जलवायु से जुड़ी खबरों पर आम लोगों का रुख कैसा होता है?

बात जब जलवायु संकट की आती है तो सार्वजनिक संवाद और राय को सूरत देने में मीडिया की भूमिका बहुत अधिक महत्वपूर्ण होती है। यह आपातकालीन परिस्थितियों, उनके प्रभाव और उनकी गंभीरता से जुड़ी जानकारी को लोगों तक पहुंचाने वाला एक शक्तिशाली साधन है। यह लोगों को जलवायु-अनुकूल व्यवहारों को अपनाने के लिए प्रेरित कर सकता है। समय के साथ न्यूज़रूम में जलवायु संबंधी चर्चा गम्भीर होती जा रही है। लेकिन समाचार के भरोसेमंद स्त्रोतों की कमी, इस तरह की सूचनाओं के प्रसार के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा-शैली और कठिन भाषा के इस्तेमाल के कारण इस संकट से जुड़ी जानकारियां आम लोगों के लिए सुलभ नहीं हो पा रही हैं। ऐसा होना जलवायु के संरक्षण के लिए व्यक्तिगत स्तर पर सही कार्रवाई करने में एक बड़ी बाधा बन सकता है।

जलवायु परिवर्तन कवरेज की सार्वजनिक धारणा के रूप में समाचार मीडिया में जलवायु परिवर्तन का प्रतिनिधित्व, एक ऐसा विषय है जिस पर बहुत कम अध्ययन हुआ है। वहीं विश्व के अन्य हिस्सों (ग्लोबल नॉर्थ) में जलवायु परिवर्तन और इससे संबंधित खबरों को लेकर लोगों की सोच से जुड़े आंकड़े उपलब्ध हैं। इसके उलट, ग्लोबल साउथ से इस तरह के आंकड़े प्राप्त करना आसान काम नहीं है।

जलवायु परिवर्तन के प्रति लोगों के दृष्टिकोण और इससे जुड़े समाचारों के प्रति उनकी धारणा का अध्ययन करने के लिए, रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म की ओर से इप्सोस ने 2022 में एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में ब्राज़ील, फ़्रांस, जर्मनी, भारत, जापान, पाकिस्तान, यूके तथा यूएसए जैसे आठ देशों ने हिस्सा लिया था। हालांकि इस अध्ययन के लिए आयु वर्ग, लिंग और धर्म के राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व वाली आबादी से सैम्पल इकट्ठा किए गए थे। लेकिन इसमें कई प्रकार की चेतावनियां भी शामिल हैं। दरअसल, भारत और पाकिस्तान में इंटरनेट की पहुंच का स्तर बहुत कम क्रमश: 43 फ़ीसद तथा 25 फ़ीसद है। इसके अतिरिक्त, भारत में यह सर्वेक्षण अंग्रेज़ी भाषा में किया गया था। नतीजतन, स्वाभाविक रूप से इस सर्वे में अंग्रेज़ी भाषा तथा इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों ने हिस्सा लिया था जो कुल आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।

इस अध्ययन से मिलने वाले कुछ मुख्य परिणाम इस प्रकार हैं:

जलवायु से जुड़े समाचारों की खपत

टेबल पर रखे कुछ भारतीय अख़बार_जलवायु समाचार
गलत सूचनाओं की निरंतरता के कारण जलवायु समाचारों पर भरोसे की कमी है। | चित्र साभार: शाजन कुमार / सीसी बीवाय

जलवायु समाचारों को नज़र अंदाज़ करना और ग़लत सूचना प्रदान करना

आमतौर पर जलवायु समाचारों से भी उसी प्रकार बचने की प्रवृति देखी गई है जिस प्रकार कुछ चुनिंदा समाचारों से बचा जाता है। भारत के उत्तरदाताओं ने सामान्य एवं जलवायु परिवर्तन से जुड़े दोनों प्रकार के समाचारों के प्रति नकारात्मक संकेत दिए हैं। शोध से यह बात भी सामने आई है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं में समाचारों को नजरअंदाज करने की प्रवृति अधिक पाई जाती है। लेकिन इस अध्ययन के अनुसार जलवायु से जुड़े समाचारों के उपभोग के मामले में पुरुषों एवं महिलाओं में किसी प्रकार का विशेष अंतर नहीं पाया गया है। जैसा कि आमतौर पर सभी प्रकार के समाचारों के साथ होता है, जलवायु-संबंधी खबरों को नजरअंदाज करने की सबसे अधिक संभावना युवाओं में होती है लेकिन यह अंतर भी बहुत अधिक नहीं है। उत्तरदाताओं का कहना है कि जलवायु से जुड़ी खबरों को नजरअंदाज करने के पीछे नई जानकारियों की कमी, दिमाग़ पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरों की बहुतायत से होने वाली मानसिक थकान और अविश्वसनीयता जैसे कई कारण हैं।

गलत सूचनाओं की निरंतरता के कारण जलवायु समाचारों पर भरोसे की कमी है। शोध बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी गलत सूचनाओं का प्रसार जलवायु कार्रवाई के लिए आवश्यक सार्वजनिक समर्थन को लगातार कमजोर करता है। जलवायु परिवर्तन की गलत सूचना के स्रोतों के बारे में पूछे जाने पर, उत्तरदाताओं ने उन्हीं स्रोतों का हवाला दिया, जिनका उपयोग वे जलवायु समाचारों तक पहुंचने के लिए करते हैं। ग़लत सूचनाओं के स्त्रोत के रूप में ऑनलाइन न्यूज़, सोशल मीडिया और मैसेजिंग ऐप का ज़िक्र आया है। शोध बताता है कि जलवायु समाचार से जुड़ी ग़लत सूचनाओं वाले देशों में भारत का स्थान पहला है जहां 38 फ़ीसद उत्तरदाताओं का कहना है कि उन्हें नियमित रूप से जलवायु समाचारों से जुड़ी ग़लत सूचनाएं दी जाती हैं।

जलवायु समाचार और जलवायु कार्रवाई

अध्ययन के निष्कर्षों के अनुसार जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरों से सशक्त महसूस करने वाले लोगों का प्रतिशत बहुत अधिक है। उदाहरण के लिए, भारत में 76 फ़ीसद उत्तरदाताओं का कहना था कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरें उन्हें इस विषय में और अधिक जानकारी हासिल करने के लिए प्रेरित करती हैं। बहुत कम उत्तरदाताओं ने कहा कि जलवायु से जुड़ी खबरों के बारे में पढ़ने-सुनने के बाद वे चिंतित और उदास महसूस करने लगते हैं। हालांकि भारत के 61 फ़ीसद उत्तरदाताओं का कहना है कि जलवायु से जुड़े समाचारों में बहुत अधिक विरोधी विचार देखने को मिलते हैं और 48 फ़ीसद का ऐसा दावा है कि ये खबरें उन्हें भ्रमित कर देती हैं। 

लोगों द्वारा जलवायु समाचारों के उपभोग की फ़्रीक्वेंसी और इस उपभोग में उनकी रुचि में एक प्रकार का संबंध है।

अध्ययन आगे जलवायु खबरों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिकाओं और उचित कार्रवाई के लिए लोगों को सशक्त बनाने की इसकी क्षमता पर भी प्रकाश डालता है। लोगों द्वारा जलवायु समाचारों के उपभोग की फ़्रीक्वेंसी और इस उपभोग में उनकी रुचि में एक प्रकार का संबंध है। संभव है कि पिछले सात दिनों के भीतर जलवायु परिवर्तन से जुड़ी खबरों में दिलचस्पी लेने वाले लोग रिसायकल और ऊर्जा की कम खपत आदि जैसी चीजों पर ध्यान देंगे। हालांकि, जलवायु समाचारों से लोगों के जुड़ने की फ़्रीक्वेंसी को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि वे मांस के कम सेवन, कम यात्रा करने या इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग की ओर ठोस कदम उठाएंगे। इस बात पर गौर किया ज़ाना चाहिए कि सर्वेक्षण द्वारा दिए गए कुछ विकल्प (जैसे, इलेक्ट्रिक वाहनों का इस्तेमाल करना) कुछ देशों में उत्तरदाताओं के लिए उपलब्ध नहीं थे।

जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को सामने लाने में न्यूज़ मीडिया की भूमिका के बारे में पूछे जाने पर एक तिहाई उत्तरदाताओं का कहना था कि इस विषय में यह बहुत थोड़ा काम कर रहा है। ज़्यादातर उत्तरदाताओं का मानना है कि इस क्षेत्र में सरकार द्वारा किए गए प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। सभी देशों के उत्तरदाताओं का मानना है कि जीवन यापन की लागत का संकट और अर्थव्यवस्था की स्थिति सबसे बड़ी चिंता है। जलवायु परिवर्तन को सबसे गम्भीर चिंता मानने वाले लोगों में पाकिस्तान के लोग पहले स्थान पर थे। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि यहां 2022 की बाढ़ के दौरान सर्वेक्षण किया गया था। इसके विपरीत ब्राज़ील में केवल 2 फ़ीसद लोग जलवायु परिवर्तन को सबसे गम्भीर चिंता के विषय के रूप में देखते हैं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि ब्राज़ील में यह सर्वेक्षण 2022 चुनावों के दौरान आयोजित करवाया गया था। इसलिए इस दौरान सर्वे को पूरा करने में स्थानीय राजनीति एवं आयोजनों ने उत्तरदाताओं की मदद की थी। हालांकि, सभी देशों में ऐसे उत्तरदाताओं की संख्या अधिक थी जो कुछ हद तक जलवायु परिवर्तन के वैश्विक प्रभावों के बारे में चिंतित था। 

दिलचस्प बात यह है कि लोगों के जलवायु परिवर्तन की खबरों से जुड़ने की फ़्रीक्वेंसी का इस बात पर कोई असर नहीं पड़ता है कि वे वैश्विक या घरेलू जलवायु नीति से कितने परिचित हैं। चालीस फ़ीसद उत्तरदाताओं ने यह दावा किया कि वे वैश्विक नीति पहलों और जलवायु परिवर्तन पर उनकी सरकार की प्रमुख नीतियों के बारे में एक हद तक जानकारी रखते हैं। हालांकि, यह 40 फ़ीसद का आंकड़ा, उन दोनों के लिए सही है जो साप्ताहिक आधार पर जलवायु समाचारों का उपभोग करते हैं और जो इससे भी कम मात्रा में इन खबरों को देखते-सुनते हैं। यह वर्तमान समाचार मीडिया कवरेज में एक महत्वपूर्ण अंतर को सामने लाता है – जबकि जलवायु परिवर्तन के विज्ञान के लिए आम सहमति बनाना महत्वपूर्ण है, समाचार मीडिया को पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं को जलवायु गवर्नेंस पर शिक्षित करने पर भी ध्यान देना चाहिए। 

अध्ययन से पता चलता है कि अधिकांश उत्तरदाता किस तरह से जलवायु परिवर्तन को लेकर जागरूक हैं और वैज्ञानिकों की टिप्पणियों पर भरोसा करते हैं। लेकिन विभिन्न देशों में इन खबरों के लिए उपयोग में लाए जाने वाले मीडिया स्त्रोतों और उनकी विश्वसनीयता को लेकर पाई जाने वाली विविधता को देखना भी दिलचस्प है। लोगों को जलवायु समाचारों के साथ कैसे जोड़ा जाता है, और इस जुड़ाव का क्या प्रभाव पड़ता है, इस बारे में निर्णायक परिणाम तक पहुंचने के लिए आवश्यक आंकड़ों के संग्रहण और मैपिंग में कई वर्षों का समय लगेगा।

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समाजसेवी संस्थाओं के लिए तकनीक से संबंधित कुछ जरूरी सुझाव

पिछले नौ वर्षों से भी अधिक समय से, प्रोजेक्ट टेक4डेव (Tech4Dev) के तहत, हम तकनीक संबंधी आवश्यकताओं और चुनौतियों से जुड़े मामलों में भारतीय समाजसेवी संस्थाओं के साथ काम कर रहे हैं। अपने अनुभव से हमने यह जाना है कि समाजसेवी क्षेत्र में तकनीक को लेकर नेतृत्व विशेषज्ञता (टेक लीडरशिप) का अभाव है। और इसीलिए, 2022 के सितम्बर महीने में हमने फ्रैक्शनल CxO1 नाम से एक कार्यक्रम की शुरूआत की। इस कार्यक्रम के तहत कुशल टेक प्रोफेशनल्स समाजसेवी संस्थाओं के साथ पार्ट-टाइम काम करते हैं और उन्हें तकनीकी विशेषज्ञा प्रदान करते हैं। सीएक्सओ में ‘x’ का मतलब आंकड़े, तकनीक या रणनीति हो सकता है।

हमने सात विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं के साथ इस कार्यक्रम की शुरूआत की। इसके अलावा इनकी ज़रूरतों को और अधिक गहराई से समझने के लिए 20 से अधिक समाजसेवी संस्थाओं के प्रमुखों से भी बातचीत की।

हमने सीखा

समाजसेवी संस्थाओं को तकनीक से जुड़ी कुछ अलग और असाधारण समस्याओं का सामना करना पड़ता है। हम इस बात से हैरान थे कि एकदम अलग-अलग तरह की समाजसेवी संस्थाओं की तकनीक संबंधी ज़रूरतें कितनी अधिक मिलती-जुलती थीं। यह स्थिति तब है जब संगठन विभिन्न देशों में और तमाम क्षेत्रों – स्वास्थ्य, शिक्षा, सामुदायिक सशक्तिकरण, शोध से जुड़े काम कर रहे हैं। 

नीचे कुछ समस्याओं का जिक्र किया गया है जिनका हमने सामना किया:

इन अनुभवों के आधार पर हमारे कार्यक्रम में फ्रैक्शनल CxOs द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रही समाजसेवी संस्थाओं के लिए कुछ सुझाव दिए गए हैं।

चार्ट और ग्राफ़ के एक स्प्रेडशीट का चित्रण-तकनीक नेतृत्व
संगठनों को महंगे कस्टम समाधान के निर्माण पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है। | चित्र साभार: पिक्साबे

समाजसेवी संस्थाओं को CxOs की सलाह

1. मौजूदा प्लैटफ़ॉर्म ही समाजसेवी संस्थाओं की कई समस्याओं का समाधान कर सकते हैं

संगठनों के सामने आमतौर पर आने वाली समस्याओं की पहचान करने के बाद, उनका हल खोजते हुए हमें पता चला कि ऐसे अनगिनत ओपन-सोर्स और मुफ़्त में उपलब्ध प्लैटफ़ॉर्म हैं जो विशेष रूप से इन समस्याओं के समाधान के लिए ही तैयार किए गए हैं। संगठनों को महंगे कस्टम-बिल्ट समाधानों को अपनाने की ज़रूरत नहीं है। इसकी बजाय वे पहले से मौजूद इन समाधानों की ख़रीद कर सकते हैं। ग्लिफ़िक (प्रोजेक्ट टेक4डेव टीम द्वारा विकसित किया गया एक वहाट्सएप-आधारित चैटबॉट प्लैटफ़ॉर्म), डेवलपमेंट डेटा प्लैटफ़ॉर्म (वर्तमान में अपने आरंभिक अवस्था में), अवनीफ़्रेप्प, और अपाचे सुपरसेट ऐसे ही कुछ ऑफ़-द-शेल्फ मंचों के उदाहरण हैं।

2. तकनीक का प्रभावी ढंग से उपयोग करने के लिए संगठनात्मक दृष्टि होनी चाहिए

तकनीक विस्तार का एक शक्तिशाली साधन है लेकिन इसकी क्षमता का अनुमान तभी लगता है जब उद्देश्यों, प्रणालियों, मानक संचालन प्रक्रियाओं (एसओपी) और मेट्रिक्स को लेकर, कार्यक्रम पर काम कर रही टीम की समझ स्पष्ट होती है। जब तक स्पष्टता ना हो तब तक संगठन को तकनीकी समाधानों को लेकर विस्तार के बारे में नहीं सोचना चाहिए। स्पष्ट समझ के बिना किसी समाधान में धन एवं समय के निवेश करने से मनचाहा परिणाम न मिलने का ख़तरा बना रहता है। भविष्य में होने वाले कार्यक्रमों के बारे में समझ बढ़ाने के लिए छोटे प्रयोगों में तकनीक का इस्तेमाल करना, एक अपवाद हो सकता है।

3. लागू की गई तकनीक संगठन की रणनीति के अनुरूप होनी चाहिए

कार्यक्रम की शुरुआत में हम समाजसेवी संस्थाओं से कुछ प्रश्न करते हैं। इन प्रश्नों का संबंध तकनीक से न होकर रणनीति से होता है। हम उनसे पूछते हैं कि उन्हें किस प्रकार के परिणाम चाहिए? क्या कार्यक्रम के जरिए इन परिणामों को प्राप्त करने के लिए उनके पास किसी प्रकार की दीर्घकालिक रणनीति है। संगठन में काम कर रहे विभिन्न टीम के सदस्यों के बीच रणनीति की समझ स्पष्ट है या नहीं? एक दीर्घकालिक तकनीक रणनीति किसी भी संगठन की समग्र रणनीति का केवल एक हिस्सा भर होती है। इसके अन्य भागों में प्रतिभा प्रबंधन, फंडरेजिंग और संचार जैसी चीजें शामिल होती हैं। अगले कुछ सालों में अपनी विकास यात्रा को लेकर स्पष्टता रखने वाला संगठन अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तकनीक का इस्तेमाल प्रभावी ढंग से कर सकने में सक्षम होता है।

संगठन की दीर्घकालिक रणनीति तकनीक के उपयोग की दिशा को बदल सकती है।

संगठन की दीर्घकालिक रणनीति तकनीक के उपयोग की दिशा को बदल सकती है। एक ऐसे समाजसेवी संगठन का उदाहरण लेते हैं जो सुधार कार्यक्रमों के लिए आंकड़े इकट्ठा करता है और सरकार इन आंकड़ों का इस्तेमाल करती है। इस मामले में, तकनीक का चुनाव एग्जिट स्ट्रेटेजी यानी सबकुछ सरकारी संस्थाओं को सौंप देने की रणनीति के आधार पर किया जाना चाहिए। ऐसे में, किसी भी सॉफ्टवेयर तकनीक का उपयोग सरकारी संस्थाओं के कार्य करने के तरीके से बाधित होगा। लागत के अतिरिक्त, निगरानी की कमी और रखरखाव के लिए बाहरी स्त्रोतों पर निर्भर होने जैसे कारकों पर भी विचार करने की ज़रूरत होती है।

