साथ स्वतंत्र रूप से अपनी राय व्यक्त करने के लिए एक स्थापित तरीका बना हुआ है। भारत में विरोध करना कानूनी है। विरोध के अधिकार को संविधान से दो मौलिक अधिकारों- भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और बिना हथियारों के शांतिपूर्वक इकट्ठा होने का अधिकार- द्वारा समर्थन प्राप्त है। हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि किसी भी विरोध प्रदर्शन का आयोजन तभी किया जाना चाहिए जब आवश्यक अनुपालन पूरा हो और इसकी शर्तें पूरी हों (उदाहरण के लिए, लाउडस्पीकर और टेंट के लिए अनुमति प्राप्त करना)। यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि कानून के पूर्ण अनुपालन के बावजूद अधिकारियों की प्रतिक्रियाएं अलग-अलग हो सकती हैं। ऐसी परिस्थितियों के लिए आपके पास नागरिकों के अधिकारों और आपके लिए उपलब्ध संसाधनों से जुड़ी सही जानकारियां होना हितकर होता है।

नागरिकों के लिए सरकारों के साथ जुड़ने के कई स्थापित तरीके हैं- कुछ कानूनों से और कुछ सीधे समुदायों से। हालांकि जुड़ने का कोई एक सही तरीका नहीं है। लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था नागरिकों को ऐसी कई सुविधाएं और विकल्प प्रदान करती है। इनके माध्यम से वे सरकार के साथ बातचीत एवं आपसी संवाद दोनों के लिए उपयुक्त तरीके का चयन कर सकते हैं।

तो आगे बढ़िए, और जुड़िए!

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ग्रामीण महिला किसानों को सशक्त बनाने वाला एक मॉडल जो उन्हीं से मज़बूत बनता है

1993 के लातूर भूकम्प के बाद एक पायलट परियोजना के तहत एक हजार से अधिक महिलाओं ने पुनर्वास कार्यों के लिए सरकार और अपने समुदायों के बीच सुविधाएं उपलब्ध करवाने वाले के रूप में अपनी भूमिका निभाई थी। इसके लगभग 30 साल बाद, सामुदायिक उद्देश्यों के लिए महिलाओं को संगठित करने वाले इस मॉडल ने भूकंप, सूनामी, चक्रवात, सूखा और हाल ही में महामारी के दौरान खुद को साबित किया है।

लातूर, मराठवाड़ा में पायलट प्रोजेक्ट के तहत विकसित संस्था, स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) का औपचारिक पंजीकरण 1998 में हुआ। इसकी संस्थापक और सामाजिक कार्यकर्ता स्वर्गीय प्रेमा गोपालन का मानना था कि त्रासदी महिलाओं को उनके समुदायों में नेतृत्व भूमिकाओं में आने का मौक़ा देती है। आज स्वयं शिक्षण प्रयोग ज़मीन पर बदलाव के एजेंट के रूप में काम कर रही 5,000 महिलाओं की सेना बन चुका है। सखी के नाम से जानी जाने वाली इन महिलाओं ने 3,00,000 महिलाओं को उद्यमी, किसान और समुदाय के नेता के तौर पर स्थापित करने का काम किया है।

जलवायु संकट के ख़िलाफ़ लड़ी जा रही लड़ाई में स्वयं शिक्षण प्रयोग की सखियां, एक बार फिर, ग्रामीण भारत में सबसे आगे की कतार में खड़ी दिख रही हैं। महाराष्ट्र का मराठवाड़ा जो किसानों की आत्महत्या के लिए कुख्यात है – जहां ऐसा कृषि संकट केवल इसलिए आया है क्योंकि इस सूखा प्रभावित इलाक़े में उपलब्ध संसाधनों के अत्यधिक दोहन से उपजाई जाने वाली नक़दी फसलों की खेती को प्राथमिकता दी गई। लगातार कई सालों तक होने वाली अनियमित बारिश और बाज़ार की मार ने भी इस पर अपना असर डाला है। इसके कारण अनगिनत किसान परिवारों को लगातार कई वर्षों तक बुरी पैदावार का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा। नतीजतन, इस इलाक़े के किसान कर्ज के बोझ तले दबने लगे और संकट प्रवास और भुखमरी के शिकार हो गए। इन्हीं इलाक़ों में एसएसपी की सखियों ने छोटे और पिछड़े महिला किसानों के बीच खेती के एक एकड़ मॉडल को बढ़ावा दिया। जलवायु-अनुकूलन को केंद्र में रखने वाला यह मॉडल ज़मीन के सिर्फ एक-एक एकड़ के टुकड़े में विभिन्न फसलों को पैदा करने के लिए जैविक अपशिष्टों और खाद का प्रयोग करता है। 

इस इलाक़े में एक एकड़ खेती करने वाली छोटी और सीमांत महिला किसानों की फसल उपज में 25 प्रतिशत तक की वृद्धि देखी गई है। गौरतलब है कि सूखे के सालों में, और महामारी के दौरान भी, ये महिला किसान अपने छोटे लेकिन उत्पादक जमीन के टुक्ड़ों से अपने परिवारों का भरण-पोषण करने में सक्षम रहीं थीं।

एसएसपी के दृष्टिकोण में ऐसा क्या है जो इसे प्रभावशाली बनाता है?

महिलाओं द्वारा, महिलाओं के लिए

स्वयं शिक्षण प्रयोग की सखियों ने अपने समुदायों की विभिन्न ज़रूरतों को पूरा किया है। अपने काम के जरिए उन्होंने खुद अपनी क्षमताएं भी विकसित की हैं। संस्था का मुख्य लक्ष्य हाशिए पर रह रही ग्रामीण महिलाओं को मुख्यधारा में लाना और उन्हें सार्वजनिक भूमिकाओं में शामिल कर सशक्त बनाना है।

एसएसपी की एसोसिएट डायरेक्टर नसीम शेख़ लातूर की इस पायलट परियोजना से इसकी शुरुआत से ही जुड़ी हैं। नसीम कहती हैं कि “मैंने महिलाओं को मराठवाड़ा, तमिलनाडु, ओडिशा, श्रीलंका और तुर्की में आपदा पुनर्वास के दौरान काम करते देखा है। इन तमाम जगहों पर वे जिम्मेदारियां मिलने का इंतज़ार नहीं करतीं थीं। बल्कि खुद ही पहल कर अपने बच्चों, बुजुर्गों, परिवारों, समुदायों और पशुओं की जिम्मेदारियां उठाती थीं।”

खेती-किसानी की दुनिया में महिलाएं पुरुषों के कमाई के लिए कहीं और चले जाने या दूसरे पेशे से जुड़ जाने पर कामकाज का जिम्मा सम्भालती हैं। लेकिन उनकी भूमिकाओं को अक्सर मजदूरी तक ही सीमित कर दिया जाता है। उन्हें खेत के मालिक या किसानों के रूप में नहीं देखा जाता है। उपजाए जाने वाले फसलों के चयन, उनकी मात्रा, बिक्री और घर में उसके उपयोग से जुड़े फ़ैसलों में उनकी भूमिका आमतौर पर नहीं होती है।

एक ऐसा देश जहां महिलाओं को दो प्रतिशत से भी कम ज़मीन खेती के लिए मिलती है, वहां एक एकड़ मॉडल कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।

एसएसपी ने इसे बदलने का फ़ैसला किया। पिछले एक दशक में इन्होंने लगभग 75,000 महिला किसानों की मदद की और उनके परिवारों से उन्हें एक एकड़ ज़मीन का मालिकाना हक़ दिलवाया। महिला किसानों ने इस एक एकड़ ज़मीन में बाजरा, दाल और पत्तेदार सब्ज़ियां जैसी भोजन में पोषण बढ़ाने वाली फसलों को उगाना शुरू किया। ऐसा करना सम्भव ना होने पर कुछ महिलाओं ने बड़ी जोत की किसानों से किराए पर ज़मीन का एक टुकड़ा लेकर खेती की। एक ऐसा देश जहां महिलाओं को दो प्रतिशत से भी कम ज़मीन खेती के लिए मिलती है, वहां एक एकड़ मॉडल कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। महिलाओं ने यह दिखा दिया कि ज़मीन का यह छोटा सा टुकड़ा उस समय भी उनके परिवारों का भरण-पोषण कर सकता था, जब बड़ी जोत वाले किसानों की स्थिति अच्छी नहीं थी। इससे इलाके में महिला किसानों का प्रभाव बढ़ा।

स्वयं शिक्षण प्रयोग जिन ग्रामीण इलाक़ों में काम करता है, वहां सामाजिक प्रथाओं के कारण लड़कियों को या तो पढ़ाई छोड़नी पड़ती है या कम उम्र में ही उनकी शादी हो जाती है। नसीम का मानना है कि इनमें से कई लड़कियां एसएसपी द्वारा अपनी पहचान बनाने के मौके का फायदा उठाना चाहती हैं। एसएसपी का जन्म उस समय हुआ जब लातूर में पुनर्वास पर काम करने वाली महिला संवाद सहायकों (कम्यूनिटी रिसोर्सेज़ पर्सन) ने प्रेमा से कहा कि अब वे वापस ‘घर पर बैठने’ नहीं जाएंगी।

हिंदुस्तान यूनीलीवर फ़ाउंडेशन की पोर्टफ़ोलियो और पार्ट्नरशिप प्रमुख अनंतिका सिंह कहती हैं कि “हम कई संगठनों के साथ काम करते हैं। लेकिन ज़मीनी स्तर पर सखियों का असर बहुत गहरा है। कुछ संगठनों में महिलाएं लाभार्थी हैं लेकिन भागीदार नहीं। अन्य संगठनों में महिलाएं आगे बढ़ती हैं और हिस्सा लेती हैं। फिर बारी आती है एसएसपी की। एसएसपी में महिलाएं ही लीडर हैं। यहां उन्होंने उपस्थिति से भागीदारी और भागीदारी से नेतृत्व तक का सफ़र तय किया है।”

खेत में महिलाओं का एक समूह_महिला किसान
एसएसपी की सखियां अपने समुदायों की विविध ज़रूरतों को पूरा करती हैं। | चित्र साभार: एसएसपी

बाहर निकलना और आगे बढ़ना

प्रेमा का मानना था कि महिलाओं को प्रशिक्षण से अधिक मौकों की ज़रूरत है। नसीम का कहना है कि “हम सखियों को शिक्षित करने के लिए टेक्नोक्रेटिक टॉप-डाउन नजरिए या कक्षाओं का इस्तेमाल नहीं करते हैं। हमारा भरोसा अनौपचारिक तरीक़े से महिलाओं के साथ मिलकर सीखने (पीयर लर्निंग) में है।”

लेकिन यह कोई जादू की छड़ी नहीं है। सखियों को उनका काम करने में सक्षम बनाने के लिए उन्हें सरकारी अधिकारियों, ग्राम पंचायतों और बड़ी जोत वाले किसानों से सम्पर्क करना सिखाना होता है। इन सार्वजनिक भूमिकाओं को निभाने के लिए जरूरी कौशल और आत्मविश्वास हासिल करने में अक्सर दो साल का समय लग जाता है।

इतने सालों के अनुभव से एसएसपी ने अपनी सखियों के लिए एक प्रशिक्षण मॉडल को तैयार किया है। लेकिन नसीम के अनुसार महिलाओं का घर से बाहर निकलना और बाहरी ज्ञान हासिल करना सबसे अहम है। “सबसे पहले, हम सखियों को उनका जीवन सुरक्षित करने में मदद करते हैं। फिर उन्हें उनके समुदाय के अंदर भूमिकाएं दी जाती हैं। धीरे-धीरे वे दूसरे गांवों का दौरा करती हैं और नए समूहों के साथ बातचीत करती हैं। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है। समय के साथ, वे ब्लॉक स्तर पर सरकारी अधिकारियों से मिलने जाती हैं।” एसएसपी के एक ट्रेनर काका अडसुले का कहना है कि महिलाओं के लिए आवश्यक सॉफ्ट स्किल हासिल करने के लिए एक रोल मॉडल का होना बहुत जरूरी है।  

