October 19, 2022

कैसे कार्यबल में मुसलमान महिलाओं के शामिल न हो पाने की पहली वजह पक्षपात भरी नियुक्तियां हैं

एक हालिया अध्ययन के अनुसार, भारत में मुसलमान महिलाओं को हिंदू महिलाओं की तुलना में प्रवेश-स्तर की नौकरियां मिलने की संभावना लगभग आधी होती है। ऐसे में एक समावेशी प्रक्रिया तय करने के लिए संगठनों को क्या करना चाहिए?
9 मिनट लंबा लेख

कार्यबल में मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व स्तर बहुत ही कम है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (2009–10) के 66वें दौर के सर्वेक्षण के अनुसार प्रत्येक 1,000 कामकाजी महिलाओं में से केवल 101 यानी मात्र 10 फ़ीसदी महिलाएं ही मुस्लिम हैं। 2005 में मुसलमानों की स्थिति का आकलन करने के लिए यूपीए सरकार ने सच्चर समिति का गठन किया था। इस रिपोर्ट में भी पाया गया कि केवल अपने घर के काम तक सीमित रहने वाली मुस्लिम महिलाओं का अनुपात 70 फ़ीसदी है जबकि अन्य समुदायों में यह आंकड़ा 51 फ़ीसदी है। रिपोर्ट ने कार्यबल में मुस्लिम महिलाओं की कम भागीदारी को मुसलमानों के रोजगार अनुपात में पिछड़ने के प्रमुख कारण के तौर पर रेखांकित किया है। 2011 के जनगणना आंकड़ों के अनुसार भारतीय श्रमिकों में मात्र 32.6 फ़ीसदी ही मुसलमान हैं जबकि हिंदू और ईसाइयों में यह आंकड़ा क्रमश: 41 और 41.9 फ़ीसदी है।

हालांकि ये आसमानताएं बहुत कुछ साफ़ कर देती हैं लेकिन इन संख्याओं की पुष्टि करने और इनके बारे में विस्तार से जानने के लिए हमारे पास पर्याप्त शोध या आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। मुस्लिम महिलाओं के पिछड़ेपन पर उपलब्ध ज़्यादातर दस्तावेज श्रम बल में उनकी उपस्थिति की बजाय व्यक्तिगत क़ानून और संवैधानिक संरचना1 पर केंद्रित हैं। इसके अलावा, सार्वजनिक रूप से भी उनके सपनों, आशाओं और इच्छाओं पर बहुत कम बातचीत होती है।

मुस्लिम महिलाओं के पेशेवर विकास पर केंद्रित भारत के पहले लीडरशीप इंक्युबेटर लेडबाय फ़ाउंडेशन ने जून 2022 में एक अध्ययन करवाया था। इस अध्ययन के जरिए उन्होंने मुस्लिम और हिंदू महिलाओं के श्रम बल में शामिल होने के बीच के अंतर की जांच की। इस अध्ययन का उद्देश्य यह समझना था कि क्या श्रम बाज़ार में अनुपातिक रूप से मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम होने का कारण पक्षपात के साथ की जाने वाली नियुक्तियां हैं।

दो नाम, एक दूसरे से बहुत अलग प्रतिक्रियाएं

यह अध्ययन करने के लिए भारत में प्रवेश स्तर की भूमिकाओं के लिए बाजार मानकों के मुताबिक एक समान योग्यता वाले दो प्रोफ़ाइल बनाए गए। इन दोनों प्रोफ़ाइल में सिर्फ़ एक चीज़ अलग रखी गई थी – वह थे उम्मीदवारों के नाम। मुस्लिम प्रोफ़ाइल के लिए हबीबा अली नाम चुना गया और हिंदू प्रोफ़ाइल को प्रियंका शर्मा का नाम दिया गया। इन दोनों प्रोफ़ाइल्स में कोई तस्वीर नहीं लगाई गई थी।