4. आंकड़ों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए

हमने देखा है कि कई समाजसेवी संस्थाएं यहां तक कि बड़े पैमाने पर कार्यरत संगठन भी इस बात को लेकर सुनिश्चित रहते हैं कि तकनीकी समाधान विस्तृत स्तर पर कार्यक्रम को सफल बनाने में सहायक साबित होंगे। हालांकि, वे अक्सर डेटा को प्रभावी ढंग से एकत्र करने, उसके विश्लेषण और उपयोग के महत्वपूर्ण पहलू को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। उदाहरण के लिए, कोई भी संगठन अपने विभिन्न कार्यक्रमों जैसे कि बाल पोषण, मातृत्व स्वास्थ्य और महिलाओं एवं बच्चों के साथ होने वाली हिंसा आदि के लिए एक ही घर से आंकड़े एकत्रित कर सकता है। इस डेटा को समेकित करना – इस मामले में जिसका अर्थ विभिन्न प्रोजेक्ट से डेटा को क्रॉस-लिंक करना और विभिन्न संकेतकों पर किसी परिवार विशेष की स्थिति का अवलोकन हो सकता है – वास्तविक स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए महत्वपूर्ण होता है।

5. चरणबद्ध कार्यान्वयन की स्थिति में भी एक दीर्घकालिक तकनीक रणनीति का होना आवश्यक है

संगठन कई बार तकनीकी समाधानों को चरणबद्ध तरीक़े से उपयोग में लाना पसंद करते हैं। इसका अर्थ है कि एक चरण के सफल होने के बाद अगले चरण में जाना। हालांकि यह एक सही तरीक़ा है लेकिन साथ ही इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि कोई भी संगठन विस्तार के लिए तकनीक का अधिकतम उपयोग तभी कर सकता है जब उसके पास संगठन की समग्र रणनीति के अनुकूल एक दीर्घकालिक तकनीकी रणनीति भी हो। यह आवश्यक है ताकि कार्यक्रमों, तकनीकों और वरिष्ठ प्रबंधन टीम को इस बात की जानकारी रहे कि कार्यान्वयन का प्रत्येक चरण किस प्रकार अपने पिछले चरण के आधार पर निर्मित होता है और संगठन के एक बड़े उद्देश्य की तरफ़ बढ़ने में इसकी मदद करता है।

6. तकनीक के कार्यान्वयन के दौरान संगठनों को चुनौतियों के लिए तैयार रहना चाहिए

इस लेख में विनोद राजशेखरन, अंकित सक्सेना और पियालि पॉल ने अपना योगदान दिया है।

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फुटनोट:

  1. CxO एक शब्दावली है जिसका अर्थ किसी संगठन का चीफ़ एग्जेक्यूटिव ऑफ़िसर (सीईओ), चीफ़ टेक्नोलॉज़ी ऑफ़िसर (सीटीओ), चीफ़ फ़ाइनैन्स ऑफ़िसर (सीएफ़ओ) आदि होता है। यहां “x” विशेषज्ञता के क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है। फ्रैक्शनल CxOs तकनीक, रणनीति और डेटा जैसे क्षेत्रों के विशेषज्ञ हैं जो संगठनों के साथ अंशकालिक रूप से जुड़कर काम करते हैं।

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नई तकनीक या पहले से उपलब्ध तकनीक: समाजसेवी संस्थाओं के लिए क्या सही है?

एक समाजसेवी संस्था के लिए बेहतर विकल्प क्या होगा: एक ऐप (टेक एप्लिकेशन) बनाना या पहले से मौजूद किसी सॉफ़्टवेयर का इस्तेमाल करना? यह सवाल तकनीकी समाधान अपनाने वाले किसी भी संस्थान के सामने आता ही है। तिस पर सामाजिक सेक्टर की अलग प्रकृति के चलते यहां तकनीक से जुड़े फैसले करना अपेक्षाकृत कठिन हो जाता है क्योंकि यहां हर कार्यक्रम के लिए एक नए नज़रिए की जरूरत होती है। यहां पर हम उन तरीक़ों के बारे में बात करेंगे जिन्हें अपनाकर कोई भी संगठन तकनीक से जुड़ी उलझनों से आसानी से निपट सकता है और अपने लिए नया ऐप डेवलप करने या पहले से मौजूद साफ्टवेयर में से उपयुक्त विकल्प का चुनाव कर सकता है।

अपने लिए नई तकनीक बनाना या मौजूदा विकल्पों को चुनना

ऐसे अनगिनत सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं जो बेहतरीन सुविधाओं और कार्यक्षमताओं के साथ, खासतौर पर समाजसेवी संगठनों के लिए बनाए गए हैं। उदाहरण के लिए, वॉलन्टीयर मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर एक ऐसा टूल है जिसमें संस्था की जरूरत के मुताबिक वॉलन्टीयरों  की उपलब्धता को शेड्यूल करने, उनके काम के घंटों की जानकारी रखने और उनसे संबंधित अन्य जानकारियों को सुरक्षित रखने की सुविधा होती है। इसलिए, पहले से उपलब्ध सॉफ़्टवेयर का उपयोग करना किसी भी समाजसेवी संस्था के लिए अपेक्षाकृत एक तेज़ और अधिक लागत-प्रभावी विकल्प हो सकता है।

पहले से उपलब्ध सॉफ़्टवेयर के उपयोग से जुड़ा एक नकारात्मक पहलू यह है कि इसे किसी भी संगठन की खास ज़रूरतों के मुताबिक ढाला नहीं जा सकता है।

अक्सर पहले से उपलब्ध सॉफ़्टवेयर के उपयोग से जुड़ा नकारात्मक पहलू यह देखने को मिलता है कि इसे किसी संगठन की खास ज़रूरतों के मुताबिक नहीं ढाला जा सकता है। उदाहरण के लिए, ऑफ़-द-शेल्फ प्रोजेक्ट मैनेजमेंट सॉफ़्टवेयर में इन्वॉयसिंग की सुविधा उपलब्ध हो सकती है। लेकिन, अगर कोई संगठन इन्वॉयसिंग का काम खुद नहीं करता है, तब इस तरह की सुविधाएं उस संगठन के लिए जरूरी नहीं होती हैं और वे इसे लागत को बढ़ाने वाले एक कारक की तरह देखते हैं। इसी प्रकार, सॉफ़्टवेयर का उपयोग करने वाले उपयोगकर्ताओं की संख्या को लेकर भी, अलग-अलग साधनों की अपनी सीमा हो सकती है। यह संगठन के लिए आवश्यक सॉफ़्टवेयर का उपयोग कर सकने की उनकी क्षमता को सीमित कर सकता है।

संगठन की ज़रूरतों के हिसाब से कस्टम-बिल्ट एप्लिकेशन (ऐप)  में बदलाव लाया जा सकता है। यानी ऐप पूरी तरह से, बिना किसी अतिरिक्त सुविधा या सीमा के संगठन की ज़रूरत के अनुसार काम कर सकता है। हालांकि कस्टम एप्लिकेशन के निर्माण में बहुत अधिक समय और संसाधन लग सकता है और यह महंगा भी पड़ता है। उदाहरण के लिए, तीन से छह सप्ताह में लागू किए जा सकने वाले सास प्लेटफ़ॉर्म की तुलना में संगठन की जरूरतों के आधार पर एक कस्टम प्लेटफॉर्म विकसित करने में महीनों का समय लग सकता है।

सही एप्लिकेशन का चयन

अपनी टीम के सदस्यों के साथ निम्नलिखित प्रश्नों पर चर्चा करने से कस्टम-बिल्ट एप्लिकेशन और पहले से मौजूद एप्लिकेशन में से एक को चुनने में मदद मिल सकती है:

1. किस स्तर के कार्यक्रम के लिए आप तकनीक का निर्माण करना चाहते हैं?

संगठनों द्वारा अपने कार्यक्रमों में तकनीक को शामिल करते समय इसके आकार को ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि यह एक महत्वपूर्ण घटक है। उदाहरण के लिए, किसी कार्यक्रम को छोटे या बड़े स्तर पर चलाया जाना ही, उपयोगकर्ताओं की संख्या, एकत्रित एवं संसाधित किए जाने वाले आंकड़ों की मात्रा और इस कार्यक्रम में आने वाली जटिलताओं को तय करेगा। ऐसा करना आपको आपके कार्यक्रम के लिए सबसे उपयुक्त एवं प्रभावी तकनीकी समाधान तय करने में मदद करेगा।

उदाहरण के लिए, यदि किसी संगठन में 20 फ़ील्डवर्कर मिलकर, पांच जिलों में डेटा एकत्रित कर रहे हैं तो ऐसी स्थिति में एक्सेल स्प्रेडशीट जैसे किसी मौजूदा सॉफ़्टवेयर से इसे आसानी से किया जा सकता है। कार्यक्रम का आकार और उसकी जटिलता बढ़ने के साथ एकत्रित और संसाधित किए जाने वाले आंकड़ों की मात्रा और इस तक पहुंचने वाले उपयोगकर्ताओं की संख्या में वृद्धि होती है।

ऐसी परिस्थितियों में, एक्सेल स्प्रेडशीट की तुलना में एक कस्टम एप्लिकेशन को चुनना अधिक उपयुक्त होगा। एक कस्टम एप्लिकेशन को इस प्रकार डिज़ाइन किया जा सकता है कि वह बड़ी मात्रा वाले डेटा को संभालने और उपयोगकर्ताओं की बड़ी संख्या को प्रबंधित करने में सक्षम हो। इसमें डेटा सत्यापन, उपयोगकर्ता की अनुमति और ऑटोमेटेड डेटा प्रोसेसिंग जैसी सुविधाओं को भी शामिल किया जा सकता है ताकि बड़े पैमाने पर डेटा को प्रबंधित करना आसान हो सके।

 एक आदमी छाया में लैपटॉप का इस्तेमाल कर रहा है और दूसरा आदमी सिलेंडर के साथ लाइन में खड़ा है_तकनीक एनजीओ
तकनीक को कार्यक्रम के साथ मिलाकर विकसित करने की जरूरत है। | चित्र साभार: ©बिल & मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन / प्रशांत पंजीयार

2.  किसी ऑपरेशन को मैनुअली करने में कितनी मेहनत और लागत आ रही है?

इस सवाल से आपको यह समझने में आसानी होगी कि तकनीक को शामिल करने से आपके संचालन की लागत और संगठन में हाथ से किए जाने वाले काम को कम करने में मदद मिलेग या नहीं। यदि इस तकनीक से किसी प्रक्रिया विशेष में लगने वाले समय में कमी आए तो बड़ी मात्रा में डेटा और फील्ड पर काम करने वाले लोगों की भारी संख्या के साथ काम करने वाले संगठनों के लिए यह उपयोगी हो सकता है। उदाहरण के लिए, वह संगठन जो पहले काग़ज़ों पर आंकड़े इकट्ठा करता है और फिर उसे एक्सलेरेटर स्प्रेडशीट में दर्ज करता है, उसे मोबाइल डेटा कलेक्शन ऐप के उपयोग से मदद मिल सकती है। मोबाइल ऐप से फ़ील्डवर्कर इलेक्ट्रॉनिक रूप से डेटा एकत्र कर इसे उसी समय प्रसारित कर सकते हैं। इससे डेटा एंट्री में लगने वाले समय और इस प्रक्रिया में होने वाली ग़लतियों में भी कमी आती है।

3. आपका कार्यक्रम कितना परिपक्व है?

यदि कोई कार्यक्रम प्रायोगिक स्तर पर है, या उस स्तर पर है जहां इसके डिज़ाइन को बार-बार बदलने की आवश्यकता हो सकती है तो इसके लिए कस्टम-बिल्ट तकनीक उपयोगी नहीं होगी। तकनीक को कार्यक्रम के साथ मिलाकर विकसित किए जाने की आवश्यकता होती है।  यदि कोई संगठन कार्यक्रम के शुरुआती दौर में ही कस्टम-बिल्ट तकनीक में निवेश करता है तो बहुत संभावना है कि बाद के चरणों में आवश्यक बदलावों को शामिल करने के लिए उसे अधिक समय और ऊर्जा का निवेश करना पड़े। इसलिए कस्टम-बिल्ट एप्लिकेशन को चुनना तब उपयोगी होता है जब कार्यक्रम की परिपक्वता एक निश्चित स्तर पर पहुंच जाए।

4. आपकी आंतरिक टीम कितनी तकनीकप्रेमी है?

यदि आप किसी तकनीक-आधारित एप्लिकेशन के निर्माण के बारे सोच रहे हैं तो आपकी टीम में तकनीक के कुछ जानकारों का होना बहुत आवश्यक है। ऐसा इसलिए क्योंकि निर्माण प्रक्रिया के शुरू होने से पहले और पूरा होने के बाद, दोनों ही स्थितियों में इसकी देखरेख से जुड़ा ढेर सारा काम होता है। ऐसे में आपकी टीम में किसी ऐसे व्यक्ति का होना फायदेमंद होगा जो सर्वर के रखरखाव का काम कर सकता हो और सॉफ़्टवेयर में संभावित बग से जुड़ी किसी समस्या को सुलझा सकता हो। इसके अलावा, संगठन की ज़रूरतों को लेकर उसकी समझ बेहतर होगी और वह एप्लिकेशन विकसित करने वाली टीम को प्रभावी ढंग से समझा-बता सकता है। यह संगठन को विकास प्रक्रिया और अंतिम उत्पाद को अपने मुताबिक बनवाने में मदद करता है।

अपना एप्लिकेशन बनाने की प्रक्रिया शुरू करना

इन प्रश्नों से आप अपने संगठन की तकनीकी ज़रूरतों का आकलन कर सकते हैं और इस बात का निर्धारण कर सकते हैं कि आपको कस्टम-एप्लिकेशन की आवश्यकता है या नहीं। यदि आपके संगठन ने कस्टम-एप्लिकेशन के निर्माण का फ़ैसला लिया है तो नीचे दी गई चेकलिस्ट आपके लिए सहायक हो सकती है:

एक नए एप्लिकेशन के निर्माण या पहले से मौजूद सॉफ़्टवेयर के इस्तेमाल में अपने संगठन के लिए अनुकूल विकल्प का चयन एक महत्वपूर्ण फ़ैसला है। यह निर्णय आपके कार्यक्रम के डिज़ाइन और परिपक्वता के साथ टीम की कुशलता पर भी निर्भर करता है। सौभाग्य से, तकनीकी समाधान आपको प्रयोग की सुविधा देते हैं। यदि आपका संगठन लागत, समय निवेश या कौशल की कमी के कारण पूरी तरह से एक नए तकनीक निर्माण को लेकर प्रतिबद्ध नहीं है तो उस स्थिति में यह अपने कार्यक्रम के शुरुआती चरण में मौजूदा सॉफ़्टवेयर के माध्यम से धीमी गति वाले प्रयोग कर सकता है। इससे टीम के सदस्यों में आत्मविश्वास बढ़ता है और संगठन की आंतरिक क्षमता में भी वृद्धि होती है।

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भारत के श्रम बल में महिलाओं के भागीदारी से जुड़े प्रयास क्या बताते हैं?

महाराष्ट्र के एक गांव में रहने वाली सविता सूरज उगने से सूरज ढलने तक अपने खेतों में काम करती हैं ताकि अपने बच्चों का पालन-पोषण कर सकें। सलोनी दिल्ली के एक बैंक में मैनेजर हैं और हर दिन घर से दफ़्तर और दफ़्तर से वापस घर आने-जाने के लिए उन्हें एक-एक घंटे की यात्रा करनी पड़ती है। सलोनी की घरेलू सहायिका सीमा उनके परिवार के लिए खाना पकाती हैं और उनके घर, कपड़ों और बर्तन की साफ़-सफ़ाई का काम करके, दो बेटों और तीन बेटियों वाले अपने परिवार का पेट पालती हैं। ये तीनों ही महिलाएं भारत के श्रम बल का हिस्सा हैं।

श्रम बल भागीदारी दर (लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन रेट – एलएफपीआर), आबादी का वह प्रतिशत है जो श्रम बल (काम करने, काम की तलाश करने या काम के लिए उपलब्ध लोग) का हिस्सा होता है। एलएफपीआर में स्वरोज़गार (उदाहरण के लिए खेती, वानिकी और मछली पकड़ने जैसे तमाम काम) करने वाले लोग, वेतनभोगी कर्मचारी या असंगठित क्षेत्र में मज़दूरी करने वाले और बेरोज़गार लोगों को शामिल किया जाता है।

भारत के श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी दर की स्थिति क्या है?