संगठन पहले प्रत्येक सखी को उसकी वित्तीय और सामाजिक चुनौतियों का समाधान करने में मदद करता है। इससे एक ऐसी व्यवस्था बनती है जिसमें महिलाओं को इसे आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया जाता है।

सीखने के लिए प्रयोग

संगठन का नाम – स्वयं शिक्षण प्रयोग – जिसका शाब्दिक अर्थ है खुद को सिखाना और प्रयोग करना, और यह संगठन के हर काम में देखने को मिलता है। एसएसपी सखियों को उनके खेतों और व्यवसायों को प्रयोगशालाओं की तरह इस्तेमाल करने को प्रोत्साहित करता है। जहां वे नई-नई तरह से अनगिनत प्रयोग करती हैं और फिर उन्हें अपने गांव वालों के साथ साझा करती हैं।

महिला किसानों ने उर्वरक के रूप में अजोल जैसी चीजों के उपयोग वाले पारंपरिक तरीकों को वापस लाने का काम किया है।

एक ओर, सरकार के कृषि विज्ञान केंद्र नॉलेज नेटवर्क के विशेषज्ञ लैब से लेकर ज़मीन तक के परीक्षणों में सखियों की मदद करते हैं। दूसरी ओर, महिलाएं अपने साथ कौशल और पारंपरिक ज्ञान को लेकर आती हैं। उदाहरण के लिए, जब सखियों को ड्रिप सिंचाई की विधि सिखाई जा रही थी, लेकिन उनके पास बाज़ार से इन प्रणालियों को ख़रीद कर लाने के लिए आवश्यक संसाधन नहीं थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने छेद वाले पाइप का इस्तेमाल स्प्रिंकलर के रूप में करना शुरू कर दिया। यह सस्ता और आसान दोनों था। महिला किसानों ने उर्वरक के रूप में अजोल और अनाज भंडारण के समय इसे कीड़ों से बचाने के लिए नीम के पत्तों जैसी चीजों का उपयोग करने के पारंपरिक तरीकों को वापस लाने का काम किया है।

प्रशिक्षक वैशाली बालासाहेब घुगे कहती हैं कि वे दूसरे किसानों को किसी भी नई चीज़ का सुझाव देने से पहले स्वयं उसका इस्तेमाल करके देखती हैं। वे याद करते हुए बताती कि जब उन्होंने खुद एक एकड़ मॉडल वाली खेती शुरू की थी, तब उनके रिश्तेदार उनके अलग तरीक़ों को लेकर आश्चर्य जताते थे लेकिन अब वे उनसे सलाह लेते हैं। जब उन्होंने वर्मीकंपोस्टिंग शुरू किया था, तब उनका सबसे बड़ा सहारा आम का वह पेड़ था जिसके नीचे उन्होंने पूरी व्यवस्था की थी। बेशक, वह पेड़ इतनी अच्छी तरीक़े से फला-फूला कि उन्होंने दूसरे किसानों को भी उनकी फसलों और खेत के लिए इस नए तरीके को अपनाने के लिए तैयार कर लिया।

नसीम बताती हैं कि किसी नई परियोजना पर काम करने से पहले एसएसपी की टीम के सदस्य न केवल समुदाय के साथ बांटे जाने वाले ज्ञान पर आधारित योजना तैयार करते हैं बल्कि यह भी देखते हैं कि इससे क्या सीखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि “कोई भी विशेषज्ञ या बाहरी आदमी समुदाय के भीतर की संरचना और समीकरण को नहीं समझ सकता है।” सखी को बोर्ड पर लाने के साथ, एसएसपी एक ग्राम एक्शन ग्रुप का गठन करता है जिसमें ग्राम पंचायत के प्रतिनिधि और पिछड़े समूहों के लोगों सहित विभिन्न हितधारक शामिल होते हैं।

जीवन, कामयाबी और नेतृत्व

जब एसएसपी ने एक-एकड़ ज़मीन मॉडल के जरिए महिला किसानों की मदद करनी शुरू की थी तब उनका प्राथमिक लक्ष्य इन परिवारों को खाद्य सुरक्षा दिलाना था। अब इसने अपने प्रयासों में विस्तार किया है और फ़ूड वैल्यू चेन के स्तर पर जाकर किसानों की मदद कर रहा है। इससे जुड़ी कुछ महिला किसानों ने दाल और अनाज जैसे स्थानीय उत्पादों की प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित कर ली है। अन्य महिलाएं वर्मीकम्पोस्ट जैसे खेती में इस्तेमाल होने वाली दूसरी चीजों का उत्पादन कर रही हैं या कुछ किसान बीजों की विलुप्त हो रही प्रजातियों के लिए बीज गार्डियन या बीज माता बन चुकी हैं। उन्होंने ख़रीद, प्रोसेसिंग और मार्केटिंग से लाभ उठाने के लिए समूहों का भी निर्माण कर लिया है। कुछ संबंधित व्यवसायों जैसे पशुपालन, मुर्गी पालन और डेयरी का काम भी करने लगी हैं।

ब्लॉक कोऑर्डिनेटर अर्चना माने ने बताया कि कैसे उनके एक व्यवसाय से दूसरे व्यवसाय की शुरुआत हुई और अब उनकी सालाना आय 10 लाख रुपए तक पहुंच गई है। एसएसपी का प्रशिक्षण और मेंटॉरशीप इकोसिस्टम महिलाओं को व्यवसाय कौशल, मार्केटिंग में सहायता, वित्तीय शिक्षा, स्टार्ट-अप के लिए पूंजी और लास्ट-माइल डिस्ट्रिब्यूशन वाली व्यवस्था के जरिए बड़ी कम्पनियों से सम्पर्क बनाने का रास्ता प्रदान करता है। अर्चना कहती हैं कि “इसने मेरी ज़िंदगी बदल दी है। बहुत अच्छी नौकरी के बदले भी मैं अपना यह कामकाज नहीं छोड़ सकती हूं।”  

जो काम आपदा प्रबंधन के रूप में शुरू हुआ था, वह लम्बे समय तक चलने वाला सफल टिकाऊ मॉडल साबित हुआ है। नसीम कहती हैं कि “यदि एसएसपी न भी हो तो भी सखी अपने समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में कार्यरत रहेगी।” 

प्रेमा ने सखी आंदोलन को ‘बिल्डिंग बैक बेटर’ यानी समुदाय को आपदाओं और अन्य संकटों के लिए तैयार करने के इरादे से शुरू किया था। इस विचार में अब देश में महिलाओं को सामुदायिक संसाधन के रूप में देखने का विचार भी प्रभावी रूप से शामिल हो गया है। एसएसपी ने एक अनुकरणीय रास्ता बनाया है, जो एक समुदाय की चुनौतियों का जवाब देते हुए, योजना और निर्णय लेने का नियंत्रण महिलाओं के हाथों में देता है। यह उनमें विश्वास पैदा करता है कि उनका सार्वजनिक नेतृत्व की भूमिकाएं निभाना बहुत जरूरी है। इस मुहिम में शामिल होने वाली हर सखी और लाभान्वित होने वाले हर समुदाय के साथ प्रेमा का यह विचार जीवित रहने वाला है।

देबोजीत दत्ता ने इस लेख में अपना योगदान दिया है।

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रोज़गार को लेकर भारतीय युवाओं को भविष्य से क्या उम्मीद करनी चाहिए

इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन (आईएलओ) ने हाल ही में ग्लोबल एम्प्लॉयमेंट ट्रेंड्स फॉर यूथ 2022 जारी किया है। आईएलओ की इस रिपोर्ट में कुछ ऐसी दिलचस्प जानकारियां हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि रोजगार हासिल करना वैश्विक स्तर पर युवाओं के लिए सहज नहीं रह गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार, 2019 और 2020 के बीच, 25 वर्ष से अधिक आयु वालों की तुलना में 15-24 वर्ष के आयु वर्ग में बेरोज़गारी की दर अधिक है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि ज़्यादातर नियोक्ता नए लोगों की भर्ती की बजाय पहले से काम कर रहे कर्मचारियों की नौकरियां बचाना चाहते थे। नतीजतन, इसका सीधा असर युवाओं और उनके रोज़गार पर पड़ा।

जहां ऐसी उम्मीद की जा रही है कि उच्च-आय वाले देश 2020 के अपने रोज़गार घाटे से 2022 तक उबर जाएंगे। वहीं, निम्न-आय वाले देश इतनी जल्दी इस अंतर को कम नहीं कर पाएंगे। भारत के मामले में यह स्थिति अधिक चुनौतीपूर्ण है क्योंकि यह एकमात्र ऐसा देश है, जहां युवा 2020 की तुलना में 2021 में और अधिक पिछड़ गया है। यहां पर इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि रिपोर्ट के मुताबिक, युवा भारतीय पुरुष ग्लोबल वर्कफोर्स का 16 फ़ीसदी हिस्सा हैं, और युवा भारतीय महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा 5 फ़ीसदी है।

कामकाज का भविष्य तकनीकी आविष्कारों, जनसांख्यिकीय बदलावों, जलवायु परिवर्तन और वैश्वीकरण से प्रभावित होगा।

अब जब व्यवस्थाएं महामारी से हुए नुकसान से उबरने के लिए समाधान तैयार करने में लगी हैं। वहां, यह रिपोर्ट भविष्य के निवेश के लिए रणनीति निर्धारित करते समय मानव-केंद्रित दृष्टिकोण अपनाने पर जोर देती है। यह स्पष्ट हो चुका है कि कामकाज का भविष्य तकनीकी आविष्कारों, जनसांख्यिकीय बदलाव, पर्यावरण/जलवायु परिवर्तन और वैश्वीकरण से प्रभावित होगा। युवाओं को रोजगार के मौके देने वाले कामकाज के बड़े दायरे को देखें तो यह रिपोर्ट बताती है कि तीन तरह की अर्थव्यवस्थाओं में भविष्य में अधिक निवेश देखने को मिलेगा।

आज इन्हें भले ही एक ख़ास तरह की व्यवस्था (इकोसिस्टम) माना जाता है, लेकिन इनमें से हर एक अर्थव्यवस्था भविष्य के युवाओं के लिए अधिक स्थायी मार्ग होगा।

दुर्भाग्यवश महामारी के दौरान बच्चे और युवा दोनों ही नया कुछ सीखने से वंचित रहे और उन्हें इसका बहुत नुक़सान हुआ। यह नुक़सान भविष्य में उनकी प्रगति को अनिवार्य रूप से प्रभावित करेगा। दुनियाभर के कई देशों में महामारी के दौरान लम्बे समय तक स्कूल बंद रहे। इन देशों में भी भारत उन देशों की सूची में शामिल है जहां सबसे लम्बी अवधि तक स्कूल बंद रहे। विशेषज्ञों का मानना है कि इसका असर न केवल सीखने पर पड़ा है बल्कि लम्बे अंतराल के कारण सीखने की क्षमता में भी गिरावट आई है। इस आर्थिक और शैक्षिक घाटे के चलते हमें कुछ ऐसा देखने को मिल सकता है कि बच्चों में कुछ करने की चाह होते हुए भी उनके पास उसे करने के लिए जरूरी क्षमता होगी, यह जरूरी नहीं। भले ही उनके पास जरूरी संसाधनों की उपलब्धता और जागरुकता कमी न हो। अगर हमारा लक्ष्य युवाओं को भविष्य में कामकाज लिए तैयार करना है तो हमें निम्नलिखित चीजों को बेहतर करने की आवश्यकता है:

1. हरित अर्थव्यवस्था (ग्रीन इकॉनमी) के बारे में जागरूकता

भारत में युवाओं की संख्या को देखते हुए हमें उन्हें इस तरह के भविष्य के लिए तैयार करने की आवश्यकता है। इन क्षेत्रों में अक्सर खास कौशल की ज़रूरत होती है। इसलिए इसे करियर की शुरूआत कर रहे लोगों के लिए बहुत सुलभ नहीं माना जाता है। यह समझना बहुत जरूरी है कि यह केवल हरित अर्थव्यवस्था में करियर बनाने के लिए युवाओं को तैयार करने भर से जुड़ा नहीं है बल्कि करियर के मौजूदा विकल्पों में पर्यावरण को लेकर समझदारी बरतने से है। – निकिता बेंगानी, निदेशक (यूथ प्रोग्राम्स), क्वेस्ट अलाइयन्स

स्कूल की यूनीफ़ॉर्म में बच्चों का एक समूह_युवा रोज़गार
केयर इकॉनमी युवाओं, विशेष रूप से युवा महिलाओं के लिए एक प्रमुख नियोक्ता बनी रहेगी। | चित्र साभार: प्रथम स्किलिंग मीडिया लैब

पर्यावरणीय स्थायित्व को लेकर बढ़ती चिंताओं को देख कर ऐसा अंदाजा किया जा रहा है कि आने वाले वर्षों में हरित अर्थव्यवस्था बहुत सारे रोजगार विकसित करेगी। इसका अर्थ न केवल कामकाज के नए क्षेत्रों से है बल्कि यह मौजूदा उद्योगों (जैसे ऑटोमोटिव, इलेक्ट्रिकल, निर्माण और सेवा क्षेत्र) में हरित परिवर्तन यानी इनके पर्यावरण प्रेमी हो जाने की भी बात करता है। दिलचस्प बात यह है कि हरित अर्थव्यवस्था से यह उम्मीद की जा रही है कि यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लगभग सभी क्षेत्रों को अपने में शामिल करेगा। लेकिन यह बदलाव व्यापक संरचनात्मक परिवर्तनों और निवेश के बिना संभव नहीं होगा। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि इन उद्योगों से जुड़ने के लिए आवश्यक कौशल से संबंधित पर्याप्त डेटा और जागरूकता युवाओं के पास है। रिपोर्ट के अनुसार, सही संसाधनों (उदाहरण के लिए हरित तकनीक और हरित समाधानों पर शोध में निवेश) के साथ इस क्षेत्र से 2030 तक युवाओं के लिए 8.4 मिलियन नौकरियां सृजित होंगी। यह एक ऐसा अवसर है जिसे सूचना के अभाव के कारण नहीं गंवाना चाहिए।

2. डिजिटल संसाधनों तक पहुंच

“डिजिटलीकरण और प्रौद्योगिकी, वित्त से लेकर स्वास्थ्य सेवा तक सभी क्षेत्रों को तेजी से प्रभावित कर रहे हैं। इस प्रौद्योगिकी-संचालित अर्थव्यवस्था में मानव संसाधनों का शामिल होना लगातार प्रासंगिक बना हुआ है। डिजिटल और प्रौद्योगिकी-आधारित नौकरियां जहां बढ़ती जा रही हैं और अपने साथ कई अवसर भी ला रही हैं। वहीं, इनसे जुड़ी चुनौतियां भी सामने आने लगी हैं जो कि इन कामों के लिए जरूरी कौशल वाले लोगों की नियुक्ति करने और ऐसा करते हुए लैंगिक विविधता बनाए रखने से जुड़ी हैं। आगे बढ़ते हुए यह जरूरी है कि रोज़गार की व्यवस्था में शामिल नीतिनिर्माता, ट्रेनिंग पार्टनर और कंपनियां, कामकाज की जगह पर विविधता (डायवर्सिटी) लाने के लिए मिलकर प्रयास करें।” – देवांशी शुक्ला, शोधार्थी, इनसीड

जैसे-जैसे अर्थव्यवस्थाएं कृषि से निकलकर उद्योग और सेवाओं की ओर स्थानांतरित होंगी, डिजिटल तकनीक के उपयोग में वृद्धि स्वाभाविक है। लेकिन इससे पैदा होने वाला रोज़गार ग्रामीण क्षेत्रों के बजाय शहरी इलाक़ों में केंद्रित होगा। साथ ही ये डिजिटल हार्डवेयर और इंटरनेट कनेक्टिविटी की उपलब्धता से काफी प्रभावित होगा। रिपोर्ट के अनुसार, इस क्षेत्र में 2030 तक युवाओं के लिए 6.4 मिलियन नौकरियां और जुड़ने की उम्मीद है। लेकिन यदि हम युवाओं को ऐसे काम के लिए तैयार करने वाले हैं तो इस क्षेत्र में उच्च स्तर के तकनीकी कौशल की मांग होने के कारण प्रशिक्षण पर बहुत अधिक काम किए जाने की ज़रूरत है। अच्छी बात यह है कि भविष्य में सभी नौकरियां पूरी तरह से तकनीकी नहीं होंगी। रचनात्मक अर्थव्यवस्था डिजिटल कौशल पर बहुत अधिक निर्भर है और इन क्षेत्रों में रिक्तियों के भी बढ़ने की उम्मीद है।

3. देखभाल के क्षेत्र में नौकरी की संभावनाएं

“महामारी से सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य ग़ैर-पेशेवर व्यक्तिगत सेवाओं में महिलाओं का वर्चस्व अधिक दिखाई दिया। यह तय करना जरूरी है कि औपचारिक क्षेत्र के काम में, अच्छी नौकरियों में और कम अस्थिर कामों में महिलाओं की संख्या बढ़े। वर्तमान में, उनके हिस्से केवल अनौपचारिक और कम उत्पादक नौकरियां ही हैं। सॉफ़्ट स्किल में प्रशिक्षण, बाज़ार द्वारा महत्व दिए जाने वाले कौशलों का प्रशिक्षण मिलते रहना और रोज़गार के लिये योग्यता बढ़ाने और आत्मविश्वास बनाए रखने के उद्देश्य से की जाने वाली गतिविधियों का प्रयोग कर उन लोगों को काम पर वापस बुलाया जा सकता है जो इसे छोड़ चुके हैं।” – डॉक्टर अनीषा शर्मा, असिस्टेंट प्रोफेसर, अशोका यूनिवर्सिटी

केयर इकॉनमी या देखभाल अर्थव्यवस्था कुछ अनिवार्य सेवाओं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और घरेलू कामों के लिए ज़िम्मेदार होती है। लेकिन ज़्यादातर नौकरियों की अनौपचारिक प्रवृति के कारण इस क्षेत्र की अपनी कमजोरियां हैं। इन श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा की अक्सर कमी होती है और अन्य क्षेत्रों की तुलना में भुगतान भी बहुत कम मिलता है। महामारी के दौरान इस क्षेत्र के लोग भारी वेतन कटौती, काम के घंटों में कमी और कोविड-19 से संक्रमण से प्रभावित हुए। उम्मीद है कि भविष्य में केयर इकॉनमी युवाओं, विशेषकर युवा महिलाओं को नौकरियां उपलब्ध करवाती रहेगी। यह सुनिश्चित करने के लिए निवेश की जरूरत होगी ताकि क्षेत्र नैतिक नियमों को लागू करने के लिए नियम-क़ायदे बनाए और अच्छे काम के अवसर प्रदान करे। ऐसा करने से यह क्षेत्र युवाओं को अपनी ओर अधिक से अधिक आकर्षित कर सकेगा।

जीत के लिए कौशल विकास

यह जानकर खुशी हो रही है कि रिपोर्ट ने कौशल विकास और उद्यमिता को स्पष्ट रूप से प्रमुख क्षेत्र के रूप में उजागर किया है। साथ ही, इस पर भी ज़ोर दिया है कि यदि हम युवाओं को कामकाज के मुताबिक ढालना चाहते हैं और बढ़िया नौकरियों के अधिक अवसर पैदा करना चाहते हैं तो सिस्टम को इस क्षेत्र में निवेश करने की ज़रूरत है।

लेकिन यह इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि कैसे महामारी ने कई कौशल विकास कार्यक्रमों के संचालन ढांचे में एक बड़ी बाधा खड़ी की है। उच्च आय वाले देशों में लगभग 70 प्रतिशत तकनीकी व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण (टेक्निकल एंड वोकेशनल एजुकेशन एंड ट्रेनिंग या टीवीईटी) प्रदाता दूरस्थ प्रशिक्षण देने में सक्षम थे। लेकिन शायद ही कोई कम आय वाले देशों में, इस तरह की सफलता प्राप्त कर सका। महामारी के दौरान इन कम आय वाले देशों में 50 प्रतिशत से अधिक प्रशिक्षण गतिविधियां बंद हो गईं। 

बहुत कम संगठन ग्रामीण भारत में युवाओं को तेजी से आगे बढ़ने और तकनीक से जुड़े सीखने के अवसर प्रदान करने में सक्षम हैं। बहुत बड़ी आबादी लॉकडाउन के कारण लगे प्रतिबंधों से जूझ रही थी। इसके कारण युवाओं से जुड़ने की उनकी योग्यता में तेज़ी से कमी आई। यह तथ्य पीएमकेवीवाई 3.0 की औसत प्लेसमेंट दर 15 प्रतिशत हो जाने से और स्पष्ट हो जाता है।

हालांकि महिलाओं के रोज़गार में गिरावट आई है लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने पुरुषों की तुलना में अधिक संख्या में दाख़िला करवाया है।

इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि जहां युवा समग्र रूप से नकारात्मक रूप से प्रभावित थे, वहीं महिलाओं को इस महामारी का अधिक ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा है। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में महिलाओं के एनईईटी श्रेणी में आने की संभावना अधिक है। इससे पता चलता है कि पिछले दो दशकों में लैंगिक अंतर को ख़त्म करने की दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया है। ऐसा देखा गया है कि लैंगिक भेदभाव के उच्च स्तर, देखभाल से जुड़े कामों का असमान वितरण और प्रतिबंधात्मक सामाजिक मानदंड का स्तर जितना उंचा होता है एनईईटी श्रेणी में आने वाली महिलाओं की संख्या भी उतनी ही बढ़ती जाती है। लेकिन इस बात से उम्मीद जागी है कि जहां महिलाओं के रोज़गार दर में गिरावट आई है वहीं शिक्षा में उनके नामांकन का दर पुरुषों की तुलना में अधिक है।

प्रथम में हमने हमेशा यह सुनिश्चित किया है कि कौशल विकास इकोसिस्टम  का उद्देश्य केवल युवाओं को प्रमाण पत्र देना भर नहीं है। बल्कि सबसे आसान समाधान न होने के बावजूद इसका उद्देश्य उन्हें सार्थक आजीविका के रास्ते खोजने में मदद करना है। यदि युवाओं को इन नए क्षेत्रों में प्रवेश करना है, तो उन्हें एक से दूसरे तक पहुंचाई जा सकने वाली मूल दक्षताओं से लेकर उच्च स्तर के तकनीकी उद्योग-विशिष्ट ज्ञान जैसी कुशलताओं के साथ तैयार होने की जरूरत है।

भविष्य की इन जरूरतों को पूरा करने के लिए, इकोसिस्टम और इसके सभी हितधारकों को बदलना होगा। जहां एक तरफ़ विकास क्षेत्र आज इन अंतरालों को दूर करने में मदद करने के लिए डिज़ाइन किए गए समाधानों का नेतृत्व कर सकता है। वहीं दूसरी ओर नीति निर्माताओं और परोपकारी लोगों को समान रूप से हाथ मिलाने और निवेश करने की आवश्यकता है जो भविष्य में इन कमजोरियों को कम करने में मदद कर सकते हैं।

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भारत में पिछड़े समुदायों और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के बीच की दूरी कम क्यों नहीं हो रही है?