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आठ महीनों के समय में, इन प्रोफ़ाइल्स से लिंक्डइन और नौकरी डॉट कॉम सहित अन्य साइटों पर 1,000 नौकरियों के लिए 2,000 आवेदन भेजे गए। विभिन्न क्षेत्रों में कंटेंट राइटिंग, बिज़नेस डेवलपमेंट एनालिसिस और सोशल मीडिया मार्केटिंग की नौकरियों के लिए ये आवेदन किए गए थे। इस शोध का शुरूआती लक्ष्य दोनों उम्मीदवारों को मिलने वाली सकारात्मक प्रतिक्रियाओं की संख्या का उपयोग करके भेदभाव के कुल प्रतिशत का पता लगाना था। शोधकर्ताओं ने भर्ती के अगले दौर में जाने की सभी प्रतिक्रियाओं को सकारात्मक माना। इसके अतिरिक्त, उन्होंने ऐसे उदाहरणों पर विचार किया और उन्हें सकारात्मक प्रतिक्रिया की श्रेणी में रखा जहां कंपनियों ने लिंक्डइन पर ‘प्रियंका’ या ‘हबीबा’ को ढूंढ़ कर उन तक पहुंचने की कोशिश की थी। यहां पर जिन 1,000 नौकरियों के लिए आवेदन किए गए थे, उनमें से प्रियंका को 208 सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिलीं जबकि हबीबा को मात्र 103 सकारात्मक प्रतिक्रियाएं ही मिलीं। यह अंतर भेदभाव दर के 47.1 फ़ीसदी आंकड़े को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त जहां 41.3 फ़ीसदी नियोक्ताओं ने प्रियंका से फ़ोन पर बात की, वहीं हबीबा को मात्र 12.6 फ़ीसदी नियोक्ताओं का फ़ोन आया। इस अध्ययन से यह भी पता चला कि मार्केटिंग और ऐड्वर्टायज़िंग, सूचना प्रौद्योगिकी और सेवा, ई-लर्निंग और शिक्षा प्रबंधन जैसे उद्योगों में पूर्वाग्रह और पक्षपात का स्तर सबसे उंचा था।

संक्षेप में, जहां हिंदू महिलाओं को दो सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिलती हैं वहीं मुस्लिम महिलाओं को केवल एक प्रतिक्रिया मिलती है।

पाँच पंक्तियों में लोगों का चित्रण। लोग पीले रंग की पृष्ठभूमि के खिलाफ नीले रंग में हैं, केवल एक लाल रंग को छोड़कर_मुसलमान महिला
मुस्लिम महिलाओं के लिए समान अवसरों तक पहुंच समाज की सामाजिक और वित्तीय समानता के लिए महत्वपूर्ण है। | चित्र साभार: पिक्साबे

इस परिस्थिति को बदलने के लिए क्या किया जा सकता है?

हालांकि यह एक महत्वपूर्ण जानकारी है लेकिन यह मात्र एक शुरुआती बिंदु भर है। भारतीय मुस्लिम महिलाओं पर और श्रम-और-रोज़गार-केंद्रित शोध किए जाने की ज़रूरत है। अलग-अलग राज्यों, उद्योगों, कामकाज के तरीकों, नौकरी के स्तरों और जॉब सर्च एग्रीगेटर वगैरह का अध्ययन कर समझा जा सकता है कि इन जगहों पर किस तरह से भेदभाव किए जाते हैं। यह अध्ययन पूर्वाग्रहों को ठीक से समझने में मददगार होगा। इसके बाद ही अन्य जटिलताओं और बारीकियों, जैसे कार्यस्थल में हिजाबी और गैर-हिजाबी मुस्लिम महिलाओं की उपस्थिति आदि का अधिक विस्तार से अध्ययन किया जा सकता है।

इस अध्ययन में संगठनों और उद्योगों द्वारा नियुक्ति के लिए किए जाने सम्पर्क के तरीक़ों से जुड़े प्रणालीगत मुद्दों पर भी प्रकाश डाला गया है। एक अपेक्षाकृत अधिक समावेशी नियुक्ति प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए संगठन निम्नलिखित सुझावों पर काम कर सकते हैं:

1. ब्लाइंड हायरिंग प्रोसेस

ब्लाइंड हायरिंग प्रोसेस में उम्मीदवार के प्रोफ़ाइल से नाम और ऐसी अन्य ग़ैर-ज़रूरी सूचनाएं हटाई जा सकती हैं। ऐसा करने से भर्ती प्रक्रिया को पक्षपात से बचाया जा सकता है। उदाहरण के लिए बीबीसी अपने उम्मीदवारों के रेज़ूमे से उनके नाम और विश्वविद्यालय आदि की जानकारियां हटा देता है। वहीं, डेलॉइट के यूके बिजनेस ने अनजाने में होने वाले पक्षपात को रोकने के उद्देश्य से अंतिम प्रस्ताव वाले चरण तक नियोक्ताओं और साक्षात्कारकर्ताओं से आवेदकों की शिक्षा से जुड़ी जानकरियों को छुपाने का फ़ैसला लिया है। अर्न्स्ट एंड यंग और रेकिट बेंकिज़र कुछ अन्य कंपनियां हैं जो कार्यस्थल में अलग-अलग तरह के लोगों को शामिल करने के लिए ब्लाइंड हायरिंग को अपना रही हैं।

2. कार्य नमूना परीक्षण / वर्क सैम्पल टेस्ट

यह परीक्षण नियोक्ताओं को किसी कार्य विशेष या कौशल के आधार पर उम्मीदवारों के व्यक्तित्व, लिंग, आयु और धर्म आदि से परे उनकी योग्यता का मूल्यांकन करने में मदद करता है। टेस्ट-फ़र्स्ट अप्रोच से कम्पनियों को कम लागत में उपयुक्त उम्मीदवारों की एक बेहतर सूची तैयार करने में मदद मिलती है और वे अपेक्षाकृत अयोग्य उम्मीदवारों की छंटनी कर पाते हैं।

3. पैनल भर्ती

भर्ती के लिए विविध पैनल होने से नियुक्ति प्रणाली को व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों से मुक्त रखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, नियुक्ति प्रक्रिया में मुस्लिम औरतों के ज्यादा शामिल होने से अधिकतम मुस्लिम महिलाओं को प्रक्रिया के तहत उचित अवसर मिल सकेगा। इसके अलावा, मुस्लिम महिला आवेदक उस संगठन में आवेदन करने में अधिक रुचि दिखाएंगी जहां उन्हें मुस्लिम महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिखेगा।

4. विविधता लक्ष्य

विविधता लक्ष्य (डायवर्सिटी गोल्स) निर्धारित करके, संगठन किसी समूह के लिए प्रतिनिधि भर्ती प्रक्रिया को वरीयता दे सकते हैं और विविधता को प्राथमिक बना सकते हैं। उदाहरण के लिए 2020 में एक्सेंचर यूएसए ने अपने कार्यबल में विविधता लाने के लिए कई महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए थे। कंपनी ने उच्च स्तर की जवाबदेही के लिए सार्वजनिक लक्ष्य निर्धारित करने की अनुमति दी थी। विविधता लक्ष्य का कम्पनी फिलॉसफी में शामिल होना यह सुनिश्चित करता है कि कंपनियां नियमित रूप से अपनी प्रक्रियाओं का मूल्यांकन करने की व्यवस्था बनाकर रखती हैं। और, इसका विश्लेषण करती हैं कि कहीं किसी समूह विशेष को अनुचित लाभ तो नहीं मिल रहा है।

5. बातचीत की सुविधा

जहां संरचनात्मक समाधान महत्वपूर्ण हैं, वहीं व्यक्तिगत स्तर पर भी बदलाव लाए जा सकते हैं। आमतौर पर काम वाली जगहों पर विविधता के बारे में बातचीत नहीं की जाती है जिससे पूर्वाग्रह और किसी तरह के भेदभाव की तरफ लोगों का ध्यान नहीं जाता है। जागरूकता बढ़ाने वाली, कार्यस्थल को सुरक्षित बनाने वाली और समावेश की मांग करने वाली बातचीत होते रहना, सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों से निपटने का सबसे प्रभावी तरीक़ा है।