भारत में महिलाओं की कुल संख्या लगभग 66.3 करोड़ है जिसमें लगभग 45 करोड़ महिलाओं की उम्र 15–64 वर्ष के बीच है और वे श्रम बल की श्रेणी में आती हैं। बीते तीन दशकों में भारत के श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी की दरों (फ़ीमेल लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन रेट – एफ़एलएफ़पी) में तेज़ी से गिरावट आई है। विश्व बैंक, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) और आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीरियोडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे – पीएलएफएस, भारत का आधिकारिक श्रम बल सर्वेक्षण है, और 2017-18 से इसे हर साल किया जाने वाला सर्वे बना दिया गया है) की रिपोर्ट के अनुसार 1990 में यह 30.2 फ़ीसद पर था जबकि 2018 में लुढ़क कर अपने सबसे निचले स्तर 17.5 फ़ीसद पर पहुंच गया।

1990 के दशक से भारत के एफ़एलएफ़पीआर में गिरावट दर्ज की गई है। हालांकि, वर्ष 2020–21 में पिछले तीन वर्षों की तुलना में सभी आयु के लोगों के पीएलएफ़एस1 में सुधार देखा गया और यह 17.5 फ़ीसद से बढ़कर 24.8 फ़ीसद हो गया था। (15 वर्ष और उससे अधिक आयु की महिलाओं के लिए यह दर 2017-18 में 23.3 प्रतिशत थी जो बढ़कर 2020-21 में 32.8 हो गई)। वित्त मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया है कि इस सुधार के कई कारक हैं। इनमें प्रगतिशील श्रम सुधार उपाय, विनिर्माण क्षेत्र में रोज़गार के बेहतर मौके, स्व-रोज़गार करने वालों की बढ़ती हिस्सेदारी और औपचारिक रोज़गार के स्तर पर बढ़त शामिल है।

वैश्विक एफ़एलएफ़पीआर पिछले तीन दशकों से 52.4 फ़ीसद (15+ वर्ष आयु) के आंकड़े पर ही स्थिर बना हुआ है। हालांकि, विकासशील देशों और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में इस आंकड़े में एक बड़ा अंतर दिखता है। मध्य एशिया, उत्तर अफ़्रीका और दक्षिण एशिया में यह दर लगभग 25 फ़ीसद है जबकि पूर्व एशिया और सब-सहारन अफ़्रीका में लगभग 66 फ़ीसद। मज़ेदार बात यह है कि हमें पुरुषों के एलएफ़पीआर में किसी तरह की भिन्नता दिखाई नहीं पड़ती है और यह सभी अर्थव्यवस्थाओं में एक समान 80 फ़ीसद के आसपास के आंकड़े को छूता है।

भारत का एफ़एलएफ़पीआर कम क्यों है?

अनौपचारिकता

पीएलएफ़एस के अनुसार भारत में काम कर रही, काम की तलाश कर रही या काम करने के लिए उपलब्ध महिलाओं की संख्या यानी महिला श्रम बल लगभग 16.6 करोड़ है। कामकाजी महिलाओं की कुल आबादी में से 90 फ़ीसद महिलाएं अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्रों में काम करती हैं। ये महिलाएं या तो स्व-रोज़गार या फिर अनौपचारिक श्रम से जुड़ी हैं और मुख्य रूप से खेती और निर्माण के क्षेत्रों में काम करती हैं। इसका सीधा अर्थ यह है कि उन्हें शोषण, ख़राब कामकाजी परिस्थितियों, कहीं आने-जाने या बसने के विकल्पों की कमी और हिंसा के जोखिम जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। ये सभी परिस्थितियां महिलाओं को कार्यबल में प्रवेश करने से रोकती हैं और उन्हें हतोत्साहित करती हैं।

मेट्रो में खड़ी एक महिला। पीछे एक पोस्टर पर लिखा है ‘महिलाओं द्वारा किए गए 51 प्रतिशत काम का भुगतान नहीं किया जाता है’।
औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी में सुधार पर ध्यान केंद्रित करने वाले समाधानों से भारतीय महिलाओं और अर्थव्यवस्था को अत्यधिक लाभ होगा। | चित्र साभार: यूएन वीमेन / सीसी बीवाय

पितृसत्तात्मक सामाजिक मानदंड

कामकाजी महिलाओं को समाज से कम सहयोग मिलता है। इसकी जड़ पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था है जो यह तय करती है कि महिलाओं को अपनी पेशेवर इच्छाओं से अधिक घरेलू ज़िम्मेदारियों को प्राथमिकता देनी चाहिए। नई जगहों पर जाकर काम करने या बसने और सुरक्षा से जुड़ी बाधाओं के अलावा घरेलू कामों के अत्यधिक बोझ के कारण महिलाओं को अपना रोज़गार छोड़ना पड़ता है। हाल ही में आई नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाएं अवैतनिक घरेलू कामों में (संयुक्त राष्ट्र महिला द्वारा रिपोर्ट किए गए वैश्विक औसत 2.6 के मुकाबले) 9.8 गुना अधिक समय बिताती हैं। वैश्विक स्तर पर, देखभाल जैसे अवैतनिक कामों के कारण ही महिलाएं श्रम बल से बाहर रह जाती हैं। वहीं, पुरुषों को “शिक्षा, बीमारी या विकलांगता” के कारण ही इससे बाहर रहना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, सामाजिक मानदंडों की गहरी पैठ और अधिकारों की कमी के कारण महिलाओं के सामने उनके अपने रोज़गार संबंधी फ़ैसलों के लिए बहुत ही कम विकल्प उपलब्ध होते हैं।

शिक्षित महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह से घरेलू कामों में समर्पित है।

शिक्षित महिलाओं का एक बड़ा तबका गृहिणियों का है जो खाना पकाने, साफ़-सफ़ाई और बच्चों की देखभाल जैसे घरेलू कामों की जिम्मेदारी संभाल रहा है। उनके द्वारा किए जाने वाले तमाम कामों के लिए न तो उन्हें किसी प्रकार का भुगतान किया जाता है और न ही वे एफ़एलएफ़पीआर में ही शामिल होती हैं। इसके अलावा जीडीपी में भी उनके आर्थिक उत्पादन को शामिल नहीं किया जाता है। भारतीय स्टेट बैंक द्वारा 2023 में जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार अर्थव्यवस्था में अवैतनिक महिलाओं का कुल योगदान लगभग 22.7 लाख करोड़ रुपये है- जो भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 7.5 फ़ीसद है।

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत का एफ़एलएफ़पीआर उतना कम नहीं है जितना कि अनुमान लगाया जाता है और अवैतनिक कामों को इसमें शामिल किए जाने से इस आंकड़े में सुधार आएगा। इकनॉमिक एडवायज़री काउन्सिल द्वारा प्रकाशित एक पत्र इस बात पर प्रकाश डालता है कि पीएलएफएस “महिलाओं द्वारा कुक्कुट पालन, गाय-भैंस पालने और दूध दुहने जैसे उनके घरेलू कामों को आर्थिक रूप से उत्पादक कार्यों में शामिल नहीं करता है।” इस गलती में सुधार के बाद इकनॉमिक सर्वे 2022-2023 का ऐसा अनुमान है कि साल 2020-21 में एफ़एलएफ़पीआर 46.2 फ़ीसद था।

एक ओर हमें अवैतनिक देखभाल कार्य को मापने के तरीकों का पता लगाने, बेहतर अनुमान सुनिश्चित करने, और अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय सांख्यिकीय एजेंसियों से समय पर, उच्च गुणवत्ता वाले आंकड़े प्राप्त करने की आवश्यकता है। वहीं, दूसरी तरफ़  ऐसा करना घर में महिलाओं की भूमिकाओं से जुड़े पितृसत्तात्मक मानदंडों को और मजबूत कर सकता है और अपने घरों के बाहर निकल कर काम करने की इच्छा रखने वाली महिलाओं के लिए अवसरों को सीमित कर सकता है। 

अर्थव्यवस्था में आया संरचनात्मक परिवर्तन बेहतर एफएलएफपीआर की वजह है

हाल के पीएलएफ़एस आंकड़ों से, भारत में महिला भागीदारी दरों में फ़ेमीनाईजेशन यू हाईपोथिसिस दिखाई पड़ा है। इस परिकल्पना को 1990 से 2013 तक 169 देशों के क्रॉस सेक्शन के आधार पर तैयार किया गया था। यह दिखाता है कि आर्थिक विकास के शुरुआती दौर में महिला श्रम बल भागीदारी में गिरावट आई थी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए काम करने वाली महिलाओं के पास घर की आर्थिक स्थिति में लगातार सुधार आने से काम छोड़ने का विकल्प था। हालांकि, जैसे-जैसे आय में वृद्धि होती है, महिलाएं फिर से आर्थिक रूप से सक्रिय हो जाती हैं। आर्थिक गतिविधियों में यह वृद्धि अपने साथ प्रजनन दर और दोनों लिंगों में शिक्षा के अंतर में गिरावट लाती है।

महत्वपूर्ण सकारात्मक रुझान के बावजूद, पुरुषों की तुलना में महिलाओं की श्रम शक्ति की भागीदारी काफी कम है।

भारत के एफएलएफपीआर में हाल में हुए सुधार की वजह देश में हो रहे संरचनात्मक परिवर्तनों को माना जा सकता है। इन परिवर्तनों में प्रजनन दर में गिरावट और महिलाओं की शिक्षा में सुधार शामिल है। महत्वपूर्ण सकारात्मक रुझानों के बावजूद, पुरुषों (57.5 फ़ीसद) की तुलना में महिलाओं की श्रम बल की भागीदारी काफी कम है। इसके अलावा, यह महिलाओं की क्षमता का भरपूर इस्तेमाल न किए जाने के तथ्य को भी सामने लाता है क्योंकि भारत में सभी आयु वर्ग की कामकाज़ी महिलाओं में लगभग 70 फ़ीसद महिलाएं श्रम बल से बाहर हैं। एक दूसरी चिंता यह है कि महामारी के बाद श्रम बल में महिलाओं की हिस्सेदारी में बढ़त का कारण जरूरत के चलते ग्रामीण महिलाओं के स्व-नियोजित श्रमिकों के रूप में कार्यबल में शामिल होना है।

भारत में कार्यबल में पूर्ण महिला भागीदारी का स्वरूप कैसा होगा?

हमारे कार्यबल में महिलाओं की पूरी क्षमता का इस्तेमाल करने से सरकार और व्यवसायों द्वारा किए गए शुरुआती निवेश का कई गुना अधिक लाभ मिलेगा। मैकिन्जी ग्लोबल इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार, 2025 तक भारत सामान्य जीडीपी (77 करोड़ अमेरिकी डॉलर) के मुकाबले व्यापार में 18 प्रतिशत की वृद्धि हासिल कर सकता है। औपचारिक आर्थिक तंत्र में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी से ही भारत की श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी का वास्तविक आर्थिक, व्यावसायिक और सामाजिक मूल्य प्राप्त किया जा सकता है। अध्ययनों से पता चला है कि उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में, पेशेवर व्यवसायों में महिलाएं अपने घरेलू कामों के लिए लोगों को काम पर रखती हैं, जिसके परिणामस्वरूप अधिक लोगों के लिए रोजगार और आय का सृजन होता है। इसी तरह, भारतीय महिलाओं और अर्थव्यवस्था को उन समाधानों से अत्यधिक लाभ होगा जो औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी में सुधार पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इसमें अवैतनिक देखभाल कार्य को कम करना, पुनर्वितरित करना और इसके लिए भुगतान करना शामिल है।

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फंडरेजिंग के लिए ऑनलाइन माध्यमों का सही इस्तेमाल कैसे करें?

भारतीय सामाजिक सेक्टर में व्यक्तिगत स्तर पर दान करने वाले छोटे आकार के दाताओं के महत्व को पहचाना जाने लगा है, क्योंकि फंडिंग के अन्य स्रोतों में या तो वृद्धि की दर कम होती है या उनमें गिरावट आने लगती है। विदेशी फंडिंग – जैसा कि एफ़सीआरए के तहत मिलने वाले दान से पता चलता है – में हर साल कमी आ रही है। मसलन, साल 2016-17 में यह बीते साल की तुलना में 65 फ़ीसद कम थी। लोगों और कॉर्पोरेट्स द्वारा अपने आयकर रिटर्न की जानकारी देते हुए, दर्ज की गई 80जी कटौतियों के अनुसार, पिछले चार वर्षों में कॉर्पोरेट दान में केवल 15 फ़ीसद की बढ़त हुई है। वहीं, दूसरी तरफ़ व्यक्तिगत स्तर पर किए जाने वाले दान में 40 फ़ीसद की बढ़त देखी गई है। सभी प्रकार के दानों का लगभग 40 फ़ीसद हिस्सा व्यक्तिगत दान से ही आता है। वास्तव में यह आंकड़ा इससे अधिक हो सकता है क्योंकि सम्भव है कि कई लोगों ने अपने आयकर में मिलने वाली छूट पर अपना दावा नहीं भी किया हो।

इसके अतिरिक्त, ऐसे लोग भी हैं जो अपनी कुल आय का 10 फ़ीसद से अधिक दान करते हैं लेकिन 80जी कटौती का लाभ नहीं उठा सकते हैं। कुल मिलाकर, हो सकता है कि तमाम संस्थाओं को मिलने वाले कुल दान का 50 फ़ीसद से अधिक हिस्सा व्यक्तिगत दान से आता है।

व्यक्तिगत दान पहले से ही दान में मिलने वाली कुल राशि का 50 प्रतिशत से अधिक है।

हालांकि समाजसेवी संस्थाओं ने क्राउडफंडिंग प्लेटफॉर्म और अपनी वेबसाइटों, दोनों के जरिए छोटे दानदाताओं से धन जुटाना शुरू कर दिया है। लेकिन इसके बावजूद, अब भी इनमें से प्रत्येक चैनल और उसके सही और बेहतर इस्तेमाल को लेकर उनकी समझ सीमित है। लोग समझते हैं कि वे इनमें से किसी एक विकल्प का ही उपयोग कर सकते हैं। उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं होता है कि ये पारस्परिक रूप से अलग नहीं है। इनमें से प्रत्येक की अपनी भूमिका और उपयोग तय है और ये उनकी समाजसेवी संस्था के लिए बहुत काम आ सकते हैं।

क्राउडफ़ंडिंग को समझना

क्राउडफ़ंडिंग शब्द भ्रामक हो सकता है, विशेष रूप से उन समाजसेवी संस्थाओं के लिए जो इंटरनेट के उपयोग को लेकर सहज नहीं हैं। उन्हें लगता है कि वे कोई ऑनलाइन कैम्पेन बनाएंगे और एक ‘भीड़’- यानी कुछ लोगों का एक समूह – आगे आकर उन्हें फंड देगा। यह अपने आप में ही एक ग़लत अवधारणा है। अनजान लोगों से फंडरेजिंग कर पाना कभी-कभार ही कारगर हो सकता है – आपातकालीन मामले जैसे कि मेडिकल इमरजेंसी या कोई आपदा आदि अपवाद होते हैं। ख़ासकर वे मुद्दे जिन्हें लेकर मीडिया ने पहले से ही अच्छी खासी जागरूकता बना रखी है।

दरअसल, ज़्यादातर मामलों में, मीडिया की तवज्जो न मिलने पर क्राउडफंडिंग काम नहीं करती है। मुझे याद है एक बार जम्मू-कश्मीर और असम, दोनों ही राज्यों में एक ही समय पर बाढ़ आई थी। जम्मू-कश्मीर की बाढ़ पर व्यापक रूप से रिपोर्टिंग हुई थी जबकि असम की बाढ़ पर कहीं किसी प्रकार की खबर देखने को नहीं मिलती थी। इसलिए फंडरेजिंग के मामले में भी यही होता देखने को मिला था।

इसलिए, कुछ विशेष मामलों में ही क्राउडफंडिंग पूर्ण रूप से अपने शाब्दिक अर्थ में काम करता है। हालांकि, जब कोई समाजसेवी संस्था क्राउडफ़ंडिंग को अपने प्राथमिक ऑनलाइन चैनल के रूप में देखता है तो उसे निम्नलिखित कुछ बातें ध्यान में रखनी चाहिए:

आपका सहयोग करने वाले – बोर्ड के सदस्य, वॉलन्टीयर और साथी-सहयोगी आपको फंड देते ही हैं तो फिर इसे कैंपेन फ़ॉर्मेट में रखने की जरूरत क्यों है? एक संगठन के रूप में, क्राउडफ़ंडिंग अभियान चलाना बहुत ही जिम्मेदारी का काम है और इसमें बहुत अधिक समय और ऊर्जा लगती है। दरअसल, अपने सहयोगियों से अधिकतम लाभ प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका अपेक्षाकृत व्यक्तिगत होकर और समय देखकर संवाद करना है।

लैपटॉप पर काम कर रही एक महिला के हाथ_फंडरेजिंग ऑनलाइन
जब लोग आपको पहले से जानते हैं और दान देना चाहते हैं तो आपको उन्हें अपनी वेबसाइट से सीधे जोड़ना चाहिए।

मौजूदा समर्थकों को सीधे अपनी वेबसाइट पर दान देने का तरीका प्रदान करें

जब लोग आपको पहले से जानते हैं और दान देना चाहते हैं तो आपको उन्हें अपनी वेबसाइट से सीधे जोड़ना चाहिए। इससे उन्हें हमेशा याद रहेगा और वे अपनी इच्छानुसार और नियमित रूप से दान करते रह सकते हैं। साथी ही, ज़रूरत पड़ने पर अपने दोस्तों तथा परिवार के सदस्यों को भी इस बारे में बता सकते हैं।

अमेरिका में हुए एक शोध के मुताबिक, लोगों के लिए अपनी वेबसाइट पर दान देने की सुविधा प्रदान करने वाली समाजसेवी संस्थाओं को मध्यस्थ फंडरेजिंग वेबसाइटों की तुलना में 25 फ़ीसद अधिक; और क्राउडफ़ंडिंग मंचों की तुलना में 50 फ़ीसद तक अधिक दान मिलता है।

अपनी वेबसाइट पर ऑनलाइन दान करने की सुविधा उपलब्ध करवाने से आपको अलग-अलग तरीकों से मदद मिलती है।

क्राउडफ़ंडिंग मंच पर दान करने वाले लोग औसतन 2,000 रुपए जैसी छोटी धनराशि दान करते हैं। इन मंचों पर उनके द्वारा किए जाने वाले दान का सबसे बड़ा कारण होता है कि यह अभियान उनके दोस्तों द्वारा चलाया जाता है और उनके दोस्त मदद मांग रहे होते हैं। लोग इसे एक उपहार के रूप में देखते हैं, यह केवल इसलिए दिया जाता है क्योंकि उनके किसी जानने वाले ने मांगा है।

गिवइंडिया और दानमोजो, दोनों से जुड़े मेरे अनुभवों के आधार पर, मैं यह कह सकता हूं कि जब लोग सीधे संगठन की वेबसाइट पर देते हैं तो उनके दान की औसत राशि लगभग 5,000 रुपये होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने एक विशेष समाजसेवी संस्था को देने के लिए एक प्रत्यक्ष और सचेत विकल्प तैयार किया है और इसलिए यह उनके कुल दान का एक महत्वपूर्ण अनुपात होगा।

दूसरे शब्दों में, उपहार बजट और दान बजट के बीच का अंतर यही है। अपनी खुद की वेबसाइट पर ऑनलाइन दान करने की सुविधा उपलब्ध करवाने से आपको अलग-अलग तरीकों से मदद मिलती है।

मौजूदा समर्थकों को वैल्यू चेन के स्तर पर ले जाने के लिए क्राउडफंडिंग का उपयोग करें

तो क्राउडफंडिंग कहां काम करती है और किसी भी समाजसेवी संस्था को इसका उपयोग कब करना चाहिए?