विश्वभर में, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पेशेवरों ने (बहुत) धीरे-धीरे लोगों के सामाजिक वातावरण पर ध्यान देना शुरू किया है। अब किसी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बातचीत में राजनीति, इतिहास और अर्थशास्त्र जैसे विषय तेज़ी से शामिल होते जा रहे हैं। लेकिन एक इंसान के मानसिक स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों, जैसे भेदभाव, पक्षपात और पूर्वाग्रह, को बहुत कम शोधकर्ता और उससे भी कम मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सक स्वीकार करते हैं। नतीजतन, एक बड़ा तबका ऐसा रह गया है जिसे सिद्धांत और व्यवहार, दोनों में ही शामिल नहीं किया गया है।

ऐसे अनगिनत शोध हैं जो मानसिक स्वास्थ्य के अनुभवों में पहचान संबंधी असमानताओं पर चर्चा करते हैं। ये असमानताएं लिंग, जाति और धर्म, सेक्शुएलिटी से जुड़ी होती हैं।1,2 अल्पसंख्यक और समाज के पिछड़े समुदाय तनाव के कारकों से कहीं अधिक प्रभावित होते हैं। सामान्य आबादी की तुलना में इन तबकों में अवसाद और चिंता जैसे मानसिक विकार ज्यादा देखने को मिलते हैं। एक व्यक्ति की सामाजिक पहचान जैसे कि लिंग, धर्म, जाति और सेक्शुएलिटी आदि उसके व्यक्तिगत, आपसी और संस्थागत स्तरों पर उसके जीवन के अनुभवों को समृद्ध या कुंठित बनाती हैं। एक चिकित्सक (थैरेपिस्ट) मानसिक स्वास्थ्य के लिए उपचार चाहने वालों को, उन व्यवस्थाओं के साथ सामंजस्य बिठाने में मदद कर सकता है जो उनके जीवन को परिभाषित करती हैं। साथ ही उनके स्वास्थ्य और आपसी संबंधों पर असर डालती हैं। लेकिन, वास्तविकता में, शायद ही कभी थैरेपिस्ट मरीज़ के सामाजिक ढांचे को भी पहचान पाते हैं। ऐसे में उस व्यक्ति पर पड़ने वाले इनके मनोवैज्ञानिक असर की बात तो छोड़ ही दी जानी चाहिए।

आमतौर पर थैरेपिस्ट यह मानते हैं कि ‘क्लाइंट सेंटर्ड’ नजरिया मरीज़ द्वारा अपने सामाजिक सच का सामना करने की किसी भी जरूरत को नज़रअंदाज़ कर देता है।

मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कुछ ही पेशेवर किसी व्यक्ति की सामाजिक पहचान को ध्यान में रखते हुए, थैरेपी के दौरान उनसे जुड़ने, बचाव के तरीक़े तय करने और उनके बारे में जानने को महत्व देते हैं। अपनी प्रैक्टिस में ऐसा करने वाले थैरेपिस्ट्स की संख्या इससे भी कम है। इसके बजाय, प्रमुख समूहों के थैरेपिस्ट वन-साइज़-फिट-ऑल वाले तरीक़े को अपनाते हैं3 और दावा करते हैं कि व्यक्ति-केंद्रित होना भी सबको शामिल करने जैसा ही है। उदाहरण के लिए, थैरेपिस्ट अक्सर मानते हैं कि किसी व्यक्ति को उसके परिवेश से अलग करने वाले ‘व्यक्ति-केंद्रित‘ या ‘क्लाइंट-सेंटर्ड’ नज़रिए में, उसे उसके सामाजिक सच का सामना करने की किसी भी जरूरत को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। लेकिन क्या किसी व्यक्ति को ‘केंद्र में रखने’ का अर्थ उसके जीवन के अनुभवों को आकार देने वाली सभी सामाजिक परिस्थितियों को केंद्र में रखना नहीं है? आख़िरकार, व्यक्तिगत भी (गहराई में) राजनीतिक ही होता है।

ग़ैरसमावेशी चिकित्सा (नॉनइंक्लूसिव थैरेपी) में लोगों का विश्वास कम होता है

2022 की शुरुआत में, सामाजिक परिवर्तन और विकास के मिले-जुले नजरिए के साथ काम करने वाले एक सामाजिक उद्यम बिलॉन्ग ने 111 लोगों पर एक अध्ययन किया। इस अध्ययन में उनकी सामाजिक पहचान, पहचान-आधारित भेदभाव और पूर्वाग्रह के अनुभवों के बारे में पूछा गया। साथ ही उनके मानसिक स्वास्थ्य और अतीत में ली गई किसी तरह की चिकित्सीय या मनोरोग सेवाओं जैसे मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल से जुड़े अनुभवों पर बात की गई। अध्ययन से पता चला कि 59.46 प्रतिशत प्रतिभागियों को अपने जीवन में पहचान-आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ा था। इनमें से लगभग एक चौथाई को हर दिन ऐसी स्थितियों से गुजरना पड़ा था। भेदभाव से पीड़ित इन लोगों में से केवल आधे ही लोग मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग कर रहे थे। इन सेवाओं का लाभ न उठा पा रहे लोगों ने बताया कि ऐसा न कर पाने में इनका महंगा होना एक बड़ी बाधा है।
पहचान-केंद्रित भेदभाव से पीड़ित कोई व्यक्ति जब आर्थिक बाधाओं और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी धारणाओं से पार पाकर, किसी पेशेवर तक पहुंचता है तो नई क़िस्म की चुनौतियां वहां उसके इंतज़ार में होती हैं। उसका सामना उन थैरेपिस्ट्स से होता है जो विभिन्न सामाजिक समूहों को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए किसी थैरेपिस्ट द्वारा की गई जातिवादी टिप्पणी पीड़ित को उपचार में अपनी दलित पहचान को छुपाने के लिए प्रेरित करता है।

एक महिला खुले दरवाज़े वाले एक कमरे में बैठी हुई_मानसिक स्वास्थ्य
प्रमुख समूहों के थैरेपिस्ट वन-साइज़-फिट-ऑल वाले तरीके को अपनाते हैं और दावा करते हैं कि व्यक्ति-केंद्रित होना भी समावेशी होने जैसा ही है। | चित्र साभार: पेक्सल्स

इस तरह अपने सामाजिक और राजनीतिक रुख की झलक दिखाकर मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों ने, इलाज चाहने वालों के लिए थैरेपी को एक मुश्किल काम बना दिया है। ये लोग वही हैं जो अभी ‘स्थिति को भांप’ ही रहे थे। 28 साल के क्वीर दलित अजय ने चिकित्सा में कुछ विषयों पर ध्यान दिलाने और उनकी जाति के लोगों को इससे बाहर रखने जैसी बातें सामने लाईं। ऐसा तब हुआ जब चिकित्सक की प्रतिक्रियाओं से जातिगत भेदभाव का पता चला। इसके अलावा, अध्ययन के प्रतिभागियों के अनुभव से यह भी पता चला कि क्वीर-अफ़रमेटिव थैरेपी अक्सर एकदम ग़लत दिशा ले लेती है। यह किसी व्यक्ति विशेष की सेक्शुएलिटी को मान्यता देती है वहीं किसी दूसरे को अमान्य बताती है जो संभवतः किसी व्यक्ति में अधिक मुखर होता है और उसकी पहचान का हिस्सा होता है। ऐसा तब भी होता है जब जाति-आधारित भेदभाव का किसी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। स्थिति तब और विकट हो जाती है जब ‘नीची’ जाति से जुड़ी पहचान और अल्पसंख्यक सेक्शुअल पहचान एक साथ आ जाती है।4

चिकित्सक सुरक्षित जगह कैसे बना सकते हैं?

अप्रत्याशित रूप से, बहुत कम प्रतिभागियों ने चिकित्सा में अपने पहचान-संबंधी अनुभवों पर चर्चा की। वे लोग जिन्होंने परिवार के सदस्यों, प्रोफेसरों साथियों आदि के साथ भेदभाव जैसे मुद्दों पर चर्चा की थी, उन्होंने अपने अपने अनुभवों को बाकियों की तुलना में ख़राब बताया।

भारतीय समाज तेजी से बंटता जा रहा है इसलिए पेशेवरों को सामाजिक सहिष्णुता और स्वीकृति के संकेत को मुखरता से वरीयता देनी चाहिए। उन्हें यह समझना चाहिए कि क्लाइंट-थैरेपिस्ट संबंध में बहुत अधिक शक्ति असंतुलन है। उन्हें इस धारणा से दूर हो जाना चाहिए कि उनका पेशेवर नाम और समानुभूति का वादा किसी व्यक्ति को केवल उनकी मौजूदगी भर से सुरक्षित महसूस करवा सकता है। इस अध्ययन में थैरेपी को अधिक समावेशी बनाने के कुछ तरीक़ों पर प्रकाश डाला गया है।

1. छोटे इशारे बड़ी बात कहते हैं

थैरेपिस्ट को समावेशी, दमन-विरोधी, या अधिकार दिलाने वाले के झंडाबरदार के तौर पर सामने आने की जरूरत नहीं है। 28 साल की क्वीर महिला मधु कहती हैं कि “कभी-कभी आपके कमरे में लगा सतरंगी झंडा भी व्यक्ति से कह देता है कि ‘दोस्त! मुझसे बात कर सकते हो।’ थैरेपिस्ट के कमरे में किसी ग़ैर-पश्चिमी देश की कला दिखाने वाली कोई चीज उनके बहु-सांस्कृतिक होने की बात कह देती है। उपचार करवाने वाले की सोच ऐसी बहुत साधारण चीजों से प्रभावित हो सकती है। पेशेवर कुछ छोटे-छोटे कदम उठा सकते हैं – जैसे कि अपने वेबसाइट पर एक पिन, एक पोस्टर या कुछ ऐसे शब्दों को जोड़ना जो उनके समावेशी नजरिए की तरफ इशारा करते हों।

2. नियमित रूप से होने वाले कौशल प्रशिक्षण बहुत ही जरूरी हैं

ख़ासतौर पर कुछ अल्पसंख्यक समूहों के साथ काम करने के लिए प्रशिक्षित किए गए और उनके साथ काम करके अनुभव हासिल करने वाले मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों को, इस तरह से प्रशिक्षित न किए गए और ग़ैर-अनुभवी पेशवेरों की तुलना में बेहतर आंका जाता है। प्रतिभागियों द्वारा मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों से किए जाने वाले प्रश्न बहुत ही सरल थे। उनकी इच्छा थी कि पेशेवर मनोचिकित्सक अपने परिचय में छोटी से छोटी चीजों को शामिल करें। ऐसा करने से वे शुरूआती सत्रों में थैरेपिस्ट को समझने में खर्च होने वाले पैसे और ऊर्जा बचा सकते हैं। वे चाहते हैं कि पेशवेर सामाजिक रूप से अधिक जागरूक हों और वर्कशॉप के जरिए अपने ज्ञान और कौशल को अपडेट करते रहें।

3. थैरेपिस्ट की पहचान महत्वपूर्ण है

अध्ययन में हिस्सा लेने वाले भेदभाव से पीड़ित कुछ प्रतिभागियों को यह महसूस हुआ कि उनके और मानसिक चिकित्सा पेशेवरों के बीच बड़ा सामाजिक अंतर है। इस अंतर को किसी भी प्रशिक्षण, अपस्किलिंग और पढ़ाई-लिखाई से दूर नहीं किया जा सकता है। उत्तर-पूर्वी भारत से आने वाली एक 25 वर्षीय महिला को उसके धर्म और नस्लीय पहचान के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा। इस महिला ने कहा कि “थैरेपिस्ट, थैरेपी की जगह या बातचीत को कितना भी सहज बना ले, मुझे नहीं लगता है कि इससे कुछ मदद मिल सकती है।” इससे सहमत होते हुए मधु ने कहा “सहज महसूस करने के लिए मुझे अपने (क्वीर) समुदाय के किसी थैरेपिस्ट की ज़रूरत है।”

एक पेशे के रूप में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को समावेशी होने के लिए उसे आर्थिक रूप से स्थाई होना चाहिए।