मुस्लिम महिलाओं के लिए समान अवसरों तक पहुंच, समाज में सामाजिक और वित्तीय समानता के लिए महत्वपूर्ण है। यहां पर उन उपायों की एक सामान्य सूची थी जिसे एक समावेशी भर्ती प्रक्रिया बनाते समय पूर्वाग्रहों से बचने या उन्हें दूर करने के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है। संगठनों के भीतर ही विविधता प्रोफ़ाइल पर शोध में आई वृद्धि और बढ़ी हुई विविधता को समायोजित करने के लिए एक बेहतर और नया सुधार लाना न केवल महत्वपूर्ण है बल्कि यह एक आवश्यक कदम भी है।

फुटनोट:

  1. ए सुनीथा, ‘मुस्लिम वीमेन एंड मैरिज लॉ: डिबेटिंग द मॉडल निकाहनामा’, एकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली 47, नं. 43 (2012), पृष्ठ. 40–48;

    नरेंद्र सुब्रमण्यम, ‘लीगल चेंज एंड जेंडर इनइक्वालिटी: चेंजेस इन मुस्लिम फ़ैमिली लॉ इन इंडिया’, लॉ & सोशल इंक्वायरी 33, नं. 3 (2008);

    निर्मला सिंह एंड रहिल अहमद, ‘मुस्लिम विमन एंड ह्यूमन राइट्स’, द इंडीयन जर्नल ऑफ़ पॉलिटिकल साइयन्स 73, नं. 1 (2012);

    शशि शुक्ला एंड शशि शुक्ला, ‘पॉलिटिकल पर्टिसिपेशन ऑफ़ मुस्लिम विमन’, द इंडियन जर्नल ऑफ़ पॉलिटिकल साइयन्स 57, नं. 1/4 (1996).

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  • लेडबाय फाउंडेशन के भर्ती पूर्वाग्रहों पर हुए अध्ययन के बारे में विस्तार से यहां जानें।
  • भारत में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में मुसलमानों के कम प्रतिनिधित्व के बारे में अधिक जानने के लिए इस लेख को पढ़ें
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लेखक के बारे में
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दीपांजलि लहिरी

दीपांजलि लहिरी एक अनुभवी प्रोजेक्ट मैनेजमेंट पेशेवर हैं जिनके पास आईटी, रिटेल और एफएमसीजी में 13 से अधिक वर्षों का अनुभव है। होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करने के बाद दीपांजलि ने विकास और विस्तार के चरण से गुजर रही कंपनियों के लिए रणनीतिक दिशा स्थापित करने के लिए बड़े पैमाने पर व्यवसायिक परियोजनाओं की शुरुआत की। वे लोगों और संगठनों के साथ मिलकर, उन लोगों के लिए समाज में जगह बनाने को लेकर गम्भीर हैं जिन्हें सहयोग की ज़रूरत है और जो बदलाव लाना चाहते हैं।

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वंशिका शरण

वंशिका शरण ने सोशल एंथ्रोपोलॉज़ी में शोध किया है और आर्काइवल एथनोग्राफ़िक अनुसंधान पर काम करती हैं। उन्होंने द 947 पार्टिशन आर्कायव, लेडबाय फ़ाउंडेशन और जर्नल ऑफ़ अंडरग्रैजुएट रिसर्च जैसे समाजिक प्रभाव संगठनों और अकादमिक पत्रिकाओं के साथ मिलकर काम किया है। यूएन अकैडेमिक इम्पैक्ट मिलेनियम फेलो के रूप में वंशिका ने एक ऐसी परियोजना पर काम किया है जिसमें भारतीय लड़कियों के लिए उच्च अध्ययन तक पहुंच बढ़ाने की मांग की गई थी।

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