कई समाजसेवी संस्थाएं मुझसे पूछती हैं कि “हमें नए दाता कैसे मिल सकते हैं? इस सवाल का मेरा जवाब है, क्राउडफंडिंग। अगर सही तरीके से किया जाए तो यह समाजसेवी संस्थाओं के लिए पैसे जुटाने का एक आसान और सस्ता तरीका है। समाजसेवी संस्थाओं को क्राउडफंडिंग को सोशल फंडरेजिंग या पीयर-टू-पीयर फंडरेजिंग के रूप में देखना चाहिए। एक ऐसा चैनल जो उनके मौजूदा समर्थकों को उनके व्यक्तिगत सामाजिक नेटवर्क के जरिए धन इकट्ठा करने में मदद करने के लिए प्रोत्साहित करता है। 

ऐसा इसलिए भी है क्योंकि जब लोग धन जुटाते हैं तो क्राउडफंडिंग वास्तव में प्रभावी हो जाती है। अधिकांश क्राउडफंडिंग प्लेटफॉर्म आपको बताएंगे कि व्यक्तिगत फंडरेज़र (समाजसेवी संस्थाओं या अन्य के लिए) अपने स्वयं के प्लेटफॉर्म पर 50-80 फ़ीसद तक धन जुटाते हैं।

इसलिए, अपने कर्मचरियों, वॉलंटियरों, बोर्ड के सदस्यों और कुछ अतिरिक्त करने की इच्छा रखने वाले दाताओं का रणनीतिक इस्तेमाल अपने लिए धन जुटाने में किया जा सकता है। वे अपने सामाजिक नेटवर्क के उन लोगों से सम्पर्क कर ऐसा करेंगे जिन तक आपकी पहुंच नहीं है। इस प्रकार वे लगभग निशुल्क रूप से नए दाता और दान प्राप्त करने में आपकी मदद कर सकते हैं। इसलिए क्राउडफंडिंग, समर्थकों को आपसे जोड़े रखते हुए आगे बढ़ने और उनके धन के अलावा अन्य तरीकों से उनका योगदान पाने का एक शानदार तरीका है।

ऐसा इसलिए भी है क्योंकि जब लोग धन जुटाते हैं तो क्राउडफंडिंग वास्तव में प्रभावी होती है।

हालांकि यह आसान नहीं है: ऐसा सम्भव है कि मौजूदा 100 दाताओं में से केवल एक आदमी ही आपके लिए फंडरेजिंग करने को तैयार हो। इसे शुरू करने का एक अच्छा तरीक़ा यह है कि उन्हें ऐसे मंचों के उपयोग के लिए प्रोत्साहित किया जाए जो स्वाभाविक रूप से फंडरेडिंग करते हैं। उदाहरण के लिए, मैरॉथन जिसे ज्यादातर लोग चैरिटी फंडरेजिंग से जोड़कर देखते हैं। इसके बाद, आप विशेष अवसरों जैसे कि जन्मदिन, विवाह और वर्षगांठ आदि पर व्यक्तिगत अभियान के रूप में आगे बढ़ा सकते हैं।

समाजसेवी संस्थाओं की भूमिका लोगों को फंडरेजिंग के तरीके के बारे में प्रशिक्षित करना है; और इसकी समझ विकसित करने के लिए उन्हें अपने स्तर पर फंडरेजिंग करने की ज़रूरत है। ऐसा करने से संस्थाओं को यह समझने में आसानी होगी कि ऐसे कौन से कारण हैं जिनसे लोग दान करने के लिए प्रेरित होते हैं। दूसरे, उन्हें अपने समर्थकों से ऐसा करने के लिए कहने के लिए तैयार रहना चाहिए। समाजसेवी संस्थाएं समर्थकों से अधिक मदद मांगने में हिचकिचाती हैं। उन्हें यह समझना चाहिए कि समर्थक हमेशा और मदद करना चाहते हैं लेकिन उन्हें इसकी जानकारी नहीं होती है कि वे कैसे या क्या कर सकते हैं। एक बार जब उन्हें तरीक़ा बता दिया जाता है तब वे इससे निजी स्तर पर जुड़ना चाहते हैं। समाजसेवी संस्थाएं हमेशा ही नए दाताओं को आकर्षित करने के बारे सोचती हैं लेकिन उससे पहले मौजूदा दाताओं के अधिकतम उपयोग के बारे में क्यों न सोचें।

अंत में, आपको अपने मौजूदा दानदाताओं से लगातार धन जुटाने के लिए अपनी खुद की वेबसाइट का उपयोग करना चाहिए। वहीं, क्राउडफंडिंग मंच का उपयोग समर्थकों के एक चैनल के रूप में आपके लिए फंडरेजिंग करने के लिए किया जा सकता है।

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भारत के भूमि क़ानून महिलाओं को भूमि अधिकार दिला पाने में सक्षम क्यों नहीं हैं?

दुनियाभर के देशों से तुलना करें तो भारत की महिलाएं सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे अधिक पिछड़ी हुई हैं। पिछले दिनों वैश्विक महामारी के कारण उनकी स्थिति पहले से बदतर ही हुई है। इसका पता इस बात से चलता है कि दुनियाभर में महिलाओं की भागीदारी और सुरक्षा को मापने वाले महिला शांति एवं सुरक्षा सूचकांक (वीमेन पीस एंड सेक्युरिटी इंडेक्स) में भारत 2019 के अपने 133वें स्थान से फिसलकर 2021 में 148वें पर पहुंच गया है। भारत में महिलाओं के ज़मीन पर मालिकाना हक़ को लेकर उपलब्ध मौजूदा आंकड़ा व्यापक नहीं है। लेकिन फिर भी यह एक निराशाजनक तस्वीर पेश करता है। आर्थिक रूप से सक्रिय महिलाओं में 80 फ़ीसद महिलाएं कृषि के क्षेत्र में काम करती हैं लेकिन उनमें से केवल 13 फ़ीसद महिलाओं के पास ही खेती की ज़मीन का मालिकाना हक़ है।

महिला सशक्तिकरण के साधन के रूप में भूमि अधिकारों का महत्व स्पष्ट है, क्योंकि यह महिलाओं को वित्तीय सुरक्षा, आश्रय, आय और आजीविका के अवसर प्रदान करता है। लेकिन भारत में भूमि से संबंधित मौजूदा कानूनी ढांचा महिलाओं के भूमि अधिकारों को कितनी गम्भीरता से लेता है? और वे कौन सी समस्याएं हैं जिन पर बात करने की आवश्यकता है? इन सवालों के जवाब जानने के लिए सेंटर फ़ॉर सोशल जस्टिस और वर्किंग ग्रुप फ़ॉर वीमेन एंड लैंड ओनरशिप के अनुभवों के आधार पर इस लेख में तीन प्रकार के भूमि क़ानूनों और महिलाओं के भूमि अधिकारों पर पड़ने वाले उसके प्रभाव पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।

राज्य में निहित भूमिवितरण का विनियमन

भूमि अधिग्रहण (उचित पुनर्वास और पुनर्स्थापन का अधिकार) अधिनियम, 2013, (एलएआरआर) और वन अधिकार अधिनियम, 2006, (एफआरए) इस क्षेत्र में दो अभिन्न कानून हैं। एलएआरआर में नागरिकों से किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण शामिल होते हैं वहीं एफआरए के तहत उन्हें भूमि के अधिकार प्रदान किए जाते हैं।

एलएआरआर ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1984 को निरस्त कर दिया जिसका वर्णन एक क्रूर कानून के रूप में किया जाता रहा है क्योंकि इसके तहत विकास के नाम पर किसानों के साथ बहुत अन्याय किया गया। इसकी बजाय एलएआरआर क़ानून ने कई प्रगतिशील प्रावधान पेश किए, जैसे कि प्रभावित होने वाले परिवारों से सहमति प्राप्त करने की अनिवार्यता और मुआवजे की ऊंची दर वगैरह।

एफआरए वन में रहने वाले आदिवासी समुदायों के हित के लिए बनाया गया क़ानून है। यह जंगल की भूमि तथा संसाधनों पर इन समुदायों के अधिकार की बात करता है जिन पर लोग अपनी आजीविका, आवास और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक ज़रूरतों के लिए निर्भर होते हैं। संसाधनों से भरपूर जंगलों का दोहन करने का प्रयास करने वाले उन पक्षों ने ऐतिहासिक रूप से इन समुदायों का शोषण किया है जिन पर ये भरोसा करते थे। इसलिए, एफआरए को इनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।

ये क़ानून कई तरह से महिलाओं के भूमि अधिकारों को बढ़ावा देते हैं।

1. भूमि अधिग्रहण (उचित पुनर्वास और पुनर्स्थापन का अधिकार) अधिनियम, 2013:

2. वन अधिकार अधिनियम, 2006:

नदी के किनारे चलती महिला किसान-ज़मीन अधिकार
दुनिया भर में भारत की महिलाएं सामाजिक एवं आर्थिक रूप से सबसे अधिक पिछड़ी हुई हैं। | चित्र साभार: एडम कोहन / सीसी बीवाय

निजी भूमि के हस्तांतरण के नियम

धार्मिक स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए भारत की मौजूदा प्रणाली के तहत देश के विभिन्न धार्मिक समुदायों पर विभिन्न प्रकार के विरासत कानून लागू होते हैं। भारत की ज्यादातर महिलाएं हिंदुओं, सिखों, बौद्धों और जैनियों को नियंत्रित करने वाले हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, (एचएसए) के दायरे में आती हैं।

2005 में एचएसए में हुए संशोधन से पहले, पैतृक सम्पत्ति पर केवल बेटों का ही अधिकार था। इस संशोधन में कहा गया है कि विवाहित और अविवाहित बेटियों को भी परिवार की पैतृक संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिलना चाहिए। इसके अतिरिक्त, इसने उस प्रावधान को भी ख़ारिज कर दिया जिसके तहत यदि पुरुष उत्तराधिकारी अपने हिस्से के विभाजन का फ़ैसला लेता है तो केवल अनुमति प्राप्त महिला उत्तराधिकारी को ही विभाजन पर अपने हक़ के दावे का अधिकार होता था। इस संसोधन से पहले, कृषि भूमि का हस्तांतरण बहुत ही पुराने और अत्यधिक भेदभाव वाले राज्यवार कार्यकाल क़ानूनों (टेन्योरियल लॉ) द्वारा संचालित होता था। इस संशोधन ने स्पष्ट रूप से कृषि भूमि को एचएसए के दायरे में भी लाया।

ये क़ानून कहां कम पड़ जाते हैं

1. समावेशी लेकिन पर्याप्त नहीं

हालांकि एलएआरआर उन लोगों के अधिकारों को मान्यता देता है जो पुनर्वास के लिए ज़मीन पर ही निर्भर होते हैं लेकिन उनके पास ज़मीन नहीं होती है। इस क़ानून के अनुसार, इलाक़े की ज़मीन पर मालिकाना हक़ रखने वाले 70–80 फ़ीसद परिवारों को अधिग्रहण के लिए सहमति देनी होगी। इस तरह ग़ैर-भूमि वाले परिवारों की महिलाओं को बड़े पैमाने पर पुनर्वासित तो किया जाता है लेकिन इसके लिए उनसे सहमति नहीं ली जाती है। ज़मीन पर मालिकाना हक़ रखने वाले परिवारों को मुआवजे, पुनर्वास और स्थान-परिवर्तन का अधिकार होता है। लेकिन भूमिहीन परिवार मुआवजे एवं पुनर्वास, दोनों के अधिकार से वंचित रहते हैं। मामूली रक़म, साल भर के अनुदान और आवास इकाई आदि वाले पुनर्वास पैकेज के अंतर्गत भी इन परिवारों को कोई अधिकार नहीं मिलता है।

एलएएआर एकल महिलाओं के अधिकारों को, पात्रता की एक अलग इकाई के रूप में मान्यता देता है। लेकिन जिस तरह से यह अधिनियम ज़मीन पर मालिकाना हक़ रखने वाले और भूमिहीन परिवारों के बीच अंतर करता है, उससे भ्रामक स्थिति उत्पन्न होती है। अधिनियम “किसी भी लिंग के वयस्क, फिर चाहे वह जीवनसाथी या बच्चों या आश्रितों के साथ हो या उनके बगैर,” को एक अलग परिवार मानता है। इसलिए, एक ज़मींदार परिवार में, अविवाहित वयस्क बेटी को एक अलग ग़ैर-ज़मींदार परिवार के रूप में देखा जा सकता है। इसके चलते, उसके माता-पिता को एक ज़मींदार होने के नाते मिलने वाले सभी अधिकारों से वह वंचित हो जाएगी।

2. समुदायों के रहने के तरीके को बदलना

अपने काम के दौरान, हमने देखा है कि बड़े पैमाने पर सामूहिकता पर ज़ोर देने वाले इलाकों में लोगों के वन अधिकारों को मान्यता दिए जाने से एक-एक व्यक्ति को महत्व देने वाला नजरिया बनने लगा है। एक समूह के रूप में काम करने से इन समुदायों की महिलाओं को बड़े पैमाने पर सामाजिक सुरक्षा मिलती है। इसलिए व्यक्ति केंद्रित सोच का उन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। सीमाओं के तय होने के कारण, भूमि आधारित प्राकृतिक संसाधनों तक उनकी पहुंच और उन पर नियंत्रण भी सवालों के घेरे में आ गया है। इससे परंपरागत रूप से, संसाधनों को साझा करने वाले समुदायों के बीच टकराव और तनाव की स्थिति पैदा हुई है। लॉकडाउन के दौरान, हमने गुजरात के डांग ज़िले के एक गांव का दौरा किया था जिसके पास एक ऐसा जलस्रोत था जिसका इस्तेमाल आसपास के सभी गांव करते थे। चूंकि लॉकडाउन के दौरान स्थानीय लोगों को अपने गांव की सीमाओं को पार नहीं करने का निर्देश दिया गया था। इसलिए, पीढ़ियों से इस पानी का उपयोग कर रहे लोगों से कहा गया कि वे अब अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कहीं और जाकर पानी खोजें।

कार्यान्वयन में आने वाली चुनौतियां

हालांकि वर्तमान में जिस तरह से कानून बनाए गए हैं, उसमें महिलाओं के लिए कई तरह की सुरक्षा मौजूद है। लेकिन इन्हें जिस तरह से लागू किया जाता है, उसमें आने वाली कठिनाइयों के कारण महिलाओं को भूमि अधिकारों का लाभ नहीं मिल पाता है।

1. सामाजिक दबाव

एचएसए द्वारा संचालित ग्रामीण महिलाओं से हमारी बातचीत के अनुभव के आधार पर हमने पाया कि अधिकांश महिलाओं को इस अधिनियम के तहत पैतृक सम्पत्ति में बेटियों के अधिकार जैसे क़ानूनों की जानकारी है। लेकिन खुद पर पड़ने वाले सामाजिक दबाव के कारण ये महिलाएं अपने अधिकार नहीं मांग पाती हैं। उदाहरण के लिए, महिलाओं को इस बात का डर लगता है कि अपना हक़ मांगने से परिवार के भीतर वैमनस्य की भावना पैदा हो सकती है। या फिर उनसे यह कहा जा सकता है कि उन्हें अपने हक़ की बात भूल जानी चाहिए क्योंकि उनकी शादी के लिए दहेज दिया गया था। महिला समूहों की बड़ी उपस्थिति वाले क्षेत्रों में महिलाओं के लिए परिस्थितियां अपेक्षाकृत अधिक अनुकूल हैं क्योंकि इन समूहों ने प्रचलित पितृसत्तात्मक मानसिकता को बदलने के प्रयास किए हैं। लेकिन ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत कम है और वे उनका एक हिस्सा भर हैं जिन्हें बेहतर संरचनात्मक समर्थन की आवश्यकता है।

2. विचाराधीन मुद्दे

एलएआरआर में कहा गया है कि मुआवजे की ज़मीन पति और पत्नी के नाम पर संयुक्त रूप से आवंटित किया जा सकता है। हालांकि, प्रावधान की भाषा में “सकता है” का प्रयोग विचार के लिए पर्याप्त जगह छोड़ता है और यह स्पष्ट नहीं करता है कि भूमि के दस्तावेजों में पत्नी का नाम दर्ज किया जाएगा। नतीजतन, ऐसा संभव है कि उस भूमि को पूरी तरह से केवल पति के नाम पर ही आवंटित किया जाए।

भारत की अनुसूचित जनजातियां, अपने जनजातीय प्रथा कानूनों को मानती हैं। ये क़ानून इन जनजातियों की महिलाओं के जीवन की वास्तविकताओं के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। उदाहरण के लिए, हमने दक्षिण गुजरात में जिस आदिवासी समुदाय के साथ काम किया था, उसमें दो विवाह करने की अनुमति है। जनजातीय प्रथा का विरासत क़ानून है, पति की सम्पत्ति में उसकी दूसरी पत्नी को भी बराबर के अधिकार देता है। दूसरी पत्नी को दिए जाने वाले अधिकार को इस बहुविवाह प्रथा के आधार पर मान्यता प्राप्त है जिस पर किसी और स्थिति में विचार भी नहीं किया जाएगा। हालांकि, हमारे अनुभव इस ओर संकेत करते हैं कि कभी-कभी इन समुदायों की प्रथाओं के प्रति संवेदनशील और ज़मीन स्तर पर काम करने वाले अधिकारी ही, अक्सर इन पर एचएसए लागू करने का प्रयास करते हैं। नतीजतन, वे दूसरी पत्नी का नाम दर्ज करने से मना कर देते हैं और उसे उसके अधिकारों से वंचित कर देते हैं।

3. राज्यविशिष्ट कृषि कानून बनाम एचएसए संशोधन

एचएसए संशोधन ने कृषि भूमि को अपने दायरे में लाने का काम किया है। लेकिन राज्य-विशिष्ट कृषि कानूनों और इसके बीच तनाव की स्थिति है क्योंकि संविधान की सातवीं अनुसूची संकेत करती है कि कृषि पर कानून बनाने का अधिकार केवल राज्यों के पास ही है। हालांकि केंद्र उत्तराधिकार पर कानून बना सकता है लेकिन अब भी कृषि भूमि के उत्तराधिकार से जुड़े कानून को लेकर विवाद चल रहा है।

परिणामस्वरूप, कृषि भूमि के उत्तराधिकार से संबंधित मामलों पर उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय परस्पर विरोधी रहे हैं। जहां एक ओर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि एचएसए को राज्य के कानून द्वारा हटा दिया जाएगा, वहीं दिल्ली उच्च न्यायालय और हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का मानना है कि राज्य के कानून को एचएसए द्वारा रद्द कर दिया जाएगा। दूसरी तरफ, सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि संशोधन के मुताबिक कृषि भूमि एचएसए के अंतर्गत आएगी, लेकिन कोर्ट ने अधिनियम और अल्पकालिक कानूनों के बीच संवैधानिक संघर्ष पर किसी तरह की टिप्पणी नहीं की। इस स्थिति में इस मुद्दे की क़ानूनी स्थिति अब भी अनिश्चित है और कृषि संपत्ति अभी भी महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण पुरातन काश्तकारी कानूनों के अनुसार हस्तांतरित की जा रही है। इस प्रकार राज्य-विशिष्ट कानूनों पर एचएसए की शक्ति की पहचान एक विधायी और न्यायिक प्राथमिकता होनी चाहिए।

कमियों को किस प्रकार दूर किया जा सकता है?