लोगों को उनके समुदाय के एक पेशेवर से मिलाने के लिए, प्रणालीगत और संस्थागत बदलावों की जरूरत है। अल्पसंख्यक समुदायों के लिए शिक्षा को सुलभ बनाना एक कठिन काम है। इसी तरह एक पेशे के रूप में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल को आर्थिक रूप से स्थाई होना चाहिए ताकि पिछड़े समुदायों के लोग भी इसकी ओर आकर्षित हो सकें। 

यह अध्ययन मानसिक स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में मौजूद कई कमियों की पहचान करता है। इनसे हाशिए पर जी रहे लोगों तक पेशेवर मदद पहुंचना मुश्किल हो जाता है। इन कमियों को दूर करने के लिए कई तरह के बदलावों की ज़रूरत है। इसमें छोटे बदलाव शामिल हैं जो मानसिक स्वास्थ्य देखभाल पेशेवर, मदद चाहने वालों के लिए अधिक समावेशी स्थान बनाकर कर सकते हैं। लेकिन बड़े, प्रणालीगत बदलाव, जैसे कि भारत की शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के कामकाज में बदलाव भी उतना ही आवश्यक होगा।

सारांश बिष्ट ने इस लेख में योगदान दिया।

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फुटनोट:

  1. एस मल्होत्रा एंड आर शाह, ‘वीमेन एंड मेंटल हेल्थ इन इंडिया: एन ओवरव्यू’, इंडियन जर्नल ओफ़ सायकाइयट्री, 57 (2), S205, (2015).
  2. जे आर वंडरेकर एंड ए एस निगडकर, ‘व्हाट डू वी नो अबाउट LGBTQIA + मेंटल हेल्थ इन इंडिया? ए रिव्यू ऑफ़ रिसर्च फ़्रॉम 2009 टू 2019’, जरनल ऑफ़ साइकोसेक्शुअल हेल्थ, 2(1), 26–36, (2020).
  3. सी लागो, ‘डायवर्सिटी, ऑप्रेशन, एंड सोसायटी: इमप्लिकेशंस फ़ॉर पर्सन-सेंटर्द एंड इक्स्पीरीएन्शल सायकोथिरेपीज, 10(4), 235–47, (2011).
  4. ए एस अस्करी एंड बी डूलिटिल, ‘अफ़र्मिंग, इंटरसेक्शनल स्पेसेज एंड पोज़िटिव रिलीजियस कोपिंग: एविडेन्स-बेस्ड स्ट्रेटेजिज टू इम्प्रूव द मेंटल हेल्थ ऑफ़ LGBTQ-आईडेनटीफ़ाईंग मुस्लिम्स’, थियोलॉजी एंड सेक्शूऐलिटी, 1–10, (2022).

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फ़ोटो निबंध: जलवायु परिवर्तन पर सबक

जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील देशों की सूची में भारत सातवें स्थान पर आता है। क्लाइमेट वल्नरबिलिटी इंडेक्स के अनुसार, भारत की 80 फ़ीसदी आबादी निरंतर जलवायु आपदा के जोखिम में रहती है। जलवायु परिवर्तन की घटनाओं के धीमे शुरुआती प्रभावों के कारण अकेले साल 2020 में लगभग 14 मिलियन भारतीय लोगों ने पलायन किया। अगर वैश्विक तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 3.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है तो 2050 तक पलायन करने वालों की संख्या तिगुनी से भी अधिक हो सकती है।

सूखे, बाढ़ और चक्रवात के बढ़ते प्रभावों के कारण और अधिक लोगों के जीवन और आजीविका खोने की आशंका प्रबल हो जाती है। हालांकि, भारत भर में समुदाय और लोग अपने आसपास के पर्यावरण में आए बदलावों के प्रति प्रकृति-आधारित समाधानों और पारंपरिक ज्ञान को अपनाकर पर्यावरण की सहनशक्ति का निर्माण कर रहे हैं।

यह फोटो निबंध भारत के कुछ सबसे अधिक जलवायु संवेदनशील राज्यों जैसे केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और उत्तराखंड में रहने वाले लोगों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को दर्शाता है। साथ ही यह इस बारे में बताता है कि ये लोग विषम परिस्थितियों के बीच रहकर कैसे अपने जीवन का पुनर्निर्माण कर रहे हैं।

जयचंद्रन और उनकी बेटियां केरल के इडुक्की जिले में अपने नए घर के सामने बैठी हैं
-जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन

जयचंद्रन और उनकी बेटियां केरल के इडुक्की जिले में अपने नए घर के सामने बैठी हैं। 2018 में केरल बाढ़ के दौरान उनका घर बह जाने के बाद, जयचंद्रन को एक सरकारी योजना के अंतर्गत 10 लाख रुपए की मदद मिली। इस धनराशि से उन्होंने अपने लिए एक नया घर बनाया।

शिव प्रकाश और उनका परिवार गोविंदपुरा, जोधपुर, राजस्थान के पास एक गाँव में -जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन

शिव प्रकाश और उनका परिवार, राजस्थान के जोधपुर के नज़दीक गोविंदपुरा नाम के एक गांव में रहता है। 2000 के दशक की शुरुआत तक 250 परिवारों वाला गोविंदपुरा गांव मौसमी बाढ़ और सालाना सूखे की चुनौतियों से जूझ रहा था। समय के साथ गांव के लोगों ने स्थानीय समाजसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर (चेक-डैम) जैसे ढाँचों का निर्माण किया ताकि बहते पानी को रोका जा सके और भूजल का स्तर बढ़ाया जा सके।

उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में शीतलाखेत को तबाह करने वाली कई जंगल की आग से झुलसे जंगल के एक हिस्से के आसपास एक महिला समूह के सदस्य इकट्ठा होते हैं -जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन

उत्तराखंड के अलमोड़ा जिले में शीतलाखेत नाम की जगह जंगल की आग के कारण तबाह हो गई। यहीं पर आग से झुलसे जंगल के एक हिस्से में एक महिला समूह के सदस्य मिलते हैं। जैसे पिछले कुछ सालों में जंगल में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि हुई है, उसे देखते हुए महिला मंगल दल ने राज्य के वन विभाग के अधिकारियों के साथ मिलकर काम करना शुरू कर दिया है। ये महिलाएं जंगल की आग को बुझाने, मुख्त तौर पर पेड़ों की शाखाओं का इस्तेमाल करके, का काम करती हैं।

उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के एक सेवानिवृत्त स्कूल शिक्षक योगंबर सिंह रावत ने सामुदायिक रेडियो स्टेशन की धुन बजाई-जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन

उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के सेवानिवृत्त स्कूल शिक्षक योगंबर सिंह रावत, सामुदायिक रेडियो स्टेशन मंदाकिनी की आवाज़ को सुनते हैं। यह रेडियो स्टेशन लोगों को समय पर सरकारी सलाह देने के साथ-साथ आपदा का जोखिम घटाने और उससे बचाव के उपायों के बारे में सामुदायिक जागरूकता पैदा करने पर केंद्रित है।

ओडिशा के केंद्रपाड़ा जिले के बेलपाड़ा गांव का एक किसान धान की एक देशी किस्म पोटिया को प्रदर्शित करते हुए-जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन

ओडिशा में केंद्रपाड़ा ज़िले के बेलपाड़ा गांव के किसान इस इलाक़े में ज्यादा पानी में पनपने की क्षमता रखने वाले पोटिया धान की खेती करते हैं। बाढ़ के कारण लगातार फसलों में भारी नुकसान का सामना करने के बाद, अब इस क्षेत्र के किसान धान की संकर किस्मों की जगह पर पोटिया की खेती को बढ़ाना चाहते हैं।

थॉमस जोसेफ ने अपने नए घर की उठी हुई नींव की ओर इशारा किया-जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन

थॉमस जोसेफ अपने नए घर की ऊंची गई नींव को दिखाते हैं। भारत में समुद्र तल से सबसे कम उंचाई पर स्थित केरल के कुट्टनाड क्षेत्र के निवासी जोसेफ ने खम्भों पर अपने घर को फिर से बनाया है। इस पुनर्निर्माण का मुख्य कारण हाल के वर्षों में इस इलाके में आने वाली बाढ़ की संख्या में हुई वृद्धि है।

महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के किसान राजेंद्र सीताराम खपरे अनार के पौधे के पास मिट्टी का घड़ा दबाते हैं-जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: मिलन जॉर्ज जेकब

महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के किसान राजेंद्र सीताराम खपरे अनार के पौधे के बगल में मिट्टी का घड़ा दबाते हैं। यह पारंपरिक तकनीक ड्रिप सिंचाई से नमी बनाए रखने में मदद करती है। भारत के सर्वाधिक सूखाग्रस्त जिलों में शामिल इस जिले में, ऐसा करने से अनार का पौधा झुलसा देने वाली गर्मी से बच जाता है।

मुंबई के उत्तर पश्चिमी इलके की एक झुग्गी, अंबोजवाड़ी के समुदाय के सदस्यों के साथ युवा समूह, जलवायु संकट पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा होते हैं-जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: मिलन जॉर्ज जेकब

मुंबई के उत्तर पश्चिमी किनारे में एक झुग्गी अंबोजवाड़ी के लोगों के साथ युवा समूह जलवायु संकट पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा होते हैं। एक स्थानीय समाजसेवी संस्था की मदद से उन्होंने बस्ती में उन क्षेत्रों की मैपिंग की है, जो बाढ़ की चपेट में हैं। इन्होंने मिलकर चरम जलवायु घटना के लिए एक त्वरित प्रतिक्रिया रणनीति तैयार की है।

हीरा और चंदन उत्तराखंड में नैनीताल जिले के सुदा गांव में स्कूली छात्रों को जल संरक्षण और वसंत पुनर्भरण तकनीक के बारे में बताते हुए -जलवायु परिवर्तन
चित्र साभार: शॉन सेबस्टियन

हीरा और चंदन उत्तराखंड में नैनीताल जिले के सुदा गांव में स्कूली छात्रों को जल संरक्षण और स्प्रिंग रिचार्ज तकनीक के व्यावहारिक उपयोग के तरीके सिखाते हैं। बारिश में अनियमितता के कारण राज्य को जल संकट से जूझना पड़ता है। ये लोग गांव में स्प्रिंग डिस्चार्ज को बेहतर बनाने के प्रयासों में लगे हुए हैं। ऐसा करने के लिए वे जलग्रहण वाले क्षेत्रों में जल पुनर्भरण गड्ढों की मैपिंग और खुदाई करते हैं। इससे भूजल पुनर्भरण में सुधार करने में मदद मिलती है। फलस्वरूप स्प्रिंग से निकलने वाले जल की मात्रा बढ़ जाती है।

यह फ़ोटो निबंध काउन्सिल ऑन एनर्जी ,इन्वायरॉन्मेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) द्वारा इंडिया क्लाइमेट कोलैबोरेटिव, एडेलगिव फाउंडेशन और ड्रोक्पा फिल्म्स की साझेदारी में की जाने वाली फेसेज ऑफ क्लाइमेट रेजिलिएंस डॉक्यूमेंट्री प्रोजेक्ट का हिस्सा है।

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सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को समझना

संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य 3 का लक्ष्य 2030 तक यूनिवर्सल स्वास्थ्य कवरेज को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना है। इस उद्देश्य को बेहतर भर्ती, प्रशिक्षण, और स्वास्थ्य सेवा कार्यबल की अवधारण (अन्य बातों के अलावा) के माध्यम से प्राप्त किया जाएगा।

भारत में अधिकांश सरकारी योजनाएं ज़मीनी स्तर पर अपनी स्ट्रेटजी को लागू करने के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (कम्यूनिटी हेल्थ वर्करया सीएचडबल्यू)पर निर्भर होती हैं। इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य हस्तक्षेपों को लागू करने वाले कई एनजीओ भी देश में समग्र स्वास्थ्य परिणामों में सुधार लाना चाहते हैं। इस उद्देश्य से समुदायों और स्वास्थ्य प्रणालियों तक पहुंचने के लिए बहुत हद तक इन फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं पर ही निर्भर करते हैं।

कुछ साल पहले स्नेहा में हमने महसूस किया कि इन सीएचडब्ल्यू के बारे में हमारी पहुंच में उपलब्ध बुनियादी जनसांख्यिकीय जानकारियों से इतर हम बहुत कम जानते हैं। इस समस्या पर काम करने के उद्देश्य से हमने सीएचडबल्यू के प्रेरणास्त्रोत, उनके सामने आने वाली चुनौतियों और उन चुनौतियों को दूर करने के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले तरीक़ों को समझने के लिए गुणात्मक अध्ययन की रूपरेखा तैयार की।

इस अध्ययन के प्रतिभागियों के सैम्पल स्वास्थ्य क्षेत्र और एकीकृत बाल विकास सेवाओं (इंटिग्रेटेड चिल्ड्रन डेवलपमेंट सर्विसेज या आईसीडीएस) में काम कर रहे चार समाजसेवी संस्थाओं से लिए गए थे। इस गुणात्मक शोध में गहन इंटरव्यू और फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के रोज़मर्रा के जीवन का प्रतिभागी पर्यवेक्षण शामिल था। कुल 46 इंटरव्यू आयोजित किए गए थे जिसमें जनसांख्यिकीय विशेषताओं, भर्ती, और फ्रंटलाइन कार्यकर्ता के प्रशिक्षण के अनुभवों से जुड़े प्रश्न शामिल थे।

हमने क्या पाया

1. भर्ती

सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की भर्ती औपचारिक और ग़ैर-औपचारिक दोनों ही प्रक्रियाओं से की जाती है। सीएचडबल्यू की भर्ती का सबसे आम तरीक़ा रेफ़रल है।

ज़मीन पर बैठी महिलाओं से बात करती महिला सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता_फ़्रंटलाइन वर्कर
चित्र साभार: मासीज डाकोविज

अख़बारों या इंटरनेट में नौकरी की जानकारी देना सीएचडब्ल्यू की भर्ती में समय और प्रयास के मामले में उतने प्रभावी नहीं होते हैं।

एक बार संभावित आवेदकों को कार्यक्रम के बारे में पता चलने के बाद, अंतिम चयन आमने-सामने साक्षात्कार और कुछ मामलों में लिखित परीक्षा पर भी आधारित होता है।

2. प्रशिक्षण

प्रशिक्षण, परामर्श, मान्यता और अप्वर्ड मोबिलिटी के संदर्भ में संगठन का समर्थन सीएचडब्ल्यू को रोके रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उनका लगाव संगठन से प्राप्त प्रोग्रामेटिक मार्गदर्शन और समर्थन में निहित है। वे पेशेवर और व्यक्तिगत संकट के दौरान समर्थन के लिए अपने सुपरवाइज़र पर निर्भर होते हैं।

3. प्रेरणा

अ) कम्युनिटी बाय-इन: जब कोई सीएचडबल्यू किसी नए समुदाय में जाकर काम करना शुरू करता है तब उसे कई तरह के विरोधों का सामना करना पड़ता है। अक्सर उन्हें अपना समय अपनी विश्वसनीयता बनाने और भरोसा जीतने में लगाना पड़ता है। इन अनौपचारिक बस्तियों में शिक्षा के विपरीत स्वास्थ्य अभी भी प्राथमिकता नहीं है। प्रसव पूर्व देखभाल, प्रसवोत्तर देखभाल, कुपोषण और हिंसा की व्यापकता आदि को तब तक प्राथमिकता नहीं दी जाती है जब तक कि ये एक गम्भीर चरण में नहीं पहुंच जाते।

इसलिए सीएचडबल्यू को अक्सर लोगों को समझाना पड़ता है कि स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं महत्वपूर्ण हैं। यह एक लंबी और थकाऊ यात्रा हो सकती है। इसके अतिरिक्त इलाके में रहने वाले कई लोग अक्सर या तो अपना घर छोड़ कर कहीं और रहने चले जाते हैं या फिर नए लोग आकर बसते रहते हैं। इसलिए इन कार्यकर्ताओं को लगातार ही नए आकर बसने वाले लोगों को पहचान कर उनसे एक रिश्ता विकसित करते रहना पड़ता है। इन चुनौतियों के बावजूद जब वे बस्तियों में सकारात्मक परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं तब उन्हें समुदायों से मिलने वाला सम्मान, मान्यता और कृतज्ञता ही उनकी प्रेरणा के बड़े स्त्रोत होते हैं।

ब) नए विकसित किए गए कौशल: काम के दौरान सीखे गए कौशलों से फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं में आत्म-मूल्य और विश्वास पैदा होता है। इन कौशलों में लिखने या पढ़ने जैसे सामान्य कौशल भी होते हैं या फिर परामर्श कौशल, भीड़ प्रबंधन कौशल, या प्रशिक्षण सत्र की सुविधा और संचालन पर ज्ञान जैसे अधिक विशिष्ट कौशल भी।

इसके अलावा, सीएचडबल्यू अपने काम कर रहे संगठन से मिलने वाले प्रशिक्षण में क़ानूनों, अधिकारों और विषय पर केंद्रित ज्ञान के बारे में भी विस्तार से जानते हैं। इसके कारण अक्सर उन्हें अपने परिवार के सदस्यों से समर्थन और सम्मान मिलता है क्योंकि वे काम पर सीखे गए अपने ज्ञान और कौशल को अपने परिवार के लोगों तक पहुंचाने में सक्षम होते हैं।

“समुदाय के लोग हमें ‘मैडम-मैडम’, ‘दीदी-दीदी’, ‘टीचर’ कह कर पुकारते हैं, यहां तक कि समुदाय के छोटे बच्चे हमें देखते ही कहते हैं कि ‘टीचर, हमने आज यह किया, हमने आज वह किया।’ यह सब देखकर अच्छा लगता है, समुदाय के ये लोग हमारा सम्मान करते हैं। इससे हमें समुदाय में कुछ नया करने की प्रेरणा मिलती है।” – सीएचडबल्यू 10

हमने जो सीखा उसे लागू करना

1.  भर्ती रणनीतियों में से एक समुदाय में बने कनेक्शन का उपयोग उन लोगों की पहचान करने के लिए किया जा सकता है जो दीर्घकालिक आधार पर एनजीओ/आईसीडीएस से जुड़े हो सकते हैं। इससे भर्ती प्रक्रिया में लगने वाले समय और नौकरी छोड़कर जाने वाले लोगों की संख्या में कमी लाई जा सकती है।

2. प्रशिक्षण फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं की एक लगतार बनी रहने वाली ज़रूरत है। नियमित और रिफ़्रेशर प्रशिक्षण की ज़रूरत न केवल तकनीकी कौशल विकास के लिए होती है बल्कि प्रबंधकीय और सॉफ़्ट स्किल कहे जाने वाले कौशलों के लिए भी होती है। हमने यह भी महसूस किया है कि फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण का अर्थ न केवल कौशल निर्माण से जुड़ा है बल्कि इससे उनका आत्म-विश्वास भी निर्मित होता है। यह वही है जो अंततः नौकरी पर बेहतर प्रदर्शन की ओर उन्हें लेकर जाता है।

3. सीएचडब्ल्यू के साथ काम करने वालों को यह समझना चाहिए कि सामुदायिक स्वीकृति के लिए उन्हें और अधिक समय दिया जाना चाहिए। सीएचडबल्यू द्वारा नए इलाक़ों में रहने वाले परिवारों से सम्पर्क करने और उनका भरोसा जीतने के तरीक़ों पर प्रशिक्षित करने के क्षेत्र में प्रयास किए जाने की ज़रूरत है। हस्तक्षेपों को समुदाय की जरूरतों के अनुसार प्रासंगिक और संशोधित करने की ज़रूरत है।

इस संदर्भ में उनके पर्यवेक्षक के लिए यह भी महत्वपूर्ण है कि वे कार्यक्रम कार्यान्वयन के प्रारंभिक चरण में समुदाय में सक्रिय भूमिका निभाएं। निर्णय लेने और कार्यान्वयन रणनीतियों को विकसित करने में समुदाय को शामिल किया जाना चाहिए। अंत में, कार्यक्रम के परिणामों को समय-समय पर उनके साथ साझा किया जाना चाहिए।

4. फ़्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के साथ हस्तक्षेप से मिलने वाले नतीजों और कार्यक्रम के परिणामों को साझा करना और कार्यक्रम संबंधी निर्णय लेने से पहले उनकी प्रतिक्रिया और सुझाव लेना उनके मनोबल को बनाए रखने में प्रभावी साबित हो सकता है।

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जहां चाह वहां राह

मैं 2018 से मेधा नाम के एक समाजसेवी संस्था के साथ मिलकर स्टूडेंट रिलेशनशीप मैनेजर (एसआरएम) के रूप में काम कर रही हूं। मेधा युवाओं को उनकी पसंद का काम शुरू करने में मदद करती है। मैंने अपना पूरा जीवन वाराणसी में बिताया है; मैंने स्कूल से लेकर अपनी एम ए तक की पढ़ाई यही की है और अब काम भी यहीं करती हूं।

एक एसआरएम के रूप में मेरी प्राथमिक ज़िम्मेदारी हमारे कौशल विकास कार्यक्रमों के माध्यम से छात्रों को प्रशिक्षित करना है। इसके अलावा, मैं वाराणसी के विभिन्न कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के प्रशासनिक कर्मचारियों के साथ भी नियमित रूप से सम्पर्क में रहती हूं। और चूंकि हम अपने छात्रों को करियर के अवसरों से जोड़ते हैं, इसलिए मैं उद्योग के विशेषज्ञों और नियोक्ताओं के साथ भी संवाद कायम रखती हूं।

मैं हमेशा यात्राओं में रहती थीछात्रों से मिलना, उनके लिए सत्र आयोजित करना, संभावित नियोक्ताओं से उनका सम्पर्क आदि करवाना मेरे काम का हिस्सा था।

महामारी और लॉकडाउन के पहले मैं यात्राओं में रहती थी – छात्रों से मिलना, उनके लिए सत्र आयोजित करना, संभावित नियोक्ताओं से उनका सम्पर्क आदि करवाना मेरे काम का हिस्सा था। हालांकि महामारी के दौरान सब कुछ बदल गया और मेरे काम ने पूरी तरह से आभासी रूप ले लिया। यह मेरे छात्रों, नियोक्ताओं के साथ-साथ मेरे लिए भी एक मुश्किल बदलाव था। हमारे पास इस स्थिति में दृढ़ता से खड़े होने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था और अब हम सब इस नए नियम से तालमेल बैठा चुके हैं।

सुबह 6 बजे: लॉकडाउन शुरू होने के बाद से ही मैं सुबह सोकर जल्दी जागने लगी हूं। जागते ही मैं अपने छत पर रखे पौधों को पानी देने जाती हूं। मैं अपना कुछ समय रस्सी कूदने में भी बिताती हूं। जिस दिन मुझे रस्सी कूदने का मन नहीं करता है उस दिन मैं पंजाबी गानों पर नाचती हूं और इस तरह मेरे दिन की शुरुआत होती है।

सुबह 9 बजे: सुबह का नाश्ता तैयार करने और खाने के बाद मैं एक कप गर्म चाय लेकर अपने कमरे में जाती हूं और अपना काम शुरू करती हूं। शुरुआत में आभासी प्लैटफ़ॉम के इस्तेमाल के साथ सहज होने में छात्रों को काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। इससे पहले मेधा के पाठ्यक्रमों में रुचि रखने वाले छात्र अपने कॉलेज में ही अपना रजिस्ट्रेशन करवाते थे। रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया में किसी भी तरह की मुश्किल आने पर मैं वहीं उनकी मदद करके समस्या सुलझा देती थी। अब सब कुछ ऑनलाइन था। मुझे रजिस्ट्रेशन, ऑनलाइन भुगतान और यहां तक कि विडियो प्लैटफ़ॉर्म के इस्तेमाल के लिए भी उन्हें प्रशिक्षण देना पड़ता था।