1. प्रशिक्षण और संवेदीकरण

महिलाओं के भूमि अधिकार, अक्सर भूमि कानूनों को लागू करने वाले निकायों की प्राथमिकता सूची में शामिल नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए, ग्रामीण विकास के लिए राष्ट्रीय और राज्य संस्थानों के क्षमता निर्माण कार्यक्रमों का मार्गदर्शन करने वाली ग्रामीण विकास और पंचायती राज के लिए 2015 की राष्ट्रीय प्रशिक्षण नीति में महिलाओं के भूमि अधिकारों को शामिल नहीं किया गया है। ये विभाग ग्राम-स्तर के सरकारी अधिकारियों और भूमि राजस्व मामलों के प्रभारी के प्रशिक्षण के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसी स्थिति में उनके प्रशिक्षण कार्यक्रमों में महिलाओं के भूमि अधिकारों को शामिल नहीं करने से यह बात तय होगी कि महिलाएं अपना अधिकार पाने में सक्षम होगीं या नहीं।

अधिकारियों को महिलाओं के भूमि अधिकारों के उद्देश्य के प्रति अधिक संवेदनशील होने की भी आवश्यकता है। न्यायिक अधिकारियों को प्रशिक्षित करने वाली संस्था, राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी की समीक्षा से पता चलता है कि हालांकि इसने 2018 से 2021 तक सात लिंग संवेदीकरण प्रशिक्षण सत्र और 130 कार्यशालाएं आयोजित की हैं। लेकिन इनमें से किसी में भी महिलाओं के भूमि अधिकारों से जुड़े विषयों को शामिल नहीं किया गया है।1

कानूनी सेवा प्राधिकरण (एलएसए) पिछड़े तबकों को कानूनी सहायता और प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। लेकिन उनके प्रशिक्षण निर्देशपुस्तिका (मैनुअल) में संपत्ति के अधिकारों वाले हिस्से में महिलाओं के भूमि अधिकारों का ज़िक्र भर शामिल किया गया है। इस प्रकार, इस मुद्दे पर उन लोगों को शिक्षित करने की आवश्यकता है जिनका काम यह सुनिश्चित करना है कि महिलाओं को उनका अधिकार मिले।

2. आंकड़े एवं लक्षित कार्यक्रम

भारत में महिलाओं की भूमिहीनता की सटीक सीमा निर्धारित करने के लिए महिलाओं के भूमि स्वामित्व पर लिंग संबंधी अलग-अलग डेटा की कमी इस मार्ग में आने वाली एक महत्वपूर्ण बाधा है। हालांकि नीति आयोग भूमि रिकॉर्ड के डिजिटलीकरण पर काम कर रहा है, लेकिन भूमि के स्वामित्व पर लिंग संबंधी अलग डेटा एकत्र करने का कोई उल्लेख नहीं है। महिलाओं की भूमिहीनता की असल स्थिति का पता लगाना महिलाओं की भूमि के स्वामित्व की समस्या को दूर करने का पहला कदम है। इस क्रम में सटीक डेटा एकत्र करने के प्रयासों की कमी उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्धता की कमी को दर्शाती है।

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा विकसित राष्ट्रीय संकेतक ढांचे में भूमि स्वामित्व पर लिंग संबंधी अलग-अलग डेटा को शामिल करने से राज्यों को इस अंतर को दूर करने की दिशा में काम करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। विशेष रूप से, ऐसा चाहने वाले जिलों के लिए लिंग संबंधी अलग-अलग डेटा के प्रावधान के साथ तय उद्देश्य और निरंतर निगरानी से, देश के कुछ सबसे अविकसित क्षेत्रों में महिलाओं की भूमिहीनता के मुद्दे को लेकर जाएगा।

गुजरात में, हम भूमि अभिलेखों को अपडेट करने वाले एक सरकारी कार्यक्रम के साथ जुड़े और अपडेट किए जा रहे सभी भूमि दस्तावेज़ों में महिलाओं के नाम शामिल करने की वकालत की। यदि एलएसए महिलाओं के भूमि अधिकारों को समान रूप से प्राथमिकता देते हैं और इस काम में महत्वपूर्ण संसाधनों को पूरी तरह से लगाते हैं, तो ऐसी स्थिति में वे अधिक प्रभावी ढंग से सहयोग करने में सक्षम होंगे।

अनाहिता सूर्या, आदित्य गुजराती, गाथा नंबूदरी, तन्वी सिंह और नूपुर सिन्हा ने इस आलेख को तैयार करने में अपना योगदान दिया है।

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फुटनोट:

  1. रीना पटेल, ‘जेंडर एंड लैंड राइट्स इन चेंज़िंग ग्लोबल कॉनटेक्स्ट्स’, 2022

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मुख्यधारा के मीडिया से भारत के आदिवासी समुदाय गायब हैं

मेरा जन्म पश्चिम बंगाल के झारग्राम ज़िले के बेलपहाड़ी नाम के गांव में हुआ था। मैं संथाल समुदाय से आती हूं जो झारखंड, ओड़िशा और पश्चिम बंगाल में बसने वाली एक खानाबदोश जनजाति है।

मैं चार साल की उम्र तक अपने माता-पिता और भाई-बहनों के साथ बेलपहाड़ी में रहती थी। उसके बाद मुझे और मेरी बहन को कोलकाता हमारे रिश्तेदारों के पास रहने के लिए भेज दिया गया था ताकि हम अपनी पढ़ाई-लिखाई कर सकें।

कोलकाता जाकर रहना मेरे लिए आसान नहीं था। कोलकाता शहर ने मुझे आराम और अवसर तो दिए थे लेकिन मुझे अपने माता-पिता और अपने समुदाय के लोगों की याद आती थी। भाषा भी एक चुनौती थी। संथाली मेरी पहली भाषा थी और हम घर पर इसी भाषा में बातचीत करते थे। लेकिन स्कूल जाने और पढ़ाई करने के लिए मुझे बंगाली सीखनी पड़ी।

इन्हीं दिनों मुझे रेडियो के बारे में पता चला। हर शाम, मैं ‘संताली अखरा’ नाम से आने वाला एक कार्यक्रम सुनती थी जिसमें संथाली भाषा के गीत और बातचीत आधारित कार्यक्रम आते थे। खेलते हुए मैं अपनी बहन के लिए न्यूज़रीडर और रेडियो जॉकी (आरजे) का रोल-प्ले करती थी। रेडियो जल्द ही मेरे लिए अपने समुदाय से जुड़े रहने का एक साधन बन गया। साथ ही, इसने कोलकाता में मेरे बड़े होने के दौरान महसूस किए गए अकेलेपन की भावना को दूर करने में भी मेरी मदद की।

बहुत लम्बे समय तक हमारे पास मनोरंजन के साधन के रूप में केवल रेडियो ही था। हालांकि बाद में हमारे घर में टेलिविज़न आ गया लेकिन रेडियो के प्रति मेरी दीवानगी में कमी नहीं आई। मुझे यह सोच कर रोमांच होता था कि कैसे आरजे अपना चेहरे दिखाए बिना ही इतने सारे लोगों से जुड़ जाते हैं। मैं सोचती थी कि मैं भी किसी दिन ऐसा ही कुछ करुंगी।

रेडियो तक का सफ़र

स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने अपने माता-पिता को इस बात के लिए राज़ी करने का प्रयास किया कि मैं मास कम्यूनिकेशन की पढ़ाई करने के बाद आरजे बनूं। लेकिन वे शुरू से ही इसके ख़िलाफ़ थे। वे चाहते थे कि मैं किसी ऐसे पेशे में जाऊं जिससे मुझे आर्थिक सुरक्षा मिले। लेकिन इससे मैंने सपने देखना नहीं छोड़ा। 

मैं एक शिपबिल्डिंग और इंजीनियरिंग कम्पनी में एप्रेंटिस पद की परीक्षा की तैयारी कर रही थी। तभी मेरी नज़र एक फ़ेसबुक पोस्ट पर गई जिसमें बताया गया था कि झारग्राम में रेडियो मिलन नाम से एक नए सामुदायिक रेडियो (कम्यूनिटी रेडियो) चैनल की शुरुआत हो रही है। इस पोस्ट में यह भी जानकारी दी गई थी कि उन्हें संथाली भाषा का आरजे भी चाहिए। उस समय मुझे इस बारे में ज़रा भी मालूम नहीं था कि इस नौकरी के मिलने का अर्थ था भारत की पहली संथाली आरजे होना। इस बात का महत्व मुझे तब समझ में आया जब मैंने एक लेख पढ़ा जिसमें मीडिया में विभिन्न भाषाओं और समुदायों के प्रतिनिधित्व के संदर्भ में मेरा ज़िक्र किया गया था।

मैंने सबसे पहले जिस कार्यक्रम का संचालन किया था उसका नाम ‘जोहार झारग्राम’ (नमस्ते झारग्राम) था। यह संथाली संस्कृति और प्रथाओं का उत्सव मनाने वाला कार्यक्रम था। इसमें समुदाय की वास्तविकता के विभिन्न पहलुओं जैसे उनके सपने, उनकी चुनौतियों आदि पर चर्चा होती थी। यह एक ऐसा मंच था जहां समुदाय के लोग भले ही भौतिक रूप से एक साथ न हों लेकिन यहां एक साथ आकर अपनी बातें और विचार साझा करते थे।

हालांकि यह एक आसान यात्रा नहीं थी। मैं कई सालों तक अपने गांव से दूर रही थी और वास्तविक रूप से संथाली जीवनशैली, भाषा या परम्परा से जुड़ी नहीं रह गई थी। उदाहरण के लिए हमारे कार्यक्रम के प्रसारण के बाद मुझे अपने ग़लत उच्चारण आदि से जुड़ी शिकायतें मिली थीं। मैं संथाली के लिए इस्तेमाल की जाने वाली ओल चिकी लिपि में मिलने वाले संदेश भी नहीं पढ़ पा रही थी। हालांकि शुरुआत में ये मेरे लिए हैरानी वाली बात थी लेकिन मैंने इसे खुद पर हावी नहीं होने दिया। मैंने अपना सारा ख़ाली समय मेरे अपने समुदाय संथाली जनजाति से जुड़ी चीजों के बारे में जानने में लगाया। इसके लिए मैंने विभिन्न स्त्रोतों का सहारा लिया। पढ़ने की बात की जाए तो उस के लिए बहुत स्त्रोत उपलब्ध नहीं थे लेकिन मैंने जनजाति के इतिहास के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ने की कोशिश की। हालांकि किताबों की बजाय अपने गांव में लोगों से बातचीत करने से मुझे ज़्यादा फायदा हुआ। मैंने अपने पड़ोसियों और गांव के अन्य लोगों से उनके जीवन के अनुभवों, उनकी उम्मीदों और सपनों के बारे में बातचीत की। मैं घंटों गांव के बाजार में बैठ कर लोगों को एक दूसरे से बातचीत करते सुनती थी। मैं अपने साथ अपना नोटबुक लेकर जाती और छोटी-छोटी बातों को लिखा करती थी। घर में मैं सक्रियता से भी रीति-रिवाजों और पर्व-त्योहारों जैसे कि बहा पोरोब आदि में भाग लेती थी जिसमें बसंत में खेती का नया साल शुरू होने के उपलक्ष्य में हम लोग बोंगों (संथाली धर्म में आध्यात्मिक प्राणियों/गुरुओं) को फूल चढ़ाते हैं और फसलों की सुरक्षा के लिए उनका आशीर्वाद मांगते हैं। मैंने सोहराई नाम के हमारे फसल उत्सव के बारे में भी जाना जो दीवाली के आसपास मनाया जाता है। इस पर्व में महिलाएं अपने घरों को भित्ति चित्रों से सजाती हैं और हम अपने मवेशियों की पूजा करते हैं। 

रीति-रिवाज, संस्कृति, और लोगों की भागीदारी और एक दूसरे के साथ बातचीत आदि ऐसी चीजें हैं जिनके प्रत्यक्ष अनुभव के बिना सीखना मेरे लिए असम्भव था। इससे इस मंच का उपयोग करने के मेरे संकल्प को मजबूती मिली और मेरा यह निश्च्य दृढ़ हुआ कि मुझे संथाली समुदाय से जुड़ना था और उनकी कहानियों और उनकी सच्चाई को ईमानदार और प्रामाणिक तरीके से दुनिया के सामने लाना था।

शिखा मंडी-मीडिया आदिवासी
रेडियो जल्द ही मेरे लिए अपने समुदाय से जुड़े रहने का एक साधन बन गया। | चित्र साभार: शिखा मंडी

समर्थन तथा जागरूकता के लिए रेडियो

‘जोहार झारग्राम’ के अपने इस कार्यक्रम में मैं अक्सर अतिथियों को आमंत्रित करती थी जो अपने समुदाय की जमीनी सच्चाइयों और उनके जीवन की समस्याओं पर प्रकाश डालते थे और उन पर बात करते थे। हमारे श्रोता भी हमें फ़ोन करते थे और कार्यक्रम में ही अपनी समस्याओं के बारे में हमें बताते थे। 

मुझे यह आज़ादी मिली हुई थी कि मैं अपने कार्यक्रम की पटकथा को अपने श्रोताओं के साथ की जाने वाली बातचीत और मेरी अपनी समझ तथा अनुभवों के आधार पर इस प्रकार तैयार करूं जिससे वे जुड़ाव महसूस कर सकें। मुझे अपने जिस प्रसारण को लेकर गर्व है और जो बहुत अधिक सफल भी रहा था, उसमें ‘इंतज़ार करने’ के आसपास बातचीत शामिल थी। मुझे यह विचार आया कि इंतज़ार की भावना सार्वभौमिक विषय है जिससे प्रत्येक व्यक्ति खुद को जोड़ता है क्योंकि हम सभी हमेशा ही किसी न किसी चीज के होने का इंतज़ार करते ही रहते हैं। यह बचपन से ही शुरू हो जाता है – पहले हम बड़े होने का इंतज़ार करते हैं, उसके बाद पढ़ाई पूरी होने और जीवन के बनने का इंतज़ार करते हैं। हम हमेशा ही इस बात का इंतज़ार करते हैं कि चीजें हमारे साथ या हमारे लिए घटित हों।

मेरा एक और पसंदीदा प्रसारण महिला दिवस पर हुआ कार्यक्रम था। मैंने इस विशेष कार्यक्रम को करने का फ़ैसला किया था क्योंकि मुझे लगा कि इस दिन को लेकर मच रहा शोर केवल एक दिखावा है और इसका कोई सार नहीं है। हालांकि सभी इस दिन को मनाते हैं लेकिन वास्तविकता में महिलाओं के लिए कुछ भी नहीं बदलता है। उदाहरण के लिए, मेरे इलाके में, महिलाओं को खासतौर पर शराब की बिक्री में लगाया जाता है। इस प्रसारण के माध्यम से, मेरा प्रयास ऐसी कई चीजों और ऐसे असंख्य अवसरों को लेकर जागरूकता फैलाना था जिनसे वे अब तक अनजान थीं। इसका उद्देश्य उन्हें विकल्पों की जानकारी देना था, और यह बताना था कि कैसे वे आमदनी के अपने स्रोत बनाने के लिए तमाम और तरह के काम कर सकती हैं।

इन बातचीतों पर आने वाली प्रतिक्रियाओं ने मुझे महसूस कराया कि मैंने हमारे समुदाय के लिए कुछ महत्वपूर्ण करने का प्रयास किया है। रेडियो के माध्यम से, एक बिना चेहरे की आवाज के रूप में, मैं बड़े पैमाने पर समुदाय से जुड़ने में सक्षम थी। यह कुछ ऐसा था जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। उनकी प्रतिक्रियाओं ने मुझे एहसास कराया कि मेरे इन कार्यक्रमों में अनगिनत लोग शामिल हो रहे थे। उन्होंने यह साबित किया कि मीडिया में विभिन्न आवाजों, संस्कृतियों और अनुभवों का कितना प्रभावशाली प्रतिनिधित्व हो सकता है। 

रेडियो मिलन में आरजे के रूप में काम करने के लगभग तीन साल बाद, मैंने 2020 में आगे बढ़ने का फैसला किया। मैं इस बात को लेकर स्पष्ट नहीं थी कि मैं आगे क्या करना चाहती हूं इसलिए मैंने अपने माता-पिता के साथ गांव में रहने का फ़ैसला किया। यह कोविड-19 महामारी वाला समय था और देश भर में अनिश्चिता और डर का माहौल था। हालांकि मेरे गांव में लोगों ने इस महामारी को स्वीकार करने से मना कर दिया था। उनका मानना था कि वे स्वस्थ थे और उनके अनुसार यह ‘शहरी बीमारी’ थी जिसका असर उन पर नहीं हो सकता था क्योंकि वे शहर से कटे हुए लोग हैं। खबरों के लिए एक विश्वसनीय स्रोत की अनुपस्थिति का मतलब था कि लोग कही-सुनी बातों पर भरोसा कर रहे थे। कई लोगों ने तो टीका लगवाने से भी मना कर दिया। मैंने कोविड-19 के बारे में फैलाई जा रही किसी भी गलत सूचना को ख़ारिज करने की कोशिश की और अपने आसपास के लोगों को टीका लगवाने के लिए मनाया। इस अनुभव ने मुझे सामुदायिक रेडियो के निर्माण के महत्व का एहसास कराया। यह जानकारी का ऐसा स्त्रोत था जिस पर समुदाय के सदस्य भरोसा करते थे और सुनते थे, और जो इस तरह की महत्वपूर्ण स्थितियों में ग़लत सूचनाओं की कड़ी को तोड़ सकता था।

भविष्य की आशा

मैं अब झारखंड के दुमका जिले में यहां के समुदायों में आज भी प्रचलित बाल विवाह सहित विभिन्न सामाजिक मुद्दों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए अपना ऑनलाइन रेडियो शुरू करने के लिए काम कर रही हूं। लेकिन इस चैनल के केंद्र में केवल संथाल जनजाति नहीं होगी। मैं अन्य जनजातीय समुदायों को भी शामिल करना चाहती हूं। कई लोग ‘आदिवासी’ शब्द का ग़लत अर्थ निकालते हैं। हमें अक्सर ही एक शब्दावली के अंदर इस प्रकार से समाहित कर दिया जाता है जैसे कि हम लोगों का एक सजातीय समूह हों। मेरा लक्ष्य इस धारणा को तोड़ना है। झारखंड और पश्चिम बंगाल में 30 से अधिक जनजातियां हैं और मीडिया के किसी भी तबके में इनका प्रतिनिधित्व शून्य है। मैं ऐसे सभी समुदायों को आमंत्रित करना चाहती हूं और उन्हें अपनी समस्याओं के बारे में बात करने का अवसर देना चाहती हूं। ऑडियो माध्यमों के अलावा, मैं विभिन्न संथाली परंपराओं जैसे धनुष और तीर के उपयोग आदि पर एक डॉक्यूमेंट्री बना रही हूं जिनका संथाली जनजाति के लिए सांस्कृतिक महत्व है। इस डॉक्यूमेंट्री में हम धनुष और बाण के उपयोग वाली परम्पराओं और उनके कारणों, उनकी ऐतिहासिक प्रासंगिकता और उनके निर्माण आदि जैसे तत्व शामिल कर रहे हैं। वे व्यक्ति के जन्म और मृत्यु के दौरान भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, जन्म के समय बच्चे की नाभि को तीर से काट दिया जाता है। हालांकि, युवा पीढ़ी इस तरह की प्रथाओं से परिचित नहीं है। हमारे समुदाय लगातार अपनी जड़ों से कट रहे हैं। मैं अपने समुदाय की परंपराओं और प्रथाओं को वीडियो और ऑडियो रूप में दर्ज करना चाहती हूं। मैं उन विषयों पर प्रकाश डालने का प्रयास करती हूं जिनकी उपस्थिति अक्सर ही लोकप्रिय मीडिया में शून्य होती है। समुदाय के लोग अभी भी इन परंपराओं के माध्यम से सीख सकते हैं लेकिन मुझे लगता है कि अन्य समुदायों को भी हमारी इन परम्पराओं के बारे में जानना चाहिए। और यह केवल मीडिया के माध्यम से ही सम्भव हो सकता है।

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बैंक महिलाओं के वित्तीय समावेशन को कैसे संभव बना सकते हैं

उत्तर प्रदेश के नयागांव मोहम्मदपुर गांव की फूलबानो ज़री का काम करती हैं। अपने तीन बच्चों के साथ वे गांव में ही रहती हैं। जब से फूलबानो के पति काम की तलाश में दिल्ली गए हैं, तब से पूरे घर की जिम्मेदारी उनके कंधों पर ही आ गई है। वे कहती हैं कि “राजेश नाम के एक बिज़नेस करेसपॉन्डेंट ने मुझे बताया कि मेरे कपड़ों या खाने के डब्बों में छिपाए गए पैसे या तो चोरी हो सकते हैं या फिर खर्च हो सकते हैं। उन्होंने ही मुझे बताया कि इतने कम पैसों को भी बैंक में जमा करवाया जा सकता है। ऐसा करना अधिक सुरक्षित है और लम्बे समय तक बचत करने से भविष्य में मुझे बैंक से कर्ज़ा लेने में आसानी होगी।” फूलबानो की पड़ोसन शरीना बी एक छात्र होने के साथ-साथ अपना घर भी सम्भालती हैं। वे भी औपचारिक बचत के महत्व को समझती हैं। शरीना का कहना है कि “केवल बचत से ही कोई आगे बढ़ सकता है और तरक़्क़ी कर सकता है। अगर मैं बचत करूंगी तो उससे मैं आगे की पढ़ाई कर सकती हूं।”

बचत महिलाओं को जरूरी आर्थिक सुरक्षा और आज़ादी दे सकती है और मुश्किल वक्त में उनकी मदद कर सकती है। हालांकि, भारत में फूलबानो और शरीना जैसी महिलाओं की कहानी आम नहीं है। 2024–25 में 5 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बनने का लक्ष्य रखने वाले इस देश को चाहिए कि यह वित्तीय समावेश (फायनेंशियल इन्क्लूजन) के जरिए महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण में निवेश करे। यदि महिलाएं उपयोगी और किफ़ायती वित्तीय उत्पादों और सेवाओं का लाभ उठा पाएंगी तो उनके सामने पैसे कमाने, सम्पत्ति बनाने और उनके जीवन से जुड़े फ़ैसले लेने के अधिक अवसर उपलब्ध होंगे। इसका सकारात्मक प्रभाव न केवल महिलाओं के जीवन पर पड़ेगा बल्कि उनके समुदाय और अर्थव्यवस्था पर भी होगा। इसके अलावा नियमित औपचारिक बचत से बीमा, पेंशन और क्रेडिट जैसी अन्य वित्तीय सेवाओं का भी लाभ मिलता है जिनसे महिलाओं में किसी बाहरी आपात स्थिति से उबरने की क्षमता विकसित होती है।

पुरुषों की तुलना में महिलाएं डिजिटल लेनदेन को लेकर कम सहज होती हैं।

प्रधानमंत्री जन-धन योजना (पीएमजेडीवाय) जैसी सरकारी पहलों का उद्देश्य पिछड़े समुदायों से आने वाले हर व्यक्ति को बैंकिंग सुविधाएं प्रदान करना है। यह उद्देश्य इस संदर्भ में भारत की विकास यात्रा के लिए महत्वपूर्ण है। विशेष रूप से, पीएमजेडीवाय ने लाखों देशवासियों को बैंक में पैसे जमा करने का अवसर दिया है। 2014 में अपने लॉन्च के बाद से इस योजना के तहत खुलने वाले बैंक खातों की संख्या मार्च 2015 में 14.72 करोड़ और अगस्त 2022 में 46.25 करोड़ हो गई थी।

यह भी गौर करने वाली बात है कि महिलाएं अपने पीएमजेडीवाय खातों का उपयोग बचत के अलावा, सरकारी पहलों से मिलने वाले लाभों के लिए भी सक्रियता से करती हैं। विमेंस वर्ल्ड बैंकिंग में हमारे शोध से इस बात की पुष्टि हुई है कि ग्रामीण तथा निम्न आय वर्ग की महिलाएं ऐसा मानती हैं कि बैंक उनके और उनकी छोटी बचतों के लिए नहीं होते हैं। इसके अलावा, इंक्लूसिव फ़ायनांस इंडिया रिपोर्ट 2022 के अनुसार 12.7 करोड़ वयस्कों ने पहली बार सीधे डिजिटल भुगतान सुविधा का इस्तेमाल कोविड-19 महामारी के दौरान किया था। रिपोर्ट यह भी बताती है कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं डिजिटल लेनदेन को लेकर कम सहज होती हैं।

वह क्या है जो महिलाओं को औपचारिक बैंकिंग से दूर रखता है?

बेशक, महिलाएं सहज रूप से बचत करने वाली होती हैं लेकिन सभी महिलाएं बैंकों में औपचारिक रूप से बचत नहीं करती हैं। इसके लिए वे अपने घरों में पैसा रखने जैसे पारंपरिक तरीक़ों पर ही भरोसा करती हैं। बचत करने, खातों को चलाने और क्रेडिट हिस्ट्री या अन्य वित्तीय उत्पादों जैसे माइक्रो-इंश्योरेंस, पेंशन या लघु ऋण आदि के जरिए वित्तीय मामलों से गहराई से जुड़ना महिला ग्राहकों की प्राथमिकता नहीं होती है। इसके कई कारण हैं, सबसे बड़ा तो यह है कि महिलाएं अपनी आमदनी को नगण्य मानती हैं, और इसीलिए उन्हें लगता है कि उनके थोड़े से पैसे बैंकों में जमा करने लायक नहीं हैं। पारम्परिक रूप से भी महिलाओं को आर्थिक फ़ैसले लेने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाता है और इसलिए स्वायत्ता को लेकर उन्हें संघर्ष करना पड़ता है। इससे अक्सर ही उन्हें बचत के अपने ऐसे तरीके विकसित करने पड़ते हैं जो उन्हें सबकुछ नियंत्रण में होने का एहसास करवा सकें। नतीजतन, महिलाएं बैंक को अपने लिए बचत करने की जगह के रूप में नहीं देखती हैं – विशेष रूप से ‘छोटी सी’ राशि के लिए – क्योंकि यह उन्हें अपरिचित और अपेक्षाकृत अधिक चुनौतीपूर्ण लगता है।

एक बीसी सखी दो अन्य महिलाओं से बात कर रही है_महिला बैंक
वित्तीय समावेशन से परे, बैंकों के लिए महिला ग्राहकों में निवेश करने की एक व्यावसायिक वजह भी है। | चित्र साभार: वीमेन्स वर्ल्ड बैंकिंग

उदाहरण के लिए, हमारे शोध से यह भी पता चला है कि ग्रामीण महिलाओं के अपने नाम से बैंक में खाते हैं लेकिन वे उनका उपयोग नहीं करती हैं। ग्रामीण महिलाओं के पास आमदनी के ऐसे कुछ ही स्त्रोत होते हैं जिन्हें वे अपना कह सकती हैं। अपने परिवार की खेती से जुड़ी गतिविधियों में शामिल होने और काम करने के बावजूद वे खुद को परिवार की आमदनी में योगदान देने वाले के रूप में नहीं देखती हैं। वे घर के आर्थिक तथा वित्तीय फ़ैसलों में भी सक्रियता से भाग नहीं लेती हैं और ना ही अपने पीएमजेडीवाय खातों में आने वाले डायरेक्ट बेनिफ़िट ट्रान्स्फ़र्स (डीबीटी) यानी सीधे आने वाले पैसों का लाभ ही उठा पाती हैं। सीधे शब्दों में कहें तो महिलाओं को बैंकिंग सेवाओं का कोई खास उपयोग या महत्व नहीं दिखाई देता है।

भारत के शहरों की स्थिति थोड़ी अलग है। शहर की महिलाएं काम से होने वाली आमदनी से अपना जीवनयापन करती हैं। साथ ही, वे अपने पीएमजेडीवाय खातों को विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत मिलने वाले लाभों के लिए उपयोग में लाती हैं। लेकिन आमतौर पर शहर की महिलाएं भी इन खातों में बचत के पैसे जमा नहीं करतीं हैं। हमारे शोध में यह बात सामने आई कि शहरी इलाक़ों में निम्न आयवर्ग की महिलाओं को बैंक में पैसे जमा करना सुविधाजनक नहीं लगता है और वे स्थानीय बिज़नेस करेस्पॉन्डेंट के बारे में नहीं जानती हैं। यह उनके व्यवहार और नज़रिए में बदलाव न आने का एक बड़ा कारण है।

बैंकों को महिलाओं में निवेश क्यों करना चाहिए?

वित्तीय समावेशन के अलावा बैंकों के लिए अपनी महिला ग्राहकों में निवेश करने का एक व्यावसायिक कारण भी है। हमारा अनुमान है कि यदि निम्न आयवर्ग की लगभग 10 करोड़ महिलाएं बैंक में बचत के पैसे जमा करवाना शुरू करती हैं तो उस स्थिति में बैंक 2 करोड़ लाभार्थियों को 10,000 करोड़ रुपए का ओवरड्राफ़्ट और जमा में 20,000 करोड़ रुपए के इनफ्लो की स्थिति में आ सकते हैं।

हमने मुंबई, दिल्ली और चेन्नई में महिलाओं को उनके पीएमजेडीवाय खाते के विभिन्न इस्तेमालों के लिए जन धन प्लस प्रोग्राम चलाया। हमने पाया कि जब पुरुष एवं महिलाएं दोनों ही सक्रिय रूप से पीएमजेडीवाय (हर साल कम से कम चार बार खाते में लगभग 500 रुपए जमा करना) खातों का उपयोग करते हैं, तब महिलाओं का औसत बैंक बैलेंस पुरुषों की तुलना में 30 फ़ीसद अधिक होता है और महिला ग्राहक का आजीवन रेवेन्यू भी पुरुष ग्राहक के आजीवन रेवन्यू से 12 फ़ीसद ज़्यादा होता है। ऐसा महिलाओं के खातों में अधिक पैसे होने के कारण होता है। इससे यह और भी जरूरी हो जाता है कि बैंक अपने महिला ग्राहकों को अधिक गम्भीरता से लेना शुरू करें।

महिलाओं के साथ भरोसेमंद बैंकिंग संबंध बनाना

हमें भारत के शहरी, ग्रामीण एवं उपनगरीय इलाकों के सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंक के साथ काम करने का अनुभव है। अपने इन अनुभवों के दौरान हमने पाया कि सबसे पहले घरों और सार्वजनिक जगहों पर जाकर महिलाओं से बातचीत करना जरूरी है। ताकि उनके लिए उनसे संबंधित एवं सांस्कृतिक रूप से अनुकूल मार्केटिंग अभियानों के तहत उनमें जागरूकता फैलाई जा सके। यह सबसे मुख्य काम है क्योंकि निम्न आय वाली ज़्यादातर महिलाओं को अपने घरों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं होती है लेकिन वे अन्य महिलाओं के साथ समूह बनाकर बाहर जा सकती हैं।

बैंकिंग करेसपॉन्डेंट (बीसी) और बीसी सखी (सामुदायिक स्तर पर महिला बैंकिंग एजेंटों के रूप में काम करने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन द्वारा नियुक्त) महिला पीएमजेडीवाय ग्राहकों तक पहुंचने में सबसे अधिक प्रभावी नेटवर्क साबित होते हैं। शहरी इलाक़ों में बीसी के सम्पर्क में रहने वाली 32 फ़ीसद महिलाएं बैंक में बचत के बारे में सोचती हैं, वहीं 18 फ़ीसद महिलाओं ने बचत की अपनी इस आदत को बरकरार रखा है।

हालांकि, बैंक अंतिम व्यक्ति तक बैंकिंग सेवाएं पहुंचाने के लिए बीसी के नेटवर्क विकास में निवेश तो कर रहे हैं। लेकिन फिर भी सभी बैंक करेसपॉन्डेंट्स के पास यह कौशल नहीं होता कि वे सरकार से मिलने वाले लाभों के हस्तांतरण के अलावा ग्रामीण इलाक़ों में महिला पीएमजेडीवाय खाता धारकों को जोड़ सकें। अधिकांश बीसी केवल कैश-इन और कैश-आउट मुहैया करवाने पर ही ध्यान देते रहे। जन सुरक्षा बीमा और पेंशन योजनाओं जैसे अन्य उत्पादों में महिलाओं को निवेश के लिए सक्रियता से प्रोत्साहित करने वाले बीसी भी संख्या में बहुत कम मिले।

बैंकों को बीसी तथा बीसी सखियों की क्षमता को बढ़ाने में निवेश करने की आवश्यकता है।

अच्छे से संवाद करने वाले और संबंधों को महत्व देने वाले बीसी, महिला ग्राहकों के साथ बेहतर सम्पर्क स्थापित करने में सक्षम थे और उन्हें अपने खातों में बचत का पैसा और बीमा या पेंशन जैसी योजनाओं में पैसे के निवेश को बरकरार रखने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। चाहे यह ग्रामीण इलाक़ों में बीसी केंद्र से संचालित होने वाला बीसी हो या फिर शहरी इलाक़ों में किराना दुकानों से संचालित होने वाले बीसी। महिला ग्राहकों तक लाभ पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मुख्य नेटवर्क के साथ भरोसेमंद रिश्ता बनाने की जरूरत है।

शहरी इलाक़ों में बीसी की सफलता दर तीन गुना अधिक है जहां वे निम्न-आयवर्ग की महिला ग्राहकों को अन्य वित्तीय सेवाओं में शामिल कर पाते हैं। बीसी सक्रिय रूप से महिला ग्राहकों को शामिल कर उन्हें बीमा और पेंशन की क्रॉस-सेलिंग करके बेहतर रेवेन्यू और कमीशन प्राप्त कर सकते हैं। इससे क्रेडिट हिस्ट्री बनाने, कर्ज और क्रेडिट प्राप्त करने और बचत को बढ़ावा देने में मदद मिलती है।

इसलिए बैंकों को बीसी तथा बीसी सखियों की क्षमता को बढ़ाने में निवेश करने की आवश्यकता है। इन एजेंटों, विशेष रूप से महिला एजेंटों को व्यापार प्रबंधन और निम्न आय वाले या ग्रामीण महिला ग्राहकों को सेवा देने के लिए लैंगिक संवेदनशीलता (जेंडर सेंसिटिविटी) का प्रशिक्षण दिया जाए। बैंकों और आजीविका मिशनों को बीसी और बीसी सखियों के पर्यवेक्षण का समर्थन करने के लिए निवेश करना चाहिए। साथ ही, उन्हें नेटवर्क को मजबूत करने और अधिक लोगों को बैंकिंग एजेंट बनने के लिए प्रोत्साहित करने के अलावा समय-समय पर उनकी सेवाओं को पहचानने के साथ-साथ उनके काम पर फीडबैक भी देना चाहिए।

महिला केंद्रित डिजाइनों की योग्यता

महिला-केंद्रित डिजाइन का नजरिया महिलाओं की ज़रूरतों को पूरा करने और बैंकों में बचत जमा करने में आने वाली बाधाओं से निपटने पर केंद्रित होता है। बचत करने के लिए एक सहज स्थान के रूप में बैंक का एक मेंटल मॉडल बनाना, महिलाओं के लिए सुलभ और विश्वसनीय चैनलों का उपयोग करके बैंकों में बचत करना आसान बनाना, बचत को सहज और फ़ायदेमंद बनाना, उन्हें औपचारिक रूप से बचत करने की आदत बनाने के लिए प्रेरित करना और याद दिलाते रहना, एक मजबूत महिला-से-महिला बैंकिंग नेटवर्क तैयार करना, और महिलाओं के लिए उपयुक्त और सरल बैंकिंग उत्पाद बनाना निश्चित रूप इस दिशा में लिए जाने वाले सही कदम हैं। डिजिटल तकनीकों का लाभ उठाने से भारत की अर्थव्यवस्था और लिंग-समावेशी वित्त की संभावनाओं को सामने लाया जा सकता है। अंत में, महिला ग्राहकों के व्यवहार में अंतर को समझने के लिए सेक्स-डिसएग्रीगेटेड आंकड़ों पर ध्यान देना सबसे महत्वपूर्ण है। इससे वित्तीय समावेशन को बेहतर करने में वित्तीय संस्थानों तथा नीति-निर्माताओं को मदद मिलेगी।

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समाजसेवी संगठन अपने कामकाज को डिजिटल कैसे बनाएं?