इसलिए, आमतौर पर मैं सुबह का अपना समय इन मामलों और शंकाओं से निपटने और ई-मेल और मैसेज के जवाब देने में लगाती हूं। इसके बाद, अपने क्षेत्र के मैनेजर से उस दिन की मेरी योजनाओं के बारे में पूछती हूं। अपने पहले सत्र को शुरू करने के बीस मिनट पहले मैं उन गतिविधियों पर एक नज़र डालती हूं जो मैं करने वाली हूं। आज के अपने इस सत्र में मैंने छात्रों को अख़बार लाने के लिए कहा है।

सुबह 11 बजे: प्रत्येक सत्र 60-90 मिनट का होता है। हमारे छात्रों ने माइक्रोसॉफ़्ट टीम्स के उपयोग के बारे में सीख लिया है जो उनके पहले से इस्तेमाल किए जाने वाले प्लाट्फ़ोर्म से अलग है। मैं अपने प्रत्येक बैच के पहले कुछ सत्रों में छात्रों को इस्तेमाल किए जाने वाले प्लैट्फ़ॉर्म के बारे में विस्तार से बताती हूं। इससे उन्हें बातचीत करने और बाद में सत्रों का अधिक से अधिक लाभ उठाने में आसानी होती है।

टेबल के चारों ओर बैठे युवा पेशेवरों से बात करती महिला_कौशल विकास
धीरे-धीरे मैंने आत्मविश्वास हासिल किया और मुझे महसूस हुआ कि अपने छात्रों को सुनने और उनके साथ जुड़ने से भी मैं बहुत कुछ सीख रही थी। | चित्र साभार: सोनाली सिंह

आज की गतिविधि के लिए मैंने सभी छात्रों को काले, नीले, लाल और हरे चार समूहों में बांटा है। मैंने प्रत्येक समूह को अख़बार के इस्तेमाल से एक ही आकार के नांव बनाने और उनकी तस्वीर लेकर कोलाज बनाने और सबके साथ साझा करने का काम दिया है। चालीस मिनटों के अंदर सबसे अधिक संख्या में नांव बनाने वाले टीम को विजेता घोषित किया गया। इस गतिविधि को करने के पीछे का लक्ष्य यह जानना था कि कौन से छात्र आगे आकर ज़िम्मेदारी सम्भालते हैं। इससे उन्हें टीम का नेतृत्व करने और सीमित समय में काम को पूरा करने के तरीक़ों को सीखने का अवसर मिला। गतिविधि के अंत में समूहों के बीच इस बात को लेकर चर्चा हुई कि कौन सा तरीक़ा कारगर था, क्या असफल रहा और विजेता टीम क्यों बेहतर थी आदि। यह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे छात्रों को सीखने का अनुभव मिलता है। आत्मविश्वास और पहल की आवश्यकता जैसे विषयों पर बात करते समय मैं हमेशा अपना उदाहरण देती हूं।

मैं इस बात को लेकर डरी हुई और सशंकित थी कि क्या मेरे छात्र मेरे द्वारा दी जाने वाली जानकारियों को समझ भी रहे हैं या नहीं।

मेधा से जुड़ने के बाद मुझे छात्रों के साथ सत्र आयोजित करने के लिए प्रशिक्षण और जानकारियां दी गई। लेकिन बावजूद इसके मुझे यह नहीं पता था कि वास्तव में करना क्या है। मैं इस बात को लेकर डरी हुई और सशंकित थी कि क्या मेरे छात्र मेरे द्वारा दी जाने वाली जानकारियों को समझ भी रहे हैं या नहीं। शुरुआत में मैंने केवल दिए गए निर्देशों का पालन किया और कुछ भी नया करने की कोशिश नहीं की। धीरे-धीरे मैंने आत्मविश्वास हासिल किया और मुझे महसूस हुआ कि अपने छात्रों को सुनने और उनके साथ जुड़ने से भी मैं बहुत कुछ सीख रही थी। यह इस प्रक्रिया के माध्यम से था कि मैंने नए अनुभव और अंतर्दृष्टि हासिल की जिससे मुझे बहुत मदद मिली और अब जिसका उपयोग मैं अपने सत्रों में करती हूं।

दोपहर 12.30 बजे: दिन का मेरा दूसरा सत्र पहले सत्र के समाप्त होते ही शुरू हो जाता है। इस सत्र के छात्रों के लिए मैंने लिंक्डइन और ऐसे ही अन्य प्लैट्फ़ॉर्म से जुड़ी जानकारियों की तैयारी की है ताकि उन्हें करियर से जुड़े अवसरों के बारे में जानने में आसानी हो। एक बार फिर मैंने पूरे बैच को तीन टीम में बांटा है और उन्हें गूगल और लिंक्डइन पर समय लगाकर वर्क- फ़्रॉम-होम के अवसर ढूंढने का काम दिया है। मैं हमेशा अपने छात्रों को अपना ख़ाली समय गूगल पर अवसरों को ढूंढने में लगाने के लिए कहती हूं। इससे उन्हें यह जानने में मदद मिलती है कि कई तरह के अवसर और भर्तियां हैं और रोज़गार की स्थिति इतनी भी ख़राब नहीं है जितना कि वे सोचते हैं। जब उन्होंने कुछ अवसरों को ढूंढ़ लिया तब मैंने अपनी सबसे पसंदीदा गतिविधि मॉक इंटरव्यू आयोजित की। मॉक इंटरव्यू के दौरान मैं अपने छात्रों से उनके शौक़ और उनके रेज़्यूम में लिखे अन्य पहलुओं पर विस्तार से बताने के लिए कहती हूं। इससे छात्रों को इंटरव्यू के दौरान अपनी बातचीत में अधिक सावधान रहने की सीख मिलती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि साक्षात्कारकर्ता बातचीत से ही सवाल पूछते हैं, न कि केवल उनके रेज़्यूम से।

दोपहर 3 बजे: दोपहर का खाना और एक कप चाय पीने के बाद मैं अपने कमरे में वापस लौटकर काम पर लग जाती हूं। मैं इस समय त्रैमासिक रिपोर्ट पर काम कर रही हूं जो जल्द ही आने वाली है। महामारी के पहले हम उन कॉलेजों के प्रिंसिपल, कुलपति और अन्य प्रमुखों से जाकर मिलते थे और उन्हें अपने कार्यक्रमों से जुड़ी जानकारियां देते थे। चूंकि यह काम अब मुश्किल हो गया है इसलिए अब हम उन्हें त्रैमासिक रिपोर्ट भेजते हैं। इस रिपोर्ट के माध्यम से हम उन्हें प्रत्येक बैच के साथ की जाने वाली अपनी गतिविधियों, नौकरी और इन्टर्नशिप या अन्य अवसर हासिल करने वाले छात्रों की जानकारियां मुहैया करवाते हैं।

रिपोर्ट का काम ख़त्म करने के बाद मुझे टाटा कंसलटेंसी सर्विसेज़ (टीसीएस) में काम करने वाले एक आदमी के साथ फ़ोन पर बात करनी है। वह हमारे छात्रों के साथ एक सत्र करने के लिए तैयार हो गए हैं जिसमें वह प्लेसमेंट प्रक्रिया, वर्क-फ़्रॉम-होम के अवसरों आदि से जुड़े सवालों पर बातचीत करेंगे। हम इस तरह की बातचीत का आयोजन करते हैं ताकि हमारे छात्र उद्योग में काम कर रहे लोगों को देखें, उनके अनुभवों के बारे में जाने और किसी विशेष कम्पनी या पद पर काम करने के लिए ज़रूरी कौशल आदि के बारे में सीखें।

शाम 5 बजे: लॉकडाउन के दिनों में हम में अधिकांश एसआरएम अपने छात्रों और सत्रों के लिए नए विचार लेकर आए और अब हम पहले से निर्धारित खाँचों से बाहर निकलकर नए आईडिया पर काम करते हैं। एसआरएम उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा के विभिन्न इलाक़ों में काम कर रहे हैं। हम सब एक दूसरे से मिलने और बातचीत करने में सक्षम नहीं हैं इसलिए हमने सभी एसआरएम के लिए एक टॉक-शो निर्माण के विचार पर काम करना शुरू किया। हमने इसे ‘स्पॉटलाइट’ का नाम दिया।

योजना प्रत्येक एपिसोड में एक एसआरएम पर ‘स्पॉटलाइट’ डालने और उन्हें अपने छात्रों के साथ लागू की गई नई पहल या विचारों के बारे में बात करने का अवसर देने की है। यह बातचीत को सुविधाजनक बनाने में मदद करता है और अन्य एसआरएम को अपने छात्रों के साथ इन विचारों को सीखने और लागू करने में मदद मिलती है। मैं अपने कुछ साथी एसआरएम के साथ फ़ोन पर लॉजिस्टिक्स को अंतिम रूप देने और शो के प्रारूप से संबंधित कुछ अंतिम-मिनट की योजना आदि से जुड़े मसलों पर बात करती हूं।

शाम 6 बजे: मैं छत पर जाती हूं। यहां टहलते हुए मैं छात्रों द्वारा अवसरों आदि से जुड़े उनके सवालों का जवाब देती हूं। मैं मैसेज के माध्यम से उन्हें जवाब देने की कोशिश करती हूं लेकिन अधिक मुश्किल सवाल होने पर मैं फ़ोन पर बात करना सही समझती हूं। इसी समय मुझे विभिन्न कम्पनियों और संगठनों से इन्टर्नशिप या रोज़गार अवसरों से जुड़े संदेश भी मिलते हैं। मैं इन संदेशों को आगे अपने छात्रों को भेज देती हूं।

एक बार सारा काम ख़त्म करने के बाद मैं हाथ-मुंह धोकर रात के खाने की तैयारी में मदद करने जुट जाती हूं। अपने परिवार के साथ खाना खाने के बाद मैं वापस अपने कमरे में जाकर एसआरएम के ग्रुप को देखती हूं। इस ग्रुप में हम सभी काम से जुड़ी अपनी दिनचर्या की किसी भी समस्या या मुद्दे पर बातचीत करते हैं। समस्या को सुलझाने के लिए हम सब अपने-अपने विचार रखते हैं या स्थिति से निपटने के तरीक़ों पर बात करते हैं। हम इस ग्रुप का इस्तेमाल नए विचारों या पहलों पर बातचीत करने के लिए भी करते हैं। यह सब ख़त्म करने के बाद मैं सोने से पहले यूट्यूब पर विडियो आदि देखना पसंद करती हूं।

जैसा कि आईडीआर को बताया गया। 

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कैसे कार्यबल में मुसलमान महिलाओं के शामिल न हो पाने की पहली वजह पक्षपात भरी नियुक्तियां हैं

कार्यबल में मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व स्तर बहुत ही कम है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (2009–10) के 66वें दौर के सर्वेक्षण के अनुसार प्रत्येक 1,000 कामकाजी महिलाओं में से केवल 101 यानी मात्र 10 फ़ीसदी महिलाएं ही मुस्लिम हैं। 2005 में मुसलमानों की स्थिति का आकलन करने के लिए यूपीए सरकार ने सच्चर समिति का गठन किया था। इस रिपोर्ट में भी पाया गया कि केवल अपने घर के काम तक सीमित रहने वाली मुस्लिम महिलाओं का अनुपात 70 फ़ीसदी है जबकि अन्य समुदायों में यह आंकड़ा 51 फ़ीसदी है। रिपोर्ट ने कार्यबल में मुस्लिम महिलाओं की कम भागीदारी को मुसलमानों के रोजगार अनुपात में पिछड़ने के प्रमुख कारण के तौर पर रेखांकित किया है। 2011 के जनगणना आंकड़ों के अनुसार भारतीय श्रमिकों में मात्र 32.6 फ़ीसदी ही मुसलमान हैं जबकि हिंदू और ईसाइयों में यह आंकड़ा क्रमश: 41 और 41.9 फ़ीसदी है।