समाजसेवी संस्थाओं के लीडर और प्रोजेक्ट मैनेजर अपने संगठनों और परियोजनाओं के डिजिटलीकरण की बढ़ती आवश्यकता और अपने इरादों को सामने ला रहे हैं। बड़ी परियोजनाओं, ख़ासकर राज्य और केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों के साथ साझेदारी में काम करने वाली कई समाजसेवी संस्थाओं ने पहले से ही अपने कार्यक्रमों में तकनीक के इस्तेमाल को अपना लिया है। इसके बावजूद, हमने पाया है कि तकनीकी समाधानों या आंकड़ों से जुड़ी विश्लेषण प्रक्रिया में ज़्यादातर समाजसेवी संस्थाएं हिचकिचाहट दिखाती हैं। शायद ऐसा पूरी तैयारी न होने की भावना के कारण होता हो। आसान शब्दों में कहा जाए तो समाजसेवी संस्थाओं के लीडर्स तकनीक का बेहतर उपयोग करना तो चाहते हैं लेकिन अक्सर उन्हें इसके तरीक़ों की जानकारी नहीं होती है। कई लोग तकनीक को महंगे संसाधन की तरह देखते हैं। वे मानते हैं कि जब तक फंडर इसकी मांग न करे और इस खर्चे का वहन न करे, तब तक इसे टाला जा सकता है।

डिजिटलीकरण करने के आसान तरीके भी हैं

हमें समाजसेवी संस्थाओं के संदर्भ में डिजिटलीकरण (डिज़िटाइज़ेशन) को समझना आवश्यक है। हमारे अनुभव के आधार पर, हमने निम्नलिखित श्रेणियों का वर्गीकरण किया है जिसमें समाजसेवी संस्थाओं की लगभग सभी डिजिटलीकरण आवश्यकताएं शामिल हैं:

ऑफ़िस ऑटोमेशन

  1. पे-रोल और मानव संसाधन प्रबंधन
  2. लेखांकन और वित्त (अकाउंटिंग एंड फायनेंस)
  3. इन्वेंटरी या संपत्ति प्रबंधन
  4. ई-मेल और आंतरिक संचार

फंडरेजिंग और संचार

  1. वेबसाइट डेवलपमेंट
  2. सोशल मीडिया एंगेजमेंट
  3. ई-मेल और न्यूजलेटर कम्युनिकेशन
  4. खुदरा या व्यक्तिगत फंडरेजिंग
  5. क्राउडफ़ंडिंग अभियान

परियोजना (प्रोजेक्ट) और अनुदान प्रबंधन

  1. अनुदान प्रबंधन (फंड की उपलब्धता का पता लगाना, फंड का व्यय, उपयोग किये गये फंड की जानकारी आदि)
  2. मुख्य (कोर) परियोजना संचालन प्रबंधन
  3. परियोजना पर निगरानी (मॉनीटरिंग)
  4. टास्क मैनेजमेंट
  5. एम&ई आंकड़ा संग्रह और विश्लेषण
  6. भागीदारों के साथ उद्देश्यों, रणनीतियों और क्षमताओं का आकलन

हितधारक प्रबंधन

  1. डोनर को रिपोर्ट देना
  2. वॉलंटीयर एंगेजमेंट
  3. लाभार्थी एंगेजमेंट
  4. कर्मचारी ज्ञान एवं विकास

क्षेत्र-विशिष्ट उपयोग के मामले भी हैं, जैसे कि स्वास्थ्य के मामले में रोगी प्रबंधन या शिक्षा के मामले में शिक्षा और कक्षा प्रबंधन।

निवेश के क्षेत्र को पहचानने के लिए समीक्षा की आवश्यकता होती है ताकि सहकर्मियों की उन चुनौतियों और बाधाओं के बारे में जाना जा सके जिन्हें तकनीक के उपयोग से दूर किया जा सकता है। जहां एक तरफ़ सभी समस्याओं का त्वरित समाधान तकनीक को स्वीकार करना नहीं हो सकता है (नहीं होना चाहिए)। वहीं, इसका इस्तेमाल उचित स्थान पर करने से मदद अवश्य मिल सकती है। उदाहरण के लिए, क्या किसी क्षेत्र में डिजीटलीकरण करने से टीम के समय, खर्च या मेहनत को बचाया जा सकता है? क्या इससे टीम की उत्पादकता में वृद्धि आएगी? क्या यह तात्कालिक आधार पर कुछ महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराएगा? क्या इससे प्रोजेक्ट या संगठन का आकार बढ़ाने में मदद मिलेगी? किसी भी प्रकार की तकनीक का मूल्यांकन और उसकी प्राथमिकता तय करते समय ऐसे प्रश्न महत्वपूर्ण होते हैं और इन पर विचार किया जाना चाहिए।

क्या आपको अपने लिए एक नए सॉफ़्टवेयर का निर्माण करना चाहिए या किसी प्रमाणित सॉफ़्टवेयर को किराए पर लेकर उसका उपयोग करना चाहिए?

ऊपर ज़िक्र किए गए सभी बिंदुओं के लिए, बाजार में कई ऑफ-द-शेल्फ सिस्टम उपलब्ध हैं। हो सकता है कि ये सिस्टम आपकी जरूरत के मुताबिक स्पेसिफिकेशन्स, लुक और फील या यूज़र एक्सपीरियंस की आवश्यकताओं को पूरा ना करें, लेकिन अक्सर ये कम खर्चीले होते हैं। साथ ही, इन्हें नया सिस्टम बनाने की तुलना में आसानी से और कम समय में इस्तेमाल में लाने के लिए तैयार किया जा सकता है। चूंकि इनमें से ज़्यादातर सिस्टमों का अक्सर मुफ़्त ट्रायल वर्जन उपलब्ध होता है, इसलिए आप इस्तेमाल के पहले दिन से ही इनके बारे में जान सकते हैं। इसके अलावा, इनमें से अधिकतर मासिक सब्सक्रिप्शन पर उपलब्ध होते हैं। 

बड़े पैमाने पर और दीर्घकालिक कार्यक्रमों की चरण-दर-चरण प्रक्रियाओं द्वारा संचालित, बहुत अनुकूलित (कस्टमाइज) समाधानों से जुड़े मामलों में, ऑफ-द-शेल्फ सिस्टम आपकी विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम नहीं होते हैं। उत्पादों को संशोधित या बड़े पैमाने पर अनुकूलित करने की उनकी अपनी सीमाएं होती हैं। ऐसी स्थिति में अपनी जरूरत के मुताबिक कस्टम सॉल्यूशन तैयार करने के प्रयास और लागत को उचित ठहराया जा सकता है।

महिलाओं के हाथ में सर्वे के लिए दो डिजिटल डिवाइस_डिजिटल एनजीओ
आपके डिजिटल समाधान में आपकी टीम और भौगोलिक उपस्थिति के विकास के अनुरूप बड़े-पैमाने पर विकसित होने की क्षमता होनी चाहिए। | चित्र साभार: © बिल & मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन / प्रशांत पंजियार

डिजिटाइज़ करते समय याद रखने लायक़ सात बातें

1. जब तक आपकी प्रक्रियाएं परिपक्व नहीं हो जातीं, तब तक डिजिटाइज़ करें

यदि आपका संगठन, आपकी परियोजना या प्रक्रियाएं नई हैं या लगातार विकसित हो रही हैं तो आपको तब तक डिजिटलीकरण से बचना चाहिए जब तक कि आप एक स्थिर अवस्था में न पहुंच जाएं। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी भी प्रयास के प्रारंभिक चरणों के दौरान डिजिटलीकरण करने से भविष्य में उस पर दोबारा बहुत अधिक काम करना पड़ सकता है और पहले से तैयार किसी उत्पाद के लिए दोबारा अनुकूलित करना एक मुश्किल काम है जिससे कि समय के साथ टीम के लोग इसके प्रयोग से बचते हैं।

2. छोटी शुरूआत करें और एकएक कदम बढ़ाएं

यदि आप अपने संगठन में प्रक्रियाओं को डिजिटाइज़ करना चाहते हैं, तो प्रमुख सेवाओं (वर्टिकल्स) या प्रोजेक्ट से शुरुआत करें। आरंभिक चरण में शुरुआती परियोजनाओं पर ध्यान दें और उनके ठीक तरह स्वीकृत हो जाने के बाद उस तकनीक को आप अन्य टीम या परियोजनाओं में भी प्रयोग करने का प्रस्ताव दे सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि आपको एम&ई डेटा कलेक्शन, विश्लेषण और डैशबोर्ड पर विजुअलाईजेशन के लिए तकनीक की ज़रूरत है तो आप डेटा कलेक्शन को डिजीटाईज़ करने के लिए एक मोबाइल ऐप के प्रयोग के बारे में सोच सकते हैं। इसके बाद, डेटा कलेक्शन प्रणाली स्थिर होने के बाद आप डेटा विश्लेषण और विज़ुअलाइज़ेशन को डिजिटाइज़ कर सकते हैं। मूल तथा ठोस समस्याओं का समाधान पहले किया जाना चाहिए। इससे टीम के सदस्यों को समझने और सहज होने का भी समय मिल जाता है।

3. स्केल के लिए निर्माण

आपके सभी प्रकार के डिजिटल समाधान आपकी टीम और भौगोलिक उपस्थिति के विकास के अनुरूप विकसित होने में सक्षम होने चाहिए। और, यह आपके टेक वेंडर पर आपकी निर्भरता के बिना ही होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, बड़े आकार की टीम और परियोजनाओं को अक्सर भूमिका-आधारित या सीमित पहुंच वाले आंकड़ों की ज़रूरत होती है। इसे देखते हुए आपके द्वारा निर्मित तकनीक में सेल्फ़-कंफिगरेशन यूज़र प्रबंधन या अनुमति मोडयूल (परमिशन मोडयूल) होना चाहिए।

4. इसे स्थिर होने का समय दें

किसी भी नई आईटी प्रणाली (सिस्टम) से रातोंरात चमत्कार की उम्मीद न करें। इसकी आवश्यकता के अनुरूप व्यवहार में परिवर्तन को देखते हुए किसी भी नई प्रणाली को अक्सर ही प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। यह एक तथ्य है कि मानव का स्वभाव परिवर्तन का प्रतिरोध करता ही है। इन कारणों को देखते हुए हमेशा एक परिवर्तन प्रबंधन प्रणाली की योजना तैयार करनी चाहिए जो शुरुआत से ही आपके मुख्य हितधारकों को इसमें शामिल करे। ताकि वे इस बात को समझ सकें कि यह नई प्रणाली उनको किस प्रकार लाभ पहुंचाएगी। हमारे अनुभव में, किसी भी नई आईटी प्रणाली को स्थिर होने में कम से कम तीन से छह महीने लगते हैं।

5. अपनी स्वयं की तकनीकी परिपक्वता का आकलन करें और चुनौतियों का पूर्वानुमान लगाएं

ध्वनि में हम संगठनों को तकनीकों के वर्तमान उपयोग के आधार पर तीन श्रेणियों में रखते हैं।

आपके संगठन की तकनीकी परिपक्वता के आधार पर, आपकी टीमों को किस प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, इसका अनुमान लगाना और उस आधार पहले से तैयारी करना मददगार साबित होता है।

6. तकनीकी क्षमता निर्माण में निवेश करें

जब तकनीक को अपनाने की बात आती है, तो नेतृत्व टीम और मध्य स्तर के प्रबंधन की क्षमता का निर्माण करना महत्वपूर्ण होता है। यह उन्हें डिजिटलीकरण की जरूरतों को स्पष्ट रूप से समझाने में सक्षम बनाता है और संयुक्त रूप से अपने विक्रेताओं के साथ एक उपयुक्त समाधान की पहचान करता है। इसके अतिरिक्त, आईटी सिस्टम के उपयोग को बड़ी टीम के लिए सही संदर्भ में रखता है, और यह भी सुनिश्चित करता है कि उनकी टीम तकनीकी समाधान की विशेषताओं और सीमाओं को सही ढंग से समझती है।

7. आपके फंडिंग प्रस्तावों में आईटी सिस्टम के लिए बजट

हमने देखा है कि अधिकांश फंडिंग प्रस्तावों में आईटी समाधान के लिए अलग से बजट की मांग नहीं की जाती है और न ही इसे बजट की आवश्यकताओं वाली सूची में रखा जाता है। गिनती में कम ही रहने वाले डोनर्स से सीमित मात्रा में अनुदान लेने के लिए प्रतिस्पर्धा को देखते हुए इसे समझा जा सकता है। हालांकि, यह आदर्श रूप नहीं है क्योंकि अक्सर ही प्रस्ताव पारित हो जाने के बाद यदि टीम द्वारा किसी तरह के डिजिटाईजेशन की ज़रूरत महसूस होती है तो धन उपलब्ध नहीं होता है। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि आईटी पर होने वाला यह खर्च संगठन के पहले से ही तय ख़र्चों के लिए आवंटित धन के बजट से ही निकाला जाता है। नतीजतन या तो खर्च में कमी लानी पड़ती है या किसी और स्त्रोत से मिलने वाले फंड का इस्तेमाल करना पड़ता है। इसके बदले यदि फ़ंडर आईटी समाधानों के प्रति उत्साहित हों तो समाजसेवी संगठनों में अपनी ज़रूरतों को पूरा करने वाले नए समाधानों के प्रयास के लिए आत्मविश्वास की भावना पैदा होगी। 

यदि संगठन पहले अपनी जरूरतों को स्पष्ट रूप से समझने के लिए पर्याप्त समय देते हैं, अपनी खुद की तकनीक अपनाने की चुनौतियों का आकलन करते हैं, तकनीक अपनाने के लिए आंतरिक क्षमता का निर्माण करते हैं। साथ ही, जहां भी संभव हो, कुछ ऑफ-द-शेल्फ समाधानों को आजमाते हैं और इन समाधानों को स्थिर होने के लिए पर्याप्त समय देते हैं तो ऐसी स्थिति में डिजिटलीकरण बहुत कुशलता के साथ किया जा सकता है। फंडिंग संगठनों को चाहिए कि वे समाजसेवी संस्थाओं को इन तकनीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करें। लम्बे समय में यह बहुत अधिक लाभप्रद साबित होगा।

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कश्मीरी जनजातियों के सामने रोज़गार या शिक्षा में से एक को चुनने की दुविधा क्यों है?

जहां दुनिया परिस्थितिक तंत्र के संरक्षा और जलवायु अनुकूलन के बारे में जानने के लिए पशुपालकों का सहारा लेती हैं, वहीं जम्मू एवं कश्मीर में इस ज्ञान के संरक्षकों में शिक्षा और काम करने लायक़ साक्षरता की भी कमी है। फलस्वरूप ये जनजातियां अदृश्य एवं पिछड़ों का जीवन जीने के लिए मजबूर हैं।

जम्मू एवं कश्मीर को 2019 केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया गया। इस प्रदेश में कुल 11.9 फ़ीसद जनजातीय आबादी है। इसमें पशुपालकों यानी चरवाहों का प्रतिशत सबसे अधिक है। 2011 में सबसे बड़े समुदाय – गुज्जर-बकरवाल – में साक्षरता का प्रतिशत लगभग 22 फ़ीसद था। एक दशक बाद राज्य में शिक्षा पर काम कर रहे लोगों का कहना है कि यह बहुत कम रह गया है। यही स्थिति चोपन समुदाय की भी है जिन्हें अभी भी अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं मिला है। इस समुदाय द्वारा न केवल स्कूल में नामांकन का स्तर 50 फ़ीसद से कम है बल्कि उनमें से आधे बच्चे प्राथमिक शिक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। 

इन समुदायों के सदस्य अपने अधिकारों के लिए लड़ने, सरकारी नीतियों और योजनाओं का अधिकतम लाभ उठाने और स्वास्थ्य जैसी सार्वजनिक सुविधाओं का उपयोग कर पाने में असमर्थ हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे न तो व्यवस्था से बातचीत करने की भाषा जानते हैं और न ही उनके पास इतना आत्मविश्वास है। उनके लिए बाज़ार तक पहुंचना और उसे समझना मुश्किल है। इसके कारण वे अपनी उच्च-गुणवत्ता वाली पनीर (चीज़), भेड़ के ऊन और पारंपरिक चिकित्सा के ज्ञान से पैसा नहीं कमा पाते हैं।

कश्मीर के शोपियां के गुज्जर-बकरवाल युवा नेता शौकत चौधरी कहते हैं कि “हमारे लोग बादल फटने जैसी प्राकृतिक आपदा के कारण लगातार मरते रहते हैं और राहत कार्य या तो देरी से पहुंचता है या फिर कभी नहीं पहुंच पाता। यहां तक कि इस इलाक़े में काम करने वाली समाजसेवी संस्थाएं भी हमारे पास नहीं आती हैं क्योंकि हम सुदूर इलाक़ों में रहते हैं जहां पहुंच पाना आसान नहीं होता है।”

यह इलाक़ा प्रशासनिक एवं इंफ़्रास्ट्रक्चर की चुनौतियों वाले इलाक़े के रूप में जाना जाता है और इसका राजनीतिक उथल-पुथल का भी अपना इतिहास रहा है। बकरियों, भेड़ एवं भैंस पालने वाली इन समुदायों की जीवनशैली भी शिक्षा के लचीले मॉडल की मांग करती है।

मौसमी प्रवास

गुज्जर-बकरवाल और चोपन अपने मवेशियों के लिए घने चारागाहों की तलाश में गर्मियों के महीनों में अधिक ऊंचाई वाली जगहों पर चले जाते हैं। चूंकि भेड़ एवं बकरियां चराने वाले चरवाहे अपनी जगह छोड़ नई जगह जाते हैं तो उनके बच्चे भी उनके साथ हो लेते हैं। नतीजतन गर्मी के उन महीनों में उनकी पढ़ाई-लिखाई पीछे छूट जाती है।  

बारामूला के कटियांवाली इलाक़े के शिक्षक परवेज अहमद फामदा कहते हैं “मैं जिस सरकारी स्कूल में पढ़ाता हूं वहां के सभी बच्चे गुज्जर-बकरवाल समुदाय के हैं। हर साल अप्रैल से नवंबर-दिसंबर तक ये गुलमर्ग, पीर-पंजाल या हिंदूकुश के जंगलों में चले जाते हैं। गर्मी के मौसम में 50 में से केवल पांच छात्र ही स्कूल आते हैं।” परवेज़ भी इसी समुदाय से आते हैं और वे अधिक से अधिक बच्चों को शैक्षणिक व्यवस्था में लाना चाहते हैं। उनका कहना है कि प्रवास उनके नामांकन में एक बड़ी बाधा है और यह स्कूल में नामांकन करवाने वाले बच्चों की शिक्षा को भी बाधित करता है।

सर्दियों में वापस लौटने के बाद बर्फ़बारी के कारण ये बच्चे स्कूल वापस नहीं लौट पाते हैं। बड़गाम जिले में चरवाहों के बच्चों के लिए स्कूल चलाने वाले शिक्षक रऊफ मोहिउद्दीन मलिक कहते हैं कि “प्रत्येक वर्ष एक ऐसा समय आता है जब बर्फ़ के कारण सब कुछ बंद हो जाता है। नतीजतन ज़्यादातर शिक्षक अपने छात्रों को अधिक से अधिक चार से पांच महीने ही पढ़ा पाते हैं।” नामांकन लेने वाले बच्चों में लगभग 50 फ़ीसद बच्चे नौवीं कक्षा के पहले और अक्सर प्राथमिक स्कूल के बाद ही पढ़ाई छोड़ देते हैं।

पांच बच्चे कैमरे के सामने पोज करते हुए-कश्मीर शिक्षा
प्रवास नामांकन में एक बड़ी बाधा है और यह स्कूल में नामांकन करवाने वाले बच्चों की शिक्षा को भी बाधित करता है। | चित्र साभार: संदीप चेतन | सीसी बीवाई

आजीविका की चुनौती

रिपोर्ट्स बताती हैं कि, महामारी के दौरान कई बच्चों को स्कूल छोड़ना पड़ा क्योंकि उनके माता-पिता आर्थिक संकट से जूझ रहे थे। ज़्यादातर बच्चे अपने माता-पिता के साथ मिलकर काम करने लगे थे और परिवार की आय में अपना योगदान दे रहे थे जो पहले से ही बहुत कम थी। कश्मीर में आरटीआई एक्टिविस्ट राजा मुज़फ़्फर भट चरवाहों के बच्चों के लिए बने स्कूलों के साथ काम करते हैं। उनका कहना है कि “चोपन जिन मवेशियों को पालते हैं वे उनके अपने नहीं होते; इन मवेशियों के मालिक दूसरे लोग होते हैं। प्रतिमाह 10,000–12,000 रुपयों के लिए वे बरसात और कड़कड़ाती ठंड में भी भेड़ों को घास के मैदानों तक लेकर जाते हैं।

चोपन सरकारी योजनाओं के लाभार्थी नहीं हैं क्योंकि उन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता नहीं मिली है।

सरकारी स्कूलों में नामांकन करवाने और स्कूल जाने के लिए गुज्जर-बकरवाल बच्चों को सरकार की तरफ़ से छोटी सी छात्रवृत्ति मिलती है। परवेज़ जिस ‘स्मार्ट स्कूल‘ में पढ़ाते हैं वहां बच्चों को उनकी उम्र एवं लिंग के आधार पर 500 रुपए से 900 रुपए के बीच की राशि मिलती है। लेकिन यह राशि हमेशा पर्याप्त नहीं होती है। चोपन समुदाय के लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता है क्योंकि अभी तक उन्हें अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल नहीं किया गया है।

अनंतनाग नगरपालिका समिति की पार्षद और स्थानीय भाजपा नेता आलिया जान कहती हैं कि उनका ज्यादातर समय माता-पिता को अपने बच्चों को पहलगाम, अनंतनाग में उनके द्वारा स्थापित स्कूल में भेजने के लिए राजी करने में चला जाता है। “वे मुझसे कहते हैं कि उनके पास आमदनी नहीं है। वे एक स्तर तक सरकारी स्कूलों का खर्च उठा भी सकते हैं। लेकिन उनके पास अपने बच्चों को 10+2 की पढ़ाई करवाने या उन्हें कॉलेज भेजने के लिए पैसे नहीं हैं।”

एक शिक्षक और सामने छात्रों का एक समूह-कश्मीर शिक्षा
महामारी के दौरान कई बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी क्योंकि उनके माता-पिता आर्थिक संकट से जूझ रहे थे। | चित्र साभार: परवेज अहमद फामदा

लिंग भेद

इन समुदायों की लड़कियों को लड़कों की तुलना में शिक्षा के लिए अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। प्रवास के दिनों में परिवार के लोग अपने बेटों को दोस्तों या रिश्तेदारों या आवासीय स्कूलों में छोड़ने की इच्छा जताते हैं। लेकिन बेटियों के मामले में ऐसा करने को लेकर वे सहज नहीं हो पाते। चरवाहे समुदायों में महिलाओं के बीच साक्षरता दर देश और अन्य केंद्र शासित प्रदेशों के औसत से बहुत कम है। हाल ही में हुए एक सर्वे के अनुसार जम्मू एवं कश्मीर में महिला साक्षरता दर लगभग 67 फ़ीसद है जो कि पूरे भारत के औसत दर 70 फ़ीसद की तुलना में बहुत कम नहीं है। इस सामाजिक संकेतक के अनुसार केंद्र शासित प्रदेशों का प्रदर्शन देश के अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर है। राजा बताते हैं कि “कश्मीर में कई सारी महिलाएं कॉलेज एवं विश्वविद्यालय में पढ़ाई करती हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार और यहां तक कि दिल्ली में भी मुस्लिम समुदाय की लड़कियां इतनी आगे तक पढ़ाई नहीं कर पाती हैं। लेकिन जब चोपन एवं गुज्जर पहाड़ों में जाते हैं तब उनकी बेटियां स्कूल नहीं जा सकती हैं। और ऐसा इसलिए बिल्कुल नहीं है क्योंकि ये लड़कियां पढ़ना नहीं चाहतीं।”

लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई सबसे अंत में आती है।

आलिया का कहना है कि पहलगाम में प्रवास की दर कम हुई है क्योंकि पर्यटन से यहां के लोगों को साल भर आमदनी होती है। लेकिन यहां भी लड़कियों के लिए शिक्षा का मुद्दा सबसे अंत में आता है। वे बताती हैं कि “माता-पिता अपनी बेटियों को स्कूल नहीं भेजना चाहते क्योंकि इन लड़कियों को शादी के बाद अपने ससुराल वालों के साथ रहना होता है।” महामारी से पहले शुरू किए गए इस स्कूल में आलिया लिंग अनुपात में सुधार के लिए काम कर रही हैं। वे आगे बताती हैं कि “मैं परिवारों को समझाती हूं कि एक शिक्षित स्त्री दो परिवारों को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है। एक शिक्षित मां अपनी बेटियों की शिक्षा को सुनिश्चित करेगी।”

सामाजिक भेदभाव

सरकारी स्कूलों में चरवाहों या पशुपालकों के बच्चों की सामाजिक स्थिति भी बहुत ख़राब है। आलिया कहती हैं कि “यहां तक कि स्कूल के शिक्षक भी हमारे लोगों के लिए जंगली या देहाती जैसे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। किसी को भी अपनी पहचान को लेकर कभी शर्मिंदगी महसूस नहीं करवानी चाहिए।” राजा का कहना है कि “चोपन अपने चरने वाले मवेशियों की सुरक्षा के लिए रात भर जागते हैं। इस कारण दूसरे समुदाय के लोगों को उन पर भरोसा नहीं होता और वे इन्हें चोर पुकारते हैं।” परवेज़ अपनी बात जोड़ते हुए कहते हैं कि शर्मिंदगी से बचने के लिए छात्र अक्सर अपनी पहचान को छुपा लेते हैं। 

आलिया का मानना है कि चरवाहे समुदाय के बच्चों के लिए अलग से एक स्कूल की स्थापना से इस समस्या के निदान में मदद मिल सकती है। इस कलंक के बाद भी अपनी शिक्षा हासिल करने वाले परवेज़ कहते हैं कि उनकी संख्या में वृद्धि से उन्हें मदद मिलेगी। “उच्च शिक्षा वाले संस्थानों में, हमें अपने लोगों का ‘झुंड’ बनाने की जरूरत है।”

एक शिक्षक के चारों ओर छात्रों का एक समूह-कश्मीर शिक्षा
कश्मीर की समस्या मौजूदा शिक्षा कार्यक्रमों के खराब कार्यान्वयन और मूल्यांकन की है। | चित्र साभार: परवेज अहमद फामदा

हस्तक्षेप एवं चुनौतियां

सरकार ने गुज्जर-बकरवालों के लिए शिक्षा की इस कमी को दूर करने की कोशिश की है। लेकिन खराब योजना और कार्यान्वयन के कारण ऐसे हस्तक्षेप बहुत अधिक प्रभावी नहीं हो पाते हैं।

1. मोबाइल स्कूल और मौसमी शिविर

1970 के दशक में सरकार ने कई सारे मोबाइल स्कूल की स्थापना की थी जिसमें शिक्षकों को एक प्रवासी समूह के साथ यात्रा करने की अनुमति दी जाती थी। शिक्षकों को ऐसे टेंट दिए गए थे जिनका इस्तेमाल वे कक्षाओं के रुप में कर सकते थे। ये मोबाइल स्कूल 1990 तक सक्रिय थे लेकिन इलाके की अशांति के कारण यह पहल ठंडी पड़ गई। मौसमी स्कूल को 2002 में दोबारा शुरू किया गया। लेकिन इनकी संख्या इतनी नहीं थी कि ये सभी प्रवासी समूहों तक पहुंच पाते। वहीं इनमें से कई स्कूल ऐसे भी थे जो काग़ज पर तो सक्रिय थे लेकिन वास्तविक रूप से ठप्प पड़ चुके थे। अनंतनाग जैसे सुदूर इलाक़ों में लोगों का कहना है कि लगभग एक दशक से उन्होंने ऐसे किसी स्कूल के बारे में नहीं सुना है। राजा कहते हैं कि “मैं पिछले तीन सालों से उंचाई पर स्थित इन चरागाहों पर जा रहा हूं। लेकिन मैंने ऐसे किसी मोबाइल या मौसमी स्कूल को चलते नहीं देखा है।”

छात्रों के लिए मौजूदा व्यवस्था और बुनियादी ढांचे के साथ पढ़ाई करना चुनौतीपूर्ण है।

परवेज़ कहते हैं कि जहां ऐसे स्कूल चल रहे हैं वहां भी छात्रों के लिए मौजूदा व्यवस्था और बुनियादी ढांचे के साथ पढ़ाई करना चुनौतीपूर्ण है। छात्रों के पास दिन का काम ख़त्म करने के बाद का ही समय होता है और शाम में यहां बिजली नहीं होती है। इस इलाक़े में आवागमन की भी सुविधा नहीं है। ना ही प्रत्येक शिक्षक के पास टेंट है। यहां तक जो टेंट हैं भी, वे भी वाटरप्रूफ़ नहीं हैं। वे अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं “जंगल में मूसलाधार बारिश होती है। और जब बारिश होती है तब अंदर बैठकर पढ़ना-पढ़ाना असम्भव होता है।” यह भी एक बाधा है कि छात्र विभिन्न आयु-वर्ग के होते हैं। इनमें कईयों ने इससे पहले स्कूल का मुंह तक नहीं देखा होता है। रऊफ़ का कहना है कि “हमने ऐसी परिस्थितियां भी देखी हैं जब एक शिक्षक एक सात-वर्ष की आयु वाले, एक 10 वर्ष की आयु वाले और एक 15 वर्ष की आयु वाले छात्र को एक साथ पढ़ाने के लिए एक आदर्श पाठ्यक्रम तय करने के लिए संघर्ष कर रहा है।”

2. मौसमी शिक्षक

मौसमी स्कूल के लिए कश्मीर सरकार का शिक्षा विभाग शिक्षकों के रूप में वोलन्टीयर का चुनाव करता है। परवेज़ ने बताया कि “इन शिक्षकों की योग्यता प्राथमिक स्तर से आगे के छात्रों को पढ़ाने की नहीं होती है और वे सभी विषयों को भी नहीं पढ़ा सकते हैं।” रऊफ़ इस बात से सहमत होते हुए कहते हैं कि “इनमें से ज़्यादातर 12वीं कक्षा तक भी नहीं पढ़े होते हैं। राजनीतिक पहुंच वाले लोग ही अक्सर इन पदों पर भर्ती हो जाते हैं और वास्तव में कभी स्कूल आते भी नहीं हैं।” हाल तक इन वॉलन्टीयर को प्रति माह 4,000 रुपया मिलता था लेकिन अब उन्हें 10,000 रुपए मिलते हैं। हालांकि योग्य उम्मीदवार इस पद में कम ही रुचि दिखाते हैं क्योंकि इसमें रोज़गार सुरक्षा नहीं है।

3. आवासीय विद्यालय

1991 में पांचवीं कक्षा पास करने वाले जनजातीय छात्रों के लिए आवासीय विद्यालय के स्थापना की पहल हुई। परवेज़ का कहना है कि “ये हास्टल अक्सर ही भ्रष्टाचार के मुद्दों से घिरे रहते थे। उनका संचालन बहुत ही बुरा था और अक्सर ही न तो वहां बिजली होती थी और न ही इनकी स्थिति ऐसी होती थी कि उनमें कोई रह सके। सौभाग्यवश तब से अब तक स्थिति में सुधार आया है।”

हालांकि इन हॉस्टल की संख्या भी पर्याप्त नहीं है। दो साल तक अधिकारियों के पास चक्कर लगाने के बाद शौक़त ने शोपियां में एक हॉस्टल शुरू करने के लिए सरकार को तैयार कर लिया है। शौक़त ने कहा कि “यह हॉस्टल 2021 से चल रहा है और इसमें गुज्जर-बकरवाल समुदाय के 125 छात्र स्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं।” इन हॉस्टलों में सीमित संख्या में सीट होती हैं।

जहां कुछ जिलों में गुज्जर-बकरवाल लड़कों के लिए हॉस्टल की सुविधा है वहीं इस समुदाय की लड़कियों के लिए ऐसी कोई सुविधा नहीं है। आलिया ने बताया कि “छात्राओं को अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए बहुत दूर तक की यात्रा करनी पड़ती है।” ऐसा नहीं है कि व्यवस्थाएं ठीक से काम नहीं कर रही हैं। कश्मीर की समस्या है मौजूदा शिक्षण कार्यक्रमों का ख़राब क्रियान्वयन और मूल्यांकन।

मोबाइल स्कूल एवं आवासीय विद्यालय अच्छे विचार हैं लेकिन उसके लिए बेहतर इंफ़्रास्ट्रक्चर और सुप्रशिक्षित एवं अच्छे वेतन पाने वाले शिक्षकों की आवश्यकता है। सरकार अधिक महिलाओं को पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित कर सकती है क्योंकि स्कूल इस बात की पुष्टि करते हैं कि छात्र उनसे सीखने में अधिक सहज हैं। इसके अलावा, वे पुरुषों की तुलना में नौकरी में अधिक समय तक टिकी रहती हैं।

समुदायों के शिक्षा विशेषज्ञों ने वैकल्पिक पाठ्यक्रम भी प्रस्तावित किए हैं जो पशुपालक समुदायों के लोगों की आजीविका से मेल खाते हैं। उन्हें लगता है कि बच्चों को स्कूलों में उद्यमिता का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए ताकि वे पशुपालन के अपने पारंपरिक ज्ञान को बाजार की समझ के साथ जोड़ सकें। कश्मीर के पशुपालक अपने लिए एक बेहतर कल की योजना बनाने में शामिल होने को तैयार हैं, लेकिन क्या कोई उनकी बात सुन रहा है?

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