हालांकि ये आसमानताएं बहुत कुछ साफ़ कर देती हैं लेकिन इन संख्याओं की पुष्टि करने और इनके बारे में विस्तार से जानने के लिए हमारे पास पर्याप्त शोध या आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। मुस्लिम महिलाओं के पिछड़ेपन पर उपलब्ध ज़्यादातर दस्तावेज श्रम बल में उनकी उपस्थिति की बजाय व्यक्तिगत क़ानून और संवैधानिक संरचना1 पर केंद्रित हैं। इसके अलावा, सार्वजनिक रूप से भी उनके सपनों, आशाओं और इच्छाओं पर बहुत कम बातचीत होती है।

मुस्लिम महिलाओं के पेशेवर विकास पर केंद्रित भारत के पहले लीडरशीप इंक्युबेटर लेडबाय फ़ाउंडेशन ने जून 2022 में एक अध्ययन करवाया था। इस अध्ययन के जरिए उन्होंने मुस्लिम और हिंदू महिलाओं के श्रम बल में शामिल होने के बीच के अंतर की जांच की। इस अध्ययन का उद्देश्य यह समझना था कि क्या श्रम बाज़ार में अनुपातिक रूप से मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम होने का कारण पक्षपात के साथ की जाने वाली नियुक्तियां हैं।

दो नाम, एक दूसरे से बहुत अलग प्रतिक्रियाएं

यह अध्ययन करने के लिए भारत में प्रवेश स्तर की भूमिकाओं के लिए बाजार मानकों के मुताबिक एक समान योग्यता वाले दो प्रोफ़ाइल बनाए गए। इन दोनों प्रोफ़ाइल में सिर्फ़ एक चीज़ अलग रखी गई थी – वह थे उम्मीदवारों के नाम। मुस्लिम प्रोफ़ाइल के लिए हबीबा अली नाम चुना गया और हिंदू प्रोफ़ाइल को प्रियंका शर्मा का नाम दिया गया। इन दोनों प्रोफ़ाइल्स में कोई तस्वीर नहीं लगाई गई थी।

आठ महीनों के समय में, इन प्रोफ़ाइल्स से लिंक्डइन और नौकरी डॉट कॉम सहित अन्य साइटों पर 1,000 नौकरियों के लिए 2,000 आवेदन भेजे गए। विभिन्न क्षेत्रों में कंटेंट राइटिंग, बिज़नेस डेवलपमेंट एनालिसिस और सोशल मीडिया मार्केटिंग की नौकरियों के लिए ये आवेदन किए गए थे। इस शोध का शुरूआती लक्ष्य दोनों उम्मीदवारों को मिलने वाली सकारात्मक प्रतिक्रियाओं की संख्या का उपयोग करके भेदभाव के कुल प्रतिशत का पता लगाना था। शोधकर्ताओं ने भर्ती के अगले दौर में जाने की सभी प्रतिक्रियाओं को सकारात्मक माना। इसके अतिरिक्त, उन्होंने ऐसे उदाहरणों पर विचार किया और उन्हें सकारात्मक प्रतिक्रिया की श्रेणी में रखा जहां कंपनियों ने लिंक्डइन पर ‘प्रियंका’ या ‘हबीबा’ को ढूंढ़ कर उन तक पहुंचने की कोशिश की थी। यहां पर जिन 1,000 नौकरियों के लिए आवेदन किए गए थे, उनमें से प्रियंका को 208 सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिलीं जबकि हबीबा को मात्र 103 सकारात्मक प्रतिक्रियाएं ही मिलीं। यह अंतर भेदभाव दर के 47.1 फ़ीसदी आंकड़े को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त जहां 41.3 फ़ीसदी नियोक्ताओं ने प्रियंका से फ़ोन पर बात की, वहीं हबीबा को मात्र 12.6 फ़ीसदी नियोक्ताओं का फ़ोन आया। इस अध्ययन से यह भी पता चला कि मार्केटिंग और ऐड्वर्टायज़िंग, सूचना प्रौद्योगिकी और सेवा, ई-लर्निंग और शिक्षा प्रबंधन जैसे उद्योगों में पूर्वाग्रह और पक्षपात का स्तर सबसे उंचा था।

संक्षेप में, जहां हिंदू महिलाओं को दो सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिलती हैं वहीं मुस्लिम महिलाओं को केवल एक प्रतिक्रिया मिलती है।

पाँच पंक्तियों में लोगों का चित्रण। लोग पीले रंग की पृष्ठभूमि के खिलाफ नीले रंग में हैं, केवल एक लाल रंग को छोड़कर_मुसलमान महिला
मुस्लिम महिलाओं के लिए समान अवसरों तक पहुंच समाज की सामाजिक और वित्तीय समानता के लिए महत्वपूर्ण है। | चित्र साभार: पिक्साबे

इस परिस्थिति को बदलने के लिए क्या किया जा सकता है?

हालांकि यह एक महत्वपूर्ण जानकारी है लेकिन यह मात्र एक शुरुआती बिंदु भर है। भारतीय मुस्लिम महिलाओं पर और श्रम-और-रोज़गार-केंद्रित शोध किए जाने की ज़रूरत है। अलग-अलग राज्यों, उद्योगों, कामकाज के तरीकों, नौकरी के स्तरों और जॉब सर्च एग्रीगेटर वगैरह का अध्ययन कर समझा जा सकता है कि इन जगहों पर किस तरह से भेदभाव किए जाते हैं। यह अध्ययन पूर्वाग्रहों को ठीक से समझने में मददगार होगा। इसके बाद ही अन्य जटिलताओं और बारीकियों, जैसे कार्यस्थल में हिजाबी और गैर-हिजाबी मुस्लिम महिलाओं की उपस्थिति आदि का अधिक विस्तार से अध्ययन किया जा सकता है।

इस अध्ययन में संगठनों और उद्योगों द्वारा नियुक्ति के लिए किए जाने सम्पर्क के तरीक़ों से जुड़े प्रणालीगत मुद्दों पर भी प्रकाश डाला गया है। एक अपेक्षाकृत अधिक समावेशी नियुक्ति प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए संगठन निम्नलिखित सुझावों पर काम कर सकते हैं:

1. ब्लाइंड हायरिंग प्रोसेस

ब्लाइंड हायरिंग प्रोसेस में उम्मीदवार के प्रोफ़ाइल से नाम और ऐसी अन्य ग़ैर-ज़रूरी सूचनाएं हटाई जा सकती हैं। ऐसा करने से भर्ती प्रक्रिया को पक्षपात से बचाया जा सकता है। उदाहरण के लिए बीबीसी अपने उम्मीदवारों के रेज़ूमे से उनके नाम और विश्वविद्यालय आदि की जानकारियां हटा देता है। वहीं, डेलॉइट के यूके बिजनेस ने अनजाने में होने वाले पक्षपात को रोकने के उद्देश्य से अंतिम प्रस्ताव वाले चरण तक नियोक्ताओं और साक्षात्कारकर्ताओं से आवेदकों की शिक्षा से जुड़ी जानकरियों को छुपाने का फ़ैसला लिया है। अर्न्स्ट एंड यंग और रेकिट बेंकिज़र कुछ अन्य कंपनियां हैं जो कार्यस्थल में अलग-अलग तरह के लोगों को शामिल करने के लिए ब्लाइंड हायरिंग को अपना रही हैं।

2. कार्य नमूना परीक्षण / वर्क सैम्पल टेस्ट

यह परीक्षण नियोक्ताओं को किसी कार्य विशेष या कौशल के आधार पर उम्मीदवारों के व्यक्तित्व, लिंग, आयु और धर्म आदि से परे उनकी योग्यता का मूल्यांकन करने में मदद करता है। टेस्ट-फ़र्स्ट अप्रोच से कम्पनियों को कम लागत में उपयुक्त उम्मीदवारों की एक बेहतर सूची तैयार करने में मदद मिलती है और वे अपेक्षाकृत अयोग्य उम्मीदवारों की छंटनी कर पाते हैं।

3. पैनल भर्ती

भर्ती के लिए विविध पैनल होने से नियुक्ति प्रणाली को व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों से मुक्त रखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, नियुक्ति प्रक्रिया में मुस्लिम औरतों के ज्यादा शामिल होने से अधिकतम मुस्लिम महिलाओं को प्रक्रिया के तहत उचित अवसर मिल सकेगा। इसके अलावा, मुस्लिम महिला आवेदक उस संगठन में आवेदन करने में अधिक रुचि दिखाएंगी जहां उन्हें मुस्लिम महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिखेगा।

4. विविधता लक्ष्य

विविधता लक्ष्य (डायवर्सिटी गोल्स) निर्धारित करके, संगठन किसी समूह के लिए प्रतिनिधि भर्ती प्रक्रिया को वरीयता दे सकते हैं और विविधता को प्राथमिक बना सकते हैं। उदाहरण के लिए 2020 में एक्सेंचर यूएसए ने अपने कार्यबल में विविधता लाने के लिए कई महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए थे। कंपनी ने उच्च स्तर की जवाबदेही के लिए सार्वजनिक लक्ष्य निर्धारित करने की अनुमति दी थी। विविधता लक्ष्य का कम्पनी फिलॉसफी में शामिल होना यह सुनिश्चित करता है कि कंपनियां नियमित रूप से अपनी प्रक्रियाओं का मूल्यांकन करने की व्यवस्था बनाकर रखती हैं। और, इसका विश्लेषण करती हैं कि कहीं किसी समूह विशेष को अनुचित लाभ तो नहीं मिल रहा है।

5. बातचीत की सुविधा

जहां संरचनात्मक समाधान महत्वपूर्ण हैं, वहीं व्यक्तिगत स्तर पर भी बदलाव लाए जा सकते हैं। आमतौर पर काम वाली जगहों पर विविधता के बारे में बातचीत नहीं की जाती है जिससे पूर्वाग्रह और किसी तरह के भेदभाव की तरफ लोगों का ध्यान नहीं जाता है। जागरूकता बढ़ाने वाली, कार्यस्थल को सुरक्षित बनाने वाली और समावेश की मांग करने वाली बातचीत होते रहना, सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों से निपटने का सबसे प्रभावी तरीक़ा है।

मुस्लिम महिलाओं के लिए समान अवसरों तक पहुंच, समाज में सामाजिक और वित्तीय समानता के लिए महत्वपूर्ण है। यहां पर उन उपायों की एक सामान्य सूची थी जिसे एक समावेशी भर्ती प्रक्रिया बनाते समय पूर्वाग्रहों से बचने या उन्हें दूर करने के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है। संगठनों के भीतर ही विविधता प्रोफ़ाइल पर शोध में आई वृद्धि और बढ़ी हुई विविधता को समायोजित करने के लिए एक बेहतर और नया सुधार लाना न केवल महत्वपूर्ण है बल्कि यह एक आवश्यक कदम भी है।

फुटनोट:

  1. ए सुनीथा, ‘मुस्लिम वीमेन एंड मैरिज लॉ: डिबेटिंग द मॉडल निकाहनामा’, एकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली 47, नं. 43 (2012), पृष्ठ. 40–48;

    नरेंद्र सुब्रमण्यम, ‘लीगल चेंज एंड जेंडर इनइक्वालिटी: चेंजेस इन मुस्लिम फ़ैमिली लॉ इन इंडिया’, लॉ & सोशल इंक्वायरी 33, नं. 3 (2008);

    निर्मला सिंह एंड रहिल अहमद, ‘मुस्लिम विमन एंड ह्यूमन राइट्स’, द इंडीयन जर्नल ऑफ़ पॉलिटिकल साइयन्स 73, नं. 1 (2012);

    शशि शुक्ला एंड शशि शुक्ला, ‘पॉलिटिकल पर्टिसिपेशन ऑफ़ मुस्लिम विमन’, द इंडियन जर्नल ऑफ़ पॉलिटिकल साइयन्स 57, नं. 1/4 (1996).

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